रखैल बना लिया प्रेस क्लब को
एक जुलाई बीत गई और कानपुर प्रेस क्लब का चुनाव फिर नहीं हुआ. अब इस शहर के पत्रकारों को चाहे वह खूंटा गांड़ कर प्रेस क्लब में जमे हुए लोग हों या उन्हें उखाडऩे के लिये आसमान में तने हुए लोग हों, किसी तरह की सामाजिक, न्यायिक और मानवीय नैतिकता की बात करने का कोई अधिकार नहीं बनता है. मैं भी अब हड़ चुका हूं. कानपुर प्रेस क्लब के चुनाव के सम्बन्ध में अपने उदगार व्यक्त कर-करके नाक कटाकर भ्रष्टा खाने वालों की जमात में कन्नौज की इत्र फुरैहरी लेकर आखिर कोई कब तक घूमेगा.
इस बार जिस तरह से चुनाव घोषित करने के बाद पलटी मारी गयी है यह इस बात का प्रमाण है कि कानपुर के इतिहास की सर्वाधिक भ्रष्ट और बेशर्म कार्यकारिणी यही है. जो लोग आज ये हरकत कर रहे हैं इन्हें शायद यह नहीं मालूम कि प्रेस क्लब का भी एक इतिहास लिखा जायेगा. और जब पचास वर्षों में पांच कार्यकारिणियों के बड़े-बड़े पत्रकारों की चर्चा होगी तो आने वाली पीढिय़ां सभी को आला दर्जे का चोर कहेंगी. हो सकता है कि मैं भी न बच पाऊं. मुझे भी इस संस्था से जुडऩे का इनाम मिले? पूरा शहर देख रहा है. पूरा शहर जान रहा है. एक तरह से हंस रहा है. बावजूद इसके खुद को प्रेस क्लब का ओहदेदार बताने में किसी को शर्म नहीं आ रही है. ये तो रही उनकी बात जो आसन जमाये बैठे हैं. अब उनको क्या कहें जो चुनाव-चुनाव का शोर खूब मचाते हैं लेकिन संवैधानिक चुनाव की प्रक्रिया और रास्तों की तरफ बढऩे में बार-बार मुंह के बल औंधे हो जाते हैं. ये वो लोग हैं जो शीलू को न्याय दिलाते हैं, कविता को न्याय दिलाते हैं, दिव्या के लिये अखबार को तलवार बना देते हैं, लेकिन अपने और अपनी जमात के अधिकारों के बलात हरण पर मिमियाया करते हैं. मुझे मेरे ही एक अनुज ने बताया कि चुनाव तो हो जाते लेकिन पुराने दिग्गजों ने नये क्रान्तिकारियों को यह समझाया कि अगर इस तरह चुनाव हो गये तो बड़ी मुश्किल से प्रमोद तिवारी को प्रेस क्लब से बाहर कर पाये हैं वो फिर जिन्दा हो जायेंगे. मुझे समझ में ही नहीं आ रहा है कि मैं मर कब गया था. मेरा एक शेर है-
'चलिये चलें वहां जहां अपना शुमार हो,
पत्थर के शहर में नहीं होगा निबाह और.'
पत्थर के शहर में नहीं होगा निबाह और.'
मुझे लगा कि जिस प्रेस क्लब को सजाने और पत्रकार पुरम जैसी आवासीय योजना को अमल में लाने के बदले मेरी पीठ ठोकी जानी चाहिये थी उस पर खंजर उतारे गये, ऐसे लोगों के साथ क्याजीना, क्यामरना? जब प्रजा आपको राजा मानती ही नहीं है तो राजा बना रहने का मतलब क्याहै? लेकिन जिन्हें षडय़ंत्र से ही सब कुछ हासिल होता है वो प्रजा चाहे या न चाहे, किसी भी कीमत पर सत्ताधीश बने ही रहना चाहते हैं चाहे इसके लिये उन्हें अपना शीश कुत्ते के सामने ही क्यों न झुकाना पड़े.
अब सवाल यह जरूर उठता है कि जब आपको कोई मतलब ही नहीं है तो आप परेशान क्यों हैं? परेशान इसलिये हूं कि दुनिया की हर अनीति पर अपनी राय रखने और टीका-टिप्पणी करने की रोटी खाता हूं. परेशान इसलिये हूं कि जब कोई पत्रकार मारा जाता है तो यह प्रेस क्लब बजाय उसके लिये लडऩे के उलटा उसे नकली, दोयम दर्जे का और छुटभैया कहकर भगा देता है. परेशान इसलिये हूं कि प्रेस मालिकों में आपसी प्रतिस्पर्धा इस कदर है कि पत्रकार एक तरह से न सोच सकते हैं न लिख सकते हैं. कम से कम प्रेस क्लब ऐसा मंच हो सकता है जहां से कर्मशील पत्रकार अपने अधिकार, सुरक्षा और न्याय की आवाज बिना किसी दबाव के उठा सकते हैं, जिसे फिलहाल शहर के चन्द पत्रकारों ने अपनी बपौती मान लिया है और उसका उपयोग वे अपनी रखैल की तरह करते हैं.1
अब सवाल यह जरूर उठता है कि जब आपको कोई मतलब ही नहीं है तो आप परेशान क्यों हैं? परेशान इसलिये हूं कि दुनिया की हर अनीति पर अपनी राय रखने और टीका-टिप्पणी करने की रोटी खाता हूं. परेशान इसलिये हूं कि जब कोई पत्रकार मारा जाता है तो यह प्रेस क्लब बजाय उसके लिये लडऩे के उलटा उसे नकली, दोयम दर्जे का और छुटभैया कहकर भगा देता है. परेशान इसलिये हूं कि प्रेस मालिकों में आपसी प्रतिस्पर्धा इस कदर है कि पत्रकार एक तरह से न सोच सकते हैं न लिख सकते हैं. कम से कम प्रेस क्लब ऐसा मंच हो सकता है जहां से कर्मशील पत्रकार अपने अधिकार, सुरक्षा और न्याय की आवाज बिना किसी दबाव के उठा सकते हैं, जिसे फिलहाल शहर के चन्द पत्रकारों ने अपनी बपौती मान लिया है और उसका उपयोग वे अपनी रखैल की तरह करते हैं.1
प्रमोद तिवारी
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