शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

खरीबात

यह तो अपनी खाज खुजलाने जैसी बात

प्रमोद तिवारी

अब किसी को भी किसी तरह के मुगालते में नहीं रहना चाहिए क्योंकि व्यवस्था और उसके पालनहार बेशर्मी का लाबादा ओढ़ चुके हैं. ऊपर से कमाल यह है कि हम इस बेशर्मी में भी अपनी आस्थाएं, हित और विश्वास को बनाये रखने की अफलातूनी कोशिश करके सिद्घ-प्रसिद्घ बने रहते हैं. प्रेम प्रकाश का तबादला यहां अखबारों में ऐसे प्रस्तुत किया गया मानो उन्हें कानपुर की सुरक्षा व्यवस्था के प्रति घोर लापरवाही, बेईमानी और हिटलरी बरतने के बदले दण्डस्वरूप हटा दिया गया है. खबर की यह प्रस्तुति खुद में मियां मि_ू बनने या अपनी खाज खुजलाने जैसी हरकत है. जिस दिन कानपुर में नये डीआईजी अशोक मुथ जैन प्रेस को संबोधित कर रहे थे, उसी दिन प्रेम प्रकाश बनारस सरकिट हाऊस में वहां के प्रेस को बता रहे थे कि अब कानपुर के बाद बनारस की बारी है. प्रेम प्रकाश कानपुर से इसी पद और मान के साथ बनारस भेजे गये और बनारस के अशोक मुथ जैन को कानपुर बुलाया गया. यह सरकार की नितांत रुटीन तबादला कार्यवाई हुई न कि कानपुर में प्रेस से पंगा लेने पर किसी 'आईपीएसÓ के खिलाफ दण्डात्मक कार्रवाई. प्रेम प्रकाश कानपुर के कोई पहले हेकड़ कप्तान नहीं थे. अभी मुलायम सिंह यादव की रिजीम में यहां लगभग इसीतरह के एक किरदार रामेन्द्र विक्रम सिंह को भी शहर ने झेला था. रामेन्द्र विक्रम सिंह ने शहर में पत्रकारों के एक गुट विशेष को पूरी छूट दे रखी थी और बाकी को तकरीबन जूतियों की नोंक पर टेक रखा था. उस दौर में प्रेम प्रकाश से पीडि़त कई पत्रकार रामेन्द्र विक्रम सिंह के एजेंट के रूप में दलाली किया करते थे. रामेन्द्र विक्रम सिंह से भी पहले... कई वर्ष पहले यहां डीएन सांवल नाम के बड़े कप्तान (एसएसपी) आये थे. कोई भ्रष्ट वजह से तो नहीं लेकिन कुछ हेकड़ी में और कुछ खुद को मुख्यमंत्री का खासमखास समझने की गलत फहमी में वह भी अखबार वालों से टकराये और पूरे शहर ने एक अप्रतिम आंदोलन को देखा. अभी तक प्रशासन और पत्रकारों के बीच टकराव का वैसा तीखा अनुभव कानपुर शहर के पास नहीं है. इन तीनों महा कप्तानों में एक समानता रही और यह समानता रही मुख्यमंत्री के अति निकट व पि_ू होने की, डीएन सांवल तत्कालन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के बड़े चहेते थे. रामेन्द्र विक्रम सिंह मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के अनुज शिशुपाल सिंह के बहुत विश्वासी थे. और प्रेम प्रकाश के बारे में कहा जाता है कि उन्हें बहन जी के भाई और परिवारियों का पूरा न सिर्फ समर्थन है बल्कि वह एक तरह से उनके गांव-घर के ही हैं. इसतरह कहा जा सकता है कि कानपुर में जो भी मुख्यमंत्री का करीबी पुलिस वाला कप्तानी करने आता है वह प्रेस से जरूर टकराता है. जहां तक मुलायम सिंह यादव और मायावती की बात है तो ये दोनों हस्तियां कानपुर शहर से बहुत खार खाती हैं. कारण कि यहां भीड़ और जाम के शहर में न तो साइकिल चल पाती है और न ही हाथी दौड़ पाता है. तो क्या यह समझा जाये कि शहर की राजनीतिक नाराजगी को यहां का पत्रकार भुगतता है? बिल्कुल... यहां का पत्रकार अब राजनीतिक खुन्नस का शिकार होता है. वैसे भी जबसे पेड न्यूज को सार्वजनिक रूप से पत्रकारिता व्यवसाय की ताजा आवश्यकता माना जाने लगा है, समूची पत्रकारिता ने निष्पक्षता और ईमानदारी का अपना मूल आधार खो दिया है. ऊपर से कानपुर में पत्रकारिता का कुल मतलब होता है दैनिक जागरण. क्योंकि कानपुर जागरण की नाभि है और उसके पास पाठकों में अकेले दम इतना असर है जितना बाकी के अखबार मिलकर भी पैदा नहीं कर पाते. फलस्वरूप कानपुर में पत्रकारिता और पत्रकारों की दशा-दिशा इसी अखबार की रीति-नीति, उन्नति-अवनति, विचार-व्यवहार से बरबस ही संचालित होती है. प्रेम प्रकाश का जागरण से उलझना और उलझ कर भी पूरी ठसक के साथ कुर्सी पर जमे रहना हर क्षण कानपुर के पत्रकारों की जड़ों में रिसता तेजाब सरीखा ही रहा. शहर की पूरी पुलिस पत्रकारों को सबक सिखाने के मूड में रही. जहां तक अखबारों से राजनीतिक खुन्नस की बात है तो जागरण पिछले दो दशकों से राजनीतिक रूप से एक पक्ष विशेष का अखबार माना जाने लगा है. पहले स्व. नरेन्द्र मोहन जी के भाजपा सांसद होने के कारण और फिर श्री महेन्द्र मोहन जी के सपा सांसद बनने के कारण. यही मुलायम सिंह एक समय जागरण के खिलाफ हल्ला भी बोल चुके हैं. और मायावती तो खैर मीडिया से ही खार खाये रहती हैं. ऐसे ही अन्य अखबारों के भी मालिकान भी अपनी-अपनी राजनीतिक निष्ठाएं रखते हैं. और जब विपरीत निष्ठा की सत्ता होती है तो उसके कोप भाजक बनते हैं. राष्ट्रीय सहारा को समय-समय पर मुलायम सिंह की करीबी का खामियाजा भुगतान करना पड़ता है. अभी तक का तो अनुभव यही है कि राजनीतिक सांठ-गांठ से अखबार के मालिकानों को भले ही करोड़ों-अरबों का वारा-न्यारा होता हो, लेकिन उसके इस बाजारू रुख से सड़क पर घूमने वाला पत्रकार सड़क छाप आवारा सरीखा हो गया है. वरना किसकी मजाल थी कि सुबह से शाम तक २० रुपये से लेकर २० लाख रुपये तक की खुली रिश्वतखोरी में लिप्त रहने वाली पुलिस अखबार के दफ्तर में घुसकर पत्रकारों के सामने डंडा लहराये. यह सब कानपुर में हुआ जिसे प्रदेश के अखबारों की सबसे बड़ी मंडी माना जाता है. जिसे गणेश शंकर विद्यार्थी का भी नगर होने का गौरव प्राप्त है. 1

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