शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

हम तो पुजारी हैं पूजेंगे

विशेष संवाददाता

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भारत दौरा बेहद 'स्टाइलिशÓ रहा. युवाओं को उनका हर अंदाज पसंद आया. उनकी चाल, उनके डायलॉग, उनकी क्या मस्ती, उनकी जिंदादिली सब कुछ है. ओबामा आये भी शायद यंगिस्तान को ही रिझाने थे. उनका जय हिंद कहना, चांदनी चौक का जिक्र करना. महात्मा गांधी को अपना आदर्श बताना. सब कुछ था भी 'वेल रिटर्न स्क्रिप्टÓ की तरह. कतिका कहती हैं- ''हां, यार! ओबामा इज गे्रटÓ वैसे तो किशन लाल की गांधी से अधिक श्रृद्घा अपने करोबार पर है और ओबामा से अधिक डर अपनी पत्नी का है. लेकिन पिछले दिनों न तो उनका कारोबार आड़े आया और न ही पत्नी का 'डरÓ. सुबह नौ पैंतीस पर वे राजघाट जा पहुंचे. पूछने पर बोले मत्था टेकने आये हैं गांधी की समाधि पर. अच्छा बड़ी अगाध श्रृद्घा है गांधी पर. लेकिन आज तो यहां १०.२० पर ओबामा आ रहे है...? वह बोले, पता है, लेकिन उनके जाने के आधा घंटा बाद राजघाट खुल जायेगा. ओबामा के बाद सबसे पहले हम मत्था टेकेंगे. किशन लाल ने ऐसा पहली बार नहीं किया. जब जार्ज बुश आये थे जब भी उन्होंने ऐसा ही किया था. वैसे किशन लाल कभी राजघाट नहीं जाते, और तो और अपने बच्चों को भी उन्होंने कभी राजघाट की सैर नहीं कराई. लेकिन जब भी कोई अमरीकी राष्ट्रपति गांधी समाधि पर आता है तो उन्हें लगता है कि जरूर गांधी कोई चीज है. वरना अमरीका का राष्ट्रपति यहां क्यों आता. अब किशन लाल की श्रृद्घा की तासीर समझने में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए. किशन लाल गांधी को नहीं 'ओबामाओंÓ को मत्था टेकने जाते हैं राजघाट. हम भारतीय इसतरह प्रमाण देते हैं कि हम दुनिया में आज भी नम्बर एक के मूर्ति पूजक हैं. हमारा श्रृद्घा भाव 'कर्मकांडेÓ के वशीभूत है. 'कर्मकांडÓ पंडों के हाथों निहित होता है. और पंडे कभी कमाई का मौका नहीं छोड़ते हैं चाहे उसकी शक्ल मीडिया की हो, राजनेताओं की हो, व्यापारियों की हो या दलालों की. इन दिनों भारत में आम राय जिसे हम सामान्य राय कहें तो ज्यादा बेहतर होगा. बनाने या बिगाडऩे का काम मीडिया करता है. हमारे निर्णय मीडिया से बुरीतरह प्रभावित होते हैं. मीडिया अगर राई को पहाड़ बनाने पर उतर आये तो बनाकर ही छोड़ता हे. सामूहिक तौर पर जब एक स्वर में मीडिया बोलता नजर आता है तो उसमें और शेयर दलालों के सक्रिय गिरोहों में कोई फर्क नहीं रह जाता. दो कौड़ी की राखी को ये मीडिया दो करोड़ का ब्राण्ड बना देता है. पूरे देश की मिठाई को ऐन दिवाली पर जहर बताकर घर-घर चॉकलेट और कुरकेरे बिकवा देता है. यह किशन लाल का जो जिक्र किया गया है वह यूं ही नहीं है. ओबामा ने भले ही गांधी के सामने मत्था टेका हो लेकिन हम गांधी के देशवासी तो किसी बुश या ओबामा को ही मत्था टेकना पसंद सकते हैं. हमें भी हमारा गांधी तब गांधी नजर आता है जब कोई अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष उसे महान कह देता है. और भला किशनलाल को क्यों दोष दें? पूरा देश ही क्या ओबामा को मत्था नहीं टेक रहा है? मुंबई उतरते ही पहले प्रशासन ने मत्था टेका, इस बात को जानते हुए भी ओबामा के प्रशासन ने भारत में आकर उनका अपमान कर दिया है. फिर भी प्रोटोकाल के नाम पर महाराष्ट्र ने मत्था टेका. उसके बाद मुंबई के व्यापारियों ने मत्था टेका. छोटे भैया अनिल अंबानी ने सगर्व घोषणा की कि वे अमेरिका की जीई कंपनी से 700 मिलियन डॉलर का समझौता करके ओबामा को भरोसा दिलाया कि वे अमेरिका को आर्थिक मंदी से डूबने नहीं देंगे और दिल्ली मुंबई के मीटरों में गड़बड़ करके आम आदमी से जो वसूली की जाती है उसका बड़ा हिस्सा वे अमेरिका की आर्थिक समृद्धि को बनाये रखने के लिए खर्च करेंगे. बदले में अनिल अंबानी को प्रसाद रूप में ओबामा से बात करने और बगल में बैठने का मौका मिल गया. फिर रतन टाटा ने मत्था टेका. मुकेश अंबानी ने मत्था टेका. मुंबई की पूरी व्यावसायिक बिरादरी ओबामा के आगे बिछ गयी. लेट गयी. पसर गयी. अभी तक अमेरिका प्रशासन निवेश करके मत्था टेकने के लिए भारतीय प्रशासन को मजबूर करता था अब उन उद्योगपतियों को अपने यहां पैसा लगाने के लिए बुलाकर मत्था टेकने को मजबूर करता है जो भारत के आम आदमी का खून पीकर लाल होने का दावा करते हैं.वहां से ओबामा दिल्ली आये तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एयरपोर्ट जाकर मत्था टेका. ऐसा करना मनमोहन सिंह की कोई प्रोटोकाल वाली मजबूरी नहीं थी लेकिन प्रशासनिक सेवाओं में रहते हुए मनमोहन सिंह ने न जाने कितने लोगों को एयरपोर्ट पर रिसीव किया होगा इसलिए उन्हें इस बात का अहसास रखने की जरूरत महसूस नहीं हुई कि अब वे प्रधानमंत्री हैं. बुश की तर्ज पर ओबामा ने भी बाएं हाथ से मनमोहन सिंह के कंधे को वैसे ही दबाया और उनका हाल चाल लिया. फर्क सिर्फ इतना था कि बुश ने मनमोहन का कंधा अमेरिका में दबाया था और ओबामा ने भारत में आकर वह कर्म कर दिया. मुंबई में अगर व्यावसायिक तौर पर ओबामा ने जीत हासिल की और देकर नहीं बल्कि हमसे लेकर हमारे ऊपर अहसान लाद दिया तो दिल्ली में दस्तक देते ही कूटनीतिक तौर पर उन्होंने संदेश दे दिया कि भारत अमेरिका के लिए कितना महत्वपूर्ण है.फिर भी हमारे मत्था टेकने की मानसिकता हमें यह सोचने का वक्त ही नहीं देती कि बतौर एक देश हमें किसी दूसरे देश के सामने कैसा व्यवहार करना चाहिए?1

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