शनिवार, 20 फ़रवरी 2010


ये हो क्या
रिया है?

इन दिनों मैं शहर के मिजाज से खासा दुखी हूं. एक अजीब सा परिवर्तन देखने को मिल रहा है शहर के लोगों में. पता नहीं गेहूं की कौन सी किस्म खा रहे हैं? जहां देखो फांदे पड़ रहे हैं. अंधी, गूंगी, बहरी, अगली-पगली सबकी जान सांसत में है. कनपुरियों की यही तिला मर्दाना हरकत डीआईजी साहब को जम गई लेकिन शहरियों की तासीर में कोई फर्क नहीं आया, बीती १३ तारीख को एक और निपट गई. पूरब के इस मैनचेस्टर में औरतें नास्ते की तरह उड़ रही हैं.इन दिनों एक अखबार सहित शहर के कई संगठन कानपुर को हांगकांग बनाने पर तुले हैं. बड़ी-बड़ी लफ्फाजियां चल रही हैं और मोटा-मोटा ज्ञान बांटा जा रहा है. अरे शहर के ज्ञानपाडों बीसी करने के बजाय फूलवाली गली की एक बार गुलजार बनाने की प्रयास करो. कम से कम शहर की औरतें तो बची रहेंगी. आदि काल से वैश्यालयों का अस्तित्व रहा है और इन्हें समाज का ड्रेनेन माना जाता था. ये एक सामाजिक व्यवस्था थी. इसके खत्म होने के साथ आम महिलाओं को खतरा दिन ब दिन बढ़ता गया. वर्तमान में हालात इतने बेकाबू हो गये हें कि देशी मेम हों या विदेशी सब खतरे में पड़ रही हैं. अब समय आ गया है कि इस समस्या का सामाजिक हल तलाशा जाये चूंकि कानून तो इस मसले पर बुरी तरह फेल हो चुका है. इस मामले को गंभीरता के साथ सोचने का है नहीं तो पुलिस अफसर बदलते रहेंगे और शहर में नीलम, गीता, रीता अपने प्राण छोड़ती रहेंगी.शर्मनाक१३ फरवरी १९३१ को भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव ने अपने प्राण देश के लिए न्यौछावर कर दिये थे. हम इन्हें भूल गये लेकिन १४ फरवरी को वेलेन्टाइन डे मनाना याद रहा.1

हजारों आदमी

भूख और

बीमारी

से मर रहे हैं


इन्होंने तीसरी दुनिया के देशों में क्या किया यह तो अब उजागर हो गया है इन्होंने कोरिया में, इंडोचायना में मध्य अमरीका में इराक में क्या किया सुहारतो, मोबूतो, पिनोचट अरजन्टायना, गीयटेमलान, ब्राजिम, दक्षिणी अफरीका, अंगोला, मोजामबीक या इजराइल में क्या किया. हिरोशिमा ,कौन्गो, बेयतनाम, चिली या अरब में क्या कर रहे है चीन, भारत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान मे इरान में क्या करना चाहिए. क्यूबा में या रूस में यूरोप के अन्य देशों में इनकी कार्यवाही क्या मानवहित वादी है अमरीका, फ्रांस, इटली, कनाडा, जापान, ब्राजील, जर्मनी, इजराइल इत्यादि मानवहित की दुहाई देकर करोड़ों लोगों के मानवाधिकार छीन रहे हैं. वे कहते हैं जो उनकी सोच है उनका स्वार्थ है वही मानवहितवाद है जो उनका विरोध करेगा उसको नष्ट करने का उनका अधिकार है. वे जानते हैं उनका उच्च स्तर का रहन सहन तीसरी दुनिया के देशो को विकसित न होने दिया जाये तभी तक है .यदि वे विकसित हो गये तो उनकी दादागिरी नहीं चलेगी. इसके लिये अब तो वे अन्तरिक्ष पर भी अपना अधिकार जमाना चाहते है और ऐसा कर रहे है प्रश्न उठता है कि तीसरी दुनिया के देश क्या करे वे विश्वीकरण के खिलाफ और विश्व में सबको न्याय के लिए कैसे आन्दोलन चलाये क्योंकि अमरीका और उनके भिन्न देश वही करेंगे जो एलैन्डे, कैस्ट्रो, मुसाद्दिक, लियूमोम्बा, अरबन्ज, गौलार्ट इत्यादि के साथ किया अर्थात आर्थिक प्रतिंबध, आन्तरिक अशान्ति सामाजिक, धर्मिक या जातिवाद फैलाकर और सेना द्वारा सरकार पलटा देंगे. उन्होंने निकारगुआ में सन्डनिस्ट्रा को इसी तरह हटाना कोन्ट्रास की मदद करके. तीसरी दुनिया की तमाम सेनाओं को अमरीका की मदद मिलती है. इस काम के लिए बेनीजुएला में हियूगोशावेज सामाजिक सुधारों को साम्राज्यवाद विरोधी मुहिम से जोड़कर अभी तक डटे हुए हंै. उदारवादी विचारधारा के अनुसार तीन तरह की सामाजिक व्यवस्था सम्भव है-१-सभी की सभी से लड़ाई २-एक व्यक्ति जो शक्ति से शांति स्थापित करे३-कानून पर आधारित जनतंत्र जो कम बुरा है तो मानवअधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए क्या करना चाहिए. पहली बात जो समझने की है हम विश्व की प्रत्येक समस्या का समाधान नहीं कर सकते हैं परन्तु हमें ध्यान में रखना होगा. विश्व के तमाम देशों के आपसी संबंध वे शक्तियां जो हमारी कार्यवाही निर्धारित करती है और वे स्थान जहां समस्यायें होती हैं परन्तु दो बातें स्पष्ट है एक हम चुपचाप नहीं बैठे रह सकते. दूसरी हमारा हस्तक्षेप कम से कम हो सेना का तो कभी नहीं. हमको यह भी नहीं सोचना चाहिए कि हम इन समस्याओं के लिए जिम्मेदार है पुरानी बातों को भुलाना होगा. हम तीसरी दुनिया के देशों को आर्थिक मदद कर सकते हैं उनके कर्ज माफ करके, कच्चे माल की उचित कीमत देकर दवाये इत्यादि सस्ती देकर. इन देशो में हजारों आदमी भूख से बीमारी से मर रहे हंै. प्रतिदिन केरल और क्युबा ने साबित कर दिया है. गरीबी में भी अच्छी स्वास्थ्य सेवायें दी जा सकती हैं. इन देशों में जनतंत्र के नाम पर लगाया जाने वाला धन मानवहित मे लगेगा. हस्तक्षेप के स्थान पर सहयोग करें कोई भी देश इसका विरेाध नहीं करेगा. सांस्कृतिक बदलाव को अहंकार से नहीं संवेदना से लाये. तीसरी दुनिया का संगीत, चित्र, कला, भोजन और उनके बनाने की विधियां इत्यादि पश्चिमी देशों में अधिक अपनायी जा रही है. उनको इन देशों के लोगों और नेताओं की राजनैतिक सोच और उनके आन्दोलनों का गहन अध्ययन करना होगा. मीडिया द्वारा दी जा रही सूचनाओं की वास्तविकता और सच्चाई परखना होगी. मीडिया को अन्तर्राष्ट्रीय नियमों और देशों की स्वतंत्रता का आदर करना होगा. अनैतिकता को मानवहित का जामा पहनाने से रोकना होगा. हमको दूसरे पक्ष या विरोधियों से बात करना चाहिए यदि हमारा निर्णय न्यायसंगत है और उनके हित में है सेना के हस्तक्षेप से तो जीने का ही अधिकार छिन जाता है अपनी सुविधाओं और स्वार्थ के लिए दूसरों के मानव अधिकार न छीनें.1(लेखक पूर्व स्वास्थ्य निदेशक हैं)

जय बाबा वेलेंटाइन की

दुगने बिके कंडोम चौगुने बिके फूल

हेलो ब्यूरो

इस बार भी १४ फरवरी का दिन अंगेजी में वेलेंटाइन-डे और हिन्दी में प्रेम उत्सव के रूप में मनाया गया. इस बार भी यह दिन दो वैचारिक खेमों में बंटा. एक जो उदारवादी कहे जाते हैं और दूसरे वे जिन्हें लोग रूढि़वादी या कट्टरपंथी मानते हैं. बजरंग दल के राष्ट्रीय संयोजक प्रकाश शर्मा की राष्ट्रीय घोषणा थी कि वह किसी भी सूरत अश्लीलता को सार्वजनिक तमाशा नहीं बनने देंगे. जबकि इसके ठीक विपरीत खुद को युवा मन का प्रतिनिधि मानने वाली आधुनिक महिला कार्य कत्रियों ने 'शर्माÓ जैसे लोगों को 'हिटलर मानसिकताÓ का मौजूदा संस्करण माना. देखा जाये तो कानपुर में 'वेलेंटाइन-डेÓ कहीं विरोध तो कहीं समर्थन की मुद्रा में रहा. विरोध और समर्थन की इस विरोधाभाषी मुद्रा के बीच यह भी समझने की आवश्यकता है कि पश्चिम से आया यह प्रेम उत्सव क्या इस देश में केवल प्रेम का संदेश ही लेकर आया है या फिर कुछ और...!भारत में वेलेंटाइन-डे का एक कड़वा सच यह भी है कि यह उत्सव यहां एक बड़ी अंतर्राष्ट्रीय बाजार रणनीति के तहत प्रायोजित किया गया है. इसका सीधा असर भी सामने आ चुका है. फरवरी का महीना उपहारों, ग्रीटिंग, फैशन, मनोरंजन और तो और कंडोम जैसे उद्योग में ३० से ४० प्रतिशत का इजाफा कर देता है. ठीक १४ फरवरी को..शहर में रोज की तुलना में फूल और कंडोम की अप्रत्याशित ढंग से दो गुनी बिकी हुई. लगता है लगभग सवा अरब की आबादी वाले देश पर दुनिया भर के बाजार विशेषज्ञों का वेलेंटाइन का तीर बनाकर दागना पूरी तरह से निशाने पर बैठा है. देश के, प्रदेश के और शहर के उदारमना प्रेम प्रधान युवाओं को इस बिंदु पर सोचना चाहिए.वैलेंटाइंस-डे प्रेम का उत्सव है. पश्चिमी जगत से आया यह उत्सव अब पूरे विश्व में मनाया जाता है. विशेष बात यह है कि धर्म के परे, यह उत्सव युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय है.वैसे नए प्रेमियों के लिए तो इससे बड़ा कोई उत्सव हो भी नहीं सकता है. लेकिन भारत में इस उत्सव को लेकर शुरू से मतभेद रहे हैं, कुछ लोग जहाँ इस उत्सव का समर्थन करते हैं वहीं कुछ अन्य लोग संस्कृति की रक्षा के नाम पर इसका विरोध भी करते हैं. यह सच है कि वेलेंटाइंस-डे युवाओं के लिए अपने प्रेम की अभिव्यक्ति का एक सुनहरा मौका है, वहीं यह भी सच है कि इस उत्सव के पीछे एक बड़ी मार्केटिंग प्लानिंग भी काम करती है. इंग्लैंड के नेशनल रीटेल फेडरेशन के अनुमान के अनुसार इस वर्ष मंदी के माहौल के बावजूद वेलेंटाइंस-डे के दिन होने वाली खरीददारी में कोई कमी नहीं आएगी. इस संगठन का अनुमान है कि एक ब्रिटिश आम आदमी इस दिन लगभग 122 डॉलर खर्च करेगा, यदि सभी लोगों द्वारा किए जाने वाले खर्च को देखा जाए तो यह आँकड़ा 14 बिलियन तक जाता है. वेलेंटाइंस-डे न केवल प्रेमियों बल्कि बाज़ार के लिए भी बिक्री का एक शानदार मौका लेकर आता है, और शायद इसी वजह से इस उत्सव को बढा चढा कर पेश करने के पीछे की व्यापारिक मानसिकता को खारिज नहीं किया जा सकता है. नेशनल रीटेल फेडरेसन का मानना है कि इस वर्ष 35 प्रतिशत लोग फूल खरीदेंगे, और 16 प्रतिशत लोग गहने खरीदेंगे. करीब 60 प्रतिशत लोग ग्रिटिंग कार्ड खरीदेंगे, और इससे इस वजह से कार्ड उद्योग में करीब 30 प्रतिशत तक उछाल आएगा. शायद इसी वजह से ग्रिटिंग कार्ड बनाने वाली कम्पनियाँ इस उत्सव को बढा चढा कर पेश करने में कोई कसर नही छोडती.इस उत्सव से जुड़ा एक और पहलू देखें. कंडोम बनाने वाली दुनिया की एक सबसे बडी कम्पनी ड्यूरेक्स के अनुसार इस उत्सव के दौरान उसके उत्पाद की बिक्री करीब 30 से 40 प्रतिशत तक बढ जाती है. एक ऑनलाइन मैगेजिन द्वारा कराए गए सर्वे के नतीजे बताते हैं कि करीब 40 प्रतिशत युगल इस उत्सव के दिन सेक्स में लिप्त होना पसंद करते हैं. करीब 60 प्रतिशत युगल इसी दिन पहली बार मिलते हैं, जिसे ब्लाइंड डेट कहा जाता है. वेलेंटाइंस डे प्रेम का उत्सव है, लेकिन इसके पीछे के दूसरे सच से भी मूँह नहीं मोड़ा जा सकता.

सहालगों में जलता बचपन

एक रौशन अंधेरा

हेलो संवाददाता

व्यवस्था बाल श्रम कानून की रोटी तो खाती है लेकिन उसे जलता हुआ बचपन नहीं दिखाई देता. लेकिन हेलो कानपुर देख रहा है. एक बच्चा एक फूलदान के आकार के पात्र को उठाकर चल रहा है. उस पात्र के ऊपर कई सारे बिजली के बल्ब लगे हुए हैं. उसी पात्र में से एक बिजली का तार निकल उसके कंधे और हाथ को छूता हुआ पीछे की तरफ जा रहा है और उसी तार का एक और हिस्सा आगे की तरफ.

फरवरी का पहला पखवारा घनघोर सहालगों से लैस रहा. शहर से लेकर आस-पास के जिलों में हजारों की संख्या में शादियों की धूम-धड़ाम रही. एक भी गेस्ट हाउस, बैण्ड वाला, लाइट वाला, हलवाई (कैटरर्स) खाली नहीं बैठा.बैण्ड वालों ने एक-एक दिन में चार-चार, पांच-पांच शिफ्ट में ढोल-मंजीरा बजाया बावजूद इसके सैकड़ों बारातें बिना ढोल-ताशे के ही उठीं. हर साल सहालगों का एक तेज झोंका आता ही है. लेकिन इस बार यह झोंका आंधीनुमा था क्योंकि 'शुभ-लग्नोंÓ का टोटा जो था...! पान-फूल, मिठाई और आदर-सत्कार के इस मौसम में कानपुर शहर से लगे देहात और आस-पास के जिलों में हेलो कानपुर ने एक रोशन अंधेरा देखा. यह अंधेरा अंधेरा कम अंधेर ज्यादा है. १० बरस से लेकर १४ बरस तक के बच्चों और किशोरों के सर पर बिजली या मिट्टी के तेल से जलता 'सुरजÓ देखकर भाई शिव ओम अम्बर का शेर याद आ जाता है-जन्म से बोझ पा गये बच्चे पालने मेंबुढ़ा गये बच्चे और क्या।इस धृतराष्ट्री व्यवस्था को जो बाल श्रम कानून की रोटी तो खाती है लेकिन उसे जलता हुआ बचपन नहीं दिखाई देता. लेकिन हेलो कानपुर देख रहा है-एक बच्चा एक फूलदान के आकार के पात्र को उठाकर चल रहा है. उस पात्र के ऊपर कई सारे बिजली के बल्ब लगे हुए हैं. उसी पात्र में से एक बिजली का तार निकल उसके कंधे और हाथ को छूता हुआ पीछे की तरफ जा रहा है और उसी तार का एक और हिस्सा आगे की तरफ. आगे की तरफ जा रहा तार, आगे चल रहे बच्चे के हाथ में पकड़े बिजली के बल्बों वाले पात्र से जुड़ा हुआ है, पीछे की तरफ जा रहे तार का भी यही हाल है और इस तरह से एक लम्बी कतार बन रही है.
सबसे पीछे एक ट्राली के ऊपर जनरेटर रखा हुआ है, जहाँ से बिजली प्रवाहित हो रही है. यह दृश्य एक बैंड पार्टी का है. यह बैंड पार्टी बारातियों के आगे चल रही है और पूराने-नए हिन्दी गानों की बेसूरी धून बजा रही है, जिस पर बाराती थिरक रहे हैं. दूल्हा घोड़े पर बैठा मुस्कुरा रहा है और बाराती नाच-गानों में व्यस्त हैं. लेकिन किसी का भी ध्यान 10-12 बच्चों की उस कतार पर नहीं है जो अपनी जिंदगी को दाँव पर लगाए हुए हैं.अचानक एक बच्चा एक बाराती के नए कपड़ों को छू जाता है. बाराती को यह रास नहीं आता और वह बच्चे को धक्का दे देता है. बच्चा लडख़डाता है और गली के किनारे खुदी नाली में गिरते-गिरते बचता है, लेकिन वह अपने बिजली वाले पात्र को जैसे तैसे कर गिरने नहीं देता. उसके आगे और पीछे चल रहे बच्चे भी लडख़डा जाते हैं, और उनके बिजली के पात्र झूलने लगते हैं. जनरेटर की ट्राली चला रहे व्यक्ति को यह रास नहीं आता और वह सबसे पीछे चल रहे बच्चे को एक थप्पड़ धर देता है. थोड़ी देर हंगामा सा होता है और फिर सब 'जैसे थेÓ की मुद्रा में आ जाते हैं. कानपुर शहर में तो नहीं शहर से लगे छोटे-मझोले जिलों जैसे उन्नाव, फतेहपुर, कन्नौज, हमीरपुर, हरदोई, इटावा, औरैया और गांवों कस्बों में कुछ ऐसी ही जिन्दगी है सहालगों में लाइट लेकर चलने वाले बच्चों की. कुछ ऐसी ही जिन्दगी है सहालगों में लाइट लेकर चलने वाले बच्चों की. इनमें से ज्यादातर या तो पढ़ते नहीं हैं या पढ़ते भी हैं तो बस नाम मतलब दाम (बजीफे) के लिए. सहालग शुरू होते ही लाइट वाला इनके घरों में खबर भिजवा देता है. ७,८,९,११,१२....सभी दिन आना है.सुभानपुर बिल्हौर में प्राइवेट स्कूल चलाने वाले शुक्ला कहते हैं कि जिस दिन बारात होती है, इसके अगले दिन स्कूल में हाजिरी कम हो जाती है. मतलब सीधा सा है. ट्रैक्टर में लदकर दो-तीन-चार बते से लदकर यह बच्चे लाइट ढोने चले जाते हैं और रि रात एक-दो बजे तक लौटते हैं. अगले दिन का स्कूल गोल.इसके बदले में इन्हें पचास साठ और सत्तर रुपये तक मिल जाते हैं. और बारात में चोरी-छिपेया खाना भी कई बार पान्डाल में खाने के चक्कर में इन्हें गालियां भी मिल जाती हैं. और कभी कभार प्लेट छीनकर बाहर भी कर दिया जाता है.गांव का ही कल्लू बताता है कि अभीन साहब के यहां शादी में मैं कभी नहीं गया, लाजपत भवन जैसा वहां पास (वार्ड) चेक होते हैं, लाइट वालों को कहां खाना नसीब होता है.बिल्हौर के ही छप्पन लाइट सर्विस से हमने इन नौनिहालों से काम कराकर इनके भविष्य से खिलवाड़ करने की बात कही तो उन्होंने कहा कि बारात में एक से दो घण्टे के लिए सर पर पांच-सात किलो की लाइट लादने के बदले में सत्तर-अस्सी रुपये मिलते हैं. कहां है इतनी मजदूरी? फिर हम इनसे काम जबरदस्ती तो कराते नहीं है. इनके घर वाले इन्हें अपनी मर्जी से भेजते है।. खाना अलग बढिय़ा खाने को मिलता है.कड़ाके की सर्दी म्रें सूट-बूट से लैस 'ऐट पी एमÓ की तरंग में झूमते बारातियों को रोशनी से लबालब करते एक कमीज पायजामें में सर पर बोझ उठाये रिंकू, टिंकू पिंकू की मजबूरियों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है. यही है देश का भविष्य. अपना आज खराब कर देश का कल कैसे ठीक होगा? इस पर किसी का ध्यान नहीं है.हो भी क्यों? सुप्रीम कोर्ट के आदेशों पर अमल के लिए अपने यही बाबू जी हैं न. इन्होंने गांवों के पुराने तालाब खुदवा दिये? इन्होंने सर पर मैला ढोना रुकवा दिया, इन्होंने सार्वजनिक स्थानों पर रिगरेट पीने पर रोक लगा दी?सार्वजनिक स्थानों पर अवैध मन्दिर, मस्जिद हटवा दिये फिर भला क्या डारना?इसीलिए शहर हो या देहात कहराना, धोबियाना जैसे दलित, पिछड़े बिरादरी के गरीब बच्चे परम्परा का निर्वाह करते चले आ रहे हैं, कहीं मजबूरी तो कहीं लालच में..!फ्लैश-शादियों का एक खेल यह भी है कि सहालग के दिन स्कूल के अतिरिक्त सफाई कर्मियों का टोटा हो जाता है. नर्सिंगहोमों तक में काम करने वाले सफाई कर्मी गायब रहते हैं. वेटर सप्लाई करने वाले जावेद भाई बताते हैं कि ज्यादातर शादियों में देर रात तक ये वेटर के रूप में खाना सप्लाई करते हैं और डेढ़ से दो सौ रुपये पैदा करते हैं, साथ में शानदार भोजन सूप से लेकर स्नैक्स और फिर पिस्ता दूध.शहर से आगे प्रदेश और प्रदेश से आगे देश भर में ऊपर सुनाई गई कहानी एक जैसी है. राजस्थान में भी ये बैंड बाजे वाले रोशनी के लिए जिन बत्तियों वाले ढांचों का इस्तेमाल करते हैं उन्हें छोटे बच्चे जिनकी उम्र 10 से 12 वर्ष के करीब होती है, उठाकर चलते हैं. सभी ढांचे आपस में बिजली के तारों से जुड़े रहते हैं. ये ढांचे भारी होते हैं, इसलिए चलते समय काफी दिक्कत आती है. एक बच्चे का संतुलन बिगडऩे पर उसके आगे और पीछे वाला बच्चा भी लडख़ड़ा जाता है. इससे उसके गिरने, चोटिल होने और बिजली का करंट लगने की सम्भावना काफी अधिक होती है.बच्चों के लिए भारी पात्र उठाकर चलना, आपस में संतुलन साधना, भीड़ में जगह बनाना और पतली गलियों के दोनों किनारों पर खुदी नालियों से बचना दुरूह भरा कार्य होता है. यदि एक बच्चा गिर जाए और उसके हाथ से या फिर सिर के ऊपर से बिजली वाला पात्र गिर जाए तो उस पर लगे सभी बल्ब और ट्यूब लाइट टूट सकती हैं, और इससे बच्चे को करंट लगने का खतरा बढ़ जाता है. स्थिति तब और भी विकट हो सकती है जब वह बाल मजदूर किसी नाली में गिर जाए जिसमें कीचड़ और पानी भरा हुआ है. चालू बिजली के नंगे तारों का सम्पर्क पानी में आ जाए और उसमें वह बाल मजदूर गिरा हुआ हो तो स्थिति भयानक रूप ले सकती है.बिजली के तार भी सामान्य गुणवत्ता के होते हैं और उनके टूट जाने और उनसे बिजली का झटका लगने की पूरी पूरी सम्भावना बनी रहती है.

सीधी बात

हम सब अंधे हैं

सच बात तो यह है कि हम सब अंधे हैं. क्या समाज का यह दायित्व नहीं है कि वे इस प्रथा को बंद करें, या फिर बाल मजदूरों के द्वारा इतना जोखिम भरा कार्य किए जाने पर आपत्ति दर्ज कराए. क्या हम इतने असंवेदनशील हो सकते हैं कि किसी बच्चे के द्वारा छू लिए जाने पर उसे गिराने की हद तक धक्का दे दें, वह भी तब जबकि उसके सिर पर बिजली का पात्र रखा हुआ हो. क्या आप ऐसी किसी बारात में हिस्सा लेंगे अथवा अपनी या अपने रिश्तेदार की शादी में ऐसे बैंड बाजों की सेवा लेंगे जो बाल मजदूरी करवाते हों? जब बैंड पार्टी के मालिक से यह सवाल पूछा गया तो उसने पहले तो आश्चर्य व्यक्त किया. उसके बाद काफी देर तक यही सवाल पूछे जाने के बाद उसने कहा कि अधिकतर बच्चे बाजा बजाने वाले लोगों के होते हैं और बारात में आने के लालच में वे पैसे नहीं लेते. जो कोई पैसे लेते भी हैं तो वे सस्ते होते हैं. कोई बड़ा आदमी इन पात्रों को उठाएगा तो वह पैसे ज्यादा लेगा. बारात में महिलाएँ भी चलती हैं और वे यह पसंद नहीं करेंगी कि कोई पुरुष उनके पास पास चले. इस तरह की बैंड पार्टी में वर्षों से बाल मजदूरों का उपयोग बिजली के पात्र उठाने के लिए होता आया है तो सरकार इस पर कदम क्यों नहीं उठाती?

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

खरी बात

न्याय को अब आमआदमी

से सहानुभूति नहीं रही

हाल ही में देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने अपनी ही आलोचना की है. आलोचना करते हुए कहा है कि वैश्वीकारण की दौड़ में आम आदमी का दर्द समझने में दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के शीर्ष न्यायालय की न्यायायिक प्रक्रिया में आम आदमी के प्रति सहानुभूति खत्म होती जा रहा हैं. आम आदमी को लेकर सुप्रीम कोर्ट की अपनी ही आलोचना पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के एक आदेश की चुनौती याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जी एस सिंघवी और ए के गांगुली की खण्डपीठ ने की. खण्डपीठ ने यह भी कहा कि अदालती प्रक्रिया आम आदमी की स्थिति और धैर्य को नहीं समझ पाती है. यह स्थिति संवैधानिक रूप से उत्पन्न हुई है. यदि कोई इस स्थिति को बदलना चाहता है तो उसे देश को नजदीक से देखना चाहिए. इसके लिए देश का भ्रमण करने की जरूरत है.मतलब साफ पर देश की शीर्ष अदालत में जब आम आदमी का सुनने वाला कोई नहीं हैं, तो फिर भला निचली अदालतों का क्या हाल होगा, यह सहज अनुमान लगाया जा सकता हैं. यह आलोचना इसलिए भी महत्वपूर्ण क्योंकि कोर्ट के एक खण्डपीठ ने ईमानदारी से गणतन्त्र भारत के साठ साल बाद अपनी गिरेबान में झांकने की कोशिश तो की. पर आम आदमी के दर्द समझने के हिमाकत कौन करेगा, देश का कौन और कैसे करेगा। इसमें कोर्ट का संकेत कार्यपालिका की तरफ दिखता है कि वह वह दफ्तरों से निकलकर आम आदमी तक पहुंचे और आम आदमी के लिए बदले हुए संविधान के बुनियादी आकार में बदलाव करें. इस आकार में बदलावा की ताकत स्वयं कोर्ट को नहीं है.सुप्रीम कोर्ट की अपनी ही आलोचना में इस बात का भी स्पष्ट संकेत हैं कि भले ही कानून अमीर गरीब का भेद नहीं देखता हैं, लेकिन कानून का लाभ उठाने वालों में गरीब नहीं है. समाज में एक पुराना जुमला प्रसिद्ध है. दादा के जमाने में दायर केस पर पोते के जमाने तक भी निर्णय आ जाए तो ख्ुाशकिस्मत समझिये. देश का प्रबुद्ध ही नहीं विभिन्न ओहदे पर बैठे प्रभावशाली लोग भी इसको लेकर चिन्ता जता चुके हैं. पर समाधान की दिशा में ठोस कदम उठाने का संकेत कुछ दिखता नहीं है.60 साल का युवा गणतन्त्र भारत आम आदमी को त्वरित न्याय दिलाने के मामले में फेल हो चुका है. पर प्रभावशाली और धन बल से संपन्न लोगों के मामले जल्द सुलझने के अनेक उदाहरण है. आजाद भारत की तरक्की भले ही सन्तोषजनक न हो, लेकिन वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में देश ने काफी तरक्की की है. पर अदालती प्रक्रिया में तरक्की नहीं हुई. बार-बार न्यायपालिका और कार्यपालिका की आपसी टकराहट के बीच न्यायिक प्रक्रिया का मुद्दा हमेशा ही सुस्त रहा है. अब भला सुप्रीम कोर्ट आम आदमी के प्रति सहानुभूति जता कर उन्हें क्या दे देगा, सहानुभूति दिखाने से न्याय तो मिलने से रहा.बीते एक सप्ताह की एक और खबर आई. एक समाजिक कार्यकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल होने वाली याचिकाओं की जानकारी सूचना के अधिकार कानून के तहत मांगी. जब सूचना मिली तो पता चला कि गए एक दशक में सुप्रीम कोर्ट में दस गुनी याचिकाएं बढ़ी है. वर्ष 1999 में सुप्रीम कोर्ट में 119 पुननिरीक्षण याचिकाएं दर्ज की गई थीं। 2009 तक यह संख्या 2016 पहुंच गई. पर याचिकाकर्ताओं के पक्ष में दिए गए निर्णय के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जानकारी नहीं दी. यह बात समझी जा सकती है कि जब सुप्रीम कोर्ट के जजों का एक तबका अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा कर पारदर्शी होने की राह पर अग्रसर हो रहा हो, वहीं दस वर्षों में दायर याचिकाओं पर निर्णय की जानकारी कोर्ट ने देने से इनकार क्यों कर दिया? जाहिर सी बात है, यचिका दायर होने के आंकड़े तो हैं, पर उनमें कितने मामले निपटाये गए, यह कैसे पता चलेगा. सूचना कानून के तहत सुप्रीम कोर्ट से यह भी पूछा गया था कि उद्योगपतियों, वीआईपी और सामान्य आदमी में भेदभाव क्यों किया जाता है?टाटा बिरला अंबानी जैसे बड़े घरानों के न्यायिक मामले त्वरित क्यों सुलझ जाते हैं? न्यायाधीश कितने समय काम करते हैं? कुछ ऐसे गम्भीर सवालों के जवाब सुप्रीम कोर्ट को देते नहीं बन रहा है. लिहाजा,कोर्ट के निबंधन विभाग ने यह कह कर इन सवालों से पल्ला झाड़ लिया कि ये सवाल सूचना के अधिकार के तहत नहंी आते है. जाहिर है, देश की जिस शीर्ष अदालत में मामलों का संख्या तेजी से बढ़ रही और न्यायधीशों की संख्या स्थिर है, वहां कोर्ट का झुंझलाना लाजिमी है. न्यायमूर्ति समाज के ही अंग होते हैं. उनमें से कुछ के मन में आम आदमी के प्रति सहानुभूति की संवदेना उमडऩा सहज है. पर संवेदनाओं के इस धार से सुप्रीम कोर्ट का प्रायश्चित नहीं होगा. न्यायिक प्रकिया में टाटा, बिराला, अंबानी बंधुओं जैसे प्रभावशाली लोगों के मामलों की तरह आम आदमी से जुड़े मामलों के त्वरित निपटान से ही असली प्रायश्चित होगा.1

* संजय स्वदेश

भाजपा में उमा की वापसी तय

मोहन भागवत और नितिन गडकरी बुधवार की शाम की शाम नागपुर में थे. अगले दिन गुरुवार को उमा भारती आईं. दोनों से उमा भारती ने संघ मुख्यालय में मुलाकात की. हालांकि संघ और भाजपा ने मुलाकात की औपचारिक पुष्टि नहीं की. कानपुर में उमा भारती के परिवार सरीखे निकट सूत्रों की मानें तो भाजपा में उमा की वापसी करीब तय हो चुकी है.

विशेष संवाददाता

उमा भारती भाजपा में वापस आ रही हैं. गुरुवार को दिन में नागपुर में भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहनराव भागवत से उमा भारती की गुप्त मुलाकात के बाद उमा भारती की भाजपा में वापसी तय मानी जा रही है. हो सकता है उनकी वापसी की तिथि भी तय हो गयी हो. सूत्रों के अनुसार इंदौर में भाजपा कार्यकारिणी के आखिरी दिन उनकी वापसी की घोषणा होने की संभावना है.मोहन भागवत और नितिन गडकरी बुधवार की शाम की शाम नागपुर में थे. अगले दिन गुरुवार को उमा भारती आईं. दोनों से उमा भारती ने संघ मुख्यालय में मुलाकात की. हालांकि संघ और भाजपा ने मुलाकात की औपचारिक पुष्टि नहीं की. कानपुर में उमा भारती के परिवार सरीखे निकट सूत्रों की मानें तो भाजपा में उमा की वापसी करीब तय हो चुकी है. संभावना है कि 19 फरवरी तक उमा भाजपा में होगी. इसको लेकर औपचारिक रूप से इंदौर में होने वाली पार्टी के अधिवेशन में आम सहमति बनाई जाएगी. अधिवेशन के अंतिम दिन उमा को पार्टी में वापस लेने की घोषणा हो सकती है.वैसे भी भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कई बार यह संकेत दे चुके हैं कि किन्हीं वजहों से पार्टी से बाहर गए जनाधार वाले दिग्गज नेताओं की वह घर वापसी चाहते हैं. उमा भारती के साथ कल्याण सिंह का नाम जनाधार वाले नेताओं में आता है और उमा भारती तथा कल्याण सिंह में बनती भी खूब है इसलिए यह भी सम्भव है कि उमा की वापसी के बाद कल्याण सिंह के लिए भी भाजपा बानक बनायें. जहां तक कल्याण सिंह की मर्जी की बात है वह कह जरूर रहे हैं कि किसी भी कीमत पर अब भाजपा में वे वापस नहीं जायेंगे लेकिन राजनीति में इसतरह के बयानों के हमेशा की कई-कई अर्थ निकले हैं. इस बार भी अगर कहे के ठीक उल्टा घटित हो तो चौंकने की कोई बात नहीं. उमा भारती पहले भी गुपचुप तरीके से संघ मुख्यालय आ चुकी हैं. हालांकि तब भी उन्होंने कहा था कि वे वर्धा के एक गांव में पारिवारिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने आई थीं. उसी दिन संसद में लिबरहान आयोग की रपट संसद में पेश हुई थी. उसमें उमा भारती का नाम था. तब उमा ने कहा था कि आयोग की रपट में नाम होने की खबर सुन कर वे नागपुर रुक गईं थी और अपना पक्ष रखने के लिए मीडिया से बातचीत की. तब भी सूत्रों ने कहा था कि वे गुपचुप तरीके से संघ मुख्यालय घूम आई थीं.पुरानी कहावत है-मरता क्या न करता? अपनी अलग पार्टी बनाकर उमा कुछ नहीं कर पाईं. भाजपा से अलग होने के बाद उनको अपने घटते वजूद का अहसास हो चुका है. पहले प्रह्लाद पटेल का सहारा था. अब उनका साथ भी पूरी तरह से छूट चुका है. लिहाजा, उमा भारती के सामने भाजपा में वापसी के आलावा दूसरा कोई विकल्प बचा भी नहीं है.

राष्ट्रद्रोहियों को पहले भी जाता रहा है पैसा

हेलो संवाददाता

नक्सली संगठनों को आर्थिक मदद कानपुर के लिए कोई चौंकाने वाली खबर नहीं है. बीती शताब्दी के अंतिम दशक में उल्फा उग्रवादियों को भी यहां से पैसा और 'बारूदÓ की आपूर्ति उजागर हुई थी. तब से अब तक एक बार नहीं कई बार पूर्वाेत्तर राज्य के चरमपंथियों को पैसा और बारूद की कनपुरिया आपूर्ति की खबरें आईं लेकिन जितनी रफ्तार से आईं उतनी ही रफ्तार से वापस हो गईं. क्योंकि पैसा देने वाले लोग कोई साधारण लोग नहीं थे साथ ही मजबूर भी थे.जिन दिनों पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था कानपुर सिख आतंकवादियों को आर्थिक मदद पहुंचाने वाले प्रमुख नगरों में शुमार किया जाता था. ऐसे ही मन्दिर-मस्जिद विवाद के दौरान साधु-संतो, मुल्ला-मौलानाओं, हिन्दु और मुस्लिम उग्रवादी संगठनों को शहर से भरपूर आर्थिक मदद मिली. मुस्लिम उग्र संगठनों के लिए तो हवाला के जरिएपाकिस्तान और दुबई में बैठे आतताइयों को पैसा पहुंचाया गया. यह कोई नई जानकारी नहीं है. देश की हर तरह की खुफिया को पता है और सुरक्षा एजेंसियां भी इस तथ्य से वाकिफ हैं.पूर्वोत्तर राज्यों से जुड़े स्थानीय व्यापारियों का नक्सलियों को पैसा पहुंचाना ठीक वैसे ही सामान्य हो चला है जैसे व्यापार करते वक्त उन दिनों सेल्स टैक्स, कस्टम, पुलिस, लेबर डिपार्टमेंट और बिजली आदि विभागों को बंधी-बंधाई घूस दी जाती है. शहर में सिमी का तो कितना बड़ा संजाल निकला था? जिसका खामियाजा शहर ने दंगे के रूप में भोगा लेकिन बावजूद इसके आज दिन तक एक भी कारोबारी या पूंजीपति चिन्हित करके दंडित नहीं किया गया जिसने देश और समाज तोडऩे वाली ताकतों को मजबूत करने में आर्थिक मदद की.यह व्यापार की दुनिया भी खूब है. यह बड़े उद्यमी भी ऐसे ही बड़े नहीं हुए हैं. इन दिनों संकट में फंसे प्रवचनकारी बाबा के कनपुरिया उद्यमी एजेंट ने बाबा को नब्बे लाख की चोट दे दी. बाबा जी फिलहाल चोट सहलाने की भी स्थिति में नहीं हैं.

मंत्री का वसूली के लिए शहर पर फंदा

यह व्यापार की दुनिया भी खूब है. यह बड़े उद्यमी भी ऐसे ही बड़े नहीं हुए हैं. अगर एक मंत्री इनसे अस्पताल बनवाने के लिए रुपया वसूल रहा है तो इन दिनों संकट में फंसे एक प्रवचनकारी बाबा को उनके कनपुरिया भक्त उद्यमी ने बाबा को नब्बे लाख की चोट दे दी. बाबा जी फिलहाल चोट सहलाने की भी स्थिति में नहीं हैं.

हेलो संवाददाता

कानपुर शहर वास्तव में वसूली हब है. अभी हाल में प्रदेश के एक मंत्री ने धन वसूली के लिए शहर पर ताजा-ताजा फंदा डाला है. इस शहर में हर तरह की वसूली है. नेता, अफसर, गुण्डा, साधु, समाजसेवी, राष्ट्रभक्त, राष्ट्रद्रोही सब के सब शहर की नाभि (उद्यमियों) पर निशाना साधे रहते हैं. पिछले दिनों जब शहर में माओवादियों का अड्डा रोशन हुआ तो उसके साथ-साथ यह राज भी सामने आया कि शहर के कुछ व्यापारी, उद्यमी और शस्त्र विक्रेता व्यवस्था के विद्रोही नक्सल चरमपंथियों के लिए धन की व्यवस्था करते हैं. धन की व्यवस्था तो यहां के उद्यमी, व्यापारी और दल्ले, नेताओं, संत-महंतों व माफियाओं के लिए भी करते हैं.कानपुर शहर सर्वाधिक राजस्व और सर्वाधिक धन वसूली के मामले में प्रदेश में दूसरे नम्बर पर शुमार किया जाता है. यहां से हर सरकार ने व्यापारियों, मिल मालिकों और उद्यमियों को अपने चेले-चापड़ लगाकर जमकर लूटा है. आइये सीधे आपको ताजी खबर से जोड़ते हैं-फरवरी के प्रथम सप्ताह में धंधा-पानी और उद्योग की नब्ज से जुड़े एक विभाग के दबंग मंत्री ने अपने कानपुर स्थित विभागीय कार्यालय को एक सूची दी. सूची में शहर के बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों व व्यापारियों के नाम थे. स्थानीय विभाग का काम था कि वह उद्यमियों को सूचित करे कि मंत्री जी उनसे मिलना चाहते हैं. स्थानीय विभाग के मुखिया के पीए ने यह जिम्मेदारी निभाई. और एक-एक कर उद्यमियों को फोन करके मंत्री जी की मंशा बताई साथ ही सीधे बात करने के लिए मंत्री जी के पीए का नम्बर भी दिया. शहर के उद्यमियों ने जब मंत्री के पीए से सम्पर्क किया तो कुछ को मंत्री ने कानपुर प्रवास के दौरान सरकिट हाउस में मुलाकात के लिए बुलाया तो कुछ को लखनऊ. मंत्री जी से मिलकर लौटे व्यापारियों और उद्यमियों से मिली जानकारी के मुताबिक मंत्री जी अपनी मां के नाम से करीब ३० करोड़ रुपये की लागत से एक अस्पताल बनवाना चाहते हैं. इसके लिए उन्होंने कानपुर के कुछ बड़े पूंजीपतियों पर निशाना साधा है और सीधे-सीधे 'सहयोगÓ देने की बात कही है.कानपुर के एक बड़े साबुन निर्माता को भी मंत्री का संदेशा पहुंचाने की खबर है. खबर यह भी है कि मंत्री ने साबुन निर्माता से २५ लाख रुपये की मांग की. पहले तो मांग पूरी करने की कोशिश हुई. लेकिन तेज-तर्रार दबंग मंत्री ने जब सेठ जी की सात पुश्तों को तारा और उनकी फैक्ट्री में जारी व्यवहारिक हो चली अनियमितताओं पर डंडा उठाया तो सेठ जी ने मांग की पहली किश्त (१५ लाख रुपये) ढीली कर दी. ऐसे हर एक चप्पल निर्माता को मंत्री जी ने लखनऊ तलब किया. बताते हंै चप्पल वाला सेठ अपने पुराने भाजपाई सम्पर्कों के जरिए मंत्री जी को यह समझाने में कामयाब हो गया कि उसके हालात पहले जैसे नहीं है. इसलिए वांछित सहयोग राशि देना उसके बूते के बाहर है. हेलो कानपुर के पाठक सोच रहे होंगे कि हमेशा खुल्लम-खुल्लम लिखने वाले अखबार में इशारे से क्यों बात की जा रही है. तो बंधुओं! एक मंत्री की जबरिया उगाही की बात कहने के लिए एक भी उद्यमी या व्यापारी हेलो कानपुर के सामने आया..विभागीय अफसरान जब खुद मंत्री की वसूली योजना में सक्रिय सहयोग कर रहे हों तो उनसे कुछ भी पूछने का कोई मतलब नहीं. हालांकि अधिकारी 'पीएÓ ने जो फोन व्यापारियों को किए हैं उसे 'ऑफ द रिकार्डÓ कई उद्यमियों ने स्वीकार भी किया है. सवर्ण तबके से ताल्लुक रखने वाला यह दबंग मंत्री पहले भाजपा से विधायक रह चुका है. अस्पताल के लिए सहयोग वसूलने की बात शहर के व्यापारियों और उद्यमियों ने स्वास्थ्य मंत्री अनंत मिश्रा 'अंटूÓ तक भी पहुंचाई. पता नहीं 'अंटूÓ के संज्ञान में आये इस वसूली अभियान की जानकारी मुख्यमंत्री मायावती तक भी है अथवा नहीं.शहर के व्यापारियों और उद्यमियों को क्या कहें..? इनसे कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की जाती. ये व्यापारी लोग खुद इतने तरह की भ्रष्ट गलतियां करते रहते हैं कि नेता और अफसर इन्हें झट से ब्लैकमेल कर लेते हैं. फिर ये वही पीडि़त उद्यमी हैं जो शहर से लाभ कमाते वक्त शहर को पीड़ा देने में कोई कासर बाकी नहीं छोड़ते. साथ में काम करने वाले मजदूरों को पूर्ण लाभ और पूर्ण 'हित-सुरक्षाÓ नहीं देते..! पान-मसाला वाले, खाद्य मसाला वाले, चमड़ा व्यापारी, प्लास्टिक उद्योग के लोग रुपए की आठ अठन्नी बनाने में जन-जीवन से लेकर जीवन दायिनी प्रकृति सम्पदा तक के सत्यानाश से बाज नहीं आते. इन्हीं मंत्री महोदय ने प्लास्टिक उद्योग से जुड़े एक बड़े उद्यमी से भी सहयोग प्राप्त करने में सफलता हासिल पाई है. एक लाख...सहयोग की न्यूनतम राशि है.

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

चौथा कोना

एक्सक्लूसिव बनाम एक्सक्लूसिव न्यूज सर जी!

एक्सक्लूसिव स्टोरी न्यूज क्या होती है सर! ताजा-ताजा रिपोर्टर बने एक 'हिन्दुस्तानीÓ ने पूछा तो मैं सकपका गया. मैंने कहा ये तो अपने संपादक या अपने अखबार के सीनियर से पूछो भइया. क्योंकि कनपुरिया स्टाइल में जिसे एक्सक्लूसिव कहा जाता है. मुझे तो वह हमेशा एक्सक्लूसिव (विस्फोटक) लगता रहा है. मगर बात क्या है क्यों पूछ रहे हो? उसने कहा कि मुझे एक्सक्लूसिव न्यूज लाने को कहा गया है वह भी पेट्रोल-डीजल पर. अच्छा तो तुम्हें बताया नहीं गया कि क्या करना है. मैंने पूछा तो बोला नहीं सर! पांचवें दिन वही बंदा मेरे पास नौकरी मांगने आ गया. मैंने कहा क्या हुआ भैया. तुम तो स्टोरी कर रहे थे. तो वह बोला-क्या बताऊं? एक्सक्लूसिव ढूंढ़ते-ढूंढ़ते मैं पहुंच गया. पनकी, सचेंडी की तरफ वहां एक सज्जन ने बताया कि अब तुझे पता नहीं इस क्षेत्र में तो चोरी से लाखों लीटर डीजल, पेट्रोल जो नकली भी होता है खूब बिक रहा है. उसे देशी भाषा में 'बाड़ाÓ कहते हैं. इससे बड़ा एक्सक्लूसिव क्या होगा? मैंने पता लगाने में चार-पांच लीटर पेट्रोल फूंक दिया. आखिर एक दिन बाड़े में पहुंच ही गया. बात सही थी धंधा चल रहा था. मैंने जब वहां एक सज्जन से पूछा कि ये सब क्या है? तो उसने छूटते ही पूछा अखबार से हो? मैंने नाम बता दिया. उसने मुझे जवाब देने के बजाय कहीं मोबाइल मिलाया-दूर हटकर बात की. पांच मिनट बाद घंटी बजी, मैंने बात की तो मेरे ही एक सीनियर ने मुझे धर हौंका गधा कहीं का वहां क्यों पहुंच गया किसने कहा था चलो वहां से. मैं चलने वाला ही था कि बाड़ा वाले सज्जन बोले बेटा हर महीने तुम्हारे अखबार वालों को पचास लीटर पेट्रोल देता हूं, वह भी असली वाला. अब समझ गए. मैं चला आया. दो-तीन दिन बाद ही मुझे पैदल कर दिया गया. अब आप ही कुछ कीजिये. मैंने उसे फर्जी आश्वासन दे दिया. लेकिन उसकी मदद शायद नहीं कर पाऊंगा. उसने तो मुझे यह भी बताया कि बाड़ा वालों की लंबी पहुंच है सर. मैंने कहा छोड़ो और परचून-अरचून की दुकान खोलो. ये 'हिन्दुस्तानÓ है. यहां सब ऐसा ही चलता है. हम ठेका लिए हैं क्या? हां, एक्सक्लूसिव-एक्सक्लूसिव में तब्दील हो चुका है यह सिद्घ तो काफी पहले था पुष्ट अब हो गया. बल्कि हष्ट-पुष्ट कहिए जनाब.1

पीयूष त्रिपाठी



कोई लौटा

दे मेरे...

कोई लौटा दे मेरे...बीते हुए दिन. ये तो गाना हुआ, बाबू साहब नेता जी से अपने गुर्दे लौटाने के लिए कह रहे हैं. बड़ी अहमक बात है नेताजी ने गुर्दे क्या अपने लगवा लिये हैं जो वापस कर दें. खराब गुर्दे तो डॉक्टर ने निकाल कर कचरे में फेंक दिये होंगे. हां! यहां एक भूल जरूर हुई है इनके गुर्दे मुर्दा अजायबघर में सुरक्षित रखने चाहिए थे. जिससे आने वाली पीढ़ी उनके दर्शन कर धन्य होती रहती. दरअसल ज्यादा महान लोगों की हर चीज कीमती होती है. ये तो गुर्दे हैं शरीर का बेहद आवश्यक अंग. देखिये न बापू की लंगोटी, ऐनक सबकी नीलामी हो रही है. खैर ये तो अच्छा हुआ कि ये गलती सिंगापुर के डॉक्टरों ने की नहीं तो ये तोहमत भी यादव खानदान पर लग जाती. देखो बाबू साहब किडनी तो तुमने खुद खराब की है. इतनी उम्र में आप जो कुछ करते रहे हों वो उचित नहीं था. अब शान्ती से बॉलीवुड की तरह मुंह क्या पैर भी मत करना. सीधे मथुरा की टिकट कटवाओ और वृंदावन में राधे-राधे जपो.पुरानी नसल है कि जब मशीन बिगड़ जाये तो हसीन लोगों से उचित दूरी बनाये रखनी चाहिए. वर्तमान में अपने देश में कोई पार्टी आपके लायक नहीं बची है अब तो दुबई में ही अपना भविष्य तलाशिये. दुनिया की सबसे बेहतरीन इमारह बुर्ज में आशियाना तो बन ही गया है बस दो-चार चेले-चपाटियां लेकर वहां लोकतंत्र की अलख जगाइये. अब ये देश आपके लिये बेगाना बन गया है. बस एक बात का एहतियात जरूर बरतिये इन पाण्डवों से ज्यादा बैर मत पालिये. इतिहास गवाह है कि अहीर बुद्घि का कोई ठिकाना नहीं, कहीं बदलाई गई किडनी केसा वालों की तरह कटिया समझ नोच के फेंक दे. सो निकल लेने में ही भलाई है.


काम की बात!


अपनी बीवी को अपनी सौ प्रतिशत कमाई देने से दस फीसदी सुख मिलता है.किसी दूसरी को अपनी कमाई का दस प्रतिशत देने पर ११० प्रतिशत सुख मिलता हैपैसा आपका/ फैसला आपका..जागो ग्राहक जागो!1



बांध बनाना

भी आवश्यक है...


बाढ़ से इतनी तबाही होती है कि देश में इसे कुछ आंकड़े आपकी आंखें खोल देंगे. हर वर्ष लगभग-१.१५३२ व्यक्ति मरते हैं.२.१०,००० जानवर मरते हैं.३.९३८ करोड़ रुपये की फसल, घर-बार इत्यादि नष्ट होती है.४.८० लाख हेक्टेयर भूमि में बाढ़ का पानी भर जाता है.५.३७ लाख हेक्टेयर पर खड़ी फसल नष्ट हो जाती है.६.४०० लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित होता है.७.३२० लाख हेक्टेयर क्षेत्र को बाढ़ से बचाया जा सकता है.बाढ़ के क्या कारण हैं. एक मत है कि बाढ़ के कारण बड़े-बड़े बांध बनाकर उनमें अथाह पानी इक_ा करना है क्योंकि हम नदियों के स्वाभाविक बहाव को जो समुद्र की ओर होता है में बाधा डालते हैं या रोकते हैं. इसके कारण नदी में उल्टे बहाव का इतना दबाव होता है कि वे दोनों किनारे तोड़ कर बाढ़ पैदा कर देती है यदि समय से पूर्व बाधा में पानी बहाकर कम कर दिया जाये तो इस स्थिति से बचा जा सकता है. नदियों के दोनों किनारों पर तरह-तरह के निर्माण करके या नदियों में पाइप डालकर पानी खींचते हैं और बाढ़ को नियंत्रित करते हैं. इसी प्रकार पदी में नालों, फैक्ट्रियों का मैला या अन्य वस्तुएं (मूर्तियां, शव, कपड़े इत्यादि) बहाकर उसमें सिल्ट जमा होने देते हैं. जिससे उनकी गहराई कम होती है और बाढ़ की स्थिति जल्दी आ जाती है. विकास के नाम पर नदियों के किनारे मन्दिर, मेट्रो स्टेशन, फ्लाई ओवर, पार्किंग प्लेस, स्पोर्ट स्टेडियम या अन्य प्रकार की इमारतें बाढ़ को नियंत्रण देना है. अब तो बाडमेर(रेगिस्तान) में भी बाढ़ आ जाती है. देश का कोई भाग चाहे वह पहाड़ पर (हिमांचल, आसाम) के मैदान में, (उ०प्र०, बिहार, पं०बंगाल, हरियाणा) उत्तराखण्ड या पठार में (मध्य प्रदेश, झारखण्ड) रेगिस्तान (राजस्थान) शहर हो (दिल्ली), आंध्र प्रदेश हो कर्नाटक हो, उड़ीसा हो, बाढ़ पहुंच ही जाती है. हमीं ने बाढ़ के कारणों का निर्माण किया है. हमीं को उन्हें मिटाना होगा. जलवायु परिवर्तन भी इसका कारण है. नदियों को उनके किनारों को सुरक्षित रखना होगा अन्यथा हम बाढ़ की चपेट में आयेंगे.बांध बनाना भी आवश्यक है क्योंकि उनसे नहरें निकालकर सिंचाई का ऐसा प्रबंध करना होगा कि हमारी खेती मानसून की बारिस पर निर्भर न रहे परंतु बांधों में इक_े पानी की मात्रा का इस तरह प्रबंध करना होगा कि उनसे पानी छोडऩे पर बाढ़ आ जाये. हरिद्वार में गंगा नहर के लिए बांध बनाया है परंतु पूरी गंगा को नहीं रोका है. इससे थोड़ा-थोड़ा पानी निकलता रहता है. इस तरह नदियों में पानी भी रहेगा. नेपाल या पहाड़ों से निकलने वाली नदियों में बाढ़ आने की समस्या के लिए विशेषज्ञों की राय से योजना बनानी पड़ेगी. बांधों में भी अब पानी भरने के लिए उनमें प्लास्टिक या अन्य तरह के बहुत बड़े विशालकाय खोल बिछाते हैं जिनमें पानी की मात्रा पर नियंत्रण रखा जा सकता है और पानी बहाना नहीं पड़ता है. नदियों के किनारे पर्यटन स्थल या अन्य इमारतें बनेंगी ही परंतु वे कैसीे बनाई जाये उनसे नदी के बहाव में कोई रुकावट न हो और इनको भी हानि न हो. इसके लिए वास्तुकला विशेषज्ञों के द्वारा एक मॉडल निर्धारित किया जाये. नदियों में शव बहाना फैक्ट्रियों का दूषित पानी या मैला डालने पर रोक हो. जानवरों का नहलाना, मनुष्यों के नहाने या कपड़े धोने पर नियम बनें ताकि साबुन इत्यादि का उपयोग न हो. जिस गांव या शहर के पास से नदी जा रही हो वहां के नगर निगम, महापालिका, पालिका या ग्राम पंचायत की जिम्मेदारी होनी चाहिए. नदी के देखभाल की उन्हें अधिकार होना चाहिए कि इसके लिए वे टैक्स लगाकर धन का प्रबंध कर सकें. यह अनुचित नहीं होगा क्योंकि तीर्थ स्थानों पर टोल टैक्स लगता है, राष्ट्रीय मार्गों पर लगता है. घरों में तो वाटर टैक्स देते हैं. पानी और हवा अमृत है परंतु यदि इनसे छेड़छाड़ करेंगे या दूषित करेंगे ते वे जहर बन जायेंगी.1 (लेखक पूर्व स्वास्थ्य निदेशक हैं)

मदीने में राम कथा की चाह

शायर मुन्नवर राना को संत-फकीर घोषित किया

संपादक रिपोर्ट

इलाहाबाद माघ मेले में १७ जनवरी को कोहरा बरसाती शुक्ल पक्ष तृतीया की रात प्रयाग तट पर संत अंगद जी महाराज के डेरे में हिन्दुस्तान के ही नहीं पूरी दुनिया में उर्दू अदब के तरोताजा लहजे के खुशनुमा झोंके की तरह डोल रहे $जनाब मुन्नवर राना का बेसब्री से इंतजार हो रहा था. मंच पर महाराज जी सिंहासन पर बिराजे थे. उनके बगल में उनकी धर्म संगिनी पत्नी साध्वी अपर्णा भारती जी का आसन खाली था. कवि सम्मेलन व मुशायरा अपने पूरे शबाब पर था.मुन्नवर साहब हैदराबाद से जहाज, टैक्सी और ठंडी रेत को पार कर अंतत: १२ बजे के करीब प्रयाग तट पर मस्ताने संत के डेरे में दाखिल हुए. अरे यह क्या..? सभी शायर व कवि मंच पर बिछे गद्दे पर नवाजे गये हैं. लेकिन मुन्नवर साहब का इस्तकबाल का तो अंदाज ही निराला था. महाराज जी खुद मुन्नवर साहब की गुलपोशी को आगे आये. उन्हें आशीर्वाद स्वरूप शाल ओढ़ाया फिर अपने ही बगल में खाली पड़े प्रथम महिला जगद् गुरु शंकराचार्य अपर्णा भारती के विशिष्ट आसन पर उन्हें बिठा दिया. सर से पांव तक ढीले-ढाले काले पायजामे और काले चोंगे में एक ओर मुन्नवर राना साहब और ठीक बगल में गेरुए वस्त्रों में महाराज अंगद जी. कवि, शायर, श्रोता, भक्त सब स्तब्ध...! यह हो क्या रहा है? महाराज ने एक शायर को अपने बगल अपनी धर्म संगिनी पत्नी मां का सिंहासन सौंप दिया. पांडाल में चक् -चक् शुरू हो गई. महाराज जी समझ गये.., वह मुस्कराते हुए उठे...माइक पर आये और फिर कुछ यूं बोले...
'आप लोग समझ रहे होंगे कि पता नहीं आज महाराज जी को क्या हो गया है.
देश के अजीज शायर मुन्नवर राना को अपने बगल के सिंहासन पर बिराज दिया है. मुन्नवर साहब एक सच्चे मुसलमान हैं. उनको प्रयाग तट पर इस कड़कती ठंड में मैंने क्यों बुलाया है? तो आप जान लें कि मेरी दृष्टि में मुन्न्वर राना केवल एक शायर नहीं है और न ही मैंने किसी शायर को अपने बगल में सिंहासन पर बिठाया है. मुन्नवर राना वह रुहानी शख्सियत है जिसने उर्दू अदब में महबूबा की जुल्फों में उल्झी शायरी को घर भीतर राखी बांधती बहन, मोहब्बत के आंसू छलकाती मां, फुटपाथ पर जूझती जिंदगी और डालों पर चहकती चिडिय़ों की चहचहाहट से न सिर्फ संवारा बल्कि उसके पर खोल दिये जिसके सामने कहन का असीम आसमान है. शाायरी को उन्होंने इंसानी दीन के उस मुकाम पर पहुंचाया जहां शायर मुन्नवर राना महज एक शायर न होकर एक संत ...एक $फकीर, एक मस्त कलंदर सरीखे जान पड़ते हैं. आप मेरे सिंहासन के बगल में जिन्हें बैठा देख रहे हैं वह संत श्री मुन्नवर राना हैं न कि शायर...सिर्फ शायर...! इसके बाद महाराज के भक्तों में लहर सी दौड़ जाती है...समवेत् स्वर में पांडाल गूंज उठता है. मुन्नवर राना की जय.. मुन्नवर राना जिन्दाबाद.बात अगर सिर्फ यहीं तक होती तो शायद प्रयाग की रेती पर गूंजी शब्द बीथी हेलो कानपुर के कागज पर न उतरती. इसके आगे जो महाराज जी ने कहा वह तो क्रांति थी..धर्म की, अध्यात्म की, साहित्य की और इंसानियत की..!अंगद जी महाराज बोले कि जब मैं छोटा था तो हमेशा एक गीत गाया करता था..! 'मोहम्मद के रो$जेकी जाली पकड़कर मैं कुल हाल अपनी जुबानी कहूंगा, सबा मुझको ले चल उड़ाकर मदीने $गमे हि$ज्र की मैं कहानी कहूंगा.Ó लेकिन क्या करूं..? मैं हिन्दू के घर पैदा हो गया. मेरी चोटी न ऊपर से सफाचट की गई और न ही नीचे से. मेरा वीजा-पासपोर्ट दोनों जब्त. मैं नहीं जा सकता $गमे हि$ज्र की कहानी सुनाने मदीना. इसीलिए संत कोटि के शायर मन्नवर राना को मैंने माघ मेले में उस पावन काल व तट पर शेर सुनाने के लिए बुलाया है जहां इन दिनों तीनों लोक देवी-देवताओं का प्रवास चल रहा है. मेरी ओर से यह पहल है कि अगर विश्व एकात्मवाद की कोई कल्पना है तो मुन्नवर प्रयाग के तट पर हमें अपने शेरो-सुखन से नवा$जे और हम उन्हें मदीना में बैठकर राम कथा सुनायें. महाराज जी का यह कहना था कि मानो गंगा-जमुना-सरस्वती सभी महाराज जी के डेरे में हर-हर महादेव की गूंज करती हुई लहर मार गई हों..! अंगद जी महाराज जी की जय..अंगद जी महाराज जिंदाबाद के उद्घोष से पूरा प्रयाग तट गुंजायमान हो गया. मुन्नवर राना के साथ नसीम निखत तारिक, अदम गौण्डवी के.के. बाजपेयी और मैं स्तब्ध... एक-दूसरे का मुंह ताकते हुए..! किसी ने ठीक ही कहा है संत की महिमा संत ही जानें. कवि सम्मेलन-मुशायरा समाप्त होने के बाद महाराज जी के भक्तगण कह रहे थे-'अच्छा तो इसलिए रखा गया था मुशायरा. वही हम कहें महाराज जी को इस साल शेरो-शायरी की क्या सूझी..!

अंगद पांव

अंगद जी महाराज का रूप प्राकट्य एक क्रांतिकारी संत के रूप में ही हुआ. याद होगा प्रदेश में जब मुलायम सरकार थी उस काल में भी प्रयाग तट पर अद्र्घ कुम्भ के अवसर पर देश के भर के साधु-संत एकत्र थे. महाराज जी ने चार दलित ईश भक्तों को चार पीठ बनाकर शंकराचार्य घोषित कर दिया था. इस कदम के पीछे वे उस धारणा को धूल-धूसरित करना चाहते थे जिसके अनुसार दलित मन्दिरों में प्रवेश नहीं कर सकता, मंत्र और श्लोक का उच्चारण नहीं कर सकता. अंगद जी की उस समय उम्र कोई तीस-बत्तीस बरस की रही होगी. अंगद जी महाराज का जन्म सुल्तानपुर जनपद का है, उनकी शिक्षा-दीक्षा और विकास कानपुर के कड़े पानी को पीकर के हुआ है और इन दिनों वे उज्जैन में महामृत्युंजय मठ को अपना आसन बनाये हुए हैं. महाराज जी के इस क्रांतिकारी कदम की हिन्दु साधु-संत समाज में तीखी प्रतिक्रिया हुई और अंगद जी महाराज की जान पर बन आई. अद्र्घ कुम्भ के दौरान उनके डेरे पर नागा साधुओं ने हमला भी बोला लेकिन वे अपने पक्ष पर डटे रहे और पूरी सरकार उनकी सुरक्षा में लग गई. इस पहल का कोई मानी किसी को समझ आया हो या न आया हो लेकिन दलितों में इस भावना का सूत्र अवश्य हुआ कि सनातन धर्म और हिन्दु दर्शन जातीय आधार पर दलितों के खिलाफ नहीं है. आगे चलकर मनोनीत दलित शंकराचार्य भय से पीठ पर आसीन नहीं रह सके. और इस बार उन्होंने प्रयाग के तट पर अपनी इच्छा जाग्रत की है कि वे मदीने में बैठकर पूरी दुनिया में राम कथा सुनाना चाहते हैं.

यूपी के पेट पर मुम्बई की लात

सरकार ने अस्पतालों की सफाई का ठेका मुम्बइया कंपनी को दिया

ठाकरे परिवार मुम्बई से उत्तर भारतीयों को भगाने में जुटा है. पूरा देश पागल हो गये इस परिवार की निंदा कर रहा है. लेकिन हमारी उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से इस मुद्दे पर कोई तिलमिलाहट अभी तक जाहिर नहीं हुई है. हां! हेलो कानपुर को खबर जरूर लगी है कि माया सरकार ने पूरे प्रदेश भर के अस्पतालों में साफ-सफाई करने वाले गरीब-गुरुआ अधिकांश दलितों की रोजी-रोटी पर लात मारकर मुम्बई की एक कम्पनी को माला-माल करने का कुचक्र रचा है. इस माला-माली में स्वास्थ्य विभाग के मंत्रियों में भीतरखाने जमकर खींचा- तानी मची हुई है. कायदे से यह काम स्वास्थ्य मंत्री अंटू मिश्रा के नेतृत्व में होना चाहिए लेकिन यह टेंडर बाजी, ठेके बाजी, सौदे बाजी के अगुआ बन गये परिवार कल्याण मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा. अनुराग अवस्थी 'मार्शलÓकी रिपोर्ट

मुम्बई से भले ही उत्तर प्रदेश और बिहार वाले भैय्या मारकर भगाये जा रहे हों, उत्तर प्रदेश के अस्पतालों की सफाई, सुरक्षा और स्वास्थ्य कार्यों के लिए प्रदेश सरकार ने मुम्बई की एक फर्म को अधिकृत कर दिया है, वह भी येनकेन प्रकारेण नियम कानूनों को किनारे करके. इसे लेकर प्रदेश सरकार के दो मंत्रियों में अधिकारों और बजट की रस्साकशी शुरू हो गई है.प्रदेश के अस्पतालों में सुरक्षा, सफाई और स्वास्थ्य कार्यों में सहायता के लिए जिले स्तर पर अभी तक कॉन्ट्रेक्ट दिये जाते थे. संविदा द्वारा ये फर्में जिला अस्पतालों में वर्कर सप्लाई किया करते थे. सफाई के इस कार्य के बजट की व्यवस्था एनआरएचएम से होती थी.इन सफाई कार्यों को यूपीएचएसडीपी संस्था द्वारा कराया जाता था. डीजी स्वास्थ्य आरआर भारती से अभी तक विभिन्न जिलों में छोटी-छोटी एजेंसियां उत्तर प्रदेश के बेरोजगार लड़कों को रोजगार देकर कार्य कराया करती थी. मण्डल स्तर पर इन ठेकों को आमंत्रित किया जाना था. रातों-रात निर्णय बदल गया और एनआरएचएम क ेइस पैसे को परिवार कल्याण में ट्रान्सफर कर दिया गया. परिवार कल्याण के डीजी, जीबी प्रसाद ने पूरे उत्तर प्रदेश के लिए मे०एएलएल सर्विसेज अन्डर वन रूफ इन्डिया प्लाट नंबर एजी-३ इंडस्ट्रियल स्टेट विलेज फहादी नगर गोरे गांव ईस्ट मुम्बई को अधिकृत कर पूरे उत्तर प्रदेश में सीएमओ और सीएमएस को पत्र लिख कर उपरोक्त फर्म से सफाई कार्य कराने को कहा गया है. कम्पनी को अधिकृत करने से पूर्व टेन्डर मंगाये गये. स्थानीय छोटी फार्मों को लड़ाई से बाहर करने के लिए हाउस कीपिंग में पैंसठ करोड़ रुपये के टर्न ओवर की अनिवार्यता की शर्त रखी गई. मुम्बई की तथा कथित फर्म भी जब इस शर्त को पूरा नहीं कर पाई तो अगर-मगर के साथ उसको अन्य फर्मों के साथ मिलाकर टर्न ओवर पूरा दिखा दिया गया. टेन्डर प्रक्रिया में शामिल ए-टू-जेड, मैक्स, इन्ड्स आदि ने इसका विरोध भी किया लेकिन उसे दरकिनार कर दिया गया. इस पूरी प्रक्रिया की देखरेख कर रहे ज्वाइन्ट डायरेक्टर जीपी साही से जब हमने फोन पर सम्पर्क किया और जल्दबाजी में टेन्डर एप्रूव करने सम्बन्धी विभिन्न अनियमितताओं की बावत पूछ-तांछ की तो उन्होंने डीजी से सम्पर्क का सुझाव दिया. डीजी प्रसाद से सम्पर्क का काफी प्रयास किया गया. ऐसी ही एक संस्था सन फैसेल्टी सर्विसेज के आरके तिवारी बताते हैं कि हमने लेन-देन और धोखाधड़ी के इस मामले को मुख्यमंत्री सचिवालय तक पहुंचा दिये हैं. सूत्रों ने जानकारी दी है कि अभी मात्र मार्च तक के लिए इस कम्पनी को अधिकृत किया गया है. अधिकांश जगहों पर या तो पहले से काम कर रही स्थानीय एजेंसियों को बाहर कर रही यह कम्पनी काम संभालने लगी है या डेली वेजज के जो लोग काम कर रहे हैं उन्हीं के काम को अपन काम दिखाकर कागजी खानापूरनी कर लेगी. सारी तैयारी करोड़ों रुपये के बजट के बन्दरबांट की है. स्वास्थ्य विभाग के सूत्रों की मानें तो अधिकारों और विभागीय बंटवारे की यह लड़ाई माया दरबार में पहुंच चुकी है. देखना यह है कि शह और मात के इस खेल में अंटू और बाबू में कौन जीतेगा और कौन हारेगा?कानपुर नगर के सीएमओ अशोक मिश्रा ने बताया कि हमारे संज्ञान में न तो इस तरह का कोई आदेश है और न ही कम्पनी ने हमें सम्पर्क किया है. इतना जरूर है कि जिला अस्पतालों से कम्पनी ने सम्पर्क साधा है. उर्सला के सीएमओ प्रभारी श्री जीके तिवारी ने बताया कि अभी तो वही लोग सफाई में लगे हैं जिन्हें उर्सला प्रशासन ने नियुक्त किया था. जब कम्पनी के लोग आ जायेंगे तो उन्हें काम सौंप दिया जायेगा. व्यवस्था परिवर्तन की जानकारी उन्हें है.1

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010


गड़ बड़ तन्त्र

प्रमोद तिवारी

अंग्रेज जब भारत आये थे तो पूरा इग्लैण्ड अपने साथ लेकर नहीं आये थे. कुल जमा तीन सौ गोरे व्यापारियों ने टुकड़ों में बंटे टुकड़ खोर राजाओं और नवाबों को तियां-बियां करके तीन सौ बरस तक हमें अपना गुलाम बनाये रखा. फिरंगी आये थे व्यापार करने करने लगे राज. सवाल उठता है कि २५ से ३० करोड़ लोगों पर तीन सौ लोग आखिर शासन करते कैसे रहे? तो अंग्रेजों ने हमें (चाहे हम राजा रहे हों या प्रजा,) पैसे, प्रलोभन, उपहार और मादक कमजोरियों से तोड़ा और फिर हमारी पीठ पर हम से ही कोड़े बरसवाये. जिन लोगों ने हम पर लाठियां बरसाईं, जुल्म ढाये, गोलियां चलाईं वे गोरे नहीं थे, गोरे तो आदेशक थे. बस! यहीं से हम साठ साल के हो चुके भारतीय गणतंत्र के मौके पर बताना चाहते हैं कि व्यापार फिर शुरू हो गया है, इसबार केवल गोरे ही नहीं बल्कि हर रंग के विदेशी व्यापारी देश में फैल चुके हैं और फिर से पैसे, प्रलोभन, उपहार और मादक कमजोरियों से हमें तोड़ा जा रहा है. एकबार फिर से हमारी ही पीठ पर बैठकर हमारे ही लोगों से हम पर कोड़े बरसवाये जा रहे हैं. किसी को पीड़ा हो रही है, कोई खुश है कि यह वैश्वीकरण का सुनहरा काल है तो कोई ढोल पीट रहा है कि भारत तेजी से आर्थिक विकास की मुद्रा में है. लेकिन अपन तो छोटी बुद्घि के हैं इसलिए हमें तो लग रहा है कि हम भारतीयों को एक बार फिर से घुमाकर नाक पकड़ाई जा रही है अर्थात फिर से गुलाम बनाया जा रहा है. और अगर ऐसा हो रहा है तो हमें बाबा भीमराव अम्बेडकर की उस आशंका में दम जान पड़ता है कि- किसी भी देश का संविधान कितना अच्छा क्यों न हो अगर लागू करने वाले अच्छे नहीं हैं तो संविधान भी अच्छा नहीं रहेगा. तभी तो पूर्ण संवैधानिक स्वतंत्रता के साथ हमारे देश में पूर्ण अराजकता विद्यमान है और हम बावजूद इसके पूरे जोश से १५ अगस्त भी मनाते है और २६ जनवरी भी. हेलो कानपुर आपको जीवन के छोटे-छोटे वे गुलाम क्षणों की याद दिलाएगा जो इसी गणतंत्र के रखवालों की देन हैं. जिनकी नियत फिरंगियों जैसी ही है- कि जितनी जल्दी हो इस देश को और इस देश में रहने वालों को चूस के, निचोड़ के पी जाओ. अगर ऐसा नहीं है तो भारतीय पुलिस (व्यवस्था) अंग्रेजों के जमाने के जेलरों से भी ज्यादा क्रूर क्यों..। नेता (सत्ता) केवल अपने परिवार और अपनी भलाई में मशगूल क्यों.. जनता महंगाई, बेरोजगारी, असुरक्षा से त्रस्त क्यों..। प्रख्यात साहित्यकार पद्मश्री श्री गिरिराज किशोर कहते हैं कि 'ग्लोबलाइजेशनÓ के नाम पर हम फिर से गुलाम हुए जा रहे हैं. गांधी के विचार, उनका अर्थशास्त्र भारतीयों के अनुमूल था. उसकी तरफ किसी की नजर नहीं है. नेहरू तक ने गांधी की नहीं मानी. वर्तमान में 'मनमोहन सिंहÓ देश को न जाने किस दिशा में ले जा रहे हैं. विदेशी कम्पनियां भारत में आकर जिस तरह से निज लाभ की नीतियों और अनीतियों से काम कर रही हैं लगता है हमारा 'गणतंत्र हमारा है ही नहींÓ. गिरिराज जी शायद ठीक कह रहे हैं. 'मल्टीनेशनल्सÓ की कार गुजारियों के परिणामों में हमारी दासता स्पष्ट झलकती है. आज से तकरीबन छ: माह पहले घटी एक घटना जिसने देश ही नहीं विदेश के नागरिकों को भी सकते में डाल दिया था. दिल्ली जनकपुरी सी-२ निवासी सतनाम सिंह की मौत क्या थी? घटनाक्रम के अनुसार सतनाम सिंह एचएसबीसी बैंक के क्रेडिट कार्ड के उपभोक्ता थे. उनके कार्ड पर कोई रकम बकाया नहीं थी. परंतु बैंक के अनुसार उन पर छ: हजार रुपये का बकाया शेष था. रिकवरी एजेंटों ने फोन पर सतनाम सिंह को इतनी ज्यादा धमकियां दीं कि उन्हें हार्ट अटैक पड़ गया. जिससे उनकी तीन दिन बाद मौत हो गई. सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार उक्त बैंक का लोहा मण्डी नारायणा स्थित एक बीपीओ से वसूली कराने का अनुबंध था जिसके चलते रिकवरी एजेंट आये दिन उन्हें फोन पर भुगतान करने के लिए धमकाते थे. यहां गौर करने वाली बात यह है कि सतनाम सिंह की मौत के मामले की एक केन्द्रीय जांच एजेंसी कर रही है. पर नतीजा अभी तक सिफर है. हो भी क्यों ना. बैंक जिस बीपीओ के मार्फत वसूली कराती है उसका कार्य कराने का तरीका भी विचित्र है. रिकवरी एजेंट द्वारा जिस नंबर से उन्हें फोन किया गया था. दरअसल वह नम्बर गलत नाम व पते पर था. सतनाम सिंह के परिजनों के अनुसार उनके ऊपर जो बकाया राशि बैंक द्वारा मांगी जा रही थी वह बैंक की गलती की वजह से थी न कि सतनाम सिंह के ऊपर बकाया.ऐसे ही शहर के एक वरिष्ठ पत्रकार का किस्सा है. पत्रकार महोदय ने माल रोड स्थित स्टैण्डर्ड चार्टड बंैक से तकरीबन ५ लाख रूपया ऋण लिया था. ऋण लेते समय उन्हें बताया गया था कि वापसी करते समय उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी. ९० प्रतिशत तक ऋण कभी भी प्रीपेमेन्ट चार्ज के रूप में ६-७ सौ रुपये देकर, वापस किया जा सकता है. परन्तु अब ऋण वापस करने को वह बैक के चक्कर लगा रहे हंै परन्तु बैंक के अधिकारी नये नियमों की दुहाई देकर उन्हें ऋण पूरा चलाने एवं समय पर तय हुई किश्तों के अनुसार भुगतान करने को कह रहे हंै. बैक अधिकारियों के अनुसार रिजर्व बैंक के नियमानुसार यदि कोई व्यक्ति बैंक से ऋण लेता है तो वह कुल धन का ५ वर्ष से पहले प्रत्येक वर्ष केवल २४ प्रतिशत भाग ही जमा कर सकता है. जो कि पहले ९०प्रतिशत था. इस विषय पर जब हमने बैंक आफ बड़ौदा सीसामऊ शाखा के महाप्रंबधक ओ.पी. महेश्वरी ने बात की तो उन्होंने बताया कि सरकारी बैंकों की कार्यप्रणाली प्राइवेट बैकों की अपेक्षा कहीं ज्यादा सुविधाजनक है. प्राइवेट बैकों की तरह हमारे यहां इस तरह का का कोई भी जुर्माना नहीं वसूला जाता है. हाँ उपभोक्ता से तय समय से पहले ऋण वापस करता है तो उसे उक्त अवधि का व्याज जरूर देना होता है जितनी अवधि तक उसके पास धन जमा है. जरा सोचिए एक ही देश में दो तरह की बैंकें हैं और दोनों का दावा कि वे रिजर्व बैंक के निर्देशों के तहत काम कर रही हैं. जो विदेशी बैंक है उसे ऋण वापसी खल रही है. उसकी नियत है कि लोन धारक कर्ज में फंसा रहे और उसका घर-दुआर सब बैंक नीलाम कर दे. और जो देशी बैंक हैं वहां ऋण वापसी के लिए प्रोत्साहन है. इन विदेशी कारोबारियों के लिए छूटे वायदे कोई विदेशी नहीं कर रहे, यही भारतीय पढ़े-लिखे युवा कर रहे हैं. ठीक वैसे ही जैसे फिरंगी अफसरों के आदेश पर भारतीय सैनिक भारतीय नागरिकों पर बेंत बरसाते थे, तनख्वाह लेकर.एक घटना और. तिरंगा अगरबत्ती निदेशक नरेन्द्र शर्मा के मुताबिक आईसीआईसीआई बैंक में उनका खाता था. कुछ दिनों पश्चात उन्हें बैंक की तरफ से निशुल्क क्रेडिट जारी किये जाने की फोन पर सूचना प्राप्त हुई. कार्ड प्राप्त करने के लिए कुछ दिन पश्चात ही उन्हें रिकवरी एजेनटों के फोन आने शुरू हो गये. फोन पर उन्हें क्रेडिट कार्ड के भुगतान के लिए कहा जाने लगा. कुछ समय तक तो उन्हें कुछ समझ में नहीं आया क्योंकि उन्होंने कभी क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल ही नहीं किया. फिर उन्होंने जब इस विषय पर जानकारी प्राप्त की तो पता चला कि कार्ड के साथ-साथ उन्हें बैंक ने अपनी ओर से एक जीवन बीमा की पालिसी भी दे दी गयी है जिसका भुगतान के्रडिट कार्ड एकाउंट से स्वत: जारी है. कुल मिलाकर उन्हें ३६००० हजार रूपये का भुगतान करना पड़ा. उद्यमी नरेन्द्र शर्मा का कहना है चाहते तो वे बैंक पर केस कर सकते थे. लेकिन समय का अभाव और बैंक की तरफ से भेजे जाने वाले लुच्चों और लफंगों से बात-चीत से बेहतर यही लगा कि ३६ हजार देकर इन ठगों से मुक्ति पाओ.एक और उदाहरण के अनुसार प्रदीप गुप्ता ने एक निजी दूरसंचार सुविधा प्रदान करने वाली टेलीकाम कम्पनी का ब्रांडबैण्ड कनेक्शन लिया था. कनेक्शन तो लगा कि नहीं परन्तु वकील का बकाया का नोटिस जरूर आ गया. उन्हें कुछ समझ नहीं आया. एक सप्ताह पश्चात फिर मिला. जिसके मुताबिक उन्हें अब २.५ हजार देना था. इसके बाद कम्पनी द्वारा भुगतान कराने के लिए फोन पर कहा जाने लगा. अजीब तरह से बात होने लगी अंतत: व्यवसायी ने जो कनेक्शन इस्तेमाल ही नहीं किया उससे ८०० रूपया दण्ड भुगतान देकर किसी तरह अपना पिण्ड छुडाया. क्या यह गड़बड़ तन्त्र के विचारणीय उदाहरण नहीं हैं.1 (साथ में मुकेश तिवारी)
चौथा कोना
यह अक्षम्य अपराध है!
प्रमोद तिवारी
इधर समाचार पत्र विक्रेता बंधु की मेहरबानी से पिछले एक महीने से मैं 'आजÓ अखबार की जगह दो 'डेली डेबोलाइटÓ आई-नेक्स्टÓ और काम्पेक्ट देख रहा हूं. हालांकि आज की जगह इन दोनों अखबारों की मांग मेरी नहीं है. कड़कती ठंड में अलस सुबह उठकर समाचार पत्र विक्रेता बंधु से 'आजÓ की जगह इन दो अखबारों को जबरिया पढ़वाने की वजह क्या है, पूछ भी नहीं पाया हूं. हालांकि मालूम है कि ये कलाकारी 'निषाद बाबूÓ (मेरे अखबार दाता) की है जो उन्होंने वर्तमान में चल रहे सरकुलेशन वार में अपने फायदे के लिए मेरे सर मढ़ी है. हो सकता है आपके यहां भी आपकी बिना मर्जी के कोई अखबार आ रहा हो या कोई अखबार आपकी मर्जी के बावजूद आ न पा रहा हो. ऐसा इस शहर में होता रहता है. इस बार चौथे कोने का यह विषय है, यह तो केवल भूमिका है. बात कहने के लिए बानक बनाया जा रहा है. बात करनी है शहर से निकलने वाले एक मनोरंजक अखबार की जिसे 'आई नेक्स्टÓ के नाम से जाना जाता है. मुझे इस अखबार से एक बेहद गंभीर शिकायत है. और यह शिकायत है इस अखबार का 'भाषाओंÓ के साथ किये जाने वाले अत्याचार बल्कि इससे भी बढ़कर बलात्कार...! इस अखबार के रूप-स्वरूप के नीति नियंताओं को मैं क्या कहूं जिन्होंने इस अखबार को 'हिन्दीÓ का कब्रस्तान बना दिया है. पूरा अखबार जिस भाषा में लिखा जाता है वह कोई भाषा ही नहीं है और अगर यह कोई भाषा है तो शहर में मौजूद हिन्दी, अंग्रेजी के विद्वान मुंह खोलकर सामने आए. या तो वे मेरी और मुझ जैसे जड़ बुद्घि वालों को समझाएं कि बदलते भारत की युवा भाषा यही हकलाती भाषा है या फिर युवा पीढ़ी को भाषा के संस्कार, उसकी शुचिता और समृद्घता का महत्व समझाएं और 'आई नेक्स्टÓ जैसे कचरे को किसी भी लालच में पारायण का विषय न बनाएं. अगर 'जागरणÓ के दबाव में हिन्दी के विद्वान व प्रेमी 'मातृ भाषाÓ के साथ दुराचार पर विरोध नहीं जता पा रहे तो आने वाला समय इन्हें भी माफ नहीं करेगा. वैसे 'जागरणÓ परिवार को व्यवसायिकता की दौड़ में यह नहीं भूलना चाहिए कि भाषा समाचार पत्र का ही नहीं बल्कि समाज का मूल ढांचा होता है. इसे बचाने का व्यवसाय है. अखबार बाजी न कि तहस-नहस करने का.मैंने आई नेक्स्ट पढ़ा तो यह भी पढ़ा 'फॉग की पोजीशन न बदलने की स्थित में लेट हो रही ट्रेनों का रीजन उनकी स्पीड का कम होना है.Óअब बताइये, इसी परिवार में कभी एक साधारण पत्रकार की भूमिका निभाते हुए मैंने 'वर्तनीÓ के उल्लंघन, गलत शब्दों के इस्तेमाल और अध कचरी अभिव्यक्ति के कारण कई बार लिखित क्षमा-याचना की है. समझ नहीं पाता कि ज्ञान अखबार में शब्दों के 'गलतÓ लिखने व छपने पर बाकायदा आर्थिक दण्ड का विधान रहा हो उसी अखबार के जन्म दाताओं ने भाषा को भोंथरी बनाने के लिए अलग से अखबार निकाल डाला. वे युवा जो न शुद्घ बोलते हैं, न शुद्घ लिखते हैं और न ही शुद्घ लिखने व बोलने की अहमियत समझते उन्हें यह अखबार गलत संस्कारों वाली भाषा के प्रति विश्वास की प्रेरणा देता है. यह अक्षम्य अपराध है.1
खरी बात
भ्रष्ट गोबर के कीड़े
प्रमोद तिवारी
पार्षदों ने फिर से अपना असली चेहरा शहर को दिखाया है. दल चाहें कोई हो विधान परिषद के चुनाव में चुने हुए प्रतिनिधियों ने एक प्रतिनिधि को चुनने के बदले खुले आम पैसे लिये. २६ जनवरी के सप्ताह में उद्घाटित होने वाला यह ऐसा शर्मनाक सत्य है कि इसके बाद स्थानीय निकाय जैसी गणतांत्रिक संस्था भिण्डी बाजार से ज्यादा कुछ नहीं. कानपुर में सभासदों या पार्षदों के बिकने का कोई यह नया चलन नहीं है. आज के कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल जब पहली बार १९८९में शहर के मेयर (नगर प्रमुख) बने थे उस चुनाव में जनता सीधे वोट की हकदार नहीं थी. नगर प्रमुख का चुनाव निर्वाचित सभासदों को करना था. याद आता है वह चुनाव..! सभासद बिकने के लिए दर-दर भटक रहे थे. लगभग १००२ सभासदों वाले सदन में ९० फीसदी से ज्यादा सभासदों ने अपना वोट पैसे लेकर दिया था.उस चुनाव में केवल भाजपा ने टिकट बांटे थे इसलिए किसी अन्य दल का निर्वाचित सभासद पर कोई दबाव भी नहीं था. भिण्डी बाजार का आलम यह था कि जने भिण्डी नहीं था वह भी भिण्डी बनने को आमादा था. अर्थात् भाजपा के सभासदों तक ने भाजपा को ही वोट देने के पैसे लिये थे. पैसे न मिलने पर पाला बदल लिया था. जायसवाल जी इस खरीद फरोख्त वाले चुनाव में भाजपा के धन्ना सेठ प्रत्याशी ईश्वर चंद्र गुप्त पर काफी भारी पड़ गये थे. सभासदों की खरीद फरोख्त पर शहर ने बेहद घृणात्मक प्रतिक्रिया दी थी. पत्रकार, साहित्यकार व समाजसेवी स्वर्गीय प्रतीक मिश्र ने सभासदों की इस बेहयाई के खिलाफ शहर भर में थू-थू अभियान चलाया था. पूरे शहर ने उस दौर के सभासदों पर जमकर थंूका था लेकिन इन बिकाऊ प्रतिनिधियों पर कोई $फर्क नहीं पड़ा. श्रीप्रकाश जायसवाल जी ने नगर प्रमुख का पद कार्यकाल पूरा होने के पहले ही छोड़ दिया था. फलस्वरूप पुन: चुनाव हुए. इस बार सरदार महेन्द्र सिंह ने झोली खोली और एक बन फिर सभासदों से उनके वोट की कीमत पूछ डाली. महेन्द्र सिंह भी आसानी से मेयर हो गये. आपको बताएं सभासदों की खरीद-खरीद कर कांग्रेसी मेयर बनाने की सफल बाजारू रणनीति का कुशल संचालन उस समय किसी और के हाथों नहीं इन्हीं विधायक अजय कपूर के हाथों हुआ था जो आज पार्षदों के बिकने पर शहर कमेटी को लताड़ लगाने से नहीं चूक रहे. १९८९ के उस चुनाव की शहर में ही नहीं पूरे प्रदेश में जबरदस्त थू-थू हुई थी. इसी चुनाव के बाद से मेयर (नगर प्रमुख) का चुनाव सीधे जनता से हो गया था. मेयर जब जनता से सीधे-सीधे चुना जाने लगा तो खरीद फरोख्त का कोई मौका बना नहीं..फिर निर्वाचित सभासदों ने शहर विकास मद में अपना शेयर लगा लिया. ठेकेदारों से कमीशन खा-खाकर शहर की नागरिक सुविधाओं की बखिया उधेड़ दी. वर्ष दो हजार पांच में जब अनिल शर्मा कानपुर के मेयर थे हेलो कानपुर ने नगर निगम सदन के सभी सदस्यों की कारगुजारी पर एक व्यापक अध्यन कराया था. उस अध्यन का निष्कर्ष चौंकाने वाला था. लगभग १०० सभासदों में से ८५ से ऊपर सभासद ऐसे थे जो खुद या फिर छद्म नामों से सीधे-सीधे नगर निगम की ठेकेदारी में लिप्त थे. नब्बे के दशक में जब लगभग ढाई दशक बाद स्थानीय निकाय व पंचायती राज की बहाली हुई थी तो सभी को उम्मीद जागी थी कि सभासद, ग्राम प्रधान, नगर पालिका अध्यक्ष, नगर प्रमुख व मेयर आदि के अस्तित्व में आ जाने से अब आम जनता के जीवन से सीधे जुड़ी सुविधाओं में सहजता आयेगी. लेकिन दुर्भाग्य जब तक स्थानीय निकाय व पंचायती राज की बहाली हुई कानपुर नगर व देहात के पानी में राजनीतिक भ्रष्ट आचरण अमृत की तरह धुल चुका था. केवल दो दशकों के दरमियान शहर की राजनीति ने बेहयाई की जो करवट बदली उससे शहर हित में किसी संजीदा परिणाम की उम्मीद करना बेमानी है.अंत में आपको एक बात और बता दूं कि केवल पार्षद या ग्राम प्रधान ही बिकाऊ या भ्रष्ट नहीं है. इन्हें जो लोग पैसा देकर एमपी, मेयर या चेयरमैन बनते हैं वे भी इसी बिकाऊ और भ्रष्ट गोबर के कीड़े हैं. कुल मिलाकर कवि रामेन्द्र त्रिपाठी की बात सही है..राजनीति की मण्डी बड़ी नशीली है, इस मण्डी में सबने मदिरा पीली है.1

सी.ओ.खाता है...

पिछले हफ्ते एक खबर आंखों के नीचे से निकली. उसमें एक सी.ओ. साहब के होटल में खाने और भुगतान मांगने पर गुल्लक साथ ले जाने का विस्तृत वर्णन किया गया था. इस न्यूज का मुझ पर कोई असर नही पड़ा. आखिर आज के जमाने में खाता कौन नहीं है? बगैर दांत वालों की बात जुदा है. ये वो लोग हैं जहाँखाने का कोई जुगाड़ नहीं है. पुलिस के लोग तो जमाने से जीव खाने के लिए ही बने हैं, बिना खाये कोई रह भी नहीं सकता है. खाने के मामले में अपने शहर के केसा वाले अवस्थी जी ने कमाल कर दिया. बाबू होकर भी चीफ इंजीनियर की तरह खाया. हाँ यहां एक बात लिखने लायक जरूर है, कुछ लोगों को खाने का असर नहीें होता है. खाने के साथ चप-चप और चपड़-चपड़ की ध्वनियां निकालते हैं. बस यही लोग पकड़े जाते, खाने वाले जब-जब, खुदा गवाह है और इतिहास भी हमेशा पिलाकर रहे हैं सेल्स टैक्स आफिस के बगल वाला एक इंजीनियर ऐसे ही बच गया और आज भी उसी कुर्सी पे घरा हुआ है. अब इस समय खूब चबा-चबा के खा रहा है. जिससे बदहजमी भी न हो. अभी हाल में एक नेता जी ने बजट का साठ फीसदी अपने पेट में रख लिया. अब फूला हुआ पेट लिये सीबीआई के इर्द-गिर्द चक्कर खा रहे हंै. अब जमाना बहुत बदल गया है रेलगाडिय़ां आदमी खा रही हैं लेकिन आदमी रेलगाड़ी नहीं खा सकता. दरअसल खाने का अपना अलग मनोविज्ञान है. कुछ लोग दाल में नमक खाते हैं तो कुछ नमक में दाल. जब दाल थाली से बाहर चल रही हो तो केवल नमक खाना मजबूरी है. वैसे भी नमक से नमक नहीं खाया जा सकता. सी.ओ. साहब गुल्लक अपने साथ इसलिए ले गये कि खाने के बाद नकद दक्षिणा देने का पुराना दस्तूर है. होटल मालिक संस्कारी हंै. इसके लिये सी.ओ साहब बेचारे क्या कर सकते हैं?पत्नी (पति से) तुम मुझे कितना प्यार करते हो.पति-शाहजहां जितना.पत्नी-मेरे मरने के बाद ताजमहल बनवा देना. पति-मैने प्लाट खरीद लिया है, देरी तो तुम कर रही हो.1

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010



चिंता बनती है तनाव का कारण


हम तनाव के बारे में बहुत कम जानते हैं. हम समझते हैं कि जब कोई ऐसी घटना हो जाये जो हमारी चिन्ता का कारण बने तभी तनाव होता है. ऐसा नहीं है तनाव के कारण अनेक जिनके बारे में हमें कभी भी सोंचा नहीं. हमें एहसास भी नहीं होता कि हम तनाव में हंै परन्तु हम शक्कर, कैफीन, शराब लेते रहते है मस्तिष्क को तनाव मुक्त या शान्त रखने को. हमारे मस्तिष्क को कुछ खुशी देने वाली द्रव्य या तत्व है जैसे सैरोहिनीन, नौरऐड्रेनलीन एवं डीपामी न कुछ तत्व दुखी करने वाले हैं साधरणत: हमारे स्नायु केन्द्र दन दोनो सन्देह वाहको में संतुलन बनाये रहते हैं परन्तु तनाव की स्थिति में यह सतुंलन बिगड़ जाता है. शक्कर ,कैफीन, शराब इत्यादि का सेवन इस संतुलन को कुछ समय तक बनाये रहता ह.ै कैफीन चाकलेट, सोडा एवं चाय में भी होती है. सिगरेट, तम्बाकू एवं सूंघने वाली तम्बाकू में निकोटीन होती है वह भी ऐसा ही करती है कई प्रकार की आइसक्रीम में भी शक्कर, कैफीन एवं शराब होती है. केक में भी ऐसा करते हैं. कर्द दवायें मारीजुआना, कोकेन, एमफैटमीन, ऐव हीरोइन भी ऐसा करती ह.ै ऐड्रेनलीन की मात्रा बढ़ाने के लिए परन्तु इनका एक बार सेवन करने की इच्छा पैदा करता है. परन्तु इनसे शक्कर की मात्रा कम होने लगती है और आपको थकान, दर्द एवं अन्य बीमारियाँ घेरने लगती हंै. इनके सेवन शरीर के अंगो को हानि पहुंचा कर नष्ट क रने लगता है. हमको शुरू में यह खुशी देते हैं परन्तु शीघ्र ही अवसाद या अच्छा न लगना-तनाव का कारण, किसी अवसाद या अच्छा न लगना-तनाव का कारण किसी प्रिय कर मृत्यु ,मासिक धर्म का बन्द होना, व्यसक होने की प्रक्रिया विवाह, गर्भधारण, नौकरी से निकाला जाना या रिटायर होना. घर को पुन: बनाना अधिकारी या बच्चों की समस्या, व्यक्तिगत आदतों में बदलाव जैसे खाने में धूम्रपान छोडऩे या कम घंटे सोने से भी तनाव होता है. बहुत गर्मी, बहुत ऊंचाई या ठंडक, प्रदूषण, अन्य व्यक्ति का धूम्रपान, छुट्टियाँ, पार्टियाँ एवं पारवरिक जमघट भी तनाव पैदा करता है. तनाव की मात्रा का पैमाना होम्स एंव राहे ने सोशल रीएड जस्टिमेन्ट रेटिंग दिया है. यह ५ से १०० तक हो सकता है.1


स्वास्थ्य की सुरक्षा चाहिए तभी देश सुरक्षित रहेगा


यह तो केवल एक पहलू है जो अधूरा है. विश्व में हथियारों का व्यापार सबसे बड़ा है उसके बाद खाद्य पदार्थोंका. क्यों कि इनके द्वारा ही विकसित देश अपने को सुरक्षित रख सकते हैं. हमारी सेना देश को सुरक्षित रख सकती है यदि उसका एक ठोस आधार है. वह आधार है खेती बाड़ी की सुरक्षा, शिक्षा की सुरक्षा और स्वास्थ्य की सुरक्षा, शिक्षा की सुरक्षा और स्वास्थ्य की सुरक्षा. इन तीन सुरक्षाओं के अभाव में अपने को सुरक्षित समझना मूर्खता है. खेती की सुरक्षा के लिए बीज, पानी, बिजली अच्छी मिट्टी और कीटनाशक चाहिए. इनके न मिलने से किसान हमेशा कमजोर रहेगा कर्जदार रहेगा, आत्म हत्या करेगा हमारे खेती के साधनों पर विदेशी कम्पनियों का कब्जा रहेगा. अब भी ३० प्रतिशत बीज विदेशी कम्पनियां बेचती हैं. हमको खेती को पूर्णत: अपने ही द्वारा सुरक्षित बनाना होगा. किसान का ज्ञान उसकी आर्थिक स्थिति उच्च स्तर की हो. शिक्षा में वर्तमान में १० प्रतिशत को उत्तम श्रेणी की शिक्षा मिल रही ९० प्रतिशत को महत्वहीन शिक्षा अतएव १० प्रतिशत शासन कर रहे हैं. ९० प्रतिशत शासित है. शिक्षा का औद्योगिकीकरण होने से वह भी एक बिकने वाली चीज हो गई है. कक्षा एक के विद्यार्थी से १० हजार रुपये लेबोरेट्री की फीस ली जाती है. इंजीनियरिंग कॉलेज चिकित्सा की संस्थाओं को मान्यता धन देकर मिल रही है. इन संस्थाओं से पास होने वाले विद्यार्थियों को नौकरी और काम नहीं मिलता. दो प्रकार की शिक्षा चल रही है. एक अमीरों की निजी कॉलेजों में दूसरी गरीबों की सरकारी कॉलेजों में जहां न तो भवन है न ही शिक्षक ६से १४ वर्ष के बच्चों का अनिवार्य शिक्षा देना इन्हीं सरकारी स्कूलों में होगा वे क्या ज्ञान देंगे. ९० प्रतिशत अधूरे ज्ञान जानने वाले नागरिक बनेंगे. शिक्षा तो एक ही प्रणाली से प्रत्येक अमीर और गरीब बच्चे को मिलना चाहिए यह है शिक्षा सुरक्षा. स्वास्थ्य के क्षेत्र में कितना भ्रष्टाचार है चिकित्सकों का मुख्य उद्देश्य धन कमाना अधिक से अधिक जांचें कराकर रोगी की जेब खाली कराना आम बात है. हमारे डॉक्टर विकसित देश चले जाते हैं आज भी अच्छी संस्थाएं ट्रस्ट द्वारा बिना लाभ के चलाई जा रही है. देश के खेती की शिक्षा की, स्वास्थ्य की सुरक्षा चाहिए तभी देश सुरक्षित रहेगा. यदि इनमें सुधार न हुआ तो अगले १०-१५ वर्ष में गृह युद्ध की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है.1 (लेखक पूर्व स्वास्थ्य निदेशक हैं)

शपथ लेकर संविधान का उल्लंघन
अनुराग अवस्थी 'मार्शलÓ
शरद पवार कृषि उत्पादों के बढ़ते दामों पर नियंत्रण करने के बजाय क्रिकेट सेलेक्शन में मस्त रहते हैं. ममता रेल सुरक्षा के उपायों पर ध्यान लगाने के बजाय पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों को उखाड़ फेंकने के अभियान में लगी है. पूरी की पूरी उत्तर प्रदेश सरकार प्रदेश को बाबा साहब के भरोसे छोड़कर दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश में हाथी को मजबूत करने के लिए महीनों गायब रहती है. यह सब उस जनता जनार्दन की कीमत पर जिसके प्रति यह जिम्मेदार है, फिर तो जिन्होंने इन्हें वोट दिया है उन्हें संविधान की शपथ लेकर साठ साल के हो चुके गणतंत्र पर संविधान की धज्जियां उड़ाने के इस अभियान पर रोक लगाने की आवाज उठानी ही पड़ेगी.
दो हजार दस की जनवरी का पहला पखवाड़ा एक दो नहीं चार बड़ी रेल दुर्घटनाओं के लिए याद किया जायेगा. इन दुर्घटनाओं में दर्जनों जानें गईं. करोड़ों का नुकसान हुआ और सैकड़ों हताहत हुए. इसी के साथ अपने को संसार की बड़ी रेल लाइनों और मुनाफा कमाने वाले चंद सरकारी संस्थानों में से एक भारतीय रेल से आम यात्री का विश्वास और कम हुआ.फिर एक जांच अधिकारी चंद निलंबन, कुछ लाख का मुआवजा, रेलवे के नुकसान की आंकड़ेबाजीे और फिर ट्रेन भी ट्रैक पर और जिन्दगी भी. कुछ नहीं मालूम कि नई दुर्घटना कब, कहां और कैसे हो जायेगी.मशीन और मानक दोनों कभी भी भूल कर सकते हैं, इसीलिए यह दावा कोई नहीं कर सकता कि ऐसा करने से शत् प्रतिशत दुर्घटनायें रुक जायेंगी लेकिन जब दुर्घटनाओं के साथ यह खबरें आती हैं कि--कोंकण रेलवे ट्रेन दुर्घंटना से बचने के लिए सुरक्षात्मक प्रणाली का उपयोग पहले से कर रहा है.-आईआईटी कानपुर एक वर्ष जीएसपीएम सिस्टम रेलवे को दे चुका है.-खराब पुर्जे और कमीशनबाजी भी है दुर्घटनाओं की जिम्मेदार आदि-आदि...तब मन यह सोंचने को मजबूर हो जाता है कि आखिर क्या कर रही है हमारी व्यवस्था? क्यों इसमें जंग लग रही है? क्या करते हैं प्रशासन के शीर्ष पर बैठे मंत्री गण?बात अगर केवल रेल मंत्रियों की ही ले ली जाये तो पिछले पन्द्रह सालों का उदाहरण हमारे सामने है. संविधान की सच्ची श्रद्घा, पूर्ण निष्ठा और लगन से अपने कत्र्तव्यों का पालन करूंगा कि शपथ लेने वाले मंत्रियों ने अपने मंत्रालय के काम को पूरी ईमानदारी और निष्ठा से करने के बजाय व्यक्तिगत स्वार्थों, राजनैतिक हितों,जातीय अहं और दलीय पंचायतों के दायरे से बाहर निकले बगैर किया है. हमारा यहां उद्देश्य रेल मंत्रालय और उसके मंत्रियों के ऊपर जातिवाद, भ्रष्टाचार, भर्ती घोटोले, फर्जी आंकड़ेबाजी की ओर ध्यान खींचना नहीं है. इसकी खबरें अखबारों और चैनलों में न केवल समय-समय पर आती रहती है. बल्कि इससे निपटने के लिए हमारे पास कानून भी है (भोंथरे ही सही). पिछले पंद्रह वर्षों के रेलवे के कामों की समीक्षा कर ली जाये तो शायद यह साफ हो जायेगा कि दिल्ली में भारत सरकार का कोई रेल मंत्री था ही नहीं. पहले नीतीश फिर लालू और अब ममता.लालू और नीतीश ने जितने दौरे सारे भारत के विभिन्न प्रान्तों के लिए किये होंगे उससे कई गुना पटना और मुजफ्फरपुर के किये और आज ममता जी, उनका रेल मुख्यालय ही दिल्ली के बजाय कलकत्ता पहुंच गया है. मतलब साफ है पहले नीतीश भारतीय करदाताओं के पैसे से चलने वाली रेल को ट्रैक पर दु्रतगामी, सुविधाजनक, सुरक्षित और समय पर चलाने के बजाय उसे बिहार में लालू सरकार को कमजोर करने के लिए जनता दल (यू) रथ के रूप में हांक रहे थे. फिर लालू ने नीतीश सरकार को कमजोर करने और राष्ट्रीय जनता दल का झण्डा बिहार में मजबूत करने के लिए तेल पिलापन लाठी चलावन रैली के लिए भारतीय रेल को चलाया. आज ममता जी पूरी ईमानदारी से यही काम कलकत्ता में कर रही है. पूरी निर्ममता के साथ ममता की ट्रेन प०बंगाल में सीपीएम की छाती पर तृणमूल कांग्रेस का झण्डा गाड़ती घूम रही है.क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि पिछले पन्द्रह सालों से भारतीय रेल भारत के विकास का पहिया बनने के बजाय राजनैतिक नेताओं का एक क्रांति रथ है, जिस पर संविधान की शपथ लेकर बैठने वाले ने अपना झण्डा लगा दिया और हांक दिया अपने ग्रह राज्य की ओर. ऐसा नहीं है कि उससे पहले यह काम नहीं हो रहा था.लेकिन इतनी बेहयाई और बेशर्मी के साथ नहीं. ऐसा भी नहीं है कि रेल के अलावा यह काम किसी और मंत्रालय में नहीं हुआ. लेकिन बढ़ती रेल दुर्घटनाओं और जनसामान्य के रोजमर्रा से जुड़ी होने के कारण हम पहले रेल की बात कर रहे हैं. अब जब रेलमंत्री, रेलमंत्री कम, जनतादल यू अध्यक्ष, राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष या तणमूण कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में गाड़ी चलायेगा तो वही होगा जो हो रहा है. वह भी राष्ट्रीय अध्यक्ष एक शुद्घ प्रादेशिक पार्टी का. फिर न तो उसकी पार्टी राष्ट्रीय होगी और न रेल भारतीयों की जरूरत के हिसाब से कोने-कोने तक जा पायेगी. इसीलिए आज तक इटावा से भिण्ड तक ट्रैक नहीं बिछ पाया, ऐतिहासिक महत्व की बिठूर रेल लाइन का आमान परिवर्तन नहीं शुरू हो सका है. लाइन पड़ जाने के बाद भी मथुरा कासगंज लाइन उद्घाटन का इंतजार कर रही है. देश के जाने कितने हिस्सों में रेल कारखाने खुलने और चालू होने का इंतजार कर रहे हैं. अरबों रुपयों की रेलवे की जमीनों पर अवैध कब्जे हो रहे हैं. रेलवे सुरक्षा की दर्जनों रिपोर्टें धूल खा रही हैं. उनको पढऩे का समय किसी के पास नहीं है.'जथा राजा तथा प्रजाÓ लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि जब जनसेवक बनने के बजाय राजा की तरह अपने राज्य की भलाई में व्यस्त रहने के बजाय विरोधी राज्य पर चढ़ाई में लगा रहेगा तो प्रजा अस्त-व्यस्त और त्रस्त रहेगी ही.देश में ऐसा कोई कानून है भी नहीं जो इन्हें यह सब करने से रोके. इसलिए यह कोई गैर कानूनी काम नहीं कर रहे हैं. लेकिन उस शपथ का क्या होगा जो इन्होंने संविधान के प्रति ली है आपने कर्तव्यों के निर्वहन की. जिससे इन्होंने किसी भी क्षेत्र, जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव न करने की सौगंध खाई है.नितीश और लालू का उदाहरण हमारे सामने है. रेल ने इन्हें मुख्यमंत्री बनाया या बने रहने में मदद की. भविष्य बतायेगा कि शायद रेल मंत्री ममता प०बंगाल का मुख्यमंत्री बन जायें. यहां यह बात स्पष्ट की जानी आवश्यक है कि नितीश, लालू और ममता इनमें से किसी की भी संघर्षशीलता, नेतृत्व क्षमता और योगयता पर किसी को भी शक सुबह नहीं होगा. रेल मंत्री न बनते तो भी शायद यह अपनी नेतृत्व क्षमता या विरोधियों के कुशासन के बल पर जो चाहते बन जाते. तो फिर भारतीय संविधान की शपथ लेकर रेल को इनके हाथ का मोहरा क्यों बनने दिया जाये. भारतीय रेल को भारत के कोने-कोने तक भारत की प्रगति और विकास का पहिया ही बनाया जाये. रेल जैसा शायद ही कोई दूसरा मंत्रालय होगा इसीलिए दिल्ली में कैबिनेट गठन के समय रेल को लेकर ही सबसे ज्यादा मारामारी होती है.भारत का विदेश मंत्री, वित्तमंत्री, रक्षामंत्री चाहकर भी अपने पद, मंत्रालय और बजट का उपयोग अपने गृहराज्य में अपनी पार्टी का झण्डा गाडऩे के लिये क्षेत्र विशेष के लिए नहीं कर सकता है.क्या यह जरूरी नहीं हो गया है कि केन्द्र में मंत्री बनने के बाद विभिन्न पार्टियों के नेता अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष या प्रादेशिक अध्यक्ष का पद स्वेच्छा से त्याग दें? अपनी पार्टियों के दूसरे कर्मठ नेताओं को विरासत सौंप दें?इससे पार्टी और सरकार के बीच का अंतर भी बना रहेगा और चुनाव आयोग के नियमों के तहत पार्टियों के अंदर आन्तरिक लोकतंत्र भी वास्तविक अर्थोंमें कायम होगा.क्या केन्द्र में मंत्री बनने वाले नेताओं के लिए शोभा बढ़ाऊ , ताकत दिखाऊ , पैसा उगाऊ सस्थानों और पदों पर मनोनयन या निर्वाचन पर रोक नहीं होनी चाहिए. आखिर कितनी प्रतिभा के धनी हैं हमारे मंत्री जो एक साथ कई पदों पर रहते हुए सभी के साथ न्याय कर लेते हैं.सारे भारत में जब महंगाई से गरीब और मध्यम वर्गीय त्राहि-त्राहि कर रहे होते हैं तो हमारे कृषि मंत्री साउथ अफ्रीका में क्रिकेट देख रहे होते हैं. कृषि नीति हमारे नीति नियंता आज तक नहीं बना पाये लेकिन टेस्ट मैच, वन डे, फिफ्टी-फिफ्टी, ट्वेंटी-ट्वेंटी, आईपीएल, नाइट मैच में रोज नये-नये प्रयोग, परिवर्तन और सुधार हो रहे हैं. शरद पवार बीबीसीआई के अध्यक्ष बन जाते हैं. सीपी जोशी राजस्थान क्रिकेट, नरेन्द्र मोदी गुजरात के अरुण जेटली दिल्ली के.एक क्रिकेट तभी सचिन बन पाता है जब सौ प्रतिशत लगन, उत्साह और समय देकर वह क्रिकेट खेलता है फिर भला आधे-अधूरे मन से राजनीति से बचा-खुचा समय देकर यह लोग उस देश या प्रदेश में कैसे क्रिकेटर को मजबूत करेंगे?राजनीतिज्ञों की तर्ज पर नौकरशाह भी बढ़ चले हैं. इन सुविधा भोगियों ने विभिन्न प्रभुता सम्पन्न संस्थाओं और पदों का उपयोग अपने निजी हितों के लिये कर अपार धन पैदा किया है. बल्कि संस्थाओं का बेेड़ा गर्क किया है. नैतिकता की उम्मीद इनसे करना बेकार है. राजनैतिक लोगों के मन, वचन और कर्म सत्ता में आने तक दूसरे और सत्ता में आने के बाद तीसरे हो जाते हैं. उम्मीद अब न्याय पालिका से है.सुप्रीम कोर्ट जब माया सरकार के इन तर्कों को खारिज कर समीक्षा कर सकता है कि कैबिनेट द्वारा पास किये गये बजट के बाद पार्क और मूर्ति निर्माण कराना तर्क संगत या न्याय संगत नहीं है तो इसकी समीक्षा क्यों नहीे होनी चाहिए कि हमारे मंत्रीगण संविधान की शपथ लेकर हमारे पैसों की मोटी तनख्वाह लेकर अपने मंत्रालय का कामकाज पूरी जिम्मेदारी और ईमानदारी से देखने के बजाय अपनी पार्टी को मजबूत करने, क्रिके टिया, राजनीति करने या विदेशों में घूमने में व्यस्त रहते हैं. महीनों अपने मंत्रालय नहीं जाते हैं. फाइलें नहीं देखते हैं, पुराने जांच आयोगों की रिपोर्टों को देखकर यात्रियों या नागरिकों की सुरक्षा के इंतजामात नहीं करते हैं.1

मिशन २०१२

बिक गई कांग्रेस

विशेष संवाददाता

राहुल बाबा के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी मिशन २ हजार १२ पर निकली है. मिशन २ हजार १२ उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की पूर्ण बहुमत की सरकार बनाना है. अभी बीते वर्ष के अंतिम चरण में राहुल गांधी कानपुर आये थे और युवा कांग्रेसियों से मिलकर उन्होंने प्रदेश में कांग्रेस की वापसी की जुगत बताई थी. इसी क्रम में प्रदेश में आधारहीन हो चुकी कांग्रेस में दम भरने के लिए कांग्रेस का प्राथमिक सदस्यता का अप्रितम अभियान जोर-शोर से चला और खबर आई कि कानपुर शहर व देहात से हजारों की संख्या में युवाओं और प्रौढ़ों ने कांग्रेस की सदस्यता ली है. लेकिन मिशन २ हजार १२ का २ हजार १० में जैसा आगाज हुआ है उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस के लिये दिल्ली भले आसान हो लेकिन लखनऊ फतह अभी भी टेढ़ी खीर ही रहेगी. लखनऊ फतह की बात छोडि़ए, कानपुर के लोकतांत्रिक व गणतांत्रिक कांग्रेसियों ने तो १० से २० हजार में अपने-अपने दल की लोकतांत्रिक ताकत (वोट) को बेच डाला. बीते विधान परिषद के चुनाव में कानपुर-फतेहपुर स्थानीय प्राधिकार क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी नरेश उमराव को केवल ८ वोट मिले. इसका सीधा सा अभिप्राय है कि ४२ वोटों की ताकत वाली कांग्रेस के ३४ सिपहसलारों ने अपने प्रत्याशी को वोट नहीं दिये. विधान परिषद के लिए शहर में कांग्रेस व कांग्रेस नीति समर्थक वोटरों में विधायक, सांसद, एमएलसी व सभासद गण शामिल थे. केन्द्रीय कोयला राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल वोट डालने नहीं आये. शहर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष महेश दीक्षित ने बताया कि कोहरे के कारण उड़ानें रद्द हो जाने के कारण मंत्री जी हवाई अड्डे पर ही फंसे रहे. बाकी ४१ वोटों में दो विधायक अजय कपूर और संजीव दरियावादी हैं. नागेन्द्र स्वरूप की 'कांग्रेसीÓ ही माने जाते हैं. बचे राजाराम पाल तो इन सभी से उम्मीद ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास किया जा सकता है कि ये लोग कम से कम १० से २० हजार के लालच में बसपाई नहीं ही हुए होंगे. इस तरह कुल आठ में ये चार वोट तो खुले वोट हैं बाकी दो सभासदों शरद त्रिवेदी और शमीम अहमद ने अपने मोबाइल पर अपनी कांग्रेसी निष्ठा 'सेवÓ कर रखी जिसे पत्रकारों के सामने दिखाया भी गया. इस तरह शेष बचे ३९ सभासदों में केवल दो ने ही कांग्रेस को वोट दिया है बाकी सब बिक गये.