बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

चौथा कोना
यह अक्षम्य अपराध है!
प्रमोद तिवारी
इधर समाचार पत्र विक्रेता बंधु की मेहरबानी से पिछले एक महीने से मैं 'आजÓ अखबार की जगह दो 'डेली डेबोलाइटÓ आई-नेक्स्टÓ और काम्पेक्ट देख रहा हूं. हालांकि आज की जगह इन दोनों अखबारों की मांग मेरी नहीं है. कड़कती ठंड में अलस सुबह उठकर समाचार पत्र विक्रेता बंधु से 'आजÓ की जगह इन दो अखबारों को जबरिया पढ़वाने की वजह क्या है, पूछ भी नहीं पाया हूं. हालांकि मालूम है कि ये कलाकारी 'निषाद बाबूÓ (मेरे अखबार दाता) की है जो उन्होंने वर्तमान में चल रहे सरकुलेशन वार में अपने फायदे के लिए मेरे सर मढ़ी है. हो सकता है आपके यहां भी आपकी बिना मर्जी के कोई अखबार आ रहा हो या कोई अखबार आपकी मर्जी के बावजूद आ न पा रहा हो. ऐसा इस शहर में होता रहता है. इस बार चौथे कोने का यह विषय है, यह तो केवल भूमिका है. बात कहने के लिए बानक बनाया जा रहा है. बात करनी है शहर से निकलने वाले एक मनोरंजक अखबार की जिसे 'आई नेक्स्टÓ के नाम से जाना जाता है. मुझे इस अखबार से एक बेहद गंभीर शिकायत है. और यह शिकायत है इस अखबार का 'भाषाओंÓ के साथ किये जाने वाले अत्याचार बल्कि इससे भी बढ़कर बलात्कार...! इस अखबार के रूप-स्वरूप के नीति नियंताओं को मैं क्या कहूं जिन्होंने इस अखबार को 'हिन्दीÓ का कब्रस्तान बना दिया है. पूरा अखबार जिस भाषा में लिखा जाता है वह कोई भाषा ही नहीं है और अगर यह कोई भाषा है तो शहर में मौजूद हिन्दी, अंग्रेजी के विद्वान मुंह खोलकर सामने आए. या तो वे मेरी और मुझ जैसे जड़ बुद्घि वालों को समझाएं कि बदलते भारत की युवा भाषा यही हकलाती भाषा है या फिर युवा पीढ़ी को भाषा के संस्कार, उसकी शुचिता और समृद्घता का महत्व समझाएं और 'आई नेक्स्टÓ जैसे कचरे को किसी भी लालच में पारायण का विषय न बनाएं. अगर 'जागरणÓ के दबाव में हिन्दी के विद्वान व प्रेमी 'मातृ भाषाÓ के साथ दुराचार पर विरोध नहीं जता पा रहे तो आने वाला समय इन्हें भी माफ नहीं करेगा. वैसे 'जागरणÓ परिवार को व्यवसायिकता की दौड़ में यह नहीं भूलना चाहिए कि भाषा समाचार पत्र का ही नहीं बल्कि समाज का मूल ढांचा होता है. इसे बचाने का व्यवसाय है. अखबार बाजी न कि तहस-नहस करने का.मैंने आई नेक्स्ट पढ़ा तो यह भी पढ़ा 'फॉग की पोजीशन न बदलने की स्थित में लेट हो रही ट्रेनों का रीजन उनकी स्पीड का कम होना है.Óअब बताइये, इसी परिवार में कभी एक साधारण पत्रकार की भूमिका निभाते हुए मैंने 'वर्तनीÓ के उल्लंघन, गलत शब्दों के इस्तेमाल और अध कचरी अभिव्यक्ति के कारण कई बार लिखित क्षमा-याचना की है. समझ नहीं पाता कि ज्ञान अखबार में शब्दों के 'गलतÓ लिखने व छपने पर बाकायदा आर्थिक दण्ड का विधान रहा हो उसी अखबार के जन्म दाताओं ने भाषा को भोंथरी बनाने के लिए अलग से अखबार निकाल डाला. वे युवा जो न शुद्घ बोलते हैं, न शुद्घ लिखते हैं और न ही शुद्घ लिखने व बोलने की अहमियत समझते उन्हें यह अखबार गलत संस्कारों वाली भाषा के प्रति विश्वास की प्रेरणा देता है. यह अक्षम्य अपराध है.1

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