भूण में 'दुर्गा'
गुलाबी मौसम के साथ त्यौहारों का गुलाब खिल-खिला रहा है. एक-एक पंखुड़ी रास, उल्लास और श्रृंगार में शराबोर है. एक गरम, उमस भरा उबाऊ मौसम विदाई को तैयार है हमारे सामने त्योहारों की सुरमित श्रृंखला को खोलकर. त्योहार चाहे जो हो वह महज खाने-पीने, नाचने-गाने, खुशियां मनाने भर का कर्मकाण्ड नहीं होता उसमें गुंथी होती है सांस्कृतिक परम्पराएं, महानतम संदेश और उच्चतम आदर्शों की भव्य समृतियां. नवदुर्गा का पावन पर्व चहुं ओर पूजन-हवन और मां के जयकारों से गुंजायमान है. विजय दिलाकर ही विदा होगा. विजय बिना शक्ति के संभव है. हर पर्व अपने गर्भ में एक शक्ति लिए होता है. बिना उसके किसी रंग, उमंग, तरंग की कल्पना ही नहीं की जा सकती. तभी तो हमारे समस्त रीत रिवाज, तीज-त्योहार एवं अनुष्ठान बिना शक्ति के संभव नहीं हैं. सदियों पूर्व इसी सौंधी वसुंधरा पर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाते हुए कहा था - 'कीर्ति: श्री वार्क्च नारीणां स्मृति मेर्धा धृति: क्षमा।Ó अर्थात नारी में मैं, कीर्ति, श्री, वाक, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ. दूसरे शब्दों में इन नारायण तत्वों से निर्मित नारी ही नारायणी है. संपूर्ण विश्व में भारत ही वह पवित्र भूमि है, जहाँ नारी अपने श्रेष्ठतम रूपों में अभिव्यक्त हुई है.आर्य संस्कृति में भी नारी का अतिविशिष्ट स्थान रहा है. आर्य चिंतन में तीन अनादि तत्व माने गए हैं - परब्रह्म, माया और जीव. माया, परब्रह्म की आदिशक्ति है एवं जीवन के सभी क्रियाकलाप उसी की इच्छाशक्ति पर होते हैं. ऋग्वेद में माया को ही आदिशक्ति कहा गया है उसका रूप अत्यंत तेजस्वी और ऊर्जावान है. फिर भी वह परम कारूणिक और कोमल है. जड़-चेतन सभी पर वह निस्पृह और निष्पक्ष भाव से अपनी करूणा बरसाती है. प्राणी मात्र में आशा और शक्ति का संचार करती है.देवी भागवत के अनुसार -'समस्त विधाएँ, कलाएँ, ग्राम्य देवियाँ और सभी नारियाँ इसी आदिशक्ति की अंशरूपिणी हैं. एक सूक्त में देवी कहती हैं - 'अहं राष्ट्री संगमती बसना अहं रूद्राय धनुरातीमिÓ अर्थात् - 'मैं ही राष्ट्र को बाँधने और ऐश्वर्य देने वाली शक्ति हूँ. मैं ही रूद्र के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाती हूँ. धरती, आकाश में व्याप्त हो मैं ही मानव त्राण के लिए संग्राम करती हूँ.Ó विविध अंश रूपों में यही आदिशक्ति सभी देवताओं की परम शक्ति कहलाती हैं, जिसके बिना वे सब अपूर्ण हैं, अकेले हैं, अधूरे हैं. बावजूद इसके भागवत, गीता, पुराण की रहल पर जब वर्तमान को पढऩे का क्रम आता है तो आंखे छलछला उठती हैं क्योंकि कवि हृदय आशा जोगलेकर कहती हैं-'मेरी भी आंखें चाहती हैं देखना संसार को/ मैं भी अब जन्म लेना चाहती हूं/ मेरे कान भी सुनेंगे प्यार भरे बोल तेरे/ मैं तेरी गोदी में सोना चाहती हूं/मैं भी चलूंगी अपने नन्हें कदम रखकर/ नापना संसार को मैं चाहती हूं/ मैं भी उडूंगी अपनी बांहों को पसारे/ आसमां मु_ी में करना चाहती हूं/रोक लो औजारों को तुम दूर मुझसे/ मैं तुम्हारे पास आना चाहती हूं/ नष्ट ना कर दे कोई यह देह मेरी/ मैं तुम्हारी शक्ति बनना चाहती हूं/ मुझे आने दो मां. बीबीसी की एक रिपोर्ट है कि पिछले २० सालों में भारत वर्ष में तकरीबन १ करोड़ भू्रण हत्या की गई है. नए-नए तकनीक आने के बाद से भू्रण हत्या की संख्या में और अधिक हुआ ये कितने शर्म की बात है कि हम एक ओर तो आधुनिक सिखा लेते हैं और दूसरी जघन्य अपराध करते हैं.भू्रण हत्या ज्यादातर उच्च वर्ग के लोग ही करते हैं, तो ऐसी शिक्षा का क्या फायदा है. ज्यादा परेशान करने वाली बात ये है कि पढ़ी लिखी लड़कियां भी इसका विरोध करने में डरती हैं आखिर क्यों? क्या केवल पुरुष वर्ग जिम्मेदार हैं इस जघन्य अपराध के लिए या महिला भी हिस्सेदार हैं इसमें?अभी हाल में एक समाचार यह भी आया कि ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय यहां आकर भू्रण हैं. कितने शर्म की बात है. और ९० प्रतिशत से अधिक भू्रण हत्याएं लिंग परिक्षण के बाद कराई जाती हैं. सीधा सा मतलब है कि लड़की नहीं चाहिए.यह उस देश में हो रहा है जहां की यशस्वी संस्कृति स्त्री को कई आकर्षक संबोधन देती है. माँ कल्याणी है, वही पत्नी गृहलक्ष्मी है. बिटिया राजनंदिनी है और नवेली बहू के कुंकुम चरण ऐश्वर्य लक्ष्मी आगमन का प्रतीक है. हर रूप में वह आराध्या है. पौराणिक आख्यान कहते हैं कि अनादिकाल से नैसर्गिक अधिकार उसे स्वत: ही प्राप्त हैं. कभी माँगने नहीं पड़े हैं. वह सदैव देने वाली है. अपना सर्वस्व देकर भी वह पूर्णत्व के भाव से भर उठती है. क्योंकि शील, शक्ति और शौर्य का विलक्षण संगम है भारतीय नारी.नौ पवित्र दिनों की नौ शक्तियाँ नवरात्रि में थिरक उठती हैं. ये शक्तियाँ अलौकिक हैं. परंतु दृष्टि हो तो इसी संसार की लौकिक सत्ता हैं. अदृश्य नहीं है, वे यही हैं. त्योहारों पर व्यंजन परोसती अन्नपूर्णा के रूप में, श्रृंगारित स्वरूप में वैभवलक्ष्मी बनकर, बौद्धिक प्रतिभागिता दर्ज कराती सरस्वती और मधुर संगीत की स्वरलहरी उच्चारती वीणापाणि के रूप में.शौर्य दर्शाती दुर्गा भी वही, उल्लासमयी थिरकने रचती, रोम-रोम से पुलकित अम्बा भी वही हैं. एक नन्ही सी कुंकुम बिंदिया उसकी आभा में तेजोमय अभिवृद्धि कर देती है. कंगन की कलाकारी जिसकी कोमल कलाई में सजकर कृतार्थ हो जाती है. जो स्वर्ण शोरूम में सहेजा होता है वह उस पर सजकर ही धन्य होता है। अंत में मुनव्वर राना साहब का एक शेर अ$र्ज करता हूं- फिर किसी ने लक्ष्मी देवी को ठोकर मार दीआज कूड़े दान में फिर एक बच्ची मिल गई.
कूड़ेदान में 'लक्ष्मी'
' बालिका बचाओ' व सशक्तिकरण विषय पर चर्चाएं व सेमीनार तो बहुत होते हैं लेकिन जमीनी स्तर पर बेटियां आज भी 'बेचारीÓ हैं. हमने उन्हें अबला बनाया है संबल कभी नहीं दिया. बच्चियों के खान-पान से लेकर शिक्षा व कार्य में उनसे भेदभाव होना हमारे समाज की परंपरा बन गई है. दु:खद है कि इस परंपरा के वाहक अशिक्षित व निम्न व मध्यम वर्ग ही नहीं है बल्कि उच्च व शिक्षित समाज भी उसी परंपरा को ढो रहा है. कितना शर्मनाक है कि मां-बाप अभी तक बेटी को शिक्षित करने में कोई रुचि नहीं दिखा रहे हैैं. नतीजा यह कि हमारे देश के सबसे समृध्द राज्यों पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में लिंगानुपात सबसे कम है.यह एक चिंताजनक विषय है कि समृध्द राज्यों में बालिका भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति अधिक पाई जा रही है. देश की जनगणना-2001 के अनुसार एक हजार बालकों में बालिकाओं की संख्या पंजाब में 798, हरियाणा में 819 और गुजरात में 883 है, जो एक चिंता का विषय है. इसे गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है. कुछ अन्य राज्यों ने अपने यहां इस घृणित प्रवृत्ति को गंभीरता से लिया भी है. जैसे गुजरात में 'डीकरी बचाओ अभियानÓ चलाया जा रहा है. इसी प्रकार से अन्य राज्यों में भी योजनाएं चलाई जा रही हैं.यह कार्य केवल सरकार नहीं कर सकती है. बालिका बचाओ अभियान को सफल बनाने के लिए समाज की सक्रिय भागीदारी बहुत ही जरूरी है. देश में पिछले चार दशकों से सात साल से कम आयु के बच्चों के लिंग अनुपात में लगातार गिरावट आ रही है. वर्ष 1981 में एक हजार बालकों के पीछे 962 बालिकाएं थीं. वर्ष 2001 में यह अनुपात घटकर 927 हो गया, यह इस बात का संकेत है कि हमारी आर्थिक समृध्दि और शिक्षा के बढ़ते स्तर का इस समस्या पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है.वर्तमान समय में इस समस्या को दूर करने के लिए सामाजिक जागरूकता बढ़ाने के लिए साथ-साथ प्रसव से पूर्व तकनीकी जांच अधिनियम को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है. जीवन बचाने वाली आधुनिक प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग रोकने का हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए. नारी भू्रण हत्या ने चिकित्सकों की शाख को पापी बना दिया है. देश की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने पिछले वर्ष महात्मा गांधी की 138वीं जयंती के मौके पर केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की बालिका बचाओ योजना (सेव द गर्ल चाइल्ड) को लांच किया था. राष्ट्रपति ने इस बात पर अफसोस जताया था कि लड़कियों को लड़कों के समान महत्व नहीं मिलता. लड़का-लड़की में भेदभाव हमारे जीवन मूल्यों में आई खामियों को दर्शाती है. उन्नत कहलाने वाले राज्यों में ही नहीं बल्कि प्रगतिशील समाजों में भी लिंगानुपात की स्थिति चिंताजनक है.हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य में सैक्स रैशो में सुधार और कन्या भू्रण हत्या रोकने के लिए प्रदेश सरकार ने एक अनूठी स्कीम तैयार की है. इसके तहत कोख में पल रहे बच्चे का लिंग जांच करवा उसकी हत्या करने वाले लोगों के बारे में जानकारी देने वाले को 10 हजार रुपए की नकद इनाम देने की घोषणा की गई है. प्रत्येक प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग को ऐसा सकारात्मक कदम उठाने की जरूरत है.प्रसूति पूर्व जांच तकनीक अधिनियम 1994 को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है. भू्रण हत्या को रोकने के लिए राज्य सरकारों को निजी क्लीनिक्स का औचक निरीक्षण व उन पर नजर रखने की जरूरत है. भू्रण हत्या या परीक्षण करने वालों के क्लीनिक सील किए जाने या जुर्माना किए जाने का प्रावधान की जरूरत है. फिलहाल इंदिरा गांधी बालिका सुरक्षा योजना के तहत पहली कन्या के जन्म के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने वाले माता-पिता को 25 हजार रुपए तथा दूसरी कन्या के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने माता-पिता को 20 हजार रुपए प्रोत्साहन राशि के रूप में प्रदान किए जा रहे हैं. बालिकों पर हो रहे अत्याचार के विरुध्द देश के प्रत्येक नागरिक को आगे आने की जरूरत है. बालिकाओं के सशक्तिकरण में हर प्रकार का सहयोग देने की जरूरत है. इस काम की शुरूआत घर से होनी चाहिए.मीनाक्षी
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