भ्रष्ट गोबर के कीड़े
प्रमोद तिवारी
पार्षदों ने फिर से अपना असली चेहरा शहर को दिखाया है. दल चाहें कोई हो विधान परिषद के चुनाव में चुने हुए प्रतिनिधियों ने एक प्रतिनिधि को चुनने के बदले खुले आम पैसे लिये. २६ जनवरी के सप्ताह में उद्घाटित होने वाला यह ऐसा शर्मनाक सत्य है कि इसके बाद स्थानीय निकाय जैसी गणतांत्रिक संस्था भिण्डी बाजार से ज्यादा कुछ नहीं. कानपुर में सभासदों या पार्षदों के बिकने का कोई यह नया चलन नहीं है. आज के कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल जब पहली बार १९८९में शहर के मेयर (नगर प्रमुख) बने थे उस चुनाव में जनता सीधे वोट की हकदार नहीं थी. नगर प्रमुख का चुनाव निर्वाचित सभासदों को करना था. याद आता है वह चुनाव..! सभासद बिकने के लिए दर-दर भटक रहे थे. लगभग १००२ सभासदों वाले सदन में ९० फीसदी से ज्यादा सभासदों ने अपना वोट पैसे लेकर दिया था.उस चुनाव में केवल भाजपा ने टिकट बांटे थे इसलिए किसी अन्य दल का निर्वाचित सभासद पर कोई दबाव भी नहीं था. भिण्डी बाजार का आलम यह था कि जने भिण्डी नहीं था वह भी भिण्डी बनने को आमादा था. अर्थात् भाजपा के सभासदों तक ने भाजपा को ही वोट देने के पैसे लिये थे. पैसे न मिलने पर पाला बदल लिया था. जायसवाल जी इस खरीद फरोख्त वाले चुनाव में भाजपा के धन्ना सेठ प्रत्याशी ईश्वर चंद्र गुप्त पर काफी भारी पड़ गये थे. सभासदों की खरीद फरोख्त पर शहर ने बेहद घृणात्मक प्रतिक्रिया दी थी. पत्रकार, साहित्यकार व समाजसेवी स्वर्गीय प्रतीक मिश्र ने सभासदों की इस बेहयाई के खिलाफ शहर भर में थू-थू अभियान चलाया था. पूरे शहर ने उस दौर के सभासदों पर जमकर थंूका था लेकिन इन बिकाऊ प्रतिनिधियों पर कोई $फर्क नहीं पड़ा. श्रीप्रकाश जायसवाल जी ने नगर प्रमुख का पद कार्यकाल पूरा होने के पहले ही छोड़ दिया था. फलस्वरूप पुन: चुनाव हुए. इस बार सरदार महेन्द्र सिंह ने झोली खोली और एक बन फिर सभासदों से उनके वोट की कीमत पूछ डाली. महेन्द्र सिंह भी आसानी से मेयर हो गये. आपको बताएं सभासदों की खरीद-खरीद कर कांग्रेसी मेयर बनाने की सफल बाजारू रणनीति का कुशल संचालन उस समय किसी और के हाथों नहीं इन्हीं विधायक अजय कपूर के हाथों हुआ था जो आज पार्षदों के बिकने पर शहर कमेटी को लताड़ लगाने से नहीं चूक रहे. १९८९ के उस चुनाव की शहर में ही नहीं पूरे प्रदेश में जबरदस्त थू-थू हुई थी. इसी चुनाव के बाद से मेयर (नगर प्रमुख) का चुनाव सीधे जनता से हो गया था. मेयर जब जनता से सीधे-सीधे चुना जाने लगा तो खरीद फरोख्त का कोई मौका बना नहीं..फिर निर्वाचित सभासदों ने शहर विकास मद में अपना शेयर लगा लिया. ठेकेदारों से कमीशन खा-खाकर शहर की नागरिक सुविधाओं की बखिया उधेड़ दी. वर्ष दो हजार पांच में जब अनिल शर्मा कानपुर के मेयर थे हेलो कानपुर ने नगर निगम सदन के सभी सदस्यों की कारगुजारी पर एक व्यापक अध्यन कराया था. उस अध्यन का निष्कर्ष चौंकाने वाला था. लगभग १०० सभासदों में से ८५ से ऊपर सभासद ऐसे थे जो खुद या फिर छद्म नामों से सीधे-सीधे नगर निगम की ठेकेदारी में लिप्त थे. नब्बे के दशक में जब लगभग ढाई दशक बाद स्थानीय निकाय व पंचायती राज की बहाली हुई थी तो सभी को उम्मीद जागी थी कि सभासद, ग्राम प्रधान, नगर पालिका अध्यक्ष, नगर प्रमुख व मेयर आदि के अस्तित्व में आ जाने से अब आम जनता के जीवन से सीधे जुड़ी सुविधाओं में सहजता आयेगी. लेकिन दुर्भाग्य जब तक स्थानीय निकाय व पंचायती राज की बहाली हुई कानपुर नगर व देहात के पानी में राजनीतिक भ्रष्ट आचरण अमृत की तरह धुल चुका था. केवल दो दशकों के दरमियान शहर की राजनीति ने बेहयाई की जो करवट बदली उससे शहर हित में किसी संजीदा परिणाम की उम्मीद करना बेमानी है.अंत में आपको एक बात और बता दूं कि केवल पार्षद या ग्राम प्रधान ही बिकाऊ या भ्रष्ट नहीं है. इन्हें जो लोग पैसा देकर एमपी, मेयर या चेयरमैन बनते हैं वे भी इसी बिकाऊ और भ्रष्ट गोबर के कीड़े हैं. कुल मिलाकर कवि रामेन्द्र त्रिपाठी की बात सही है..राजनीति की मण्डी बड़ी नशीली है, इस मण्डी में सबने मदिरा पीली है.1
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