मकानों की भी एक उम्र होती है
प्रमोद तिवारी
पिछले दिनों हालसी रोड पर जब उम्र पार कर चुके एक मकान ने अपना दम तोड़ा तो उसके साथ-साथ चार जिंदगियां भी दफन हो गईं. हालांकि ये जिंदगियां इसी मकान में उम्र पार कर रही थीं. लेकिन जिसकी खुद की उम्र पार हो चुकी हो वह भला दूसरे की उम्र क्या पार कराता. शहर कानपुर में उम्र पार किये मकानों की संख्या सैकड़ों में होगी. तीन सौ बरस के आस-पास का इतिहास है कानपुर का. यहां १०० से २ सौ साल पुराने मकान व बड़ी-बड़ी इमारतें खूब मिल जायेंगी. ये पुराने मकान व इमारतें यहां कभी भी विचार का विषय ही नहीं बनीं. न इस दृष्टि से कि जानें जा सकती हैं. न इस दृष्टि से कि ये बुजुर्ग खण्डहर हमारी पहचान भी हैं और न ही इस दृष्टि से कि बढ़ती जनसंख्या व शहर के बढ़ते-बदलते रूप-स्वरूप के अनुसार अब ये $जायदादें शहर के कचरे पर दाग हैं. यह तो कहो कुछ 'बहादुरोंÓ ने कुछ खण्डहरों को औने-पौने में खरीदकर आलीशान होटलों, बहुमंजिली इमारतों व 'मालोंÓ में बदल दिया वरना उनका भी हश्र धीरे-धीरे, हिस्से-हिस्से ढहना था और टुकड़ों-टुकड़ो में लोगों को मौत की नींद में सुलाना था.यहां उदाहरणार्थ एक सड़क लेते हैं ग्वालटोली बाजार की. इस बाजार की गंगा के छोर वाली पटरी को देखिए. मयूर होटल से लेकर मकबरे तक सिलसिलेवार बने मकान ऐसा लगता है कि दुकानों के साइन बोर्डोंके तारों और फिटिंग के सहारे एक दूसरे को कंधा दिये टिके हैं. एक गिरे तो कहो पूरी की पूरी लाइन भरभरा जाये. दिन में समझ नहीं आता, रात में देखिए यही हाल जूही, दर्शन पुरवा, बेकनगंज, चमनगंज, नहरपटरी के दोनों छोर के उन तमाम मोहल्लों का है, जिनका साथ शहर की बुनियाद से है. वक्त इतना गुजर चुका है कि अब ये बुनियादी मकान लोगों का जिंदा कब्रिस्तान बने खड़े हैं. इन्हें किसी भी सूरत में अब मुक्ति दे देनी चाहिए लेकिन अफसोस शहर के कंजर बुद्धि के कनपुरिए एक-एक कर मर भले जाएं लेकिन मुफ्त किरायाखोरी का लालच नहीं छोड़ेंगे.फजलगंज चौराहे पर अर्थवती पार्वती वंशलाल बालिका विद्यालय के जर्जर भवन का एक हिस्सा पिछली बरसात में ढह गया था और इस घटना में भी एक व्यक्ति की मौत हो गई थी. इस मकान की भी उम्र पूरी हो चुकी है. लेकिन इस भवन में रहने वाले किरायेदारों को कौन समझाये. उन्हें यहां न के बराबर, दूसरे शब्दों में तकरीबन मुफ्त रहने को मिल रहा है. भवन मालिक से मुकदमेबाजी चल रही है. इज्जत दांव पर लगी है. जितनी पुरानी किरायेदारी होगी उतनी ही ज्यादा कीमत मिलेगी मकान खाली करने की. ऐसा दुनियादार कहते हैं. इतनी किचकिच है इस खण्डहरनुमा इमारत में कि किरायेदार डटे रहते हैं लैण्डलार्ड जरूर मौका देखकर अपना मकान किस दूसरे 'जां-बाजÓ के सर मढ़ देता है. एक समय ऐसे मकानों ने शहर के कितने ही 'गुण्डोंÓ को शरीफों सा जीवन जीने की राह दिखा दी. उन्हें मकबूल बिल्डर बना दिया और जो वाकई बिल्डर थे उन्हें मकबूल बिल्डर बना दिया और जो वाकई बिल्डर थे उन्होंने 'गुण्डोंÓ से साझीदारियों की, खुल्लम-खुल्ला भी और भीतर-भीतर भी. मिलजुलकर खूब माल कमाया. फिर भी एकतरह से इन लोगों ने शहर का कल्याणी कायाकल्प किया. मकानों की लाशों को साफ किया उसकी जगह जिंदा इमारतें बनाईं. इसके लिए शहर चाहे तो इन लोगों को धन्यवाद दे सकता है. लेकिन हमारी व्यवस्था क्या कर सकती है? नगर निगम क्या कर सकता है? कलेक्ट्रेट क्या कर सकता है? प्रशासन क्या कर सकता है? इस बारे में बहुत ढंग से सोचा नहीं गया? उम्र पार कर चुके मकानों के बारे में ऐसा नहीं कि कोई व्यवस्था है ही नहीं. मालिक मकान नगर निगम में आवेदन करके ध्वस्तीकरण की अनुमति मांग सकता है. यदि स्वयं मकान ध्वस्त कराने में असमर्थ है तो नगर निगम ध्वस्तीकरण का शुल्क लेकर यह काम खुद करता है. लेकिन जर्जर मकान का ध्वस्तीकरण जितना आसान लग रहा है उतना होता नहीं है. क्योंकि ज्यादातर जर्जर मकानों के मामले 'ध्वस्तीकरणÓ के नाम पर अदालत पहुंच जाते हैं. मालिक मकान ध्वस्तीकरण चाहता है तो किरायेदार 'स्टेÓ ले आते हैं. हालसीरोड पर एक ऐसा ही गिराऊ मकान पिछले तीन साल से नगर निगम में ध्वस्तीकरण शुल्क जमा करने के बावजूद नहीं ढहाया गया है. मकान नंबर है ५०/२३२. प्राप्त जानकारी के अनुसार 'ध्वस्तीकरणÓ के मुद्दे पर आज भी विभिन्न न्यायालयों में १५० से अधिक मामले लम्बित पड़े हैं. नगर निगम के पीआरओ राजीव शुक्ला का कहना है कि जर्जर मकानों को चिन्हित करने का काम जल्द पूरा हो जायेगा. बताया गया है कि हटिया, कुलीबाजार, नौघड़ा, जनरलगंज, बादशाहीनाका, मूलगंज, हालसीरोड, धनकुट्ट्टी, रंजीत पुरवा, मनीराम बगिया, इफ्तिखाराबाद, लाटूश रोड, ग्वालटोली, जूही आदि दो दर्जन इलाकों में तीन सौ के आस-पास मकान चिन्हित किये गये हैं जिन पर ध्वस्तीकरणे की कार्रवाई होनी है. प्रशासनिक स्तर पर क्या कार्रवाई होती है यह तो समय ही बतायेगा लेकिन इधर धीरे-धीरे एक पखवारा के भीतर तेज व रिमझिम पानी की बौछारों में आधा दर्जन मकान ढह चुके हैं. ऊपर वाले का शुक्र है कि हालसी रोड दुर्घटना के बाद जनहानि नहीं हुई है.हाल ही में दुबई से लौटे जनाब हामिद जबैद बताते हैं कि दुबई पर एक नजर डालो लगता है कि नई-नई बसी है. वह बताते हैं कि वहां पर भवनों का नक्शा पास करते वक्त ही 'डिमालेशन डेटÓ तय कर दी जाती है. इस तरह एक उम्र के बाद भवन स्वामी दुबारा निर्माण कराता है. जिससे शहर की खूबसूरती लगातार बनी रहती है और यूं हालसी रोड जैसे हादसों का तो सवाल ही पैदा नहीं होता.1
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