शनिवार, 27 नवंबर 2010

ये बुरके वाली लड़कियां...
इसे फैशन कहा जाये, बचाव कहा जाये या मुंह चुराई..। बाइक पर पीछे बैठी लड़की, जिसका सर और मुंह उसके दुपट्टे से पूरी तरह से ढंका हुआ होता है.. दिखाई पड़ती हैं तो सिर्फ उसकी आंखें और आंखों में इधर-उधर चटक मारती चपलता. पिछले साल-दो साल से शहर में किशोर व युवा लड़कियों में मुंह ढंकने का एक चलन सा सामने आया है. लड़कियां आमतौर पर यह परदा अपनी मर्जी से कर रही हैं. क्या है लड़कियों का नजरिया और लड़कियों के इस भेष पर हम उम्र लड़कियों की टिप्पणियां..। आइये इन्हीं से पूछते हैं...।किरन शर्मा (छात्रा बीटेक)- '' मैं भी अपनी चुन्नी से मुंह ढंक लेती हूं जब-कब. सबसे पहले मैंने तेज धूप व लू से बचने के लिये ऐसा किया था. अब शहर भर में खुदाई के कारण धूल है. कोचिंग से जब दोपहर हास्टल के लिये लौटती हूं तो सर और मुंह ढंक ही लेती हूं धूल से बचने के लिये.ÓÓ किरन की ही तरह अनुजा, रति व कीर्ति भी हैं. लेकिन सविता वर्मा (काल्पनिक नाम) का आंख छोड़ मुंह ढककर बाइक के पीछे बैठना नये जमाने की नयी कहानी बताता है. वह कहती हैं कि मेरा 'ब्याय फ्रें डÓ जब गुरुदेव से चिडिय़ाघर की तरफ उसे घुमाने ले जाता है तो मैं बाइक पर मुंह ढक कर और आंख खोलकर बैठना ही पसंद करती हूं. पहले मैं 'ख्योराÓ में रहती थी. अब बर्रा-४ में रहने लगी हूं. अभी भी पहचान के लोग मिल जाते हैं. इसलिए मुंह पर चुन्नी लपेटना ठीक रहता है. फिजूल की नजरों और सवालों से बची रहती हूं. सविता वर्मा की तरह ही एक नहीं दर्जनों लड़कियां हैं. कुछ तो साफ-साफ कहती हैं कि दोस्तों में मस्ती से घूमने-फिरने के लिये यह परदा बहुत सेफ है. छेड़-छाड़ से भी बचाव होता है और स्किन भी सुरक्षित रहती है. राधिका त्रिपाठी इसे तब और केवल तब ही उचित मानती हैं जब धूप या सर्दी से बचाव की आवश्यकता हो. वरना मटरगश्ती या मौज के लिए आड़ की तरह मुंह चुराकर सड़क पर निकलना नयी पीढ़ी की छवि को खराब करना है. वैसे यह चलन गर्मी लू के थपेड़ों से बचने के लिये चला था जिसका अपनी-अपनी तरह से इस्तेमाल हो रहा है. मीना सिंह कहती हैं कि जब घर वाले सर पर चुन्नी डालने के लिए जोर देते थे तो आधुनिक बनने के चक्कर में लड़कियां जींस-टॉप पहनने में अपना रुतबा समझती थीं और अब मुंह छुपाये घूम रही हैं.. यह केवल देखा-देखी के कारण है. आज कल की सड़कों पर मुंह छुपाये बलखाती लड़कियां मिल जाएंगी. स्वीटी कहती है-अब अगर किसी लड़की को मुंह और सर ढंक कर सड़क पर निकलने में किसी भी तरह की सहूलियत हो रही है तो किसी को कतई एतराज नहीं होना चाहिए. महिला कांनस्टेबल राजश्री इसे कतई अनुचित नहीं मानतीं. लेकिन वह यह भी कहने से नहीं चूकतीं कि टपोरी और सेक्स वर्कर की तरह गुमराह लड़कियां इस वेशभूषा का गलत इस्तेमाल कर रही हैं.1 हेलो संवाददाता

आइना

राहुल बनें नीतीश..!

उत्तर प्रदेश के पास कोई नीतीश कुमार नहीं है. अगर व्यक्ति केन्द्रित आशा को तलाशें तो एक नाम राहुल गांधी का सामने आता है. लेकिन राहुल उत्तर प्रदेश के लिए खुद को नाकाफी मानते होंगे. उन्हें अपने खानदानी रसूक के पैमाने पर यह प्रांत और मुख्यमंत्री की कुर्सी शायद कम मालूम पड़ती होगी. अगर ऐसा नहीं है तो नीतीश कुमार की सलाह कि राहुल पीएम बनने के पहले किसी प्रदेश के सीएम बन जाएं. कांग्रेसियों को फ्रांस की तरह नहीं लगती. जो बात नीतीश ने चुनावी अभियान में बात की बात में कही उसमें बड़ा दम है. उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की सक्रियता से जबरदस्त हलचल है. राहुल प्रदेश में विकास की राजनीति का वादा करते घूम भी रहे हैं. लेकिन खुद प्रदेश के सिंहासन पर विराजकर वादा पूरा करने का दम नहीं दिखा रहे. काश! राहुल खुद को पांच वर्ष के लिए उत्तर प्रदेश के हवाले कर दें तो प्रदेश ही नहीं देश बदल जाये..। मायावती और मुलायम सिंह यादव के मुकाबले कांग्रेस के पास कोई चमकदार चेहरा नहीं है. प्रदेश की कुल कांग्रेस की राजनीति राहुल गांधी के पीछे-पीछे दुम हिलाती ही दिखाई दे रही है. ऐसे में राहुल अगर यूपी के 'सीएमÓ बनने की सोच लें तो बिहार के परिणामों की तरह उत्तर प्रदेश में भी जाति, धर्म और फिजूल की वैमनस्य बढ़ाती जुमलेबाजी को विराम मिल सकता है. लेकिन कांग्रेस और उसके राजकुमार से ऐसी उम्मीद करना शायद बेमानी है. वैसे बिहार चुनाव ने कांग्रेस को आइना दिखा दिया है. बिहार चुनाव ने कांग्रेस को औकात बता दी. जिन विधानसभा हल्कों में राहुल की मीटिंग हुई वहां कांग्रेस चुनाव हार गई. बिहार चुनाव में कांग्रेस के पास कोई एजेंडा नहीं था. लालू के एजेंडे को जनता पहले ही 15 साल देख चुकी थी. अगर कांग्रेस कोई एजेंडा देती तो जनता एक बार विचार करती. बिना सोचे समझे बिहार की जनता को सोनिया और राहुल समझाते रहे. जैसे की उनकी नजर में बिहारी एकदम बेवकूफ हंै. उनकी सारी बातों को आंख मूंद कर मान लेंगे. कांग्रेस ने बिहार चुनावों में आंध्र प्रदेश के विकास का उदाहरण दिया. कहा बिहार का कुछ विकास नहीं हुआ आंध्र के मुकाबले. पांच साल में नितीश ने कुछ नहीं किया. लेकिन ये कहते हुए वे भूल गए कि पहले चालीस साल तक कांग्रेस का ही राज बिहार में रहा, जिसमें जातिवाद समेत कई खामियां बिहार की राजनीति को प्रभावित करती रही. उस चालीस साल में बिजली और सड़क जैसे बुनियादी कामों पर कांग्रेस ने कोई ध्यान नहीं दिया.बिहार की जनता को भय था कि कहीं लालू का जंगल राज न लौट आए. साथ ही भय यह भी था कि कांग्रेस दुबारा जंगल राज को सहयोग देगी. अगर तीस से चालीस सीट आ गई तो कांग्रेस लालू से मिलेगी. पहले भी लालू यादव से कांग्रेस सहयोग करती रही है. यूपीए-1 की सरकार पांच साल तक लालू ने चलायी. कांग्रेस ने खुद कहा कि वे सरकार नहीं बनाने जा रही है. फिर आखिर जब वे सरकार ही नहीं बना रहे है तो कांग्रेस को जनता क्यों वोट दे. कांग्रेस ने चुनावों की रैलियों में संकेत दिया कि वे चुनाव सिर्फ वोटकटवा बनने के लिए लड़ रहे थे. हर पार्टी के गुंडा बदमाश कांग्रेस में जाकर टिकट पा गए. उन्हें जनता ने नकार दिया. कई लोग कांग्रेस से टिकट इसलिए लेकर चुनाव लड़े कि कांग्रेस चुनाव लडऩे के लिए पैसे दे रही थी. पप्पू यादव और क्या आनंद मोहन जैसे अपराधियों की पत्नियों को टिकट दिया गया. अखिलेश सिंह और ललन सिंह जैसे भूमिहार नेताओं को भूमिहारों ने ही धूल चटा दी.कांगे्रस उत्तर प्रदेश में 'जदयूÓ की तरह आम जनता का विश्वास प्राप्त कर सकती है. लेकिन इसके लिए राहुल को राज कुंअर बनकर नहीं नीतीश की तरह लोकसेवक बनकर सामने आना होगा. इसमें क्या संदेह कि मायावती को सर्वाधिक खतरा राहुल से ही जान पड़ता है. मुसलमान, यादव गठजोड़ के दिन वैसे ही लद चुके हैं. फिर भी मुलायम सिंह की ताकत को खारिज करना बेमानी है. राहुल और कांग्रेस अगर २०१० में पूरी ताकत से उत्तर प्रदेश में विकास का एजेंडा लेकर नहीं उतरे तो अधकचरी आशा और विश्वास परिवर्तन को तैयार बैठे जनमानस को छितरा कर रख देगा और अगले पांच साल तक हमें बीते बिहार की तरह देश की मुख्य धारा से कटकर चंगेजी राजनीति को भुगतना पड़ेगा.1 हेलो संवाददाता

बिहार विधानसभा चुनाव-2010
जोकरी के दिन गये..
विशेष संवाददाता
बिहार के चुनाव परिणाम उत्तर प्रदेश के लिए सबक हो सकते है। जिन दिनों बिहार जाति के मकडज़ाल में बुरीतरह कसमसा रहा था उत्तर प्रदेश साम्प्रदायिक उन्माद में राजनीतिक फैसले ले रहा था. बिहार साम्प्रदायिकता के मोर्चे पर उत्तर प्रदेश से हमेशा बेहतर रहा वहीं जातीय राजनीति के लिए एक चौथाई सदी तक अवसरवादियों की प्रयोगशाला बना रहा. जिसका फायदा लालू और राम विलास जैसे दोहरे-तिहरे चरित्र वालों ने खूब उठाया. भला हो नितीश कुमार का जिन्होंने राजनीतिक संवेदना से सर्वथा लबालब रहे बिहार के मर्म को समझा. कर्पूरी ठाकुर, जयप्रकाश नारायण और मण्डल की आत्मा को समझा. जातिगत उत्थान के लिए जाति की गणना जरूरी समझी न कि वोट के लिए और आज नतीजा सबके सामने है. २४३ सीटों वाली विधान सभा में २०६ का आंकड़ा छूकर नितीश और सुशील मोदी ने सभी को चौंका दिया और यह भी बता दिया कि गये दिन जाति और धर्म के नाम पर तमाशा करने के. पानी नाक के ऊपर जा पहुंचा है. अब काम से काम चलेगा. जुमलेबाजी और जोकरी के दिन गये. चुनाव जीतने के बाद नितीश कुमार ने कहा-'' बिहार अब जाति की राजनीति से आगे निकल चुका है. अब काम करने से ही काम चलेगा. हमारी जिम्मेदारी और बढ़ गई है. बिहार के लोगों ने हम पर विश्वास किया है. और हमें विश्वास पर खरा उतरना ही होगा.ÓÓ कायदे से अब बिहार के बाद उत्तर प्रदेश का नम्बर है. बिहार की तरह ही उत्तर प्रदेश को भी क्षेत्रीय क्षत्रपों विशेषकर मुलायम सिंह यादव और मायावती ने बरबाद कर दिया है. खुलेआम नौकरियों में सरकारों ने भ्रष्टाचार किया है. भर्तियों में मंत्रियों ने उगाहियां की हैं. ये रिश्वत देकर भर्ती लोग जब सरकारी सेवाओं में होंगे तो क्या दशा होगी आम सार्वजनिक सेवाओं की. लाखों की रिश्वत देकर भर्ती हुआ सिपाही वर्दी पहनकर लूट करेगा या लूट रोकेगा? बिहार अगर ताजा चुनाव परिणाम के बाद विकास की राजनीति की राह पर वापस लौट पड़ा है तो अब उत्तर प्रदेश ही सर्वथा जातीय पिछड़ेपन की राजनीति के दलदल में शेष रह गया है. यूपी को भी बिहार के बड़े भाई की भूमिका में लौटना होगा. लोग कहते हैं. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. लेकिन इतिहास गवाह है कि सकल परिवर्तन हमेशा एक व्यक्ति के अतिरिक्त जोखिम से ही संभव हुआ है. बिहार में यह काम नितीश कुमार ने कर दिखाया. उम्मीद करनी चाहिए कि उत्तर प्रदेश में भी विकास रथ लेकर कोई आगे आएगा जिसके पहिए के नीचे अगड़ा-पिछड़ा, दलित-सवर्ण सब राह की खाद बनजाएंगे . उत्तर प्रदेश की दशा वर्तमान में बिहार से कई गुना गई बीती है. यहां पार्टियां टिकट बेंचती हैं? सरकारें नौकरी बेंचती हैं? कोई भी सरकारी फाइल बिना रिश्वत के सरकती ही नहीं. यहां वही चोरी में लिप्त है जिस पर चोरी रोकने की जिम्मेदारी है. राजनीतिक विद्वेष से आम आदमी तक पहुंचने वाली राहत बीच में ही डकार ली जाती है. ऐसे में भगवान बुद्घ और जयप्रकाश नारायण की धरती ने देश को संदेश दिया है. बिहार में ढाई प्रतिशत की आबादी वाले कुर्मी जाति के नीतीश कुमार सर्वजात के नेता बन गये. जिला का जिला साफ हो गया. विरोधी दलों को सीट नहीं मिली. जाति की जाति ने नीतीश को वोट दिया. महिला सशक्तिकरण ने बिहार की ही नहीं देश की राजनीति बदल दी है. चुनावों से ठीक पहले हंग असेंबली की बात की जा रही थी. पटना में खद्दरधारी नेताओं की जबान नितीश के विरोध में थी. ये सारे जबान व्यक्तिगत हितों से ग्रसित थे. कई शहरों के कुछ प्रमुख अड्डों पर बैठकबाजी करने वाले खद्दरधारी नेता, नीतीश को गाली देते थे. बटाई बिल का बहाना लेकर. लेकिन बटाई बिल से पीडि़त लोगों ने भी वोट दिया. कहा बटाई बिल पता नहीं, पर रात को गांव में सो तो रहे है. खेती तो आराम से कर रहे है. चुनाव से ठीक पहले कुछ कांग्रेसी खुश थे, हंग असेंबली होगा. चलो इसी बहाने राष्ट्रपति शासन लागू होगा. ये वही लोग थे जिनके व्यक्तिगत हितों को नीतीश कुमार ने पूरा नहीं किया था. जिला या ब्लाक स्तर पर जिनकी दलाली नहीं चली थी. लेकिन इससे अलग आम जनता की सोच थी. उन्हें सुरक्षित जीवन चाहिए था. गांवों तक बढिया सड़क की जरूरत थी. बढिय़ा स्वास्थ्य सेवा चाहिए थी. नीतीश ने इसे कर दिखाया. अस्पतालों में दवाइयां मिलनी शुरू हो गई थीं. डाक्टर हास्पिटल में बैठने लगे थे. गांव तक सड़क बन गई थी. लोगों को गुंडागर्दी टैक्स से मुक्ति मिल गई थी. व्यापारी बिन भय के देर रात तक दुकान खोल सकता था. ट्रेन से उतर देर रात अपने घर जा सकता था. यह नीतीश कुमार के पहले पांच साल की उपलब्धि थी. बिहार का चुनाव परिणाम देश की राजनीति बदलेगा. राज्य की अस्मिता से अलग, जाति की अस्मिता से अलग विशुद्व चुनाव था विकास की राजनीति पर. भ्रष्टाचार मुद्दा था, पर 2 जी स्पेक्ट्रम, कामनवेल्थ ने बिहार के भ्रष्टाचार को पीछे ढकेल दिया था. आजादी के पचास साल बाद लोगों को गांवों में सड़क देखने को मिली थी. गांव की महिलाएं सुरक्षित घर से बाहर शौच के लिए निकल पा रही थीं. ये महिलाएं हर जाति की थी. क्या भूमिहार, क्या राजपूत, क्या कहार, क्या कोयरी, क्या कुर्मी, क्या दलित, क्या यादव. हर जाति की महिला की इज्जत आबरू बची. अब अगला लक्ष्य बिहार की जनता ने नीतीश को दे दिया है. बिहार की जनता पिछले पचास सालों से बिजली से मरहूम है. अगले पांच सालों में बेहतर बिजली, बेहतर शिक्षा और बेहतर रोजगार का प्रबंध नितीश कुमार करेंगे. यह जनता की उम्मीद है. बिहार के चुनाव परिणाम ने क्षेत्रीए दलों की प्रासंगिकता को बरकरार रखा है. भाजपा को बेशक बेहतर सीट मिली है. पर जद यू ने अपने प्रदर्शन को पहले से काफी बेहतर कर बता दिया है कि कांग्रेस का विकल्प के तौर पर अभी भी गैर कांग्रेसवादी राजनीति जिंदा है. दो दलीय प्रणाली से अलग क्षेत्रीय दल अभी जिंदा रहेंगे. नीतीश की मायावती और मुलायम सिंह के लिए सीख है. यह शिवसेना के लिए भी एक सीख है. ये उन सारे राजनीतिक दलों के लिए सीख है जो वंशवाद, गुंडाराज, पैसे के खेल से ग्रसित हैं. नीतीश की जीत बताती है कि उतर प्रदेश जैसे राज्य में अभी भी मायावती और मुलायम सिंह प्रसांगिक हो सकते हैं. बशर्ते वे सिर्फ विकास और जनता की बेहतरी के लिए बात करें. मायावती के लिए एक जबरजस्त सीख है. ढाई प्रतिशत की आबादी वाले कुर्मी नीतीश सर्वजात के नेता हो गए बिहार में. फिर मायावती क्यों नहीं सर्वजात की नेता हो सकती हैं. मायावती भी सर्वजात की नेता हो सकती हैं विकास की बात कर. मुलायम सिंह भी सर्वजात के नेता हो सकते हैं विकास की बात कर. पैसे के मोह और वंश का मोह ये नेता छोड़ें. जनता की मोह की बात करेंगे. जनता इन्हें हाथों हाथ उठाएगी.1

शनिवार, 20 नवंबर 2010

नारद डाट काम
आदर्श घोटाले
कमलेश त्रिपाठी
घोटालों की एक तासीर होती है ये हमेशा आदर्श लोगों द्वारा घटित होते हैं और करने का तरीका भी आदर्श ही होता है. जब सड़क पर कोई लड्डू फूटता है, तो उसे सारे आवारा कुत्ते मिल बांटकर खाते हैं. इसे हम सहकारिता का सिद्घांत भी कह सकते हैं. ऐसे मोदकों के भक्षण के लिये नेता, अफसर, नेवी एयर फोर्स, सेना सब मिलजुल कर अपने काम को अंजाम देते हैं. एक राजा भाई थे, इतना बड़ा खेल खेला कि अंकगणित, रेखागणित और बीजगणित सब फेल हो गई. कसम प्रदूषित गंगा मइया की जब से मैंने उनके घोटाले का आकार सुना मैंने कई बार उसे अंकों में बदलने की कोशिश की लेकिन अभी तक नतीजा सिफर हो आया. इसे विधि की विडम्बना ही कहा जायेगा कि मैं अभी तक उसका अंकीकरण नहीं कर पा रहा हूं और वो आराम से पचा गये. जिस देश में सैनिकों के ताबूतों और कारगिल के शहीदों ने नाम पर मुद्रानोचन हो रहा हो उसे आगे बढऩे से कोई नहीं रोक सकता. दरअसल भारत दुनिया में नम्बर तीन की आर्थिक शक्ति बनने की तरफ बढ़ रहा है. ये तभी सम्भव है जब यहां के नेता, अफसर, दल्ले सबके सब अपने आप में बड़ी आर्थिक शक्ति बन जायें. ऐसा बनने के लिये नौकरी की पगार या कोई कारोबार मददगार साबित नहीं हो सकता है. इसके लिये तो लम्बा हाथ मारना पड़ेगा. ऐसे में लम्बे आदर्श घोटाले करना मजबूरी है. इस मामले में मुझे हंसी तब आई जब जयललिता मैडम ने राजा साहब को निकालने पर खुद समर्थन देने की बात कही. अभी तक एक राजा को झेलते-झेलते देश कंगाल बन गया, अब रानी को कैसे झेल सकता है. सांपों और नागों के इस गठबंधन में विष से बचना बेहद मुश्किल है. कुछ समय पहले सिंगापुर में भी भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया था कि आम जनता सड़कों पर उतर आई. अब हालात बेहतर हैं. बाबा रामदेव भी नाक से हवा घसीटने के साथ भ्रष्टाचार से लडऩे के उपाय भी बता रहे हैं. उन्हें उम्मीद है कि अपनी बीमारों की सेना से इन लडघड़ों को आइना जरूर दिखायेंगे. आगे-आगे देखिये क्या होता है, फिलहाल तो ये मुंहनुचवे देश को बकरे की टांग समझ चबाये जा रहे हैं. आर्ट आफ लिविंग
हैविंग ए वाइफ इज ए पार्ट आफ लिविंग. बट लिविंग बिद वाइफ एंड हैविंग ए गर्लफे्रंड इज आर्ट आफ लिविंग.1
प्रथम पुरुष
आधुनिकता के पैमाने
डा. रमेश सिकरोरिया
म स्वयं को आधुनिक कहलाने के अधिकारी तभी हैं, जब हम वैसा आचरण करते हों. इसके लिये हम खुद को निम्नलिखित कसौटियों पर कस सकते हैं-१. सभी व्यक्ति बराबर हैं, उन्हें जातियों या समाज की बराबरी से न जोड़ें२. सभी जातियों/समाज को अपनी पहचान रखने का अधिकार है. उनकी संस्कृति को कायम रखने के लिए सरकार सहायता करे, परन्तु उनके धार्मिक क्रार्यक्रम या प्रचार के लिए नहीं.३. प्रत्येक जाति या समुदाय के प्रत्येक व्यक्ति को सच्चा नागरिक होना चाहिये.४. चुनावों या अन्य माध्यम से संरक्षक या आश्रयदाता और उनके ग्राहक/अश्रित की व्यवस्था पैदा न होना, क्यू में खड़ा होना सभ्य न होने की निशानी है.५. भूत और परम्पराओं से मुक्त होकर विवेक को अपनाना जाया चाहिये.६. प्रतिष्ठानों, संस्थाओं और विभागों पर जन साधारण का पूरा विश्वास होना चाहिये. आस्पतालों के कुछ डाक्टर पर नहीं, स्कूलों के केवल कुछ शिक्षकों पर नहीं, बैंको में केवल मैनेजर पर नहीं, न्यायालयों में केवल कुछ जजों पर नहीं अपितु सभी पर विश्वास होना आवश्यक है.७. अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के अधिकारों में समानता होनी चाहिये.८. शिक्षा, स्वास्थ्य भोजन की सुरक्षा सबको मिलनी चाहिये.९. सहमति प्राप्त करने के लिए सोच बदलने का प्रयास होना चाहिये न कि बल का प्रयोग. अफवाहों पर विश्वास करने के पहले उसके प्रमाण मांगे.१०. अनजानों और जाने- पहचानों के साथ समान व्यवहार करें, गलत कार्य या दुव्र्यवहार पर चुप न रहे. विकलांगों के लिये अपशब्द का प्रयोग न करें. किसी को लूला, लंगड़ा, अन्धा, गूंगा न कहें, उन्हें सम्मान और पूरा अधिकार दें. बलात्कार की गई स्त्री को अपनायें और उसको पूरा सम्मानजनक जीवन दें. बलात्कारी को समाज का शत्रु समझें उसको अपने अपराध को महसूस कराये, घूस देना-घूस लेना बराबर के अपराध हंै. गरीबों के अपराध के कारण ढंूढ़े कि कही वे अपराध जिन्दा रहने के लिए मजबूरी में तो नहीं कर रहे है. बच्चों का शोषण न करें उनको अपने बच्चे जैसा जीवन दें.1
चौथा कोना
प्रेम प्रकाश का तबादला निकला दिव्या का इंसाफ?
डीआईजी प्रेम प्रकाश के गायब होते ही शहर के अखबारों से दिव्या मांगे न्याय का शोर भी गया. हिन्दुस्तान और आई-नेक्स्ट अखबार को यह ध्यान रखना होगा कि 'फालोअपÓ केवल अखबारों में ही नहीं चलता आम पाठ में भी चलता है. इसीलिए अगर वाकई दिव्या प्रकरण में 'सीबीसीआईडीÓ की जांच से सुपरिणाम हासिल करने हैं तो जिस तरह से प्रेम प्रकाश के तबादले से पहले तक इन दोनों अखबारों ने अपनी विशिष्ट मुहिम चला रखी थी उसे आगे भी जारी रखें. पिछले कुछ दिनों से ये दोनों अखबार दिव्या की मां का 'बैंक एकाउण्ट और उसमें सहायता राशि जमा करने, कराने की जानकारी भी नहीं दे रहे हैं. मीडिया पर विशेष रूप से हिन्दुस्तान और आई-नेक्स्ट के बारे में यह चर्चा भी आम रही कि दोनों अखबार 'डीआईजीÓ के व्यक्तिगत कोप की प्रतिक्रिया में हमलावर थे. इस पर दोनों अखबारों को आपत्ति रही. लेकिन जब तबादले को मुहिम की सफलता के रूप में विज्ञापित किया गया तो इसका अर्थ क्या निकला? हिन्दुस्तान ने साफ लिखा कि प्रेम प्रकाश का तबादला उसकी जीत है. जबकि प्रेम प्रकाश के तबादले में हिन्दुस्तान की जीत नहीं है. हिन्दुस्तान की जीत दिव्या के असली बलात्कारी को सींखचों के पीछे जाने तक अब पल-पल की जानकारी देने में है. दोस्तों, अखबार न पुलिस है, न ही न्यायालय लेकिन यह पुलिस और न्यायालय का जबरदस्त दोस्त हो सकता है. वह भी तब जब तीनों अपने-अपने छोर पर सही ठंग से काम करें. जब पुलिस लीपापोती करेगी और मीडिया हंगामा तो न्याय मुश्कल हो ही जायेगी. मीडिया की मजबूरी है कि उसके कमान में 'हंगामाÓ नामक तीर ही अमोध शास्त्र है. यही उसकी ताकत है. इसमें क्या संदेह कि अगर मीडिया ने हंगामा न खड़ा किया होता तो आज की तारीख में 'मुन्नाÓ दिव्या के बलात्कार का गुनहगार स्थापित हो गया होता. जबकि अब तक की जांच से ऐसा साबित होता नहीं लगता. पुलिस निकम्मी हो चुकी है, बेईमान हो चुकी है, नैतिकता खो चुकी है. क्योंकि रिश्वत देकर वर्दी पाने वाले हमारी सुरक्षा में तैनात जो होने लगे हैं. रही बात मीडिया की तो उसके दामन पर भी पैसा लेकर विधिवत खबरें छापने का एक ऐसा कलंक लग चुका है जिसके बाद किसी भी तरह की हरिशचंदी और पृथ्वीराज चौहानी समझ में नहीं आती.1 प्रमोद तिवारी
बिल्डर उड़ाते हैं नियमों की धज्जियां
उ०प्र० फ्लैट्स एक्ट २०१० के अनुसार प्रत्येक वह भवन, जिसमें चार से अधिक फ्लैट बने हों, उसे कई विभागों से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना होता है और ऐसे भवन ही इस एक्ट की सीमा में आते हैं. इस एक्ट के अनुसार भूमि की वैधता नक्शे की स्वीकृति के साथ ही उसकी ऊँचाई के लिए नगर के हवाई एक्ट को भी मानना होता है. विद्युत और अग्शिमन विभागों का भी इन भवनों के निर्माण के पूर्व अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना अनिवार्य होता है. ऐसे भवनों राजस्व के सभी विभागों की निगाहों में निर्मित होते हैं. कहा जा सकता है कि कोई भी बहुमंजिल आवासीय भवन चुपके से नहीं बन सकता. सूत्र बताते हैं कि कानपुर में १४ मंजिल तक ऊँची इमारतें है. बिल्डर सदैव इन्हें (+१) के नियम के तहत स्वीकृत कराता है और सदैव एक मंजिल कम करके बनाता है, जिसे वह जब चाहे तब बना व बेच सके. शहर में १४-१५ बड़े व ३०-३५ छोटे बिल्डर्स हैं. और लगभग १५० से अधिक ६ मंजिल से अधिक की इमारतें हैं, जिनमें हजारों लोग रह रहे हैं. कानपुर विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष रामस्वरूप अवैध बिल्डिंगों का निर्माण रोकने के लिए अपनी तैयारी बताते हैं, कि पूरे नगर को चार जोनों में बांट दिया गया है. मूलगंज के पास एक बिल्डिंग के निर्माण को रोक दिया गया है. लेकिन ऐसे भवन निर्माता शमन शुल्क जमाकर अपने अवैध निर्माण को नियमित करा लेते हैं. उनका कहना है कि बहु मंजिली आवासीय भवनों को कई स्तरों पर जांच के दायरे में आना पड़ता है और बिना कानूनी प्रक्रिया पूरी किए उसका निर्माण संभव नहीं है. के.डी.ए के सूत्र बताते हैं कि मूल नक्शा व तैयार बिल्डिंग के अन्तर को ठीक कराने के नाम पर वसूला जाने वाला शमन शुल्क ही वह खेल है, जिसके बहाने अवैध निर्माण को वैध करार दे दिया जाता है. कोकाकोला चौराहे पर बनी बिल्डिंग सालों साल जिस आधार पर अवैध थी, अचानक ही वैध घोषित हो जाती है. इसी प्रकार की अन्य घटनाएं भी हैं, जो केडीए उपाध्यक्ष की बयानबाजी की पोल खोलती हंै. कभी किसी निर्माण क्षेत्र को सील करना फिर बाद में पुन: कार्यकारी कर दिया जाना वह कृत्य है जिससे केडीए के रसूख में कमी आई है और भवन निर्माताओं में भय नहीं रह गया है. शहर में कई प्रमुख चौराहों पर इन आवासीय परिसरों के विज्ञापन देखे जा सक ते हैं. कानपुर नगर के जिलाधिकारी मुकेश मेश्राम कहते हैं कल्याणपुर क्षेत्र कभी नगरीय सीमा में नहीं था, किंतु अब इन आवासीय योजनाओं का प्रसार सर्वाधिक इसी क्षेत्र में हो रहा है. किसान खेत खलिहान और तालाब बेचने में लगा है. बिल्डर इस क्षेत्र में ग्राम समाज की जमीनों को भी तेजी से हड़पते जा रहे हैं. सभी सरकारी विभागों को आदेश दिया गया है कि वे अपनी सरकारी जमीन का चिन्हींकरण कर सीमा बनाएं, जिससे उस पर अवैध कब्जे होने से रोका जा सके. जिन जमीनों पर कब्जे हो गए हैं, वे अवश्य ही खाली कराए जाएंगे चाहे कब्जेदार कितने ही ताकतवर क्यों न हों.1हेलो संवाददाता

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

नये-पुराने मौत के आशियाने

विशेष संवाददाता

दिल्ली के लक्ष्मीनगर इलाके के ललिता पार्क हादसे ने देश के उन तमाम नगरों व महानगरों के जर्जर व गिराऊ मकानों को हिलाकर रख दिया है, जो कभी भी जमींदोज हो सकते हैं. बावजूद इसके नगरों व महानगरों में रहने को मजबूर लोग कभी भी भरभरा कर बैठ जाने वाली खण्डहरनुमा इमारतों में गुजर-बसर करने को मजबूर हैं. पिछले सालों में हालसी रोड पर जब उम्र पार कर चुके एक मकान ने अपना दम तोड़ा था, तो उसके साथ-साथ चार जिन्दगियां भी दफन हो गई थीं. उस समय नगर-निगम और नगर प्रशासन ने शहर को आश्वस्त किया था कि कभी भी गिरने की हालत में खड़े जर्जर या खण्डहरनुमा भवनों का ध्वस्तीकरण किया जायेगा. लेकिन जैसा कहा गया वैसा कुछ हुआ नहीं. जबकि हालसी रोड के हादसे के बाद नगर निगम ने शहर के घने और पुराने इलाकों में लगभग ३०० मकान ध्वस्तीकरण के लिए चिह्नित किये गये थे. लेकिन वे सारे के सारे चिह्न केवल चिह्न बनकर ही रह गये. एक भी मकान इस दौरान नहीं गिराया गया. यह बात है पुराने मकानों की. जरा शहर में बनने वाली बड़ी-बड़ी बहुमंजिली इमारतों की भी हकीकत समझ लीजिए, जो कम खतरनाक नहीं हैं.सबसे पहले तो यह जान लें कि कानपुर महानगर भूकम्प क्षेत्र-२ में आता है. दूसरी बात यह कि शहर में तमाम इमारतें तालाबों और झीलों के मिटे अस्तित्व पर तनी खड़ी हंै. तीसरी बात यह कि कानपुर गंगा किनारे बसा है और यहां की तटीय मिट्टी दलदली और नम है, जिसपर बहुमंजिली इमारतों का बनना हमेशा खतरे की घंटी ही है. फिर भी शहर के प्रशासनिक अधिकारी राजनैतिक पहुंच वाले इन बिल्डरों के समक्ष अत्यन्त कमजोर साबित हो रहे हों. ऐसे में सरकारी ट्रस्ट और वक्फ की जमीनों पर नजरें गड़ाए बैठे इन बिल्डरों की बन आई है. गरीब और आम शहरी एक अदद छत की तलाश और आस में इनकी चाल में फंसता जा रहा है. जिसे फ्लैट खरीदने के बाद भी कई तरीकों से समय-समय पर लूटा जाता रहता है, पर उसके पास विकल्पों की कमी होने के कारण उनमें शेष है. सबसे अधिक खतरा तो ऐसी बहुमंजिली आवासीय इमारतों का है जो कि दिल्ली के ललिता पार्क की तरह कभी भी ढह सकती हैं.कानपुर नगर की सीमा में स्थित तालाबों की संख्या में अत्यन्त कमी आई है और कहा जा सकता है कि ये सभी समाप्त हो चुके हैं. इतिहासकार मनोज कपूर कहते हैं कि मछरिया झील, झकरकटी झील, नौरैया खेड़ा की झील, टटिया की झील, ख्यौरा की झील सहित आठ बड़ी झीलें समाप्ति की कगार पर हैं. पोखरपुर, नौबस्ता, लाजपत नगर कोपर गंज आदि झीलों और तालाबों पर बसे ऐसे मुहल्ले हैं, जिनकी नीव पूर्व में झील की जमीन पर बनी है. वे आशंका जताते हैं कि दलदली और नम क्षेत्र में बनने वाली बहुमंजिल इतमारतों की नीवें अत्यन्त कमजोर साबित हुई हैं जबकि कानपुर भूकम्प क्षेत्र में जोन-२ में आता है. ऐसे में सरकारी विभागों व अधिकारियों की मिली भगत से इन बिल्डरों ने मकानों की अनदेखी करते हुए निर्माण कराए हैं. किसी भी बड़ी दुर्घटना के लिए वे ही जिम्मेदार होंगे.गंगा के किनारे बसे कानपुर के पाश कहलाने वाले मुहल्ले तिलक नगर, सिविल लाइन्स, स्वरूप नगर, आजाद नगर, अशोक नगर में प्रत्येक पुराने बंगले और बी.आई.सी. की सम्पत्तियों पर इन भवन निर्माताओं की नजरें हैं. पेड़ों की अवैध कटान के कारण पर्यावरण को भी क्षति पहुंचाई जा रही है. नगर के प्रशासनिक अधिकारियों की संवेदनहीनता की स्थिति यह है कि जन सूचना अधिकार का प्रयोग कर शहर में तालाबों की संख्या व स्थिति जैसे प्रश्नों के उत्तर मांगने पर सामाजिक एवं आर.टी.आई कार्यकर्ता अरविन्द त्रिपाठी को सूचना न देकर कानपुर तहसीलदार ने उन बिल्डरों में से एक को सूचना अवगत कराई. जिससे श्री त्रिपाठी कहते हैं कि इस पूरे मामले में सरकार के कानों में जूं तभी रेंगेगी जब कोई बहुत बड़ा हादसा होगा. सरकार एक बड़े हादसे का इंतजार कर रही है. इन बहुमंजिली आवासीय इमारतों के निर्माण व भू-गर्भ जल के अंधाधुंध दोहन के कारण जलस्तर में तेजी से गिरावट आ रही है. यदि यही क्रम जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं, जबकि गंगा के किनारे रहने-बसने वाले हम लोग प्यासे रह जाएंगे. इन बिल्डरों ने अब दक्षिण कानपुर कहलाने वाले किदवई नगर, जूही, साकेत नगर, पशुपति नगर, नौबस्ता, रतनलाल नगर, पनकी, श्याम नगर आदि में भी अपना काम तेजी से बढ़ाना शुरू कर दिया है. सामुदायिक अधिवास विकास के नाम पर मिलने वाली सैकड़ों छूटों का प्रयोग कर इन बहुमंजिली आवासीय इमारतों का निर्माण किया जा रहा है. बहुत शीघ्र किसी दुर्घटना के घटित होने के बाद कानपुर नगर में भी अवधपाल सिंह जैसे का नाम सुर्खियों में होगा, तब नियमों के आधार पर ही निर्माण करने की स्वीकृति देने की दुहाई देने वाले केडीए उपाध्यक्ष सहित अन्य विभाग जवाब देही तय न कर सकेंगे.1

नारद डाट काम
पीपी की टींटीं
कमलेश त्रिपाठी
तो हो गई भइया, अब वो आनन्देश्वर छोड़ बाबा विश्वनाथ को प्यारे हो गये हैं कुल मिलकर दबंगई वहीं चलेगी. जाने वाला तो चला जाता है लेकिन छोड़ जाता है अपनी यादें कुछ कड़वी और कुछ मीठी. जहां तक मीठी का सवाल है तो पी पी के खानदान में किसी ने आज तग शक्कर नहीं खाई है. इनके यहां ब्रेक फास्ट नीम चढ़े करेले से होता है और रात्रि भोज में लाल मिर्च फांकते हैं कुल मिलाकर सब कुछ कड़वा ही है तो ऐसे में मीठे की बात कही नहीं जा सकती है. भगवान कृष्ण जब मथुरा से गये तो उनके वियोग में गोपिकाओं का बुरा हाल था. जब उद्घौ जी गोपिकाओं को समझाने गये तो खुद भी पगला गये थे और पहली बार प्रेम का मर्म समझ पाये थे. शहर के कद्रदानों उनके जाने से शहर की कुछ तितलियों का बुरा हाल है. उन्होंने फूलों पर बैठना बंद कर दिया है अपने पंख सिकोड़ राख बनने की तैयारी है. भाई मैं तो कहता हूं बनना चाहिए भी, बिना पिया काहे की सुहागिन अब कौन उनके रूप को निहारेगा और कौन बलइंया लेगा? जब पीपी थे तो क्या बात थी? बिना वर्दी के रूप का जलवा था पास पड़ोस के लोग बिना बात जाघिंया गीला कर लेते थे, इलाके का थानेदार पर्सनल टॉमी की तरह दुम हिलाता रहता था. एक रात में सब कुछ बदल गया पूरा चमन उजड़ के कन्डील बन गया है. एक बेचारी जो कैन्ट के मधुवन में पाई जाती हैं उनका सबसे बुरा हाल है उनके चक्कर में मोहल्ले के ४-६ दबंगों से पंगा ले लिया था. अब उनके जाने के बाद वही दबंग नीम की हरी शन्टी लिये मौके की ताड़ में हैं मिलते ही सौ-पचास से कम क्या जड़ेंगे.शहर के कुछ पत्रकारों की मांग भी सूनी-सूनी लग रही है उनके रहने पर बिना बात की रंगबाजी करते थे. नाश हो हिन्दुस्तान अखबार वालों का जिन्होंने छाप-छाप के उन्हें शहर से विदा करवा ही दिया. अब अपनी पीठ खुद ठोंक रहे हैं. इन लोगों को तितलियों तक का ख्याल नहीं आया बेचारी अपनी दुर्दशा पर घड़ों पानी बहा रही हैं. ऊपर से एक हेल्प लाइन और बना रखी है. अब जब ये तितलियां तुम्हारी कसो लाइन पर रो-रो के अपना हाल सुनायेंगी तो क्या तुम उनके पीपी को दोबारा यहां ला पाओगे? एक दिव्या के पीछे तुमने आधा दर्जन से ज्यादा दिव्याओं का दिल दुखाया है तुम्हें नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी. ख्ैर तुम्हें घबराने की कोई बात नहीं तुम्हें तो स्वर्ग जाना है और वहीं तुमको पीपी मिलेंगे. फिर नहीं स्वर्ग तुम्हें नर्क जैसा लगेगा, इसलिये किसी के श्राप या ताप से डरने की कोई बात नहीं है. छोटा दरोगा- बड़े दसे- साहब एक ट्रक स्काच पकड़ी है.बड़ा-छोटे से- अबे गधे एक ट्रक नमकीन और सोना और पकड़.

खरीबात

यह तो अपनी खाज खुजलाने जैसी बात

प्रमोद तिवारी

अब किसी को भी किसी तरह के मुगालते में नहीं रहना चाहिए क्योंकि व्यवस्था और उसके पालनहार बेशर्मी का लाबादा ओढ़ चुके हैं. ऊपर से कमाल यह है कि हम इस बेशर्मी में भी अपनी आस्थाएं, हित और विश्वास को बनाये रखने की अफलातूनी कोशिश करके सिद्घ-प्रसिद्घ बने रहते हैं. प्रेम प्रकाश का तबादला यहां अखबारों में ऐसे प्रस्तुत किया गया मानो उन्हें कानपुर की सुरक्षा व्यवस्था के प्रति घोर लापरवाही, बेईमानी और हिटलरी बरतने के बदले दण्डस्वरूप हटा दिया गया है. खबर की यह प्रस्तुति खुद में मियां मि_ू बनने या अपनी खाज खुजलाने जैसी हरकत है. जिस दिन कानपुर में नये डीआईजी अशोक मुथ जैन प्रेस को संबोधित कर रहे थे, उसी दिन प्रेम प्रकाश बनारस सरकिट हाऊस में वहां के प्रेस को बता रहे थे कि अब कानपुर के बाद बनारस की बारी है. प्रेम प्रकाश कानपुर से इसी पद और मान के साथ बनारस भेजे गये और बनारस के अशोक मुथ जैन को कानपुर बुलाया गया. यह सरकार की नितांत रुटीन तबादला कार्यवाई हुई न कि कानपुर में प्रेस से पंगा लेने पर किसी 'आईपीएसÓ के खिलाफ दण्डात्मक कार्रवाई. प्रेम प्रकाश कानपुर के कोई पहले हेकड़ कप्तान नहीं थे. अभी मुलायम सिंह यादव की रिजीम में यहां लगभग इसीतरह के एक किरदार रामेन्द्र विक्रम सिंह को भी शहर ने झेला था. रामेन्द्र विक्रम सिंह ने शहर में पत्रकारों के एक गुट विशेष को पूरी छूट दे रखी थी और बाकी को तकरीबन जूतियों की नोंक पर टेक रखा था. उस दौर में प्रेम प्रकाश से पीडि़त कई पत्रकार रामेन्द्र विक्रम सिंह के एजेंट के रूप में दलाली किया करते थे. रामेन्द्र विक्रम सिंह से भी पहले... कई वर्ष पहले यहां डीएन सांवल नाम के बड़े कप्तान (एसएसपी) आये थे. कोई भ्रष्ट वजह से तो नहीं लेकिन कुछ हेकड़ी में और कुछ खुद को मुख्यमंत्री का खासमखास समझने की गलत फहमी में वह भी अखबार वालों से टकराये और पूरे शहर ने एक अप्रतिम आंदोलन को देखा. अभी तक प्रशासन और पत्रकारों के बीच टकराव का वैसा तीखा अनुभव कानपुर शहर के पास नहीं है. इन तीनों महा कप्तानों में एक समानता रही और यह समानता रही मुख्यमंत्री के अति निकट व पि_ू होने की, डीएन सांवल तत्कालन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के बड़े चहेते थे. रामेन्द्र विक्रम सिंह मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के अनुज शिशुपाल सिंह के बहुत विश्वासी थे. और प्रेम प्रकाश के बारे में कहा जाता है कि उन्हें बहन जी के भाई और परिवारियों का पूरा न सिर्फ समर्थन है बल्कि वह एक तरह से उनके गांव-घर के ही हैं. इसतरह कहा जा सकता है कि कानपुर में जो भी मुख्यमंत्री का करीबी पुलिस वाला कप्तानी करने आता है वह प्रेस से जरूर टकराता है. जहां तक मुलायम सिंह यादव और मायावती की बात है तो ये दोनों हस्तियां कानपुर शहर से बहुत खार खाती हैं. कारण कि यहां भीड़ और जाम के शहर में न तो साइकिल चल पाती है और न ही हाथी दौड़ पाता है. तो क्या यह समझा जाये कि शहर की राजनीतिक नाराजगी को यहां का पत्रकार भुगतता है? बिल्कुल... यहां का पत्रकार अब राजनीतिक खुन्नस का शिकार होता है. वैसे भी जबसे पेड न्यूज को सार्वजनिक रूप से पत्रकारिता व्यवसाय की ताजा आवश्यकता माना जाने लगा है, समूची पत्रकारिता ने निष्पक्षता और ईमानदारी का अपना मूल आधार खो दिया है. ऊपर से कानपुर में पत्रकारिता का कुल मतलब होता है दैनिक जागरण. क्योंकि कानपुर जागरण की नाभि है और उसके पास पाठकों में अकेले दम इतना असर है जितना बाकी के अखबार मिलकर भी पैदा नहीं कर पाते. फलस्वरूप कानपुर में पत्रकारिता और पत्रकारों की दशा-दिशा इसी अखबार की रीति-नीति, उन्नति-अवनति, विचार-व्यवहार से बरबस ही संचालित होती है. प्रेम प्रकाश का जागरण से उलझना और उलझ कर भी पूरी ठसक के साथ कुर्सी पर जमे रहना हर क्षण कानपुर के पत्रकारों की जड़ों में रिसता तेजाब सरीखा ही रहा. शहर की पूरी पुलिस पत्रकारों को सबक सिखाने के मूड में रही. जहां तक अखबारों से राजनीतिक खुन्नस की बात है तो जागरण पिछले दो दशकों से राजनीतिक रूप से एक पक्ष विशेष का अखबार माना जाने लगा है. पहले स्व. नरेन्द्र मोहन जी के भाजपा सांसद होने के कारण और फिर श्री महेन्द्र मोहन जी के सपा सांसद बनने के कारण. यही मुलायम सिंह एक समय जागरण के खिलाफ हल्ला भी बोल चुके हैं. और मायावती तो खैर मीडिया से ही खार खाये रहती हैं. ऐसे ही अन्य अखबारों के भी मालिकान भी अपनी-अपनी राजनीतिक निष्ठाएं रखते हैं. और जब विपरीत निष्ठा की सत्ता होती है तो उसके कोप भाजक बनते हैं. राष्ट्रीय सहारा को समय-समय पर मुलायम सिंह की करीबी का खामियाजा भुगतान करना पड़ता है. अभी तक का तो अनुभव यही है कि राजनीतिक सांठ-गांठ से अखबार के मालिकानों को भले ही करोड़ों-अरबों का वारा-न्यारा होता हो, लेकिन उसके इस बाजारू रुख से सड़क पर घूमने वाला पत्रकार सड़क छाप आवारा सरीखा हो गया है. वरना किसकी मजाल थी कि सुबह से शाम तक २० रुपये से लेकर २० लाख रुपये तक की खुली रिश्वतखोरी में लिप्त रहने वाली पुलिस अखबार के दफ्तर में घुसकर पत्रकारों के सामने डंडा लहराये. यह सब कानपुर में हुआ जिसे प्रदेश के अखबारों की सबसे बड़ी मंडी माना जाता है. जिसे गणेश शंकर विद्यार्थी का भी नगर होने का गौरव प्राप्त है. 1

हम तो पुजारी हैं पूजेंगे

विशेष संवाददाता

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भारत दौरा बेहद 'स्टाइलिशÓ रहा. युवाओं को उनका हर अंदाज पसंद आया. उनकी चाल, उनके डायलॉग, उनकी क्या मस्ती, उनकी जिंदादिली सब कुछ है. ओबामा आये भी शायद यंगिस्तान को ही रिझाने थे. उनका जय हिंद कहना, चांदनी चौक का जिक्र करना. महात्मा गांधी को अपना आदर्श बताना. सब कुछ था भी 'वेल रिटर्न स्क्रिप्टÓ की तरह. कतिका कहती हैं- ''हां, यार! ओबामा इज गे्रटÓ वैसे तो किशन लाल की गांधी से अधिक श्रृद्घा अपने करोबार पर है और ओबामा से अधिक डर अपनी पत्नी का है. लेकिन पिछले दिनों न तो उनका कारोबार आड़े आया और न ही पत्नी का 'डरÓ. सुबह नौ पैंतीस पर वे राजघाट जा पहुंचे. पूछने पर बोले मत्था टेकने आये हैं गांधी की समाधि पर. अच्छा बड़ी अगाध श्रृद्घा है गांधी पर. लेकिन आज तो यहां १०.२० पर ओबामा आ रहे है...? वह बोले, पता है, लेकिन उनके जाने के आधा घंटा बाद राजघाट खुल जायेगा. ओबामा के बाद सबसे पहले हम मत्था टेकेंगे. किशन लाल ने ऐसा पहली बार नहीं किया. जब जार्ज बुश आये थे जब भी उन्होंने ऐसा ही किया था. वैसे किशन लाल कभी राजघाट नहीं जाते, और तो और अपने बच्चों को भी उन्होंने कभी राजघाट की सैर नहीं कराई. लेकिन जब भी कोई अमरीकी राष्ट्रपति गांधी समाधि पर आता है तो उन्हें लगता है कि जरूर गांधी कोई चीज है. वरना अमरीका का राष्ट्रपति यहां क्यों आता. अब किशन लाल की श्रृद्घा की तासीर समझने में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए. किशन लाल गांधी को नहीं 'ओबामाओंÓ को मत्था टेकने जाते हैं राजघाट. हम भारतीय इसतरह प्रमाण देते हैं कि हम दुनिया में आज भी नम्बर एक के मूर्ति पूजक हैं. हमारा श्रृद्घा भाव 'कर्मकांडेÓ के वशीभूत है. 'कर्मकांडÓ पंडों के हाथों निहित होता है. और पंडे कभी कमाई का मौका नहीं छोड़ते हैं चाहे उसकी शक्ल मीडिया की हो, राजनेताओं की हो, व्यापारियों की हो या दलालों की. इन दिनों भारत में आम राय जिसे हम सामान्य राय कहें तो ज्यादा बेहतर होगा. बनाने या बिगाडऩे का काम मीडिया करता है. हमारे निर्णय मीडिया से बुरीतरह प्रभावित होते हैं. मीडिया अगर राई को पहाड़ बनाने पर उतर आये तो बनाकर ही छोड़ता हे. सामूहिक तौर पर जब एक स्वर में मीडिया बोलता नजर आता है तो उसमें और शेयर दलालों के सक्रिय गिरोहों में कोई फर्क नहीं रह जाता. दो कौड़ी की राखी को ये मीडिया दो करोड़ का ब्राण्ड बना देता है. पूरे देश की मिठाई को ऐन दिवाली पर जहर बताकर घर-घर चॉकलेट और कुरकेरे बिकवा देता है. यह किशन लाल का जो जिक्र किया गया है वह यूं ही नहीं है. ओबामा ने भले ही गांधी के सामने मत्था टेका हो लेकिन हम गांधी के देशवासी तो किसी बुश या ओबामा को ही मत्था टेकना पसंद सकते हैं. हमें भी हमारा गांधी तब गांधी नजर आता है जब कोई अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष उसे महान कह देता है. और भला किशनलाल को क्यों दोष दें? पूरा देश ही क्या ओबामा को मत्था नहीं टेक रहा है? मुंबई उतरते ही पहले प्रशासन ने मत्था टेका, इस बात को जानते हुए भी ओबामा के प्रशासन ने भारत में आकर उनका अपमान कर दिया है. फिर भी प्रोटोकाल के नाम पर महाराष्ट्र ने मत्था टेका. उसके बाद मुंबई के व्यापारियों ने मत्था टेका. छोटे भैया अनिल अंबानी ने सगर्व घोषणा की कि वे अमेरिका की जीई कंपनी से 700 मिलियन डॉलर का समझौता करके ओबामा को भरोसा दिलाया कि वे अमेरिका को आर्थिक मंदी से डूबने नहीं देंगे और दिल्ली मुंबई के मीटरों में गड़बड़ करके आम आदमी से जो वसूली की जाती है उसका बड़ा हिस्सा वे अमेरिका की आर्थिक समृद्धि को बनाये रखने के लिए खर्च करेंगे. बदले में अनिल अंबानी को प्रसाद रूप में ओबामा से बात करने और बगल में बैठने का मौका मिल गया. फिर रतन टाटा ने मत्था टेका. मुकेश अंबानी ने मत्था टेका. मुंबई की पूरी व्यावसायिक बिरादरी ओबामा के आगे बिछ गयी. लेट गयी. पसर गयी. अभी तक अमेरिका प्रशासन निवेश करके मत्था टेकने के लिए भारतीय प्रशासन को मजबूर करता था अब उन उद्योगपतियों को अपने यहां पैसा लगाने के लिए बुलाकर मत्था टेकने को मजबूर करता है जो भारत के आम आदमी का खून पीकर लाल होने का दावा करते हैं.वहां से ओबामा दिल्ली आये तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एयरपोर्ट जाकर मत्था टेका. ऐसा करना मनमोहन सिंह की कोई प्रोटोकाल वाली मजबूरी नहीं थी लेकिन प्रशासनिक सेवाओं में रहते हुए मनमोहन सिंह ने न जाने कितने लोगों को एयरपोर्ट पर रिसीव किया होगा इसलिए उन्हें इस बात का अहसास रखने की जरूरत महसूस नहीं हुई कि अब वे प्रधानमंत्री हैं. बुश की तर्ज पर ओबामा ने भी बाएं हाथ से मनमोहन सिंह के कंधे को वैसे ही दबाया और उनका हाल चाल लिया. फर्क सिर्फ इतना था कि बुश ने मनमोहन का कंधा अमेरिका में दबाया था और ओबामा ने भारत में आकर वह कर्म कर दिया. मुंबई में अगर व्यावसायिक तौर पर ओबामा ने जीत हासिल की और देकर नहीं बल्कि हमसे लेकर हमारे ऊपर अहसान लाद दिया तो दिल्ली में दस्तक देते ही कूटनीतिक तौर पर उन्होंने संदेश दे दिया कि भारत अमेरिका के लिए कितना महत्वपूर्ण है.फिर भी हमारे मत्था टेकने की मानसिकता हमें यह सोचने का वक्त ही नहीं देती कि बतौर एक देश हमें किसी दूसरे देश के सामने कैसा व्यवहार करना चाहिए?1

चौथा कोना
एक और गधे की कहानी
प्रमोद तिवारी
पिछले दिनों मैंने आप लोगों को पंचतंत्र की एक कहानी 'धोबी और गधाÓ यह कहकर सुनाई थी कि पंचतंत्र का गधा अब पूरी तरीके से प्रेस तंत्र का हो गया है. मेरे एक मित्र हैं, मित्र क्या हैं मित्रता के नाम पर कबाड़ी हैं. व्यवसाय उनका पत्रकारिता है, जिसे उन्होंने पेशा बना लिया है. प्रेसतंत्र का गधा पढऩे के बाद उन्हें लगा कि मैंने उन्हें ही धोबी का गधा बना दिया है. बड़े नाराज दिखे. अब अगर नाराज हो ही गये हैं, तो इस बार फिर एक गधे की कहानी सुनें. यह कहानी मैंने कई दिन पहले सुनी थी सिद्घार्थ जोशी से. सो अब इसे अपने पत्रकार दोस्तों को सुना रहा हूं.. विशेष रूप से अपने कबाड़ी पत्रकार दोस्त को.गांव में एक धोबी के पास एक गधा था. उस धोबी के घर के पास एक सूखा हुआ गहरा कुआं था. रोजाना गधा कुएं के पास से गुजरता. एक दिन गधा कुएं में गिर गया. उस समय धोबी घाट पर था. गधे की किसी ने सुध नहीं ली. वह शाम तक कुएं में गिरा कहराता रहा. शाम को मालिक घर आया तो उसने देखा कि गधा कुएं में गिर चुका है. अड़ोस पड़ोस के लोग एकत्रित हो गए. सबने मिलकर निर्णय किया इन घरों के बीच खुदा हुआ यह सूखा कुआं खतरनाक हो सकता है, सो इसे भर दिया जाए. गांव वालों ने मिट्टी लाकर कुएं में डालनी शुरू की. यह गधा कृष्ण चंदर के गधे की तरह इंसानों की बातों को समझने वाला था. बस इसमें अधिक अक्ल यह थी कि कभी इंसानों की बोली नहीं बोलता था. उसने सुना कि उसे जिंदा दफन करने की तैयारी हो रही है. पहले पहल तो वह गधा खूब रेंका और अपनी ही भाषा में चिल्लाता रहा कि हरामखोर धोबी मैंने जिन्दगीभर तेरी गुलामी की, तू उसकी यह सिला दे रहा है. लेकिन गधे की बात किसी ने नहीं सुनी. कुएं को भरना शुरु कर दिया गया. जैसे जैसे कुएं में मिट्टी गिरती गई गधा चतुराई से मिट्टी के ढेर पर चढ़ता रहा. घण्टों की मशक्कत के बाद गांव वालों ने कुएं को मिट्टी से भर दिया. ढेर पर चढ़ता हुआ गधा भी ऊपर तक आ गया. अपने गधे को सुरक्षित देख मालिक चिल्लाया कि मेरा गधा वापस आ गया. लेकिन अब तक गधे का मन भी फिर चुका था. उसने अपने ही मालिक को दुल्लती मारी और बोला कौन सा मालिक? कैसा मालिक? मुझे तो तुम कुएं में ही दफन कर रहे थे. ऐसा कहकर गधा चला गया और मालिक देखता रह गया. इस गधे को कहीं और नहीं इस स्तम्भ के लेखक के रूप में भी देख सकते हैं. कुछ गधे अब भी बड़े संस्थानों में काम कर रहे हैं. जब वे कुएं में गिरेंगे तो उन्हें निकालने के बजाय उन पर मिट्टी ही डाली जाएगी. 1
नारद डाट काम

पुलिस का डॉगी

कमलेश त्रिपाठी

गैर जानकारों के लिये सूचनार्थ: पुलिस में कुत्ते भी होते हैं. इनका कार्य सूंघ - सूंघ कर चोर उचक्कों का पकड़वाना होता है. पिछले हफ्ते पुलिस का एक कुत्ता झुण्ड बनाकर घूमने वाले आवारा कुत्तों से टकरा गया. आपस में खूब भौंका -भौंकी हुई. पुलिस का कुत्ता बोला- अबे साले! अवारा कुत्तों, शहर में धारा-१४४ लगी हुई है. और तुम लोग सार्वजनिक स्थान पर ५ से ज्यादा संख्या में इक_े होकर एक निरीह कुतिया के पीछे पड़े हो.अभी तुम्हारे पिछवाड़े पर एक लात मारकर हवालात की हवा खिलवाता हूं. आवारा कुत्ते तो आवारा ठहरे. बोले, सुन बे पुलिस के पालतू डॉगी! हम तेरे अरदब में आने वाले नहीं हैं. अपनी खलीफाई थाने में ही दिखाना. जहां तक एक सिंगल कुतिया का सवाल है, तो हम लोगों के यहां भी इंसानों की तरह मादा भ्रूण का कत्ल किया जा रहा है. कुछ दिन बाद आदमियों की भी यही दशा होने वाली है. एक के पीछे दर्जनों टहलेंगे. आपस में बतियाते-बतियाते पुलिस के कुत्ते और सड़कछापों में प्रेम भाव जाग्रत हो गया. कुत्तों के झुण्ड ने पुलिस वालेसे कहा यार तुम्हारी एक बात समझ नहीं आई. हर घटना के बाद घूम फिरकर तुम थाने में आकर क्यों खड़े हो जाते हो? अरे मूर्खों आवारागर्दी करते -करते तुम लोगों की अक्ल मारी गई है. हम लोग पुलिसवालों से इतर सही तफ्तीश करते हैं. न तो हम लोग रिश्वत खाते हैं और न ही गलत काम करते हैं. दरअसल हर जुर्म का केन्द्र पुलिस थाना ही होता है तो मुझे न चाहकर भी वहीं खड़े होना पड़ता है. अच्छा दोस्त एक बात बताओ जैसे हम लोग सड़कों पर पत्तेचाटी करते हैं तुम्हे तो शानदार खाना जैसे गोश्त रोटी बिरयानी सब मिलता होगा. शुरूआती दौर में तो मिलने वाले भोजन से मैं सन्तुष्ट रहता था लेकिन अब मुझे भी पत्तेचाटी की लत लग गई है. यह इस विभाग की महिमा है जैसे पुलिस की पगार कितनी भी बढा दी जाए, ये ऊपर का माल खाये बगैर गुजारा नहीं कर सकते हैं. अच्छा एक बात बताओ रिटायर होने के बाद तुम क्या करोगे? तुम्हारे झुण्ड में शामिल होकर कामशास्त्र में निपुणता हासिल करूंगा. चूँकि पुलिस में ऐसी कोईव्यवस्था नहीं है. थोड़े समय के बाद आवारा कुत्तों ने देखा कि एक मरियल खजहा टाइप का बिरादरी वाला सामने से आ रहा है. थोड़ी देर बाद पंूछ नीचे दुबकाये सामने आकर खड़ा हो गयाऔर बोला आज मुझे स्वर्ग और नर्क में फर्क पता चल गया है. अब किसी भी जन्म में पुलिस की नौकरी नहीं करूंगा. योग गुरू रामदेव इन दिनों कुछ सरके हुए लग रहे हैं, कहते हैं कि भ्रष्टाचारियों को फंासी दो. अरे बाबा जल्लाद और रस्सी दोनों कम पड़ जायेंगे लेकिन इनकी कमी नहीं पड़ेगी.1

प्रथम पुरुष
क्रमिक विकास में सहायक हैं कीटाणु
डा. रमेश सिकरोरिया
आज जो हम आपको बताने जा रहे है. उस पर आप विश्वास नहीं करेगें आप तो यहां तक कहेंगे कि यह सब बकवास है. परन्तु यह सब विज्ञान की खोज पर आधारित है और आपके हित में है कि इस पर विश्वास करें और अपनी जीवन शैली को स्वस्थ बनाने में उपयोग करें. क्रमिक विकास का आधार है जिन्दा रहना और नयी पीढ़ी को जन्म देना. हमारी उद्भव सम्बन्धी या जन्म विषयक शक्ति इसीलिये हम किस वातावरण (जलवायु) में रह रहे हंै, हम क्या खा रहे हैं, हमारे रहने का क्या तरीका है के साथ ऐसा सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश करता रहता है ताकि हम जिन्दा रहें और अपने बच्चों को पैदा कर सकें. भोजन के साथ हम उन कीटाणुओं को भी खाते हैं जो हमारे खाने वाले पदार्थो पर जीवित है अतएव उनका क्रमिक विकास का भी आधार हमारी तरह जिन्दा रहना और अपनी नयी पीढ़ी को जन्म देना है . यह क्रम लाखों और अरबों वर्ष से चल रहा है और चलता रहेगा. प्रत्येक जीवित वस्तु चाहे वह कीटाणु हो, प्रोटोजोआ हो, शेर हो, चीता हो, भालू हो या हमारा भाई हो, बहन हो, यह कर रहा है क्यों कि यह उनकी मजबूरी है अन्यथा वे मर जायेगे वंश नहीं चला पायेंगे. हमारे शरीर में लगभग १००० प्रकार के कीटाणु जिनकी संख्या १०० लाख से १००० लाख है और जिनका वजन तीन पाउन्ड है रह रहे हैं. उनकी संख्या हमारे जींस की संख्या की सौ गुनी है. परन्तु सभी कीटाणु हानिकारक नहीं हैं, क्रमिक विकास में इन कीटाणुओं से हमको और इनको हम से लाभ भी हो रहा है. हमारी संवेदना से हमारी आकृति तक हमारे रक्त की कैमिस्ट्री में इन कीटाणुओं द्वारा उतपन्न बीमारियों से बचने के लिये निरन्तर प्रयास होता रहता है. हमारी सेक्स का आकर्षण भी बीमारियों से सम्बन्ध रखता है. इसका असर हमारे या हमारे बच्चों की संक्रामकता विरोध शक्ति पर भी पीड़ता है. अधिकतर यह कीटाणु हमारी पाचन नली में पाये जाते हैं जो हमारे खाद्य पदार्थों को पचा कर उनसे ऊर्जा पैदा करने में मदद करते हैं. वे हमारी कोशिकाओं को बनाने में मदद करते है और कीटाणुओं जो एक ओर गम्भीर बीमारी पैदा करते है तो दूसरी ओर हमें दूसरी बीमारी से बचने की शक्ति भी देते है. हीमोक्रोमैटोसिस एक बीमारी है जिसमें शरीर की क्षमता लोहा रखने की बढ़ जाती है. क्रमिक विकास से स्वाभाविकत: वे जीन हमारे बच्चों में जाते हैं जो लाभदायक हैं और हानिकारक जीन नहीं जाते हैं. इसी क्रिया से हम जीवित रहते है और जन्म देते है. इस क्रिया में कीटाणुओं का बड़ा योगदान है उनसे बचने के लिये हमारे जींस में बदलाव आता है. इसी प्रकार की क्रिया की कीटाणुओं का बड़ा योग दान है जिनकी क्रिया से हम जीवित रहते हैं, उनसे बचने के लिये हमारे जींस में बदलाव आता है. इसी प्रकार की क्रिया कीटाणुओं में भी चलती है, उनमें भी जिन्दा रहने और जन्म देने की क्षमता रहने के लिए बदलाव आता रहता है तमाम दवाओं से नष्ट होने से बचने के लिए उनमें बदलाव आता है. एन्टीबायोटिक्स खास तौर पर पैनीसलीन की क्षमता पर विराम लगना इसका प्रमाण है. अधिक लोहा हमारे शरीर के कीटाणुओंका खाना है और उसकी अधिक मात्रा में पनपते है. देखा गया है कि अनीमियासे पीडि़त लोगों में मलेरिया टी.वी बू्रोसीलेसिस और अन्य संक्रमण कम होते हैं.रोग को कीटाणु तीन प्रकार से फैलाते है-एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति की निकटता से वायु के द्वारा या शारीरिक सम्पर्क से जैसे कि साधारण जुकाम, चेचक या यौन क्रिया द्वारा फैलाने वाली बीमारियां. हम अपने बचाव के लिए एक दूसरे से दूरियां बढ़ाते है कीटाणु अपनी संक्रमकता रखने के लिए ऐसे लक्षण या आदत पैदा करते हैं कि हमारा यह उपाय कारगर न हो, जैसे साधारण जुकाम में छींक आना और यौन क्रिया की इच्छा का बढऩा. किसी अन्य जीव के माध्यम से रोग फैलाना जैसे कि मच्छर मक्खी या फली द्वारा मलेरिया अफ्रीका की स्लीपिंग सिकनस, टाइफस इत्यादि हम अपना बचाव इन जीवों के काटने से या सम्पर्क में आने से बचाव करते हैं मच्छरदानी लगा कर या इनसे दूर रहकर. हम लोग ये गांव तक छोड़ देते हैं चूहों को मरते देख कर अपने बीमार प्रियजनों को भी मरने के लिए छोड़ देता है. कीटाणु अपनी क्षमता बनाये रखने के लिए हमे इतना कमजोर बना देता है कि हम इधर-उधर भाग न जाये और वह हमारे शरीर पर हमला कर सकें. तीसरा हमारे पानी खाना और वायु को दूषित करके जैसे कि कौलरा, टाइफाइड, हिपेटाइटिसर पीला पन जौन्डिस हम अपना बचाव खाद्य पदार्थो पानी और वायु को दूषित होने के उपाय करते हैं कीटाणु अपनी क्षमता रखने के लिए इनको दूषित करने की आदत डालता है जैसे कि बारबार दस्त होने के लिए पानी के श्रोतो के पास जाना मक्खी द्वारा खाने पर बैठना अन्य जीवों द्वारा वायु का भी दूषित होना.1
दीपावली विशेष
अंधियारों का ज्योति पर्व
विशेष संवाददाता
अनुस्का (दिव्या), चांदनी, वंदना, आरती, पूजा, शबीना, रागिनी ये सारे के सारे नाम हैं रोशनी के जिन्हें इसबार दीपावली में अपने घर-आंगन को जगमग करना था. लेकिन किसी पर तेजाब फेंक दिया गया, किसी का बलात्कार कर दिया गया, किसी को घर वालों ने फूंक दिया और किसी को 'मालÓ बना दिया गया बाजार का. फिर भी शहर की नारी शक्ति ज्योति वाली माताएं खुश हैं कि वे बच गईं लुटने से, पिटने से, फुंकने से.... चलो इसी खुशी में दिये जलाएं दीपावली मनाएं. वैसे भी रोशनी के लिए दिये को सर पर आग ढोनी पड़ती है. कोई जलता है तब ही प्रकाश फैलता है चाहे वह दिया हो या दिव्या, आरती हो या चांदनी. यह शहर भी सर पर आग ही धरे हुए है. अगर ऐसा न हो तो यहां कौन मनाये दीपावली? जिस शहर में लाखों की संख्या में चूल्हे ठंडे हुए हों, रोजी-रोटी के पावन मन्दिर कबाडिय़ों को सौंप दिए गए हों उस शहर में कैसी दीपावली? जिस शहर में बिना किसी गुनाह के कानून वाले किसी भी निर्दोष को सलाखों के पीछे डाल देते हों, गोली से उड़ा देते हों, घर के बाहर पाँव रखने के बाद सही-सलामत वापसी की उम्मीद न हो, रोशनी केे लिए तेल का टोटा हो, जगमग झालरों के लिए बिजली दुर्लभ हो, उस शहर में कैसी दीवाली? पिछली दीवाली से इस दीवाली के बीच में कुछ भी तो ऐसा नहीं घटा जिस पर दिये जलाए जाएं. मरीज इलाज कराने जाता है डॉक्टर उसे लूट लेता है. दरअसल जिस शहर में आदमी की जगह वोटर रहते हो वहां कोई त्योहार, कोई संस्कार, कोई परम्परा महज किसी जुलूस, प्रदर्शन, नारों और वादों के अलावा और हो भी क्या सकता है? फिर भी समय की छाती कोरी नहीं रहती, गलत-सही सीधा-टेड़ा, कुछ न कुछ तो उस पर अंकित होता ही है. इस वर्ष के ज्योति पर्व के सफे भी कोरे नहीं है. आइए कोशिश करें इन ज्योतित पृष्ठïों को पढऩे की. देखें वर्ष भर के ज्योति खण्ड में इस शहर ने ज्योति के कितने खण्ड किए और कितने खण्डों को कालजयी ज्योर्तिमय बनाया. तमाम राजनैतिक पार्टियां और उनकी केन्द्र व प्रदेश सरकारों के बीच मची उठापटक के बाद बने गंगा बैराज के साथ शहर को खुश होकर दीपावली मनाने का एक बहाना मिला था. बरसात के पानी ने इस बहाने पर भी पानी फेर दिया, सैकड़ों लोग ऐसे बेघर हुए जिन्हें अब तक घर नसीब नहीं हुआ है. घर ढूंढऩे की तलाश के बीच ये लोग कैसे जगमग करेंगे अपनी उजड़ चुकी बस्तियों को?शहर के हजारों-हजार मजदूरों के घरों में दीपावली की खुशियां बाँटने वाली दर्जनों मिलें तो अब बन्द हो चुकी हैं. बाकी रही सही छोटी बड़ी इण्डस्ट्रियां भी धीरे-धीरे शहर से बाहर जा रही हैं.अनगिनत लोग बेरोजगारी का अभिशाप झेल रहे हैं. पेट की आग बुझाने में जल रहे ये लोग भला दिये कैसे जलाएंगे? शहर ने पूरे साल स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही और भ्रष्टाचार को झेला. न जाने कितने लोग डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया जैसी जानलेवा बीमारियों की भेंट चढ़ गए. इन बीमारियों से निपटने के बजाय स्वास्थ्य विभाग मरीजों के आँकड़े छुपाने में ही लगा रहा. बहुत से लोग तो इन बीमारियों की दवाओं और टीकों की कमी की वजह से ही भगवान को प्यारे हो गए. मगर हुआ क्या? जिन जूनियर डॉक्टरों को मरीजों और आए दिन होने वाले हादसों में घायल हुए लोगों का इलाज कर कुछ सीखना चाहिए था वो मरीजों, घायलों और तीमारदारों से गाली-गलौच करने और उन पर गुम्मे चलाने में ही मस्त रहे. जिन लोगों ने इन भविष्य के डॉक्टरों के खौफ को झेला क्या वो इस सबसे खुश होकर घरों में छुरछुरिया छुड़ाएंगे? शहर के अधिकांश बेसिक प्राइमरी स्कूल टूटी फटी छतों के नीचे चल रहे हैं. जो खाना शायद जानवर भी मन से न खाएं, ऐसा बेस्वाद खाना बच्चों को मिड डे मील में दिया जा रहा है. स्कूलों में शिक्षक तक नहीं हैं, जो भी हैं सरकारी सर्वे में व्यस्त रहते हैं. कन्याधन के लिए खासी कटा-जुज्झ मची है. जिन गरीब छात्राओं को पैसा मिलना चाहिए उन्हें नहीं मिला. बच्चों के अभिभावक इस बात से खुश होकर इस ज्योति पर्व में लइया गट्टा खाएंगे कि उनके बच्चे प्राइमरी स्कूलों की इन भुतही इमारतों से बचकर, मिड डे मील का सड़ा खाना खाकर बिना बीमार हुए हंस खेल रहे हैं.धड़ाधड़ हो रहे अपराधों को रोकने में नाकाम रही शहर की खिसियाई पुलिस ने शहर के चुके हुए अपराधियों के साथ दीपावली के पहले ही जम कर आतिशबाजी मनाई. पुलिस तो साल शुरू होने से पहले ही दीवाली मनाने की तैयारी में जुट गई थी. हेलमेट चेकिंग, प्रदूषण चेकिंग, वाहन चेकिंग के बहाने पुलिस के धुरंधर वीर जवानों ने खूब मोटा माल अन्दर किया. उन्हें लइया, खील, गट्टा खिलौना खरीदने की रत्ती भर चिन्ता नहीं है यह सब तो फ्री फोकट का मिलेगा ही. इस ज्योति पर्व में महंगे घरेलू सामान से पूरा घर जगमग जगमग होगा. फिर भी पढ़-लिख कर डॉक्टर इन्जीनियर बनने का सपना संजोए बच्चों के अभिभावकों की जेबें हल्की करने में लगे शहर के तमाम कोचिंग संचालकों में इस दीपावली का खास क्रेज है. लोगों की मेहनत की गाढ़ी कमाई चूसकर रईसजादे लाखों के पटाखों में आग लगा कर रोशनी का त्योहार मनाएंगे और कोचिंग पढऩे के लिए इनको हजारों रुपए देने वाले छात्र इस आतिशबाजी के धुएं की जलन आँखों मेें लिए किताबों के दिए जलाएंगे.दीपावली के मौके पर किसी को कार खरीदनी है, किसी को दुपहिया, कोई घर बनवाना चाहता है, कोई घर में रंग रोगन कराना चाहता है, किसी को रंगीन टीवी खरीदना है तो किसी को महंगा होम थिएटर सिस्टिम. इन सभी के लिए शहर में मौजूद राष्टï्रीय अन्तर्राष्टï्रीय बैंकों ने अन्धी उधारी बांट रखी है. ये फाइनेन्स कम्पनियां इसी खुशी में कि आधे से ज्यादा शहर इनका कर्जदार बन गया है, पटाखे छुड़ाएंगी. इन कम्पनियों के कर्जदार इस खुशी में अपना घर रोशन करेंगी कि चलो कर्ज से ही सही प्रतिज्ञा और बालिका वधू जैसे सीरियलों की दीवाली पूजा में वह भी शामिल होंगे. इसके लिए प्रतिज्ञा को विदेशी बैंकों का ऋणी होना चाहिए. अच्छा हो कि ब्याज भी देना शुरु कर दें. खैर कुछ भी हो शहर यह ज्योति पर्व तो मनाएगा ही और हम भी. लेकिन इस पावन पर्व पर हम ऐसे दिए जलाएंगे जिनकी रोशनी में तमाम अमावसी स्याह चेहरे अपना रंग रूप देख लें. हर साल की तरह इसबार भी कल्याणपुर थाना क्षेत्र में दीपावली के पहले का धमाका हुआ. स्वास्थ्य विभाग की एक इमारत में बारूदी दीपावली का सामान बनाते लोग हमेशा के लिए अंधेरे में खो गये. रोशनी चकनाचूर, लहूलुहान कराहती मिली त्योहार के ठीक पहले. जगमगाते शहर में जिधर देखो अंधेरा, धुप्प अंधेरा. पहली बार लगा, दिया रोशनी की जगह अंधेरा उगलता है, धुएं की जगह आंसू बहाता है.1
नारद डाट काम
आपरेशन रावण
कमलेश त्रिपाठी
इन दिनों शहर में रावण की तलाश जारी है. पत्रकार, पुलिस और शहर के भलेमानुष सब इसी पुनीत कार्य में लगे है. पता नहीं ये रावण ससुरा है क्या आइटम हर साल फुँकता है और फिर खड़ा हो जाता है. पत्रकारों समेत तमाम लोगों का मानना है कि पुलिस ही असली रावण है. मुझे उनका ये मानना अनेक कारणों से हजम नहीं हो रहा है. शास्त्रों के मुताबिक जब विभीषण ने पहली बार राम को रावण दर्शन करवाये थे तो राम ने कहा था भव्य! क्या व्यक्तित्व है. अपनी पुलिस तो ऐसी है नहीं, इसलिए उसे रावण मानना उचित नहीं है. दूसरा रावण मर्द था और अभी तक बड़े बड़े विद्वान पुलिस का लिंग नहीं तय कर पाये हैं. पुलिस हमेशा करती है करता नहीं. ऐसे में पुलिस को स्त्रीलिंग माना जा सकता है. ऐसे में स्त्री रावण कभी नहीं हो सकती. लोग तर्क देते हैं कि पुलिस ने ये किया, वो किया, इसको मारा, उसको पीटा और फलां को गलत जेल भेज दिया. ये काम स्त्री कभी नहीं कर सकती, ये तो निखालिस मर्दों का काम है. आप लोगों की सोच का फर्क है. आपको मंथरा की याद नहीं है क्या आप राखी सावंत को भी भूल गए हैं. पहले वाली रामराज्य में गदर काटे रही और बाद वाली अब काटे है. इस गणित के अनुसार पुलिस को स्त्रीलिंग मानने में लोगों को संकोच नहीं होना चाहिए. अब यहाँ एक बात विचारणीय है कि किसी स्त्री के साथ आपका क्या आचरण होना चाहिए. खासतौर पर जब वो निर्लज्ज हो चुकी हो. सयाने कह गये है कि ऐसी स्त्री से दूरी बनाए रखना ही अक्लमंदी है. पुलिस के वाहनों में मैंने हमेशा लिखा देखा है कि कृपया उचित दूरी बनाए रखें. इस गूढ़ अर्थ को जो नहीं समझेगा वो हमेशा परेशान रहेगा. यहाँ एक बात और है कि मर्द को मर्द से लडऩा चाहिए औरतों से क्या लडऩा. फिर धरना प्रदर्शन से उनका कुछ बिगडऩे वाला नहीं है. इनका सही और सटीक इलाज शहर के काले कोट वाले करते हैं. दरअसल ये उन्हें उन्हीं की भाषा में समझाते हैं और ये समझ जाते हैं कलम और डंडे का क्या मेल? एक डंडे से सैकड़ों कलमें टूट सकती हैं लेकिन उनकी आवाज दब नहीं सकती. शहर में धारा 144 लगी हुई है. यदि आपके परिवार में पाँच से ज्यादा सदस्य हैं तो एक आध को बाहर रिश्तेदारी में भेज दीजिए नहीं तो शहर की स्त्री पुलिस आपको रावण बना देगी.1

चौथा कोना

प्रेसतंत्र की एक कहानी धोबी का गधा

बचपन में पंचतंत्र की एक कहानी सुनी भी थी और पढ़ी भी. कहानी का शीर्षक था 'धोबी का गधाÓ. इस कहानी में धोबी अपने गधे का पूर्ण शोषण (काम) करने के बाद शेर की खाल उढ़ाकर हरे-भरे खेतों में पोषण के लिए चरने छोड़ देता था. गधा शेर की खाल में हरी-हरी घास चरकर मस्त था. गांव वाले शेर की खाल में गधे को शेर ही समझते थे. धोबी की भी मौज थी. एक दिन गधे से नहीं रहा गया. जब उसका पेट फुल टाइट हो गया तो उसे 'लोटासÓ और 'रेंकासÓ लगी. वह भूल गया कि वह 'शेरÓ नहीं गधा है. फिर क्या लगा लोटने और रेंकने. गांव वाले जान गये कि हम जिसे शेर समझ रहे थे वह तो गधा है. गांव वाले लाठी-डंडा लेकर निकल पड़े. इसके बाद की कथा में गाव वाले गधे को पीट-पीटकर मार डालते हैं. यह कहानी मुझे अकारण याद नहीं आई है. पिछले दिनों जब पत्रकारों व मीडिया पर हमले के विरोध में शिक्षक पार्क में प्रेस क्लब के बैनर तले हाहाहूती धरने का प्रदर्शन हुआ तो लगा कि चिंता की बात नहीं अभी बड़ा दम है कलम के सिपाहियों में. मीडिया कर्मियों ने डीआईजी प्रेम प्रकाश के तबादले की मांग तक कर डाली. हिन्दुस्तान अखबार ने इस विरोध मांग प्रदर्शन में कर्ता-धर्ता की भूमिका निभाई. लेकिन अगले दिनों में केवल 'हिन्दुस्तानÓ ने ही पत्रकारों के आंदोलन की तस्वीर व खबरें छापीं. बाकी अखबारों ने तो प्रेस क्लब के धरने को ही अछूत बना दिया. अब इस प्रेस क्लब और इसकी ताकत को क्या समझा जाये. क्या यह धोबी का गधा नहीं लग रहा, जो शेर की खाल में हरियाली खाकर मोटा-तगड़ा तो होता जा रहा है लेकिन दहाड़ नहीं सकता अपने पैने नाखूनों और तेज दांतों से किसी को फाड़ नहीं सकता. प्रेस क्लब का धरना उसकी हुंकार शेर की खाल ओढ़े पेट भरे गधे की लोटाई और रेंकाई के अलावा और कुछ नहीं साबित हो सकी. सब जान गये कि क्या है प्रेस क्लब और उसके तीरंदाज पत्रकार.वैसे धोबी मुगालते में है. जिन्हें यह गधा समझ रहा है ये गधे नहीं हैं.. बल्कि आराम से हराम की चरते-चरते गधे हो गये हैं. इन्हें शेर की खाल की जरूरत ही नहीं, ये तो खुद शेर हैं लेकिन इनको पैदा होते ही गधों के बीच पाला-पोसा गया है बड़े जतन से. सो, ये दहाडऩा भूल गये हैं, रेंकना सीख गये हैं. फिलहाल तो स्थिति यही है.1प्रमोद तिवारी

यह लड़ाई केवल दिव्या की ही नहीं...

अरविन्द त्रिपाठी

विशेश्वर कुमार, संपादक- हिन्दुस्तान- डी.आई.जी. वर्दी की आड़ में दोषिओं को बचाने और छिपाने में संलिप्त हैं. दूसरे अखबारों और पत्रकारों को पुलिस की दमनकारी नीति के विरूद्ध लड़ाई में हमारा साथ देना चाहिए था. दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो रहा हैअनूप बाजपेई, अध्यक्ष- प्रेस क्लब-आज का युग खोजी पत्रकारिता का है. इसी प्रकार से लेखन से जनता की लड़ाई लड़ी जाएगी और पुलिस को अपने तौर. तरीकों में बदलाव लाना ही पड़ेगा. यदि समाचार पत्रों में इस आन्दोलन को नहीं लिखा भी जाएगा तो भी हम अपना काम करते रहेंगे.दिनेश जुयाल, संपादक- अमर उजाला-पुलिस से हिन्दुस्तान का व्यक्तिगत बैर है. वे अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं. 2 अक्टूबर को पुलिस द्वारा पत्रकारों के साथ यतीमखाना चौराहे पर बदसलूकी की गई थी और इसमें हिन्दुस्तान के लोग भी थे. हिन्दुस्तान वही लड़ाई लड़ रहा है.कानपुर के रावतपुर गांव में स्कूल गई नौ वर्षीय की गंभीर हालत में वापसी और बाद में मौत के बाद पुलिस के द्वारा की गई लीपापोती ने मामले की गंभीरता को बढ़ा दिया. स्वयंसेवी संगठनो और रंगकर्मियों को विरोध करने से रोका गया. धारा.144 के बहाने दो पत्रकारों पर मुक़दमे भी किये गए. हद तो तब हो गई जब हिन्दुस्तान अखबार के आफिस का घेराव किया गया और आफिस में घुस कर दबाव बनाने के लिए चोरी की गाडिय़ों को चलाने का आरोप लगाया गया. इसके पहले दिव्या केस में सक्रियता दिखाने वाले पत्रकारों में से 21 को धारा 160 के तहत नोटिस जारी की जा चुकी थी. पुलिस के प्रेस के खिलाफ इन तीनों कार्यों से प्रेस बनाम पुलिस का विवाद तूल पकड़ गया. इसमें तेजी तब आई जब कानपुर प्रेस क्लब भी इसमें कूद पड़ा. प्रशासनिक अधिकारिओं ने भी पुलिस की इस गतिविधि को गलत माना पर डीआईजी प्रेमप्रकाश के कानों पर अभी तक जून नहीं रेंगी है. शहर में हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान टाइम्स अब दिव्या की लड़ाई को अपनी व्यक्तिगत लड़ाई की हद तक मान बैठा है. हिन्दुस्तान के स्थानीय सम्पादक विश्वेश्वर कुमार कहते हैं प्रेस पर हुए हमले में सदैव प्रेस की ही जीत हुई है. प्रेस के खिलाफ न लड़ कर पुलिस को अपनी गल्तिओं पर ध्यान देना चाहिए था. वास्तविक दोषी को बचाने में पीडि़तों के हितों की अनदेखी की जा रही है. डीआईजी वर्दी की आड़ में दोषिओं को बचाने और छिपाने में संलिप्त हैं. दूसरे अखबारों और पत्रकारों को पुलिस की दमनकारी नीति के विरूद्ध की लड़ाई में हमारा साथ देना चाहिए था. दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो रहा है. उन्हें सोचना चाहिए था कि आज हमारी बारी है तो कल उनकी बारी हो सकती है. हम दिव्या को इन्साफ दिला कर दम लेंगे चाहे पुलिस कितने ही कड़े कदम क्यों न उठाये. प्रेस क्लब हमारी लड़ाई में साथ है पर वह उतना मजबूत नहीं रहा और पत्रकारों में एकता में कमी आई है. कठिन दौर है पर जीत इन्साफ की होगी. हम कोई गलत काम नहीं कर रहे हैं जो पुलिस से डर जाएं. प्रेस क्लब, कानपुर ने हिन्दुस्तान अखबार और पत्रकारों के विरुद्ध की गई पुलिसिया कार्यवाही के विरोध में 16 को तत्काल बैठक बुलाई और कानपुर के डीआईजी के तत्काल निलंबन एवं स्थानांतरण एवं पत्रकारों के मुक़दमे वापस लेने, नोटिस वापस लेने और हिन्दुस्तान अखबार पर की गई कार्यवाही की उच्च स्तरीय जांच करने संबंधी ज्ञापन कानपुर कमिश्नर के माध्यम से प्रदेश की मुख्यमंत्री को भेजा है. किसी भी घटना के बहाने पुलिस पर हिन्दुस्तान पर हमलावर होने के प्रश्न पर अनूप बाजपेई अध्यक्ष, प्रेस क्लब कानपुर कहते हैं की आज का युग खोजी पत्रकारिता का है. सभी मामले सीबीआई आदि जांच एजेंसिओं के सामने लाने के पहले इसी प्रकार से लिखने और सामने लाने पड़ते हैं. यह न्याय की लड़ाई है लड़ी जाएगी और पुलिस को अपने तौर-तरीकों में बदलाव लाना ही पड़ेगा. यदि समाचार.पत्रों में इस आन्दोलन को नहीं लिखा भी जाएगा तो भी हम अपना काम करते रहेंगे. कानपुर में अमर उजाला के स्थानीय सम्पादक दिनेश जुयाल का कहना है कि अमर उजाला ने दिव्या काण्ड की रिपोर्टिंग में कमी नहीं की परन्तु पुलिस से हिन्दुस्तान का व्यक्तिगत बैर है. वे अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं. वह 2 अक्टूबर की घटना का हवाला देते हैं, जिसमें कुछ पत्रकारों के साथ यतीमखाना चौराहे पर पुलिस द्वारा कुछ बदसलूकी की गई थी और इसमें हिन्दुस्तान के लोग भी थे. वे कहते हैं शहर में रोज सैकड़ों घटनाएँ होती है किसी एक घटना को इतना तूल देने के लिए समाचार पत्र को बहुत अधिक पन्नों का होना चाहिए. यह पूछे जाने पर कि 20 अक्टूबर को जब कानपुर कमिश्नर से ज्ञापन की प्रगति के लिए एक प्रेस क्लब का प्रतिनिधि मंडल गया तो उसमें अमरउजाला के वे पत्रकार भी नहीं गए जो प्रेस क्लब में पदाधिकारी हैं. पत्रकारों की एकता के लिए संघर्ष करने का दावा करने वाले श्री जुयाल इस प्रश्न पर अपनी अनभिज्ञता जताते हैं जिसके पत्रकार बिरादरी में गूढ़ अर्थ निकाले जा रहे हैं. पत्रकारों में यह चर्चा आम हो गई है कि जो लोग संघर्ष में साथ नहीं हैं ऐसे नकारे, निकम्मे पदाधिकारिओं को तत्काल त्यागपत्र दे देना चाहिए और नए चुनाव अति शीघ्र कराये जाने चाहिएण् श्री तिवारी कहते हैं सच चार लाइनें भी लिखा जाए तो लाख झूठो पर भारी होता हीण्सभी अखबारों को पे्रस क्लब से तत्काल निकाल देना चाहिए. लेकिन यहीं पर सवाल यह है कि प्रेस क्लब आज की तारीख में खुद एक असंवैधानिक मंच है. खुद भ्रष्टाचार और अनीति का पोषक है. हिन्दुस्तान समाचार पत्र इलाहाबाद में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार एवं रीजनल मीडिया सेंटर ब्रजेन्द्र प्रताप सिंह कहते हैं जब भी हम घटनाओं को व्यक्ति के रूप में देखते हैं तो इसी प्रकार का संकट आता है. यदि प्रेमप्रकाश ने एक आफिसर की तरह सोचा होता तो टकराव नहीं होता पर वे तो व्यक्तिगत हो गए जिसका परिणाम टकराव के रूप में आया. रही बात पत्रकारों की एकता की तो हम सभी के अपने मतभेद अपनी जगह हैं उनमे मनभेद नहीं होना चाहिए था. हम अपनी जमात में तो एक रहें. अन्यथा इसी तरह पुलिस जैसे तत्व हम पर हावी होने का प्रयास करते रहेंगे. इसी प्रकार हमें भी समय-समय पर आत्म-विश्लेषण और आत्म-मंथन करते रहना चाहिए जिससे टकराव जैसी स्थिति न आये. पद्मश्री पुरुष्कार प्राप्त व साहित्यकार गिरिराज किशोर पुलिस के प्रेस पर हमले को को नितांत दमनकारी मानते हुए कहते हैं. शहर में किसी की कोई सुरक्षा नहीं रह गई है. ऐसी स्थिति में प्रेस पर हमला अघोषित आपातकाल की याद दिलाता है. कानपुर की महिला वादी संगठनों और सुभाषिनी अली की निष्क्रियता को अत्यंत निंदनीय मानते हुए वे कहते हैं कि आम और ख़ास सभी को इस मामले में प्रेस का साथ देना चाहिए. उनका मानना है कि प्रदेश की सरकार का पुराना इतिहास रहा है की वो लोकतांत्रिक तरीकों और मूल्यों का सम्मान नहीं करती है. प्रेमप्रकाश पूरी तरह्ह पार्टी के कार्यकर्ता की तरह कार्य कर रहे हैं. वकीलों के दमन की कहानी अभी भी कानपुर के बाशिंदों के जेहन में है. कानपुर के मंडलायुक्त अमित घोष ने प्रेस के विरुद्ध पुलिस की कार्यवाही को गलत ठहराया है. मुक़दमे वापस लेने का आश्वासन भी दिया गया है. अख़बार के कार्यालय में पुलिस जाने की जांच के आदेश भी उन्होंने दिए हैं. आईजी ने प्रेस के समर्थन में वक्तव्य दिए हैं. सूत्र बताते हैं कि रात में जब पुलिस ने हिन्दुस्तान कार्यालय पर धावा दिया तब कानपुर के आला प्रशासनिक अधिकारिओं ने डीआईज से स्वयं मैनेज करने को कहा था जो उनकी मजबूर कार्यप्रणाली का परिचायक है. पत्रकारों में चर्चा है कि प्रेमप्रकाश का आदर्श चुलबुल पांडे है, वो उसी तरह दबंगई से काम करना चाहते हैं. इस सब से इतर आम पत्रकारों में रोष और भय व्याप्त है कि वे अपनी बात किससे और कहाँ कहें. जबकि प्रेस क्लब स्वयं में ही लोकतान्त्रिक और संवैधानिक मूल्यों का पालन नहीं कर रहा है. पिछले कई वर्षों से प्रेस क्लब का चुनाव नहीं हुआ है और प्रेस क्लब की सदस्यता का नवीनीकरण भी नहीं हो पा रहा है. प्रेस क्लब के जो पदाधिकारी लाखों रुपया डकार चुके हैं वो न्याय की ल$ड्ढाई क्या लड़ेंगे. सबसे खराब पहलू यह है की जागरण जैसा समूह इससे किनारा किये है. पत्रकार एवं कवि प्रमोद तिवारी कहते हैं प्रेस क्लब अपने अस्तित्व के सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है. ऐसे में पत्रकारों को अपनी रक्षा कैसे हो यह यह खुद स्वयं सोचना पड़ेगा. पत्रकारिता में सुचिता का संकट आया है. दागी पत्रकारों के कारण काले कारनामे करने वाले सरकारी अधिकारिओं और नेताओं में प्रेस और पत्रकारों का लिहाज व भय समाप्त हो गया है. अनूप बाजपाई भी मानते हैं कि पत्रकारिता अब मिशन तो रही नही. पत्रकार अपना और अपने परिवार का भरण-पोष²्रण करने के उद्देश्य से काम कर रहा है.1

प्रिंट की पीपली
प्रमोद तिवारी
कानपुर शहर में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि पुलिस अखबार के दफ्तर में घुसकर अखबार के प्रकाशन और वितरण को रोकने के लिए डंडा लहराये.कानपुर शहर में ऐसा भी पहले कभी नहीं हुआ कि किसी समाचार-पत्र के साथ घटे इसतरह के अलोकतांत्रिक हमले के विरोध में 'प्रेसक्लबÓ आंदोलन करे और अगले दिनों में शहर से प्रकाशित अखबारों में खुद 'प्रेस क्लबÓ ही का बहिष्कार देखने को मिले.शहर में शायद यह भी पहली बार ही हो रहा है कि एक बड़ा राष्ट्रीय अखबार एक बेहद संवेदनशील, अमानवीय और दिल दहला देने वाले कुकृत्य के आरोपियों को दण्डित कराने के लिए हल्ला बोले पड़ा है, शहर को आंदोलित बता रहा है लेकिन उसकी आवाज नक्कार खाने में तूती का मजाक साबित हो रही है... जिन्हें दण्डित कराने के लिए अखबार कलम तोड़े दे रहा हो वे लोग रोज अखबार पढ़कर ठहाका लगा रहे हैं।शहर में ऐसा भी पहली बार ही हुआ है कि कक्षा ६ की एक बच्ची स्कूल जाये और वहां वह खून से लथ-पथ बीभत्स व्यभिचार का नतीजा बन जाए...।सभी जानते हैं कि इन दिनों 'दिव्या-काण्डÓ को केन्द्र में रखकर हिन्दुस्तान रखकर हिन्दुस्तान अखबार अकेले दम जंग छेड़े हुए है. हालांकि यह जंग अकेले की नहीं थी, दिव्या के साथ बलात्कार के बाद शहर का पूरा मीडिया पिल पड़ा था न्याय की गुहार और अपराधियों को सजा की मांग के साथ. एक तरह से अखबारों ने एक्टिविस्टि (कार्यकर्ता) की भूमिका अख्तियार कर ली बजाय जर्नलिस्ट (पत्रकार) के. लेकिन धीरे-धीरे सारे अखबार अखबार की सीमा में लौट आये लेकिन हिन्दुस्तान उससे कहीं आगे बढ़कर जन आंदोलन का गर्भगृह बन गया. उसे शहर ने दिव्या बलात्कार काण्ड में पुलिस के खिलाफ एक पक्ष के रूप में देखा. पुलिस विरोधीं आंदोलन का सूत्रधार बनते देखा. नतीजा सामने है कि हर रोज एक अखबार 'हिन्दुस्तानÓ अपने पन्ने के पन्ने तस्वीरों और बयानों से भर-भर छाप रहा है और डीआईजी प्रेम प्रकाश के नेतृत्व वाली कानपुर पुलिस शहर भर के पत्रकारों को उनकी औकात दिखाने की मानसिकता में बेशर्मी पर उतारू है. खुलेआम उगाही, जाम, चौराहों पर काहिली-मस्ती, निर्दोषों को जेल, दोषियों को संरक्षण सब कुछ शहर भोग रहा है. इस आधे-पूरे सच के साथ कि प्रेम प्रकाश का कोई बाल बांका नहीं कर सकता. वह मुख्यमंत्री के खास हंै. इसके पहले भी अपने मातहतों, नेताओं और पत्रकारों को टेढ़ा कर चुके हैं. शहर में फैली यह किवंदति शायद कुल निराधार भी नहीं है. जहां तक अनुस्का उर्फ दिव्या को न्याय दिलाने के लिए मीडिया उर्फ हिन्दुस्तान के संघर्ष का सवाल है तो भ्रष्ट पुलिस और गुमराह मीडिया से कहीं किसी को न्याय मिलता है? शहर में एक के बाद एक तीन 'काम हिंसाÓ के मामले सामने आये. तीनों में मीडिया ने पुलिस पर मामला दबाने और अपराधियों को बचाने के आरोप लगाये. जबकि पुलिस अपने स्तर पर तीनों मामलों में अपराधियों को पकड़कर जेल भी भेज चुकी है. पुलिस अपराधियों को बचा रही है या नहीं लेखक नहीं कह सकता लेकिन इसमें क्या संदेह कि तीनों ही मामलों में अगर कानपुर का कुल मीडिया बुरीतरह नहीं पिल पड़ता तो ये मामले थाने स्तर पर लीप-पोत के बराबर कर दिये जाते. वाकई पुलिस को मीडिया ने लीपने-पोतने का अवसर नहीं दिया. ये तीनों काम हिंसाएं शासन-प्रशासन के संज्ञान में आईं और शहर तीनें ही प्रकरणों में न्याय की नुमाइंदगी करने वाले नागरिक, राजनीतिक व व्यावसायिक संगठनों तथा संस्थाओं की सक्रियता का मंच बन गया. लेकिन इतना हो-हल्ला और पुलिसिया कार्रवाई हो जाने के बाद मूल प्रश्न तो अभी तक अपनी जगह अनुत्तरित है... वह है दिव्या, कविता और वंदना को न्याय? मीडिया अभी भी यही रट लगाये है... कि न्याय नहीं हो रहा है.दरअसल यह न्याय का नहीं सीधा-सीधा मीडिया बनाम डीआईजी का मामला है जिसमें दिव्या, कविता और वंदना महज ईंधन की तरह इस्तेमाल हो रही हैं या जाने-अनजाने हो गईं. कैसे.. आइये यह भी समझते हैं. हुआ यूं कि डीआईजी प्रेम प्रकाश जैसे ही शहर में आये उनका जागरण वालों से रात के अंधेरे में झगड़ा हो गया. इस झगड़े को बड़े मीडिया समूह ने अपनी प्रतिष्ठा से न जोड़कर एक गलत फहमी में हुआ बखेड़ा मानकर झरिया दिया. इस 'झारÓ ने डीआईजी प्रेम प्रकाश के नेतृत्व वाली पुलिस को पत्रकारों के विरुद्घ निरंकुश कर दिया. आये-दिन थानों-चौकियों में पत्रकारों से दुव्यवहार होने लगा. प्रेस क्लब चूंकि कानपुर में एक 'छद्मÓ संस्था बनकर रह गयी है इसलिए शहर के तिलिमिलाये पत्रकारों को कोई मंच नहीं मिल पा रहा था पुलिस पर निशाना साधने का. तभी अचानक तीन घटनाएं हुईं सिलसिले वार. सबसे पहले चांदनी नर्सिंग में कविता की मौत उसके बाद कानपुर देहात में वंदना की आत्म हत्या और फिर अनुस्का उर्फ दिव्या के साथ बलात्कार. कानपुर प्रेस ने इन तीनों घटनाओं को तीर की तरह अपनी कमान में साध लिया. और निशाने पर रख लिया पुलिस यानी डीआईजी प्रेम प्रकाश को. पुलिस को निपटाने के चक्कर में इन दुखद घटनाओं के तरह-तरह के सनसनी खेज बिकाऊ और सबसे पहले हम के बाजारू पहलू तलाशे गये. इन रिपोर्टिंगों से पुलिस कार्रवाई में अफरा-तफरी मच गयी. मीडिया की बाजारू नियत तो इसी से साफ हो जाती है कि पहले कविता के लिए आसमान उठाये मीडिया दिव्या काण्ड सामने आते ही चांदनी नर्सिंग होम, डाक्टर सी.के. सिंह और कविता सबको भूल गया. मीडिया को दिव्या कांड में कहीं ज्यादा धारदार मिटिरियल दिखाई दिया. इन तीनों ही घटनाओं में ऐसे-ऐसे एंगल से ऐसे-ऐसे समाचार छपे कि जो पुलिस पहले 'लीपापोतीÓ की मुद्रा में थी वह बाद में पकड़ा-धकड़ी की मुद्रा में आ गई. नतीजा सामने है कि एक प्रेमी बलात्कारी बनकर वंदना का हत्यारा घोषित है. दूसरा, 'वार्ड-ब्यायÓ कविता के साथ 'आईसीयूÓ में बलात्कार का आरोपी बना जेल में है. और अब दिव्या काण्ड में स्कूल प्रबंधक, उसके दो बेटे और दिव्या का पिता तुल्य पड़ोसी चाचा मुन्ना सलाखों के पीछे है.. ये जितने भी नतीजे अब तक सामने आये हैं ये केवल पुलिस की 'तफ्तीशोंÓ का फल है, कहना गलत होगा, इसमें अखबारों के 'करमचंदोंÓ की एक से एक खोजी खबरों का भी हाथ है. क्योंकि इन तीनों ही प्रकरणों में अखबार और पुलिस गुनहगारों के बजाय बेगुनाहों पर ज्यादा बीती है.. अब इसका दुष्परिणाम यह होगा कि बिना साक्ष्यों के दबाव में केस खोलने की पुलिसिया हड़बड़ी में गिरफ्तार किये गये लोग आराम से छूट जाएंगे और असली गुनाहगार 'पिं्रट की पीपली..Ó का आनंद लेकर गुलछर्रे उड़ायेंगे.1

खरीबात

क्योंकि हथियार डाल चुके हैं..

प्रमोद तिवारी

पंचायत चुनाव के प्रथम चरण से यह तय हो गया है कि कानपुर महानगर में अगर ट्रैफिक पुलिस पूरी तरह से हटा ली जाए, तो भी कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा. शहर वैसे भी जाम से कराहता है और बिना ट्रैफिक पुलिस के भी जाम से ही कराहेगा. १२ अक्टूबर यानी चुनाव के अगले दिन शहर के सभी अखबारों में जाम की त्रासद तस्वीरें और कहानियां थीं. यह कहानियां शहर वैसे भी कहता रहता है और फिर पढ़ता रहता है. प्रधानमंत्री का अना याद करिए. तब तो दूसरे जिलों की भी पुलिस शहर में थी. क्या हुआ था... एक बच्चे की जान फंस गई थी जाम में और अंतत: कराहते-बिलखते शहर के साथ बेचाराा पूरा शहर देख बगैर ही दुनिया छोड़ गया. अगर जिला पुलिस-प्रशासन नहीं जान पाया है या उसे अभी भी उम्मीद है कि पुलिस से शहर के यातायात का कोई भला होने वाला है, तो वह पानी पर पत्थर की नींव डालने की सोच रहा है. एक किस्सा बताता हूं. स्थान- गुमटी गुरुद्वाास क्रासिंग. समय सुबह ११ बजे के आस-पास. मैं अस्सी फिट रोड से गुमटी बाजार की ओर अपनी कार से जा रहा था. गुमटी क्रासिंग पर गुरुद्वारे के ठीक सामने एक पक्की चौकी बनी है सभी को मालूम है. 'ट्रेनÓ का समय था. क्रासिंग बंद थी. मैं खड़ा हो गया ठीक चौकी के बगल में. चौकी के भीतर चार सिपाही और दो होम गार्ड थे. क्रासिंग बंद होने से जीटी रोड के दोनों ओर से आने वाले वाहन और अस्सी फिट रोड से गुमटी दिशा में जाने वाले वाहनों की पहले मैं... पहले मैं... के चक्कर में जाम लग गया.अब देखिए! चौकी के अंदर सिपाही-होमगार्ड जाम लगता देख रहे हैं, कोई फर्क उन पर नहीं पड़ रहा है. ट्रेन चली गई, क्रासिंग भी खुल गई. क्रासिंग खुलते ही खड़े वाहन अपनी-अपनी दिशा में थोड़ा सरके और फंसे जाम में और बुरी तरह फंस गये. हार्नों की कानफोड़ू 'चिल्ल-पोंÓ मच गई. उस दिन सूरज चटक निकला था. बरसात के बाद की चुटकी काटती धूप से सबका बुरा हाल... लेकिन चौकी में मौजूद ट्रैफिक और सिविल के सिपाही आराम से टांग हिलाते हुए अपनी बातों में मशगूल! मुझसे नहीं रहा गया..., मैं गाड़ी से उतर कर चौकी तक गया... चौकी में मुझे डंडाधारी रामलाल जी मिले.. रामलाल खाकीवर्दी में मुंह में मसाला भरे थे. मैंने उनसे कहा, 'ये आपकी खोपड़ी पर जाम लगा है दिखाई नहीं दे रहा है?Ó'रामलाल बोले, दिखाई दे रहा है. क्या करूं...Ó'जाम हटवाइये, और क्या करिए...Ó मैंने कहा. बह बोले, क्या मेरा ठेका है.Óमैंने कहा, ''अगर यह तुम्हारा ठेका नहीं है, तो किसका है?ÓÓवह बोले, 'देख नहीं रहे हैं इन लोगों को. ये सारे के सारे पढ़े-लिखे हैं. इन्हें नहीं मालूम ट्रैफिक नियम..?Óपढ़े-लिखे तो ये हैं, इन्हें पूरी सीआरपीसी और आईपीसी भी मालूम है. तो फिर तुम्हारा क्या काम?अभी तक उन्हें यह नहीं मालूम था कि ये कौन आदमी है.. मेरे इस जवाब से वह थोड़ा गंभीर हुए. मुझे गुस्सा आ गया. मैंने कहा, चौराहे पर खड़े हो, भीड़ के सामने पटर-पटर कर रहे हो शर्म नहीं आ रही है... एक आदमी का काम है... दो मिनट लगेंगे जाम हटाने में..?रामलाल बोले, ''अच्छा चलिए मैं चलता हूं आपके साथ. हटाइये जाम.Ó और दोस्तों! मैं रामलाल के साथ जाम हटाने बीच चौराहे पिल पड़ा. मेरे पिलते ही दो नवजवान और साथ आ गये. एक कोने में मैं खड़ा हो गया, दो कोने उन अनजान युवाओं ने पकड़ लिये. रामलाल भी डंडा लहराते हुए रास्ता बनाने में सक्रिय हुए. आपकों बतायें, रास्ता साफ होने में घड़ी देखकर पांच मिनट भी नहीं लगे. वहां जाम का कोई कारण ही नहीं था. केवल चौराहे पर चारों दिशा से आने वाले वाहनों ने आपस में थूथन जोड़ रखे थे और सबके पीछे दस-दस, बीस-बीस वाहन थे, बस, बाकी चारों दिशाओं की सड़कें साफ खाली पड़ी थीं. जाम साफ होने के बाद मैंने रामलाल से कहा अब बताइये. रामलाल जल-भुनकर राख हो गये थे. इसके आगे भी कहने को बहुत कुछ है, लेकिन फिलहाल यह उदाहरण काफी है इतना बताने के लियेे कि अगर ट्रैफिक पुलिस व सिपाही चौराहों पर हों भी, तब भी जाम से निजात संभव नहीं है, क्योंकि वे अपने हथियार डाल चुके हैं.े

नारद डाट काम

ये भी खेल है

कमलेश त्रिपाठी

अभी तक लोग कहा करते थे कि दिल्ली दिलवालों की है. लेकिन अब दिल्ली खेलवालों की हो गयी है. यहाँ बड़े-बड़े खिलाड़ी आये हुए हैं. पता नहीं, कैसे-कैसे खेल दिखा रहे हैं, कोई टांग हाथ में डाल रहा है तो कोई उसका उलट कर रहा है. और बदले में सोने, चाँदी, और जस्ते के तमगे मिल रहे हैं. इससे एक बात तय हो गयी है कि बिना करतब दिखाए सोना, चाँदी समेटना मुश्किल है. आराम से तो रोटी-चटनी ही खाई जा सकती है क्योंकि अभी हाल में रोटी का दाल के साथ तलाक हो गया है. बरसों पुराना साथ एक झटके में टूट गया है. सुना है कि रोटी ने नमक के साथ रिश्ता जोड़ लिया है.मद्य सेवन के चलते मेरी याददाश्त थोड़ी कमजोर हो गई है. बात चल रही थी खेल की और मैंने दाल पेल दी. इस देश के मिडिल क्लास की यही समस्या है. रोटी-दाल भैरव घाट तक उसे पिछियाते रहते हैं. हाँ! जरा अब दिल्ली में चल रहे खेल पर आइए, यहां खेल गाँव में 6 वेन्डिंग मशीनें सरकार ने लगवाई थीं और हर एक में तीन-तीन हजार कंडोम थे. यहाँ गणित का एकिक नियम लगाएं तो कुल मिलाकर 18000 कंडोम थे. और यह तीसरे ही दिन अंर्तध्यान हो गये. अब इसके आगे का एकिक नियम आप खुद लगाइये कि वहां क्या और किस गति से हुआ होगा? अब यहाँ सवाल यह उठता है कि इतना लोकप्रिय खेल कॉमनवेल्थ में शामिल क्यों नहीं किया गया? क्या एक इनडोर स्टेडियम वयस्कों के लिए नहीं बन सकता था? खेल की तीव्रता मापने के लिए मशीनें बाहर से क्यों नहीं मंगवार्इं? हो सकता है कि मशीन बनाने वाली कंपनी कमीशन देने को तैयार न हुई हो, इसके चलते आयोजन समिति ने इस खेल को प्रतियोगिता से बाहर कर दिया हो. आज नहीं तो कल कलमाड़ी साहब को इसके जवाब जरूर देेने पड़ेगें. इस बाबत जब मैनें आरटीआई के तहत केन्द्रीय खेल मंत्रालय से जवाब-तलब किया तो निम्न बातें खुलकर सामने आर्इं- इस खेल की लोकप्रियता हम लोग पहले से नहीं भांप पाये अन्यथा इसे सीडब्लूजी में जरूर शामिल करते. अगर ओलम्पिक खेलों की मेजबानी भारत को मिली तो हम ये चूक नहीं करेंगे. कमीशन मिलने न मिलने की बात निराधार है. जब सारे सप्लायरों ने भरपूर पैसा दिया है तो ये कैसे बच सकते थे? इस खेल को मनोरंजन कर से मुक्त कराने के लिए हम प्रधानमंत्री कार्यालय से संपर्क में हैं. इस तरफ हमारी बुद्धि खींचने के लिए आपको साधुवाद खेल मंत्रालय की तरफ से.संता - डाक्टर से- मैं बहुत परेशान हूँ मेरे यहाँ हर साल बच्चा पैदा होता है.डाक्टर- कंडोम का प्रयोग किया करो.अगले साल- संता डाक्टर से- मेरे यहाँ फिर बच्चा हो गया. डाक्टर- पूरे घर को कंडोम बाँट दो.उसके अगले साल- संता डाक्टर से- फिर बच्चा पैदा हो गया.डाक्टर- तू अब एक काम कर मोहल्ले वालों के लिए कॉमनवेल्थ गेम वाली वेन्डिंग मशीन घर के बाहर लगवा दे.

प्रथम पुरूष

सफलता का नया फार्मूला संबंधों की देख-भाल और उनकी रक्षा

डा. रमेश सिकरोरिया

पहले आईक्यू, फिर (भावनात्मक) ईक्यू और अब संबंध (आधारित) आरक्यू को सफलता के लिए आवश्यकता की श्रेगी में सबसे महत्वपूर्ण कहा जा रहा है.आई क्यू यानी बुद्घिमत्ता का स्थान सफलता पाने में है, परन्तु बहुत से बुद्घिमान सफलता नहीं पाते और साधारण बुद्घिमत्ता वाले सफलता की शिखर पर पहुंच जाते हैं. ईक्यू यानी भावनात्मक क्यू में भावनात्मक बुद्घिमत्ता की पांच बातें, यानी अपनी भावनाओं को जानना, उनका संचालन करना (सुचारता पूर्वक) स्वयं को प्रेरित करना, दूसरों की भावनाओं को जानना या अहसास करना एवं संबंधों को संचालन करना सफलता दिलाता है. आर क्यू यानी (रिलेशनसिप क्यू) में अपने संबंधों का अनुभव करना, उनका आंकलन करना, उनको व्यवस्थित करना या संचालन करना समायोजित है. एक प्रकार से ई क्यू और आर क्यू में गहरा संबंध है, क्योंकि यदि व्यक्ति भावनात्मक रूप से संतुलित है, तो वह अपने परिवार, मिलों, पड़ोसियों, सहकर्मियों व सभी से अपने संबंधों को सुचार रूप से संचालित करता है. इस योग्यता का परिणाम उसे सफलता की सीढ़ी पर चढ़ाता रहता है. संबंधों का योग्यता पूर्वक संचालन न करने से या उनके नकारने से आपकी सफलता में रुकावट आती है. आड़े वक्त में संबंध आपको सहारा देते हैं. आपको निराशा से बचाते हैं, आपको उत्साहित करते हैं, आपको अहसास दिलाते हैं कि आप अकेले नहीं हैं, आपको आशावान रखते हैं और आगे बढ़ाते हैं. हमारे विचार भिन्न हो सकते है, परन्तु हमें असहमति के लिए सहमत होना चाहिए. दूसरे के मन में क्या चल रहा है, उसका अंदाजा लगाने के स्थान पर खुले मन से बात करेें. नतीजा क्या निकलेगा, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है आप समस्या का सामना कैसे कर रहे हैं? नकारात्मक या सकारात्मक तरीके से परिवार या सभी संबंध आपको एक मजबूत आधार (नींव) देते हैं, उस पर बनी इमारत गिरने पर फिर से बनायी जा सकती है. संबंधों के कारण ही यहूदी लोग भारत में अपने को अधिक सुरक्षित समझते हैं, इजराइल में नहीं! मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. समाज के अन्य लोगों से उसने कैसे संबंध बनाये हैं, इसी पर उसकी सफलता आधारित है. हमको कोई अच्छा लगता है, कोई नहीं. एक शिक्षक को अपने विद्यार्थी अपने परिवार से अधिक अच्छे लगते हैं, यदि हम अपने कुत्ता को टहलाने ले जाते हैं तो वह हमको प्यार करता है. लोग जिंदा इंसान है, कम्प्यूटर नहीं, उनसे संबंध बनाने के लिए उन्हें समय देना पड़ेगा, ऊर्जा खर्च करना पड़ेगी, उन्हें समझना पड़ेगा, संबंधों को सुंदर बनाने के लिए प्रयत्न करना पड़ेगा. अब तो कंपनियों या कार्यालयों में भी यही कोशिश रहती है कि छोटे से छोटे कर्मचारी से बड़े-बड़े अधिकारी एक ही तरंग पर काम करें, सभी का उद्देश्य एक हो, कंपनी की सफलता के लिए संबंधों को प्रगाढ़ बनाने के तरीके अपनाये जाते हैं. एक दूसरे का सम्मान, उनकी संस्कृति की प्रशंसा और आदर करना चाहिए. प्रत्येक व्यक्ति एक जीता जागता इंसान है, वह एक नम्बर या संख्या नहीं है. सभी व्यक्ति एक से हैं, उनकी आदतें आम तौर पर एक सी हैं. भावनाओं में समानता है. उनकी मान्यता एक सी हंै. हम एक मुस्कराहट से उनसे दूरी कम करके अच्छे संबंध बना सकते हैं और जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं. महान व्यक्तियों ने यही किया. एक और बात! आप चाहते हैं, कि सभी आप में रुचि दिखायें, परन्तु आप स्वयं दूसरों से दूर रहें, उनके दु:ख-सुख में रुचि न लें, तो संबंध कैसे सुंदर होंगे?केन्द्रित होने के स्थान में विकेन्द्रित हों, छोटा-बड़ा, काला-गोरा, हिन्दु-मुसलमान, अच्छा-बुरा भूल कर उससे इंसानी संबंध बनायें. आगे और गहराई से सोचें, तो प्रकृति से भीे हमें सुंदर संबंध बनाना चाहिए. उससे हमारे व्यक्तित्व को प्रसार मिलता है, हमारा व्यक्तित्व प्रखर होता है. पहाड़, जंगल, नदी, सभी जानवर हमें कुछ समझाते हैं, हमें कुछ ज्ञान देते हैं. हमारे जीवन की रक्षा करते हैं, यदि हमसे कुछ लेते हैं, तो अधिक देते हैं. केवल प्रकृति पूर्ण है, अतएव सफल होने के लिए उससे हमारा अच्छा संबंध होना आवश्यक है. पहाड़ों की शांति, जंगलों का वातावरण, नदी में पानी का बहाव, जानवरों की पग ध्वनि हम से संबंध बनाने को आतुर हैं, हम भी उनके पास जायें, उनसे प्रेम स्थापित करें.1

दो टूक
पीर हरण का चीर हरण चालू है....
अनुस्का उर्फ दिव्या शहर का ताजा सर्वाधिक बिकाऊ खबरीला मुद्दा है. एक ऐसा मुद्दा जिसकी शहर में जबरदस्त मांग है. मुद्दे जब मांग की शक्ल तैयार कर लेते हैं तो मीडया और राजनीति की जीभ लपलपाने लगती है. ऐसा ही हो रहा पिछले कुछ दिनों से बुरी तरह बेतरतीब बिखरे, प्राणलेवा मच्छरों की बीमारियों से जकड़े धीरे-धीरे एक तरह से कबिरस्तान सा नजरा बनाते शहर को. जागे हुये लोगों में दिव्या को जेसिका लाल और प्रियदर्शनी बनाने की होड़ मची हुयी है. बेचो.... भुनाओ..... मुद्दों को, समस्याओं को, घटनाओं को लेकिन उसके साथ बलात्कार तो न करो. दिव्या के साथ बलात्कार हुआ. बलात्कार शायद छोटा शब्द पड़ रहा है जो उस नन्हीं जान पर बीती उसे बताने के लिये. लेकिन घटना के बाद से हर रोज दिव्या का बलात्कार शहर में नये रंग रोगन के साथ सामने आ रहा है. शहर के उन तमाम निष्तेज संगठनों और नेताओं को दिव्या को न्याय दिलाने की गुहार में शायद अपनी सम्भाव्य आभा जान पड़ती है. अगर ध्यान से देखा जाये तो यह वही मीडिया और संगठन है जो दिव्या के ठीक पहले कविता और वन्दना के लिये धरती और आसमान एक किये था. इनसे पूछिये क्या कविता और वन्दना को न्याय मिल गया ? उनका पीर हरण हो गया. नहीं मित्रों, वंदना और कविता का बलात्कार पुराना हो गया.. फिर दिव्या की उम्र, घटना स्थल, जख्म और खून में घटना की जो वीभत्सतता है, प्रचारित न्याय के लिए प्रचार का जितना मिटिरियल है उतना शायद कविता और वंदना बलात्कार काण्ड में नहीं..। पुलिस... जो कि कानपुर में घटे इन तीनों बलात्कार के और बलात्कारियों के प्रति बाकायदा पत्थर सी जान पड़ी. लेकिन उसने तीनों घटनाओं में बाद तफ्तीश गिरफ्तारियां की हैं, आगे कार्रवाई के लिए लगातार कह रही है. फिर पुलिस से अब किस न्याय की बात की जा रही है..। कहा जा रहा है कि प्रबंधक का छोटा बेटा पियूष वर्मा जेल में नहीं है यह अन्याय है. जबकि खुद प्रबंधक और उसका बड़ा बेटा सलाखों के पीछे है. अब यह कैसे कहा जाये कि पुलिस प्रबंधक को बचा रही है. और अगर संगठनों और मीडिया की दृष्टि में पियूष ही बलात्कारी है तो उसके बाप और भाई के साथ क्या हो रहा है जेल में..। क्या यह उनके साथ बलात्कार, अत्याचार व्यभिचार नहीं है. यहां लेखक का आशय किसी को फंसाना या बचाना नहीं है. लेकिन एक व्यक्ति की गिरफ्तारी को न्याय कहना कितना न्यायोचित है भारतीय कानून व्यवस्था में यह तो समझना ही चाहिए. अभी आप कविता कांड में ही देखिए. ठीक ऐसे ही संगठनों की मांग, मीडिया की तथ्य परख रिपोर्टिंगों और माहौल के दबाव में पुलिस ने नर्सिंग होम के वार्ड ब्याय को बलात्कार के आरोप में अंदर कर दिया. इस घटना का फालोअप बताता है कि 'वार्ड ब्यायÓ बलात्कारी नहीं हो सकता.. लेकिन 'वार्ड ब्यायÓ की गिरफ्तारी को जागे लोगों ने कविता के साथ न्याय मान लिया. अब यही लोग दिव्या के लिए न्याय यानी पियूष को जेल मांग रहे हैं. हो सकता है पुलिस पियूष को बचा रही हो इसलिए कि उसकी गिरफ्तारी से 'साक्ष्यÓ पुष्ट होंगे और पुलिस की गढ़ी पड़ोसी बलात्कार कहानी झूठी साबित हो जायेगी. पुलिस इसलिए भी पियूष को बचा सकती है कि उसने पैसा खा लिया हो. चूंकि आगे की वैज्ञानिक जांचों से पियूष बच नहीं सकता और उसका पिता व भाई फंस नहीं सकता. इसलिए पियूष को बचाओ बदले में बाप और बड़े भाई को फसाओ ऊपर से माल कमाओ..। शायद प्रेस और नागरिक संगठन यही सोच रहे हैं. तो क्या यह मान लिया जाये कि जो ये लोग सोच रहे हैं वही सत्य है..। अरे भाई, और भी तो जागे हुए लोग हैं जो कह रहे हैं स्कूल खुलने दो, बच्चों को पढऩे दो. इनकी बात का कोई मतलब नहीं है. शहर में शहर के लिए, न्याय की सुनिश्चितता के लिए, एक नन्नी जान की सच्ची कीमत के लिए हर संभव लोकतांत्रिक प्रहार होना चाहिए. लेकिन बनावटी प्रदर्शन न तो संवेदना को जगा पाते हैं न ही नसों में दौड़ते खून को गरमा पाते हैं. यह बात हमेशा असर करती है कि वह कैसे और किससे द्वारा कही व उठाई जा रही है. उसके पीछे का उद्देश्य क्या है..झ मार्केटिंग और पैकेजिंग के जमाने में कोई बेवकूफ नहीं है.1 हेलो संवाददाता

देश का दर्पण

प्रसंगवश-प्रमोद तिवारी

खेलों के नतीजे किसी भी देश के तन और मन का दर्पण होते हैं. देश का तन होता है देश के लोग, देश का मन होता है देश की नीतियां. कामनवेल्थ गेम्स में भारत का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन बताता है कि देश के लोग और देश की नीतियां दोनों इस दौर में अब तक की सर्वश्रेष्ठ उन्नत दिशा की ओर हैं. आप गौर करें तो पायेंगे कि दूनिया के वे सारे देश जो विकसित हैं, अपेक्षाकृत अ-भ्रष्ट हैं, जहां का नागरिक जीवन चैन से व संतोषप्रद है, वे जब भी खेल की स्पर्धाओं में उतरते हैं तो पदक तालिका उनके लिये शीर्ष के स्थानों के लिए स्वागत करती दिखाई पड़ती है. इस दृष्टि से कामनवेल्थ गेम में भारत का ३८ स्वर्ण पदकों का जीतना बताता है कि इस देश में सब कुछ पहले जैसा नहीं है, बहुत तेजी से बेहतर हो रहा है. अगर भारत के ३८ स्वर्ण पदकों की चमक में भारत की सम्पूर्ण व्यवस्था समीक्षा की जाये तो देश की सही ताजा तस्वीर सामने प्रकट हो सकती है. जैसे कि ३८ तमगों में महिलाओं की भागीदारी.... महिलाओं ने लगभग एक तिहाई से भी अधिक सोने के तमगों पर कब्जा किया है. यह केवल खेलों में महिलाओं का बढ़ता रुतबा नहीं है बल्कि यह रुतबा है नये भारत में तेजी से आगे बढ़ती महिलाओं का. ऐसे ही स्पर्धा और खिलाडिय़ों के गृह प्रान्त और जनपद पर दृष्टि डालें तो पता चलेगा कि खेल वास्तव में किस तरह लोक जीवन और लोक व्यवस्था का दर्पण होते हैं. कामनवेल्थ गेम्स में अगर केवल हरियाणा के खिलाडिय़ों के पदकों को जोड़ दिया जाये तो ताजा कामनवेल्थ गेम की पदक तालिका में उसे छठा स्थान प्राप्त हो सकता है. एक तरह से एक देश भर की ताकत दिखाई है अकेले हरियााणा प्रान्त ने. खेल का यह नतीजा हरियाणा सरकार और वहां की खेल नीतियों का आईना नहीं है क्या? हां, निश्चित ही देश में तेजी से आगे बढ़ रहे प्रान्तों में हरियाणा का भी नाम है. ऐसे ही अगर यह देखें कि भारत ने किन-किन खेलों में तमगे हासिल किये तो एक बात और निकल कर आती है कि वर्तमान सफलता टीमों के बजाय खिलाडिय़ों के निजी दम-खम पर ज्यादा टिकी हुई है. निशानेबाजी, पहलवानी, मुक्केबाजी येे प्रमुख स्पर्धाएं हैं जिनमें भारत ने सर्वाधिक पदक हासिल किये. ये वे स्पर्धाएं हैं जहां संसाधनों के टोटे और प्रतिभा से छेड़छाड़ के मौके बहुत ज्यादा नहीं हो सकते. चूंकि मीडिया अब प्रतिभाओं को छुपने नहीं देता और खेल संघों की 'इंट्रीÓ में मनमानी चल नहीं पाती. जहां तक टीम स्पर्धाओं का प्रश्न है तो अपनी स्थिति देख लें. हॉकी में सोना चूके कि नहीं... स्वीमिंग में कुछ नहीं मिला. क्योंकि इस स्पर्धा में संसाधनों का सर्वाधिक महत्व होता है. एक बात और.. अगर अ-भ्रष्ट देश ही खेलों में वर्चस्व बनाते हैं तो भारत में तमगों का टोटा होना चाहिए. तो मित्रों हमने खेलों में भ्रष्टाचार का माप कोटा आयोजकों से पूरा करा तो दिया. अगर खेल नियोजक, आयोजक और खेल संघों के आका अ-भ्रष्ट हो जाएं तो पहला स्थान आस्ट्रेलिया का नहीं भारत का हो.. वह भी कामनवेल्थ गेम में नहीं, एशियाई और ओलंपिक खेलों में भी. इसलिए अंत में यह कहकर अपनी बात समाप्त करता हूं कि कामनवेल्थ में खिलाड़ी जीते हैं. खेल नहीं. खेल तो चारों खानों चित्त ही मिला. आयोजन से पहले भी और आयोजन के दौरान भी. डिस्कस थ्रो और महिलाओं का ४ गुणा ४०० मीटर की रिले दौड़ तथा बैडमिंटन व टेनिस का एकल खिलाब वास्तव में देश की खेल शिराओं में स्वर्णिम सिहरन पैदा करने वाला रहा. जय हो....खिलाडिय़ों की.. जय हो.. भारत की.1

अस्पताल फुल
बीमार जायें तो जायें कहां!
अनुराग अवस्थी 'मार्शलÓ
कटहा गांव का पुनीत अभी ग्राम सभा सदस्य निर्विरोध निर्वाचित हुआ था. गांव भर का चहेता चौबीस वर्षीय पुनीत को दो दिन बुखार आया. इलाज में फायदा नहीं हुआ तो कानपुर लाये, जेएल रोहतगी में भर्ती कराया गया. प्लेटलेट्स पचपन हजार निकले, साथ में टायफायड भी. डॉक्टरों ने अच्छे और सस्ते इलाज के लिये हैलट आईसीयू भेजा. इमर्जेंसी के गेट पर एक घंटे तक जद्दोजहद के बाद वे उसे भर्ती नहीं करा सके. रात का दस बजा था, बेचारे घरवाले आटो में लादे पहले केएमसीएम, फिर बिमल, कुलवंती, रामा डेंटल कहां-कहां गये, कहीं ठिकाना नहीं मिला. आखिर बड़ी सिफारिश के बाद कल्याणपुर के संजीवनी आईसीयू में एक बेड उसे मिल गया. इतनी देर में हालत और बिगड़ गयी, और इलाज के साथ ही डाक्टर ने बता दिया कि केवल ईश्वर का ही सहारा है. यह एक पुनीत की कहानी नहीं है. पिछले एक पखवाड़े से रोज दस पांच पुनीत इसी तरह अपनी जान दे रहे हैं.हैलट, उर्सला सहित अधिकांश सरकारी अस्पतालों में क्षमता से ज्यादा मरीज भरे पड़े हैं. बेड फुल हैं. स्ट्रेचर, बेंच और ट्राली पर मरीज लिटा कर ग्लूकोज चढ़ाया जा रहा है. बाल रोग विभाग में तो हर बेड पर दो मरीज और कुछ पर तीन तक छोटे बच्चे लेटे हैं. मधुराज, न्यू लीलामणि सहित शहर के एक दर्जन अच्छे माने जाने वाले प्राइवेट अस्पताल अब मना करने के बजाय हाउसफुल का बोर्ड टांग चुके हैं. इलाज के लिये मरीज को भर्ती नहीं किया जा पा रहा है. और उन्हें सड़क पर दम तोडऩा पड़ रहा है. वायरल, मलेरिया, टायफायड, डेंगू, चिकुनगुनिया जैसे बुखार ने कोई घर नहीं छोड़ा होगा, जहां एक दो मरीज न हों और कानपुर नगर देहात में सैकड़ों जाने जा चुकी हैं.महानगर का जूही अम्बेडकर नगर, राखी मंडी, लक्ष्मणपुर हो या सुंदर रमाबाई नगर का महदेवा, भोगनीपुर, दोहरापुर विचित्र बुखार की दहशत से हलकान हैं. एक घर में मौत के बाद लोग गंगा जी होकर लौट नहीं पाते हैं कि दूसरे गांव घर या मोहल्ले में रोना-पिटना मच जाता है. संक्रामक बीमारियों के प्रकोप को गंदगी, जलभराव, कूड़े के ढेर और मच्छरों की फौज ने दो गुना कर दिया है. ऊपर से इलाज में हीलाहवाली, जांच सुविधाओं का अभाव, ग्रामीण क्षेत्र में सरकारी डाक्टरों का गायब रहना और बाढ़ के पानी ने मर्ज को लाइलाज बना दिया है.बुखार के बढ़ते मरीजों की भारी संख्या पर चिंता जताते हुये मेडिकल कालेज के रिटायर्ड डाक्टर एसके सक्सेना कहते हैं- गंदा पानी और वातावरण में गंदगी को जब तक ठीक नहीं किया जायेगा. वायरस पनपता रहेगा और मर्ज बढ़ते रहेंगे. हमको चोट जड़ पर करनी चाहिये.पहले भीषण बरसात और फिर बाढ़ के उतरते पानी ने बीमारियों का चौतरफा अटैक हुआ है. सफाई के हालात यह हैं कि त्योहारों का महीना चल रहा है. पहले गणेश पूजा, ईद, नवरात्र, दशहरा, दीपावली लेकिन शहर हो या देहात गंदगी से पटे पड़े हैं. कूड़े के ढेर सड़ांध मार रहे हैं. नगर निगम के हाल यह हैं कि नगर आयुक्त आर विक्रम सिंह, अपर नगर आयुक्त उमाकांत त्रिपाठी और मेयर रवीन्द्र पाटनी या जिलाधिकारी मुकेश मेश्राम व आयुक्त अमित घोष जहां पहुंच जायें वहीं नगर निगम का अमला हाथ पैर हिलाता दिखता है. अन्यथा अजगर करे न चाकरी...Ó की दशा को प्राप्त हैं. टूटी और खुदी सड़कों ने गंदगी, जल भराव और धूल को सर्वव्यापी कर दिया है. अब चालीस लाख की आबादी के शहर में यह पंच पान्डव भी कहां-कहां जायेंगे?मच्छरों का प्रकोप बुरी तरह बढ़ गया है, लेकिन कहीं फॉगिंग होती नहीं दिखायी दे रही है. सीएमओ अशोक मिश्र बताते हैं कि काफी लिखा-पढ़ी के बाद बजट आ गया है. एक दो दिन के अन्दर दवा आ जायेगी और पूरे शहर में बड़े पैमाने पर छिड़काव कराया जायेगा.अपर नगर आयुक्त उमाकांत त्रिपाठी कहते हैं कि गंदगी और कूड़े के ढेरों को उठाने के लिये नगर निगम की दर्जनों गाडिय़ां और सैकड़ों कर्मी लगे हुये हैं लेकिन शहर के क्षेत्रफल और जनसंख्या को देखते हुये संसाधन सीमित हैं. कुल मिलाकर बात साफ है कि सरकारी प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा जैसे हैं. अब ऐसे में बीमार जायें तो जायें कहां?समस्या की जड़ पर चोट करते हुये एक डाक्टर नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, हैलट हाउसफुल है और सुदूर पीएचसी और न्यूए पीएचसी पर ताले लगे हैं. मरीज ग्रामीण क्षेत्रों में इलाज सुविधा न मिल पाने पर सीधे कानपुर आ रहा है. अगर इलाज और जांच की सुविधायें कठारा, पतारा, घाटमपुर, बिल्हौर, डेरापुर, मंगलपुर में मिल जायें तो वह यहां क्यों आयेगा. लेकिन सरकार का हाल निराला है. सीएचसी बिल्हौर का हाल देखिये यहां टाइल्स लग रहे हैं, रंग-रोगन हो रहा है, लाइट फिटिंग की जा रही है लेकिन पूरे अस्पताल में चार मरीज भी नहीं भरती हैं क्योंकि कोई भी डाक्टर रात में नहीं रुकना चाहता है. और जो इमर्जेंसी करता है वह केवल मेडिको लीगल करके मरीज को कानपुर रिफर करने की खानापूर्ती करता है. यही कारण है कि जिस अस्पताल में पहले मरीजों का तांता लगा रहता था और मरीज डाक्टरों को भगवान कहते हुये निकलता था. लेकिन अब ओपीडी में भी फीस ले लेते हैं और प्रोपेगेन्डा दवाओं के द्वारा लूट लेने की चर्चाएं आम रहती हैं. यही हाल घाटमपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र का है. ककवन सीएचसी तो नाम मात्र की है. छोटे अस्पतालों में तो आज भी डाक्टर या तो हफ्ते में एक आध बार जाते हैं या नहीं जाते हैं. हैलट, उर्सला और केपीएम जैसे सरकारी अस्पतालों में इलाज भी हो रहा है और जांच सुविधा भी. लेकिन यह सब भी बीमारों की भारी संख्या को देखते हुये अपर्याप्त दिख रहे हैं. प्राइवेट अस्पतालों के पास मरीजों की भीड़ भी है और वे दोनों हाथों से रुपया भी बटोर रहे हैं, वह भी अपनी शाख को बचाते हुये. मतलब जैसे ही कोई मरीज सीरियस हुआ तो उसको हैलट, उर्सला रिफर कर देना. क्योंकि एक तो मरीज की मृत्यु के बाद बवाल मार-पीट और लेथन दूसरे अस्पताल का अपयश-बदनामी.बस इसी सरकारी काम करने की शैली और प्राइवेट नाम बदनामी के डर के साथ काम करने की मानसिकता ने मरीजों को लावारिस लाइलाज मरने की हालत में पहुंचा दिया है, वह भी प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री के गृह जिले और उसके आस-पास के जिलों कानपुर (देहात), कन्नौज, फर्रुखाबाद, हमीरपुर, उन्नाव में.1
हाल पैथालाजी का
कानपुर जिले के किसी भी सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र पर डेंगू, चिकनगुनिया की जांच की सुविधा नहीं है. मलेरिया के प्रतिदिन सौ से डेढ़ सौ मरीज आते हैं. अगर इनकी स्लाइड बनायी जाये तो रात के बारह बजेंगे. जाहिर है कि न यह किया जा रहा है और न संभव है. चौदह तारीख को हेलो कानपुर ने अस्पतालों का दौरा किया तो पाया कि कर्मचारियों की ड्यूटी चुनाव में लगी है और लैब बंद हैं. अगर मरीज में डेंगू के सम्भावित लक्षण दिख भी रहे हैं तो उसके ब्लड सैम्पुल कानपुर भेजने की कोई सुविधा नहीं है. इसके लिये वह प्राइवेट पैथालॉजी के कलेक्शन सेंटर पर निर्भर रहता है. ऐसे सेंटर मकनपुर, अरौल से कठारा ,पतारा तक फैले हैं, जहां चौबीस घंटे में जांच रिपोर्ट आ जाती है. इनकी भारी भरकम फीस अदा करने में गांव का गरीब मरीज असमर्थ है, इसीलिये उसको सरकारी अस्पतालों की तरफ भागना पड़ता है, जहां सरकारी आफिसों की मानसिकता से दस से दो बजे तक कर्मचारी और डाक्टर काम करते हुये ज्यादा से ज्यादा अगाही पर ध्यान लगाये हैं.
सीएमओ बनाम
अन्टू बनाम बाबू
कानपुर अपवाद है,जहां सीएमओ डा. अशोक मिश्र और डीपीओ सब कुछ ठीकठाक हैं. अन्यथा शायद ही कोई ऐसा जिला है जहां दोनों के बीच शीतयुद्घ या खुली जंग न चल रही हो. संविदा के डाक्टरों की नियुक्ति डीपीओ करते हैं और उनकी ड्यूटी से सीएमओ पर फर्क पड़ता है. डाक्टरों का प्रदेश संगठन भी इसके खिलाफ उतर गया है मैदान में. लेकिन इस लड़ाई में मरीज का कोई पुरसाहाल नहीं है.मरीज मर रहे है तो मरे, स्वास्थ्य विभाग एक अलग इलाज में लगा है. यहां पूरे विभाग की ओवर हालिंग हो रही है. स्वास्थ्य विभाग और परिवार कल्याण विभाग अलग-अलग हो गये हैं. स्वास्थ्य विभाग के पास नाम मात्र का बजट है और नाम मात्र के अधिकार और काम. मंत्री अन्टू जी बयान जारी करके विभाग को सुधारने की कोशिश कर रहे हैं, और उनके विभाग के सीएमओ डाक्टरों की अटेन्डेंस जांचने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं कर पा रहे हैं. कल तक सीएमओ की पोस्टिंग का सेंसेक्स रेट गिरकर आधे पर आ गया है. और डाक्टरों को सुधारना आसान नहीं है जब हाईकोर्ट के आदेश और कैडर रिव्यू का लालच बर्खास्तगी की धमकी का उन पर असर नहीं पड़ता है तो फिर सीएमओ क्या बला है. बस फर्क यह आया है कि पहले जो डाक्टर हजार दो हजार देकर सरकारी ड्यूटी से गायब रहते थे, उन्हें अब पांच हजार दस हजार देने पड़ रहे हैं, आखिर छठे वेतन आयोगका असर घूस पर भी तो पड़ेगा. दूसरी ओर डीपीओ है जिनकी तैनाती बाबू सिंह कुशवाहा के परिवार कल्याण मंत्रालय के द्वारा ही रही है. उनके पास करोड़ों का बजट है. नई सरकारी बिल्डिंग इन्हें बनवानी हैं, नये डाक्टर संविदा पर रखने है. एएनएम, स्टाफ नर्स को नौकरी बांटनी है. अस्पतालों के लिये मेज-कुर्सी, जनरेटर, इन्वर्टर, अल्मारी, स्टूल, पर्दे जो डिमाण्ड वो हाजिर है. बस नहीं है तो अस्पतालों में अच्छी दवायें, चौबीस घंटे डाक्टर की मौजूदगी और मरीज से अच्छा व्यवहार. डीपीओ ने तैनाती के समय एक लगाओ दो पाओ के ख्वाब देखे थे, लेकिन सपने पूरे नहीं हो पा रहे हैं. क्योंकि खरीद-फरोख्त और डाक्टरों की नियुक्ति सब कुछ लखनऊ सीधे करने में लग गया है. यही कारण है कि पैसा बजट अधिकार और सुविधाओं के बावजूद कानपुर नगर में संविदा के दो डाक्टर, पांच नर्स और छह स्टाफ नर्स के पद अभी भी खाली पड़े हैं. सफाई कर्मी, वार्ड ब्याय, आया की तो बात ही करना बेकार है.1हेलो संवाददाता