सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

काले धन की काली होड़

औद्योगिक लाइसेंस उन औद्योगिक घरानों को दिए गए, जिनकी न तो कोई साख थी और न ही इस तरह के काम का कोई अनुभव, सिवाय इसके कि राजनेताओं से उनके करीबी रिश्ते थे। इस तरह अयोग्य औद्योगिक घरानों को लाइसेंस दिए गए और प्रतिस्पद्र्धा के अभाव में उन्होंने अपने राजनैतिक संबंधों और ब्लैक मनी के जरिये राज किया। देश की कीमत पर चंद औद्योगिक घरानों, नौकरशाहों और राजनेताओं को ही आत्मनिर्भर बनाया। 
 आमतौर पर इसे वैश्विक संकट और भारत के सबसे बड़े संकट के तौर पर जाना जाता है। लेकिन इस सिलसिले में अभी तक कुछ नहीं किया गया। खास तौर पर फेसबुक और दूसरी सोशल साइटों पर मौजूद आनलाइन मित्र, लगभग रोज ही, मुझसे इस पर लिखने के लिये कहते हैं। हाँ मैं ब्लैक मनी और ब्लैक होल की बात रह रहा हूं। जिसे हमारे राजनेताओं, नौकरशाहों और कारोबारियों ने मिलकर बनाया है।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के मुताबिक, ब्लैक मनी के एक बड़े हिस्से यानी तकरीबन 60 फीसदी की जड़ें चुनावी प्रक्रिया से जुड़ी हैं। लेकिन व्यक्तिगत लाभ के लिए लूट की इस कभी न खत्म होने वाली भूख में राजनेता अकेले नहीं हैं, बल्कि उन्होंने व्यवस्थित तरीके से माहौल बनाया है जिनमें औद्योगिक घरानों के भी हित जुड़े हैं। वरना, यह जानकर भी कि बार-बार जबरदस्त चूक होती है, भारत सरकार अभी तक च्पूंजी लाभ के लिए कोई टैक्स नहींज् की नीति पर क्यों अड़ी रहेगी? इसका लाभ उठाते हुए प्रमोटर अपनी कंपनियों से करोड़ों रुपये निकालकर गुपचुप तरीके से दुनिया भर के उन देशों में भेज रहे हैं, जिन्हें टैक्स चोरी के मामले में स्वर्ग कहा जाता है। यह लगभग ज्ञात तथ्य है कि आमतौर पर ऐसा धन या तो मॉरीशस, केमैन द्वीप, बारामूडा या ब्रिटेन वर्जिन आइलैंड्स में खपा दिया जाता है, या फिर स्कैंडिनेविई या यूरोपीय देशों के बैंकों में डाल दिया जाता है। और अब तो भारतीयों के लिए थाइलैंड, सिंगापुर, हांगकांग और मकाऊ जैसे कुछ एशियाई देश भी अवैध धन को छुपाने के नए केंद्र के तौर पर उभर रहे हैं। और आखिर, ऐसा उन्हें क्यों नहीं करना चाहिए। आखिर उनके लिए तो यह माल-ए-मुफ्त ही है!
अगर यह हकीकत नहीं है तो कोई कैसे इसे सही ठहराएगा कि भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) करने वाले तमाम देशों में मॉरीशस पहले स्थान पर है, जबकि उसकी राष्ट्रीय आय केवल 8.7 बिलियन डॉलर है और बैंकिंग क्षेत्र में उसका निवेश 1.5 बिलियन डॉलर से भी ज्यादा है! दिलचस्प बात यह है कि मॉरीशस में 9,000 से भी ज्यादा विदेशी कॉरपोरेट संस्थान हैं। इनमें से कई की जड़ें भारत से जुड़ी हुई हैं। भारत-मॉरीशस संधि के मुताबिक, मॉरीशस के लोग भारत में टैक्स से बचने के लिए भारतीय कंपनियों के शेयर  बेच सकते हैं, क्योंकि मॉरीशस में पूंजी लाभ कर (सीजीटी) की कोई नीति नहीं है। इसलिए जो लाभ होता है, उस पर टैक्स नहीं लगता है। ठीक ऐसा ही, तकरीबन उन सभी दूसरे देशों के साथ भी है जिसके कराधान अलग-अलग हैं।
2008 में भारत से तकरीबन 3,600 मिलियन डॉलर सिंगापुर और करीब 2,200 मिलिय डॉलर साइप्रस भेजा गया। इस वजह से भारत को कुल मिलाकर तकरीबन 1.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर का चूना लगा। अप्रैल 2009 में भारत में कनाडा के उच्चायुक्त ने स्वीकार किया था कि भारत में कनाडा के तकरीबन 239 मिलियन डॉलर के अनुमानित निवेश के विपरीत वास्तविक आंकड़ा 10 बिलियन डॉलर से कम नहीं होगा। भारत को आश्चर्यजनक रूप से कुल मिलाकर 1.5 बिलियन डॉलर की भारी भरकम रकम से कम का नुकसान नहीं उठाना पड़ा होगा, मुख्य तौर पर इसलिए क्योंकि लोग टैक्स की धोखाधड़ी कर उसे वापस भारत भेजने की कोशिश करते हैं।
 भारतीय कंपनियों के कई प्रमोटर टैक्स चोरी के लिहाज से स्वर्ग कहे जाने वाले देशों में स्थित फर्मों के शेयर मूल्यों का अवैध तरीक से अंतरविस्तार करने, गैर कानूनी तरीके से धन की व्यवस्था करने और फिर उसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एवं निवेश के दूसरे प्रारूपों के जरिए उसे भारत वापस लाने की कोशिश करते हैं। अगर यह सच नहीं है तो हम किस तरह से इस बात को उचित ठहराएंगे कि बीएसई एवं एनएसई में सूचीबद्ध मुठ्ठीभर कंपनियों की कुल बाजार पूंजी भारत के सकल घरेलू उत्पाद से भी ज्यादा है। और इस बात पर गौर फरमाएं कि इस सूची में दो-एक कंपनियां तो ऐसी हैं जिनकी कुल बाजार पूंजी भारत के सकल घरेलू उत्पाद के तकरीबन 25 फीसदी के बराबर है।
पैसों की खुल्लम-खुल्ला उगाही और शर्मनाक तरीके से होने वाली लूटमार यही आकर नहीं रुक जाती। जो कुछ थोड़ा बच रहा है, उसे भी चट करने के लिए बाबू से लेकर चपरासी तक ताक में रहते हैं और यहां तक की देश के निर्धनतम लोगों को भी बख्शा नहीं जाता। एक शोध से पता लगा है कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले करीब पांच करोड़ भारतीय अपना काम कराने के लिए हर साल 9,000करोड़ रुपये घूस के तौर पर दे देते हैं। तो चाहे वह पुलिस हो, स्वास्थ्य, शिक्षा, नरेगा में रोजगार या फिर भू-अभिलेख हों, आप किसी भी विभाग का नाम ले लें, लोगों को प्रताडि़त करके पैसे झपटने का कोई मौका जाने नहीं दिया जाता और फिर उस पैसे को विदेशों में गुपचुप तरीके से ठिकाने लगा दिया जाता है।
यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि स्विटजरलैंड जैसे देश, हमारे पैसे से फल-फूल रहे हैं और आज जब कि वे सहयोग की को तैयार हैं तो सरकार उस धन को वापस लाने को लेकर उदासीन रवैया अपनाए हुए है और दोषियों के नाम का खुलासा करने से हिचक रही है। इसे समझने की जरूरत है। वास्तव में जर्मनी ने तो कर चोरों को ढूंढ निकालने के लिए लिस्सेस्टीन के एलजीटी ग्रुप को 6.3 मिलियन डॉलर का भुगतान करके बैंक के आंकड़े तक खरीदे।  2009 में अमेरिका ने स्विटजरलैंड सरकार के साथ एक करार किया, जिससे अमेरिका को यूबीएस के 4,450 गुप्त खातों की जांच का मौका मिल गया। 18 साल के लंबे संघर्ष के बाद नाइजीरिया ने 700 मिलियन डॉलर की रकम वापस हासिल करने में सफलता पा ली।  उसी तरह फिलीपींस को 700 मिलियन डॉलर और मैक्सिको को 74 मिलियन डॉलर की भारी-भरकम रकम वापस हासिल हो सकी।
अब भारत की बारी है। सरकार ने एक बयान दिया है कि विदेशों में जमा ब्लैक मनी भारतीयों की संपत्ति है औऱ इसे वापस लाया जाएगा। लेकिन सरकार ने बयान देने से अधिक कुछ भी नहीं किया है। और अगर वह इसको लेकर गंभीर है तो उसे एक डेडलाइन तय करना चाहिए और ईमानदार लोगों को इसे हासिल करने की दिशा में जरूरी कदम उठाने की आजादी देनी चाहिए। एक तरफ तो वे कहते हैं कि पैसे वापस लाएंगे। दूसरी तरफ स्विटरजरलैंड सरकार अपने बैंकों के आंकड़े मुहैया कराने को राजी है, लेकिन भारत सरकार बेशर्मी का परिचय देते हुए इसकी मांग तक नहीं कर रही है। अगर वे सचमुच पैसा वापस लाना चाहते हैं तो ला सकते हैं। मेरा सवाल यह है कि आखिर वे इसे वापस क्यों नहीं ला रहे? या वे इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि ब्लैक मनी जमा करने वाले सभी लोग जिनमें वे भी शामिल हैं, अपना पैसा दुबई पहुंचा दें, जहां गोपनीयता कानून अब भी बेहद सख्त हैं। क्या वे उसके बाद स्विटजरलैंड सरकार से आंकड़े देने का अनुरोध करेंगे लेकिन तब तक स्विस सरकार के पास बताने को कुछ भी नहीं होगा?  पाठकों को इस सवाल का जवाब आने वाले वक्तमें जल्द ही मिल जाएगा। लेकिन एक बात तो तय है। अगर यह सरकार इस मसले पर शीघ्र उचित कदम नहीं उठाती तो वह समय दूर नहीं जब भारत में भी मिस्र जैसी स्थिति पैदा हो जाएगी। मुझे उम्मीद है कि सत्ता के गलियारों में बैठे लोग मेरी बात सुन रहे होंगे।1

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