बुधवार, 3 फ़रवरी 2010


गड़ बड़ तन्त्र

प्रमोद तिवारी

अंग्रेज जब भारत आये थे तो पूरा इग्लैण्ड अपने साथ लेकर नहीं आये थे. कुल जमा तीन सौ गोरे व्यापारियों ने टुकड़ों में बंटे टुकड़ खोर राजाओं और नवाबों को तियां-बियां करके तीन सौ बरस तक हमें अपना गुलाम बनाये रखा. फिरंगी आये थे व्यापार करने करने लगे राज. सवाल उठता है कि २५ से ३० करोड़ लोगों पर तीन सौ लोग आखिर शासन करते कैसे रहे? तो अंग्रेजों ने हमें (चाहे हम राजा रहे हों या प्रजा,) पैसे, प्रलोभन, उपहार और मादक कमजोरियों से तोड़ा और फिर हमारी पीठ पर हम से ही कोड़े बरसवाये. जिन लोगों ने हम पर लाठियां बरसाईं, जुल्म ढाये, गोलियां चलाईं वे गोरे नहीं थे, गोरे तो आदेशक थे. बस! यहीं से हम साठ साल के हो चुके भारतीय गणतंत्र के मौके पर बताना चाहते हैं कि व्यापार फिर शुरू हो गया है, इसबार केवल गोरे ही नहीं बल्कि हर रंग के विदेशी व्यापारी देश में फैल चुके हैं और फिर से पैसे, प्रलोभन, उपहार और मादक कमजोरियों से हमें तोड़ा जा रहा है. एकबार फिर से हमारी ही पीठ पर बैठकर हमारे ही लोगों से हम पर कोड़े बरसवाये जा रहे हैं. किसी को पीड़ा हो रही है, कोई खुश है कि यह वैश्वीकरण का सुनहरा काल है तो कोई ढोल पीट रहा है कि भारत तेजी से आर्थिक विकास की मुद्रा में है. लेकिन अपन तो छोटी बुद्घि के हैं इसलिए हमें तो लग रहा है कि हम भारतीयों को एक बार फिर से घुमाकर नाक पकड़ाई जा रही है अर्थात फिर से गुलाम बनाया जा रहा है. और अगर ऐसा हो रहा है तो हमें बाबा भीमराव अम्बेडकर की उस आशंका में दम जान पड़ता है कि- किसी भी देश का संविधान कितना अच्छा क्यों न हो अगर लागू करने वाले अच्छे नहीं हैं तो संविधान भी अच्छा नहीं रहेगा. तभी तो पूर्ण संवैधानिक स्वतंत्रता के साथ हमारे देश में पूर्ण अराजकता विद्यमान है और हम बावजूद इसके पूरे जोश से १५ अगस्त भी मनाते है और २६ जनवरी भी. हेलो कानपुर आपको जीवन के छोटे-छोटे वे गुलाम क्षणों की याद दिलाएगा जो इसी गणतंत्र के रखवालों की देन हैं. जिनकी नियत फिरंगियों जैसी ही है- कि जितनी जल्दी हो इस देश को और इस देश में रहने वालों को चूस के, निचोड़ के पी जाओ. अगर ऐसा नहीं है तो भारतीय पुलिस (व्यवस्था) अंग्रेजों के जमाने के जेलरों से भी ज्यादा क्रूर क्यों..। नेता (सत्ता) केवल अपने परिवार और अपनी भलाई में मशगूल क्यों.. जनता महंगाई, बेरोजगारी, असुरक्षा से त्रस्त क्यों..। प्रख्यात साहित्यकार पद्मश्री श्री गिरिराज किशोर कहते हैं कि 'ग्लोबलाइजेशनÓ के नाम पर हम फिर से गुलाम हुए जा रहे हैं. गांधी के विचार, उनका अर्थशास्त्र भारतीयों के अनुमूल था. उसकी तरफ किसी की नजर नहीं है. नेहरू तक ने गांधी की नहीं मानी. वर्तमान में 'मनमोहन सिंहÓ देश को न जाने किस दिशा में ले जा रहे हैं. विदेशी कम्पनियां भारत में आकर जिस तरह से निज लाभ की नीतियों और अनीतियों से काम कर रही हैं लगता है हमारा 'गणतंत्र हमारा है ही नहींÓ. गिरिराज जी शायद ठीक कह रहे हैं. 'मल्टीनेशनल्सÓ की कार गुजारियों के परिणामों में हमारी दासता स्पष्ट झलकती है. आज से तकरीबन छ: माह पहले घटी एक घटना जिसने देश ही नहीं विदेश के नागरिकों को भी सकते में डाल दिया था. दिल्ली जनकपुरी सी-२ निवासी सतनाम सिंह की मौत क्या थी? घटनाक्रम के अनुसार सतनाम सिंह एचएसबीसी बैंक के क्रेडिट कार्ड के उपभोक्ता थे. उनके कार्ड पर कोई रकम बकाया नहीं थी. परंतु बैंक के अनुसार उन पर छ: हजार रुपये का बकाया शेष था. रिकवरी एजेंटों ने फोन पर सतनाम सिंह को इतनी ज्यादा धमकियां दीं कि उन्हें हार्ट अटैक पड़ गया. जिससे उनकी तीन दिन बाद मौत हो गई. सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार उक्त बैंक का लोहा मण्डी नारायणा स्थित एक बीपीओ से वसूली कराने का अनुबंध था जिसके चलते रिकवरी एजेंट आये दिन उन्हें फोन पर भुगतान करने के लिए धमकाते थे. यहां गौर करने वाली बात यह है कि सतनाम सिंह की मौत के मामले की एक केन्द्रीय जांच एजेंसी कर रही है. पर नतीजा अभी तक सिफर है. हो भी क्यों ना. बैंक जिस बीपीओ के मार्फत वसूली कराती है उसका कार्य कराने का तरीका भी विचित्र है. रिकवरी एजेंट द्वारा जिस नंबर से उन्हें फोन किया गया था. दरअसल वह नम्बर गलत नाम व पते पर था. सतनाम सिंह के परिजनों के अनुसार उनके ऊपर जो बकाया राशि बैंक द्वारा मांगी जा रही थी वह बैंक की गलती की वजह से थी न कि सतनाम सिंह के ऊपर बकाया.ऐसे ही शहर के एक वरिष्ठ पत्रकार का किस्सा है. पत्रकार महोदय ने माल रोड स्थित स्टैण्डर्ड चार्टड बंैक से तकरीबन ५ लाख रूपया ऋण लिया था. ऋण लेते समय उन्हें बताया गया था कि वापसी करते समय उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी. ९० प्रतिशत तक ऋण कभी भी प्रीपेमेन्ट चार्ज के रूप में ६-७ सौ रुपये देकर, वापस किया जा सकता है. परन्तु अब ऋण वापस करने को वह बैक के चक्कर लगा रहे हंै परन्तु बैंक के अधिकारी नये नियमों की दुहाई देकर उन्हें ऋण पूरा चलाने एवं समय पर तय हुई किश्तों के अनुसार भुगतान करने को कह रहे हंै. बैक अधिकारियों के अनुसार रिजर्व बैंक के नियमानुसार यदि कोई व्यक्ति बैंक से ऋण लेता है तो वह कुल धन का ५ वर्ष से पहले प्रत्येक वर्ष केवल २४ प्रतिशत भाग ही जमा कर सकता है. जो कि पहले ९०प्रतिशत था. इस विषय पर जब हमने बैंक आफ बड़ौदा सीसामऊ शाखा के महाप्रंबधक ओ.पी. महेश्वरी ने बात की तो उन्होंने बताया कि सरकारी बैंकों की कार्यप्रणाली प्राइवेट बैकों की अपेक्षा कहीं ज्यादा सुविधाजनक है. प्राइवेट बैकों की तरह हमारे यहां इस तरह का का कोई भी जुर्माना नहीं वसूला जाता है. हाँ उपभोक्ता से तय समय से पहले ऋण वापस करता है तो उसे उक्त अवधि का व्याज जरूर देना होता है जितनी अवधि तक उसके पास धन जमा है. जरा सोचिए एक ही देश में दो तरह की बैंकें हैं और दोनों का दावा कि वे रिजर्व बैंक के निर्देशों के तहत काम कर रही हैं. जो विदेशी बैंक है उसे ऋण वापसी खल रही है. उसकी नियत है कि लोन धारक कर्ज में फंसा रहे और उसका घर-दुआर सब बैंक नीलाम कर दे. और जो देशी बैंक हैं वहां ऋण वापसी के लिए प्रोत्साहन है. इन विदेशी कारोबारियों के लिए छूटे वायदे कोई विदेशी नहीं कर रहे, यही भारतीय पढ़े-लिखे युवा कर रहे हैं. ठीक वैसे ही जैसे फिरंगी अफसरों के आदेश पर भारतीय सैनिक भारतीय नागरिकों पर बेंत बरसाते थे, तनख्वाह लेकर.एक घटना और. तिरंगा अगरबत्ती निदेशक नरेन्द्र शर्मा के मुताबिक आईसीआईसीआई बैंक में उनका खाता था. कुछ दिनों पश्चात उन्हें बैंक की तरफ से निशुल्क क्रेडिट जारी किये जाने की फोन पर सूचना प्राप्त हुई. कार्ड प्राप्त करने के लिए कुछ दिन पश्चात ही उन्हें रिकवरी एजेनटों के फोन आने शुरू हो गये. फोन पर उन्हें क्रेडिट कार्ड के भुगतान के लिए कहा जाने लगा. कुछ समय तक तो उन्हें कुछ समझ में नहीं आया क्योंकि उन्होंने कभी क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल ही नहीं किया. फिर उन्होंने जब इस विषय पर जानकारी प्राप्त की तो पता चला कि कार्ड के साथ-साथ उन्हें बैंक ने अपनी ओर से एक जीवन बीमा की पालिसी भी दे दी गयी है जिसका भुगतान के्रडिट कार्ड एकाउंट से स्वत: जारी है. कुल मिलाकर उन्हें ३६००० हजार रूपये का भुगतान करना पड़ा. उद्यमी नरेन्द्र शर्मा का कहना है चाहते तो वे बैंक पर केस कर सकते थे. लेकिन समय का अभाव और बैंक की तरफ से भेजे जाने वाले लुच्चों और लफंगों से बात-चीत से बेहतर यही लगा कि ३६ हजार देकर इन ठगों से मुक्ति पाओ.एक और उदाहरण के अनुसार प्रदीप गुप्ता ने एक निजी दूरसंचार सुविधा प्रदान करने वाली टेलीकाम कम्पनी का ब्रांडबैण्ड कनेक्शन लिया था. कनेक्शन तो लगा कि नहीं परन्तु वकील का बकाया का नोटिस जरूर आ गया. उन्हें कुछ समझ नहीं आया. एक सप्ताह पश्चात फिर मिला. जिसके मुताबिक उन्हें अब २.५ हजार देना था. इसके बाद कम्पनी द्वारा भुगतान कराने के लिए फोन पर कहा जाने लगा. अजीब तरह से बात होने लगी अंतत: व्यवसायी ने जो कनेक्शन इस्तेमाल ही नहीं किया उससे ८०० रूपया दण्ड भुगतान देकर किसी तरह अपना पिण्ड छुडाया. क्या यह गड़बड़ तन्त्र के विचारणीय उदाहरण नहीं हैं.1 (साथ में मुकेश तिवारी)

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