सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

मकानों की भी एक उम्र होती है

प्रमोद तिवारी
पिछले दिनों हालसी रोड पर जब उम्र पार कर चुके एक मकान ने अपना दम तोड़ा तो उसके साथ-साथ चार जिंदगियां भी दफन हो गईं. हालांकि ये जिंदगियां इसी मकान में उम्र पार कर रही थीं. लेकिन जिसकी खुद की उम्र पार हो चुकी हो वह भला दूसरे की उम्र क्या पार कराता. शहर कानपुर में उम्र पार किये मकानों की संख्या सैकड़ों में होगी. तीन सौ बरस के आस-पास का इतिहास है कानपुर का. यहां १०० से २ सौ साल पुराने मकान व बड़ी-बड़ी इमारतें खूब मिल जायेंगी. ये पुराने मकान व इमारतें यहां कभी भी विचार का विषय ही नहीं बनीं. न इस दृष्टि से कि जानें जा सकती हैं. न इस दृष्टि से कि ये बुजुर्ग खण्डहर हमारी पहचान भी हैं और न ही इस दृष्टि से कि बढ़ती जनसंख्या व शहर के बढ़ते-बदलते रूप-स्वरूप के अनुसार अब ये $जायदादें शहर के कचरे पर दाग हैं. यह तो कहो कुछ 'बहादुरोंÓ ने कुछ खण्डहरों को औने-पौने में खरीदकर आलीशान होटलों, बहुमंजिली इमारतों व 'मालोंÓ में बदल दिया वरना उनका भी हश्र धीरे-धीरे, हिस्से-हिस्से ढहना था और टुकड़ों-टुकड़ो में लोगों को मौत की नींद में सुलाना था.यहां उदाहरणार्थ एक सड़क लेते हैं ग्वालटोली बाजार की. इस बाजार की गंगा के छोर वाली पटरी को देखिए. मयूर होटल से लेकर मकबरे तक सिलसिलेवार बने मकान ऐसा लगता है कि दुकानों के साइन बोर्डोंके तारों और फिटिंग के सहारे एक दूसरे को कंधा दिये टिके हैं. एक गिरे तो कहो पूरी की पूरी लाइन भरभरा जाये. दिन में समझ नहीं आता, रात में देखिए यही हाल जूही, दर्शन पुरवा, बेकनगंज, चमनगंज, नहरपटरी के दोनों छोर के उन तमाम मोहल्लों का है, जिनका साथ शहर की बुनियाद से है. वक्त इतना गुजर चुका है कि अब ये बुनियादी मकान लोगों का जिंदा कब्रिस्तान बने खड़े हैं. इन्हें किसी भी सूरत में अब मुक्ति दे देनी चाहिए लेकिन अफसोस शहर के कंजर बुद्धि के कनपुरिए एक-एक कर मर भले जाएं लेकिन मुफ्त किरायाखोरी का लालच नहीं छोड़ेंगे.फजलगंज चौराहे पर अर्थवती पार्वती वंशलाल बालिका विद्यालय के जर्जर भवन का एक हिस्सा पिछली बरसात में ढह गया था और इस घटना में भी एक व्यक्ति की मौत हो गई थी. इस मकान की भी उम्र पूरी हो चुकी है. लेकिन इस भवन में रहने वाले किरायेदारों को कौन समझाये. उन्हें यहां न के बराबर, दूसरे शब्दों में तकरीबन मुफ्त रहने को मिल रहा है. भवन मालिक से मुकदमेबाजी चल रही है. इज्जत दांव पर लगी है. जितनी पुरानी किरायेदारी होगी उतनी ही ज्यादा कीमत मिलेगी मकान खाली करने की. ऐसा दुनियादार कहते हैं. इतनी किचकिच है इस खण्डहरनुमा इमारत में कि किरायेदार डटे रहते हैं लैण्डलार्ड जरूर मौका देखकर अपना मकान किस दूसरे 'जां-बाजÓ के सर मढ़ देता है. एक समय ऐसे मकानों ने शहर के कितने ही 'गुण्डोंÓ को शरीफों सा जीवन जीने की राह दिखा दी. उन्हें मकबूल बिल्डर बना दिया और जो वाकई बिल्डर थे उन्हें मकबूल बिल्डर बना दिया और जो वाकई बिल्डर थे उन्होंने 'गुण्डोंÓ से साझीदारियों की, खुल्लम-खुल्ला भी और भीतर-भीतर भी. मिलजुलकर खूब माल कमाया. फिर भी एकतरह से इन लोगों ने शहर का कल्याणी कायाकल्प किया. मकानों की लाशों को साफ किया उसकी जगह जिंदा इमारतें बनाईं. इसके लिए शहर चाहे तो इन लोगों को धन्यवाद दे सकता है. लेकिन हमारी व्यवस्था क्या कर सकती है? नगर निगम क्या कर सकता है? कलेक्ट्रेट क्या कर सकता है? प्रशासन क्या कर सकता है? इस बारे में बहुत ढंग से सोचा नहीं गया? उम्र पार कर चुके मकानों के बारे में ऐसा नहीं कि कोई व्यवस्था है ही नहीं. मालिक मकान नगर निगम में आवेदन करके ध्वस्तीकरण की अनुमति मांग सकता है. यदि स्वयं मकान ध्वस्त कराने में असमर्थ है तो नगर निगम ध्वस्तीकरण का शुल्क लेकर यह काम खुद करता है. लेकिन जर्जर मकान का ध्वस्तीकरण जितना आसान लग रहा है उतना होता नहीं है. क्योंकि ज्यादातर जर्जर मकानों के मामले 'ध्वस्तीकरणÓ के नाम पर अदालत पहुंच जाते हैं. मालिक मकान ध्वस्तीकरण चाहता है तो किरायेदार 'स्टेÓ ले आते हैं. हालसीरोड पर एक ऐसा ही गिराऊ मकान पिछले तीन साल से नगर निगम में ध्वस्तीकरण शुल्क जमा करने के बावजूद नहीं ढहाया गया है. मकान नंबर है ५०/२३२. प्राप्त जानकारी के अनुसार 'ध्वस्तीकरणÓ के मुद्दे पर आज भी विभिन्न न्यायालयों में १५० से अधिक मामले लम्बित पड़े हैं. नगर निगम के पीआरओ राजीव शुक्ला का कहना है कि जर्जर मकानों को चिन्हित करने का काम जल्द पूरा हो जायेगा. बताया गया है कि हटिया, कुलीबाजार, नौघड़ा, जनरलगंज, बादशाहीनाका, मूलगंज, हालसीरोड, धनकुट्ट्टी, रंजीत पुरवा, मनीराम बगिया, इफ्तिखाराबाद, लाटूश रोड, ग्वालटोली, जूही आदि दो दर्जन इलाकों में तीन सौ के आस-पास मकान चिन्हित किये गये हैं जिन पर ध्वस्तीकरणे की कार्रवाई होनी है. प्रशासनिक स्तर पर क्या कार्रवाई होती है यह तो समय ही बतायेगा लेकिन इधर धीरे-धीरे एक पखवारा के भीतर तेज व रिमझिम पानी की बौछारों में आधा दर्जन मकान ढह चुके हैं. ऊपर वाले का शुक्र है कि हालसी रोड दुर्घटना के बाद जनहानि नहीं हुई है.हाल ही में दुबई से लौटे जनाब हामिद जबैद बताते हैं कि दुबई पर एक नजर डालो लगता है कि नई-नई बसी है. वह बताते हैं कि वहां पर भवनों का नक्शा पास करते वक्त ही 'डिमालेशन डेटÓ तय कर दी जाती है. इस तरह एक उम्र के बाद भवन स्वामी दुबारा निर्माण कराता है. जिससे शहर की खूबसूरती लगातार बनी रहती है और यूं हालसी रोड जैसे हादसों का तो सवाल ही पैदा नहीं होता.1

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

आईसीयू में मुन्नी

अशोक मिश्रा

'मुझे कुछ नहीं चाहिए मुझे बस मेरी बेटी वापस कर दो. ७२ घण्टे तो दूर मैं ७२ सेकेंड इस अस्पताल में इलाज नहीं कराऊंगा. जितना पैसा बनता हो तो बताओ...मुझे तुम्हारे यहां इलाज नहीं कराना...Ó विक्षिप्त सी मुद्रा में एक बाप का यह कारुणिक आक्रोश एक्सेल हॉस्पीटल में मौजूद मरीज और तीमारदारों को सन्न करने वाला था.. लोग जानना चाहते थे कि आखिर हुआ क्या..?

अंसार कंबरी शहर के ही नहीं देश के नामी-गिरामी कवि हैं. उनकी बेटी मुन्नी की ऐन ईद के दिन शाम को तबीयत बिगड़ गई. भाई हैदर उसे लेकर घर के सबसे पास वाले महंगे एक्सेल हॉस्पीटल की ओर भागा. एक्सेल में 'मुन्नीÓ को तत्काल 'आईसीयूÓ में भर्ती कर लिया गया और परिवार के सदस्यों को बाहर रहने का फरमान सुना दिया गया. मुन्नी के अब्बा 'अंसार कंबरीÓ ने जब 'आईसीयूÓ में अपनी बच्ची को देखने की जिद की तो उन्हें बेहद अपमानजनक तरीके से 'आईसीयूÓ से बाहर कर दिया गया. साथ ही एक परचा दवाइयों का हाथ में थमा दिया गया. इस बीच 'अंसारÓ के मित्रों को खबर लगी. उनमें कई पत्रकार, साहित्यकार व जागरूक नागरिक थे. उन्हीं में से एक थे हेलो कानपुर के संपादक प्रमोद तिवारी. करीब डेढ़ घण्टे बाद प्रमोद तिवारी 'आईसीयूÓ के पहरेदारों की अनुसनी करते हुए 'आईसीयूÓ में दाखिल हुए. क्योंकि तब तक किसी को कुछ भी पता नहीं चल रहा था कि आखिर मुन्नी को हुआ क्या है और भीतर आईसीयू में चल क्या रहा है. आईसीयू में कोई डॉक्टर गुप्ता अपने दो सहयोगियों के साथ बैठे बाकायदा गप्पे काट रहे थे.मुझे कुछ नहीं चाहिए मुझे बस मेरी बेटी वापस कर दो. ७२ घण्टे तो दूर मैं ७२ सेकेंड इस अस्पताल में इलाज नहीं कराऊंगा. जितना पैसा बनता हो तो बताओ...मुझे तुम्हारे यहां इलाज नहीं कराना... विक्षिप्त सी मुद्रा में एक बाप का यह कारुणिक आक्रोश एक्सेल हॉस्पीटल में मौजूद मरीज और तीमारदारों को सन्न करने वाला था..लोग जानना चाहते थे कि आखिर क्या हुआ..?अंसार कंबरी शहर के ही नहीं देश के नामी-गिरामी कवि हैं. उनकी बेटी मुन्नी की ऐन ईद के दिन शाम को तबीयत बिगड़ गई. भाई हैदर उसे लेकर घर के सबसे पास पडऩे वाले महंगे एक्सेल हॉस्पीटल भागा. एक्सेल में 'मुन्नीÓ को तत्काल 'आईसीयूÓ में भर्ती कर लिया गया और परिवार के सदस्यों को बाहर रहने का फरमान सुना दिया गया. मुन्नी के अब्बा 'अंसारÓ ने जब 'आईसीयूÓ में अपनी बच्ची को देखने की जिद की तो उन्हें बेहद अपमानजनक तरीके से 'आईसीयूÓ से बाहर कर दिया गया और एक परचा दवाइयों का हाथ में थमा दिया गया. इस बीच 'अंसारÓ के मित्रों को खबर लगी. उनमें कई पत्रकार, साहित्यकार व जागरूक नागरिक थे. उन्हीं में से एक थे हेलो कानपुर के संपादक प्रमोद तिवारी. प्रमोद तिवारी 'आईसीयूÓ के पहरेदारों की अनुसनी करते हुए करीब डेढ़ घण्टे बाद 'आईसीयूÓ में दाखिल हुए. आईसीयू में कोई डॉक्टर द्विवेदी अपने दो सहयोगियों के साथ बैठे बाकायदा गप्पे काट रहे थे. पत्रकार संपादक ने अपना परिचय गुप्त रखा. डॉक्टर के पूछने पर उन्होंने खुद को मरीज मुन्नी का चाचा बताया. बकौल प्रमोद तिवारी डॉक्टर और उनके सहायकों ने पहले तो यही उन्हें भी बदतमीजी से 'आईसीयूÓ के बाहर जाने को कहा लेकिन जब उन्होंने 'मुन्नीÓ के इलाज और बीमारी के जाने बगैर बाहर न जाने का ईरादा जता दिया तो डॉक्टर बोला, हां! बताइये क्या जानना चाहते हैं. आइये जानें इसके बाद क्या हुआ.तीमारदार-'मुन्नीÓ कहां है..?डॉक्टर-ईशारे से बताते हुए वह रही..!तीमारदार-यह तो ऐसे ही पड़ी है. अभी इलाज नहीं शुरू हुआ...!डॉक्टर-उसने पखाना कर रखा है. इलाज कैसे शुरू हो.तीमारदार-घर वालों को आप घुसने नहीं दे रहे हैं. खुद 'पखानाÓ साफ करवा नहीं रहे हैं. डेढ़ घण्टा हो गया है आखिर यहां हो क्या रहा है. 'आईसीयूÓ में भर्ती करने का मतलब क्या है..!डॉक्टर-कहा है नर्स से...आ रही है. मैं तो साफ नहीं करने लग जाऊंगा.तीमारदार-क्यों नहीं साफ करने लग जायेंगे. नर्सिंगहोम है. मरीज की नर्सिंग की फीस लेते हैं आप. चलिए मैं साफ कर देता हूं आप इलाज तो शुरू करिए...इसके बाद डॉक्टर ने नर्स से कुछ कड़े शब्दों में कहा और 'मुन्नीÓ की सफाई शुरू हो गई.पत्रकार ने फिर पूछा-''आखिर बच्ची को हुआ क्या है.ÓÓडॉक्टर-मेरी आंखों में कैमरा तो लगा नहीं है तो देखकर बता दूं कि क्या हुआ है.पत्रकार (पारा चढ़ाते हुए)-'लेकिन मुझे तो बताया गया था कि डॉक्टर की आंख में कैमरा लगा होता है. वह मरीज देखकर ही ताड़ जाता है...अगर आपकी आंखों में मरीज को देखने का कैमरा नहीं है तो लगता है हम गलत जगह आ गये.इसके बाद डॉक्टर थोड़ा सामान्य हुआ बोला,'आपसे पहले इनके अब्बा आये थे वह चीख चिल्ला रहे थे. अब आप आ गये हैं. बाहर जाइये तो इलाज शुरू हो.Óअब बताइये मरीज को डेढ़ घण्टे से 'आईसीयूÓ में लावारिश की तरह लिटाये हैं. बाहर परिवार वाले समझ रहे हैं इलाज चल रहा है. जबकि अंदर क्या हो रहा था आपको बताया ही जा चुका है.इसके बाद पूरी रात 'मुन्नीÓ के परिवारीजन दवाइयों पर दवाइयां लाते रहे. इसतरह सुबह हो गयी. अंसार 'कंबरीÓ से उनके बिफरने की वजह पूछने पर उन्होंने बताया,'मुझे अंदाजा नहीं था कि भीतर क्या चल रहा है. मैं जब सुबह अपनी बच्ची से मिलने गया तो उसके दोनों हाथ बेल्ट से बंधे हुए थे. वह बहुत दहशतजदा थी. मुझे देखकर वह आंखे फाड़-फाड़कर रोने लगी. वह ऐसे हरकत कर रही थी मानों उसे कसाई बाड़े में छोड़ कर चला गया था. मैंने पूछा इसके हाथ क्यों बांधे गये थे तो नर्स ने बताया कि मुन्नी बार-बार हाथ पटक रही थी जिससे डिप नहीं लग पा रही थी. इसलिए उसके हाथ बांधने पड़े. वह कहते हैं कि मेरी फूल सी बच्ची अकेले में अगल-बगल के माहौल से इतनी डर गई थी कि मुझे देखकर भी चौंक -चौंक जा रही थी. हू-हू-हू के अलावा उसके मुंह से कुछ निकल नहीं रहा था. मैंने तय कर लिया कि चाहें कुछ हो जाये मुन्नी को इस कसाई बाड़े से निकालना है. मैं दफ्तर गया (डीआई) तुरंत पैसे का भरपूर इंतजाम किया और अस्पताल आ गया. बाकी सब आपको मालूम है मैंने क्या किया.. क्या कहा..!अंसार कंबरी हालांकि अपनी बेटी को नहीं बचा सके. उनका मानना है जीना-मरना तो ऊपर वाले के हाथ में है लेकिन डाक्टरों को तो हम धरती का भगवान ही मानते हैं लेकिन ये लोग क्या करते हैं? एक तरह से मरीज का अपहरण कर लेते हैं और फिर इसके बाद शुरू हो जाती है पर्चा-पर्चा, जांच-जांच फिरौती. नरर्सिंग होम में जाओ तो डाक्टर मरीज को देखकर ललचा जाता है, और अगर सरकारी अस्पताल में चले जाओ तो खिसिया जाता है. उनका कहना है कि 'मरीजÓ एक तो वैसे ही कमजोर होता है. घर वालों की मौजूदगी उसे मजबूती देती है. मरीज चाहें जितना गंभीर हो उसके घर के एक सदस्य को तो हमेशा उसके साथ रहना ही चाहिए. आखिर मरीज के घर वाले भी तो देखें कि इलाज जो हो रहा है, वह क्या हो रहा है. यह कौन से चिकित्सा पद्धति है कि मरीज कमरे में बंद. बाहर घर वाले बस दवाइयों पर दवाइयां खरीद-खरीदकर लाते रहें. क्या हाल है मरीज का कुछ पता नहीं. क्या हो रहा है दवाइयों का कुछ पता नहीं. बस काउंटर पर पैसे जमा करते रहो. चलो पैसे भी ले लो लेकिन इलाज तो करो. सहानुभूति पूर्वक बात तो करो. मरीज को अगर ग्राहक ही समझ रहे हो तो ग्राहक को ग्राहक का मान तो दो. अब बताइये बच्ची ने पखाना कर दिया था. घर का कोई सदस्य होता तो क्या डेढ़ घण्टे तक बच्ची पखाने में ही पड़ी रहती. इंजेक्शन लगाने में, डिप लगाने में बच्ची हाथ पटक रही थी. साथ में अगर घर वाला होता तो हांथो को बांधने की जरूरत पड़ती..? अंसार एक सादा और नेक बंदा है. आज उसकी बेटी उसका साथ छोड़कर चली गई है. लेकिन 'मुन्नीÓ की मौत शहर के लूट-खसोट के अड्डे बने नर्सिंगहोमों की संवेदनहीन कार्यशैली की पोल खोल गई है. वाकई कितनी लूट है. इसका प्रमाण एक्सेल का वह बिल भी है जिसमें पखाना से घिन वाले ड्यूटी डॉक्टर से लेकर सीनियर डाक्टर की फीस क्रमश: १ हजार व १४ सौ लगाई गई थी. जबकि मुन्नी एक्सेल में केवल रात भर रही और उसे किसी डॉक्टर ने ठीक से देखा भी नहीं. रात को सीनियर डॉक्टर आये नहीं, ईद थी. सुबह अंसार ने विद्रोह कर दिया. फिर भी १४ सौ लग गये. यह सब अच्छा नहीं हो रहा. अंत में एक सच्चाई को तो हर किसी को मानना होगा कि मौत निश्चित है और मौत से पहले बीमारी और इलाज भी. चाहे वह डाक्टर हो, नर्स हो, वार्ड ब्याय हो या मुन्नी या फिर अंसार.



यूपी: नरेगा में सूखा

गांव का आदमी अगर गांव में हर काम पर लग जाये तो इससे सिर्फ गांव का ही नहीं शहरों का भी भला होगा. हाथों को काम तो मिलेगा ही साथ ही गांवों का शहरों की ओर लगातार होता पलायन भी रुकेगा. काम तो सही मायनों में शहरों में भी कहां धरा है? गांव से भागा शहर में आकर बेकारों की भीड़ में खो जाता है. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी ने जब गांव-गांव हर बेरोजगार को साल में कम से कम १०० दिन का रोजगार देने की गारंटी ली तो गांवों में रौनक लौटने लगी. लेकिन अफसोस ये गांव अपने कानपुर नगर व देहात के गांव नहीं है और न ही उत्तर प्रदेश के. महाराष्ट्र जाकर देखिए. आंध्र प्रदेश जाकर देखिए. नरेगा ने वहां गांवों में कैसी हरियाली बो रखी है और यहां 'नरेगाÓ की गंगा घाटों (गांवों) तक आने से पहले ही नियतखोर बिचौलियों की जटाओं में उलझ कर रह गई हैं. वैसे तो उत्तर प्रदेश में नरेगा के सूखे के कई कारण हैं लेकिन जो सर्वाधिक चिंताजनक कारण है वह है राजनीति का सौतिया डाह. आंध्र और महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार है. उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार है. चूंकि 'नरेगाÓ कांग्रेस नीति संप्रग गठबंधन की देन है और इस योजना से कांग्रेस को भारी लाभ मिल रहा है शायद इसीलिए प्रदेश सरकार नरेगा के प्रति संजीदा नहीं है. तभी तो प्रदेश सरकार की उदासीनता को कांग्रेस धीरे-धीरे अपना हथियार बनाती जा रही है. राहुल गांधी के गुप-चुप दौरे 'नरेगाÓ की जमीनी हकीकत से केन्द्र को सीधे-सीधे आइना दिखा रहे हैं. इसी क्रम में पिछले दिनों केन्द्रीय मंत्री प्रदीप जैन के उन्नाव व झांसी के दौरों के बाद प्रदेश सरकार के प्रति प्रधानमंत्री के सख्त रुख से स्पष्ट है कि बसपा की प्रदेश सरकार चाहकर भी 'नरेगाÓ को भूसा नहीं कर पायेगी. लेकिन यह भी सच है कि आम जनता को सीधे-सीधे प्रभावित कर रही इस योजना का सम्पूर्ण जनदोहन प्रदेश में शायद ही हो. क्योंकि नरेगा में भ्रष्ट आचरण वाले जैसे-जैसे मामले सामने आ रहे हैं उससे लगता है ग्राम प्रधान से लेकर शीर्ष प्रधान तक की लालची जीपें लपलपा रही हैं. फर्जी कार्ड, फर्जी भुगतान, फर्जी काम, फर्जी मजदूर आखिर नरेगा की असली फसल कैसे लहलहाने देंगे. केंद्र सरकार ने नरेगा के मद में उत्तर प्रदेश सरकार को 3,286 करोड़ रुपये उपलब्ध कराए जाने पर सरकार केवल 1,047 करोड़ रुपये ही खर्च कर सकी. गौरतलब है कि इस योजना के तहत मांग के अनुरूप ही पैसा देने का प्रावधान है. उत्तर प्रदेश में नरेगा के कामों के सोशल ऑडिट की हालात भी काफी खराब है. अन्य रायों में जहां 80 से 90 फीसदी ग्राम पंचायतों में सोशल ऑडिट किया गया है वहीं उत्तर प्रदेश में केवल 49.73 फीसदी गांवों में ही सोशल ऑडिट शुरू हो पाया है. जहां तक रोजगार देने की बात है तो उत्तर प्रदेश का रिकार्ड देश भर में सबसे कमजोर दिखता है. पूरे सूबे में अब तक केवल 26,144 परिवारों को ही 100 दिन का रोजगार दिया जा सका है जो कि लाभ पा सकने वाले परिवारों का 16 फीसदी है. इसके विपरीत आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में यह आंकड़ा 78 से 82 फीसदी है. केंद्र सरकार से टकराव शुरू होने से पहले ही पेशबंदी के तहत अब राज्य सरकार ने 100 फीसदी पंचायतों का सोशल ऑडिट कराने के लिए कैलेंडर तैयार करवा लिया है. साथ ही चुनाव आ जाने का बहाना लेकर राज्य सरकार केंद्र से मिले धन का कम हिस्सा खर्च करने को वाजिब साबित करने की तैयारी में भी है.


भूण में 'दुर्गा'


गुलाबी मौसम के साथ त्यौहारों का गुलाब खिल-खिला रहा है. एक-एक पंखुड़ी रास, उल्लास और श्रृंगार में शराबोर है. एक गरम, उमस भरा उबाऊ मौसम विदाई को तैयार है हमारे सामने त्योहारों की सुरमित श्रृंखला को खोलकर. त्योहार चाहे जो हो वह महज खाने-पीने, नाचने-गाने, खुशियां मनाने भर का कर्मकाण्ड नहीं होता उसमें गुंथी होती है सांस्कृतिक परम्पराएं, महानतम संदेश और उच्चतम आदर्शों की भव्य समृतियां. नवदुर्गा का पावन पर्व चहुं ओर पूजन-हवन और मां के जयकारों से गुंजायमान है. विजय दिलाकर ही विदा होगा. विजय बिना शक्ति के संभव है. हर पर्व अपने गर्भ में एक शक्ति लिए होता है. बिना उसके किसी रंग, उमंग, तरंग की कल्पना ही नहीं की जा सकती. तभी तो हमारे समस्त रीत रिवाज, तीज-त्योहार एवं अनुष्ठान बिना शक्ति के संभव नहीं हैं. सदियों पूर्व इसी सौंधी वसुंधरा पर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाते हुए कहा था - 'कीर्ति: श्री वार्क्च नारीणां स्मृति मेर्धा धृति: क्षमा।Ó अर्थात नारी में मैं, कीर्ति, श्री, वाक, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ. दूसरे शब्दों में इन नारायण तत्वों से निर्मित नारी ही नारायणी है. संपूर्ण विश्व में भारत ही वह पवित्र भूमि है, जहाँ नारी अपने श्रेष्ठतम रूपों में अभिव्यक्त हुई है.आर्य संस्कृति में भी नारी का अतिविशिष्ट स्थान रहा है. आर्य चिंतन में तीन अनादि तत्व माने गए हैं - परब्रह्म, माया और जीव. माया, परब्रह्म की आदिशक्ति है एवं जीवन के सभी क्रियाकलाप उसी की इच्छाशक्ति पर होते हैं. ऋग्वेद में माया को ही आदिशक्ति कहा गया है उसका रूप अत्यंत तेजस्वी और ऊर्जावान है. फिर भी वह परम कारूणिक और कोमल है. जड़-चेतन सभी पर वह निस्पृह और निष्पक्ष भाव से अपनी करूणा बरसाती है. प्राणी मात्र में आशा और शक्ति का संचार करती है.देवी भागवत के अनुसार -'समस्त विधाएँ, कलाएँ, ग्राम्य देवियाँ और सभी नारियाँ इसी आदिशक्ति की अंशरूपिणी हैं. एक सूक्त में देवी कहती हैं - 'अहं राष्ट्री संगमती बसना अहं रूद्राय धनुरातीमिÓ अर्थात् - 'मैं ही राष्ट्र को बाँधने और ऐश्वर्य देने वाली शक्ति हूँ. मैं ही रूद्र के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाती हूँ. धरती, आकाश में व्याप्त हो मैं ही मानव त्राण के लिए संग्राम करती हूँ.Ó विविध अंश रूपों में यही आदिशक्ति सभी देवताओं की परम शक्ति कहलाती हैं, जिसके बिना वे सब अपूर्ण हैं, अकेले हैं, अधूरे हैं. बावजूद इसके भागवत, गीता, पुराण की रहल पर जब वर्तमान को पढऩे का क्रम आता है तो आंखे छलछला उठती हैं क्योंकि कवि हृदय आशा जोगलेकर कहती हैं-'मेरी भी आंखें चाहती हैं देखना संसार को/ मैं भी अब जन्म लेना चाहती हूं/ मेरे कान भी सुनेंगे प्यार भरे बोल तेरे/ मैं तेरी गोदी में सोना चाहती हूं/मैं भी चलूंगी अपने नन्हें कदम रखकर/ नापना संसार को मैं चाहती हूं/ मैं भी उडूंगी अपनी बांहों को पसारे/ आसमां मु_ी में करना चाहती हूं/रोक लो औजारों को तुम दूर मुझसे/ मैं तुम्हारे पास आना चाहती हूं/ नष्ट ना कर दे कोई यह देह मेरी/ मैं तुम्हारी शक्ति बनना चाहती हूं/ मुझे आने दो मां. बीबीसी की एक रिपोर्ट है कि पिछले २० सालों में भारत वर्ष में तकरीबन १ करोड़ भू्रण हत्या की गई है. नए-नए तकनीक आने के बाद से भू्रण हत्या की संख्या में और अधिक हुआ ये कितने शर्म की बात है कि हम एक ओर तो आधुनिक सिखा लेते हैं और दूसरी जघन्य अपराध करते हैं.भू्रण हत्या ज्यादातर उच्च वर्ग के लोग ही करते हैं, तो ऐसी शिक्षा का क्या फायदा है. ज्यादा परेशान करने वाली बात ये है कि पढ़ी लिखी लड़कियां भी इसका विरोध करने में डरती हैं आखिर क्यों? क्या केवल पुरुष वर्ग जिम्मेदार हैं इस जघन्य अपराध के लिए या महिला भी हिस्सेदार हैं इसमें?अभी हाल में एक समाचार यह भी आया कि ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय यहां आकर भू्रण हैं. कितने शर्म की बात है. और ९० प्रतिशत से अधिक भू्रण हत्याएं लिंग परिक्षण के बाद कराई जाती हैं. सीधा सा मतलब है कि लड़की नहीं चाहिए.यह उस देश में हो रहा है जहां की यशस्वी संस्कृति स्त्री को कई आकर्षक संबोधन देती है. माँ कल्याणी है, वही पत्नी गृहलक्ष्मी है. बिटिया राजनंदिनी है और नवेली बहू के कुंकुम चरण ऐश्वर्य लक्ष्मी आगमन का प्रतीक है. हर रूप में वह आराध्या है. पौराणिक आख्यान कहते हैं कि अनादिकाल से नैसर्गिक अधिकार उसे स्वत: ही प्राप्त हैं. कभी माँगने नहीं पड़े हैं. वह सदैव देने वाली है. अपना सर्वस्व देकर भी वह पूर्णत्व के भाव से भर उठती है. क्योंकि शील, शक्ति और शौर्य का विलक्षण संगम है भारतीय नारी.नौ पवित्र दिनों की नौ शक्तियाँ नवरात्रि में थिरक उठती हैं. ये शक्तियाँ अलौकिक हैं. परंतु दृष्टि हो तो इसी संसार की लौकिक सत्ता हैं. अदृश्य नहीं है, वे यही हैं. त्योहारों पर व्यंजन परोसती अन्नपूर्णा के रूप में, श्रृंगारित स्वरूप में वैभवलक्ष्मी बनकर, बौद्धिक प्रतिभागिता दर्ज कराती सरस्वती और मधुर संगीत की स्वरलहरी उच्चारती वीणापाणि के रूप में.शौर्य दर्शाती दुर्गा भी वही, उल्लासमयी थिरकने रचती, रोम-रोम से पुलकित अम्बा भी वही हैं. एक नन्ही सी कुंकुम बिंदिया उसकी आभा में तेजोमय अभिवृद्धि कर देती है. कंगन की कलाकारी जिसकी कोमल कलाई में सजकर कृतार्थ हो जाती है. जो स्वर्ण शोरूम में सहेजा होता है वह उस पर सजकर ही धन्य होता है। अंत में मुनव्वर राना साहब का एक शेर अ$र्ज करता हूं- फिर किसी ने लक्ष्मी देवी को ठोकर मार दीआज कूड़े दान में फिर एक बच्ची मिल गई.

कूड़ेदान में 'लक्ष्मी'

' बालिका बचाओ' व सशक्तिकरण विषय पर चर्चाएं व सेमीनार तो बहुत होते हैं लेकिन जमीनी स्तर पर बेटियां आज भी 'बेचारीÓ हैं. हमने उन्हें अबला बनाया है संबल कभी नहीं दिया. बच्चियों के खान-पान से लेकर शिक्षा व कार्य में उनसे भेदभाव होना हमारे समाज की परंपरा बन गई है. दु:खद है कि इस परंपरा के वाहक अशिक्षित व निम्न व मध्यम वर्ग ही नहीं है बल्कि उच्च व शिक्षित समाज भी उसी परंपरा को ढो रहा है. कितना शर्मनाक है कि मां-बाप अभी तक बेटी को शिक्षित करने में कोई रुचि नहीं दिखा रहे हैैं. नतीजा यह कि हमारे देश के सबसे समृध्द राज्यों पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में लिंगानुपात सबसे कम है.यह एक चिंताजनक विषय है कि समृध्द राज्यों में बालिका भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति अधिक पाई जा रही है. देश की जनगणना-2001 के अनुसार एक हजार बालकों में बालिकाओं की संख्या पंजाब में 798, हरियाणा में 819 और गुजरात में 883 है, जो एक चिंता का विषय है. इसे गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है. कुछ अन्य राज्यों ने अपने यहां इस घृणित प्रवृत्ति को गंभीरता से लिया भी है. जैसे गुजरात में 'डीकरी बचाओ अभियानÓ चलाया जा रहा है. इसी प्रकार से अन्य राज्यों में भी योजनाएं चलाई जा रही हैं.यह कार्य केवल सरकार नहीं कर सकती है. बालिका बचाओ अभियान को सफल बनाने के लिए समाज की सक्रिय भागीदारी बहुत ही जरूरी है. देश में पिछले चार दशकों से सात साल से कम आयु के बच्चों के लिंग अनुपात में लगातार गिरावट आ रही है. वर्ष 1981 में एक हजार बालकों के पीछे 962 बालिकाएं थीं. वर्ष 2001 में यह अनुपात घटकर 927 हो गया, यह इस बात का संकेत है कि हमारी आर्थिक समृध्दि और शिक्षा के बढ़ते स्तर का इस समस्या पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है.वर्तमान समय में इस समस्या को दूर करने के लिए सामाजिक जागरूकता बढ़ाने के लिए साथ-साथ प्रसव से पूर्व तकनीकी जांच अधिनियम को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है. जीवन बचाने वाली आधुनिक प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग रोकने का हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए. नारी भू्रण हत्या ने चिकित्सकों की शाख को पापी बना दिया है. देश की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने पिछले वर्ष महात्मा गांधी की 138वीं जयंती के मौके पर केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की बालिका बचाओ योजना (सेव द गर्ल चाइल्ड) को लांच किया था. राष्ट्रपति ने इस बात पर अफसोस जताया था कि लड़कियों को लड़कों के समान महत्व नहीं मिलता. लड़का-लड़की में भेदभाव हमारे जीवन मूल्यों में आई खामियों को दर्शाती है. उन्नत कहलाने वाले राज्यों में ही नहीं बल्कि प्रगतिशील समाजों में भी लिंगानुपात की स्थिति चिंताजनक है.हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य में सैक्स रैशो में सुधार और कन्या भू्रण हत्या रोकने के लिए प्रदेश सरकार ने एक अनूठी स्कीम तैयार की है. इसके तहत कोख में पल रहे बच्चे का लिंग जांच करवा उसकी हत्या करने वाले लोगों के बारे में जानकारी देने वाले को 10 हजार रुपए की नकद इनाम देने की घोषणा की गई है. प्रत्येक प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग को ऐसा सकारात्मक कदम उठाने की जरूरत है.प्रसूति पूर्व जांच तकनीक अधिनियम 1994 को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है. भू्रण हत्या को रोकने के लिए राज्य सरकारों को निजी क्लीनिक्स का औचक निरीक्षण व उन पर नजर रखने की जरूरत है. भू्रण हत्या या परीक्षण करने वालों के क्लीनिक सील किए जाने या जुर्माना किए जाने का प्रावधान की जरूरत है. फिलहाल इंदिरा गांधी बालिका सुरक्षा योजना के तहत पहली कन्या के जन्म के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने वाले माता-पिता को 25 हजार रुपए तथा दूसरी कन्या के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने माता-पिता को 20 हजार रुपए प्रोत्साहन राशि के रूप में प्रदान किए जा रहे हैं. बालिकों पर हो रहे अत्याचार के विरुध्द देश के प्रत्येक नागरिक को आगे आने की जरूरत है. बालिकाओं के सशक्तिकरण में हर प्रकार का सहयोग देने की जरूरत है. इस काम की शुरूआत घर से होनी चाहिए.मीनाक्षी