परिकल्पना और वास्तविकता
कानपुर शहर में सामाजिक विकास के लिए तीन तरह के समूह या संस्थान पाए जाते हैं. एक जो पेशेवर दलाल हैं दूसरे बहुधा जोश-जोश में बने हुए संस्थान जो की कालांतर में समाप्त या निष्क्रिय हो जाते हैं अथवा ईमानदारी और नाकामी की वजह से हीनभावना से ग्रस्त रहते हैं, तीसरा और सबसे सशक्त पक्ष उन लोगों का होता है जो जीवन के अंतिम दिनों में हरिनाम जपने की बजाय सामाजिकता का चोला ओढना ज्यादा पसंद करते हैं, वे इसकी वजह बहुधा 'नाम और नामा' ही बताते हैं. ऐसे लोगों से मैं सदैव यही प्रश्न करना चाहता हूँ कि यदि जीवन के चौथे दौर कि बजाय जीवन के साथ ही इस सामाजिक उद्देश्य को सम्मान दिया होता तो आज देश कि ऐसी नौबत ही क्यों आती. उनके मुख्य और गौण (अप्रकट) उद्देश्य क्या होते हैं राजनैतिक महत्वकांक्षाएं और व्यापारिक हितों के जुडाव को वे कभी स्वीकार ही नहीं करते. इसका अंदाज़ा एक साधारण व्यक्ति लगा ही नहीं सकता.
उदाहरण के तौर पर बताता हूँ, मेरे कुछ मित्र जो कानपुर के प्रतिष्ठित उद्योगों के मालिक हैं, विचारक हैं, सामाजिक कार्यकर्ता भी... लोगों ने एक सामाजिक संस्था के माध्यम से शहर के 25 बीमार स्कूलों को गोद लेकर उनमें सुधार कार्य शुरू किये, बताने की आवश्यकता नहीं की इन सरकारी स्कूलों में अति निर्धन या निर्धन वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं.अब मान लीजिये की हम सुचारू रुप से इसका संचालन करते हैं और कल को सरकार को एक प्रस्ताव देते हैं की इन विद्यालयों का विनिवेश किया जाए तो निश्चित रूप से हमारे साथ होगी और सरकार के पास इसको मानने के सिवा कोई रास्ता नहीं होगा (और जो नहीं माने उनके लिए पैसा और शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है). अब यदि हम इन स्कूलों को दूसरे तरीके से चलाने लगें अपनी नीयत बदल दें और सर्व शिक्षा अभियान के अनुरूप काम न करके जनता से मोटी फीस वसूलने लगें तो क्या होगा?
दूसरे उद्देश्यों में राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं भी पूरी करने की कोशिश कर सकते हैं. इसके साथ ही अगर शहर में 100-200 करोड़ निवेश करके कुछ औद्योगिक गतिविधियों को संचालित करें तो निश्चित रूप से जन समर्थन हमारे साथ होगा ही. इस प्रकार से शासन पर पूंजी यानी कार्पोक्रेसी हावी हो जाती है. इस पूरे देश की यही हालत है. जनता को यही नहीं पता सही क्या है और गलत क्या है?
एक पक्ष और भी स्पष्ट करना लाजिमी है की ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवी समाजशास्त्री और पूंजी समर्थित ज्यादातर जो विकासवाद के मॉडल सुझाते पाए जाते हैं, कोई अगर कहीं विदेश घूम के आता है और अपने अनुभवों को बताता है तो उसका प्रायोगिक क्रियान्वयन करने को सभी तत्पर दिखाई देते हैं. ऐसे में शासन और सत्ता प्रतिष्ठान में पूंजी की पकड़ सदैव उनकी सहयोगी होती है.
गाँधी के स्वदेशी और स्वराज की वकालत करते तो देखा जा सकता है लेकिन शहर के लिए स्वदेशी और स्वराज क्या है इसका अंदाज़ा एक बच्चा उनसे ज्यादा बेहतर बता सकता है. विकास के स्थायित्व की बजाये तात्कालिक समाधानों की खोज उनको विदेशी माडलों में ही दिखाई देती है इसलिए प्राथमिकता होती है. शायद इसकी मूल वजह छपास हो.
अब इस शहर के आज़ादी के बाद के औद्योगिक स्वरुप की चर्चा करें तो हम पाएंगे की इस शहर ने किसी ज़माने में सचमुच में बहुत उन्नति की थी. लेकिन आज के हालत ये हैं कि लघु, छोटी और मझोली इकाइयां मिला के जो 8000 के ऊपर हुआ करती थी उनमें से तीन चौथाई आज रुग्ण, मृतप्राय अथवा मृत हैं. कुल मिला के 6000 के आस-पास रुग्ण, मृतप्राय अथवा मृत इकाइयों के पुनर्योजन में लाखों लोगों के रोजगार और स्थायी विकास की अपार संभावनाएं मौजूद हैं. लेकिन ये पश्चिम परस्त समाजशास्त्री बहुधा इस मुद्दे को लाल झंडे वालों का खिलौना मानते हैं, और उनके सरपरस्त उद्योगपति बहुधा सरकार को गाली देते पाए जाते हैं.
'एकोहम द्वितियोनास्ति' की पूर्वाग्रह पसंद ये समाजशास्त्री युवा वर्ग को वे सदैव हाशिये पर ही रखते हैं.
अब शहर के ऐसे तंत्र में अगर नेतृत्व प्रतिभा खोजने जायेंगे तो अँधेरे में तीर चलने जैसा काम नहीं तो और क्या है? बेहतर होगा की पहले शिक्षा का समग्र सामाजिक स्वरुप तय करें. युवा शक्ति का संगठित केंद्र विद्यालय और महाविद्यालय हैं. उनको मुख्यधारा के समीप लाना हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए.
यह विचारधारा लेकर कानपुर मंडल से 40000 से ज्यादा स्वयं सेवी संगठन कार्यरत हैं. जिनके समाजशास्त्र का जि़क्र मै ऊपर कर चुका हूँ. 413 कच्ची बस्तियों में से अधिकांश में मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह कहता है कि जैसे विचारों ने उन बस्तियों के लोगों में असुरक्षा कि भावना और अविश्वास ही बढाया है. 'आपने-मैंने' की ही परिणति है की देश में 900 से ज्यादा राजनितिक दल हैं. 'आपने-मैंने' की विचारधारा ने देश का सर्वाधिक अहित किया है. शहर हमारा है, देश हमारा है. 'आपने-मैंने' की जगह 'हमने' अधिक सार्थक रहेगा.1
दूसरे उद्देश्यों में राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं भी पूरी करने की कोशिश कर सकते हैं. इसके साथ ही अगर शहर में 100-200 करोड़ निवेश करके कुछ औद्योगिक गतिविधियों को संचालित करें तो निश्चित रूप से जन समर्थन हमारे साथ होगा ही. इस प्रकार से शासन पर पूंजी यानी कार्पोक्रेसी हावी हो जाती है. इस पूरे देश की यही हालत है. जनता को यही नहीं पता सही क्या है और गलत क्या है?
एक पक्ष और भी स्पष्ट करना लाजिमी है की ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवी समाजशास्त्री और पूंजी समर्थित ज्यादातर जो विकासवाद के मॉडल सुझाते पाए जाते हैं, कोई अगर कहीं विदेश घूम के आता है और अपने अनुभवों को बताता है तो उसका प्रायोगिक क्रियान्वयन करने को सभी तत्पर दिखाई देते हैं. ऐसे में शासन और सत्ता प्रतिष्ठान में पूंजी की पकड़ सदैव उनकी सहयोगी होती है.
गाँधी के स्वदेशी और स्वराज की वकालत करते तो देखा जा सकता है लेकिन शहर के लिए स्वदेशी और स्वराज क्या है इसका अंदाज़ा एक बच्चा उनसे ज्यादा बेहतर बता सकता है. विकास के स्थायित्व की बजाये तात्कालिक समाधानों की खोज उनको विदेशी माडलों में ही दिखाई देती है इसलिए प्राथमिकता होती है. शायद इसकी मूल वजह छपास हो.
अब इस शहर के आज़ादी के बाद के औद्योगिक स्वरुप की चर्चा करें तो हम पाएंगे की इस शहर ने किसी ज़माने में सचमुच में बहुत उन्नति की थी. लेकिन आज के हालत ये हैं कि लघु, छोटी और मझोली इकाइयां मिला के जो 8000 के ऊपर हुआ करती थी उनमें से तीन चौथाई आज रुग्ण, मृतप्राय अथवा मृत हैं. कुल मिला के 6000 के आस-पास रुग्ण, मृतप्राय अथवा मृत इकाइयों के पुनर्योजन में लाखों लोगों के रोजगार और स्थायी विकास की अपार संभावनाएं मौजूद हैं. लेकिन ये पश्चिम परस्त समाजशास्त्री बहुधा इस मुद्दे को लाल झंडे वालों का खिलौना मानते हैं, और उनके सरपरस्त उद्योगपति बहुधा सरकार को गाली देते पाए जाते हैं.
'एकोहम द्वितियोनास्ति' की पूर्वाग्रह पसंद ये समाजशास्त्री युवा वर्ग को वे सदैव हाशिये पर ही रखते हैं.
अब शहर के ऐसे तंत्र में अगर नेतृत्व प्रतिभा खोजने जायेंगे तो अँधेरे में तीर चलने जैसा काम नहीं तो और क्या है? बेहतर होगा की पहले शिक्षा का समग्र सामाजिक स्वरुप तय करें. युवा शक्ति का संगठित केंद्र विद्यालय और महाविद्यालय हैं. उनको मुख्यधारा के समीप लाना हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए.
यह विचारधारा लेकर कानपुर मंडल से 40000 से ज्यादा स्वयं सेवी संगठन कार्यरत हैं. जिनके समाजशास्त्र का जि़क्र मै ऊपर कर चुका हूँ. 413 कच्ची बस्तियों में से अधिकांश में मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह कहता है कि जैसे विचारों ने उन बस्तियों के लोगों में असुरक्षा कि भावना और अविश्वास ही बढाया है. 'आपने-मैंने' की ही परिणति है की देश में 900 से ज्यादा राजनितिक दल हैं. 'आपने-मैंने' की विचारधारा ने देश का सर्वाधिक अहित किया है. शहर हमारा है, देश हमारा है. 'आपने-मैंने' की जगह 'हमने' अधिक सार्थक रहेगा.1
राकेश मिश्र
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