शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

नारद डाट कॉम

धन्य है प्रभू!

दुनिया में कुछ लोगों को ऊपर वाला अपने हाथों से गढ़  कर भेजता है। ऐसे लोग जब धरती पर अवतरित होते हैं तो कुछ न कुछ ऐसा करते हैं कि ईश्वर भी अपनी कारीगरी पर मुग्ध होता होगा। मिजोरम राज्य के गांव वाक्तवांग के रहने वाले चाना उस्ताद परमपिता परमात्मा की अदभुत कृति हैं। आज जहां दुनिया के अधिकांश लोग एक पत्नीधारी हैं और उसी में बोंय बोली जा रही हैं तब उनकी ३९ बीवियां हैं जिनसे ९४ बच्चे भी हैं। यहां उन्होंने परिवार नियोजन का पूरा ख्याल रखा है एक बीवी से दो या तीन उत्पाद ही किये हैं।
     उनके बच्चों ने भी अपने पिता के आदर्शों का पूरा ख्याल रखा है मात्र वो भी ३३ बच्चों के उत्पादनकर्ता बन बैठे हैं। याना गुरु का ये महान कार्य हम सड़हे लोगों को एक नहीं बल्कि कई सन्देश देता है। पहला बीवी से सताये लोगों के लिये है जिनसे एक नहीं सम्भल रही, वहां पूरी ३९ एक ही धागे से बंधी हुई हैं और तो और उन्होंने अभी भी हार नहीं मानी है। ४०वीं भी रखना चाहते हैं।
     उसके लिये अमेरिका तक की यात्रा करने को सहर्ष तैयार हैं। दूसरा उन लोगों के लिये है जो सिर्फ २-३ बच्चे पैदा करने के बाद हांफने लगते हैं। यहां ९४ के बाद भी दम उखडऩे का नाम नहीं ले रहा है। तीसरा उन लोगों के लिये है जो एक के अलावा भी औरत रखते हैं। इनके यहां हमेशा कलह बनी रहती है।
      इसके उलट यहां पूरी ३९ औरतें पूरे प्रेम-भाव के साथ रहती हैं। चाना की कुछ और खूबियां भी हैं। उन्होंने एक साल में अधिकतम १० शादियां की हैं और सबसे लेटेस्ट वाली को अपने साथ सुलाते हैं। इस समय चाना की सबसे युवा पत्नी की उम्र ३५ साल है। ३९ में से चाना के साथ कौन सोयेगी इसका फैसला आपसी समझ से होता है। कुल मिलाकर काम एक दम ठीक चल रहा है। अगर इसके बाद भी आपकी अक्ल ठीक से काम नहीं कर रही है तो आपका खुदा मालिक।
दोस्ती!

अच्छे दोस्त नमक की तरह होते हैं जिन्दगी में उनकी मौजूदगी का ख्याल भले न रहे लेकिन उनकी नामौजूदगी से हर चीज बेस्वाद हो जाती है।1

प्रथम पुरुष

विचारों से ही व्यवस्थित होता है जीवन


विचारों के महत्व को समझना ही जीवन कला है। क्योंकि विचारों के ही कारण हम अनुभव कहते हैं।  अनुभवों से हमारा दृष्टिकोण बनता है। दृष्टिकोण पर हमारा कर्म आधारित है। कर्म हमारी आदत डालता है। आदतें हमारा संस्कार निर्माण करते हैं। हमारे द्वारा जो सूचनाएं इक_ी की जाती हैं एवं हमारे जो विकास या धारणा है वही हमारा भाग्य बनाता है। प्रत्येक विचार हम स्वयं पैदा करते हैं वह न तो अपने आप आते हैं न ही और कोर्ई पैदा करता है।  विचार हर तरह की ऊर्जा पैदा करते हैं। पौजिटिव एवं निगेटिव यानी प्लस या माइनस। हम जैसे विचार पैदा करेंगे वैसी है। ऊर्जा पैदा होगी वैसी ही ऊर्जा दूसरों को देंगे। वही ऊर्जा उनसे हमें मिलेगी। यानी पौजिटिव देंगे तो पौजिटिव मिलेगी। निगेटिव देंगे तो निगेटिव। जहरीली यानी टौकसिस, नकारात्मक, समय नरूर करने वाले विचार निगेटिव  ऊर्जा पैदा करते हैं। जैसे क्रोध, घृणा, बदला लेने वाले, जलन पैदा करना, डरना, घबड़ाना, असफलता की भावना, अविश्वास करना, गप्प लड़ाना, टी.वी. या अखबार मे ऐसी सूचना पाना जिनमें हमारा विचार हित नहीं है। इसके विपरीत आवश्यक विचार, सकारात्मक विचार, आवश्यक विचार उच्चस्तर के विचार पौजिटिव ऊर्जा पैदा करते हैं। अतएव सही विचारों को पैदा करने का अभ्यास करें अर्थात किसी बात को बढ़ाकर न देंखे अविश्वास न करें। जिम्मेदारी लें दूसरे को दोष न दें। किसी भी निर्णय पर न कूदे, हमारे साथ ही ऐसा क्यों होता है। या ऐसा ही हमेशा क्यों है न सोचे नकारात्मक पहलू न ढूंढे।
विचारों में न उलझे। बुरे विचार को अच्छा साबित न करें। व्यक्तियों पर ठप्पा न लगायें, किसी मक्खी की तरह हमेशा गन्दगी पर ही ध्यान न दें।
आशावादी और सभी को बराबरी का समझने वाले विचार पैदा करें उच्च स्तर के विचार हैं। देश का भला शान्ति पैदा करना, सामाजिक एवं आध्यात्मिक। स्पष्ट है पौजिटिव गुणात्मक , विचार लाभदायक है। निगेटिव  नकारात्मक हानिकारक। हमारे विचार हमारे नरवस स्नायु तंत्र या प्रणाली पर भी असर डालते हैं। वे औटोनोमस सिस्टम यानी सिम्पैथिटिक एवं पैरा स्म्पिैथिटिक नरवस सिस्टम पर अपना प्रभाव डालते हैं। जिसके कारणहमारे ग्लान्डस से निकलने वाले हारमोन की मात्रा के रिसाव में कमी या अधिकता आती है।
हमारे विचार  इमीयून सिस्टम को भी प्रभावित करते हैं। जिससे रोग निरोधक शक्ति क्षीण होती है। विचार इन सब पर हाइपोथैलमस के माध्यम से अपना प्रभाव डालते हैं। परन्तु सीधे-सीधे भी असर कर सकते हैं।
यह सब सिस्टम हमारे आंतरिक अंगों और उनके कार्यों को संचालित करते हैं। उनके कार्यों को सन्तुलित रखते हैं। निगेटिव विचार उनके कार्यों को असन्तुलित करते हैं। यही कारण है कि स्वस्थ शरीर होते हुये भी हमें तमाम बीमारियां जैसे उच्च रक्तचाप, मधुमेह, कैंसर, मानसिक रोग इत्यादि होते रहते हैं। अत: विचारों का महत्व अधिक है पौजिटिव विचार ही पैदा करें निगेटिव विचारों को रोकें आपको शान्ति और आनन्द मिलेगा।
आजकल खाद्य पदार्थों में मिलावट के प्रत्येक दिन समाचार आ रहे हैं। फलो में,शहद में, लगभग सभी खाने-पीने की चीजों में मिलावट हो रही है या उनको जल्द पका कर बेचने के लिये रसायनिक पदार्थ मिलाये जा रहे हैं क्योंकि हमारे नियम और सजा के प्राविधान बहुत कम हैं।
हमारे पास फल, सब्जी, मांस के तो कोई मानक भी नहीं हैं। अन्य खाद्य सामग्री में हम केवल बुकिंग मीडियम की जांच करते हैं। कोर्ट में भी यह साबित करना पड़ता है कि वह व्यक्ति के लिये हानिकारक है या नहीं। 1

खरीबात

चोरों की मुद्रा से बेहतर मस्त फकीरी

बाबा रामदेव  की जय हो। बिल्कुल सटीक नब्$ज दबा दी है। इतनी सटीक कि अब खुद भी आं...ऊं... ही निकल रहा है मुंह से। वेदों में, शास्त्रों में, दुनिया के विभिन्न धर्मों, ग्रन्थों में हर कहीं धन कमाना मनुष्य का सर्वोच्च पुरुषार्थ माना गया है। इस नाते जो धनाढ्य हुये वे उच्च कोटि के पुरुष हुये। उन्हें देवतुल्य या देवता ही कहा जा सकता है। फिर तो बाबा रामदेव, कलमाड़ी, अनिल अम्बानी और ए.राजा ये सभी इन्द्र स्वरूपा ही हुये। लेकिन इनकी छवि और जाति तो इन दिनों चोर सरीखी है। बाबा रामदेव ने देश में 'कालेधन का एक ऐसा उजला मुद्दा उठा दिया है जिसके बाद देश के 'इन्द्रों की इन्द्रियां शिथिल पड़ती जा रही हैं। राजा जेल के अन्दर है। कलमाड़ी जेल के रास्ते में है। बाबा कालिमा साफ करते करते खुद काले हुये जा रहे हैं। अनिल अम्बानी सीबीआई के आगे बिल्कुल वैसे ही हुड़कचुल्लू बने दिखाई दे रहे हैं जैसे दरोगा जी मुल्लू सेठ को कल्लू चोर से सामना कराते वक्त बनाते हैं। मुल्लू सेठ सोनार होते हैं, चोरी के गहने गलाते हैं और कल्लू चोर चेन स्नेचिंग से लेकर रात में सोने-चांदी की दुकान में सेंध लगा देते हैं। जब से मैंने सीबीआई $के सम्मन पर  अनिल अम्बानी के बारे में सुना है कि उनका स्पेक्ट्रम घोटाले फंसे चोर राजा से सामना कराया जाता है तो 'मुल्लू सेठ की याद आ जाती है। मुल्लू सेठ इलाके के नम्बर वन धन्ना सेठ हैं। लेकिन लोग उनकी 'चुरवा सेठ के नाम से खिल्ली उड़ाते हैं। मुल्लू सेठ से मैंने पूछा, 'सेठ जी जब दरोगा या सिपाही तुम्हें रात में सोने से जगाकर थाने ले जाता है तो कैसा लगता है... वह बोले, 'लगना कैसा है...? यह तो व्यापार का एक हिस्सा है। हां, पहली बार जब बुलाया गया था तब जरूर पसीना छूटा था। हार्टबीटिंग बढ़ गई थी। मेरा पसीना देखकर पुलिस का भी पसीना छूट गया था। लेकिन अब सब मैनेज है। सेठ बेशर्म हो चुका है। उसे अपनी तिजोरी में भरी लक्ष्मी के दर्शन से जो  सुख प्राप्त होता है उसके बदले उसे चोर कहाना, पुलिस के चक्कर में पडऩा और सडऩा कतई नहीं है। अब यहीं प्रश्न खड़ा होता है कि अगर धनोपार्जन सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ है तो 'मुल्लू को अपमानित क्यों होना पड़ता है? और पुलिस की मार  क्यों झेलनी पड़ती है? फिर तो यही प्रश्न अनिल अम्बानी पर भी समीचीन है। अनिल अम्बानी यानी देश के नम्बर वन धनाढ्य और सीबीआई उन्हें चोरी के शक में चोर से आमने-सामने के लिये बार-बार बुला रही है। अनिल को साफ-सफाई की नौबत में शान तो नहीं ही लगती होगी, और अगर लगती होगी तो इसका मतलब है कि अब बेशर्मी शान-शौकत वाली हो गई है। दोस्तों! यह छोटा आलेख सिर्फ इसलिये प्रेषित है कि आप धन उसका उपार्जन और उसके साधन के बारे में थोड़ा ध्यान दें। बड़े-बूढ़े कहते हैं कि धन कमाना श्रेष्ठ काम है लेकिन तब जब धन श्रेष्ठ माध्यम से आ रहा हो। अगर धन का माध्यम दूषित होगा तो यह धन पुरुषार्थ की बजाय 'पाप साबित होगा। पाप, अपमान, कलेष, हताशा, भय, दण्ड और विनाश का गर्भग्रह है। अब इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि अनीति से कमाये गये धन की जांच में अगर देश का नम्बर एक धनाढ्य शक के घेरे में आता है तो उसे देश के सामने एक चोर की तरह ही पेश होना पड़ता है। आपको सीबीआई के आगे किसी चोर का आमना-सामना करने के लिये क्यों नहीं बुलाया गया...? इसलिये कि आपका धन 'स्पेक्ट्रम घोटाले से नहीं आया। अनिल अम्बानी सरीखों को समझना चाहिये कि इतनी बड़ी रईसी ने आखिर उन्हें दिया क्या...? 'मुल्लू सेठ  सी उपमा... एक चोर सी उपमा...अगर अथाह धन कमाने के बाद भी चोरों की मुद्रा बनती है तो हम जैसों को मस्त फकीरी सर माथे।1

मैडम की अनदेखी

मैडम की अनदेखी
विशेष संवाददाता

 इस उम्मीद के साथ कि शायद मैडम की नजर इस बोर्ड में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे बकायेदारों की सूची पर भी पड़ जाये और मैडम इन बकायेदारों से वसूली के लिये  अपनी 'डिसीजन आन स्पाटÓ की पुरानी शैली में ही कोई फरमान जारी कर दें।

सूबे की मुखिया मायावती के कानपुर दौरे में उनकी अगवानी के लिये पूरे कलक्ट्रेट परिसर को रंगाई-पुताई मरम्मत के साथ चकाचक करा गया इस भय से कि मैडम को कहीं कोई कमी न दिखे जिसका खामियाजा अधिकारियों या कर्मचारियों को भुगतना पड़े। इसी रंग-रोगन के बीच तहसीलदार कार्यालय के बाहर टंगी बड़े बकायेदारों के सूची बोर्ड को भी रंगा-पुताकर दोबारा टांगा गया था। इस उम्मीद के साथ कि शायद मैडम की नजर इस बोर्ड में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे बकायेदारों की सूची पर भी पड़ जाये और मैडम इन बकायेदारों से वसूली के लिये  अपनी 'डिसीजन आन स्पाट  की पुरानी शैली में ही कोई फरमान जारी कर दें।
मैडम ने शहर का अपना तूफानी दौरा किया और कलेक्ट्रेट भी पहुंची। पूरे कलेक्ट्रेट का बाकायदा घूमकर मुआयना भी किया। इतना ही नहीं कलेक्ट्रेट में वर्षों से दबी तमाम फाइलें भी देखने के लिये मंगाई जो कि विभागीय कर्मचारियों ने बड़े जतन और जोड़-जुगाड़ से लगभग दफना ही दी थी।
इन फाइलों को देखने के बाद मैडम ने जिम्मेदार लोगों को जमकर खरी खोटी भी सुनाई।  कई लोग तो केवल इस खरी-खोटी भर में ही निपटे और कई लोग बाकायदा निपट ही गये। जहां तक बात मैडम माया की है तो अभी हाल के तमाम जिलों के दौरों के दौरान और इसके अलावा भी वे समय-समय पर आलाप्रशासनिक अधिकारियों को वसूली के लिये सख्त हिदायत देती रही हैं। इस पूरे दौरे और कलेक्ट्रेट परिक्रमा के दौरान यह बोर्ड भी मैडम के रास्ते में ही पड़ा लेकिन छोटी-छोटी फाइलों में महीन-महीन कमियां ढूंढ निकालने वाली माया मैडम को न तो यह बोर्ड ही दिखा और न ही इस पर लिखी बकायेदारों की लम्बी फेहरिस्त जिनमें उनके अपने ही तमाम विभाग शामिल हैं। इतना ही नहीं इनमें से तमाम ऐसे विभाग भी हैं जो करों के नाम पर हर साल करोड़ों रुपये भी वसूलते हैं और उनके खातों में बकाये की आवश्यक रकम से कहीं ज्यादा हर समय मौजूद रहती है और ये विभाग जब चाहे यह बकाया अविलम्ब अदा भी कर सकते हैं। पर ऐसा है नहीं। इसके पीछे इन विभागों की लापरवाह नीयत भी दोषी है क्योंकि अगर ऐसा न होता तो इन विभागों का नाम और उस पर बकाया धन की फेहरिस्त बकायेदारों की सूची में चस्पा न होती। 1

कवर स्टोरी

रंकपन रईसों का
मुख्य संवाददाता
प्रदेश में अगर अपने ही शहर का खाका देखा जाये तो विभिन्न मदों पर शहर के ही तथाकथित रईसों पर ही विभिन्न मदों का करोड़ों रुपया बकाया है और सरकार उनसे अभी तक यह बकाया रुपया वसूल नहीं कर पायी है। जबकि इन बकायेदारों की रईसी में कोई कमी नहीं आयी है सब मालदार हैं बकाया चुकाने में समर्थ हैं। लेकिन बस बकाया चुकाने की नियत ही नहीं है। 

विदेशों में जमा सैकड़ों हजार करोड़ रुपये का कालाधन अपने देश में वापस लाने की बात यूं तो पिछले काफी समय से उठायी जा रही है लेकिन इधर करीब दो वर्षों से यह बात एक ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दे की शक्ल लेकर केन्द्र सरकार की मुश्किलें बढ़ा रही है। इस मुद्दे पर आर-पार की लड़ाई में डटी भाजपा सहित लगभग सभी प्रमुख विपक्षी पार्टियां सरकार से इस मामले में जवाब मांग रही हैं और सरकार है कि उसके पास विपक्ष को देने के लिये कोई जवाब ही नहीं है। यह मुद्दा तो राष्ट्रीय स्तर का है या कहें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का है चूंकि जहां यह अधिकांश धन जमा है वो तमाम बैंकें या संस्थायें विदेशों की है और उनमें से कई देश ऐसे हैं जिनसे इस तरह के पैसे की स्वदेश वापसी के लिये भारत सरकार के साथ कोई संधि या समझौता नहीं है। इसके अलावा भी कई और ऐसे पेंच हैं जिनकी वजह से ऐसा होने में इतना सब कुछ होने के बाद भी तमाम अड़चने है। हालांकि इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ केन्द्र में सत्तारूढ़ अब तक की सभी सरकारों की इस मसले को सुलझाने की इच्छा शक्ति की कमी ही है। वरना इस मामले से जुड़ी तमाम मुश्किलें और पेंच इतने भी जटिल नहीं हैं जितना कि दिखाये और बताये जा रहे हैं।
ऐसा इसलिये कि प्रदेशस्तर पर (देश का कोई भी प्रदेश हो) यह बात साफ हो जाती है। प्रदेश में अगर अपने ही शहर का खाका देखा जाये तो विभिन्न मदों पर शहर के ही तथाकथित रईसों पर ही विभिन्न मदों का करोड़ों रुपया बकाया है और सरकार उनसे अभी तक यह बकाया रुपया वसूल नहीं कर पायी है। जबकि इन बकायेदारों की रईसी में कोई कमी नहीं आयी है सब मालदार हैं बकाया चुकाने में समर्थ हैं। लेकिन बस बकाया चुकाने की नियत ही नहीं है। इन बकायेदारों में इन रईसों के अलावा तमाम सरकारी विभाग भी शामिल हैं जिन पर विभिन्न मदों का करोड़ों रुपया बकाया है।
आवास विकास परिषद, नगर निगम, पुलिस विभाग जैसे करीब करीब एक दर्जन से ज्यादा ऐसे सरकारी विभाग हैं जो मौजूदा समय में करीब दो करोड़ पैसठ लाख तिरसठ हजार सात सौ रुपये से ज्यादा का बकाया है। इस बकाये को अदा करने की बजाय ये सरकारी विभाग एक दूसरे पर मनमानी तरीके से रुपये बकाया दिखाने का आरोप लगाने में लगे हुये हैं। ढाई करोड़ से ज्यादा की यह रकम तो वो है जो केवल सरकारी विभागों के ऊपर बकाया है। अगर शहर के तमाम बकायेदार रईसों को भी इसमें शामिल कर लिया जाये तो यह रकम लगभग पांच करोड़ और बढ़ जायेगी। इसके बाद भी यह बकाया धन राशि केवल वह है जिसको वसूलने की जिम्मेदारी तहसील के ऊपर है। तमाम ऐसे भी बकायेदार हैं जो बकाया न देने की वजह तलाशने न्यायालय की शरण में चले जा चुके हैं और ऐसे अनगिनत मामले अभी लम्बित पड़े हैं और उन पर अभी तक कोई अदालती निर्णय नहीं  आया है।
इन बकायेदारों और उनसे वसूली के सम्बन्ध में तहसीलदार सुधीर कुमार रुंगटा का कहना है कि तहसील के पास जिन बकायेदारों की सूची आयी है उनसे पैसा वसूलने के लिये आर.सी. सहित सभी जरूरी कागजात पूरे करके अग्रिम कार्यवाही की जा रही है. नियमित रूप से बकायेदारों के पास तहसील की टीमें जा रही हैं. बकाया जमा करने के लिये सभी को निर्धारित समय दे दिया गया है. समय सीमा समाप्त होते ही सम्बन्धित विभागों और व्यक्तिगत बकायेदारों के खाते कुर्क कर बकाया की रकम वसूल की जायेगी। कुछ बकायेदार न्यायालय की शरण में चले गये हैं। न्यायालय का निर्णय आते ही इनके खिलाफ भी आवश्यक कार्यवाही की जायेगी।
तहसीलदार सुधीर रुंगटा कुछ भी कहें लेकिन यह सच है कि बकाये को लेकर आज तक किसी भी सरकारी विभाग और इसके आला अफसरान के खिलाफ कोई दण्डात्मक कार्यवाही नहीं हुई हैं। जबकि अक्सर निर्दोष शहरियों को बकाये के नाम पर बलि का बकरा बनना पड़ता है।
अभी कुछ दिन पहले  शहर की शान और सुविख्यात बाल साहित्यकार डा. राष्ट्रबन्धु को केस्को की लापरवाही से घोषित किये गये बकाया और इस बकाया की वसूली के लिये तहसील के जबरपन की वजह से हवालात की दुर्दशा झेलनी पड़ी थी। जबकि यह बाल साहित्यकार आखिर तक तहसील और केस्को को अपना बहुत पहले ही जमा करा दिये गये पैसों के कागजात ही दिखाते रहे। उम्मीद है कि इसी तरह का जबरपन तहसीलकर्मी इन तमाम बड़े बकायेदारों से वसूली कर सरकारी खजाने में कुछ इजाफा कर पायेंगे।
 इस पूरी प्रकिया और तहसील स्तर के बाकाया को ले कर एक बात साफ है कि जो राजनैतिक पार्टियां विपक्ष में आते ही केन्द्र सरकारों से विदेशों में जमा काला धन वापस देश में मंगाने की मांग कर रही हैं उन्हीं तमाम राजनैतिक पार्टियों की देश के कई प्रदेशों में अपनी सरकारें हैं जब वे खुद अपने प्रदेश के बकायेदारों से अपने प्रदेश के भीतर ही वसूली नहीं कर पा रही हैं तो फिर ऐसी दशा में विदेशों में जमा पैसा कैसे भी वापस देश में मंगाने की जायज मांग तमाम अंतराष्ट्रीय अड़चनों और दृढ़ इच्छा शक्ति की कमी की वजह से कैसे पूरी हो सकती है। 1

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

नारद डॉट कॉम

ये हो क्या रहा है

पूरा उत्तर प्रदेश इन दिनों बलात्कार की चपेट में है. टीवी से लगाकर अखबार तक इन्हीं खबरों से भरे पड़े हैं. सदन में भी यही बातें हो रही हैं. सपा नेता शिवपाल रेप और बलात्कार में फर्क नहीं कर पा रहे हैं. उन्हें लगता है कि इटावा में जो कुछ हो रहा है वह बलात्कार है और लखनऊ में वही रेप बन जाता है. छोटे नेता जी की इस नादानी पर खूब हंसे लोग और तो और बहिन जी को शाल में मुंह छुपाकर हंसना पड़ा. अब ऐसे विद्वान लोग देश प्रदेश की सत्ता सम्भालना चाहते हैं ये तो गरीब जनता के साथ रेप है. खैर छोडिय़े इस देश के लोग तो सहने के मामले में फीमेल गधे से कई हाथ आगे हैं. मेरे एक मित्र इन बलात्कारों के पीछे मौसम को दोषी मानते हैं. उनका मानना है कि बसन्त में इन्सान बौरा जाता है. उसका ये पागलपन होली तक चलता है. नवरात्र में सब ठीक हो जायेगा. पुराने खलीफा लोग इस हरजाई मौसम के लिये लोगों को पहले भी आगाह कर चुके हैं. उन्होंने साफ शब्दों में चेताया है कि ये सीजन बहुत खतरनाक होता है. इसमें बाबा भी देवर जैसा आचरण करने लगते हैं और देवरों का तो और बुरा हाल हो जाता है. मेरे एक और मित्र इस छिनरपन के लिये अंगूर की बेटी को दोषी मानते हैं. उनकी राय में गांव-गांव खुल रही मदिरा की दुकानों ने इस काम को बढ़ाने में आग में घी का काम किया है. वैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि अंगूर की बेटी अन्दर होने के बाद लंगूर की बेटी भी भौजाई लगने लगती है. बसपाईयों का नजरिया इसके बारे में एक दम जुदा है. वो मानते हैं कि सपा में इसके दो गुने रेप होते थे लेकिन मुकदमा ही दर्ज नहीं किया जाता था. समाज सुधारकों का मानना है कि इसके लिये बाबा रामदेव दोषी हैं. पहले से मौजूद ८४ आसन कोई कम थोड़े थे जो और सिखा रहे हैं. इस मामले में सबकी अपनी-अपनी राय है. इस बारे में आप क्या सोचते हैं ये आप जानें.
एक बात
नये पुलिस अफसरों ने मातहतों को जमकर ज्ञान बांटा है. लोगों का मानना है कि गीता में अर्जुन को सीख देने वाले भगवान श्रीकृष्ण भी इन्हें नहीं सुधार  सकते.1

स्वयं को जाने बिना कुछ भी जान पाना संभव नहीं है

स्वयं को जाने बिना कुछ भी जान पाना संभव नहीं है

वह व्यक्ति जो वस्तुओं से पूरी तरह जुड़ा हुआ है उन्हें प्राप्त करने के लिये कभी न समाप्त होने वाले संघर्ष में लगा रहता है। इसी प्रकार वह व्यक्ति जो सामाजिक एवं एक वर्ग या ग्रुप से जुड़ा रहता है। कहता है जो सबके साथ होगा वह उसके साथ भी होगा। यह सोच उसे घोर अन्धकार में ले जाती है। वह व्यक्ति जो सुरक्षा और शरण चाहता है वह स्वयं को बचाने के लिये दूसरों पर निर्भर है। वह अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश कभी नहीं करता। समझ लो तुह्मारी सुरक्षा तुह्मारे ही हाथ में है। सुरक्षा को असुरक्षा और असुरक्षा को सुरक्षा समझने की गलती न करो। यदि तुम स्वयं को अच्छे तरह से नहीं जानते हो तो तुम कही भी सुरक्षित नहीं हो। स्वास्थ्य, परिवार वस्तुएं स्वयं के तत्व से भिन्न हैं वे सुरक्षा नहीं दे सकती हैं। परम सुरक्षा तुह्मारे स्वयं के ज्ञान, दृष्टि, व्यवहार एवं आचरण में है। इस नियम को भुलाने से तुम को दुख होगा। चोट  लगेगी। दूसरे का व्यवहार इसका कारण नहीं है।
 अमरीका का एक व्यक्ति जो बहुत अमीर था उसने अचानक अपना सब कुछ बेंच दिया अपनी गाड़ी तक और साधु बन जाता है। इसने स्वयं के उत्थान  के लिये एक नयी प्रणाली बनायी कुछ सूचक बना कर।
१. गुलाब का दिल अर्थात केन्द्र- अपने मन को विकसित करो क्योंकि तुह्मारे विचार तुह्मारी जिन्दगी के गुण या अवगुण निर्धारित करते हैं।
२. बाग का लाइट हाउस- मकसद/ध्येय के लिये जिन्दा रहना ही जिन्दा रहने का ध्येय है इसको जाननना और करना ही जिन्दगी का पूरक है।
३. नकारात्मक विचारों को मिटा नहीं सकते हैं परन्तु उनके स्थान पर सकारात्मक विचार ला सकते हो।
पांच तरीके-
- क्या होगा तुह्मारे विचार से उसकी स्पष्ट दृष्टि।
- उत्साहित करने को दबाव बनाओ।
- लक्ष्य प्राप्ति के लिये समय की सीमा रक्खो।
- लक्ष्य को लिखो।
- २-१ दिन नियम के अनुसार नकारात्मक विचारों को स्थान से हटाओ।
४. सूमो पहलवान- 'काईजिनÓ का अभ्यास करो बाहर से दिखने वाली सफलता। विकास की शुरुआत अन्दर  होने वाले विकास। सफलता से होती है। १० कार्यकलापों का अभ्यास करो (अलग से बताये हैं।)
५. केबिल का तार- इच्छा शक्ति एवं अनुशासन तुमको अपना मालिक बनाता है तुम सबसे सरल रास्ता चुनने के बजाय वह करने की हिम्मत पैदा करते हो जो तुह्में करना चाहिये।
६. स्टोप बाच एवं आवर ग्लास-  समय के महत्व को जानो वह चलता रहता है उसका सदुपयोग करो प्राथमिकताएं निर्धारित करो।
- भरपूर आनन्द की जिन्दगी का रहस्य।
- वर्तमान को गले लगाओ अभी इसी पल में रहो।
- कुछ पाने के लिये खुशी का बलिदान न करो।
- प्रत्येक दिन इस प्रकार रहो जैसे वह अन्तिम दिन है। वही तुह्मारे वर्तमान को बचायेगा और प्रसन्नता देगा।
- बच्चों के बचपने की तरह रहो।
- कृतज्ञता का अभ्यास करो।
- अपना भाग्य स्वयं पैदा करो।
- जीवन का परमम लक्ष्य दूसरों की स्वार्थ रहित सेवा करना है। प्रत्येक दिन कुछ दो। दूसरों के जीवन को उठाओ, प्रत्येक दिन नम्रता का अभ्यास करो जो कोई भी मांगे दो, सम्बन्धों को उच्च स्तर एवं प्रगाढ़ बनाओ।1

चौथा कोना

होली की छठवीं वर्षगांठ


  27 फरवरी २००५ को हेलो कानपुर साप्ताहिक समाचार-पत्र का शुभारम्भ एक प्रयोग के तौर पर किया गया था। हेलो कानपुर से पहले महानगरीय (जिसे आप नगरीय भी कह सकते हैं) पत्रकारिता को न तो समग्रता से सोचा गया और न ही उसे मूर्त रूप दिया गया। कानपुर महानगर में साप्ताहिक अखबारों की एक परम्परा है। उसका अपना एक ढर्रा है। हेलो कानपुर उस ढर्रे से अलग कनपुरिया पहचान की तलाश में एक अभियान की तरह निकला। और आज ६ वर्ष बाद कानपुर महानगर में कानपुर को 'हेलो कहने वाला अकेला 'हेलो कानपुर ही नहीं है। कई अन्य अखबार और संस्थाएं भी आगे आईं जिसका नतीजा सबके सामने है। शहर में शहर के अनुरूप 'टेबोलाइड, 'आई-नेक्स्ट या काम्पेक्ट भी स्थानीयता का बोध लेकर शहर की जान बनने की होड़ में लगे हैं। भले ही इनका उद्देश्य नितांत व्यापारिक हो लेकिन है कानपुर के हित में हल्ला मचाने वाला ही। कई संस्थाएं इन दिनों शहर हित में बदलाव के लिए बेचैन दिख रही हैं। कुछ एक अच्छा काम भी कर रही हैं। मेरे मित्र हैं अरविंद चतुर्वेदी। पूर्व संसद व साहित्यकार दादा नरेश चतुर्वेदी जी के पुत्र। उन्होंने तो अपना संबोधन ही हेलो कानपुर कर लिया है। उन्हें फोन करता हूं तो वह उधर से कहते हैं- हेलो कानपुर..? कई और समाचार-पत्र  व मैगजीन भी इसी दौरान निकले। कुल मिलाकर मैं प्रसन्न हूं। कारण कि जिस वक्त मैं हेलो कानपुर निकालने जा रहा उसके ठीक पहले मैं दैनिक जागरण का स्थानीय संपादक था। एक तरफ विश्व का नम्बर एक अखबार और दूसरी तरफ विश्व की अंतिम पायदान की तकरीबन खारिज पत्रकारिता। डूबने की संभावना सौ फीसदी। बचने का चांस चमत्कार। दोस्तों मेरे साथ चमत्कार हो गया। जो पत्रकार दोस्त इस साप्ताहिक के साथ मेरी अखबारी प्रतिभा को $जमीदो$ज होता देखना चाह रहे थे निसंदेह उनके कानों में हेलो कानपुर की प्रशंसा और उसका निर्बाध प्रकाशन शीशे की तरह ही उतरता होगा। अभी इसी सप्ताह मेरे अनुज सुनीत त्रिपाठी की बेटी का मुंडन था। इस मौके पर शहर के कई प्रतिष्ठित लोगों से मुलाकात हुई। इसी मुलाकात में मेरे एक प्रशंसक ने कहा- 'दोस्त! तुम्हारी कलम नम्बर एक पर है। कोई जोड़ नहीं। मुझे यह सुनकर बड़ा अच्छा लगा लेकिन इसके साथ ही जो जवाब मेरे मुंह से स्वत: ही निकला वो वाकई मेरे लिए भी खूब जोरदार रहा... मैंने कहा, 'बात तो गुरु सही है लेकिन इसके लिए किसी लाला के पास कागज नहीं निकला, खुद ही खरीदना पड़ा। सच कहूं तो अगर हेलो कानपुर न निकलता तो मैं बिना कुछ लिखे ही मर जाता। हालांकि कानपुर की पत्रकारिता के इतिहास में नाम जरूर होता और उम्र भर यह समझता भी रहता कि मैंने विश्वव्यापी पत्रकारिता कर डाली। मैं किसी पराये कागज पर अपने मन की कैसे कर सकता था। जो लोग मेरे लिये यह कहते हैं कि मैं अच्छा लिखता हूं, थोड़ा सा और ध्यान दें तो उन्हें लगेगा कि मैं अच्छा नहीं सच्चा लिखता हूं। जो आपको अच्छा लगता है वह लेखकीय विशिष्टता नहीं बल्कि सच की धाकड़ अभिव्यक्ति होती है। सच स्वयं में अच्छा ही होता है भले जुबान को कभी कुछ कड़वा या खट्टा लगे। मुझे २ हजार ५ से २ हजार ११ तक ६ वर्ष लगातार संपादक बनाये रखने के लिए 'हेलो कानपुर और उसके सहयोगियों का आभार। इतना लगातार एक पद पर मैं कभी टिका नहीं। ऊपर वाले का करम है कि इस दरम्यिान भी मैं बिका नहीं।  इसलिये हेलो कानपुर की छठवीं वर्षगांठ पर चमत्कार को नमस्कार।1

काले धन की काली होड़

औद्योगिक लाइसेंस उन औद्योगिक घरानों को दिए गए, जिनकी न तो कोई साख थी और न ही इस तरह के काम का कोई अनुभव, सिवाय इसके कि राजनेताओं से उनके करीबी रिश्ते थे। इस तरह अयोग्य औद्योगिक घरानों को लाइसेंस दिए गए और प्रतिस्पद्र्धा के अभाव में उन्होंने अपने राजनैतिक संबंधों और ब्लैक मनी के जरिये राज किया। देश की कीमत पर चंद औद्योगिक घरानों, नौकरशाहों और राजनेताओं को ही आत्मनिर्भर बनाया। 
 आमतौर पर इसे वैश्विक संकट और भारत के सबसे बड़े संकट के तौर पर जाना जाता है। लेकिन इस सिलसिले में अभी तक कुछ नहीं किया गया। खास तौर पर फेसबुक और दूसरी सोशल साइटों पर मौजूद आनलाइन मित्र, लगभग रोज ही, मुझसे इस पर लिखने के लिये कहते हैं। हाँ मैं ब्लैक मनी और ब्लैक होल की बात रह रहा हूं। जिसे हमारे राजनेताओं, नौकरशाहों और कारोबारियों ने मिलकर बनाया है।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के मुताबिक, ब्लैक मनी के एक बड़े हिस्से यानी तकरीबन 60 फीसदी की जड़ें चुनावी प्रक्रिया से जुड़ी हैं। लेकिन व्यक्तिगत लाभ के लिए लूट की इस कभी न खत्म होने वाली भूख में राजनेता अकेले नहीं हैं, बल्कि उन्होंने व्यवस्थित तरीके से माहौल बनाया है जिनमें औद्योगिक घरानों के भी हित जुड़े हैं। वरना, यह जानकर भी कि बार-बार जबरदस्त चूक होती है, भारत सरकार अभी तक च्पूंजी लाभ के लिए कोई टैक्स नहींज् की नीति पर क्यों अड़ी रहेगी? इसका लाभ उठाते हुए प्रमोटर अपनी कंपनियों से करोड़ों रुपये निकालकर गुपचुप तरीके से दुनिया भर के उन देशों में भेज रहे हैं, जिन्हें टैक्स चोरी के मामले में स्वर्ग कहा जाता है। यह लगभग ज्ञात तथ्य है कि आमतौर पर ऐसा धन या तो मॉरीशस, केमैन द्वीप, बारामूडा या ब्रिटेन वर्जिन आइलैंड्स में खपा दिया जाता है, या फिर स्कैंडिनेविई या यूरोपीय देशों के बैंकों में डाल दिया जाता है। और अब तो भारतीयों के लिए थाइलैंड, सिंगापुर, हांगकांग और मकाऊ जैसे कुछ एशियाई देश भी अवैध धन को छुपाने के नए केंद्र के तौर पर उभर रहे हैं। और आखिर, ऐसा उन्हें क्यों नहीं करना चाहिए। आखिर उनके लिए तो यह माल-ए-मुफ्त ही है!
अगर यह हकीकत नहीं है तो कोई कैसे इसे सही ठहराएगा कि भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) करने वाले तमाम देशों में मॉरीशस पहले स्थान पर है, जबकि उसकी राष्ट्रीय आय केवल 8.7 बिलियन डॉलर है और बैंकिंग क्षेत्र में उसका निवेश 1.5 बिलियन डॉलर से भी ज्यादा है! दिलचस्प बात यह है कि मॉरीशस में 9,000 से भी ज्यादा विदेशी कॉरपोरेट संस्थान हैं। इनमें से कई की जड़ें भारत से जुड़ी हुई हैं। भारत-मॉरीशस संधि के मुताबिक, मॉरीशस के लोग भारत में टैक्स से बचने के लिए भारतीय कंपनियों के शेयर  बेच सकते हैं, क्योंकि मॉरीशस में पूंजी लाभ कर (सीजीटी) की कोई नीति नहीं है। इसलिए जो लाभ होता है, उस पर टैक्स नहीं लगता है। ठीक ऐसा ही, तकरीबन उन सभी दूसरे देशों के साथ भी है जिसके कराधान अलग-अलग हैं।
2008 में भारत से तकरीबन 3,600 मिलियन डॉलर सिंगापुर और करीब 2,200 मिलिय डॉलर साइप्रस भेजा गया। इस वजह से भारत को कुल मिलाकर तकरीबन 1.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर का चूना लगा। अप्रैल 2009 में भारत में कनाडा के उच्चायुक्त ने स्वीकार किया था कि भारत में कनाडा के तकरीबन 239 मिलियन डॉलर के अनुमानित निवेश के विपरीत वास्तविक आंकड़ा 10 बिलियन डॉलर से कम नहीं होगा। भारत को आश्चर्यजनक रूप से कुल मिलाकर 1.5 बिलियन डॉलर की भारी भरकम रकम से कम का नुकसान नहीं उठाना पड़ा होगा, मुख्य तौर पर इसलिए क्योंकि लोग टैक्स की धोखाधड़ी कर उसे वापस भारत भेजने की कोशिश करते हैं।
 भारतीय कंपनियों के कई प्रमोटर टैक्स चोरी के लिहाज से स्वर्ग कहे जाने वाले देशों में स्थित फर्मों के शेयर मूल्यों का अवैध तरीक से अंतरविस्तार करने, गैर कानूनी तरीके से धन की व्यवस्था करने और फिर उसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एवं निवेश के दूसरे प्रारूपों के जरिए उसे भारत वापस लाने की कोशिश करते हैं। अगर यह सच नहीं है तो हम किस तरह से इस बात को उचित ठहराएंगे कि बीएसई एवं एनएसई में सूचीबद्ध मुठ्ठीभर कंपनियों की कुल बाजार पूंजी भारत के सकल घरेलू उत्पाद से भी ज्यादा है। और इस बात पर गौर फरमाएं कि इस सूची में दो-एक कंपनियां तो ऐसी हैं जिनकी कुल बाजार पूंजी भारत के सकल घरेलू उत्पाद के तकरीबन 25 फीसदी के बराबर है।
पैसों की खुल्लम-खुल्ला उगाही और शर्मनाक तरीके से होने वाली लूटमार यही आकर नहीं रुक जाती। जो कुछ थोड़ा बच रहा है, उसे भी चट करने के लिए बाबू से लेकर चपरासी तक ताक में रहते हैं और यहां तक की देश के निर्धनतम लोगों को भी बख्शा नहीं जाता। एक शोध से पता लगा है कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले करीब पांच करोड़ भारतीय अपना काम कराने के लिए हर साल 9,000करोड़ रुपये घूस के तौर पर दे देते हैं। तो चाहे वह पुलिस हो, स्वास्थ्य, शिक्षा, नरेगा में रोजगार या फिर भू-अभिलेख हों, आप किसी भी विभाग का नाम ले लें, लोगों को प्रताडि़त करके पैसे झपटने का कोई मौका जाने नहीं दिया जाता और फिर उस पैसे को विदेशों में गुपचुप तरीके से ठिकाने लगा दिया जाता है।
यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि स्विटजरलैंड जैसे देश, हमारे पैसे से फल-फूल रहे हैं और आज जब कि वे सहयोग की को तैयार हैं तो सरकार उस धन को वापस लाने को लेकर उदासीन रवैया अपनाए हुए है और दोषियों के नाम का खुलासा करने से हिचक रही है। इसे समझने की जरूरत है। वास्तव में जर्मनी ने तो कर चोरों को ढूंढ निकालने के लिए लिस्सेस्टीन के एलजीटी ग्रुप को 6.3 मिलियन डॉलर का भुगतान करके बैंक के आंकड़े तक खरीदे।  2009 में अमेरिका ने स्विटजरलैंड सरकार के साथ एक करार किया, जिससे अमेरिका को यूबीएस के 4,450 गुप्त खातों की जांच का मौका मिल गया। 18 साल के लंबे संघर्ष के बाद नाइजीरिया ने 700 मिलियन डॉलर की रकम वापस हासिल करने में सफलता पा ली।  उसी तरह फिलीपींस को 700 मिलियन डॉलर और मैक्सिको को 74 मिलियन डॉलर की भारी-भरकम रकम वापस हासिल हो सकी।
अब भारत की बारी है। सरकार ने एक बयान दिया है कि विदेशों में जमा ब्लैक मनी भारतीयों की संपत्ति है औऱ इसे वापस लाया जाएगा। लेकिन सरकार ने बयान देने से अधिक कुछ भी नहीं किया है। और अगर वह इसको लेकर गंभीर है तो उसे एक डेडलाइन तय करना चाहिए और ईमानदार लोगों को इसे हासिल करने की दिशा में जरूरी कदम उठाने की आजादी देनी चाहिए। एक तरफ तो वे कहते हैं कि पैसे वापस लाएंगे। दूसरी तरफ स्विटरजरलैंड सरकार अपने बैंकों के आंकड़े मुहैया कराने को राजी है, लेकिन भारत सरकार बेशर्मी का परिचय देते हुए इसकी मांग तक नहीं कर रही है। अगर वे सचमुच पैसा वापस लाना चाहते हैं तो ला सकते हैं। मेरा सवाल यह है कि आखिर वे इसे वापस क्यों नहीं ला रहे? या वे इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि ब्लैक मनी जमा करने वाले सभी लोग जिनमें वे भी शामिल हैं, अपना पैसा दुबई पहुंचा दें, जहां गोपनीयता कानून अब भी बेहद सख्त हैं। क्या वे उसके बाद स्विटजरलैंड सरकार से आंकड़े देने का अनुरोध करेंगे लेकिन तब तक स्विस सरकार के पास बताने को कुछ भी नहीं होगा?  पाठकों को इस सवाल का जवाब आने वाले वक्तमें जल्द ही मिल जाएगा। लेकिन एक बात तो तय है। अगर यह सरकार इस मसले पर शीघ्र उचित कदम नहीं उठाती तो वह समय दूर नहीं जब भारत में भी मिस्र जैसी स्थिति पैदा हो जाएगी। मुझे उम्मीद है कि सत्ता के गलियारों में बैठे लोग मेरी बात सुन रहे होंगे।1

गर्व से कहो इण्डिया चोर नम्बर वन

गर्व से  कहो
इण्डिया चोर  नम्बर वन

 मुख्य संवाददाता
भारतीयों द्वारा ब्लैक मनी के तौर पर विदेशों में छुपा कर रखा गया कुल धन, हमारी कुल राष्ट्रीय आय से भी ज्यादा है। बेहिसाब धन का यह आंकड़ा चौंका देने वाला है। विभिन्न विदेशी बैंकों में 1450 बिलियन अमेरिकी डॉलर पड़े हुए हैं !  और भारत को विदेशों में ब्लैक मनी का सबसे बड़ा खाताधारी माना जाता है।

80 के दशक में सिर्फ आठ घोटाले थे जो कि 1990 के दशक में बढ़कर 26 हो गए और अब इसमें जबरदस्त इजाफा हुआ है और आंकड़ा 150 को छू रहा है! नैतिकता का स्तर यह है कि राजनीतिक वर्ग ने नोचने-खसोटने में कोई कोर कसर बाकी नहीं लगाई, चाहे वह पशुओं का चारा हो, सैनिकों का ताबूत हो या फि र शहीदों के लिए बना रियल इस्टेट हो.

बा रामदेव के हल्ले और हो-हल्ले पर राजनीति करने में दक्ष भाजपा ने जाने-अनजाने भारत में एक ऐसे भस्मासुरी मुद्दे को जन्म दे दिया है कि जिसके साथ अगर छल-प्रपंच नहीं हुआ तो वाकई देश के भ्रष्टाचारियों का भस्म होना तय है। ये जो वाकई भ्रष्टाचारी हैं, कहीं से खोज कर नहीं लाने हैं। ये हमारी राजनीति, नौकरशाही और व्यापारिक उद्यमिता में रचे-बसे, जमे-जमाये महान लोग हैं। भारत में भ्रष्टाचार के रूप-स्वरूप को देखकर लगता ही नहीं कि यहां के लोग इस देश को अपना देश मानते हैं। दुनिया में शायद कोई दूसरा देश नहीं जिसे उन्हीं के बाशिन्दों ने इतनी बेरहमी से छोड़ा हो। तभी तोभारतीयों द्वारा ब्लैक मनी के तौर पर विदेशों में छुपा कर रखा गया कुल धन, हमारी कुल राष्ट्रीय आय से भी ज्यादा है। बेहिसाब धन का यह आंकड़ा चौंका देने वाला है। विभिन्न विदेशी बैंकों में 1450 बिलियन अमेरिकी डॉलर पड़े हुए हैं! और भारत को विदेशों में ब्लैक मनी का सबसे बड़ा खाताधारी माना जाता है।
भारतीय धन के कुल एक तिहाई से भी कम, यानी करीब 470 बिलियन अमेरिकी डॉलर के साथ रूस दूसरे स्थान पर है। 390 बिलियन अमेरिकी डॉलर के साथ इंग्लैंड तीसरे स्थान पर आता है। चौथे देश, यूक्रेन के केवल 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर हैं, जबकि 96 बिलियन के साथ पांचवें स्थान पर खड़ा चीन तुलनात्मक रूप से काफी पाक साफ नजर आता है। यह तुलनात्मक भ्रष्टाचार हैरान कर देने वाला है, जिसमें हमारा राजनीतिक और कारोबारी वर्ग शामिल रहा है। लेकिन यह सब रातों रात नहीं हुआ और न ही हो सकता है।  दरअसल, पिछले छह दशकों में हमने सफलतापूर्वक ऐसी व्यवस्था बनाई, जिसने पैसों के लिए भूखे लोगों को, व्यवस्थित ढंग से स्विटजरलैंड और टैक्स चोरी के लिहाज से स्वर्ग माने जाने वाले दुनिया भर के देशों में खोले गए गुप्त खातों में पैसे रखने की इजाजत दी। दरअसल इसके बीज दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान इस तरह बोए गए कि भ्रष्टाचार लगभग संस्थागत हो गया और ब्लैक मनी बनाना उसका स्वाभाविक विस्तार।
औद्योगिक संपन्नता के साथ आत्मनिर्भर भारत के निर्माण की कोशिश में, नीतिगत ढांचे का जो मसौदा तैयार किया गया, उसमें औद्योगिक लाइसेंसिंग, मूल्य नियंत्रण और आयात बाधाओं का पूरा ध्यान रखा गया। हालांकि ढांचा कागज पर तार्किक नजर आता था, और रूस में 1920 के दशक में स्तालिन के नेतृत्व में इसे जबरदस्त कामयाबी भी मिली थी।
माओ के अधीन चीन में भी यह मॉडल उस समय कामयाब रहा था। लेकिन हम यह भूल गए कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था रूस और चीन जैसी नहीं थी। नतीजतन, भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए बनी योजना ने देश की कीमत पर चंद औद्योगिक घरानों, नौकरशाहों और राजनेताओं को ही आत्मनिर्भर बनाया। औद्योगिक लाइसेंस उन औद्योगिक घरानों को दिए गए, जिनकी न तो कोई साख थी और न ही इस तरह के काम का कोई अनुभव, सिवाए इसके कि राजनेताओं से उनके करीबी रिश्ते थे। इस तरह अयोग्य औद्योगिक घरानों को लाइसेंस दिए गए और प्रतिस्पद्र्धा के अभाव में उन्होंने अपने राजनैतिक संबंधों और ब्लैक मनी के जरिए राज किया। अपने को सत्ता में बनाए रखने के लिए राजनीतिक दलों का तेजी से अपराधीकरण होता गया और इसके लिए उन्हें औद्योगिक घरानों से वित्तीय मदद मिलती रही। समय के साथ राजनीति का जबरदस्त अपराधीकरण हो गया और कारोबारियों, अपराधी राजनेताओं और उगाही करने वाले बाबुओं के  शैतानी गठजोड़ ने देशभर में तबाही मचा दी। वे भ्रष्टाचार को भारत का लोकाचारऔर राष्ट्रीय लूट को निजी जुनून बना रहे हैं!
इन तीनों में, राजनीतिक वर्ग सबसे बड़ा अपराधी है, जिसने न सिर्फ अपने लिए लूटा बल्कि इस उद्यम के फलने-फूलने के लिए लूट का माहौल भी तैयार किया। विभिन्न मीडिया समूहों द्वारा प्रकाशित आंकड़ों से खुलासा होता है कि 1967-68 में, भारत में ब्लैक मनी के तौर पर 3,034 करोड़ रुपये थे जोकि 1979 में बढ़कर 46,867 करोड़ हो गए। साधारण शब्दों में कहें तो ब्लैक मनी 1968 में सकल घरेलू उत्पाद की नौ फीसदी से बढ़कर 1979 के अंत तक 49 फीसदी हो गई। और ध्यान रखिए, यह तीस साल पहले की बात है! और यह कोई छुपी हुई बात नहीं है। साल दर साल घोटालों की आवृत्ति और परिमाण दोनों बढ़े ही हैं! 80 के दशक में सिर्फ आठ घोटाले थे जो कि 1990 के दशक में बढ़कर 26 हो गए और अब इसमें जबरदस्त इजाफा हुआ है और आंकड़ा 150 को छू रहा है! नैतिकता का स्तर यह है कि राजनीतिक वर्ग ने नोचने-खसोटने में कोई कोर कसर बाकी नहीं लगाई, चाहे वह पशुओं का चारा हो, सैनिकों का ताबूत हो या फिर शहीदों के लिए बना रियल इस्टेट हो। इसीलिए एक तरफ जहां एक ऐसा मुख्यमंत्री है, जो खनिज के मामले में हमारे सर्वाधिक संपन्न राज्य के संसाधन बेच देता है जैसे वह उसकी निजी जायदाद हो, तो दूसरी तरफ एक अन्य मुख्यमंत्री कारगिल शहीदों के आश्रितों के लिए बनने वाले आवासीय फ्लैटों का बेजा इस्तेमाल करता है। और जैसे इतना काफी नहीं था, भारतीय खेलों को अपनी निजी जागीर समझने वाले एक व्यक्ति ने सी.डब्ल्यू.जी के जरिए हजारों करोड़ रुपये डकार लिए। और जैसे इसके बाद भी संतोष नहीं हुआ। बगैर राष्ट्रीय सुरक्षा की परवाह किए राष्ट्रीय स्तर के एक राजनेता ने टेलीकॉम लाइसेंस बेच दिए, जैसे कि उनपर उसका मालिकाना हक हो, वह भी ऐसी कीमत पर, जिससे सरकारी खजाने और देश को 1,70,000 करोड़ रुपये का चूना लगा। अभी तक उस पैसे का पता नहीं है। इसीलिए जब ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी (जीएफआई) अपनी हालिया रिपोर्ट में बताता है कि भारत में हर साल ब्लैक मनी के तौर पर करीब 19 बिलियन डॉलर गुम हो जाते हैं, तो कोई हैरानी नहीं होती- हम सभी जानते हैं कि पैसा कहां से आता है।1

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

नारद डाट कॉम

ये भी गांधी

मां लक्ष्मी का साक्षात एक्सपोर्ट करने वालों में से आधा दर्जन से अधिक गांधी प्रजातियों के नामों का खुलासा हुआ है। गांधी हैं, तो बापू से जरूर जुड़े होंगे या हो सकता है कि साउथ अफ्रीका के दौरान प्रवास पर रहे लंगोटीधारी बापू अपने इन वंशजों को वहां छोड़ आये हों। वैसे हजार और पांच सौ वाले नोटों पर गांधी के लोगों का कानूनी अधिकार बनता है,कारण गंगाजल की तरह साफ है उनका चित्र आधे से ज्यादा हिस्से पर छपा है। लोग प्राय: बोलचाल की भाषा में कहते हैं कि तुम्हारे बाप का माल है क्या? अब इससे ज्यादा और  बाप का क्या होगा, हर नोट पर तस्वीर जड़ी हुई है।
दरअसल मैं तो इन दिनों चवन्नी बन्द होने से मजे का दुखी हूं। मेरा इस करेंसी से पुराना साथ रहा है। चाट पकौड़ी से लेकर सिनेमा तक का  सफर इसी के साथ पूरा किया है। दारू की खुराक आज भी चवन्नी भर की है। मुझे इसके बन्द होने का अंदेशा बहुत पहले से था। कई बार भिखारियों ने इसके देने पर बहुत घटिया बर्ताव किया है। एक आध बार तो बदले में अठन्नी वापस कर दी है। मैं उसी समय समझ गया था कि मेरी प्यारी  चवन्नी अब साथ छोडऩे वाली है। बड़ा बुरा हाल है, ५०० और हजार वालों के दर्शन नहीं हैं और जो साथ था उसका अंतिम संस्कार खुद सरकार ने कर दिया है। एकन्नी,दुअन्नी,तांबे का छेद वाला सिक्का तो पहले ही काल कलवित हो चुके हैं। अब चवन्नी भी चल बसी। इसके जाने के बाद मैंने इसके जाने के कारणों पर बहुत गम्भीरता से चिन्तन किया। मुझे तब एक बात समझ में आयी। सरकार गरीबी हटाने के लिये दृढ़ संकल्प है। उसने सोचा कि पहले इनके सिक्के को चलता करो, बाद में ये खुद और गरीबी दोनों निकल जायेंगे। बात ठीक भी है जिसका सिक्का बन्द उसकी कहानी खत्म। अब जमाना गांधी छाप बड़के नोटों का है। इसके चलते बड़े लोग इन्हें विदेशों की बैंकों में जमा करा रहे हैं। सरकार की  भली चलाई कब इन नोटों पर निगाह खराब हो जाये और इनका भी राम-राम सत्य कर दे।
घोर अन्याय
पिछले दिनों सेल्स टैक्स के अफसरों की बैठक में सरकार को इस बात की निन्दा हुई कि उन्हें भ्रष्ट कहना बन्द किया जाये। बात लाजमी है विधायक लोग बलात्कार के बाद भी माननीय कहे जाते हैं। इनके आगे महा तो लगाया ही जा सकता है कम से कम।1

प्रथम पुरुष

औपचारिकता नहीं सार्थक प्रयासों से मिलेगी रोगों से निजात

संक्रामक रोगों का उन्मूलन करने के आधे अधूरे एवं अंश कालीन उपायो के फलस्वरूप वे आजतक फैलती रहती है सैकड़ो की मृत्यु होती है हजारों बीमार पड़े रहते है उनको जड़ से उखाडऩे के उपाय है परन्तु हम लीपा पोती करके सन्तुष्ट हो जाते हैं।
१. मलेरिया - हम कहते रहे मच्छर रहेगें मलेरिया नहीं रहेगा परन्तु नहीं माना कि जब तक मच्छर रहेंगे मलेरिया भी रहेगा डेंगू भी रहेगा उतएव पानी नालियों में गड्ढों में इक_ा न हो इसके उपाय नहीं किया पानी निकासी को मलेरिया प्रोग्राम से नहीं जोड़ा उनको पैदा होने के लिए अवसर मिलेगा तो वे पैदा होगें और मलेरिया फैलायेगें डेंगू भी बिना अच्छे डे्रनेज सिस्टम के इनका उन्मूलन सम्भव नहीं है।
२. मस्तिष्क ज्वार- देश के तमाम ६ हिस्सो में यह होता है मुख्य कारण है बाढ़ का पानी इक_ा होना और उसमें उग रहे धान के खेतो में इसके वायरस का पनपना। इस रोग में मृत्यु का प्रमुख कारण सांस की नली का चोक हो जाना यदि बीमार को तुरन्त अस्पताल पहुंचा दे और उसकी नाक और मुंह को खुला रखने के लिए रेसजीरेटर लगा दे तो उसकी मृत्यु नहीं होगी यह उपकरण महंगा नहीं है परन्तु यह भी प्रात्येक स्वास्थ्य केन्द्र में उपलब्ध नहीं है। बाढ़ का पानी खेतों में न भरे इसकी कोई दीर्घ कालीन योजना नहीं है पिछले १०० वर्षों से भूल हो रही है
३. आयोडीन- आयोडीन की कमी से घेंघा होना यह भी बाढ़ से जुडा हुआ है क्यों कि फसलों से आयोडीन धुल जाता है केवल नमक में आयोडीन मिलाने से तो यह बीमारी मिटेगी नहीं बाढ़ पर नियंत्रण करना होगा जिनको इसकी कमी नही है उनको अधिक आयोडीन हानिकारक भी है।
४. कै, दस्त, पेंचिस (गैस्ट्रोइन्राईटिस) यह भी बाढ़ से एवं पानी भरने से जुड़ी है क्योंकि इनको फैलाने वाले कीटाणू पैदा होते है पनपते है जितनी भी बीमारियां पानी जनित है उनरकी रोक थाम के लिये अच्छी से अच्छी पानी निकालने की योजना आवयक है क्योंकि इस पानी में मल मूत्र भी मिल जाता है।
५. परिवार नियोजन-  २ से अधिक बच्चे होने दो फिर नसबन्दी करा दो। शादी हो जाने दो फिर परिवार नियोजन की शिक्षा देगें यह तो आग लगने दो फिर बुझायेगें बच्चो की स्कूलों में परिवार नियोजन के बारे में या अपने शरीर के अंगो के बारे में बताया जाये यह बहस वर्षों से चल रही है। कहने को तो हम  कहते है। लड़की पढ़ती है तो परिवार पढ़ता है इसी प्रकार यदि शादी से पहले लड़का लड़की परिवार नियोजन समझेगे तो उनके साथ-साथ उनके मां बाप भी समझेगें उनको अपना परिवार हम दो हमारे दो तक सीमित रखना पड़ेगा यदि वे उनका अच्छा पालन पोषण नहीं कर पायेंगे तो उनकी नजरो में गिर जायेंगे उनसे आंखे चुरायेगें। अतएव स्कूलों में यह शिक्षा आवश्यक है। सेक्स शिक्षा से लड़कियों को विशेष्ज्ञ कर लाभ होगा वे अपने ऊपर होने वाले बलात्कार (रेप) और शादी से पहले या बाद में होने वाले अनचाहे गर्भ को रोकने में सक्ष्म हो जायेगी।
चिकित्सा के लिये दूसरे देशों में जाना एक पर्यटन उद्योग भी विकसित हो रहा है। अमरीका में ४.६६ करोड़ नागरिको का चिकित्सा बीमा नहीं है। पिछले ५ वर्षो में बीमा की राशि ९' बढ़ गयी है। कैनडा और योरूप में शैल्य चिकित्सा के लिए लम्बे समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है और दर्द सहना पड़ता है भारत दिन की बाईपास सर्जरी अमरीका में होने वाली का केवल ७.७' खर्च होता है इसी प्रकार कूल्हा बदलना २०'  है यात्रा (हवाई) खर्च ठहने का खर्च मिलाने के बाद भी बहुत सस्ता है। भारत अफरीका एवं दक्षिण ऐशिया के कई देशों में स्वास्थ्य कार्य करताओं की हुत कमी है भारत में १००० पर ६ अमरीका में २.५६ डाक्टर है चीन में १.५० भारत में टीबी, मलेरिया एड्स, कुष्टरोग एवं अन्य छूत छात वाली बीमारियों के बहुत रोगी है। शिशु मृत्यु दर अधिक एवं औसर उम्र कम है अतएव चिकित्सा क्षेत्र में काम कररे वालों की जरूरत के अनुपात में बहुत कमी है। भारत में निजी क्षेत्र में चिकित्सा पर ७.५' को आय से भी अधिक खर्च करना पड़ता है अमरीका में ४४.६' भारत में ७५' को आय से भी अधिक खर्च करना पड़ता है अमरीका में ४४.६' को अवएव निजी क्षेत्र में विदेशों से इलाज कराने वालों की संख्या बढ़ेगी फलस्वरूप चिकित्सा और महंगी होगी जिसका बोझ देश के नागरिक उठा नहीं पायेगे। अतएव सरकार को चिकित्सा क्षेत्र के कार्यकर्ताओं एवं मूलभूत सुविधाओं की कमी पूरी करने के सभी उपाय करने होगे अन्यथा  हमारे देश के नागरिक चिकित्सा के अभाव में बीमार रहेगें और मरते रहेंगे। विदेशियों को भी सुविधा देनी है सरकार ऐसी चिकित्सा पर टैक्स लगा सकती है या इसे लाभ न कमाने का स्तर दे सकती है।1

मार्शल का बाईस्कोप

बहन जी,टीवी और मुलायम
अनुराग अवस्थी " मार्शल "

खबर है कि बहन जी दिन भर टीवी देखती हैं और रुपये गिनती हैं। यह भी हवा-हवाई नहीं है, उत्तर प्रदेश का पूर्व मुख्यमंत्री यह बात कह रहा है। जब से यह खबर आयी है मेरे घर में विवाद की जड़ पैदा हो गयी है। मुझे लगता है मेरी बीबी टीवी कुछ ज्यादा देख रही है। पहले मेरे पहुंचने पर पानी-चाय का शिष्टाचार करती थी, अब सीरियल छोड़ती नहीं है। बच्चे भी टीवी में मन ज्यादा लगाने लगे हैं। मेरे रोकने-टोकने पर एक जवाब, लो तुम्हें मेरा टीवी देखना बहुत खराब लगता है, दिन भर तो मैं चूल्हे चौके में खटती हूं। गलती यह हो गयी कि एक दिन मेरे मुंह से निकल गया तुम दिन भर बहन जी की तरह पड़े-पड़े टीवी देखती हो, बस फिर क्या, वो हत्थे से उखड़ गयी। किसी दिन यह कह देना कि दिन भर रुपये गिनती हो। तुम ऊपर से जितने मुलायम हो, अन्दर से उतने ही कठोर। तुम से किसी नारी का आराम नहीं देखा जाता है।
मैं ऐसा महसूस कर रहा हूं कि अब मेरी बीबी को टीवी देखने में  खेद, शर्म और समय की बर्बादी नहीं लगती है। अब वह इसे ज्ञान के विस्तार, समय के सदुपयोग और स्टेटस सिम्बल बनाने लगी है। अब वह जाने अनजाने शीशे के सामने संवरने पर ज्यादा ध्यान देने लगी है। इस बीच पहले छोटे से बच्चे को हृदय से लगाकर वह बाजार की$ खरीददारी निपटा लेती थी। अब वह बड़े पर्स खरीदने रुचि लेने लगी है। मझे डर है किसी दिन वह मुझसे हीरे की अंगूठी, टाप्स या नेकलेस की मांग न कर बैठे। मुझे लगता है कि मुलायम ने बहन जी की टी.वी. देखने की बात कह कर बरइये के छत्ते मे हांथ डाल दिया है या मैने वह बात अपने घर में दुहरा कर बड़ी गलती कर दी है।
मुझे लगता है कल कहीं बहन जी का मुंह खुल गया और उन्होंने यह कह दिया कि तुम अमर सिंह के साथ फोन पर क्या बातें किया करते थे,क्यों वह टेप सुप्रीम कोर्ट की मदद से दबाये घूम रहे हैं। डर नहीं है तो उसको आम ही हो जाने दो। आम होना हर खास के वश का नहीं है। खास जैसे ही घटियापन की हदें पार करता है। वह आम से भी ज्यादा आम हो जाता है। अब यह आप बताइये कि अच्छे खासे मेरे जैसे आम आदमी के घर में खास घुसा नहीं कि झगड़ा शुरू। आप भी एक काम करिये। आम आदमी की तरह रहिए न खास को घर में घुसने दीजिए न उसके घर में घुसिये। शेखर, आनन्द सेन, अमरमणि, पुरूषोत्तम द्विवेदी से आगे तक बड़ी लम्बी चैन है। फिर मत कहना घर को आग लग गई घर के चिराग से।
जेल कोई भी जाये नरक चौदस तो शुरू हो ही जायेगी। इसलिए वीआईपी की लटकन और बड़े आदमी की अचकन  कभी न बनिये।
बहन जी और भाई साहब को टीवी और अखबारों में रहने दीजिये क्योंकि ये व्यवस्था परिर्वतन कर रहे हैं। न तो ये अपनी अवस्था देखेगें और न गरीब की व्यवस्था बस एक झटके में लग जायेगे आपको समाजवादी या सर्वजनवादी बनाने में। आम आदमी अपनी दाल रोटी प्याज के झंझट में क्या कम परेशान है कि सर्वजन हिताय करने में लग जाये। या फिर समाजवादी बन जाये। समाजवादी तो कैसे हैं आप अमर सिंह जी से ही अनुमान लगा सकते हैं आज मुलायम के गुण कल माया के परसों सोनिया के। इसे कहते हैं असली समाजवादी। इसलिये हे माया/मुलायम तुम लड़ो लेकिन अपनी दरिया छिनरिया अपने घरों तक ही रखी। हमें बक्शो।1

बदले बदले नजर आने लगे सरकार

बदले बदले नजर आने लगे सरकार
विशेष संवाददाता

किसी समय में दौरे के दौरान बहिन जी की कोपदृष्टि से बचने के लिये ये अधिकारी   खुद ही घंटों चिलचिलाती गर्मी में धूप में खड़े हो कर और हाड़ कपांऊ जाड़े की जमाऊ सर्द रातों में खुले आसमान के नीचे खड़े हो कर बहिन जी की अगुआनी का इंतजाम खुद ही करने में जुटे रहते थे। एक तरह से समूची ब्यूरोक्रेसी ही दौरे के भागीरथ की तरह एक टांगू तपस्या  करते नजर आती थी। 
सूबे की मुखिया मायावती यानि कि बहिन जी को इससे पहले दौरे वाली मुख्यमंत्री के रूप में ही जाना जाता था। दौरे भी ऐसे कि जिस जिले में हो जाते थे उस जिले के आलाअफसरान से ले कर दफ्तर के चपरासी तक को बर्खास्तगी के डर से दौरे पडऩे लगते थे। बाकी दिनों में अपने एयरकंडीशन्ड कमरों में बैठ कर आराम फरमाने वाले और पर्दा लगी वातानुकूलित कारों में तफरी के लिये सैर सपाटा करने वाले अधिकारी भी दौरे के अंदेशे और दौरे के दौरान बहिन जी की कोपदृष्टि से बचने के लिये खुद ही घंटों चिलचिलाती गर्मी में धूप में खड़े हो कर और हाड़ कपांऊ जाड़े की जमाऊ सर्द रातों में खुले आसमान के नीचे खड़े हो कर बहिन जी की अगुआनी का इंतजाम खुद ही करने में जुटे रहते थे। एक तरह से समूची ब्यूरोक्रेसी ही दौरे के भागीरथ की तरह एक टांगू तपस्या   करते नजर आती थी। पर लगता है जैसे-जैसे समय बदला सरकारें बदली, संगी साथी बदले वैसे ही बहिन जी के दौरों के खौफ का दौर भी बदला-बदला सा नजर आने लगा है। इसी बदलाव के साथ दौरे का सीधा निष्कर्ष यह निकाला जाने लगा है कि न कोई अधिकारी भ्रष्ट है न कोई ईमानदार न किसी के अधूरे विकास कार्यों पर नजर है न किसी के अच्छे काम पर। न कोई अनुशासन हीन है न कोई कर्तव्य परायण। न किसी की मेहनत का इनाम है,  न किसी को मक्कारों की सजा। न किसी को वरिष्ठ का लाभ है, न किसी को कनिष्ठता का नुकसान।
मुख्यमंत्री के दौरे का पचास प्रतिशत लाभ मिल जाता, अगर वे स्थानीय जनता (अपनी पार्टी सर्मथकों से ही सही) और प्रेस से भी मुखतिब ही लेती। लेकिन शायद उनके पास वक्त छोड़कर सब कुछ है।  इसीलिये जब सदन चल रहा है तब उन्होने अपना भ्रमण कार्यक्रम लगाया है।
ज्यादा अच्छा तो यह रहता कि वे औचक निरीक्षण ही कर डालतीं। मतलब एक बार वे वेश बदलकर उ.प्र. की दशा, प्रशासनिक मशीनरी की कार्यप्रणाली, किसानों की दिक्कतें, सपाई तर्ज पर थानों को बसपाई कार्यालय बनते देख लेतीं। अपनी सुरक्षा के लिए अतिरिक्त चिन्ता से ग्रस्त बहन जी अगर स्वयं ये न करतीं तो अपने अधीनस्थों से यह करवा लेतीं। हेलीकाप्टर से आकर समीक्षा चाहे करमवीर और फतेबहादुर करें या स्वयं बहन जी, अधूरा सच ही सामने आयेगा, जो पूरे झूठ से ज्यादा खतरनाक होगा। यहां तक कि अगर जिलों में डीएम, एसपी, सादी वर्दी में प्राइवेट गाड़ी से घूम जायें तो आइने में तस्वीर आ जायेगी और एक्सरे में अन्दर की हालत। इलाज तभी सफल होगा जब मर्ज पूरा पकड़ में आ जायेगा। समय कम है, मर्ज गम्भीर है। इलाज जल्दी ना शुरू किया तो मिशन २०१२ सफल होना मुश्किल है। दरअसल सारी कवायद तो उसी के लिये हो रही है, न कि व्यवस्था परिर्वतन के लिए। 1

कवर स्टोरी - ' दौरे का दौर '

माया की दौड़ से अफसरशाही को दौरा
मुख्य संवाददाता

इस बार पहले से ही यह माहौल बन गया है कि यह दौरे चुनाव के मद्दे नजर किये जा रहे है। चार साल तक बहज जी क्या करती रहीं? यह प्रश्न हर चार लोगों के बीच हर चौराहे और चाय की दुकान पर चर्चा का विषय बना है। रही सही कसर शशांक शेखर, फतेहबहादुर और नेतराम की तिकड़ी पूरी किये दे रही है।

उडऩ खटोले पर सवार बहन जी जब कानपुर से उड़ गयी तो चर्चा में केवल एक बात की थी कि 'सारे घर में बदल डालूंगी लेकिन छह घंटे बाद जब फैक्स आये तो पता चला कि बहन जी के देखने-कहने,अधिकारी के नोट करने और फिर लखनऊ से उसका आदेश बनने के बीच और भी बहुत कुछ हो जाता है। मतलब हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और।
एक फरवरी से बहज जी के बहुप्रचारित दौरे का आठ फरवरी तक कानपुर में पहला चरण पूरा हो गया। बहन जी के इस बार यह दौरे वह धमक बनाने में कायमाब नहीं हो रहे हैं  जिसके लिए वे जाने जाते थे।  पूर्व निर्धारित इन दौरों को औचक निरीक्षण का नाम देकर निलम्बन बर्खास्तगी और स्थानान्तरण की चाबुक चला कर जहां वह ब्यूरोक्रेसी  को और ज्यादा दुम हिलाऊ बना लेती थीं। वहीं इस बार पहले से ही यह माहौल बन गया है कि यह दौरे चुनाव के मद्दे नजर किये जा रहे है। चार साल तक बहज जी क्या करती रहीं? यह प्रश्न हर चार लोगों के बीच हर चौराहे और चाय की दुकान पर चर्चा का विषय बना है। रही सही कसर शशांक शेखर, फतेहबहादुर और
नेतराम की तिकड़ी पूरी किये दे रही है। दौरे के वास्ते दिखने और दौरे के बाद गाज गिरने वालों की सूची में फेरबदल का ऐसा जाल तैयार होता है जिसमें सब कुछ प्रायोजित और पहले से तय का माहौल बन रहा है। मुकेश मेश्राम, पी.वी. सिंह, ओ.एन.सिंह, प्रहलाद सिंह, मुत्तू स्वामी, रामस्वरूप.... जैसे कुछ नामों को बहन जी की कार्यशैली पर कसकर देख लिया जाये तो शायद आगे चलकर यह दौरे विवादों के जनक, भ्रष्टाचार के कारण पूर्वाग्रह से ग्रसित और जातिवादी  शतरंज पर मोहरों की उठापटक से ज्यादा कुछ नहीं माने जायेंगे। जो मुलायम सिंह आज यह कह रहे हैं कि 'बहन जी दिन भर टी वी देखती हैं और रुपये गिनती है  उन्हें शायद कल और भी मसाला मिल जाये। कानपुर में अगर कुछ गड़बड़ था विकास कार्य अधूरे थे सी एम की सिक्योर्टी टाइट नहीं थी, क्राइम कन्ट्रोल नहीं है, या अधिकारियों का पर्यवेक्षण शिथिल है इसलिए कमिश्नर अमित घोष दोषी  है, लेकिन डी एम मुकेश मेश्राम क्यों नहीं? कानपुर में पिछले एक सालों में बढ़े क्राइम को अगर पैमाना बनाया जाये और आई जी विजय कुमार से लेकर डी आई जी अशोक मुत्था जैन जिम्मेदार हंै, और इनका स्थानान्तरण कर दिया जाये तो पी.पी.सिंह का क्या होना चाहिए, जिन्होने दिव्या काण्ड में खुले आम सच्चाई को दबाकर निर्दाेषों को झूठ बन्दकर फर्जी गुडवर्क दिखाकर  मीडिया को अपनी हनक का शिकार बनाकर पूरी सरकार की छवि को धक्का पहुंचा दिया। नीलम काण्ड से लगाकर दर्जनों घटनाओं में उन्होंने न केवल अपने वरिष्ठ अधिकारी के नाते मिले वैधानिक अधिकारों का दुरूपयोग किया बल्कि घटिया जातिवादी टिप्पणियां खूले आम कर माया सरकार को बदनाम किया। मुत्तुस्वामी जहां जायेगा जिला बर्बाद कर देगा तो पी.पी. सिंह जहां जायेगा क्या करेगा?
सजारी गांव के  फ्लैट सही नहीं बने थे, ऊपरी मंजिल पर पानी नहीं पहुंच रहा है या केडीए ने कानपुर को बर्बाद कर दिया है तो वो ओ.एन.सिंह जो मात्र १५ दिन पूर्व आये थे जिम्मेदार हैं तो उन रामस्वरूप का क्या किया जाये जो ढाई साल तक केडीए को लूटते रहे?
मुस्तफा की लगाई एक-एक सील खोलकर नगर के नियोजित विकास का अन्तिम संस्कार कर गये। जानकारों और प्रत्यक्षदर्शियों की माने तो बहन जी के सामने नाम रामस्वरूप का नोट करने को कहा गया लेकिन फैक्स ओ.एन.सिंह का आ गया।
भग्गीनिवादा में रातोंरात बनी सी.सी.रोड नाली, शौचालय कुछ भी बहन जी की नजरों से नहीं बचा उनकी मुखमुद्रा और नाराजगी की गाज एस.डी.एम. प्रहलाद सिंह पर गिरनी तय मानी जा रही थी। फैक्स आया तो वे पाक साफ थे। अगर मान भी लिया जाये कि अपनी ऊंची पहुंच सीधी पहचान के बल पर स्वयं के तहसील मुख्यालय पर निवास करने छापा निरीक्षण जांच नियमित करने आदि के चलते बच गये तो फिर बीडीओ को क्यों छोड़ा गया?
सीडीओ को दौरे के चौबीस घंटे बाद केवल नगर देहात में इन्टरचेंज का क्या मतलब? वास्तविकता तो यह है कि अगर कानपुर नगर के एक दर्जन अम्बेडकर गांवों को देख लिया जाये तो चन्डाली, चीतामऊ (बिल्हौर) कुरौली (ककवन) गोविन्दपुर (शिवराजपुर) हृदयपुर  (चौबेपुर) घाटमपुर को छोड़ दिया जाये तो शेष गांवों में बगैर नाक बन्द करे नहीं खड़ा हुआ जा सकता है। इन गांवों में भी हैलीपैड से लगाकर थोड़े से हिस्से को चमाचम कर दिया गया था। ठीक वैसे ही जैसे टीवी के मरीज को लिपिस्टिक पावडर लगाकर टनाटन दिखा दिया जाये। अम्बेदकर गांवों के अलावा तो किसी गांव में प्रशासन के पास झाकनें का भी वक्त नहीं है।
यह असलियत तब देखने को मिल रही है, जब छह माह पहले ही फरवरी में उनका कार्यक्रम तय हो गया था। पिछले छह माह से प्रशासन को अम्बेदकर गांवों के अलावा कुछ याद नहीं है। एक पैर से खड़ा होकर वह गांवों को चमचमाने में लगा है। तहसील अस्पताल ब्लाक स्कूल तो उसी हफ्ते ठीक कराये गये। रंगरोगन, फाइलें कबाड़ हटाना....। शायद इसलिये क्योंकि इससे ज्यादा समय तक इन्हे ठीक रखा ही नहीं जा सकता था।
लेकिन मुख्यमंत्री की अगुवानी में आला अफसरानों ने जो भी फौरी व्यवस्थायें करीं वो महज सरकारी धन की बर्बादी ही तो थीं। अम्बेडकर ग्राम सम्र्पक मार्ग के लिये आनन-फानन में बनायी गयी सड़क ने तो मुख्यमंत्री के गांव से पलटते ही दम तोड़ दिया।अगर उनका काफिला एक बार फिर इसी सड़क से गुजर जाता तो इस सड़क में जबरन भरे गये गड्ढों से वो भी रू-ब-रू हो जातीं।
इससे पहले बस्ती मण्डल के दौरे में आयुक्त अनिल कुमार को केवल इसलिये निलम्बित कर दिया गया क्योंकि अंतिम समय तक सीएम का कार्यक्रम डिस्क्लोज नहीं किया गया था कि वे मुख्यालय पर उतरेंगी या चालीस किलोमीटर दूर गांव में जब वे गांव में उतरी तो अनिल कुमार अगवानी के लिए मौजूद नहीं थे। बस फिर क्या था उनकी ईमानदारी, जनसामान्य के लिए हर समय सहज-सुलभता सब कुछ खाक हो गयी, और वे प्रतीक्षा सूची में डाल दिये गये।1

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

नारद डॉट कॉम

पगलैती के लिये है

पी.पी. को मेडल क्या मिला, शहर के लोग पगला गये हैं. अब मांग कर रहे हैं कि २६ जनवरी को दिया गया मेडल छीन लिया जाये. शहरियों का मानना है कि ये हम लोगों का अपमान है. इधर शहर में अहमक टाइप के लोगों की संख्या में मजे का इजाफा हुआ है हर गली में ४-६ टहलते मिल जायेंगे. पहले चीख चीख के पी.पी. को चलता करवा दिया अब कह रहे हैं कि मेडल भी नहीं मिलना चाहिए. शहर के पूरे मांगकर्ताओं से मेरी विनती है कि पहले मामले को ठीक से समझो फिर जो चाहे सो मांगो. इस मांग को खड़ा करने से पहले मेडल दाताओं से ये पूछो कि इन महाशय को ये मेडल काहे के लिये दिया गया है? न ऐसे बतायें तो आरती आई का सहारा लो. मुझे आशा ही नहीं है बल्कि पूर्ण विश्वास है कि जवाब हेडिंग वाला ही आयेगा अब ऐसे में मेडल लेने और देने वालों का क्या दोष? पी.पी. जैसे थे उसी के लिये उन्हें मेडल मिला है.
ऐडल-मेडल मिलने में गड़बड़ी की शुरुआत आजादी के तुरन्त बाद शुरू हो गयी थी. पुराने जमाने के कई जेबतराश फ्रीडम फाइटर बन गये, बाकायदा पेंशन भी पेलते रहे और जब इस दुनिया से खिसके तो पूरे राजकीय सम्मान के साथ. कुल मिलाकर लोक-परलोक दोनों सुधर गये. मेरे एक रिश्तेदार आजादी के पहले क्रान्तिकारियों को कट्टे तमंचे सप्लाई किया करते थे बाद में आजादी के बाद यही सप्लाई वो अपराधियों के लिये करने लगे, लेकिन स्वतंत्रता संग्रामी का ताम्रपत्र हमेशा गले में लटकाये रहते थे. केन्द्र और राज्य दोनों की  पेंशन उन्हें मिलती थी. कमोवेश यही लफड़ेबाजी देश में डाक्टरों के साथ भी है तरह-तरह के डा. साहब लोग खुली हवा में विचरण कर रहे हैं. झोलाछाप से लगाकर पीएचडी वाले तक सबने अपनी विधाओं से देश का मान बढ़ाया है. वर्तमान में देश तमाम समस्याओं के साथ जूझ रहा है प्याज, गैस, बिजली कुछ भी आसानी से नहीं मिल रही है. आप लोग पी.पी. के चक्कर में उलझे हुये हो. १०-२० ग्राम पीतल अगर उनके कंधे पर लटक भी गई तो उससे आपका क्या नफा-नुकसान हुआ जा रहा है. आप लोग चाहो तो उनके नाम के आगे एक पी और जोड़ सकते हो, तब आपको ये समझ आयेगा कि ये मेडल उन्हें क्यूं मिला? तो अब आज और अभी से पी पी नहीं बल्कि पी.पी.पी. चलेगा.
जिन्दगी
बस कंडक्टर की तरह हो गई है चलना भी रोज है और जाना भी कहीं नहीं.1

प्रथम पुरुष

विचारों और समय का तालमेल है सफलता का मूलमन्त्र
आपके मन में प्रतिदिन ६०,००० विचार आते हैं. परन्तु आप केवल ५ प्रतिशत याद रखते हैं. क्योंकि शेष ९५ प्रतिशत विचार प्रतिदिन एक से होते हैं. अतएव उन्हें भूल जाते हैं. दर्द आने वाले आनन्द का आभास देता है. दर्द एक प्रकार का अदभुत शिक्षक है. एक बच्चा दिन में ३०० बार हंसता है युवा पुरुष केवल १५ बार, क्योंकि उसको छोटी-छोटी बातें आनन्द नहीं देती. गलतियां हमें शिक्षा देती हैं यदि हम उनका ढंग पूर्वक सच्चे मन से विश्लेषण करें.
बाहर दिखने वाली सफलता की शुरुआत अन्दर होने वाली सफलता के साथ जुड़ी है. डर चेतना का नकारात्मक स्वभाव या विचार है. अतएव वे कार्य अवश्य करो जो तुमको डराते हैं या जिन्हें करने में तुह्में डर लगता है. फलस्वरूप डर चला जायेगा.
क्रियाकलाप धार्मिक व अन्य लाभदायक हैं. आपकी इच्छा शक्ति को अधिक मजबूत बनाने में एवं शान्ति देने में यह १० प्रकार के हैं:-
१. एकान्त में मौन बैठना.
२. शारीरिक योग करना.
३. अच्छा भोजन खाना.
४. अपार ज्ञान ग्रहण करना.
५. प्रकाशवान जीवन व्यतीत करना. प्रतिदिन किये गये कार्यों को लिखना नकारात्मक या गुणात्मक ऋणात्मक.
६. स्वयं का विश्लेषण करना गलतियां करना, अनुभव का सूचक है. अच्छा निर्णय लेना अनुभव से, अनुभव गलत निर्णय से आनन्द अच्छे निर्णय से.
७. प्रात: उठना सूर्य की किरणें शक्ति देती हैं. उत्साहित करती हैं. निद्रा का गुण मात्रा से अधिक महत्वपूर्ण है. हंसना आनन्द का रस है.
८. संगीत मन उत्साहित करते हैं, प्रेरणा देते हैं, अनुशासन में रखते हैं. स्वयं से बात करना ऋणात्मक हैं.
९. सर्वांगसम/परस्पर अनुकूल आचरण- मेहनत, दूसरे का ख्याल, नम्रता, धैर्य, इमानदारी एवं हिम्मत.
१०. सदाचार- प्राथमिकताओं पर ध्यान देना पतली बातों या विषय पर नहीं.
बालू घड़ी (हावर ग्रास) हमको समय का उचित उपयोग करना सिखाता है बताता है. समय सबसे मूल्यवान वस्तु है जो कहता है प्राथमिकताओं पर ध्यान रखो जीवन को सरल बनाओ.
हमारे द्वारा किये गये तमाम कार्यों में से केवल २० प्रतिशत कार्य दीर्घकालीन फल देते हैं. ८० प्रतिशत से कुछ खास नहीं होता इसे २० का नियम कहते हैं.
जीवन में 'ना कहने की हिम्मत पैदा करो. हमेशा हां कहना कायरता है. बेईमानी है एक आसान रास्ता है  सबका अच्छा बना रहने का. मृत्यु के समय तुह्मारे क्या विचार होंगे क्या करना चाहोगे ऐसा ही हमेशा करने की आदत डालो. समय बरबाद करने वालों से बचो वे तुह्मारा समय चुरा रहे हैं. पहले की गयी गलतियों से सीखो. सेवा करना ही जीवन का चरम या अन्तिम उद्देश्य है.
तनाव दूर करने के उपाय:-
  • स्न किताबें या अन्य सामग्री पढऩे से ६८ प्रतिशत.
  •  सामाजिक कार्यों से ६२ प्रतिशत.
  •  संगीत सुनने से ६१ प्रतिशत.
  •  चाय या कॉफी पीने से ५४ प्रतिशत.
  •  टहलने के लिये जाने से ४२ प्रतिशत.
  •  हंसी चाहने से ३९ प्रतिशत.
  •  चिल्लाने से २५ प्रतिशत.
  •  विडियोगेम खेलने से.
  •  कोई भी खेल खेलने से.
  •  च्यिंगम चबाने से १७ प्रतिशत.
  • अपनी आवश्यकताओं की प्राथमिकता निश्चित करो.
  •  स्वयं व सभी से सम्भावित आशायें करो.
  •  सम्पूर्ण होने की कोशिश न करो, सर्वशक्तिमान नहीं हो.
  •  अपनी सीमाएं बनाओ और उनका पालन करो.
  •  अपनी भावनाओं को दूसरों से प्रगट करो, अन्दर बन्द न रखो.
  •  दूसरों को समझो, क्षमा करो, अपने को दोषी न समझो.
  •  उन व्यक्तियों से दूर रहो जो तुह्में तनाव देते हैं.
  •  जिन बातों या चीजों को बदल नहीं सकते स्वीकार करो.
  •  अपना पक्ष या व्यवहार बदलो दूसरे का नहीं.
  • सन्तुलित जीवन शैली अपनाओ काम के लिये.
दूसरे सम्बन्धों के लिये, हंसी खुशी के लिये, तनाव रहित होने के लिये अच्छा पौष्टिक भोजन और थोड़ा सा समय आध्यात्मिक चिन्तन के लिये.1

रजिस्ट्रार कार्यालय का काला कारनामा

रजिस्ट्रार कार्यालय का काला कारनामा
प्रदेश शासन की रोक के बावजूद कि गयी रजिस्ट्री

कानपुर के रजिस्ट्रार कार्यालय में नियम-कानूनों  को बला-ए-ताक पर रखकर जमीन के व्यवसाय में लिप्त  संगठित अपराधी यानी 'भू-माफिया  सक्रिय हैं. इस खेल में उनका साथ आला अधिकारी भी दे रहे हैं. जिनके संज्ञान में नियम-कानूनों का कोई मतलब नहीं है. ये कोई आज या फिर  अभी से नहीं बल्कि आजादी  के समय से ही चलने वाला ऐसा  खेल है, जिसमें बहुत धर्मात्मा  जैसी छवि के अधिकारी भी लिप्त हो ही जाते हैं.  यूं  भी प्रदेश में चल रही सरकार  के प्रति आम लोगों में  ईमानदारी के बारे में कोई  बहुत अधिक श्रद्धा नहीं है. 'ऊपर तक देना होता है का नारा आज कल वो अधिकारी  भी लगाते हुए मिल जाते हैं  जिनका 'ट्रैक रिकार्ड  बहुत अच्छा माना जाता है . ऐसे  अधिकारी भी यही गान करते मिल जाते हैं, जिनकी छवि  आम जनता में बहुत जन-सुलभ, लोकप्रिय और कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों की है. पर वास्तव में क्या है कि, 'कितना देना होता है और कितना लिया जाता है के खेल  में न पड़ते हुए बताते  चलें कि कभी-कभी इस लेन-देन  के चक्कर में आला अधिकारियों की आदत इतनी खराब हो जाती है कि उन्हें पता ही नहीं चल पाता है कि उनसे जो काम कराया जा रहा है वो कितना अधिक नियम-विरुद्ध है. उनकी आँखें तो तब खुलती हैं जब सब कुछ हाथ से निकल जाता है,  यानी मीडिया कि निगाहों में आ जाता है. जब प्रदेश की मुखिया का दौरा पूरे प्रदेश में होना हो तो ऐसे समय इस बात का सामने आ जाना कितना बड़ा खुलासा होगा जबकि ऐसी घटनाएं इस रजिस्ट्रार कार्यालय में सामान्यत: पूर्व में भी होती रही होंगी.
 जन सूचना अधिकार अधिनियम, 2005 के माध्यम से मिली जानकारी के अनुसार स्टेट  बैंक ऑफ इंडिया, सुपरवाइजरी  हाउसिंग सोसाइटी लि., कानपुर को अनियमित तरीके से भू-खण्डों के क्रय-विक्रय पर रोक लगा दी गयी थी. यह रोक अपर आवास आयुक्त/अपर निबंधक वी.डी. मिश्र ने चार जनवरी दो हजार ग्यारह के आदेश के तहत लगाई थी. इस आदेश के पूर्व कि गयी जांच से ऐसी गड़बड़ साबित होने के बाद ऐसा निर्णय लिया गया था. इस आदेश को आवश्यक कार्यवाही हेतु अपर जिलाधिकारी (वित्त एवं राजस्व) कानपुर सहित समस्त सम्बंधित अधिकारियों को श्री मिश्र के द्वारा प्रेषित किया जा चुका था. इस आदेश कि मंशा और उद्देश्य की पूरी तरह से अवहेलना करते हुए कानपुर रजिस्ट्रार कार्यालय में उक्त सोसाइटी के द्वारा 19/12011 को सैनी शिक्षा संस्थान के मैनेजर मन मोहन सिंह के पक्ष में 0.215 हेक्टेअर जमीन की रजिस्ट्री कर दी गयी. यह लगभग एक बीघे से ज्यादा क्षेत्रफल की जमीन है. जबकि उक्त सोसायटी के बाईलाज में यह नियम है कि दो सौ वर्ग गज से अधिक का कोई भूखण्ड नहीं बेचा जायेगा. इस सोसाइटी में लंबे समय से विवाद था. ये बात मन मोहन सिंह को भी पता थी. पर कथित राजनीतिक और अपराधिक संपर्कों के दम पर उन्होंने इस जमीन पर लंबे समय से बुरी नजर होने का मुजाहरा देते हुए नियम और क़ानून को दरकिनार करते हुए इस जमीन का सौदा कर लिया. हद तो तब हो गयी जब रजिस्ट्री में ये दर्शाया गया है कि वे कृषि कार्यों के लिए इस जमीन को खरीद रहे हैं. ऐसे महान कृषि प्रेमी शिक्षा माफिया के कारनामों को हवा देने में कानपुर रजिस्ट्रार कार्यालय सहित अपर जिलाधिकारी (वित्त और राजस्व) श्री आर. के. राम भी शामिल प्रतीत होते हैं. पूरा मामला उनके संज्ञान में था इसके बावजूद उनके द्वारा इस प्रकरण में कदम न उठाया जाना उनकी आम-मुग्धता और बे-खयाली का प्रमाण है कि वे नियमों और कानूनों से भी ऊपर हैं. प्रदेश में अपनी सरकार की छवि सुधारने के लिए दौरों पर निकलने वाली मुखिया मायावती यदि ऐसे अधिकारियों पर भी गाज न गिरायें, तो उनसे भी सुशासन लाने की उम्मीद बेमानी होगी.1
अरविन्द त्रिपाठी
(लेखक स्वतन्त्रपत्रकार हैं)

दूसरों से पहले खुद को सुधारने की जरूरत

दूसरों से पहले खुद को सुधारने की जरूरत
विशेष संवाददाता
इससे कम से कम हमारा अपने शहर से जुड़ा प्रेम और इसके प्रति सम्मान की भावना तो झलकती है. आज हमें इसी भाव इसी भावना की ही तो जरूरत है. साथ ही जरूरत है इसी भाव और भावना की तीव्रता और दायरा बढ़ाने की ताकि हम अपने शहर से बढ़ कर राज्य के लिये और राज्य से बढ़कर देश के बारे में सोच पायेंगे. इसके बाद ही हम अपनी 'वसुधैव कुटुम्बकम की मूल भारतीय मान्यता पर अक्षरश: सही उतर पायेंगे. दरअसल हमारा अपनी इसी मूल भावना से भटक जाना ही भ्रष्टाचार की मूल जड़ है.

स्वामी प्रखर जी महाराज ने शहर की धरती पर भ्रष्टाचार के खिलाफ श्री लक्षचण्डी महायज्ञ क्या किया पूरा हिन्दुस्तान ही भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है. इस क्रम में देश में सक्रिय और सशक्त विपक्ष की भूमिका निभा रही भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियां भी भ्रष्टाचार के खिलाफ बाकायदा सड़क पर उतर आयीं हैं. हालांकि भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों के तमाम लोगों को स्वामी प्रखर जी महाराज और श्रीलक्षचण्डी यज्ञ के बारे में जानकारी भी नहीं है और न ही भ्रष्टाचार की खिलाफत कर रहे ये तमाम लोग इस यज्ञ और प्रखर जी महाराज को इस खिलाफत का प्रेरक ही मानते हैं. ये तमाम पार्टियों और इनसे जुड़े लोग चाहे कुछ भी माने या न मानें कम से कम हम कनपुरिये तो यही मानते हैं और यही मानेंगे भी. भाई सीधी सी बात है भ्रष्टाचार के खिलाफ एक दैवीय और धार्मिक अनुष्ठान के आयोजन का शुभारम्भ हमारे अपने शहर से हुआ है और फिलहाल अभी भी धार्मिक व दैवीय मान्यताएं विश्वास और इनका महत्व हम आम हिन्दुस्तानियों के दिलों में भीतर तक है. अब ऐसे में हमें अपने शहर और इसकी पुण्य धरती (कम से कम हमारे लिये तो निश्चित रूप से है) से जुड़ी हर अच्छाई की शेखी बघारने का कोई मौका दैवीय योग से मिला हो तो ऐसे मौके को नहीं खोना चाहिये. इससे कम से कम हमारा अपने शहर से जुड़ा प्रेम और इसके प्रति सम्मान की भावना तो झलकती है. आज हमें इसी भाव इसी भावना की ही तो जरूरत है. साथ ही जरूरत है इसी भाव और भावना की तीव्रता और दायरा बढ़ाने की ताकि हम अपने शहर से बढ़ कर राज्य के लिये और राज्य से बढ़कर देश के बारे में सोच पायेंगे. इसके बाद ही हम अपनी 'वसुधैव कुटुम्बकम की मूल भारतीय मान्यता पर अक्षरश: सही उतर पायेंगे. दरअसल हमारा अपनी इसी मूल भावना से भटक जाना ही भ्रष्टाचार की मूल जड़ है. भ्रष्टाचार होता ही इसलिये है कि हमारी सोच का दायरा ही संकुचित होकर सिर्फ अपने और ज्यादा से ज्यादा अपने परिवार और करीबियों तक ही रह जाता है. हम दूसरों के हितों और उनके लाभ के बारे में सोचना बन्द कर देते हैं. साथ ही यह भी नहीं सोचते कि इस संकीर्णता के दूरगामी परिणाम क्या होंगे. जबकि समाज और पूरी दुनिया का हर आदमी एक दूसरे से परोक्ष या अपरोक्ष रूप से आपस में जुड़ा है.
तो भ्रष्टाचार के खिलाफ अगर वास्तव में संघर्ष करना है, इस बुराई को जड़ से मिटाना है तो हमें प्रेम करना सीखना होगा पहले देश से फिर राज्य से फिर शहर से फिर अपने मोहल्ले से फिर परिवार से और आखिर में स्वयं से. प्रेम करना सीखने के लिये किसी कोचिंग और स्कूल जाने की आवश्यकता नहीं है. यह प्रेम हमारे भीतर ही है जिसे हमने अपने स्वार्थ और संकीर्णता की वजह से दबा दिया है.
जहां तक बात है तमाम राजनैतिक पार्टियां इस तरह के आन्दोलनों की तो जिस दिन कोई एक पार्टी या संगठन सच्चे मन से इसकी खिलाफत करने पर उतर आयेगी उस दिन भ्रष्टाचार कहीं दिखेगा नहीं. तमाम राजनैतिक पार्टियां सत्ता में रहते भ्रष्टाचार के खिलाफ सोई रहती है और सत्ता से हटते ही भ्रष्टाचार के खिलाफ जनान्दोलन चलाने की महज फर्ज अदायगी में जुट जाती हैं. यही वजह है कि भ्रष्टाचार मिटने की बजाय उल्टा बढ़ ही रहा है. इसलिये तमाम राजनैतिक पार्टियां भी वास्तव में भ्रष्टाचार मिटाना चाहती हैं तो पहले प्रेम करना सीख लेना चाहिये.1

कवर स्टोरी

भ्रष्टाचार नहीं सत्ता का संघर्ष
मुख्य संवाददाता
भाजपा की यह रैली भ्रष्टाचार की खिलाफत और महंगाई का विरोध करने के लिये हो रही है लेकिन भाजपा गठबन्धन इस रैली के बहाने प्रदेश में आगामी विधान सभा चुनावों की जमीन भी तैयार करना चाहती है.

राष्ट्र मण्डल खेलों में हुये भ्रष्टाचार से लेकर स्पेक्ट्रम घोटाले तक केन्द्र की यूपीए सरकार को लोकसभा और राज्यसभा में घेरने के बाद अब भारतीय जनता पार्टी और उसकी सहयोगी पार्टियों ने केन्द्र सरकार के खिलाफ पूरे देश भर में घूम-घूम कर आन्दोलन छेडऩे का मन बनाया है. देश में लगातार बढ़ रहे भ्रष्टाचार और महंगाई के लिये केन्द्र सरकार को जिम्मेदार बताते हुये सबसे पहले दिल्ली में रैली निकालने के बाद दूसरी रैली कानपुर में आयोजित की जा रही है. भाजपा की इस रैली में जनता दल यूनाइटेड, शिवसेना, अकालीदल सहित भाजपा की सभी सहयोगी पार्टियां शामिल हैं. राजग की योजना पूरे देश में इस तरह की   बाइस विशाल रैलियों के आयोजन करने की है. कानपुर में हो रही इस रैली को पूरी तरह सफल बनाने के लिये भाजपा व उसकी सहयोगी पार्टियों के छोटे से बड़े कार्यकर्ता और नेता हर सम्भव प्रयास करने में जुटे हुये हैं. कानपुर की यह रैली वैसे तो केन्द्र के साथ ही प्रदेश सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार की खिलाफत और महंगाई का विरोध करने के लिये हो रही है लेकिन भाजपा गठबन्धन इस रैली के बहाने प्रदेश में आगामी विधान सभा चुनावों की जमीन भी तैयार करना चाहती है. हालांकि अधिकृत रूप से भाजपाई इस बात से इन्कार कर रहे है और इस रैली को एक जन आन्दोलन ही बता रहे हैं.
फूलबाग में हो रही इस रैली के संयोजक भाजपा प्रदेश उपाध्यक्ष सूर्य प्रताप शुक्ल के मुताबिक भाजपा और इसकी सहयोगी पार्टियों  के वरिष्ठ नेताओं के इस रैली में शामिल होने से इस रैली की सफलता तो पहले से तय है साथ ही यह रैली भ्रष्टचार और महंगाई सरीखे ऐसे मुद्दों को लेकर हो रही है जिनसे आम आदमी बुरी तरह त्रस्त है. इसलिये इस रैली को जन सहयोग अपेक्षा से अधिक ही मिलेगा. रैली में भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवाणी, डा. मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, विनय कटियार सहित भाजपा राज्य इकाई के भी लगभग सभी वरिष्ठ नेता और कर्मठ कार्यकर्ता शामिल होंगे. भाजपाइयों के लिये यह रैली इस वजह से भी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि केन्द्र के अलावा प्रदेश की सत्ता से भी भाजपा का पिछले लम्बे समय से किनारा चल रहा है. जबकि  उत्तर प्रदेश शुरुआत से ही भाजपा का सबसे मजबूत किला माना जाता है और राम मन्दिर मुद्दे के बाद से भाजपा के पास प्रदेश स्तर पर ऐसा कोई मुद्दा हाथ नहीं लगा जिसके बूते पर वह सत्ता पर काबिज होने में सफल हो पाती. हालांकि बसपा के पहले सपा के शासन से त्रस्त सूबे की जनता को देखकर भाजपा ने इस विधानसभा चुनाव में सत्ता हासिल होने का सपना संजोया था लेकिन ऐन मौके पर मायावती के नये सामाजिक समीकरण ने भाजपा का यह सपना चकनाचूर कर दिया. ऐसा होने के पीछे की सबसे बड़ी वजह यह थी कि जिस सपा सरकार से सूबे की आम जनता नाखुश थी उस सपा सरकार को भाजपा का ही बिना शर्त गुप्त समर्थन था. वर्ना सपा की सरकार तो पता नहीं कब की गिर गयी होती. सपा को यह भाजपाई समर्थन भी इसी लिये था कि किसी भी कीमत में बसपा सत्ता से दूर रहे. ऐसा करने के पीछे भाजपा की मंशा पूर्व में उसके साथ बसपा के खेले गये राजनैतिक दांव थे. अब जब पूर्ण बहुमत की बसपा सरकार बन गयी है तो भाजपा सूबे में फैले भ्रष्टाचार के लिये केन्द्र की यूपीए सरकार के साथ-साथ प्रदेश की बसपा सरकार को भी बराबर का जिम्मेदार बता रही है.
 यह बात काफी हद तक सही भी है कि सूबे में प्रदेश सरकार के विभागों में भ्रष्टाचार चरम पर है अधिकारी से लेकर मंत्री तक सब इसमें आकण्ठ डूबे हैं. लेकिन भाजपा का यह कहना कि यह रैली महज एक जनान्दोलन है, भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ इस रैली का मकसद राजनैतिक लाभ लेना कतई नहीं है. तो भाजपाइयों की भी यह बात  सोलह आने झूठ ही है. क्योंकि जनान्दोलन का मतलब और मकसद केवल रैलियां निकालना भर नहीं होता है. जनान्दोलन के लिये संघर्ष करना पड़ता है और वह भी अपने निजी स्वार्थों को ताक पर रख कर.
रही बात केन्द्र और प्रदेश के शासन की तो इसमें कोई दो राय नहीं कि केन्द्र में राजग का लगभग साढ़े चार वर्ष के कार्यकाल ने आम आदमी को थोड़ा सुकून दिया था. सिलेंडर आसानी से मिलते थे, राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण ने तेजी से गति पकड़ी थी. विदेशों से हमारे सम्बन्ध सुधरे थे. लेकिन सरकार बीस रुपये प्याज की भेंट चढ़ गयी थी. जबकि इस साल प्याज अस्सी रुपये तक बिक गया और केन्द्र की सरकार हिली तक नहीं और वो तमाम दलीलें भूल गयी जो इन कांग्रेसियों ने राजग सरकार में प्याज की कीमत बीस रुपये होने पर दी थीं. लेकिन ऐसा नहीं है कि भाजपा व उसकी सहयोगी पार्टियों के दामन एक दम पाक-साफ हैं. राजग सरकार में भी भाजपा के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन की कृपा से मशहूर रिलायंस कम्पनी को बिना उचित वैधानिक लाइसेंस के बहुत दिनों तक दूरसंचार सेवाएं देने का मौका दिया गया था जिसे बाद में हो-हल्ला मचने की वजह से रिलायंस पर जुर्माना कर मामले का पटाक्षेप कर दिया गया. ऐसी ही भ्रष्टाचार की न जाने कितनी नजीरें भाजपा भी दे चुकी है तो ऐसे में काफी हद तक इनसे औरों से थोड़ा कम भ्रष्टाचार करने और करवाने की उम्मीद तो की जा सकती है लेकिन राम राज की कतई नहीं. रैली के जरिये भ्रष्टाचार मिटाने का प्रयास ठीक वैसा ही है जैसा कि आजाद मुल्क में देश को गांधी के मार्ग पर चलाने का संकल्प देश के कांग्रेसी शासन ने हर शहर में महात्मा गांधी के नाम का मार्ग(एम.जी.रोड) बनाकर कर दिया गया और खुद ही पीठ ठोक ली गयी कि देखा आज पूरा मुल्क गांधी मार्ग पर चल रहा है.1