शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

नारद डॉट कॉम

पगलैती के लिये है

पी.पी. को मेडल क्या मिला, शहर के लोग पगला गये हैं. अब मांग कर रहे हैं कि २६ जनवरी को दिया गया मेडल छीन लिया जाये. शहरियों का मानना है कि ये हम लोगों का अपमान है. इधर शहर में अहमक टाइप के लोगों की संख्या में मजे का इजाफा हुआ है हर गली में ४-६ टहलते मिल जायेंगे. पहले चीख चीख के पी.पी. को चलता करवा दिया अब कह रहे हैं कि मेडल भी नहीं मिलना चाहिए. शहर के पूरे मांगकर्ताओं से मेरी विनती है कि पहले मामले को ठीक से समझो फिर जो चाहे सो मांगो. इस मांग को खड़ा करने से पहले मेडल दाताओं से ये पूछो कि इन महाशय को ये मेडल काहे के लिये दिया गया है? न ऐसे बतायें तो आरती आई का सहारा लो. मुझे आशा ही नहीं है बल्कि पूर्ण विश्वास है कि जवाब हेडिंग वाला ही आयेगा अब ऐसे में मेडल लेने और देने वालों का क्या दोष? पी.पी. जैसे थे उसी के लिये उन्हें मेडल मिला है.
ऐडल-मेडल मिलने में गड़बड़ी की शुरुआत आजादी के तुरन्त बाद शुरू हो गयी थी. पुराने जमाने के कई जेबतराश फ्रीडम फाइटर बन गये, बाकायदा पेंशन भी पेलते रहे और जब इस दुनिया से खिसके तो पूरे राजकीय सम्मान के साथ. कुल मिलाकर लोक-परलोक दोनों सुधर गये. मेरे एक रिश्तेदार आजादी के पहले क्रान्तिकारियों को कट्टे तमंचे सप्लाई किया करते थे बाद में आजादी के बाद यही सप्लाई वो अपराधियों के लिये करने लगे, लेकिन स्वतंत्रता संग्रामी का ताम्रपत्र हमेशा गले में लटकाये रहते थे. केन्द्र और राज्य दोनों की  पेंशन उन्हें मिलती थी. कमोवेश यही लफड़ेबाजी देश में डाक्टरों के साथ भी है तरह-तरह के डा. साहब लोग खुली हवा में विचरण कर रहे हैं. झोलाछाप से लगाकर पीएचडी वाले तक सबने अपनी विधाओं से देश का मान बढ़ाया है. वर्तमान में देश तमाम समस्याओं के साथ जूझ रहा है प्याज, गैस, बिजली कुछ भी आसानी से नहीं मिल रही है. आप लोग पी.पी. के चक्कर में उलझे हुये हो. १०-२० ग्राम पीतल अगर उनके कंधे पर लटक भी गई तो उससे आपका क्या नफा-नुकसान हुआ जा रहा है. आप लोग चाहो तो उनके नाम के आगे एक पी और जोड़ सकते हो, तब आपको ये समझ आयेगा कि ये मेडल उन्हें क्यूं मिला? तो अब आज और अभी से पी पी नहीं बल्कि पी.पी.पी. चलेगा.
जिन्दगी
बस कंडक्टर की तरह हो गई है चलना भी रोज है और जाना भी कहीं नहीं.1

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