शुक्रवार, 18 सितंबर 2009




क्रिकेट की कब्रगाह




प्रमोद तिवारी


कानपुर क्रिकेट एसोसिएशन ने दावा किया है कि वह क्रिकेट को बढ़ाने के लिए साढ़े चार लाख रुपये का खर्च और बढ़ा रही है. राधेश्याम क्रिकेट लीग और टूर्नामेंट के दौरान खेले जाने वाले मैचों में इस्तेमाल होने वाली गेंदों का खर्च वह खुद उठायेगी. लेकिन सवाल तो यह है कि जो एसोसिएशन शहर के दशकों पुराने नामी-गिरामी क्लबों को एक जुट नहीं रख पा रही, उन्हें नेस्तनाबूद करने के लिए साम-दाम-दण्ड भेद हर तरह का पैंतरा खेल रही है. वह क्लबों को मुफ्त गेंद का झुनझुना थमाकर आखिर क्रिकेट का कैसे भला कर सकेगी? पाठकों आपको बता दें कि तीन साल से शहर में केसीए की लीग में एक भी टूर्नामेंट में शहर का समूचा क्रिकेट अपना जौहर नहीं दिखा सका है. कारण कि 'केसीएÓ और क्रिकेट क्लाबों के बीच जबरदस्त 'वर्चस्वÓ की चौतरफा जंग छिड़ी हुई है. सामंतों, गुलामों और तिकडिय़ों के त्रिकोण में खिलाडिय़ों का खेल कबाडिय़ों के 'हाथोंÓ चल गया. वर्तमान में शहर के १८ क्रिकेट क्लब केसीए को अपना संगठन ही मानते और केसीए के सचिव एस.के.अग्रवाल का कहना है कि इन क्लबों को समय से वार्षिक चंदा न देने के कारण निष्काषित कर दिया गया है. नि:सन्देह ये १८ क्लब केसीए से निष्काषित हैं लेकिन निष्कासन की वजह 'चंदाÓ नहीं, बल्कि 'धंधाÓ है. क्रिकेट की लोकप्रियता, ग्लैमर और पैसे की बरसात ने सत्ता, पैसा और ग्लैमर के भूखे लोगों को हिलाकर रख दिया है. शरद पवार, लालू यादव, नरेन्द्र मोदी...और न जाने कितने नाम लिये जा सकते हैं शहर से भी. ये लोग क्रिकेट संगठनों के सिंहासनों से सिर्फ इसलिए हैं क्योंकि क्रिकेट आज वह जरिया भी है जिसके तड़के भर से राजनीति, व्यापार और शोहरत के स्वाद में कई गुना इजाफा हो जाता है. खबर यह भी है कि १८ पुराने क्रिकेट क्लबों से पिंड छुड़ाकर वर्तमान केसीए (रामगोपाल गुट) बाकी क्लबों को अपना जर खरीद गुलाम बनाकर रखना चाहती है. ताकि आगे 'यूपीसीएÓ में प्रतिनिधित्व के लिए जिसे चाहा जाये आगे बढ़ा दिया जाये. गत् एक वर्ष के दौरान 'केसीएÓ में लगभग दर्जन भर क्लबों के 'प्रतिनिधित्वÓ बदले जा चुके हैं. वर्षों से जमें अखाडिय़ों को दर किनार कर वर्तमान में रामगोपाल उन जेबी लोगों को आगे बढ़ाया है जो 'वोटिंगÓ के दौरान 'रिमोट बटनÓ से ज्यादा कुछ न हो. केसीए के अध्यक्ष राम गोपाल पायलट मानते हैं कि पिछले एक वर्ष में कई क्लबों ने अपने रिप्रजेंटेटिव बदले हैं. सुनने में आया है कि इन बदलाव के पीछे पैसे और दबाव की राजनीति है लेकिन मैं इसे सच नहीं मानता. फिर बदलाव तो नई पीढ़ी को आगे लाने के लिए जरूरी भी है. लेकिन वह इस बात पर खामोश है कि एक तरफ युव पीढ़ी को मौका और दूसरी तरफ १८-१८ क्लबों का निष्काषन. वह कहते हैं कि निष्काषित क्लब अपने क्रियाकलापों के कारण बाहर हुए हैं. समय पर चंदा न देना, मुकदमेबाजी करना और समानांतर संगठन चलाना, अनुशासनहीनता है और क्रिकेट तो अनुशासन का दूसरा नाम है. आपको बताएं कि रामगोपाल गुट (वर्तमान केसीए) और राहुल सप्त गुट (बागी केसीए) पिछले तीन वर्षों से कानपुर की क्रिकेट राजनीति में मसलपावर से लेकर पैसा और दबाव का खुला प्रदर्शन कर चुके हैं. दोनों गुट किस कदर खुन्नस पाले हैं इसका प्रमाण है-रामगोपाल गुट के चेयर मैन संजीव कपूर (विधायक अजय कपूर के छोटे भ्राता) और राहुत सप्रू गुट के चेयरमैन वीरेन्द्र दुबे (विधायक अजय कपूर के धुर विरोधी). बताया जाता है कि सन् २००६ में जब केसीए के चुनाव हुए तो रामगोपाल पायलट (अध्यक्ष) के अलावा बाकी के निर्णायक पद राहुल सप्रू (सचिव) के खेमे में चले गये थे. स्थानीय क्रिकेट के ये दो दिग्गज जब आपस में टकराये तो 'बिल्लीÓ को मौका मिल गया. राम गोपाल का नेतृत्व हरण हो गया. सप्रू गुट के निष्काषन के बाद एसएस अग्रवाल सचिव बनें और आज रामगोपाल पायलट के न चाहते हुए भी अग्रवाल की मर्जी ही केसीए की गति और प्रगति है. गत् बुधवार को गैंजेस क्लब में हुई केसीए की वार्षिक बैठक में रामगोपाल की खामोशी यही बताती है. इस बैठक में वैसे तो चुनाव भी होने थे. लेकिन चुनाव की जरूरत नहीं समझी गई है. वर्तमान कार्यकारिणी को ही आगे सरका दिया गया है. चुनाव न कराने पर पायलट ने बताया कि कार्यकारिणी ने प्रस्ताव के जरिए वर्तमान कमेटी का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा दिया है. समाचार का अंतिम बिंदु कम महत्व का नहीं है. केसीए में प्रतिवर्ष चुनाव की परम्परा रही है चाहे जितना झगड़ा-झंझट चल रहा हो. कार्यकाल बढ़ाने की यह पहली घटना है.1
बस नाम के बचे है
कलह पुराण
विशेष प्रतिनिधि

कानपुर क्रिकेट एसोसिएशन में यूं तो टकराव राम गोपाल पायलट और राहुल सप्रू के बीच शुरू हुआ था लेकिन अब अंदरखाने राम गोपाल पायलट अपने गुट में ही अलग-थलग पड़ गये हैं. सचिव एस.एस अग्रवाल चेयरमैन संजय कपूर की कृपा से छाये हुए हैं. जबकि पिछले दिनों पायलट ने यूनियन क्लब में केसीए के सम्बद्ध सभी क्लबों की बैठक बुलवाई. केसीए में हड़कंप मच गया क्योंकि राम गोपाल पायलट ने अपनी बैठक में बाकी क्लबों को भी आमंत्रित कर दिया था. अब अगर बाकी क्लब किसी सूरत में फिर 'केसीएÓ से जुड़ जाते हैं तो तीन बरस से जारी 'केसीएÓ हड़पोनीति को करारा झटका लग सकता है. केसीए पर कब्जे कर राजनीति के पीछे जहां स्थानीय रंगबाजी एक पहलू है वहीं इससे ज्यादा महत्व का लालच उत्तर प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन में प्रतिनिधित्व का अधिकार प्राप्त करना है. नियमत: यूपीसीए में हर जिले से मान्यता प्राप्त क्रिकेट संघ का एक प्रतिनिधि मताधिकार के साथ क्रिकेट की रीति-नीति निर्धारण में अहम भूमिका निभाता है. यह एक रास्ता होता है जो सिर्फ पत्रकारिता राजनीति या व्यवसाय में महारथ रखने वाले राजीव शुक्ला, लालू यादव और डालमिया सरीखों को भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की राजनीति का बादशाहत तक पहुंचा देता है. संजय कपूर जाते दिखाई पड़ते हैं.
आइये जाने कि केसीए का कलहपुराण का अखण्ड पाठ कब और कैसे शुरू हुआ था.बात है सन् दो हजार छ: अप्रैल की जब पहली बार कानपुर क्रिकेट एसोसिएशन को ग्रीन पार्क प्रशासन ने नोटिस देकर कहा कि या तो केसीए अपना दफ्तर हटाये अन्यथा ८४ हजार रुपये का भुगतान करे. यह ८४ हजार रुपये कार्यालय का किराया बिजली, पानी के बकाया के मद में था. उस समय रामगोपाल पायलट अध्यक्ष थे और राहुल सप्रू सचिव, अध्यक्ष और सचिव आपस में 'स्पोर्ट्स मैन इगोÓ के शिखर पर थे और अपने-अपने चहेतों के साथ गुटाधीश बने हुए थे. जैसे ही ग्रीन पार्क का नोटिस आया तत्कालीन कमेटी पर संघ की शाख बचाने की चुनौती आ गई. दो हजार छ: के चुनाव में रामगोपाल अध्यक्ष होने के बावजूद असहज थे क्योंकि उनके अलावा जितने भी महत्व के पद थे सबके सब राहुल गुट के पास थे. बावजूद असहज थे क्योंकि उनके अलावा जितने भी महत्व के पद थे बावजूद इसके पायलट और राहुल ने मोर्चा संभाला. पहले ग्रीन पार्क प्रशासन से बात की फिर प्रशासन से. और अब बात नहीं बनीं तो 'केसीएÓ पार्टी बनकर हाईकोर्ट चली गई. हाईकोर्ट से 'स्टेÓ मिल गया जो आज तक जिंदा है. ग्रीन पार्क में आज भी केसीए के दफ्तर में ताला लटका हुआ है.केसीए का तब तक का कुल रिकार्ड, हिसाब-किताब, कागज पत्तर सब आज तक सप्रू के पास है. इसी कमेटी के समय में क्रिकेट की बेहतरी के लिए एक नियम बनाया गया कि जो क्लब केसीए की लीग खेलेगा उसे कम से कम एक मान्यता प्राप्त टूर्नामेन्ट भी खेलना पड़ेगा. दरअसल हो यह रहा था कि उस समय कुछ क्लब अपनी सुविधा के अनुसार मन होता था तो लीग या टूर्नामेन्ट भाग लेते थे. मन नहीं होता तो नहीं लेते थे. इस नियम के लागू हो जाने के बाद स्कैनिंग में सात क्लबों को चिन्हित किया गया. ये क्लब के नवाबगंज एथलेटिक, गांधीग्राम आर्यंन्स क्लब, भारत स्पोर्टिंग, गोल्डेन स्पोर्टिंग प्रिंस और क्राइस्ट चर्च कॉलेज. बस यहां से केसीए बिखरना शुरू हो गया. ये सभी क्लब कोर्ट चले गये और वहां केसीए की एक न चली. सभी क्लबों को बहाल कर दिया गया. लेकिन राहुल गुट ने कोर्ट की राहत को यह कहते हुए मानने से इंकार कर दिया कि न्यायालय ने केसीए के लिए कोई ऑर्डर नहीं किया है. इसलिए कार्रवाई जारी रहेगी. ग्रीन पार्क प्रकरण और इन सात क्लबों की कार्रवाई किचकिच में तकरीबन पूरा साल निकल गया और चुनाव फिर आ गये. हुआ यह कि जिन सात क्लबों पर कार्रवाई हुई उसकी तलवार राहुल के हाथों थी. मौका देख पायलट कार्रवाई की जद में आये 'क्लबोंÓ की पैरोकारी में लग गये और उन्होंने सभी सामों क्लबों को अपने अधिकार से मताधिकार दे दिया. राहुल गुट को यह बात बहुत नागवार गुजरी और उसने इलेक्शन का बहिष्कार कर दिया. फिर जो कमेटी बनी उसके सचिव हुए एस.एस.अग्रवाल, रामगोपाल पायलट पुन: निर्विरोध अध्यक्ष चुन लिये गये. राहुल गुट चुप नहीं बैठा वह चुनाव की संवैधानिक को लेकर हाईकोर्ट चला गया. राहुल हाईकोर्ट गये तो रामगोपाल एण्ड कम्पनी भी हमलावर हो गई और उसने राहुल सप्तू के साथ खड़े १८ क्लबों या जवाबी कार्रवाई करते हुए उन्हें केसीए से निलंबित कर दिया गया. क्लबों पर चार्ज लगा. समय पर चंदा न देना, संघ विरोधी गतिविधियों में लिप्त रहना और चुनाव में भाग न लेना. जिन क्लबों को केसीए ने निशाना बनाया उनके नाम है-कानपुर, जिमखाना, तिलक सेसाइटी, कानपुर स्टारलेट, वांडर्स, ओएफसी, आर.पी.वी.स्पोर्ट्स, हिन्दुस्तान, नगर निगम वाईएमसीसी, एमयूसी, फ्रेंड्स यूनियन, खेरे पति एथलेटिक, नेशनल क्लब, बीसीए, नेशनल यूथ, फ्रेंड्स स्पोर्टिंग और इलेवन स्टार. निलंबन के विरोध में राहुल गुट फिर हाईकोर्ट चला जहां रिट स्वीकार कर ली गई जो कि आज तक विचाराधीन है. इसी बीच मौका देखकर नये-नये सचिव एसएस अग्रवाल ने पासा फेंका और संजय कपूर की इंट्री बतौर चेयरमैन करा दी. जैसे ही संजय का आगमन हुआ राहुल गुट सकते में आ गया. उसे कुछ नहीं सूझा तो कपूर खानदान धुरविरोधी काट माने जाने वाले वीरेन्द्र दुबे को अपने गुट का चेयरमैन घोषित कर दिया. साथ ही अपने गुट का चुनाव कराकर एक अध्यक्ष भी बना लिया. इस तरह शहर में दो 'केसीएÓ हो गये. दोनों ही अपनी-अपनी लीगें करा रहे हैं. १८ क्लब आपस में लीग भी खेलते हैं और टूर्नामेन्ट भी. बाकी के ४२ क्लब अपनी लीग कराते हैं और टूर्नामेन्ट खेलते हैं.राहुल सप्तू गुट के दिनेश कटियार कहते हैं कि मौजूदा 'केसीएÓ गैर संवैधानिक है. जब आज दिन तक सन् २००६ के सचिव से हिसाब-किताब नहीं लिया गया. बजट नहीं पास कराया गया, चार्ज नहीं लिया गया, कोषाध्यक्ष और प्रतियोगिता सचिव की वार्षिक रिपोर्ट ने ली गई फिर नया चुनाव कैसे...! संविधान में स्पष्ट है कि नये चुनाव से पहले ऊपर बताई गई औपचारिकताएं पूरी करनी ही होंगी.एसएस अग्रवाल कहते हैं कि उनका 'केसीएÓ ही असली 'केसीएÓ है. जो हम पर उंगली उठा रहे हैं उन्हें तो २४ जुलाई दो हजार आठ को बाकायदा बैठक के बाद निष्काषित कर दिया गया है. वर्तमान में स्थिति यह है कि दोनों ही केसीए कानपुर से लेकर इलाहाबाद तक चार मुकदमों में उलझे हुए हैं. दोनों ही गुट न्यायालय में पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं. मौजूदा केसीए इन क्लबों को फिर अपने साथ नहीं लेना चाहता. क्योंकि इससे उनका खेल बिगड़ सकता. इस पूरी राजनीति का रोचक पहलू यह है कि वर्तमान अध्यक्ष रामगोपाल पायलट कहते हैं कि जो हो रहा है ठीक नहीं है. क्रिकेट की मूल भावना को नष्ट किया जा रहा है. जब अध्यक्ष इस तरह की भाषा बोलता है तो उसे असहाय और रट्टू तोता ही कहा जा सकता है. सूत्रों के अनुसार रामगोपाल पायलट ने तो अपने पद में इस्तीफा तक दे दिया था लेकिन बुजुर्ग ज्योति बाजपेयी ने उन्हें समझ लिया. अब अध्यक्ष जी समझ गये कि उन्होंने गलत लोगों को आगे कर दिया, जो क्रिकेट का 'कÓ भी नहीं जानते. इसलिए उन्होंने मौन धारण कर लिया है. देखने वालों ने देखा कि केसीए की वार्षिक बैठक अध्यक्ष के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला..! जबकि एसएस अग्रवाल और विशेष आग्रह पर बुलाये गये सुरेन्द्र मिश्रा की चहक देखते ही बन रही थी.1

शनिवार, 12 सितंबर 2009

अब बिन हिन्दी सब सून


हिन्दी दिवस पर विशेष

हाल ही में प्रकाशित ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोष में हिन्दी के तमाम प्रचलित शब्दों, मसलन, आलू, अच्छा, अरे, देसी, फिल्मी, गोरा, चड्डी, यार, जंगली, धरना, गुण्डा, बदमाश, बिंदास, लहंगा, मसाला इत्यादि को स्थान दिया गया है तो दूसरी तरफ पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने राष्ट्रीय सुरक्षा भाषा कार्यक्रम के तहत अपने देशवासियों से हिन्दी, फारसी, अरबी, चीनी व रूसी भाषायें सीखने को कहा था.
निज भाषा उन्नति अहै, सब भाषन को मूल... आज वाकई इस बात को अपनाने की जरूरत है. भूमण्डलीयकरण एवं सूचना क्रांति के इस दौर में जहाँ एक ओर 'सभ्यताओं का संघर्षÓ बढ़ा है वहीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नीतियों ने भी विकासशील व अविकसित राष्ट्रों की संस्कृतियों पर प्रहार करने की कोशिश की है. सूचना क्रांति व उदारीकरण द्वारा सारे विश्व के सिमट कर एक वैश्विक गाँव में तब्दील होने की अवधारणा मेेंं अपनी संस्कृति, भाषा, मान्याताओं, विवधताओं व संस्कारों को बचाकर रखना सबसे बड़ी जरूरत है. एक तरफ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों जहाँ हमारी प्राचीन सम्पदाओं का पेटेंट कराने में जुटी हैं.वहीं इनके ब्राण्ड विज्ञापनों ने बच्चों व युवाओं की मनोस्थिति पर भी काफी प्रभाव डाला है, निश्चितत: इन सबसे बचने हेतु हमें अपनी आदि भाषा संस्कृत व हिन्दी की तरफ उन्मुख होना होगा। हम इस तथ्य को नकार नहीं सकते कि हाल ही में प्रकाशित ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोष में हिन्दी के तमाम प्रचलित शब्दों, मसलन, आलू, अच्छा, अरे, देसी, फिल्मी, गोरा, चड्डी, यार, जंगली, धरना, गुण्डा, बदमाश, बिंदास, लहंगा, मसाला इत्यादि को स्थान दिया गया है तो दूसरी तरफ पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने राष्ट्रीय सुरक्षा भाषा कार्यक्रम के तहत अपने देशवासियों से हिन्दी, फारसी, अरबी, चीनी व रूसी भाषायें सीखने को कहा था। अमेरिका जो कि अपनी भाषा और अपनी पहचान के अलावा किसी को श्रेष्ठ नहीं मानता, हिन्दी सीखने में उसकी रूचि का प्रदर्शन निश्चितत: भारत के लिए गौरव की बात है। अमेरिका राष्ट्रपति ने स्पष्टतया घोषणा की कि- ''हिन्दी ऐसी विदेशी भाषा है, जिसे २१ वीं सदी में राष्ट्रीय सुरक्षा और समृद्घि के लिए अमेरिका के नागरिकों को सीखनी चाहिए।ÓÓ निश्चितत: भूमण्डलीकरण के दौर में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, सर्वाधिक जनसंख्या वाले राष्ट्र और सबसे बड़े उपभोक्ता बाजार की भाषा हिन्दी को नजर अंदाज करना अब सम्भव नहीं रहा। प्रतिष्ठित अंग्रेजी प्रकाशन समूहों ने हिन्दी में अपने प्रकाशन आरम्भ किए है तो बी.बी.सी., स्टार प्लस, सोनी, जी.टी.वी., डिस्कवरी आदि अनेक चैनलों ने हिन्दी में अपने प्रसारण आरम्भ कर दिये हैं। हिन्दी फिल्म संगीत तथा विज्ञापनों की ओर नजर डालने पर हमें एक नई प्रकार के हिन्दी के दर्शन होते हैं। यहाँ तक कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विज्ञापनों में अब क्षेत्रीय बोलियों भोजपूरी इत्यादि का भी प्रयोग होने लगा है और विज्ञापनों के किरदार भी क्षेत्रीय वेश-भूषा व रंग-ढ़ंग में नजर आते हैं। निश्चितत: मनोरंजन और समाचार उद्योग पर हिन्दी की मजबूत पकड़ ने इस भाषा में सम्प्रेषणीयता की नई शक्ति पैदाकी है पर वक्त के साथ हिन्दी को वैश्विक भाषा के रूप में विकसित करने हेतु हमें भाषाई शुद्घता और कठोर व्याकरणिक अनुशासन का मोह छोड़ते हुए उसका नया विशिष्ट स्वरूप विकसित करना होगा अन्यथा यह भी संस्कृत की तरह विशिष्ट वर्ग तक ही सिमट जाएगी। हाल ही में विदेश मंत्रालय ने इसी रणनीति के तहत प्रति वर्ष दस जनवरी को 'विश्व हिन्दी दिवसÓ मनाने का निर्णय लिया है, जिसमें विदेशों में स्थित भारतीय दूतावासों में इस दिन हिन्दी दिवस समारोह का आयोजन किया जाएगा। आज की हिन्दी वो नही रही... बदलती परिस्थितियों में उसने अपने को परिवर्तित किया है। विज्ञान-प्रौद्योगिकी से लेकर तमाम विषयों पर हिन्दी की किताबें अब उपलब्ध हैं, क्षेत्रीय अखबारों का प्रचलन बढ़ा है, इंटरनेट पर हिन्दी की वेबसाइटों में बढ़ोत्तरी हो रही है, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की कई कम्पनियों ने हिन्दी भाषा में परियोजनाएं आरम्भ की है। सूचना क्रांति के दौर में कम्प्यूटर पर हिन्दी में कार्य संस्कृति को बढ़ावा देने हेतु सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के प्रतिष्ठान सी-डैक ने नि:शुल्क हिन्दी साफ्टवेयर जारी किया है, जिनमें अनेक सुविधाएं उपलब्ध हैं। माइक्रोसाफ्ट ने ऑफिस हिन्दी के द्वारा भारतीयों के लिए कम्प्यूटर का प्रयोग आसान कर दिया है। आई.बी.एम. द्वारा विकसित सॉफ्टवेयर में हिन्दी भाषा के ६५,००० शब्दों को पहचानने की क्षमता है एवं हिन्दी और हिन्दुस्तानी अंग्रेजी के लिए आवाज पहचानने की प्रणाली का भी विकास किया गया है जो कि शब्दों को पहचानकर कम्प्यूटर लिपिबद्घ कर देती है। एच.पी. कम्प्यूटर्स एक ऐसी तकनीक का विकास करने में जुटी हुई है जो हाथ से लिखी हिन्दी लिखावट को पहचान कर कम्प्यूटर में आगे की कार्यवाही कर सके। अंग्रेजी न जानने वाले भी अब इंटरनेट के माध्यम से अपना काम आसानी से कर सकते हैं। हिन्दी के वेब पोर्टल समाचार, व्यापार, साहित्य, ज्योतिषी, सूचना प्रौद्योगिकी एवं तमाम जानकारियाँ सुलभ करा रहे हैं। यहाँ तक कि दक्षिण भारत में भी हिन्दी के प्रतिदुराग्रह खत्म हो गया है। निश्चितत: इससे हिन्दी हिन्दी भाषा को एक नवीन प्रतिष्ठा मिली है।1
(लेखक कानपुर मण्डल के वरिष्ठ डाक अधीक्षक है)




बाबा पर या करो

सुनसान में खुले आकाश के नीचे लावारिस खड़ी प्रतिमाओंं की सुरक्षा कैसे संभव है? शहर में जगह-जगह कब्जे और अतिक्रमण की नियत से बाबा साहब की प्रतिमा लगाना कहाँ तक उचित है? प्रतिमाओं के इर्द-गिर्द मल त्याग, कूड़ाघर, सुअरों की लोटपोट, अपने-अपने हित में उसका इस्तेमाल क्या बाबा साहब का अपमान नहीं है...? ऊपर से प्रतिमाओं को लेकर समय-समय पर तनाव पैदा होता रहता है....

कुछ शातिरों ने देहली सुजानपुर चकेरी में केडीए की जमीन को हड़पने के लिए संविधान निर्माता बाबा साहब की मूर्ति का इस्तेमाल किया गया था. पिछले दिनों अचानक बाबा साहब की मूर्ति गायब हो गई. गायब मूर्ति की जब जांच-पड़ताल शुरु की गई तो मूर्ति तो मिली नहीं. हां! करोड़ों रुपये का भूमि घोटाला जरूर मिल गया. प्रशासन इस घटना पर जिस तरह की ठंडी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है उससे स्पष्ट है कि चाहें बाबा साहेब हो या भोले भण्डारी अवैध कब्जों के लिए 'आस्थाÓ को अब बहुत दिनों तक ढाल नहीं माना जा सकता. ऐसी करतूतें चालाकी, बेईमानी और चार सौ बीसी हंै. बदनीयति से महापुरुषों, देवी देवताओं की मूर्तियों का इस्तेमाल करने वालों के खिलाफ दण्डात्मक कार्रवाई होनी चाहिए. उन्हें जेल भेजा जाना चाहिए. बाबा साहब की प्रतिमाएं पिछले कुछ वर्षों से शहर में नये-नये विवाद पैदा कर रही हैं. याद करिए दो साल पहले (२००६) में काकादेव में क्या हुआ था. किसी नशेबाज ने फुटपाथ पर लगी अम्बेडकर प्रतिमा को तोड़ दिया है. घटना की मीडियाई प्रतिक्रिया ने शहर के साथ-साथ पूरे देश को वर्ग संघर्ष की सीधी और मानसिक जद में ला खड़ा किया था. एक मूर्ति है आवास-विकास में रविश डिपो के पास फुटपाथ पर है. पता चलता है कि पूर्व पार्षद सोबरन सिंह ने फुटपाथ पर कब्जा करके होटल खोला था.आवास-विकास की तरफ से फुटपाथ खाली करने का नोटिस आया तो होटल हटाने के बजाय बला टालने के लिये बाबा साहब को खड़ाकर दिया फुटपाथ पर. पुलता विरोध कैसे कर सकता है अभी तक अवैध रूप से खड़ा है. पार्षद खुद बताते हैं कि पिछले साल अतिक्रमण अभियान के दौरान नगर निगम द्वारा बाउन्ड्री वाल तोड़ दी गयी थी, मगर बाबा की मूर्ति के सहारे फुटपाथ पर आजतक कब्जा कायम है. तो क्या अतिक्रमण न हटाये नगर निगम....और अगर कहीं बुलडोजर की हवा बाबा को लग जाये..बाबा को अतिक्रमणकारी किसने बनाया?
अनुयायिायों बाबा को मसीहा बनाओ अतिक्रमणकारी नहीं। महादेव नगर में बस्ती वालों ने बाबा साहब को सड़क पर खड़ाकर रखा है। सड़क चलने के लिये होती है. बाबा आपके मसीहा हैं, किसी की राह का रोड़ा नही. रामबाग में उखड़ी हुई रेलवे लाइनपर अनाधिकृत बसी हुई गूदड़ बस्ती में एक बाबा साहब की मूर्ति दिखाई देती है। कबाडिय़ों की बस्ती में कबाड़ के बीच, अपने अनुयायियों को कोसती कराहती किन्तु किंकर्तव्यविमूढ़। मालूम हुआ मूर्ति २३ साल पहले लगी थी और केन्द्रीय कृषि राज्यमंत्री योगेन्द्र सिंह मकवाना के कर कमलों से आनावरण हुआ। आज आलम यह है कि पार्क भर में फैला हुआ कूड़ा-कबाड़ है। मूर्ति के चारो तरफ मल फैला हुआ है लोग मूतते हैं. काकादेव की सुदर्शन कालोनी में मिले एक और बाबा साहब ४ साल पहले सुखराम सिंह यादव द्वारा प्रतिस्थापित हैं. मगर बड़ा वीभत्स दृश्य है सामने। बाब साहब फुटपाथ पर बजबजाते कूड़े के ढ़ेरों में घिरे हैं। कूड़े के बीच जगह-जगह सुअर लोटते दिख रहे, जैसे सुअरों का विश्रामगृह हो। कमोबेश यही हाल दिखाई देता है काकादेव में राजापुरवा में बाबा साहब की एक और प्रतिमा का १४ वर्ष पहले शिलान्यास किया बसपा के मंडल अध्यक्ष सोने लाल पटेल ने। पार्क में प्रतिमा के आस-पास वही कूड़े के ढ़ेर मानो प्रतिमा की पहचान हो. अम्बेडकर पार्क सार्वजनिक कार्यक्रमों की जगह भी है और स्थानीय लोगों का पेशाब घर भी है। संविधान के नियामक का ये निरादर आखिर निखट्टुओं के लिए कलंक है कि नहीं।चुन्नीगंज हातापार्क में स्थापित बाबा साहब की १३ साल पहले लगायी गयी एक और मूर्ति की स्थिति देखें। एक ही पार्क मेंमूर्ति है, मूर्ति के बगल में ट्रान्सफार्मर रखा है। गंदगी फैली है, कूड़े के ढ़ेर हैं क्योंकि वहां कूड़ा कर्कट डाला जाता है। बस्ती वालों ने पहले तो प्रतिमा लगायी और अब खुद ही कूड़ा डाल रहे हैं। इसी पार्क मेंएक बजरंग बली की एक मूर्ति भी है। यानी बाबा साहब की मूर्ति को कुछ हो जाये तो बसपा आग लगाने लगे और बजरंगबली की उंगली टूट जाये तो भाजपा गदर काट दे. आइये आपको अजीतगंज बाबूपुरवा कालोनी ले चलते हैं। यहां कई साल पहले दलित समिति पार्क में अम्बेडकर प्रतिमा स्थापित कर दी गयी। मूर्ति लगाते समय की लदफसे पार्क पर कब्जे को लेकर बवाल भी हुआ था विकास समिति के लोग बताते हैं नगर निगम ने मूर्ति और पार्क के विकास के लिये १लाख ६७ हजार रुपये भी पास किये लेकिन आजतक न तो पार्क का विकास हो सका है और न दीवार बन सकी है। इसमें जिम्मेदारी किसकी है नगर निगम की, बस्ती की, बसपाइयों की अथवा अनुयायियों की।इसके अलावा भी बरगदिया पुरवा में फुटपाथ पर, पनकी में रेलवे स्टेशन के बगल में, स्वराज्यनगर में नहरिया के किनारे, बम्बुरहिया जुही में तालाब के बीच बाबा को खड़ा कर दिया गया है। सोचने की बात है मसीहा को अतिक्रमणकारी किसने बनाया। अब अगर अतिक्रमण हटाते समय नगर निगम के बुलडोजर की हवा बाबा को लग जाये तो क्या होगा।बाबा हम भी हैं-हर में हर तरफ प्रतिमाएं ही प्रतिमाएं दिखाई देती हैं। चौराहों पर गलियों में, सड़कों के किनारे, कहीं पेड़ के नीचे, उजाड़ में, कूड़े में, गंदगी के बीच। ये मूर्तियां कहीं राजनैतिक महापुरुषों की हैं तो कहीं देवी देवताओं की। प्रतिमाओं के मान-अपमान को लेकर शहर सुलगने का खतरा हर समय बना रहता है। आखिर इन प्रतिमाओं की स्थापना का उद्देश्य क्या है? चुनाव के समय नेता लोग राजनैतिक महापुरुषों की प्रतिमाएं वोट के चक्कर में स्थापित कराकर रफूचक्कर हो जाते हैं। पलटकर क्यों नहीं देखते, मूर्ति का हाल क्या है। बाबा साहब की प्रतिमाओं का हालचाल लेते हुए ऐसा देखने को मिला। आप भी देंखे- यशोदानगर में पुलिस चौकी के पीछे सोसायटी की जमीन पर कांग्रेस विधायक अजय कपूर ने ११साल पहले राजीव गांधी की मूर्ति का शिलान्यास किया, फिर शायद भूल गये। मूर्ति के चारे तरफ गंदा-गंधाता पानी भरा हुआ है और दूर-दूर तक कूड़ा फैला हुआ है। लेकिन मुर्ति की सुध लेने वाला कोई नहीं है। ये राजनीतिक लोग प्रतिमाओं के सहारे चुनावी लाभ उठाने के प्रयास में प्रतिमा लगवाकर लावारिस छोड़ देते हैं। जैसे कोई मां लावारिस बच्चे को कूड़े के ढेर पर छोड़ आये। नेताओं के चित्र पर माला-फूल चढ़ाने वाले पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रतिमाओं की याद नहीं रहती है आखिर क्यों...? लगभग यही हाल धार्मिक प्रतिमाओं का भी है शहर में कहीं चबूतरे पर हनुमान जी, पेड़ के नीचे शंकर जी, नुक्कड़-नुक्कड़, गली-गली दुर्गा जी, कहीं शनिदेव विराजमान हैं। कैसी भक्ति है यह? कौन सी आस्था का पहलू है यह कि मंदिर में नहाकर जायें और मूर्तियों को अवैध जमीन पर सड़क के किनारे पार्कों में, गलियों में, गंदगी के बीच ०बेसहारा छोड़ दें। आइये आपको सच से रूबरू कराते हैं और दिखाते हैं एक बजरंग बली की मूर्ति-आनन्दपुरी कालोनी के पीछे बगिया के बीचो-बीच खुले आकाश के नीचे मैदान में पवन पुत्र पेड़ के सहारे अकेले खड़े कर दिये गये हैं। न कोई मंदिर है न चबूतरा है न रोलिंग है। बगिया में नयापुरवा के बच्चे क्रिकेट और गुल्लीडंडा खेलते हैं। यहां मूर्ति लगाने वालों को मूर्ति स्थापित करते समय यह विचार नहीं किया होगा कि वे श्रद्धा, आस्था और अपनी भक्ति भावना में बहकर पुण्य कर रहे हैं या बजरंगबली के झगड़े की जड़ बना रहे हैं। बगिया में बच्चे क्रिकेट खेलेंगे तो शाट मारने पर बाल मूर्ति से टकरा सकती है। मूर्ति को नुकसान पहुंच सकता है। राजनैतिक पार्टियों को शहर में उपद्रव करने का मौका मिल सकता है और शहर अशान्त हो सकता है।


तो प्रतिमाओं के वारिस बनो

आदमी की इज्जत आदमी के हाथ है. इस बात में तो किसी को संदेह नहीं होना चाहिए. न ही सवर्णों को और न ही दलितों को. अगर बाबा भीम राव अम्बेडकर को अतिक्रमण, कब्जा और कमाई का जरिया बनाकर फुटपाथों, विवादास्पद स्थलों और बाजारों में प्रतिस्ठापित किया जायेगा तो जो घटना-दुर्घटना फुटपाथियों के साथ होती है, जो घात-प्रतिघात विवादों में होता है, जो खरीद-फरोख्त बाजारों में होती है, वह सब की सब बाबा के साथ ही होगी. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बाबा दलित थे, विद्वान थे या संविधान नियामकों में से एक. अभी चकेरी में अम्बेडकर की प्रतिमा के चोरी हो जाने की घटना ने पूरे प्रशासन को हिलाकर रख दिया. कुछ दिनों पहले किसी गंदे और घटिया आदमी ने बाबा के मुंह पर कालिख पोत दी थी, तब भी बात मारामारी तक पहुंच गई थी. बात यहां बाबा का मान करने या अपमान करने वालों के बीच खाई की नहीं की जा रही. बात सिर्फ उनकी की जा रही है जिन्होंने बाबा भीमराव अम्बेडकर को पूरे देश से छीनकर केवल अपनी जाति-बिरादरी के हित में अतिक्रमण और कब्जे का लाइसेंस बना लिया है. बाबा के मान-अपमान पर फूल और अंगारे बरसाने के हक पर भी केवल अपनी जाति के नाम लिख लिया. अनुयायी आंख खोलकर देखें कि उन्होंने पूरे शहर में बाबा साहब को क्या बनाकर रख दिया है. कूड़े के ढ़ेर पर, सुअरों के बीच, मल त्यागते अनुयायियों से घिरी, आम फुटपाथ के बीच रोड़े कीभांति बाबा की प्रतिमाओं से पूरा शहर पटा पड़ा है. ऐसे पूजा जाता है मसीहा को...? शर्म आनी चाहिए अम्बेडकर के कनपुरिया अनुयायियों को जिन्होंने दलित होने के बावजूद बाबा के साथ वही व्यवहार किया जिनके लिए बहन जी से लेकर भाई साहब तक सभी मनुवादियों को गरियाते हैं.. एक बात और लावारिसों की तरह जगह-जगह खुले आकाश के नीचे निर्जन में खड़ी अम्बेडकर प्रतिमाओं के खण्डन-विखण्डन से अगर दलितों का खून खौल उठता है तो वे प्रतिमाओं के वारिस बनें. क्योंकि शहर की शान्ति भंग करने के लिये शैतानों की कोई कमी नहीं है.

मियां! यहीं है जन्नत

सोचा जरूरी है बता दें

अगर कनपुरिया अंदाज में कहा जाए तो राशिद मियां एक टिकट पर दो शो देखने गए थे अमरीका. लेकिन उन पर गोरे मेहरबान हो गए और उन्होंने भाई को मयबेगम के तीन शो दिखाए. राशिद मियां जब लौटकर हिंदुस्तान आए तो अपने दोस्त अवधेश भाई से बोले...यार! दुनिया घूम आए लेकिन जन्नत कहीं अगर है तो यहीं...

विशेष संवाददाता

मुसलमानों के साथ बदतमीजी की इन्तिहा है. इन दिनों अमरीका और योरोप में. निसंदेह यह बदला नजरिया ९/११ के बाद का है. तो फिर क्या समझा जाये.. धीरे-धीरे दुनिया भर के मुसलमान इग्लैण्ड, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जर्मनी, फ्रांस जैसे देशों में आना-जाना बंद कर देंगे. शाहरुख खान तकरीबन यही कह रहे हैं. अब मैं न जाऊं अमरीका आसानी से... सल्लू मियां भी अपनी इज्जत उतरवाने को तैयार नहीं हैं. अब ये लोग तो बड़े नाम व चेहरे वाले लोग हैं. इनकी पैण्ट उतरी तो ऐसा लगा देश का अपमान किया जा रहा है. लेकिन नहीं, यह भारत देश का अपमान नहीं है, बल्कि यह दक्षिण एशियाई देशों के मुसलमानों का तिरस्कार है जिसके लिए कम से कम इग्लैण्ड और अमरीका अब पूरी तरह से तैयार है. इन मुल्कों को मुसलमानों पर यकीन नहीं रहा. उन्हें वैसे तो हर मुसलमान पर संदेह है और अगर कहीं इंग्लैण्ड, भारत, पाकिस्तानी या बांगला देश की सरजमीं से नाता हुआ, फिर तो उसे इग्लैण्ड और अमीरका में जलालत झेलनी ही होगी. इस हद तक जलालत कि सल्लू मियां, किंग खान की तरह असलम और अरमान भी कान पकड़ कर उ_ा-बैठी करें कि बस, घूम लिए अमरीका योरोप, कर लिया व्यापार. अब अपना देश ही ठीक है. लेकिन दुनिया की तस्वीर कुछ इस तरह की बन गई है कि इससे काम भी तो नहीं चलने वाला. अपने शहर कानपुर के एक उद्यमी पिछले दिनों काम के सिलसिले में अमरीका गये थे लौटकर उन्होंने जो अपनी दास्तान बताई उसके बाद कुछ कहने को बाकी रह नहीं मियां! यही है जन्नतजाता सिवाय इसके कि आतंकवाद और इस्लाम को अलग-अलग तरह देखना इण्डिया में भले संभव हो लेकिन अमरीका या योरोप में इसकी गुंजाइश कम ही है. उन्हें अब हर मुसलाम के भीतर बम होने का अंदेशा है.अब आइये किस्से पर-महोदय का करोड़ों का व्यापार है. शहर में बड़ा रसूक है. अपने दोस्त अवधेश अवस्थी को अपनी सफर बीती बता रहे थे. और साथ ही यह भी कहते जा रहे थे कि यार मैंने दुनिया घूम कर देख ली. मुसलमानों के लिये अगर स्वर्ग कहीं है तो अपने हिन्दुस्तान में है. जितना मजहबी और वतनी इत्मीनान यहां के मुसलमानों को नसीब है उतना किसी दूसरे मुल्क में नहीं है. भले ही वह इस्लामिक कंट्री ही क्यों न हो. राशिद (काल्पनिक नाम) का व्यापार के सिलसिले में अमरीका जाना था. नयी-नयी शादी हुई थी उन्होंने सोचा बेगम को भी साथ ले चलते हैं. काम का काम हो जायेगा और हनीमून का हनीमून. मियां हवाई यात्राओं के जानकार थे ही. सो उन्होंने ब्रिटिश एयर लाइंस से हॉपिंग फ्लाइटÓ के जरिए अमरीका जाने का प्रोग्राम बनाया. हॉपिंग फ्लाइट को इसलिए वरीयता दी ताकि बीच में ब्रेक जर्नी करके पत्नी को लंदन की सैर भी करवा देंगे. कार्यक्रम के मुताबिक उन्होंने यू.के. का तीन दिन का सिंगिल इण्ट्री वीजा भी प्राप्त कर लिया. पाठकों की जानकारी के लिए आमतौर पर अमरीका के रास्ते में जहाज को योरोप में एक जगह 'स्टेÓ करना ही होता है. अगर लुफथांसा एयर का जहाज हुआ तो वह जर्मनी की किसी एयर पोर्ट पर रुकेगा और अगर ब्रिटिश एयर वेज जहाज हुआ तो इंग्लैण्ड के किसी एयर पोर्ट पर निर्धारित समय तक ठहरेगा. डायरेक्ट फ्लाइट के लिए यह अनिवार्यता नहीं है. लेकिन उसका किराया बहुत है. इसलिए आमतौर पर अमरीका के लिए हॉपिंग राशिद भाई ने कनपुरिया दांव खेला. अमरीका की टिकट पर लंदन की पैर का भी प्रोग्राम बना डाला. यानी एक टिकट पर दो शो. जनाव उड़े ब्रिटेन में उनका जहाज 'हीथ्रोÓ हवाई अड्डे पर रुका. उन्होंने लंदन की सैर के उद्देश्य से सपत्नीक यात्रा 'ब्रेकÓ कर ली. महोदय हवाई पट्टी से बाहर एयर पोर्ट पर आये इमीग्रेशन के अधिकारियों ने जैसे ही उनका पासपोर्ट और वीजा देखा तत्काल पुलिस को इशारा कर दिया. पुलिस वहां पहले से मौजूद थी. इसके बाद शुरू हो गई पूछ-ताछ. आप यहां लंदन में क्यों रुक रहे हैं...? राशिद मियां ने बता दिया वैसे तो जाना अमरीका है. लेकिन तीन दिन के लिये जर्नी ब्रेक की है. नयी-नयी शादी हुई है बेगम को लंदन घुमाना है. राशिद बताते हैं कि इतना सुनते ही पुलिस वाले बोले, सॉरी आपको लंदन घूमने की इजाजत नहीं है. तो फिर मैं कहां जाऊंगा राशिद मियां ने सवाल किया...? साथ आइये..। और वे लोग हमें (बेगम सहित) एयर पोर्ट पर ही बने पुलिस स्टेशन में ले गये. वहां पर 'डायमेंट्रीÓ (एक बड़ा सा हाल) बनी हुई थी. जैसे रेल के डिब्बे में बर्थें लगी होती हैं क्यों न वैसे ही एक के ऊपर एक बर्थें बनी हुई थीं. इसके बाद गोरी पुलिस बोली, 'आप तीन दिन यहीं रहेंगे.बाहर नहीं जायेंगे. यहीं खाइये, यहीं सोइये, आपकी लंदन सैर यही है. तीन दिन बाद जब आपकी फ्लाइट हो अमीरीका चले जाइयेगा. इसतरह राशिद अपनी बेगम को तीन दिन तक हवाई अड्डे की एक जेल में हरपल डरे सहमे लंदन की सैर कराते रहे.
वह बताते हैं कि आप कल्पना नहीं कर सकते हैं कि एक व्यक्ति के साथ उसकी पत्नी की मौजूदगी में इसतरह का अपमान जनक अकल्पनीय और अनागरिक घटनाक्रम चल रहा होता है तो उस पर क्या गुजरती है. दुनिया ऐसी थी तो नहीं.. इसे इतना संदेहनीयद किसने बनाया? इस सवाल का जवाब भी वह खुद ही दे देते हैं. थोड़ी देर बाद... यार, यह सब ९/११ के बाद ही हुआ है. अवधेश जी बताते हैं कि उन्होंने मित्र राशिद की चिकाई ली.. अमां कुछ नहीं तुम एक टिकट पर दो शो देखने के चक्कर में थे वहां उन लोगों ने तुम्हें तीन शो दिखा दिए. बात हा...हू में उड़ गई. लेकिन है नहीं उडऩे वाली...।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

अतिक्रमण अभिशाप
जड़ में जाओ
तब नगर निगम नहीं नगर महापालिका हुआ करती थी. बात है सन् १९८९ की. रमेश नारायण त्रिवेदी 'प्रशासकÓ हुआ करते थे. चूंकि त्रिवेदी जी का कानपुर गृह नगर है शायद इसीलिये उन्होंने २० वर्ष पहले ही ताड़ लिया था कि शहर की आत्मा में 'जरूरतोंÓ का एक कोढ़ पनप रहा है इसे जल्द से जल्द दूर किया जाना चाहिए. अपने रहते उन्होंने सबसे पहले शहर को अतिक्रमण मुक्त करने का आंदोलनात्मक अभियान छेड़ा था पूरे शहर में. गरजते बुलडोजर, नागरिक विरोध, बद्रौद्धिक समर्थन, जनप्रतिनिधियों की सहमति और शासन का वरदहस्त सब कुछ एक साथ एक करने पैकेज की तरह शहर को मिला था. अच्छी शुरुआत थी. लेकिन दुर्भाग्य कि जो शुरुआत थी वही अंतिम रिकार्ड साबित हुआ. नतीजा कुछ निकाला नहीं, अतिक्रमण मुक्त शहर अभी भी सपना बना हुआ है. हां, एक नगर निगामी रस्म जरूर शुरु हो गई है जो हर साल अतिक्रमण हटाने के नाम पर निभाई जाती है. वर्तमान में शहर में अतिक्रमण विरोधी अभियान पूरे जोश-खरोश से चल रहा है. नये नगर आयुक्त राजीव शर्मा काफी दृढ़संकल्पित लग रहे हैं. लेकिन १९८९ के 'प्रशासकÓ सेवानिवृत्त आईएएस, आरएन त्रिवेदी का मानना है कि अतिक्रमण कोई रिवाज नहीं है. शहर की जरूरतों ने इसे जन्म दिया है. इसलिए जब तक अतिक्रमण की वजह यानी अतिक्रमणकारियों की मजबूरियों (जरूरतों) को समझे बगैर बुलडोजर गरजाये जायेंगे शहर को अतिक्रमण मुक्त करना संभव नहीं होगा. आखिर हमारी व्यवस्था का आधार लोकतांत्रित है, हम कोई तानाशाह नहीं है. आइये जाने पूर्व प्रशासक शहर की इस 'प्राणलेवाÓ समस्या के बारे में क्या विचार रखते हैं, उन्हीं के शब्दों में-
समें क्या शक है कि अतिक्रमण कानपुर शहर की आत्मा का कोढ़ है. लेकिन यह कोढ़ जायेगा तभी जब नगर निगम, सभासद, सांसद, विधायक और आम नागरिक एक साथ मिलकर अतिक्रमण की जड़ का इलाज करेंगे. कोई अतिक्रमण क्यों किये है इसे भी विचारणीय बल्कि सर्वाधिक विचारणीय बिन्दु समझेंगे. मैं अगर अपने मुंह से कहूंगा तो अच्छा नहीं लगेगा. लेकिन आप लोग ही बताते हैं कि मेरे द्वारा चलाया गया अतिक्रमण विरोधी अभियान काफी सफल रहा था. उसकी वजह यही थी कि मैने केवल बुलडोजर ही नहीं चलवाया था बल्कि ध्वस्त अतिक्रमण के बाद एक पुनर्वास योजना भी चलाई थी.सबसे पहले तो यह जान लें कि लोगों में अतिक्रमण को लेकर मतान्तर है. एक वे लोग हैं जो अतिक्रमण के प्रश्रयदाता हैं उससे कमाई करते हैं. दूसरे वे जो अतिक्रमण पर ही जिंदा हैं. जैसे तमाम मलिन बस्तियां. मैं व्यक्तिगत स्तर पर गरीबों की बस्तियां, जो निश्चित ही अतिक्रमण से ही अस्तित्व में आई हैं उन्हें तब तक ध्वस्त करने के पक्ष में नहीं हूं जब तक उनके बसाने की कोई समान्तर योजना न हो. ऐसे ही ठिलिया, खोंचे वाले हैं. अगर इनके लिये छोटी-छोटी दुकानें, स्टॉलों या खोखों का इंतजाम नहीं किया जाता तो इनको भी सड़क से खदेडऩा आसान नहीं होगा. आखिर गरीब अपना सर और पेट लेकर कहां जायेेगा? बस्तियां तो सड़क के किनारे होती नहीं. हां, सड़क पर गुमटी लगाकर कब्जा करने वाले जरूर दिक्कतें पैदा करते हैं. जिसका शिकार आम जनता को होना पड़ता है. पैदल राहगीर फुटपाथ पर चलना पसंद करता है मगर अतिक्रमण उसे वहां चलने नहीं देता. वह सड़क पर चलने को मजबूर होता और दुर्घटना का जोखिम लेकर दिन गुजारता है. यह तो बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. अगर पैदल चलने के लिये भी जगह नहीं होगी तो शहर यातायात अराजकता का शिकार हो ही जायेगा जैसा कि इन दिनों है. सरकार को अतिक्रमण से ही सही अस्तित्व में आ चुकी बस्तियों के पुनर्वास की भी व्यवस्था करनी होगी. समस्या का हल तभी संभव है. मेरा अपना मानना है कि अगर सन् ८९ अतिक्रमण विरोधी अभियान के 'टोटल पैकेजÓ पर चार-पांच वर्ष तक और काम हो जाता और अभियान को पूर्ण नहीं केवल एक चौथाई सफलता ही मिलती, तब भी शहर को आज दो दशक बाद इस अभियान की आवश्यकता नहीं पड़ती. महानगर की आबादी अब चालीस लाख से ऊपर हो गयी है. आबादी बढ़ी तो वाहन भी बढ़ गये. किन्तु सड़कों की चौड़ाई पूर्ववपत ही रही. लोगों की जरूरतों में इजाफा हुआ तो अतिक्रमण कर उसे पूरा कर लिया गया. दुकान है उसका सामान सड़क तक सजा दिया गया, जरूरत थी सामान को सजाने की या ग्राहकों को आकर्षित करने की पूरी हो गई. उधर सड़क पर चाय का ठेला लगा है. चाय वाले को आमदनी की और सस्ती चाय चाहने वालों को उस ठेले की जरूरत है, जहां तीन-चार रुपये खर्च कर वह अपनी चाहत को पूरा कर लेता है. यदि रेस्टोरेंट चाय के लिये जायेगा तो जेब आड़े आयेगी. इन बिन्दुओं पर अधिकारियों को संवेदनशील बन सोचना होगा, तभी सबका भला संभव है. दो-चार रुपये खर्च करने वाला आदमी ठेले पर ही चाय पी पायेगा, रेस्टोरेंट में नहीं जायेगा. फिर वह चाहेगा कि पास में ही चाय मिल जाये. इस स्थिति में सन् ८९ में चलाये गये अतिक्रमण अभियान में विस्थापित लोगों को दुकानें बनाकर दी गई थी. आठ हजार के लगभग अत्रिमण ध्वस्त किये गये थे और उसमें से आधे यानि चार हजार को दुकानें बनवा कर दी गई थी. एक तो इससे नगर महापालिका (तत्कालीन) की आमदनी बढऩे का एक और स्रोत बना. साथ ही जिन्हें दुकानें दी गई वो अतिक्रमणकारियों को लिये हमारे पहरेदार बन गये. यानि जहां भी ऐसी व्यवस्था लागू की गई वहां से अतिक्रमण समाप्त हो गया. सीटीआई से रतन लाल नगर गये मार्ग पर रैना मार्केट, एम ब्लॉक, किदवई नगर, चालीस दुकान, विजय नगर, नवाबगंज में नगर पालिका की खाली जमीन या पार्कों में मार्केट बनाकर विस्थापितों को दुकानें दी गई.वर्तमान में चल रहे अभियान में क्या हो रहा है पता नहीं, किंतु गत् वर्ष में चले अभियान सिर्फ रस्म अदा करने जैसे ही दिखे. दस्ते के कर्मचारी पिट जाते हैं. सांसद, विधायकों की सिफारिशें भी आती हैं. हम लोग नगर पालिका सदन के सभासदों को विश्वास में रखते थे. सदन से प्रस्ताव पास कराकर अग्रिम कार्यवाही करते थे. जहां अतिक्रमण हटाया जाता था वहां के सभासद को सिर्फ उसी दिन के लिये समिति का सदस्य बनाकर साथ रखते थे. (अभियान के लिये सभासदों की एक समिति बनी थी जिसमें सभी राजनैतिक दलों से एक सभासद को लिया गया था). अतिक्रमणकारी को बिना स्थाई जगह दिये अभियान को सार्थक नहीं माना जा सकता है. अब तो नागरिक सुविधाओं तक का हनन हो रहा है. अतिक्रमण इतना बढ़ गया कि सड़कें जाम होने लगी. इससे बच्चे स्कूल पहुंचने में विलंबित हो रहे हैं. मरीज के लिये एम्बुलेंस अस्पताल नहीं पहुंच पाती हैं. इन सब की जड़ अतिक्रमण ही तो है. परेड मैदान में काम्प्लेक्स बनाने की बात थी, अभी तक नहीं बन पाया तो पार्क में ही व्यवस्था शुरू करा दी जाती. सन् ८९ के बाद यदि नगर निगम ने प्रतिवर्ष एक हजार लोगों से अतिक्रमण मुक्त कराकर बसाने की व्यवस्था की होती तो शहर की यह विकराल समस्या अभी तक समस्या न रहती. साथ ही महानगर भी खूबसूरत दिखता.

मंगलवार, 1 सितंबर 2009






बच्चों का खेल, पुलिस फेल



सवाल यह उठता है कि जब अपराध ताबड़तोड़ जारी हैं तो पुलिस क्या कर रही है. बताते हैं-पुलिस बाइक रोककर वसूली कर रही है.पुलिस जांच करके वसूली कर रही है.पुलिस मजरिम को बंद करके वसूली कर रही है.पुलिस निर्दोष को बख्श के वसूली कर रही है.पुलिस ड्यूटी बजाने के लिए वसूली कर रहा है.पुलिस वसूली के लिए ड्यूटी बजा रहा है. कोई बताये वह काम जो आज पुलिस बिना कुछ वसूले करती हो..! हां, कुछ पत्रकार, कुछ अफसर, कुछ नेता जरूर पुलिस की वसूली से बचे हो सकते हैं. लेकिन वे भी कितने दिन...!



बड़ा मुश्किल वक्त गुजर रहा है शहर पर. अपराधी और पुलिस मिल जुल कर फिरौती वसूल रहे हैं. अपराधियों का साफ संदेश है कि कानपुर में रहना है तो चेन स्नैचिंग, आटो थैप्ट और किडनैपिंग को सहना है. जो लुट रहे हैं, घुट रहे हैं या मर रहे हैं उनका लुटना, घुटना और मरना अब उनकी महानगरीय नियति बन चुकी है क्योंकि जुर्म ने वर्दी पहन ली है और वर्दी ने जुर्म छुपा लिये हैं.यद्यपि शहर पुलिस की मुखिया डीआईजी-नीरा रावत यह नहीं मानतीं. उनके हिसाब से पुलिस चौकस है. लेकिन इस साक्ष्य की क्या काट कि जब राज्यसभा में २३ जुलाई को कलराज मिश्रा ने शहर से गायब बच्चों पर सवाल उठाया तो कानपुर पुलिस ने ४८ घण्टे के भीतर शहर के विभिन्न थानों में अपहरण के १३ मामले दर्ज कर लिये. यह पुलिस की अपराध की अनदेखी नहीं थी तो और क्या थी? पुलिस का सबसे बड़ा अपराध अपराध की अनदेखी करना होता है. अपराध रक्त बीज की तरह होता है अगर उसे पनपने का अवसर दे दिया जाये तो एक से अनेकानेक शाखाएं निकलती हैं. गुमशुदगी इगनोर की जाती है. अपहरण को बल मिलता है. चेन स्नेचिंग छुपाई जाती है लुटेरों की नस्ल तैयार होती है.जब अपहरण गुमशुदगी तक में दर्ज नहीं होता तो अपराधियों के लिए 'अपहरण' सबसे 'सॉफ्ट टॉरगेट' बन जाता है. अपहरण और फिरौती कानपुर शहर में इतना 'सेफ क्राइम हो गया है कि गुमराह बच्चे तक बियर बेवी और बाइक के लिए शिवम और करन जैसे प्यारे दोस्तों को अगवा करके कत्ल कर देते हैं. शहर पुलिस जड़ में नहीं जाती. अभी जब शिवम बाजपेयी की अपहरणयुक्त हत्या हुई तो पुलिस ने अपनी नाकामी को 'अपराधियों' की गिरफ्तारी से ढकने की कोशिश की. जबकि जिन्हें अपहरण और हत्या के संगीन जुर्म में पकड़ा गया है वे सब पेशेवर नहीं निकले. उन्हें अपराध की बयार बहा ले गई. उन्हें लगा कि पुलिस अपहरण पर ज्यादा तवज्जौ नहीं देती इसलिए दोस्त का अपहरण कर अच्छी फिरौती पाई जा सकती है. पुलिस को तो अपना सर इसलिए भी पटकना चाहिए कि कल के 'लौंडों ने उन्हें नचा मारा. पुलिस के मूवमेंट पर उनकी नजर थी लेकिन पुलिस को कतई भनक नहीं लगी कि उन पर भी नजर रखी जा सकती है. शिवम का पूरा प्रकरण तो अभी आपके जेहन में ताजा है. याद करिए जुलाई का वह करन अपहरण कांड. करन के अपहरण में तो फिरौती देने के बाद भी हत्या हो गई थी. यहां खूनी अपहरण में भी पुलिस सक्रियता खूब थी. इस तरह तो शहर को संदेश मिल रहा है कि अगर अपहरण हो जाये तो चुपचाप फिरौती दे दो. पुलिस बीच में पड़ेगी तो हत्या हो जायेगी. चलिए ये बाते तो उन घटनाओं की है जो सामने आ गईं. जनवरी से अब तक शहर में लगभग २०० गुमशुदगी के मामले दर्ज हुए हैं. इनमें से ही लगभग ४० मामले बाद में अपहरण में दर्ज किये गये. अभी भी डेढ़ सौ के आस-पास लोग अपहरण की आशंका से गुम है. इनमें कितने जिंदा है, कितने मर गये, किसे पता. पुलिस को पता करना चाहिए लेकिन गुमशुदगी तो अब के वल 'पेशबंदी' की कार्यवाही. पुलिस किसी को ढूंढ़ती नहीं है, गुम हुआ व्यक्ति अगर कहीं मरा मिल जाता है तो घर वालों को उसकी सूचना जरूर दे दी जाती है. बहुत से गुमशुदगी के मामले ऐसे हैं जिन्हें वादी ने तो 'अपहरण' बताया लेकिन पुलिस ने उसे माना नहीं. यह पुलिसिया हेठी अपराध के राक्षस को विकराल और विनाशकाय बताती है. शहर में शिवम से पहले अपहरणों में पुलिस की क्या भूमिका रही है या वर्तमान में चल रही है $जरा इस पर गौर करें-राज्यसभा में भाजपा के कलराज मिश्रा ने एक गैर सरकारी संगठन की रिपोर्ट के आधार पर बताया कि फरवरी से जून के बीच कई बच्चे कानपुर से गुम हुए हैं. मानव तस्करी में लिप्त गिरोह के सदस्यों ने कई बच्चों को मार डाला. केन्द्र और राज्य सरकार से समस्या पर ध्यान देने के आग्रह पर प्रदेश सरकार ने गुमशुदगी में दर्ज जिले भर के १३ मामलों को अपहरण में तरमीम कराया. जिसमें शाहपुर, पनकी के रामचंद्र दिवाकर का पुत्र १२ वर्षीय सूरज घर के बाहर खेलते समय १६ जनवरी २००९ को लापता हो गया. नवाबगंज केसा कॉलोनी निवासी मथुरा प्रसाद के बेटे मोहित को २७ जून को हत्या के इरादे से अगवा किया गया. मछरिया निवासी मोहम्मद नईम के १३ वर्षीय पुत्र नफीस को सब्जीमण्डी और घर के बीच से २७ जून को अपहरण किया गया. जनता नगर बर्रा के राम औतार का १६ वर्षीय बेटा केशर घर के पास से गुम हो गया. बर्रा के भीमानगर से हुबलाल का १० वर्षीय पुत्र बुद्ध प्रकाश निवासी नत्थू राम का बेटा कृष्णकांत, इसी थाना क्षेत्र के रामदास की १३ वर्षीय पुत्री कल्पना, ५ नवम्बर २००८ को, बर्रा मोहल्ले के राज कुमार का बेटा प्रशांत घर के बाहर से गायब हो गया. जवाहर नगर निवासी शैलेन्द्र कुमार की पुत्री प्रियंका तीन वर्ष की २९ जून से, ग्वालटोली थाना क्षेत्र निवासी दरोगा कुंवर पाल सिंह की बेटी सत्यवती थाना चौबेपुर के शांति नगर निवासी राजेश त्रिवेदी का १६ वर्षीय पुत्र सौरभ, नुनिया टोली निवासी भूरे का १२ वर्षीय पवन, नवाबगंज, ख्यौरा के ओम नारायण के बेटा उत्कर्ष घर के बाहर से गायब हो गया था. इन सभी गुमशुदगी में दर्ज मामलों को अपहरण में तरमीम कर नये सिरे से जांच कराई जा रही है.अंत में सवाल यह उठता है कि जब अपराध ताबड़तोड़ जारी हैं तो पुलिस क्या कर रही है. बताते हैं-पुलिस बाइक रोककर वसूली कर रही है.पुलिस जांच करके वसूली कर रही है.पुलिस मुजरिम को बंद करके वसूली कर रही है.पुलिस निर्दोष को बख्श के वसूली कर रही है.पुलिस ड्यूटी बजाने के लिए वसूली कर रहा है.पुलिस वसूली के लिए ड्यूटी बजा रहा है. कोई बताये वह काम जो आज पुलिस बिना कुछ वसूले करती हो..! हां, कुछ पत्रकार, कुछ अफसर, कुछ नेता जरूर पुलिस की वसूली से बचे हो सकते हैं. लेकिन वे भी कितने दिन...!