शनिवार, 27 नवंबर 2010
आइना
राहुल बनें नीतीश..!
उत्तर प्रदेश के पास कोई नीतीश कुमार नहीं है. अगर व्यक्ति केन्द्रित आशा को तलाशें तो एक नाम राहुल गांधी का सामने आता है. लेकिन राहुल उत्तर प्रदेश के लिए खुद को नाकाफी मानते होंगे. उन्हें अपने खानदानी रसूक के पैमाने पर यह प्रांत और मुख्यमंत्री की कुर्सी शायद कम मालूम पड़ती होगी. अगर ऐसा नहीं है तो नीतीश कुमार की सलाह कि राहुल पीएम बनने के पहले किसी प्रदेश के सीएम बन जाएं. कांग्रेसियों को फ्रांस की तरह नहीं लगती. जो बात नीतीश ने चुनावी अभियान में बात की बात में कही उसमें बड़ा दम है. उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की सक्रियता से जबरदस्त हलचल है. राहुल प्रदेश में विकास की राजनीति का वादा करते घूम भी रहे हैं. लेकिन खुद प्रदेश के सिंहासन पर विराजकर वादा पूरा करने का दम नहीं दिखा रहे. काश! राहुल खुद को पांच वर्ष के लिए उत्तर प्रदेश के हवाले कर दें तो प्रदेश ही नहीं देश बदल जाये..। मायावती और मुलायम सिंह यादव के मुकाबले कांग्रेस के पास कोई चमकदार चेहरा नहीं है. प्रदेश की कुल कांग्रेस की राजनीति राहुल गांधी के पीछे-पीछे दुम हिलाती ही दिखाई दे रही है. ऐसे में राहुल अगर यूपी के 'सीएमÓ बनने की सोच लें तो बिहार के परिणामों की तरह उत्तर प्रदेश में भी जाति, धर्म और फिजूल की वैमनस्य बढ़ाती जुमलेबाजी को विराम मिल सकता है. लेकिन कांग्रेस और उसके राजकुमार से ऐसी उम्मीद करना शायद बेमानी है. वैसे बिहार चुनाव ने कांग्रेस को आइना दिखा दिया है. बिहार चुनाव ने कांग्रेस को औकात बता दी. जिन विधानसभा हल्कों में राहुल की मीटिंग हुई वहां कांग्रेस चुनाव हार गई. बिहार चुनाव में कांग्रेस के पास कोई एजेंडा नहीं था. लालू के एजेंडे को जनता पहले ही 15 साल देख चुकी थी. अगर कांग्रेस कोई एजेंडा देती तो जनता एक बार विचार करती. बिना सोचे समझे बिहार की जनता को सोनिया और राहुल समझाते रहे. जैसे की उनकी नजर में बिहारी एकदम बेवकूफ हंै. उनकी सारी बातों को आंख मूंद कर मान लेंगे. कांग्रेस ने बिहार चुनावों में आंध्र प्रदेश के विकास का उदाहरण दिया. कहा बिहार का कुछ विकास नहीं हुआ आंध्र के मुकाबले. पांच साल में नितीश ने कुछ नहीं किया. लेकिन ये कहते हुए वे भूल गए कि पहले चालीस साल तक कांग्रेस का ही राज बिहार में रहा, जिसमें जातिवाद समेत कई खामियां बिहार की राजनीति को प्रभावित करती रही. उस चालीस साल में बिजली और सड़क जैसे बुनियादी कामों पर कांग्रेस ने कोई ध्यान नहीं दिया.बिहार की जनता को भय था कि कहीं लालू का जंगल राज न लौट आए. साथ ही भय यह भी था कि कांग्रेस दुबारा जंगल राज को सहयोग देगी. अगर तीस से चालीस सीट आ गई तो कांग्रेस लालू से मिलेगी. पहले भी लालू यादव से कांग्रेस सहयोग करती रही है. यूपीए-1 की सरकार पांच साल तक लालू ने चलायी. कांग्रेस ने खुद कहा कि वे सरकार नहीं बनाने जा रही है. फिर आखिर जब वे सरकार ही नहीं बना रहे है तो कांग्रेस को जनता क्यों वोट दे. कांग्रेस ने चुनावों की रैलियों में संकेत दिया कि वे चुनाव सिर्फ वोटकटवा बनने के लिए लड़ रहे थे. हर पार्टी के गुंडा बदमाश कांग्रेस में जाकर टिकट पा गए. उन्हें जनता ने नकार दिया. कई लोग कांग्रेस से टिकट इसलिए लेकर चुनाव लड़े कि कांग्रेस चुनाव लडऩे के लिए पैसे दे रही थी. पप्पू यादव और क्या आनंद मोहन जैसे अपराधियों की पत्नियों को टिकट दिया गया. अखिलेश सिंह और ललन सिंह जैसे भूमिहार नेताओं को भूमिहारों ने ही धूल चटा दी.कांगे्रस उत्तर प्रदेश में 'जदयूÓ की तरह आम जनता का विश्वास प्राप्त कर सकती है. लेकिन इसके लिए राहुल को राज कुंअर बनकर नहीं नीतीश की तरह लोकसेवक बनकर सामने आना होगा. इसमें क्या संदेह कि मायावती को सर्वाधिक खतरा राहुल से ही जान पड़ता है. मुसलमान, यादव गठजोड़ के दिन वैसे ही लद चुके हैं. फिर भी मुलायम सिंह की ताकत को खारिज करना बेमानी है. राहुल और कांग्रेस अगर २०१० में पूरी ताकत से उत्तर प्रदेश में विकास का एजेंडा लेकर नहीं उतरे तो अधकचरी आशा और विश्वास परिवर्तन को तैयार बैठे जनमानस को छितरा कर रख देगा और अगले पांच साल तक हमें बीते बिहार की तरह देश की मुख्य धारा से कटकर चंगेजी राजनीति को भुगतना पड़ेगा.1 हेलो संवाददाता
जोकरी के दिन गये..
विशेष संवाददाता
शनिवार, 20 नवंबर 2010
आदर्श घोटाले
कमलेश त्रिपाठी
हैविंग ए वाइफ इज ए पार्ट आफ लिविंग. बट लिविंग बिद वाइफ एंड हैविंग ए गर्लफे्रंड इज आर्ट आफ लिविंग.1
आधुनिकता के पैमाने
डा. रमेश सिकरोरिया
प्रेम प्रकाश का तबादला निकला दिव्या का इंसाफ?
शुक्रवार, 19 नवंबर 2010
नये-पुराने मौत के आशियाने
विशेष संवाददाता
दिल्ली के लक्ष्मीनगर इलाके के ललिता पार्क हादसे ने देश के उन तमाम नगरों व महानगरों के जर्जर व गिराऊ मकानों को हिलाकर रख दिया है, जो कभी भी जमींदोज हो सकते हैं. बावजूद इसके नगरों व महानगरों में रहने को मजबूर लोग कभी भी भरभरा कर बैठ जाने वाली खण्डहरनुमा इमारतों में गुजर-बसर करने को मजबूर हैं. पिछले सालों में हालसी रोड पर जब उम्र पार कर चुके एक मकान ने अपना दम तोड़ा था, तो उसके साथ-साथ चार जिन्दगियां भी दफन हो गई थीं. उस समय नगर-निगम और नगर प्रशासन ने शहर को आश्वस्त किया था कि कभी भी गिरने की हालत में खड़े जर्जर या खण्डहरनुमा भवनों का ध्वस्तीकरण किया जायेगा. लेकिन जैसा कहा गया वैसा कुछ हुआ नहीं. जबकि हालसी रोड के हादसे के बाद नगर निगम ने शहर के घने और पुराने इलाकों में लगभग ३०० मकान ध्वस्तीकरण के लिए चिह्नित किये गये थे. लेकिन वे सारे के सारे चिह्न केवल चिह्न बनकर ही रह गये. एक भी मकान इस दौरान नहीं गिराया गया. यह बात है पुराने मकानों की. जरा शहर में बनने वाली बड़ी-बड़ी बहुमंजिली इमारतों की भी हकीकत समझ लीजिए, जो कम खतरनाक नहीं हैं.सबसे पहले तो यह जान लें कि कानपुर महानगर भूकम्प क्षेत्र-२ में आता है. दूसरी बात यह कि शहर में तमाम इमारतें तालाबों और झीलों के मिटे अस्तित्व पर तनी खड़ी हंै. तीसरी बात यह कि कानपुर गंगा किनारे बसा है और यहां की तटीय मिट्टी दलदली और नम है, जिसपर बहुमंजिली इमारतों का बनना हमेशा खतरे की घंटी ही है. फिर भी शहर के प्रशासनिक अधिकारी राजनैतिक पहुंच वाले इन बिल्डरों के समक्ष अत्यन्त कमजोर साबित हो रहे हों. ऐसे में सरकारी ट्रस्ट और वक्फ की जमीनों पर नजरें गड़ाए बैठे इन बिल्डरों की बन आई है. गरीब और आम शहरी एक अदद छत की तलाश और आस में इनकी चाल में फंसता जा रहा है. जिसे फ्लैट खरीदने के बाद भी कई तरीकों से समय-समय पर लूटा जाता रहता है, पर उसके पास विकल्पों की कमी होने के कारण उनमें शेष है. सबसे अधिक खतरा तो ऐसी बहुमंजिली आवासीय इमारतों का है जो कि दिल्ली के ललिता पार्क की तरह कभी भी ढह सकती हैं.कानपुर नगर की सीमा में स्थित तालाबों की संख्या में अत्यन्त कमी आई है और कहा जा सकता है कि ये सभी समाप्त हो चुके हैं. इतिहासकार मनोज कपूर कहते हैं कि मछरिया झील, झकरकटी झील, नौरैया खेड़ा की झील, टटिया की झील, ख्यौरा की झील सहित आठ बड़ी झीलें समाप्ति की कगार पर हैं. पोखरपुर, नौबस्ता, लाजपत नगर कोपर गंज आदि झीलों और तालाबों पर बसे ऐसे मुहल्ले हैं, जिनकी नीव पूर्व में झील की जमीन पर बनी है. वे आशंका जताते हैं कि दलदली और नम क्षेत्र में बनने वाली बहुमंजिल इतमारतों की नीवें अत्यन्त कमजोर साबित हुई हैं जबकि कानपुर भूकम्प क्षेत्र में जोन-२ में आता है. ऐसे में सरकारी विभागों व अधिकारियों की मिली भगत से इन बिल्डरों ने मकानों की अनदेखी करते हुए निर्माण कराए हैं. किसी भी बड़ी दुर्घटना के लिए वे ही जिम्मेदार होंगे.गंगा के किनारे बसे कानपुर के पाश कहलाने वाले मुहल्ले तिलक नगर, सिविल लाइन्स, स्वरूप नगर, आजाद नगर, अशोक नगर में प्रत्येक पुराने बंगले और बी.आई.सी. की सम्पत्तियों पर इन भवन निर्माताओं की नजरें हैं. पेड़ों की अवैध कटान के कारण पर्यावरण को भी क्षति पहुंचाई जा रही है. नगर के प्रशासनिक अधिकारियों की संवेदनहीनता की स्थिति यह है कि जन सूचना अधिकार का प्रयोग कर शहर में तालाबों की संख्या व स्थिति जैसे प्रश्नों के उत्तर मांगने पर सामाजिक एवं आर.टी.आई कार्यकर्ता अरविन्द त्रिपाठी को सूचना न देकर कानपुर तहसीलदार ने उन बिल्डरों में से एक को सूचना अवगत कराई. जिससे श्री त्रिपाठी कहते हैं कि इस पूरे मामले में सरकार के कानों में जूं तभी रेंगेगी जब कोई बहुत बड़ा हादसा होगा. सरकार एक बड़े हादसे का इंतजार कर रही है. इन बहुमंजिली आवासीय इमारतों के निर्माण व भू-गर्भ जल के अंधाधुंध दोहन के कारण जलस्तर में तेजी से गिरावट आ रही है. यदि यही क्रम जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं, जबकि गंगा के किनारे रहने-बसने वाले हम लोग प्यासे रह जाएंगे. इन बिल्डरों ने अब दक्षिण कानपुर कहलाने वाले किदवई नगर, जूही, साकेत नगर, पशुपति नगर, नौबस्ता, रतनलाल नगर, पनकी, श्याम नगर आदि में भी अपना काम तेजी से बढ़ाना शुरू कर दिया है. सामुदायिक अधिवास विकास के नाम पर मिलने वाली सैकड़ों छूटों का प्रयोग कर इन बहुमंजिली आवासीय इमारतों का निर्माण किया जा रहा है. बहुत शीघ्र किसी दुर्घटना के घटित होने के बाद कानपुर नगर में भी अवधपाल सिंह जैसे का नाम सुर्खियों में होगा, तब नियमों के आधार पर ही निर्माण करने की स्वीकृति देने की दुहाई देने वाले केडीए उपाध्यक्ष सहित अन्य विभाग जवाब देही तय न कर सकेंगे.1
पीपी की टींटीं
कमलेश त्रिपाठी
खरीबात
यह तो अपनी खाज खुजलाने जैसी बात
प्रमोद तिवारी
अब किसी को भी किसी तरह के मुगालते में नहीं रहना चाहिए क्योंकि व्यवस्था और उसके पालनहार बेशर्मी का लाबादा ओढ़ चुके हैं. ऊपर से कमाल यह है कि हम इस बेशर्मी में भी अपनी आस्थाएं, हित और विश्वास को बनाये रखने की अफलातूनी कोशिश करके सिद्घ-प्रसिद्घ बने रहते हैं. प्रेम प्रकाश का तबादला यहां अखबारों में ऐसे प्रस्तुत किया गया मानो उन्हें कानपुर की सुरक्षा व्यवस्था के प्रति घोर लापरवाही, बेईमानी और हिटलरी बरतने के बदले दण्डस्वरूप हटा दिया गया है. खबर की यह प्रस्तुति खुद में मियां मि_ू बनने या अपनी खाज खुजलाने जैसी हरकत है. जिस दिन कानपुर में नये डीआईजी अशोक मुथ जैन प्रेस को संबोधित कर रहे थे, उसी दिन प्रेम प्रकाश बनारस सरकिट हाऊस में वहां के प्रेस को बता रहे थे कि अब कानपुर के बाद बनारस की बारी है. प्रेम प्रकाश कानपुर से इसी पद और मान के साथ बनारस भेजे गये और बनारस के अशोक मुथ जैन को कानपुर बुलाया गया. यह सरकार की नितांत रुटीन तबादला कार्यवाई हुई न कि कानपुर में प्रेस से पंगा लेने पर किसी 'आईपीएसÓ के खिलाफ दण्डात्मक कार्रवाई. प्रेम प्रकाश कानपुर के कोई पहले हेकड़ कप्तान नहीं थे. अभी मुलायम सिंह यादव की रिजीम में यहां लगभग इसीतरह के एक किरदार रामेन्द्र विक्रम सिंह को भी शहर ने झेला था. रामेन्द्र विक्रम सिंह ने शहर में पत्रकारों के एक गुट विशेष को पूरी छूट दे रखी थी और बाकी को तकरीबन जूतियों की नोंक पर टेक रखा था. उस दौर में प्रेम प्रकाश से पीडि़त कई पत्रकार रामेन्द्र विक्रम सिंह के एजेंट के रूप में दलाली किया करते थे. रामेन्द्र विक्रम सिंह से भी पहले... कई वर्ष पहले यहां डीएन सांवल नाम के बड़े कप्तान (एसएसपी) आये थे. कोई भ्रष्ट वजह से तो नहीं लेकिन कुछ हेकड़ी में और कुछ खुद को मुख्यमंत्री का खासमखास समझने की गलत फहमी में वह भी अखबार वालों से टकराये और पूरे शहर ने एक अप्रतिम आंदोलन को देखा. अभी तक प्रशासन और पत्रकारों के बीच टकराव का वैसा तीखा अनुभव कानपुर शहर के पास नहीं है. इन तीनों महा कप्तानों में एक समानता रही और यह समानता रही मुख्यमंत्री के अति निकट व पि_ू होने की, डीएन सांवल तत्कालन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के बड़े चहेते थे. रामेन्द्र विक्रम सिंह मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के अनुज शिशुपाल सिंह के बहुत विश्वासी थे. और प्रेम प्रकाश के बारे में कहा जाता है कि उन्हें बहन जी के भाई और परिवारियों का पूरा न सिर्फ समर्थन है बल्कि वह एक तरह से उनके गांव-घर के ही हैं. इसतरह कहा जा सकता है कि कानपुर में जो भी मुख्यमंत्री का करीबी पुलिस वाला कप्तानी करने आता है वह प्रेस से जरूर टकराता है. जहां तक मुलायम सिंह यादव और मायावती की बात है तो ये दोनों हस्तियां कानपुर शहर से बहुत खार खाती हैं. कारण कि यहां भीड़ और जाम के शहर में न तो साइकिल चल पाती है और न ही हाथी दौड़ पाता है. तो क्या यह समझा जाये कि शहर की राजनीतिक नाराजगी को यहां का पत्रकार भुगतता है? बिल्कुल... यहां का पत्रकार अब राजनीतिक खुन्नस का शिकार होता है. वैसे भी जबसे पेड न्यूज को सार्वजनिक रूप से पत्रकारिता व्यवसाय की ताजा आवश्यकता माना जाने लगा है, समूची पत्रकारिता ने निष्पक्षता और ईमानदारी का अपना मूल आधार खो दिया है. ऊपर से कानपुर में पत्रकारिता का कुल मतलब होता है दैनिक जागरण. क्योंकि कानपुर जागरण की नाभि है और उसके पास पाठकों में अकेले दम इतना असर है जितना बाकी के अखबार मिलकर भी पैदा नहीं कर पाते. फलस्वरूप कानपुर में पत्रकारिता और पत्रकारों की दशा-दिशा इसी अखबार की रीति-नीति, उन्नति-अवनति, विचार-व्यवहार से बरबस ही संचालित होती है. प्रेम प्रकाश का जागरण से उलझना और उलझ कर भी पूरी ठसक के साथ कुर्सी पर जमे रहना हर क्षण कानपुर के पत्रकारों की जड़ों में रिसता तेजाब सरीखा ही रहा. शहर की पूरी पुलिस पत्रकारों को सबक सिखाने के मूड में रही. जहां तक अखबारों से राजनीतिक खुन्नस की बात है तो जागरण पिछले दो दशकों से राजनीतिक रूप से एक पक्ष विशेष का अखबार माना जाने लगा है. पहले स्व. नरेन्द्र मोहन जी के भाजपा सांसद होने के कारण और फिर श्री महेन्द्र मोहन जी के सपा सांसद बनने के कारण. यही मुलायम सिंह एक समय जागरण के खिलाफ हल्ला भी बोल चुके हैं. और मायावती तो खैर मीडिया से ही खार खाये रहती हैं. ऐसे ही अन्य अखबारों के भी मालिकान भी अपनी-अपनी राजनीतिक निष्ठाएं रखते हैं. और जब विपरीत निष्ठा की सत्ता होती है तो उसके कोप भाजक बनते हैं. राष्ट्रीय सहारा को समय-समय पर मुलायम सिंह की करीबी का खामियाजा भुगतान करना पड़ता है. अभी तक का तो अनुभव यही है कि राजनीतिक सांठ-गांठ से अखबार के मालिकानों को भले ही करोड़ों-अरबों का वारा-न्यारा होता हो, लेकिन उसके इस बाजारू रुख से सड़क पर घूमने वाला पत्रकार सड़क छाप आवारा सरीखा हो गया है. वरना किसकी मजाल थी कि सुबह से शाम तक २० रुपये से लेकर २० लाख रुपये तक की खुली रिश्वतखोरी में लिप्त रहने वाली पुलिस अखबार के दफ्तर में घुसकर पत्रकारों के सामने डंडा लहराये. यह सब कानपुर में हुआ जिसे प्रदेश के अखबारों की सबसे बड़ी मंडी माना जाता है. जिसे गणेश शंकर विद्यार्थी का भी नगर होने का गौरव प्राप्त है. 1
हम तो पुजारी हैं पूजेंगे
विशेष संवाददाता
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भारत दौरा बेहद 'स्टाइलिशÓ रहा. युवाओं को उनका हर अंदाज पसंद आया. उनकी चाल, उनके डायलॉग, उनकी क्या मस्ती, उनकी जिंदादिली सब कुछ है. ओबामा आये भी शायद यंगिस्तान को ही रिझाने थे. उनका जय हिंद कहना, चांदनी चौक का जिक्र करना. महात्मा गांधी को अपना आदर्श बताना. सब कुछ था भी 'वेल रिटर्न स्क्रिप्टÓ की तरह. कतिका कहती हैं- ''हां, यार! ओबामा इज गे्रटÓ वैसे तो किशन लाल की गांधी से अधिक श्रृद्घा अपने करोबार पर है और ओबामा से अधिक डर अपनी पत्नी का है. लेकिन पिछले दिनों न तो उनका कारोबार आड़े आया और न ही पत्नी का 'डरÓ. सुबह नौ पैंतीस पर वे राजघाट जा पहुंचे. पूछने पर बोले मत्था टेकने आये हैं गांधी की समाधि पर. अच्छा बड़ी अगाध श्रृद्घा है गांधी पर. लेकिन आज तो यहां १०.२० पर ओबामा आ रहे है...? वह बोले, पता है, लेकिन उनके जाने के आधा घंटा बाद राजघाट खुल जायेगा. ओबामा के बाद सबसे पहले हम मत्था टेकेंगे. किशन लाल ने ऐसा पहली बार नहीं किया. जब जार्ज बुश आये थे जब भी उन्होंने ऐसा ही किया था. वैसे किशन लाल कभी राजघाट नहीं जाते, और तो और अपने बच्चों को भी उन्होंने कभी राजघाट की सैर नहीं कराई. लेकिन जब भी कोई अमरीकी राष्ट्रपति गांधी समाधि पर आता है तो उन्हें लगता है कि जरूर गांधी कोई चीज है. वरना अमरीका का राष्ट्रपति यहां क्यों आता. अब किशन लाल की श्रृद्घा की तासीर समझने में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए. किशन लाल गांधी को नहीं 'ओबामाओंÓ को मत्था टेकने जाते हैं राजघाट. हम भारतीय इसतरह प्रमाण देते हैं कि हम दुनिया में आज भी नम्बर एक के मूर्ति पूजक हैं. हमारा श्रृद्घा भाव 'कर्मकांडेÓ के वशीभूत है. 'कर्मकांडÓ पंडों के हाथों निहित होता है. और पंडे कभी कमाई का मौका नहीं छोड़ते हैं चाहे उसकी शक्ल मीडिया की हो, राजनेताओं की हो, व्यापारियों की हो या दलालों की. इन दिनों भारत में आम राय जिसे हम सामान्य राय कहें तो ज्यादा बेहतर होगा. बनाने या बिगाडऩे का काम मीडिया करता है. हमारे निर्णय मीडिया से बुरीतरह प्रभावित होते हैं. मीडिया अगर राई को पहाड़ बनाने पर उतर आये तो बनाकर ही छोड़ता हे. सामूहिक तौर पर जब एक स्वर में मीडिया बोलता नजर आता है तो उसमें और शेयर दलालों के सक्रिय गिरोहों में कोई फर्क नहीं रह जाता. दो कौड़ी की राखी को ये मीडिया दो करोड़ का ब्राण्ड बना देता है. पूरे देश की मिठाई को ऐन दिवाली पर जहर बताकर घर-घर चॉकलेट और कुरकेरे बिकवा देता है. यह किशन लाल का जो जिक्र किया गया है वह यूं ही नहीं है. ओबामा ने भले ही गांधी के सामने मत्था टेका हो लेकिन हम गांधी के देशवासी तो किसी बुश या ओबामा को ही मत्था टेकना पसंद सकते हैं. हमें भी हमारा गांधी तब गांधी नजर आता है जब कोई अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष उसे महान कह देता है. और भला किशनलाल को क्यों दोष दें? पूरा देश ही क्या ओबामा को मत्था नहीं टेक रहा है? मुंबई उतरते ही पहले प्रशासन ने मत्था टेका, इस बात को जानते हुए भी ओबामा के प्रशासन ने भारत में आकर उनका अपमान कर दिया है. फिर भी प्रोटोकाल के नाम पर महाराष्ट्र ने मत्था टेका. उसके बाद मुंबई के व्यापारियों ने मत्था टेका. छोटे भैया अनिल अंबानी ने सगर्व घोषणा की कि वे अमेरिका की जीई कंपनी से 700 मिलियन डॉलर का समझौता करके ओबामा को भरोसा दिलाया कि वे अमेरिका को आर्थिक मंदी से डूबने नहीं देंगे और दिल्ली मुंबई के मीटरों में गड़बड़ करके आम आदमी से जो वसूली की जाती है उसका बड़ा हिस्सा वे अमेरिका की आर्थिक समृद्धि को बनाये रखने के लिए खर्च करेंगे. बदले में अनिल अंबानी को प्रसाद रूप में ओबामा से बात करने और बगल में बैठने का मौका मिल गया. फिर रतन टाटा ने मत्था टेका. मुकेश अंबानी ने मत्था टेका. मुंबई की पूरी व्यावसायिक बिरादरी ओबामा के आगे बिछ गयी. लेट गयी. पसर गयी. अभी तक अमेरिका प्रशासन निवेश करके मत्था टेकने के लिए भारतीय प्रशासन को मजबूर करता था अब उन उद्योगपतियों को अपने यहां पैसा लगाने के लिए बुलाकर मत्था टेकने को मजबूर करता है जो भारत के आम आदमी का खून पीकर लाल होने का दावा करते हैं.वहां से ओबामा दिल्ली आये तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एयरपोर्ट जाकर मत्था टेका. ऐसा करना मनमोहन सिंह की कोई प्रोटोकाल वाली मजबूरी नहीं थी लेकिन प्रशासनिक सेवाओं में रहते हुए मनमोहन सिंह ने न जाने कितने लोगों को एयरपोर्ट पर रिसीव किया होगा इसलिए उन्हें इस बात का अहसास रखने की जरूरत महसूस नहीं हुई कि अब वे प्रधानमंत्री हैं. बुश की तर्ज पर ओबामा ने भी बाएं हाथ से मनमोहन सिंह के कंधे को वैसे ही दबाया और उनका हाल चाल लिया. फर्क सिर्फ इतना था कि बुश ने मनमोहन का कंधा अमेरिका में दबाया था और ओबामा ने भारत में आकर वह कर्म कर दिया. मुंबई में अगर व्यावसायिक तौर पर ओबामा ने जीत हासिल की और देकर नहीं बल्कि हमसे लेकर हमारे ऊपर अहसान लाद दिया तो दिल्ली में दस्तक देते ही कूटनीतिक तौर पर उन्होंने संदेश दे दिया कि भारत अमेरिका के लिए कितना महत्वपूर्ण है.फिर भी हमारे मत्था टेकने की मानसिकता हमें यह सोचने का वक्त ही नहीं देती कि बतौर एक देश हमें किसी दूसरे देश के सामने कैसा व्यवहार करना चाहिए?1
एक और गधे की कहानी
प्रमोद तिवारी
पुलिस का डॉगी
कमलेश त्रिपाठी
गैर जानकारों के लिये सूचनार्थ: पुलिस में कुत्ते भी होते हैं. इनका कार्य सूंघ - सूंघ कर चोर उचक्कों का पकड़वाना होता है. पिछले हफ्ते पुलिस का एक कुत्ता झुण्ड बनाकर घूमने वाले आवारा कुत्तों से टकरा गया. आपस में खूब भौंका -भौंकी हुई. पुलिस का कुत्ता बोला- अबे साले! अवारा कुत्तों, शहर में धारा-१४४ लगी हुई है. और तुम लोग सार्वजनिक स्थान पर ५ से ज्यादा संख्या में इक_े होकर एक निरीह कुतिया के पीछे पड़े हो.अभी तुम्हारे पिछवाड़े पर एक लात मारकर हवालात की हवा खिलवाता हूं. आवारा कुत्ते तो आवारा ठहरे. बोले, सुन बे पुलिस के पालतू डॉगी! हम तेरे अरदब में आने वाले नहीं हैं. अपनी खलीफाई थाने में ही दिखाना. जहां तक एक सिंगल कुतिया का सवाल है, तो हम लोगों के यहां भी इंसानों की तरह मादा भ्रूण का कत्ल किया जा रहा है. कुछ दिन बाद आदमियों की भी यही दशा होने वाली है. एक के पीछे दर्जनों टहलेंगे. आपस में बतियाते-बतियाते पुलिस के कुत्ते और सड़कछापों में प्रेम भाव जाग्रत हो गया. कुत्तों के झुण्ड ने पुलिस वालेसे कहा यार तुम्हारी एक बात समझ नहीं आई. हर घटना के बाद घूम फिरकर तुम थाने में आकर क्यों खड़े हो जाते हो? अरे मूर्खों आवारागर्दी करते -करते तुम लोगों की अक्ल मारी गई है. हम लोग पुलिसवालों से इतर सही तफ्तीश करते हैं. न तो हम लोग रिश्वत खाते हैं और न ही गलत काम करते हैं. दरअसल हर जुर्म का केन्द्र पुलिस थाना ही होता है तो मुझे न चाहकर भी वहीं खड़े होना पड़ता है. अच्छा दोस्त एक बात बताओ जैसे हम लोग सड़कों पर पत्तेचाटी करते हैं तुम्हे तो शानदार खाना जैसे गोश्त रोटी बिरयानी सब मिलता होगा. शुरूआती दौर में तो मिलने वाले भोजन से मैं सन्तुष्ट रहता था लेकिन अब मुझे भी पत्तेचाटी की लत लग गई है. यह इस विभाग की महिमा है जैसे पुलिस की पगार कितनी भी बढा दी जाए, ये ऊपर का माल खाये बगैर गुजारा नहीं कर सकते हैं. अच्छा एक बात बताओ रिटायर होने के बाद तुम क्या करोगे? तुम्हारे झुण्ड में शामिल होकर कामशास्त्र में निपुणता हासिल करूंगा. चूँकि पुलिस में ऐसी कोईव्यवस्था नहीं है. थोड़े समय के बाद आवारा कुत्तों ने देखा कि एक मरियल खजहा टाइप का बिरादरी वाला सामने से आ रहा है. थोड़ी देर बाद पंूछ नीचे दुबकाये सामने आकर खड़ा हो गयाऔर बोला आज मुझे स्वर्ग और नर्क में फर्क पता चल गया है. अब किसी भी जन्म में पुलिस की नौकरी नहीं करूंगा. योग गुरू रामदेव इन दिनों कुछ सरके हुए लग रहे हैं, कहते हैं कि भ्रष्टाचारियों को फंासी दो. अरे बाबा जल्लाद और रस्सी दोनों कम पड़ जायेंगे लेकिन इनकी कमी नहीं पड़ेगी.1
क्रमिक विकास में सहायक हैं कीटाणु
डा. रमेश सिकरोरिया
अंधियारों का ज्योति पर्व
विशेष संवाददाता
आपरेशन रावण
कमलेश त्रिपाठी
चौथा कोना
प्रेसतंत्र की एक कहानी धोबी का गधा
बचपन में पंचतंत्र की एक कहानी सुनी भी थी और पढ़ी भी. कहानी का शीर्षक था 'धोबी का गधाÓ. इस कहानी में धोबी अपने गधे का पूर्ण शोषण (काम) करने के बाद शेर की खाल उढ़ाकर हरे-भरे खेतों में पोषण के लिए चरने छोड़ देता था. गधा शेर की खाल में हरी-हरी घास चरकर मस्त था. गांव वाले शेर की खाल में गधे को शेर ही समझते थे. धोबी की भी मौज थी. एक दिन गधे से नहीं रहा गया. जब उसका पेट फुल टाइट हो गया तो उसे 'लोटासÓ और 'रेंकासÓ लगी. वह भूल गया कि वह 'शेरÓ नहीं गधा है. फिर क्या लगा लोटने और रेंकने. गांव वाले जान गये कि हम जिसे शेर समझ रहे थे वह तो गधा है. गांव वाले लाठी-डंडा लेकर निकल पड़े. इसके बाद की कथा में गाव वाले गधे को पीट-पीटकर मार डालते हैं. यह कहानी मुझे अकारण याद नहीं आई है. पिछले दिनों जब पत्रकारों व मीडिया पर हमले के विरोध में शिक्षक पार्क में प्रेस क्लब के बैनर तले हाहाहूती धरने का प्रदर्शन हुआ तो लगा कि चिंता की बात नहीं अभी बड़ा दम है कलम के सिपाहियों में. मीडिया कर्मियों ने डीआईजी प्रेम प्रकाश के तबादले की मांग तक कर डाली. हिन्दुस्तान अखबार ने इस विरोध मांग प्रदर्शन में कर्ता-धर्ता की भूमिका निभाई. लेकिन अगले दिनों में केवल 'हिन्दुस्तानÓ ने ही पत्रकारों के आंदोलन की तस्वीर व खबरें छापीं. बाकी अखबारों ने तो प्रेस क्लब के धरने को ही अछूत बना दिया. अब इस प्रेस क्लब और इसकी ताकत को क्या समझा जाये. क्या यह धोबी का गधा नहीं लग रहा, जो शेर की खाल में हरियाली खाकर मोटा-तगड़ा तो होता जा रहा है लेकिन दहाड़ नहीं सकता अपने पैने नाखूनों और तेज दांतों से किसी को फाड़ नहीं सकता. प्रेस क्लब का धरना उसकी हुंकार शेर की खाल ओढ़े पेट भरे गधे की लोटाई और रेंकाई के अलावा और कुछ नहीं साबित हो सकी. सब जान गये कि क्या है प्रेस क्लब और उसके तीरंदाज पत्रकार.वैसे धोबी मुगालते में है. जिन्हें यह गधा समझ रहा है ये गधे नहीं हैं.. बल्कि आराम से हराम की चरते-चरते गधे हो गये हैं. इन्हें शेर की खाल की जरूरत ही नहीं, ये तो खुद शेर हैं लेकिन इनको पैदा होते ही गधों के बीच पाला-पोसा गया है बड़े जतन से. सो, ये दहाडऩा भूल गये हैं, रेंकना सीख गये हैं. फिलहाल तो स्थिति यही है.1प्रमोद तिवारी
अरविन्द त्रिपाठी
विशेश्वर कुमार, संपादक- हिन्दुस्तान- डी.आई.जी. वर्दी की आड़ में दोषिओं को बचाने और छिपाने में संलिप्त हैं. दूसरे अखबारों और पत्रकारों को पुलिस की दमनकारी नीति के विरूद्ध लड़ाई में हमारा साथ देना चाहिए था. दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो रहा हैअनूप बाजपेई, अध्यक्ष- प्रेस क्लब-आज का युग खोजी पत्रकारिता का है. इसी प्रकार से लेखन से जनता की लड़ाई लड़ी जाएगी और पुलिस को अपने तौर. तरीकों में बदलाव लाना ही पड़ेगा. यदि समाचार पत्रों में इस आन्दोलन को नहीं लिखा भी जाएगा तो भी हम अपना काम करते रहेंगे.दिनेश जुयाल, संपादक- अमर उजाला-पुलिस से हिन्दुस्तान का व्यक्तिगत बैर है. वे अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं. 2 अक्टूबर को पुलिस द्वारा पत्रकारों के साथ यतीमखाना चौराहे पर बदसलूकी की गई थी और इसमें हिन्दुस्तान के लोग भी थे. हिन्दुस्तान वही लड़ाई लड़ रहा है.कानपुर के रावतपुर गांव में स्कूल गई नौ वर्षीय की गंभीर हालत में वापसी और बाद में मौत के बाद पुलिस के द्वारा की गई लीपापोती ने मामले की गंभीरता को बढ़ा दिया. स्वयंसेवी संगठनो और रंगकर्मियों को विरोध करने से रोका गया. धारा.144 के बहाने दो पत्रकारों पर मुक़दमे भी किये गए. हद तो तब हो गई जब हिन्दुस्तान अखबार के आफिस का घेराव किया गया और आफिस में घुस कर दबाव बनाने के लिए चोरी की गाडिय़ों को चलाने का आरोप लगाया गया. इसके पहले दिव्या केस में सक्रियता दिखाने वाले पत्रकारों में से 21 को धारा 160 के तहत नोटिस जारी की जा चुकी थी. पुलिस के प्रेस के खिलाफ इन तीनों कार्यों से प्रेस बनाम पुलिस का विवाद तूल पकड़ गया. इसमें तेजी तब आई जब कानपुर प्रेस क्लब भी इसमें कूद पड़ा. प्रशासनिक अधिकारिओं ने भी पुलिस की इस गतिविधि को गलत माना पर डीआईजी प्रेमप्रकाश के कानों पर अभी तक जून नहीं रेंगी है. शहर में हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान टाइम्स अब दिव्या की लड़ाई को अपनी व्यक्तिगत लड़ाई की हद तक मान बैठा है. हिन्दुस्तान के स्थानीय सम्पादक विश्वेश्वर कुमार कहते हैं प्रेस पर हुए हमले में सदैव प्रेस की ही जीत हुई है. प्रेस के खिलाफ न लड़ कर पुलिस को अपनी गल्तिओं पर ध्यान देना चाहिए था. वास्तविक दोषी को बचाने में पीडि़तों के हितों की अनदेखी की जा रही है. डीआईजी वर्दी की आड़ में दोषिओं को बचाने और छिपाने में संलिप्त हैं. दूसरे अखबारों और पत्रकारों को पुलिस की दमनकारी नीति के विरूद्ध की लड़ाई में हमारा साथ देना चाहिए था. दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो रहा है. उन्हें सोचना चाहिए था कि आज हमारी बारी है तो कल उनकी बारी हो सकती है. हम दिव्या को इन्साफ दिला कर दम लेंगे चाहे पुलिस कितने ही कड़े कदम क्यों न उठाये. प्रेस क्लब हमारी लड़ाई में साथ है पर वह उतना मजबूत नहीं रहा और पत्रकारों में एकता में कमी आई है. कठिन दौर है पर जीत इन्साफ की होगी. हम कोई गलत काम नहीं कर रहे हैं जो पुलिस से डर जाएं. प्रेस क्लब, कानपुर ने हिन्दुस्तान अखबार और पत्रकारों के विरुद्ध की गई पुलिसिया कार्यवाही के विरोध में 16 को तत्काल बैठक बुलाई और कानपुर के डीआईजी के तत्काल निलंबन एवं स्थानांतरण एवं पत्रकारों के मुक़दमे वापस लेने, नोटिस वापस लेने और हिन्दुस्तान अखबार पर की गई कार्यवाही की उच्च स्तरीय जांच करने संबंधी ज्ञापन कानपुर कमिश्नर के माध्यम से प्रदेश की मुख्यमंत्री को भेजा है. किसी भी घटना के बहाने पुलिस पर हिन्दुस्तान पर हमलावर होने के प्रश्न पर अनूप बाजपेई अध्यक्ष, प्रेस क्लब कानपुर कहते हैं की आज का युग खोजी पत्रकारिता का है. सभी मामले सीबीआई आदि जांच एजेंसिओं के सामने लाने के पहले इसी प्रकार से लिखने और सामने लाने पड़ते हैं. यह न्याय की लड़ाई है लड़ी जाएगी और पुलिस को अपने तौर-तरीकों में बदलाव लाना ही पड़ेगा. यदि समाचार.पत्रों में इस आन्दोलन को नहीं लिखा भी जाएगा तो भी हम अपना काम करते रहेंगे. कानपुर में अमर उजाला के स्थानीय सम्पादक दिनेश जुयाल का कहना है कि अमर उजाला ने दिव्या काण्ड की रिपोर्टिंग में कमी नहीं की परन्तु पुलिस से हिन्दुस्तान का व्यक्तिगत बैर है. वे अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं. वह 2 अक्टूबर की घटना का हवाला देते हैं, जिसमें कुछ पत्रकारों के साथ यतीमखाना चौराहे पर पुलिस द्वारा कुछ बदसलूकी की गई थी और इसमें हिन्दुस्तान के लोग भी थे. वे कहते हैं शहर में रोज सैकड़ों घटनाएँ होती है किसी एक घटना को इतना तूल देने के लिए समाचार पत्र को बहुत अधिक पन्नों का होना चाहिए. यह पूछे जाने पर कि 20 अक्टूबर को जब कानपुर कमिश्नर से ज्ञापन की प्रगति के लिए एक प्रेस क्लब का प्रतिनिधि मंडल गया तो उसमें अमरउजाला के वे पत्रकार भी नहीं गए जो प्रेस क्लब में पदाधिकारी हैं. पत्रकारों की एकता के लिए संघर्ष करने का दावा करने वाले श्री जुयाल इस प्रश्न पर अपनी अनभिज्ञता जताते हैं जिसके पत्रकार बिरादरी में गूढ़ अर्थ निकाले जा रहे हैं. पत्रकारों में यह चर्चा आम हो गई है कि जो लोग संघर्ष में साथ नहीं हैं ऐसे नकारे, निकम्मे पदाधिकारिओं को तत्काल त्यागपत्र दे देना चाहिए और नए चुनाव अति शीघ्र कराये जाने चाहिएण् श्री तिवारी कहते हैं सच चार लाइनें भी लिखा जाए तो लाख झूठो पर भारी होता हीण्सभी अखबारों को पे्रस क्लब से तत्काल निकाल देना चाहिए. लेकिन यहीं पर सवाल यह है कि प्रेस क्लब आज की तारीख में खुद एक असंवैधानिक मंच है. खुद भ्रष्टाचार और अनीति का पोषक है. हिन्दुस्तान समाचार पत्र इलाहाबाद में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार एवं रीजनल मीडिया सेंटर ब्रजेन्द्र प्रताप सिंह कहते हैं जब भी हम घटनाओं को व्यक्ति के रूप में देखते हैं तो इसी प्रकार का संकट आता है. यदि प्रेमप्रकाश ने एक आफिसर की तरह सोचा होता तो टकराव नहीं होता पर वे तो व्यक्तिगत हो गए जिसका परिणाम टकराव के रूप में आया. रही बात पत्रकारों की एकता की तो हम सभी के अपने मतभेद अपनी जगह हैं उनमे मनभेद नहीं होना चाहिए था. हम अपनी जमात में तो एक रहें. अन्यथा इसी तरह पुलिस जैसे तत्व हम पर हावी होने का प्रयास करते रहेंगे. इसी प्रकार हमें भी समय-समय पर आत्म-विश्लेषण और आत्म-मंथन करते रहना चाहिए जिससे टकराव जैसी स्थिति न आये. पद्मश्री पुरुष्कार प्राप्त व साहित्यकार गिरिराज किशोर पुलिस के प्रेस पर हमले को को नितांत दमनकारी मानते हुए कहते हैं. शहर में किसी की कोई सुरक्षा नहीं रह गई है. ऐसी स्थिति में प्रेस पर हमला अघोषित आपातकाल की याद दिलाता है. कानपुर की महिला वादी संगठनों और सुभाषिनी अली की निष्क्रियता को अत्यंत निंदनीय मानते हुए वे कहते हैं कि आम और ख़ास सभी को इस मामले में प्रेस का साथ देना चाहिए. उनका मानना है कि प्रदेश की सरकार का पुराना इतिहास रहा है की वो लोकतांत्रिक तरीकों और मूल्यों का सम्मान नहीं करती है. प्रेमप्रकाश पूरी तरह्ह पार्टी के कार्यकर्ता की तरह कार्य कर रहे हैं. वकीलों के दमन की कहानी अभी भी कानपुर के बाशिंदों के जेहन में है. कानपुर के मंडलायुक्त अमित घोष ने प्रेस के विरुद्ध पुलिस की कार्यवाही को गलत ठहराया है. मुक़दमे वापस लेने का आश्वासन भी दिया गया है. अख़बार के कार्यालय में पुलिस जाने की जांच के आदेश भी उन्होंने दिए हैं. आईजी ने प्रेस के समर्थन में वक्तव्य दिए हैं. सूत्र बताते हैं कि रात में जब पुलिस ने हिन्दुस्तान कार्यालय पर धावा दिया तब कानपुर के आला प्रशासनिक अधिकारिओं ने डीआईज से स्वयं मैनेज करने को कहा था जो उनकी मजबूर कार्यप्रणाली का परिचायक है. पत्रकारों में चर्चा है कि प्रेमप्रकाश का आदर्श चुलबुल पांडे है, वो उसी तरह दबंगई से काम करना चाहते हैं. इस सब से इतर आम पत्रकारों में रोष और भय व्याप्त है कि वे अपनी बात किससे और कहाँ कहें. जबकि प्रेस क्लब स्वयं में ही लोकतान्त्रिक और संवैधानिक मूल्यों का पालन नहीं कर रहा है. पिछले कई वर्षों से प्रेस क्लब का चुनाव नहीं हुआ है और प्रेस क्लब की सदस्यता का नवीनीकरण भी नहीं हो पा रहा है. प्रेस क्लब के जो पदाधिकारी लाखों रुपया डकार चुके हैं वो न्याय की ल$ड्ढाई क्या लड़ेंगे. सबसे खराब पहलू यह है की जागरण जैसा समूह इससे किनारा किये है. पत्रकार एवं कवि प्रमोद तिवारी कहते हैं प्रेस क्लब अपने अस्तित्व के सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है. ऐसे में पत्रकारों को अपनी रक्षा कैसे हो यह यह खुद स्वयं सोचना पड़ेगा. पत्रकारिता में सुचिता का संकट आया है. दागी पत्रकारों के कारण काले कारनामे करने वाले सरकारी अधिकारिओं और नेताओं में प्रेस और पत्रकारों का लिहाज व भय समाप्त हो गया है. अनूप बाजपाई भी मानते हैं कि पत्रकारिता अब मिशन तो रही नही. पत्रकार अपना और अपने परिवार का भरण-पोष²्रण करने के उद्देश्य से काम कर रहा है.1
प्रमोद तिवारी
खरीबात
क्योंकि हथियार डाल चुके हैं..
प्रमोद तिवारी
पंचायत चुनाव के प्रथम चरण से यह तय हो गया है कि कानपुर महानगर में अगर ट्रैफिक पुलिस पूरी तरह से हटा ली जाए, तो भी कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा. शहर वैसे भी जाम से कराहता है और बिना ट्रैफिक पुलिस के भी जाम से ही कराहेगा. १२ अक्टूबर यानी चुनाव के अगले दिन शहर के सभी अखबारों में जाम की त्रासद तस्वीरें और कहानियां थीं. यह कहानियां शहर वैसे भी कहता रहता है और फिर पढ़ता रहता है. प्रधानमंत्री का अना याद करिए. तब तो दूसरे जिलों की भी पुलिस शहर में थी. क्या हुआ था... एक बच्चे की जान फंस गई थी जाम में और अंतत: कराहते-बिलखते शहर के साथ बेचाराा पूरा शहर देख बगैर ही दुनिया छोड़ गया. अगर जिला पुलिस-प्रशासन नहीं जान पाया है या उसे अभी भी उम्मीद है कि पुलिस से शहर के यातायात का कोई भला होने वाला है, तो वह पानी पर पत्थर की नींव डालने की सोच रहा है. एक किस्सा बताता हूं. स्थान- गुमटी गुरुद्वाास क्रासिंग. समय सुबह ११ बजे के आस-पास. मैं अस्सी फिट रोड से गुमटी बाजार की ओर अपनी कार से जा रहा था. गुमटी क्रासिंग पर गुरुद्वारे के ठीक सामने एक पक्की चौकी बनी है सभी को मालूम है. 'ट्रेनÓ का समय था. क्रासिंग बंद थी. मैं खड़ा हो गया ठीक चौकी के बगल में. चौकी के भीतर चार सिपाही और दो होम गार्ड थे. क्रासिंग बंद होने से जीटी रोड के दोनों ओर से आने वाले वाहन और अस्सी फिट रोड से गुमटी दिशा में जाने वाले वाहनों की पहले मैं... पहले मैं... के चक्कर में जाम लग गया.अब देखिए! चौकी के अंदर सिपाही-होमगार्ड जाम लगता देख रहे हैं, कोई फर्क उन पर नहीं पड़ रहा है. ट्रेन चली गई, क्रासिंग भी खुल गई. क्रासिंग खुलते ही खड़े वाहन अपनी-अपनी दिशा में थोड़ा सरके और फंसे जाम में और बुरी तरह फंस गये. हार्नों की कानफोड़ू 'चिल्ल-पोंÓ मच गई. उस दिन सूरज चटक निकला था. बरसात के बाद की चुटकी काटती धूप से सबका बुरा हाल... लेकिन चौकी में मौजूद ट्रैफिक और सिविल के सिपाही आराम से टांग हिलाते हुए अपनी बातों में मशगूल! मुझसे नहीं रहा गया..., मैं गाड़ी से उतर कर चौकी तक गया... चौकी में मुझे डंडाधारी रामलाल जी मिले.. रामलाल खाकीवर्दी में मुंह में मसाला भरे थे. मैंने उनसे कहा, 'ये आपकी खोपड़ी पर जाम लगा है दिखाई नहीं दे रहा है?Ó'रामलाल बोले, दिखाई दे रहा है. क्या करूं...Ó'जाम हटवाइये, और क्या करिए...Ó मैंने कहा. बह बोले, क्या मेरा ठेका है.Óमैंने कहा, ''अगर यह तुम्हारा ठेका नहीं है, तो किसका है?ÓÓवह बोले, 'देख नहीं रहे हैं इन लोगों को. ये सारे के सारे पढ़े-लिखे हैं. इन्हें नहीं मालूम ट्रैफिक नियम..?Óपढ़े-लिखे तो ये हैं, इन्हें पूरी सीआरपीसी और आईपीसी भी मालूम है. तो फिर तुम्हारा क्या काम?अभी तक उन्हें यह नहीं मालूम था कि ये कौन आदमी है.. मेरे इस जवाब से वह थोड़ा गंभीर हुए. मुझे गुस्सा आ गया. मैंने कहा, चौराहे पर खड़े हो, भीड़ के सामने पटर-पटर कर रहे हो शर्म नहीं आ रही है... एक आदमी का काम है... दो मिनट लगेंगे जाम हटाने में..?रामलाल बोले, ''अच्छा चलिए मैं चलता हूं आपके साथ. हटाइये जाम.Ó और दोस्तों! मैं रामलाल के साथ जाम हटाने बीच चौराहे पिल पड़ा. मेरे पिलते ही दो नवजवान और साथ आ गये. एक कोने में मैं खड़ा हो गया, दो कोने उन अनजान युवाओं ने पकड़ लिये. रामलाल भी डंडा लहराते हुए रास्ता बनाने में सक्रिय हुए. आपकों बतायें, रास्ता साफ होने में घड़ी देखकर पांच मिनट भी नहीं लगे. वहां जाम का कोई कारण ही नहीं था. केवल चौराहे पर चारों दिशा से आने वाले वाहनों ने आपस में थूथन जोड़ रखे थे और सबके पीछे दस-दस, बीस-बीस वाहन थे, बस, बाकी चारों दिशाओं की सड़कें साफ खाली पड़ी थीं. जाम साफ होने के बाद मैंने रामलाल से कहा अब बताइये. रामलाल जल-भुनकर राख हो गये थे. इसके आगे भी कहने को बहुत कुछ है, लेकिन फिलहाल यह उदाहरण काफी है इतना बताने के लियेे कि अगर ट्रैफिक पुलिस व सिपाही चौराहों पर हों भी, तब भी जाम से निजात संभव नहीं है, क्योंकि वे अपने हथियार डाल चुके हैं.े
ये भी खेल है
कमलेश त्रिपाठी
अभी तक लोग कहा करते थे कि दिल्ली दिलवालों की है. लेकिन अब दिल्ली खेलवालों की हो गयी है. यहाँ बड़े-बड़े खिलाड़ी आये हुए हैं. पता नहीं, कैसे-कैसे खेल दिखा रहे हैं, कोई टांग हाथ में डाल रहा है तो कोई उसका उलट कर रहा है. और बदले में सोने, चाँदी, और जस्ते के तमगे मिल रहे हैं. इससे एक बात तय हो गयी है कि बिना करतब दिखाए सोना, चाँदी समेटना मुश्किल है. आराम से तो रोटी-चटनी ही खाई जा सकती है क्योंकि अभी हाल में रोटी का दाल के साथ तलाक हो गया है. बरसों पुराना साथ एक झटके में टूट गया है. सुना है कि रोटी ने नमक के साथ रिश्ता जोड़ लिया है.मद्य सेवन के चलते मेरी याददाश्त थोड़ी कमजोर हो गई है. बात चल रही थी खेल की और मैंने दाल पेल दी. इस देश के मिडिल क्लास की यही समस्या है. रोटी-दाल भैरव घाट तक उसे पिछियाते रहते हैं. हाँ! जरा अब दिल्ली में चल रहे खेल पर आइए, यहां खेल गाँव में 6 वेन्डिंग मशीनें सरकार ने लगवाई थीं और हर एक में तीन-तीन हजार कंडोम थे. यहाँ गणित का एकिक नियम लगाएं तो कुल मिलाकर 18000 कंडोम थे. और यह तीसरे ही दिन अंर्तध्यान हो गये. अब इसके आगे का एकिक नियम आप खुद लगाइये कि वहां क्या और किस गति से हुआ होगा? अब यहाँ सवाल यह उठता है कि इतना लोकप्रिय खेल कॉमनवेल्थ में शामिल क्यों नहीं किया गया? क्या एक इनडोर स्टेडियम वयस्कों के लिए नहीं बन सकता था? खेल की तीव्रता मापने के लिए मशीनें बाहर से क्यों नहीं मंगवार्इं? हो सकता है कि मशीन बनाने वाली कंपनी कमीशन देने को तैयार न हुई हो, इसके चलते आयोजन समिति ने इस खेल को प्रतियोगिता से बाहर कर दिया हो. आज नहीं तो कल कलमाड़ी साहब को इसके जवाब जरूर देेने पड़ेगें. इस बाबत जब मैनें आरटीआई के तहत केन्द्रीय खेल मंत्रालय से जवाब-तलब किया तो निम्न बातें खुलकर सामने आर्इं- इस खेल की लोकप्रियता हम लोग पहले से नहीं भांप पाये अन्यथा इसे सीडब्लूजी में जरूर शामिल करते. अगर ओलम्पिक खेलों की मेजबानी भारत को मिली तो हम ये चूक नहीं करेंगे. कमीशन मिलने न मिलने की बात निराधार है. जब सारे सप्लायरों ने भरपूर पैसा दिया है तो ये कैसे बच सकते थे? इस खेल को मनोरंजन कर से मुक्त कराने के लिए हम प्रधानमंत्री कार्यालय से संपर्क में हैं. इस तरफ हमारी बुद्धि खींचने के लिए आपको साधुवाद खेल मंत्रालय की तरफ से.संता - डाक्टर से- मैं बहुत परेशान हूँ मेरे यहाँ हर साल बच्चा पैदा होता है.डाक्टर- कंडोम का प्रयोग किया करो.अगले साल- संता डाक्टर से- मेरे यहाँ फिर बच्चा हो गया. डाक्टर- पूरे घर को कंडोम बाँट दो.उसके अगले साल- संता डाक्टर से- फिर बच्चा पैदा हो गया.डाक्टर- तू अब एक काम कर मोहल्ले वालों के लिए कॉमनवेल्थ गेम वाली वेन्डिंग मशीन घर के बाहर लगवा दे.
प्रथम पुरूष
सफलता का नया फार्मूला संबंधों की देख-भाल और उनकी रक्षा
डा. रमेश सिकरोरिया
पहले आईक्यू, फिर (भावनात्मक) ईक्यू और अब संबंध (आधारित) आरक्यू को सफलता के लिए आवश्यकता की श्रेगी में सबसे महत्वपूर्ण कहा जा रहा है.आई क्यू यानी बुद्घिमत्ता का स्थान सफलता पाने में है, परन्तु बहुत से बुद्घिमान सफलता नहीं पाते और साधारण बुद्घिमत्ता वाले सफलता की शिखर पर पहुंच जाते हैं. ईक्यू यानी भावनात्मक क्यू में भावनात्मक बुद्घिमत्ता की पांच बातें, यानी अपनी भावनाओं को जानना, उनका संचालन करना (सुचारता पूर्वक) स्वयं को प्रेरित करना, दूसरों की भावनाओं को जानना या अहसास करना एवं संबंधों को संचालन करना सफलता दिलाता है. आर क्यू यानी (रिलेशनसिप क्यू) में अपने संबंधों का अनुभव करना, उनका आंकलन करना, उनको व्यवस्थित करना या संचालन करना समायोजित है. एक प्रकार से ई क्यू और आर क्यू में गहरा संबंध है, क्योंकि यदि व्यक्ति भावनात्मक रूप से संतुलित है, तो वह अपने परिवार, मिलों, पड़ोसियों, सहकर्मियों व सभी से अपने संबंधों को सुचार रूप से संचालित करता है. इस योग्यता का परिणाम उसे सफलता की सीढ़ी पर चढ़ाता रहता है. संबंधों का योग्यता पूर्वक संचालन न करने से या उनके नकारने से आपकी सफलता में रुकावट आती है. आड़े वक्त में संबंध आपको सहारा देते हैं. आपको निराशा से बचाते हैं, आपको उत्साहित करते हैं, आपको अहसास दिलाते हैं कि आप अकेले नहीं हैं, आपको आशावान रखते हैं और आगे बढ़ाते हैं. हमारे विचार भिन्न हो सकते है, परन्तु हमें असहमति के लिए सहमत होना चाहिए. दूसरे के मन में क्या चल रहा है, उसका अंदाजा लगाने के स्थान पर खुले मन से बात करेें. नतीजा क्या निकलेगा, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है आप समस्या का सामना कैसे कर रहे हैं? नकारात्मक या सकारात्मक तरीके से परिवार या सभी संबंध आपको एक मजबूत आधार (नींव) देते हैं, उस पर बनी इमारत गिरने पर फिर से बनायी जा सकती है. संबंधों के कारण ही यहूदी लोग भारत में अपने को अधिक सुरक्षित समझते हैं, इजराइल में नहीं! मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. समाज के अन्य लोगों से उसने कैसे संबंध बनाये हैं, इसी पर उसकी सफलता आधारित है. हमको कोई अच्छा लगता है, कोई नहीं. एक शिक्षक को अपने विद्यार्थी अपने परिवार से अधिक अच्छे लगते हैं, यदि हम अपने कुत्ता को टहलाने ले जाते हैं तो वह हमको प्यार करता है. लोग जिंदा इंसान है, कम्प्यूटर नहीं, उनसे संबंध बनाने के लिए उन्हें समय देना पड़ेगा, ऊर्जा खर्च करना पड़ेगी, उन्हें समझना पड़ेगा, संबंधों को सुंदर बनाने के लिए प्रयत्न करना पड़ेगा. अब तो कंपनियों या कार्यालयों में भी यही कोशिश रहती है कि छोटे से छोटे कर्मचारी से बड़े-बड़े अधिकारी एक ही तरंग पर काम करें, सभी का उद्देश्य एक हो, कंपनी की सफलता के लिए संबंधों को प्रगाढ़ बनाने के तरीके अपनाये जाते हैं. एक दूसरे का सम्मान, उनकी संस्कृति की प्रशंसा और आदर करना चाहिए. प्रत्येक व्यक्ति एक जीता जागता इंसान है, वह एक नम्बर या संख्या नहीं है. सभी व्यक्ति एक से हैं, उनकी आदतें आम तौर पर एक सी हैं. भावनाओं में समानता है. उनकी मान्यता एक सी हंै. हम एक मुस्कराहट से उनसे दूरी कम करके अच्छे संबंध बना सकते हैं और जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं. महान व्यक्तियों ने यही किया. एक और बात! आप चाहते हैं, कि सभी आप में रुचि दिखायें, परन्तु आप स्वयं दूसरों से दूर रहें, उनके दु:ख-सुख में रुचि न लें, तो संबंध कैसे सुंदर होंगे?केन्द्रित होने के स्थान में विकेन्द्रित हों, छोटा-बड़ा, काला-गोरा, हिन्दु-मुसलमान, अच्छा-बुरा भूल कर उससे इंसानी संबंध बनायें. आगे और गहराई से सोचें, तो प्रकृति से भीे हमें सुंदर संबंध बनाना चाहिए. उससे हमारे व्यक्तित्व को प्रसार मिलता है, हमारा व्यक्तित्व प्रखर होता है. पहाड़, जंगल, नदी, सभी जानवर हमें कुछ समझाते हैं, हमें कुछ ज्ञान देते हैं. हमारे जीवन की रक्षा करते हैं, यदि हमसे कुछ लेते हैं, तो अधिक देते हैं. केवल प्रकृति पूर्ण है, अतएव सफल होने के लिए उससे हमारा अच्छा संबंध होना आवश्यक है. पहाड़ों की शांति, जंगलों का वातावरण, नदी में पानी का बहाव, जानवरों की पग ध्वनि हम से संबंध बनाने को आतुर हैं, हम भी उनके पास जायें, उनसे प्रेम स्थापित करें.1
पीर हरण का चीर हरण चालू है....
अनुस्का उर्फ दिव्या शहर का ताजा सर्वाधिक बिकाऊ खबरीला मुद्दा है. एक ऐसा मुद्दा जिसकी शहर में जबरदस्त मांग है. मुद्दे जब मांग की शक्ल तैयार कर लेते हैं तो मीडया और राजनीति की जीभ लपलपाने लगती है. ऐसा ही हो रहा पिछले कुछ दिनों से बुरी तरह बेतरतीब बिखरे, प्राणलेवा मच्छरों की बीमारियों से जकड़े धीरे-धीरे एक तरह से कबिरस्तान सा नजरा बनाते शहर को. जागे हुये लोगों में दिव्या को जेसिका लाल और प्रियदर्शनी बनाने की होड़ मची हुयी है. बेचो.... भुनाओ..... मुद्दों को, समस्याओं को, घटनाओं को लेकिन उसके साथ बलात्कार तो न करो. दिव्या के साथ बलात्कार हुआ. बलात्कार शायद छोटा शब्द पड़ रहा है जो उस नन्हीं जान पर बीती उसे बताने के लिये. लेकिन घटना के बाद से हर रोज दिव्या का बलात्कार शहर में नये रंग रोगन के साथ सामने आ रहा है. शहर के उन तमाम निष्तेज संगठनों और नेताओं को दिव्या को न्याय दिलाने की गुहार में शायद अपनी सम्भाव्य आभा जान पड़ती है. अगर ध्यान से देखा जाये तो यह वही मीडिया और संगठन है जो दिव्या के ठीक पहले कविता और वन्दना के लिये धरती और आसमान एक किये था. इनसे पूछिये क्या कविता और वन्दना को न्याय मिल गया ? उनका पीर हरण हो गया. नहीं मित्रों, वंदना और कविता का बलात्कार पुराना हो गया.. फिर दिव्या की उम्र, घटना स्थल, जख्म और खून में घटना की जो वीभत्सतता है, प्रचारित न्याय के लिए प्रचार का जितना मिटिरियल है उतना शायद कविता और वंदना बलात्कार काण्ड में नहीं..। पुलिस... जो कि कानपुर में घटे इन तीनों बलात्कार के और बलात्कारियों के प्रति बाकायदा पत्थर सी जान पड़ी. लेकिन उसने तीनों घटनाओं में बाद तफ्तीश गिरफ्तारियां की हैं, आगे कार्रवाई के लिए लगातार कह रही है. फिर पुलिस से अब किस न्याय की बात की जा रही है..। कहा जा रहा है कि प्रबंधक का छोटा बेटा पियूष वर्मा जेल में नहीं है यह अन्याय है. जबकि खुद प्रबंधक और उसका बड़ा बेटा सलाखों के पीछे है. अब यह कैसे कहा जाये कि पुलिस प्रबंधक को बचा रही है. और अगर संगठनों और मीडिया की दृष्टि में पियूष ही बलात्कारी है तो उसके बाप और भाई के साथ क्या हो रहा है जेल में..। क्या यह उनके साथ बलात्कार, अत्याचार व्यभिचार नहीं है. यहां लेखक का आशय किसी को फंसाना या बचाना नहीं है. लेकिन एक व्यक्ति की गिरफ्तारी को न्याय कहना कितना न्यायोचित है भारतीय कानून व्यवस्था में यह तो समझना ही चाहिए. अभी आप कविता कांड में ही देखिए. ठीक ऐसे ही संगठनों की मांग, मीडिया की तथ्य परख रिपोर्टिंगों और माहौल के दबाव में पुलिस ने नर्सिंग होम के वार्ड ब्याय को बलात्कार के आरोप में अंदर कर दिया. इस घटना का फालोअप बताता है कि 'वार्ड ब्यायÓ बलात्कारी नहीं हो सकता.. लेकिन 'वार्ड ब्यायÓ की गिरफ्तारी को जागे लोगों ने कविता के साथ न्याय मान लिया. अब यही लोग दिव्या के लिए न्याय यानी पियूष को जेल मांग रहे हैं. हो सकता है पुलिस पियूष को बचा रही हो इसलिए कि उसकी गिरफ्तारी से 'साक्ष्यÓ पुष्ट होंगे और पुलिस की गढ़ी पड़ोसी बलात्कार कहानी झूठी साबित हो जायेगी. पुलिस इसलिए भी पियूष को बचा सकती है कि उसने पैसा खा लिया हो. चूंकि आगे की वैज्ञानिक जांचों से पियूष बच नहीं सकता और उसका पिता व भाई फंस नहीं सकता. इसलिए पियूष को बचाओ बदले में बाप और बड़े भाई को फसाओ ऊपर से माल कमाओ..। शायद प्रेस और नागरिक संगठन यही सोच रहे हैं. तो क्या यह मान लिया जाये कि जो ये लोग सोच रहे हैं वही सत्य है..। अरे भाई, और भी तो जागे हुए लोग हैं जो कह रहे हैं स्कूल खुलने दो, बच्चों को पढऩे दो. इनकी बात का कोई मतलब नहीं है. शहर में शहर के लिए, न्याय की सुनिश्चितता के लिए, एक नन्नी जान की सच्ची कीमत के लिए हर संभव लोकतांत्रिक प्रहार होना चाहिए. लेकिन बनावटी प्रदर्शन न तो संवेदना को जगा पाते हैं न ही नसों में दौड़ते खून को गरमा पाते हैं. यह बात हमेशा असर करती है कि वह कैसे और किससे द्वारा कही व उठाई जा रही है. उसके पीछे का उद्देश्य क्या है..झ मार्केटिंग और पैकेजिंग के जमाने में कोई बेवकूफ नहीं है.1 हेलो संवाददाता
देश का दर्पण
प्रसंगवश-प्रमोद तिवारी
खेलों के नतीजे किसी भी देश के तन और मन का दर्पण होते हैं. देश का तन होता है देश के लोग, देश का मन होता है देश की नीतियां. कामनवेल्थ गेम्स में भारत का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन बताता है कि देश के लोग और देश की नीतियां दोनों इस दौर में अब तक की सर्वश्रेष्ठ उन्नत दिशा की ओर हैं. आप गौर करें तो पायेंगे कि दूनिया के वे सारे देश जो विकसित हैं, अपेक्षाकृत अ-भ्रष्ट हैं, जहां का नागरिक जीवन चैन से व संतोषप्रद है, वे जब भी खेल की स्पर्धाओं में उतरते हैं तो पदक तालिका उनके लिये शीर्ष के स्थानों के लिए स्वागत करती दिखाई पड़ती है. इस दृष्टि से कामनवेल्थ गेम में भारत का ३८ स्वर्ण पदकों का जीतना बताता है कि इस देश में सब कुछ पहले जैसा नहीं है, बहुत तेजी से बेहतर हो रहा है. अगर भारत के ३८ स्वर्ण पदकों की चमक में भारत की सम्पूर्ण व्यवस्था समीक्षा की जाये तो देश की सही ताजा तस्वीर सामने प्रकट हो सकती है. जैसे कि ३८ तमगों में महिलाओं की भागीदारी.... महिलाओं ने लगभग एक तिहाई से भी अधिक सोने के तमगों पर कब्जा किया है. यह केवल खेलों में महिलाओं का बढ़ता रुतबा नहीं है बल्कि यह रुतबा है नये भारत में तेजी से आगे बढ़ती महिलाओं का. ऐसे ही स्पर्धा और खिलाडिय़ों के गृह प्रान्त और जनपद पर दृष्टि डालें तो पता चलेगा कि खेल वास्तव में किस तरह लोक जीवन और लोक व्यवस्था का दर्पण होते हैं. कामनवेल्थ गेम्स में अगर केवल हरियाणा के खिलाडिय़ों के पदकों को जोड़ दिया जाये तो ताजा कामनवेल्थ गेम की पदक तालिका में उसे छठा स्थान प्राप्त हो सकता है. एक तरह से एक देश भर की ताकत दिखाई है अकेले हरियााणा प्रान्त ने. खेल का यह नतीजा हरियाणा सरकार और वहां की खेल नीतियों का आईना नहीं है क्या? हां, निश्चित ही देश में तेजी से आगे बढ़ रहे प्रान्तों में हरियाणा का भी नाम है. ऐसे ही अगर यह देखें कि भारत ने किन-किन खेलों में तमगे हासिल किये तो एक बात और निकल कर आती है कि वर्तमान सफलता टीमों के बजाय खिलाडिय़ों के निजी दम-खम पर ज्यादा टिकी हुई है. निशानेबाजी, पहलवानी, मुक्केबाजी येे प्रमुख स्पर्धाएं हैं जिनमें भारत ने सर्वाधिक पदक हासिल किये. ये वे स्पर्धाएं हैं जहां संसाधनों के टोटे और प्रतिभा से छेड़छाड़ के मौके बहुत ज्यादा नहीं हो सकते. चूंकि मीडिया अब प्रतिभाओं को छुपने नहीं देता और खेल संघों की 'इंट्रीÓ में मनमानी चल नहीं पाती. जहां तक टीम स्पर्धाओं का प्रश्न है तो अपनी स्थिति देख लें. हॉकी में सोना चूके कि नहीं... स्वीमिंग में कुछ नहीं मिला. क्योंकि इस स्पर्धा में संसाधनों का सर्वाधिक महत्व होता है. एक बात और.. अगर अ-भ्रष्ट देश ही खेलों में वर्चस्व बनाते हैं तो भारत में तमगों का टोटा होना चाहिए. तो मित्रों हमने खेलों में भ्रष्टाचार का माप कोटा आयोजकों से पूरा करा तो दिया. अगर खेल नियोजक, आयोजक और खेल संघों के आका अ-भ्रष्ट हो जाएं तो पहला स्थान आस्ट्रेलिया का नहीं भारत का हो.. वह भी कामनवेल्थ गेम में नहीं, एशियाई और ओलंपिक खेलों में भी. इसलिए अंत में यह कहकर अपनी बात समाप्त करता हूं कि कामनवेल्थ में खिलाड़ी जीते हैं. खेल नहीं. खेल तो चारों खानों चित्त ही मिला. आयोजन से पहले भी और आयोजन के दौरान भी. डिस्कस थ्रो और महिलाओं का ४ गुणा ४०० मीटर की रिले दौड़ तथा बैडमिंटन व टेनिस का एकल खिलाब वास्तव में देश की खेल शिराओं में स्वर्णिम सिहरन पैदा करने वाला रहा. जय हो....खिलाडिय़ों की.. जय हो.. भारत की.1
बीमार जायें तो जायें कहां!
अनुराग अवस्थी 'मार्शलÓ