किसी भी धर्म के लिये उसका प्रतीक चिन्ह उसकी अपनी पहचान से जुड़ा होता है और इस लिये किसी भी धर्म का प्रतीक चिन्ह उसके लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। वास्तव में प्रतीक चिन्ह के माध्यम से किसी धर्म के समस्त मूल भावों को चिन्हों के माध्यम से सारांश रूप में अंकित किया जाता है और इसीलिये वह अपने धर्म की पहचान होता है।
कुछ वर्षों पहले तक जैन धर्म का कोई निश्चित प्रतीक चिन्ह नहीं था। बदलते जा रहे वैश्विक माहौल और अन्य वजहों से जैन धर्मावलम्बियों ने जैन धर्म के लिये एक प्रतीक चिन्ह की आवश्यकता महसूस की इस लिये वर्ष 1975 में 1008 भगवान महावीर स्वामी जी के 2500वें निर्वाण वर्ष अवसर पर समस्त जैन समुदायों ने जैन धर्म के प्रतीक चिह्न का एक स्वरूप बनाकर उस पर सहमति प्रकट की। यह प्रतीक चिह्न जैन धर्म और उसके सिद्धांतो का द्योतक है।
जैन प्रतीक चिह्न कई मूल भावनाओं को अपने में समाहित करता है। इस प्रतीक चिह्न का रूप जैन शास्त्रों में वर्णित तीन लोक के आकार जैसा है। इसका निचला भाग अधोलोक, बीच का भाग- मध्य लोक एवं ऊपर का भाग- उर्ध्वलोक का प्रतीक है। इसके सबसे ऊपर भाग में चंद्राकार सिद्ध शिला है। अनन्तान्त सिद्ध परमेष्ठी भगवान इस सिद्ध शिला पर अनन्त काल से अनन्त काल तक के लिए विराजमान हैं। चिह्न के निचले भाग में प्रदर्शित हाथ अभय का प्रतीक है और लोक के सभी जीवों के प्रति अहिंसा का भाव रखने का प्रतीक है। हाथ के बीच में 24 आरों वाला चक्र चौबीस तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत जिन धर्म को दर्शाता है, जिसका मूल भाव अहिंसा है,ऊपरी भाग में प्रदर्शित स्वस्तिक की चार भुजाएँ चार गतियों- नरक, त्रियंच, मनुष्य एवं देव गति की द्योतक हैं। प्रत्येक संसारी प्राणी जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होना चाहता है। स्वस्तिक के ऊपर प्रदर्शित तीन बिंदु सम्यक रत्नत्रय-सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चरित्र को दर्शाते हैं और संदेश देते हैं कि सम्यक रत्नत्रय के बिना प्राणी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता है। सम्यक रत्नत्रय की उपलब्धता जैनागम के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के लिए परम आवश्यक है। सबसे नीचे लिखे गए सूत्र च्परस्परोपग्रहो जीवानाम्ज् का अर्थ प्रत्येक जीवन परस्पर एक दूसरे का उपकार करें, यही जीवन का लक्षण है। संक्षेप में जैन प्रतीक चिह्न संसारी प्राणी मात्र की वर्तमान दशा एवं इससे मुक्त होकर सिद्ध शिला तक पहुँचने का मार्ग दर्शाता है। प्रत्येक धर्म के दो रूप होते हैं- 1. विचार और 2. आचार। जैन धर्म के विचारों का मूल है, अनेकांत या स्याद्वाद और उसके आचार का मूल है, अहिंसा। जैन धर्म कहता है- च्अहिंसा के अधिकाधिक पालन से प्राणी मात्र को अधिकाधिक सुख मिलेगा।
अहिंसा परमो धर्म:। जैन धर्म में अहिंसा का सबसे ऊँचा स्थान है। अहिंसा की अत्यन्त सूक्ष्म व्याख्या और विवेचना की गई है। मनुष्य तो मनुष्य, किसी भी त्रस या स्थावर जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए। हमसे उठते-बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते, खाते-पीते, बोलते-चालते असंख्य जीवों की हिंसा होती रहती है। इस हिंसा से हमें भरसक बचना चाहिए। अहिंसा के विचार और कृत्य से ही स्वयं का व समस्त मानव समाज का कल्याण हो सकता है। इस लिये अहिंसा का अनवरत विचार मनुष्य के लिये बेहद आवश्यक है।1
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