सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

चौथा कोना

होली की छठवीं वर्षगांठ


  27 फरवरी २००५ को हेलो कानपुर साप्ताहिक समाचार-पत्र का शुभारम्भ एक प्रयोग के तौर पर किया गया था। हेलो कानपुर से पहले महानगरीय (जिसे आप नगरीय भी कह सकते हैं) पत्रकारिता को न तो समग्रता से सोचा गया और न ही उसे मूर्त रूप दिया गया। कानपुर महानगर में साप्ताहिक अखबारों की एक परम्परा है। उसका अपना एक ढर्रा है। हेलो कानपुर उस ढर्रे से अलग कनपुरिया पहचान की तलाश में एक अभियान की तरह निकला। और आज ६ वर्ष बाद कानपुर महानगर में कानपुर को 'हेलो कहने वाला अकेला 'हेलो कानपुर ही नहीं है। कई अन्य अखबार और संस्थाएं भी आगे आईं जिसका नतीजा सबके सामने है। शहर में शहर के अनुरूप 'टेबोलाइड, 'आई-नेक्स्ट या काम्पेक्ट भी स्थानीयता का बोध लेकर शहर की जान बनने की होड़ में लगे हैं। भले ही इनका उद्देश्य नितांत व्यापारिक हो लेकिन है कानपुर के हित में हल्ला मचाने वाला ही। कई संस्थाएं इन दिनों शहर हित में बदलाव के लिए बेचैन दिख रही हैं। कुछ एक अच्छा काम भी कर रही हैं। मेरे मित्र हैं अरविंद चतुर्वेदी। पूर्व संसद व साहित्यकार दादा नरेश चतुर्वेदी जी के पुत्र। उन्होंने तो अपना संबोधन ही हेलो कानपुर कर लिया है। उन्हें फोन करता हूं तो वह उधर से कहते हैं- हेलो कानपुर..? कई और समाचार-पत्र  व मैगजीन भी इसी दौरान निकले। कुल मिलाकर मैं प्रसन्न हूं। कारण कि जिस वक्त मैं हेलो कानपुर निकालने जा रहा उसके ठीक पहले मैं दैनिक जागरण का स्थानीय संपादक था। एक तरफ विश्व का नम्बर एक अखबार और दूसरी तरफ विश्व की अंतिम पायदान की तकरीबन खारिज पत्रकारिता। डूबने की संभावना सौ फीसदी। बचने का चांस चमत्कार। दोस्तों मेरे साथ चमत्कार हो गया। जो पत्रकार दोस्त इस साप्ताहिक के साथ मेरी अखबारी प्रतिभा को $जमीदो$ज होता देखना चाह रहे थे निसंदेह उनके कानों में हेलो कानपुर की प्रशंसा और उसका निर्बाध प्रकाशन शीशे की तरह ही उतरता होगा। अभी इसी सप्ताह मेरे अनुज सुनीत त्रिपाठी की बेटी का मुंडन था। इस मौके पर शहर के कई प्रतिष्ठित लोगों से मुलाकात हुई। इसी मुलाकात में मेरे एक प्रशंसक ने कहा- 'दोस्त! तुम्हारी कलम नम्बर एक पर है। कोई जोड़ नहीं। मुझे यह सुनकर बड़ा अच्छा लगा लेकिन इसके साथ ही जो जवाब मेरे मुंह से स्वत: ही निकला वो वाकई मेरे लिए भी खूब जोरदार रहा... मैंने कहा, 'बात तो गुरु सही है लेकिन इसके लिए किसी लाला के पास कागज नहीं निकला, खुद ही खरीदना पड़ा। सच कहूं तो अगर हेलो कानपुर न निकलता तो मैं बिना कुछ लिखे ही मर जाता। हालांकि कानपुर की पत्रकारिता के इतिहास में नाम जरूर होता और उम्र भर यह समझता भी रहता कि मैंने विश्वव्यापी पत्रकारिता कर डाली। मैं किसी पराये कागज पर अपने मन की कैसे कर सकता था। जो लोग मेरे लिये यह कहते हैं कि मैं अच्छा लिखता हूं, थोड़ा सा और ध्यान दें तो उन्हें लगेगा कि मैं अच्छा नहीं सच्चा लिखता हूं। जो आपको अच्छा लगता है वह लेखकीय विशिष्टता नहीं बल्कि सच की धाकड़ अभिव्यक्ति होती है। सच स्वयं में अच्छा ही होता है भले जुबान को कभी कुछ कड़वा या खट्टा लगे। मुझे २ हजार ५ से २ हजार ११ तक ६ वर्ष लगातार संपादक बनाये रखने के लिए 'हेलो कानपुर और उसके सहयोगियों का आभार। इतना लगातार एक पद पर मैं कभी टिका नहीं। ऊपर वाले का करम है कि इस दरम्यिान भी मैं बिका नहीं।  इसलिये हेलो कानपुर की छठवीं वर्षगांठ पर चमत्कार को नमस्कार।1

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