शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

यह लड़ाई केवल दिव्या की ही नहीं...

अरविन्द त्रिपाठी

विशेश्वर कुमार, संपादक- हिन्दुस्तान- डी.आई.जी. वर्दी की आड़ में दोषिओं को बचाने और छिपाने में संलिप्त हैं. दूसरे अखबारों और पत्रकारों को पुलिस की दमनकारी नीति के विरूद्ध लड़ाई में हमारा साथ देना चाहिए था. दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो रहा हैअनूप बाजपेई, अध्यक्ष- प्रेस क्लब-आज का युग खोजी पत्रकारिता का है. इसी प्रकार से लेखन से जनता की लड़ाई लड़ी जाएगी और पुलिस को अपने तौर. तरीकों में बदलाव लाना ही पड़ेगा. यदि समाचार पत्रों में इस आन्दोलन को नहीं लिखा भी जाएगा तो भी हम अपना काम करते रहेंगे.दिनेश जुयाल, संपादक- अमर उजाला-पुलिस से हिन्दुस्तान का व्यक्तिगत बैर है. वे अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं. 2 अक्टूबर को पुलिस द्वारा पत्रकारों के साथ यतीमखाना चौराहे पर बदसलूकी की गई थी और इसमें हिन्दुस्तान के लोग भी थे. हिन्दुस्तान वही लड़ाई लड़ रहा है.कानपुर के रावतपुर गांव में स्कूल गई नौ वर्षीय की गंभीर हालत में वापसी और बाद में मौत के बाद पुलिस के द्वारा की गई लीपापोती ने मामले की गंभीरता को बढ़ा दिया. स्वयंसेवी संगठनो और रंगकर्मियों को विरोध करने से रोका गया. धारा.144 के बहाने दो पत्रकारों पर मुक़दमे भी किये गए. हद तो तब हो गई जब हिन्दुस्तान अखबार के आफिस का घेराव किया गया और आफिस में घुस कर दबाव बनाने के लिए चोरी की गाडिय़ों को चलाने का आरोप लगाया गया. इसके पहले दिव्या केस में सक्रियता दिखाने वाले पत्रकारों में से 21 को धारा 160 के तहत नोटिस जारी की जा चुकी थी. पुलिस के प्रेस के खिलाफ इन तीनों कार्यों से प्रेस बनाम पुलिस का विवाद तूल पकड़ गया. इसमें तेजी तब आई जब कानपुर प्रेस क्लब भी इसमें कूद पड़ा. प्रशासनिक अधिकारिओं ने भी पुलिस की इस गतिविधि को गलत माना पर डीआईजी प्रेमप्रकाश के कानों पर अभी तक जून नहीं रेंगी है. शहर में हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान टाइम्स अब दिव्या की लड़ाई को अपनी व्यक्तिगत लड़ाई की हद तक मान बैठा है. हिन्दुस्तान के स्थानीय सम्पादक विश्वेश्वर कुमार कहते हैं प्रेस पर हुए हमले में सदैव प्रेस की ही जीत हुई है. प्रेस के खिलाफ न लड़ कर पुलिस को अपनी गल्तिओं पर ध्यान देना चाहिए था. वास्तविक दोषी को बचाने में पीडि़तों के हितों की अनदेखी की जा रही है. डीआईजी वर्दी की आड़ में दोषिओं को बचाने और छिपाने में संलिप्त हैं. दूसरे अखबारों और पत्रकारों को पुलिस की दमनकारी नीति के विरूद्ध की लड़ाई में हमारा साथ देना चाहिए था. दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो रहा है. उन्हें सोचना चाहिए था कि आज हमारी बारी है तो कल उनकी बारी हो सकती है. हम दिव्या को इन्साफ दिला कर दम लेंगे चाहे पुलिस कितने ही कड़े कदम क्यों न उठाये. प्रेस क्लब हमारी लड़ाई में साथ है पर वह उतना मजबूत नहीं रहा और पत्रकारों में एकता में कमी आई है. कठिन दौर है पर जीत इन्साफ की होगी. हम कोई गलत काम नहीं कर रहे हैं जो पुलिस से डर जाएं. प्रेस क्लब, कानपुर ने हिन्दुस्तान अखबार और पत्रकारों के विरुद्ध की गई पुलिसिया कार्यवाही के विरोध में 16 को तत्काल बैठक बुलाई और कानपुर के डीआईजी के तत्काल निलंबन एवं स्थानांतरण एवं पत्रकारों के मुक़दमे वापस लेने, नोटिस वापस लेने और हिन्दुस्तान अखबार पर की गई कार्यवाही की उच्च स्तरीय जांच करने संबंधी ज्ञापन कानपुर कमिश्नर के माध्यम से प्रदेश की मुख्यमंत्री को भेजा है. किसी भी घटना के बहाने पुलिस पर हिन्दुस्तान पर हमलावर होने के प्रश्न पर अनूप बाजपेई अध्यक्ष, प्रेस क्लब कानपुर कहते हैं की आज का युग खोजी पत्रकारिता का है. सभी मामले सीबीआई आदि जांच एजेंसिओं के सामने लाने के पहले इसी प्रकार से लिखने और सामने लाने पड़ते हैं. यह न्याय की लड़ाई है लड़ी जाएगी और पुलिस को अपने तौर-तरीकों में बदलाव लाना ही पड़ेगा. यदि समाचार.पत्रों में इस आन्दोलन को नहीं लिखा भी जाएगा तो भी हम अपना काम करते रहेंगे. कानपुर में अमर उजाला के स्थानीय सम्पादक दिनेश जुयाल का कहना है कि अमर उजाला ने दिव्या काण्ड की रिपोर्टिंग में कमी नहीं की परन्तु पुलिस से हिन्दुस्तान का व्यक्तिगत बैर है. वे अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं. वह 2 अक्टूबर की घटना का हवाला देते हैं, जिसमें कुछ पत्रकारों के साथ यतीमखाना चौराहे पर पुलिस द्वारा कुछ बदसलूकी की गई थी और इसमें हिन्दुस्तान के लोग भी थे. वे कहते हैं शहर में रोज सैकड़ों घटनाएँ होती है किसी एक घटना को इतना तूल देने के लिए समाचार पत्र को बहुत अधिक पन्नों का होना चाहिए. यह पूछे जाने पर कि 20 अक्टूबर को जब कानपुर कमिश्नर से ज्ञापन की प्रगति के लिए एक प्रेस क्लब का प्रतिनिधि मंडल गया तो उसमें अमरउजाला के वे पत्रकार भी नहीं गए जो प्रेस क्लब में पदाधिकारी हैं. पत्रकारों की एकता के लिए संघर्ष करने का दावा करने वाले श्री जुयाल इस प्रश्न पर अपनी अनभिज्ञता जताते हैं जिसके पत्रकार बिरादरी में गूढ़ अर्थ निकाले जा रहे हैं. पत्रकारों में यह चर्चा आम हो गई है कि जो लोग संघर्ष में साथ नहीं हैं ऐसे नकारे, निकम्मे पदाधिकारिओं को तत्काल त्यागपत्र दे देना चाहिए और नए चुनाव अति शीघ्र कराये जाने चाहिएण् श्री तिवारी कहते हैं सच चार लाइनें भी लिखा जाए तो लाख झूठो पर भारी होता हीण्सभी अखबारों को पे्रस क्लब से तत्काल निकाल देना चाहिए. लेकिन यहीं पर सवाल यह है कि प्रेस क्लब आज की तारीख में खुद एक असंवैधानिक मंच है. खुद भ्रष्टाचार और अनीति का पोषक है. हिन्दुस्तान समाचार पत्र इलाहाबाद में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार एवं रीजनल मीडिया सेंटर ब्रजेन्द्र प्रताप सिंह कहते हैं जब भी हम घटनाओं को व्यक्ति के रूप में देखते हैं तो इसी प्रकार का संकट आता है. यदि प्रेमप्रकाश ने एक आफिसर की तरह सोचा होता तो टकराव नहीं होता पर वे तो व्यक्तिगत हो गए जिसका परिणाम टकराव के रूप में आया. रही बात पत्रकारों की एकता की तो हम सभी के अपने मतभेद अपनी जगह हैं उनमे मनभेद नहीं होना चाहिए था. हम अपनी जमात में तो एक रहें. अन्यथा इसी तरह पुलिस जैसे तत्व हम पर हावी होने का प्रयास करते रहेंगे. इसी प्रकार हमें भी समय-समय पर आत्म-विश्लेषण और आत्म-मंथन करते रहना चाहिए जिससे टकराव जैसी स्थिति न आये. पद्मश्री पुरुष्कार प्राप्त व साहित्यकार गिरिराज किशोर पुलिस के प्रेस पर हमले को को नितांत दमनकारी मानते हुए कहते हैं. शहर में किसी की कोई सुरक्षा नहीं रह गई है. ऐसी स्थिति में प्रेस पर हमला अघोषित आपातकाल की याद दिलाता है. कानपुर की महिला वादी संगठनों और सुभाषिनी अली की निष्क्रियता को अत्यंत निंदनीय मानते हुए वे कहते हैं कि आम और ख़ास सभी को इस मामले में प्रेस का साथ देना चाहिए. उनका मानना है कि प्रदेश की सरकार का पुराना इतिहास रहा है की वो लोकतांत्रिक तरीकों और मूल्यों का सम्मान नहीं करती है. प्रेमप्रकाश पूरी तरह्ह पार्टी के कार्यकर्ता की तरह कार्य कर रहे हैं. वकीलों के दमन की कहानी अभी भी कानपुर के बाशिंदों के जेहन में है. कानपुर के मंडलायुक्त अमित घोष ने प्रेस के विरुद्ध पुलिस की कार्यवाही को गलत ठहराया है. मुक़दमे वापस लेने का आश्वासन भी दिया गया है. अख़बार के कार्यालय में पुलिस जाने की जांच के आदेश भी उन्होंने दिए हैं. आईजी ने प्रेस के समर्थन में वक्तव्य दिए हैं. सूत्र बताते हैं कि रात में जब पुलिस ने हिन्दुस्तान कार्यालय पर धावा दिया तब कानपुर के आला प्रशासनिक अधिकारिओं ने डीआईज से स्वयं मैनेज करने को कहा था जो उनकी मजबूर कार्यप्रणाली का परिचायक है. पत्रकारों में चर्चा है कि प्रेमप्रकाश का आदर्श चुलबुल पांडे है, वो उसी तरह दबंगई से काम करना चाहते हैं. इस सब से इतर आम पत्रकारों में रोष और भय व्याप्त है कि वे अपनी बात किससे और कहाँ कहें. जबकि प्रेस क्लब स्वयं में ही लोकतान्त्रिक और संवैधानिक मूल्यों का पालन नहीं कर रहा है. पिछले कई वर्षों से प्रेस क्लब का चुनाव नहीं हुआ है और प्रेस क्लब की सदस्यता का नवीनीकरण भी नहीं हो पा रहा है. प्रेस क्लब के जो पदाधिकारी लाखों रुपया डकार चुके हैं वो न्याय की ल$ड्ढाई क्या लड़ेंगे. सबसे खराब पहलू यह है की जागरण जैसा समूह इससे किनारा किये है. पत्रकार एवं कवि प्रमोद तिवारी कहते हैं प्रेस क्लब अपने अस्तित्व के सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है. ऐसे में पत्रकारों को अपनी रक्षा कैसे हो यह यह खुद स्वयं सोचना पड़ेगा. पत्रकारिता में सुचिता का संकट आया है. दागी पत्रकारों के कारण काले कारनामे करने वाले सरकारी अधिकारिओं और नेताओं में प्रेस और पत्रकारों का लिहाज व भय समाप्त हो गया है. अनूप बाजपाई भी मानते हैं कि पत्रकारिता अब मिशन तो रही नही. पत्रकार अपना और अपने परिवार का भरण-पोष²्रण करने के उद्देश्य से काम कर रहा है.1

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