जड़ में जाओ
तब नगर निगम नहीं नगर महापालिका हुआ करती थी. बात है सन् १९८९ की. रमेश नारायण त्रिवेदी 'प्रशासकÓ हुआ करते थे. चूंकि त्रिवेदी जी का कानपुर गृह नगर है शायद इसीलिये उन्होंने २० वर्ष पहले ही ताड़ लिया था कि शहर की आत्मा में 'जरूरतोंÓ का एक कोढ़ पनप रहा है इसे जल्द से जल्द दूर किया जाना चाहिए. अपने रहते उन्होंने सबसे पहले शहर को अतिक्रमण मुक्त करने का आंदोलनात्मक अभियान छेड़ा था पूरे शहर में. गरजते बुलडोजर, नागरिक विरोध, बद्रौद्धिक समर्थन, जनप्रतिनिधियों की सहमति और शासन का वरदहस्त सब कुछ एक साथ एक करने पैकेज की तरह शहर को मिला था. अच्छी शुरुआत थी. लेकिन दुर्भाग्य कि जो शुरुआत थी वही अंतिम रिकार्ड साबित हुआ. नतीजा कुछ निकाला नहीं, अतिक्रमण मुक्त शहर अभी भी सपना बना हुआ है. हां, एक नगर निगामी रस्म जरूर शुरु हो गई है जो हर साल अतिक्रमण हटाने के नाम पर निभाई जाती है. वर्तमान में शहर में अतिक्रमण विरोधी अभियान पूरे जोश-खरोश से चल रहा है. नये नगर आयुक्त राजीव शर्मा काफी दृढ़संकल्पित लग रहे हैं. लेकिन १९८९ के 'प्रशासकÓ सेवानिवृत्त आईएएस, आरएन त्रिवेदी का मानना है कि अतिक्रमण कोई रिवाज नहीं है. शहर की जरूरतों ने इसे जन्म दिया है. इसलिए जब तक अतिक्रमण की वजह यानी अतिक्रमणकारियों की मजबूरियों (जरूरतों) को समझे बगैर बुलडोजर गरजाये जायेंगे शहर को अतिक्रमण मुक्त करना संभव नहीं होगा. आखिर हमारी व्यवस्था का आधार लोकतांत्रित है, हम कोई तानाशाह नहीं है. आइये जाने पूर्व प्रशासक शहर की इस 'प्राणलेवाÓ समस्या के बारे में क्या विचार रखते हैं, उन्हीं के शब्दों में-
समें क्या शक है कि अतिक्रमण कानपुर शहर की आत्मा का कोढ़ है. लेकिन यह कोढ़ जायेगा तभी जब नगर निगम, सभासद, सांसद, विधायक और आम नागरिक एक साथ मिलकर अतिक्रमण की जड़ का इलाज करेंगे. कोई अतिक्रमण क्यों किये है इसे भी विचारणीय बल्कि सर्वाधिक विचारणीय बिन्दु समझेंगे. मैं अगर अपने मुंह से कहूंगा तो अच्छा नहीं लगेगा. लेकिन आप लोग ही बताते हैं कि मेरे द्वारा चलाया गया अतिक्रमण विरोधी अभियान काफी सफल रहा था. उसकी वजह यही थी कि मैने केवल बुलडोजर ही नहीं चलवाया था बल्कि ध्वस्त अतिक्रमण के बाद एक पुनर्वास योजना भी चलाई थी.सबसे पहले तो यह जान लें कि लोगों में अतिक्रमण को लेकर मतान्तर है. एक वे लोग हैं जो अतिक्रमण के प्रश्रयदाता हैं उससे कमाई करते हैं. दूसरे वे जो अतिक्रमण पर ही जिंदा हैं. जैसे तमाम मलिन बस्तियां. मैं व्यक्तिगत स्तर पर गरीबों की बस्तियां, जो निश्चित ही अतिक्रमण से ही अस्तित्व में आई हैं उन्हें तब तक ध्वस्त करने के पक्ष में नहीं हूं जब तक उनके बसाने की कोई समान्तर योजना न हो. ऐसे ही ठिलिया, खोंचे वाले हैं. अगर इनके लिये छोटी-छोटी दुकानें, स्टॉलों या खोखों का इंतजाम नहीं किया जाता तो इनको भी सड़क से खदेडऩा आसान नहीं होगा. आखिर गरीब अपना सर और पेट लेकर कहां जायेेगा? बस्तियां तो सड़क के किनारे होती नहीं. हां, सड़क पर गुमटी लगाकर कब्जा करने वाले जरूर दिक्कतें पैदा करते हैं. जिसका शिकार आम जनता को होना पड़ता है. पैदल राहगीर फुटपाथ पर चलना पसंद करता है मगर अतिक्रमण उसे वहां चलने नहीं देता. वह सड़क पर चलने को मजबूर होता और दुर्घटना का जोखिम लेकर दिन गुजारता है. यह तो बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. अगर पैदल चलने के लिये भी जगह नहीं होगी तो शहर यातायात अराजकता का शिकार हो ही जायेगा जैसा कि इन दिनों है. सरकार को अतिक्रमण से ही सही अस्तित्व में आ चुकी बस्तियों के पुनर्वास की भी व्यवस्था करनी होगी. समस्या का हल तभी संभव है. मेरा अपना मानना है कि अगर सन् ८९ अतिक्रमण विरोधी अभियान के 'टोटल पैकेजÓ पर चार-पांच वर्ष तक और काम हो जाता और अभियान को पूर्ण नहीं केवल एक चौथाई सफलता ही मिलती, तब भी शहर को आज दो दशक बाद इस अभियान की आवश्यकता नहीं पड़ती. महानगर की आबादी अब चालीस लाख से ऊपर हो गयी है. आबादी बढ़ी तो वाहन भी बढ़ गये. किन्तु सड़कों की चौड़ाई पूर्ववपत ही रही. लोगों की जरूरतों में इजाफा हुआ तो अतिक्रमण कर उसे पूरा कर लिया गया. दुकान है उसका सामान सड़क तक सजा दिया गया, जरूरत थी सामान को सजाने की या ग्राहकों को आकर्षित करने की पूरी हो गई. उधर सड़क पर चाय का ठेला लगा है. चाय वाले को आमदनी की और सस्ती चाय चाहने वालों को उस ठेले की जरूरत है, जहां तीन-चार रुपये खर्च कर वह अपनी चाहत को पूरा कर लेता है. यदि रेस्टोरेंट चाय के लिये जायेगा तो जेब आड़े आयेगी. इन बिन्दुओं पर अधिकारियों को संवेदनशील बन सोचना होगा, तभी सबका भला संभव है. दो-चार रुपये खर्च करने वाला आदमी ठेले पर ही चाय पी पायेगा, रेस्टोरेंट में नहीं जायेगा. फिर वह चाहेगा कि पास में ही चाय मिल जाये. इस स्थिति में सन् ८९ में चलाये गये अतिक्रमण अभियान में विस्थापित लोगों को दुकानें बनाकर दी गई थी. आठ हजार के लगभग अत्रिमण ध्वस्त किये गये थे और उसमें से आधे यानि चार हजार को दुकानें बनवा कर दी गई थी. एक तो इससे नगर महापालिका (तत्कालीन) की आमदनी बढऩे का एक और स्रोत बना. साथ ही जिन्हें दुकानें दी गई वो अतिक्रमणकारियों को लिये हमारे पहरेदार बन गये. यानि जहां भी ऐसी व्यवस्था लागू की गई वहां से अतिक्रमण समाप्त हो गया. सीटीआई से रतन लाल नगर गये मार्ग पर रैना मार्केट, एम ब्लॉक, किदवई नगर, चालीस दुकान, विजय नगर, नवाबगंज में नगर पालिका की खाली जमीन या पार्कों में मार्केट बनाकर विस्थापितों को दुकानें दी गई.वर्तमान में चल रहे अभियान में क्या हो रहा है पता नहीं, किंतु गत् वर्ष में चले अभियान सिर्फ रस्म अदा करने जैसे ही दिखे. दस्ते के कर्मचारी पिट जाते हैं. सांसद, विधायकों की सिफारिशें भी आती हैं. हम लोग नगर पालिका सदन के सभासदों को विश्वास में रखते थे. सदन से प्रस्ताव पास कराकर अग्रिम कार्यवाही करते थे. जहां अतिक्रमण हटाया जाता था वहां के सभासद को सिर्फ उसी दिन के लिये समिति का सदस्य बनाकर साथ रखते थे. (अभियान के लिये सभासदों की एक समिति बनी थी जिसमें सभी राजनैतिक दलों से एक सभासद को लिया गया था). अतिक्रमणकारी को बिना स्थाई जगह दिये अभियान को सार्थक नहीं माना जा सकता है. अब तो नागरिक सुविधाओं तक का हनन हो रहा है. अतिक्रमण इतना बढ़ गया कि सड़कें जाम होने लगी. इससे बच्चे स्कूल पहुंचने में विलंबित हो रहे हैं. मरीज के लिये एम्बुलेंस अस्पताल नहीं पहुंच पाती हैं. इन सब की जड़ अतिक्रमण ही तो है. परेड मैदान में काम्प्लेक्स बनाने की बात थी, अभी तक नहीं बन पाया तो पार्क में ही व्यवस्था शुरू करा दी जाती. सन् ८९ के बाद यदि नगर निगम ने प्रतिवर्ष एक हजार लोगों से अतिक्रमण मुक्त कराकर बसाने की व्यवस्था की होती तो शहर की यह विकराल समस्या अभी तक समस्या न रहती. साथ ही महानगर भी खूबसूरत दिखता.
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