शनिवार, 29 जनवरी 2011

नारद डॉट कॉम

सौ फीसदी नालायक

इस सरकार के विधायकों को क्या कहें? किसी काम के नहीं हैं. बस यूं समझिये कैटी पार्टी (बिल्ली का गू) न लीपने लायक और न ही पोतने लायक. अब तो इनकी औरतें बाकायदा प्रेस वार्ता कर के कह रही हैं कि ये तो दुष्कर्म के लायक भी नहीं हैं. प्रदेश के लिये इससे ज्यादा शर्मनाक बात और कुछ हो भी नहीं सकती है. पुराने जमाने की बात ही जुदा थी देखिये अपने तिवारी जी को, जवानी में जो कुछ बोया था आज तक डंके की चोट पर काट रहे हैं, एक झटके में लाटसाहबी को लात मार दी लेकिन मर्दानगी पर आंच नहीं आने दी. सब पुरानी खिलाई पिलाई का करिश्मा था. ये आज कल के विधायक खस्ता, पकौड़े और गुटका खा-खा के लपूसन्ना बन गये हैं इनसे दुष्कर्म तक नहीं होता है सुकर्म की तो बात  करना ही व्यर्थ है.
सुकर्म और दुष्कर्म का पूरा खेल सामाजिक और मानसिक दर्शन के महत्व का है इसके बीच एक महीन धागे का अन्तर है.
 पशु पक्षियों  का यहां से लफड़ा नहीं है वो केवल सुकर्म करते हैं दुष्कर्म तो केवल इन्सान करता है. कुदरत का भी क्या खेल है. मनुष्य को छोड़कर इस जहां का हर प्राणी इसे खुलेआम और ओपेन एयर में सम्पादित करता है. उसके बाद भी न को गम्टरी होती है और न ही कोर्ट कचहरी का लफड़ा. सब मौज में रहते हैं. मौज की ये धारा इन्सानों, खासकर नेताओं को ज्यादा आने लगी है अब ये सब परिन्दों और पशुओं की तरह रहल सीख गये हैं. इस परिवर्तन के चलते अनेक माननीय विधायकगण अन्दर की हवा घसीटने को मजबूर हैं इसके बाद भी अन्दर जाने वालों की कतार लगी है. बेचारी औरतें इनकी सफाई देती घूम रही है कि ये फलां के लायक हैं और फलां के नहीं. इधर डाक्टर लोग कुछ और बता रहे हैं कि ये एक गोली खाने के बाद शिलाजीत सिंह बन जाते हैं. अब ऐसे में प्रभु ही इनकी असलियत जान सकते हैं. मुझे दुष्कर्म/सुकर्म के मामले में एक बात पर एतराज है, हजारों साल पहले भी यही कानून था और आज भी वही है. अब हम २०वीं सदी के सभ्य जानवर हैं पुरानी सभ्यता को हम कब तक ढोते रहेंगे. अब तो लिव इन का भी धन्धा चल रहा है ऐसे में कोई बाद में मुकर जाये तो सुकर्म को दुष्कर्म में बदलने में निकतना वक्त लगता है.
कुल मिला के जमाना खराब है बांदा नरेश अन्दर हैं तो इटावा वाले भी उसी रास्ते पर चल रहे हैं अमरमणि जी सोच रहे होंगे कि एक और अन्दर आ जाये तो कोटपीस खेलने में आसानी रहेगी.
एक सीख
केवल तब बोलिये जब आपको ये लगे कि आपके शब्द मौन रहने से बेहतर हैं.1

प्रथम पुरुष

बाकी है मैला ढोने की प्रथा का अन्त
सिर पर मलवा ढोने की प्रथा. नवम्बर २०१० को पूर्णत: समाप्त हो गयी सरकार की योजना के अनुसार परन्तु यह अधूरा सत्य है. आज भी रेलवे प्रशासन एवं उत्तर प्रदेश सरकार ने स्वीकारा कि प्रथा पूर्णत: बन्द नहीं है. अन्य राज्य भी  झूठ बोल रहे हैं क्योंकि सफाई कर्मचारी आन्दोलन ने तमाम सबूत तस्वीरों सहित पेश किये हैं. उनके अनुसार आज भी देश में तीन लाख सफाई कर्मचारी यह काम कर रहे हैं. इसके लिये वह स्वयं एवं सरकार दोषी है.
अभी तक इस प्रथा को समाप्त करने को दो उपाय करे गये एक तो सूखे शौचालयों को फ्लश टाइप में बदलना और इस काम में लगे सफाई कर्मचारियों कि अन्य कार्य में लगाना. पहला उपाय  तो हो गया परन्तु उनको अन्य कार्य दिलाना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि सफाई कार्य (मैला ढोना) से जुड़े गन्दे काम का दाग मिटाना बहुत कठिन है. इसके लिये सफाई कर्मचारियों की नियुक्ति करने की प्रणाली और नीतियों को बदलना होगा. अन्यथा यह प्रथा पूर्णत: समाप्त नहीं होगी. यद्यपि सूखे शौचालयों की संख्या कम हो गयी है परन्तु अभी भी उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और बिहार में २.४ लाख सूखे शौचालय हैं अतएव आवश्यक है हाथ के द्वारा सफाई करने की परिभाषा में अन्य गन्दे तरीकों से शौचालय आदि को साफ करना भी जोड़ा जाये. शहरों, कस्बों एवं गरीबों के क्षेत्रों में मलमूत्र बहा देते हैं बहाया जा रहा है यह न तो सेप्टिक टैंक से जुड़े हैं और न ही  जमीन के अन्दर गहरे गड्ढों से खुले नाले में बहाने से स्लेज और मलमूत्र नालों में ठहर जाता है जिसे सफाई कर्मचारी द्वारा हटाना पड़ता है फावड़े या हाथों से. एक ही जाति या सम्प्रदाय द्वारा यह काम करा जायेगा. इसके लिये इस कार्य को गन्दा और निम्नतम कार्य समझना भी छोडऩा होगा सभी जाति के व्यक्तियों को इस कार्य को करने के लिये आगे आना होगा. कुछ लोग अपने शौचालय साफ करने लगे हैं. किसी भी व्यक्ति से अन्य व्यक्तियों के मलमूत्र को अपने सर पर ढुलवाना सबसे बड़ा अपराध है उस व्यक्ति के मानवीय अधिकार छीनने का. वह जीवन भर बीमारियां झेलता है और महसूस करता है इन्सान नहीं है जानवर से भी गया बीता है. सफाई कर्मचारियों को भी अपनी सोच बदलना होगा. वह इसे अपना काम न समझे इस पर अपना हक न जतायें. वे पढ़े-लिखे और अन्य कार्यों में आयें. हम भी उनसे कोई कार्य कराने में न हिचके.
बाल्मीकि दलित नाम की जाति इसमें डोम, हेला, आदी अरुण दतिमार, माडिगा, रेली, पाखीज, चेकीलियार इत्यादि आते हैं का अस्तित्व समाप्त हो जाना चाहिये. वर्ण व्यवस्था की अब कोई जरूरत नहीं. अवसर सभी को कार्य क्षमता के अनुसार परन्तु सभी व्यक्ति बराबरी के माने.1

खरीबात

विस्फोटक नारी देह की  खुशबू
प्रमोद तिवारी
यह बात तमाम अधिकारों और कानूनों से लैस जागी हुयी किसी भी स्त्री को समझनी होगी. किसी भी कानून में नहीं लिखा है कि शेर मानव को खाने का अधिकार रखता है. फिर भी मौका लगते शेर मानव भक्षण करता है. शेर को पालतू कैसे बनाया जाये हमने जब यह जान लिया तो उसे चिडिय़ाघर में टिकट लगाकर नुमाइश की चीज बना दी. चाहे स्त्री हो या पुरुष. नये सामाजिक अर्थों में उन्हें अब अपने देह रिश्तों को भी नये ढंग से परिभाषित करना होगा.
हाल के दिनों के अखबारों को पढऩे के बाद आप भी सोच रहे होंगे कि 'यौनाचार ने तो सारी हदें पार कर दी हैं. विशेष रूप से नेताओं ने तो गजब ही ढा रखा है बसपा के विधायकों, मंत्रियों की तो एक के बाद एक यौन अपराधों की कड़ी बनती जा रही है. बांदा का शीलू कांड  क्या खुला इटावा के विधायक शिव प्रसाद यादव भी एक बलात्कार के मुकदमें में अरोपी बनाये गये. सोनम  उर्फ प्रीति बलात्कार से चर्चित हो रहे इस यौन अपराध की कहानी अभी ढंग से सामने आ भी नहीं पाई कि एक और गैंग रेप के मामले में बसपा सरकार के एक कबीना मंत्री का नाम उछलकर सामने आ गया. यहां भी शीलू कांड की तरह ही बलात्कार की शिकार अगवा छात्रा मंत्री जी के घर से बरामद हुई. रोज ही तरह-तरह के यौना अपराध  सामने आ रहे हैं शाहगंज जौनपुर में एक प्रधानाचार्य ने आत्मदाह कर लिया कारण की स्कूल के मालिक महोदय वर्षों से प्रधानाचार्य के भोग रहे थे और जब  जी भर गया तो उसे निकाल बाहर किया. प्रधानाचार्य को  लग रहा  था कि वह 'अय्याश उससे शादी कर लेगा. इसी जनपद जौनपुर में एक छात्रा ने इसलिए जान देने की कोशिश की  कि उसके चचेरे भाई ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर उसके साथ बलात्कार किया. कुछ ऐसे मामले भी सामने आये है जिसमें यौनारोधी चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा है कि उसका 'डी एन ए कराओ उसकी  मेडिकल जांच कराओ वह 'यौनाचार की बात तो  छोडि़ए यौन व्यवहार के भी  काबिल नहीं बचा है. कानपुर में  एक शिक्षक को बलात्कारी बता कर भी पहले जेल में डाल दिया गया बाद में उसकी धाराएं बदल दी  गई. किस्सा बलात्कार के बजाय निकला फीस वसूली का. एक चोरी के मामले में फंसी लड़की ने आरोप लगाया कि उनकी  महिला मालिक  उससे देह व्यापार कराना चाह रही थी. उसके इंकार के कारण चोरी में फंसा दिया जबकि चोरी में फंसी लड़की पहले से ही अपने खुले व्यवहार के कारण इलाके में मशहूर है.  महिला मालिक अब खुद जान देने की धमकी दे रही है और भी तमाम घटनाएं हैं जिन्हें लिखने बैठें तो कागज कम पड़ जाये... आज की लिखूं, कल की लिखूं, कहो तो महाभारत काल की लिखूं या त्रेतायुग की लिखूं... हर तरह का यौन अत्याचार हर युग में रहा है. कुछ भी नया नहीं है....हां, नया है तो अब उसका उदघाटित होना नया है. 'सूर्पणखा को आप उस 'आवारा कामातुर की तरह ही मानें जो इच्छापूर्ति न होने पर ऐसा नाटक रचती है कि 'रावण जैसा पंडित सीता का अपहरण करता है... बालि सुग्रीव की पत्नी को जबरिया अपनी 'रानी बनाये था. इन्द्र ने गौतम श्रृषि की पत्नी अहिल्या के साथ छल किया... यह छल बलात्कार ही तो था... द्वापर में क्या कुछ नहीं हुआ... बूढ़ा राजा शान्तनु 'सरस्वती को अपनी 'भामाग्नि का शिकार बनाता है.... कुंती के साथ 'सूरज का रमण क्या है... यह भी 'यौनाचार की प्रतीक कथा है... कहने का आशय यह है कि स्त्री हर काल में सहमति, असहमति, बल, छल, धन और प्रभाव से पुरुष के रमण का साधन रहा है. आज भी वही स्थिति है... लेकिन बदलाव के स्तर पर पहले 'समरथ को नहि दोष गोसाईं जैसा फार्मूला स्थापित कर आज इस स्थापित फार्मूले पर भारत का लोकतंत्र और गुणतंत्र जब-कब अपने पंजे गड़ा देता है. तमाम विधायकों, प्रभावशाली लोगों और अपराधियों का 'सेक्स स्केंडल में फंसना आखिर यही तो दर्शाता है कि राजा-रजवाड़ों, नवाबों-रियासतों के जमाने गये. आज का भारत औरत को केवल 'भोग्या का दर्जा नहीं देता यौन व्यवहार में उसकी सहमति परम आवश्यक है. आज तो पति-पत्नी के बीच शारीरिक सम्बन्धों में 'रजामंदी का दर्जा इस  कदर ऊंचा है कि बेमन से पति के साथ लेटी स्त्री चाहे तो अपने पति परमेश्वर को 'बलात्कारी बना सकती है. चाहे तो भारतीय दण्ड संहिता की धारा ३७७ के तहत सजा भी दिला सकती है. सामाजिक और न्यायिक  दृष्टि से स्त्री आज की तारीफ में जितनी सबला है उतनी कभी नहीं रही. रोज-रोज यौन उत्पीडऩ के मामलों का सामने आना, मीडिया सत्ता और पुलिस का चाहकर भी उन्हें न दबा पाना एक बड़ा सामाजिक करतब है. आज 'सीता को 'अग्निपरीक्षा देने की जरूरत नहीं. वह राम से पूछ सकती है कि केवल मैं ही अपनी 'पवित्रता का प्रमाण क्यों दूं... तुम पर भी कोई पर स्त्रीगमन का आरोप लगा सकता है. तुम्हें भी गुजरना होगा आग की लपटों से...? पहले केवल कहने की बात थी कि स्त्री और पुरुष का दर्जा समान है. आज स्त्री बराबरी के दर्जे पर आ रही है. वह अपने ऊपर हुये बलात यौन व्यवहार का प्रतिकार कर रही है. प्रतिकार में उसे अपनी तौहीन नहीं बल्कि अधिकारों के प्रति जागरूकता दिखायी दे रही है. इसलिये  वह चुप नहीं बैठती है. अगर कई  यह सोच रहा है कि यौनाचार बढ़ा है तो शायद यह आंकलन उचित नहीं है... हां, यह जरूर है कि स्त्री देह पहले की तुलना में आज ज्यादा 'विस्फोटक है. उसके धमाके समाज के कानों के परदे हिलाकर रख रहे हैं. वह आज घर की दीवारों में कैद नहीं है. वह निकली है देहरी के बाहर. उसके हाथ में मोबाइल है. वह दुनिया से हर 'व्यक्ति से सीधे  बात की हिम्मत रखती है. उसका मोबाइल नम्बर हवा में है. स्त्री और पुरुष का जितना आसान और साधारण मिलना और सम्पर्क आज सम्भव है किसी काल में नहीं रहा. यहां तक कि आदिम काल में भी नहीं. प्राकृतिक रूप से कोमल देह दृष्टि और अप्रतिम सृष्टिजन्मा चर्मोत्कर्षी आनन्द की दायिनी स्त्री जब सघनतम पुरुष सम्पर्कमेंरहेगी तो पुरुष की ओर से स्त्री देह पर अतिक्रमण की सम्भावना ज्यादा होगी ही. यह बात तमाम अधिकारों और कानूनों से लैस जागी हुयी किसी भी स्त्री को समझनी होगी. किसी भी कानून में नहीं लिखा है कि शेर मानव को खाने का अधिकार रखता है. फिर भी मौका लगते शेर मानव भक्षण करता है. शेर को पालतू कैसे बनाया जाये हमने जब यह जान लिया तो उसे चिडिय़ाघर में टिकट लगाकर नुमाइश की चीज बना दी. चाहे स्त्री हो या पुरुष. नये सामाजिक अर्थों में उन्हें अब अपने देह रिश्तों को भी नये ढंग से परिभाषित करना होगा. स्त्री की देह कोई बम नहीं है जो पुरुषों के चीथड़े उड़ा दे और  कोई महज  खुशबू देने वाला फूल है कि उसे जो चाहे जैसे मसल दे. रही बात यौन सम्बन्धों की तो जहां स्त्री और पुरुष की सहज उपस्थिति रहेगी... इस तरह के सम्बन्ध बनते-बिगड़ते रहेंगे. पुरुष अगर बल-छल और धन से स्त्री को भोगेगा तो स्त्री भी अपने 'त्रियाचरित्र से इसी देह से उसे ठगेगी... जैसा कि आज हो रहा है.1

सफर गणतंत्र का

सफर गणतंत्र का
विशेष संवाददाता

 इतिहास के नजरिये से देखें तो गणतन्त्र का इतिहास करीब अस्सी वर्ष पुराना है. गणतन्त्र के बीज तो ३१ दिसम्बर सन १९२९की मध्यरात्रिमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन सत्र जिसकी अध्यक्षता पं.जवाहर लाल नेहरू ने की थी,में ही पड़ गये थे. इस अधिवेशन सत्र में ही सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि २६ जनवरी १९३० को पूर्ण स्वराज और स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जायगा.

संवैधानिक तरीके से गणतंत्र दिवस का सफर देश में सबसे पहले आज से बांसठ वर्ष पहले बहुत धूम-धाम से शुरू हुआ था.  जब महमहिम डॉ.राजेन्द्र प्रसाद ने २६ जनवरी को देश का संविधान बनने के बाद देश की राजधानी दिल्ली के गवर्नमेन्ट हाउस में भारत के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली और यहां से पांच मील दूर इर्विन स्टेडियम में अपने काफिले के साथ जा कर २१ तोपों की सलामी के साथ राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर देश के गणतन्त्र होने की घोषणा की.इसी दिन से हम २६ जनवरी को देश के गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाते हैं.
इतिहास के नजरिये से देखें तो गणतन्त्र का इतिहास करीब अस्सी वर्ष पुराना है. गणतन्त्र के बीज तो ३१ दिसम्बर सन १९२९की मध्यरात्रिमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन सत्र जिसकी अध्यक्षता पं.जवाहर लाल नेहरू ने की थी,में ही पड़ गये थे. इस अधिवेशन सत्र में ही सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि २६ जनवरी १९३० को पूर्ण स्वराज और स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जायगा. लेकिन उन दिनों देश के भीतर चल रहे हालात की वजह से ऐसा नहीं हो पाया. इसके बाद अंग्रेजों के भारत छोडऩे के पहले अंग्रजों ने भारतीय नेतृत्व से अपना खुद का संविधान बनाने की पेशकश रखी और और भारतीय नेतृत्व और अंग्रेजों की संयुक्त कमेटी के बीच हुए आपसी विचार विमर्श के बाद ९ दिसम्बर १९४६ को भारतीय संविधान की पहली बैठक की गयी. इस बैठक का मकसद भारत को एक संविधान प्रदान करना था जो लम्बी अवधि तक देश के सुसंचालन का प्रायोजन पूरा करेगा.इसके बाद संविधान निर्माण के लिये संविधान के विभिन्न पक्षों पर गहराई से अनुसंधान करने के लिये कई समितियों की नियुक्ति की गयी जिन्होंने संविधान से जुड़ी हर एक बात और एक-एक बारीकियों के बारे में अपनी-अपनी सिफारिशें दीं.
इन सिफारिशों पर चर्चा करने के बाद इन सिफारिशों और सुझावों को संविधान में शामिल किया गया और सन १९४६ में गठित हुई इस कमेटी के तीन वर्ष बाद २६ नवम्बर सन १९४९ को तैयार हुए इस नये भारत के संविधान को आधिकारिक रूप से अपनाने के बाद संविधान को पूरी तरह से २६ जनवरी १९५० को देश में पूरी तरह से लागू कर दिया गया.1

कवर स्टोरी

यही है गणतंत्र...?
मुख्य संवाददाता

किसी भी देश के लिए उसका  संविधान ही उसकी असली पहचान होता है और उस देश के लोगों के लिए उनका अपना संविधान ही असली राष्ट्रीय धर्म होता है जिसे हर देशवासी को धारण करना होता है अपने जीवन में उतारना होता है. सनातनी सूक्ति के अनुसार भी धर्म की यही मान्यता है.

इस बरस हम अपना ६२वां गणतन्त्र दिवस मना रहे हैं. ६२  वर्षों का सफर थोड़ा नहीं होता है इतने वर्षों के सफर में बच्चे जवान हो जाते हैं जवान बूढ़े और बूढ़े  जन्नतनसीं हो जाते है और इस बीच में नयी पीढ़ी  भी जन्म लेकर बूढ़ी होने को हो आती है. २६ जनवरी १९५० में  देश के गणतन्त्र घोषित होन के बाद से ले कर अब तक के इस  लम्बे सफर के बावजूद सही मायने में देश गणतन्त्र की असल परिभाषा से अभी भी दूर ही है.
दरअसल छोटी-छोटी रियासतों में बंटे हिदुस्तान को एक-एक कर व्यवस्थित राज्यवार सूत्र में पिरोने के महत्वाकांक्षी उद्देश्य की पूर्ति और देश में नव संविधान  की स्थापना की खुशी में हमने २६ जनवरी १९५० को पहला गणतन्त्र दिवस मनाया था. इसी दिन भारत के प्रथम राष्ट्रपति  राजेन्द्र प्रसाद ने राष्ट्रपति पद की  शपथ ली थी. इसी वर्ष  से २६ जनवरी को गणतन्त्र दिवस के रूप में  मनाने की घोषणा की थी. देश सेवा की शपथ इस दिन केवल प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने ही नहीं  ली थी बल्कि हिन्दुस्तान के समूचे आवाम ने ही ली थी. २६ जनवरी को गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाने की घोषणा भी अकेले राष्ट्रपति ने ही नहीं  की थी हिन्दुस्तान की समूची आवाम ने ही की थी. तब से लेकर आज हम गणतन्त्र दिवस मना रहे हैं. देश ने १९५०  या कहें आजादी वर्ष १९४७ से लेकर आज तक कई मंजर देखे हैं कई अच्छे बुरे दौरों से गुजर कर     आज अजीब से दो राहे पर खड़ा है आये  दिन होने वाली जनतन्त्र विरोधी घटनाओं को देख कर लगता है कि देश के भीतर ही संविधान का माहौल बनाया जा रहा है. वहीं  संविधान जिसे हासिल करने  की   खुशी में हमने गणतन्त दिवस को राष्ट्रीय त्यौहार की तरह मनाने के लिये एक स्वर  में स्वीकृति दी थी उसको माना था.राजनेताओं से लेकर अफसर शाही और हर ऊंची पहुंच वाला व्यक्ति संविधान निर्माण के बाद से लेकर अब तक संविधान को अपने अपने निजी स्वार्थी और लाभ की खातिर अपने तरीके से जोडऩे तोडऩे और बदलने में जुटा हुआ है.
दरअसल किसी भी देश के लिए उसका  संविधान ही उसकी असली पहचान होता है और उस देश के लोगों के लिए उनका अपना संविधान ही असली राष्ट्रीय धर्म होता है जिसे हर देशवासी को धारण करना होता है   अपने जीवन में उतारना होता है. सनातनी सूक्ति के अनुसार भी धर्म की यही मान्यता है.
'धार्यति इति धर्म: इसका मतलब ही यह है कि मजहब और सम्प्रदाय संविधान के बाद में कोई और लेकिन अफसोस इस बात का है कि मुल्क को आजाद होने के ६४ वर्षों बाद भी हम अपने बीच से क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद, भाष्यवाद, नक्सलवाद, और  न जाने कितनी ऐसी बुराइयां जो देश के लोगों को आपस में ही बांट कर देश की अस्मिता और अखण्डता के लिए खतरा पैदा कर रही है को अपने बीच से नहीं मिटा पा रहे हैं. अगर यह कहा जाय कि पिछले लम्बे अर्से से हम गणतन्त्र दिवस के दिन गणतन्त्र उत्सव मनाने की महज औपचारिकता ही पूरी कर रहे हैं या महज एक लकीर हो पीट रहे है तो गलत नहीं होगा. इतने दिन गुजर जाने के बाद भी आज भी राजनेता राज्यों की सीमाओं के झगड़े,नदी के पानी के झगड़ों से ले कर न जाने कितने छोटे-मोटे झगड़ों में देश की आवाम को उलझाये हुये हैं. वह भी नितान्त अपने-अपने राजनैतिक स्वार्थों  की वजह से अगर हमें वास्तव में गणतन्त्र मनाना है तो हमें एक बार फिर एक साथ खड़े हो कर ठीक २६ जनवरी १९५०  की तरह ही एक बार फिर अपने संविधान की इज्जत करने और उसका अक्षरश: अनुसरण करने की न केवल सौगन्ध खानी होगी बल्कि उसे निभाना होगा अपने जीवन में उतारना होगा. और यह सब अभी से करना होगा क्योंकि जागने के लिए कभी देर नहीं होती है जब जागो तभी सवेरा होता है और जब हम इस नये सवेरे को नई सुबह को अपने बीच में लायेंगे तभी असल मायनों में पूरे मन से सच्चा गणतन्त्र दिवस मना पायेंगे. आज हमारे लिये जो सबसे जरूरी सोच है वह है जय हिन्द की सोच.1


शनिवार, 22 जनवरी 2011

नारद डॉट कॉम

भोजन का दर्शन

यहां दर्शन से मेरा मतलब शुद्ध रूप से फिलास्फो से है. भगवान कृष्ण पहले से जानते थे कि आदमी की आने वाली पीढिय़ां खबोड़ किस्म की हो सकती हैं,  वो भी इतनी कि प्रधानमंत्री तक उसकी इस वाहियात हरकत से विचलित हो सकते हैं. इसलिये उन्होंने गीता में साफ-साफ गणेश जी से लिखवा दिया था कि मानव मात्र को भोजन बेहद सूक्ष्म मात्रा में करना चाहिये, जिससे उसके प्राणों की रक्षा को सके. गीता में बिहारी जी ने अमीर-गरीब का वर्णन कहीं नहीं किया है. लेकिन ये कलयुगी भगवान करने लगे हैं. दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री उर्फ प्राजी उर्फ प्राइम मिनिस्टर महोदय गरीबों के ज्यादा खाने से खासे दुखी हैं. उनका मानना है कि गरीब सारा खाना खाये जा रहे हैं यहां तक कई बार उन्हें भी भूखे पेट सोना पड़ता है. इसके चलते वो शारीरिक रूप से काफी शिथिल हो चुके हैं. ऐसे में मानसिक स्थिति क्या होगी आसानी से समझा जा सकता है?
मन्नू भाई जी (मनमोहन सिंह का निकनेम) आपसे ऐसा बोलने की उम्मीद नहीं थी. सड़ैला बोलने के लिये पवार साहब आलरेडी आपके पास हैं फिर आप ऐसा उवाच करने के लिये कष्ट क्यूं करते हैं? फिर आपके पास कलमाड़ी जैसे महाखबोड़, राजा जैसे महानोचू बैठे हैं तो आप गरीब जनता की ओर काहे को ताक रहे हैं? ताकना ही है तो अपनी ओर देखिये, फिर भी बात न बने तो दर्पण में निहारिये, सब पता चल जायेगा कि पेटू कौन है? गरीब आदमी या आपके ये कारिन्दे. ये तो बिना डकारे और बिना हवा सरकाये सब खाये जा रहे हैं. एक  अंग्रेजी की कहावत है कि ए ग्रुप आफ डंकीज लीड बाय ए लायन कैन डिफीट व ग्रुप आफ लायन्स लीड बाय ए डंकी. ये बड़ी बात मैं बना के नहीं कह रहा इसे सुकरात जैसे महान दार्शनिक ने कहा था. वैसे भी काम अच्छे न भी हों बाते तो कम से कम अच्छी की  ही जा सकती हैं. देश के लोग खासकर जिनकी बातें आप लोग तोते की तरह रटते रहते हैं वो आपकी बातों से मर्माहत हैं. उनका कहना है कि ये सच है कि हम गरीब कुछ ज्यादा खाते हैं चूंकि खेतों और कारखानों में पसीना हमारा बहता है मेहनत भी कुछ ज्यादा करते हैं, हो सकता है इसके चलते दो-एक रोटी ज्यादा पेट में चली जाती हो लेकिन आप भद्र लोग अपनी दावतों में जितना बर्बाद करते हैं उससे हम गरीब कम ही खाते हैं. अब लोगों को पता चला है कि दुनियां भर के हंसोड़ लोगों को गुदगुदाने के लिये आप लोगों का इस्तेमाल क्यूं करते हैं?
बैंकों में...
प्याज और लहसुन लोन लेने के लिये सिक्यूरिटी की तरह प्रयोग किये जा सकते हैं. इसको रखने के लिये लाकर की सुविधा है. यह सुविधा शरद पवार के कृषिमंत्री बने रहने तक ही उपलब्ध रहेगी.

प्रथम पुरुष

समाज में जरूरी है अच्छे व्यवहार का पैमाना 


आप किसी भी समाज में रहें आपको हमेशा यह ध्यान रखना होगा   कि समाज मेंं सभी का स्थान बदल सकता है आपका स्थान दूसरा ले सकता है. समाज में किसी की स्थिति को अधिक धन या कम धन से नहीं नापा जायेगा. पश्चिम के देश या यूरोप के देश इतने आगे इस लिए बढ़ गये क्योंकि उन्होंने अच्छे व्यवहार के पैमाने बनाये और उनका पालन किया.
 उन्होने सबको बराबर का समझा माना और उसी प्रकार का व्यवहार किया जो अपने साथ करवाना चाहेंगे. १८७३ में विक्टोरियान ऐसीकेट (आचरण)पर किताब लिखी गयी. उसका अपूर्व स्वागत हुआ सभी ने पढ़ा उसमें लिखे गये आचरण के तरीकों को अपनाया उसमे सबसे मुख्य बात थी कि आप उनसे कैसे व्यवहार करें जिनके पास आप से कम धन है या निर्धन है प्रो. हिल (लेखक) ने कहा बात करते वक्त कभी भी यह संकेत न  हो कि तुम्हारे पास धन है (पर्याप्त) कम धन वाले के पास साधारण कपड़े (महंगे नहीं) या ऐसा सामान लेकर न जाओ जिससे धनी होने का बोध हो यदि मंहगी कार से जाओ तो उसके घर से दूर खड़ी करो. बातें करते समय ध्यान रखो कि तुम अपना सम्बन्ध महत्वपूर्ण या अमीर व्यक्तियों से न जोड़ो तुम इसका भी विवरण न करो कि तुम विदेश गये हो या पूरा देश  घूम रखा है क्योंकि इससे तुम वास्तव में महत्वपूर्ण नहीं हो जाते. अपने देश या अपने देश की संस्कृति का बढ़ चढ़ कर बखान न करो. स्वयं की तारीफ करने को तो रवीन्द्र नाथ टैगोर ने भी बुरा कहा था इसीलिए वेे राष्ट्रीयता के विरूद्घ थे. अच्छा व्यवहार ही इन देशों में रहने वालों की प्रथम आदत बन गयी और वे आगे बढ़ते गये क्योंकि बराबरी की समझ हमें कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढऩे को प्रेरित करता है.अच्छे व्यवहार ने व्यक्ति को देश के केन्द्र मे रखा अतएव वे वास्तव में कल्याण कारी आधुनिक और समृद्घि  शाली बन गये उन्होने प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा और स्वास्थ्य को प्राथमिकता ही क्योंकि वह केन्द्र में था और अब भी है इन देशों में डींग हाकने वाले,अपने धन या दौलत या अपनी शक्ति का बखान करने वाले नहीं मिलेंगे. उनके यहां झिड़कना, डांटना बुरी आदत है. इन देशों में जितने भी महत्वपूर्ण व्यक्ति हुए उनका परिवार साधारण था परन्तु शिक्षा और स्वास्थ्य के कारण जो उन्हें देश की सरकार ने प्राप्त  कराया वे उन्हें शिखर पर पहुंचाया. इन देशों में भ्रष्टाचार नगण्य है शून्य है क्योंकि मध्य वर्ग जो बहुत बड़ा है अच्छा व्यवहार करता है उसकी आदत है. इन देशों के प्रत्येक राजनीतज्ञ मध्यम वर्ग के  पास पहुचते हैं पहुचना चाहते हैं (मजदूर और पूंजीपति के पास नहीं) क्योंकि अच्छा आचरण कल्याणकारी योजनाओं को शक्ति देता है और अन्तत: सभी को मध्यवर्ग ये लाता है जिनकी जीवन शैली लगभग एक सी होती है.
 अमरीका में ३०० मिलियन कारें  हैं  जिनमें ४.७ मि. गरीबी रेखा के नीचे है इनमें २,९००० ऐसे है जिनके पास तीन या अधिक भी है. अमरीका में गरीबी रेखा के मांप दंड के वल भोजन की कैलोरीज पर नहीं आधारित है उसमें घर मकान कपड़ा भी आता है.
सार्वजनिक शिक्षा एवं स्वास्थ्य मध्यम वर्ग के आच्छे आचरण की देन है और उसके फल स्वरूप देश कल्याणकारी योजनायें को प्राथमिकता देता है. हमारे देश में भौतिक बादता को बढ़ावा दिया जा रहा है अच्छा व्यवहार  पीछे ढकेला जा रहा है फल स्वरूप देश में कल्याणकारी योजनाओं नग्न है या असफल हैं भृष्टाचार चरम सीमा पर है जब तक सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा नहीं मिलेगी कुछ नहीं होगा इसके लिए व्यक्ति को केन्द्र में लाना होगा व्यक्ति को केन्द्र में लाने के लिए अच्छा व्यवहार परम आवश्यक है. कल्याणकारी देश बनना इस सत्य पर आधारित है. 1

खरीबात

या तो बलात्कार करो या करवाओ...

शीलू पर अत्याचार हुआ है. एक गरीब किशोरी बलात्कार का शिकार हुई है. शिकार भी किसी और की नहीं उसकी जिसने गरीब असहायों और आमजन की सेवा की कसमें ली थीं. इस सेवा भाव के बदले सरकार उसे वेतन देती है. इसतरह सत्ताधारी विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी वेतनभोगी 'बलात्कारीÓ हुए. आज कल बहन जी पुरुषोत्तम द्विवेदी पर तेजाब बरसा रही हैं. उसे अपराध की कठोर से कठोर सजा दिलाने का डंका बजा रही हैं लेकिन कोई इनसे पूछे कि इस पुरुषोत्तम द्विवेदी को विधायक बनाने से पहले उन्होंने इस व्यक्ति में क्या काबिलियत देखी थी. क्या यह 'बसपाÓ के लिए अपना जीवन लगा देने वाला कार्यकर्ता था. या फिर क्षेत्र का प्रतिष्ठित जुझारू समाजसेवी था या बांदा जिले में उसकी ईमानदारी या बौद्घिक क्षमताओं का बड़ा मान-सम्मान था. क्या सोचकर इसे टिकट दिया गया था. ऐसे ही सत्तापक्ष के और भी कई विधायक हत्या, बलात्कार और अन्य जघन्य अपराधों में जेल के पीछे हैं. इन सारे लोगों ने बसपा से 'टिकटÓ खरीदा था. ये दुस्परिणाम गैरराजनीतिक मन और मस्तिष्क के लोगों को विधायक व सांसद का पद बेचने के कारण है. अभी २ हजार १२ के लिए भी विभिन्न चुनाव क्षेत्रों से बसपा ने अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है. इसी घोषणा में एक नाम कानपुर सीसामऊ विधान सभा क्षेत्र से भी है. इस क्षेत्र से 'फहीम अहमदÓ को प्रत्याशी बनाया गया है. फहीम अहमद कतई राजनीतिक व्यक्ति नहीं है.  एक समय पूरे उत्तर भारत की सर्वाधिक खूनी रंजिश के कारण वह दहशत के पर्याय थे. फहीम के नाम से यह शहर एक अरसे तक थर्राया है. वक्त ने फहीम को बदला. आज वह शांत हैं. अपनी अपराधिक छवि से काफी हद तक बाहर भी आ गये हैं. लेकिन वह 'बसपाÓ की नीतियों-रीतियों वाले हैं. जबकि पहले वह सपा और कांग्रेस में भी शुमार किये जा चुके हैं.  उन्हें अपनी 'सेहतÓ के लिए 'सत्ताÓ चाहिए ही चाहिए. किसी भी ऐसे का ताकत में आना किसी दलित उद्घारक का ताकत में आना कतई नहीं है. फिर इसतरह के लोगों को टिकट देने के पीछे बसपा की क्या सोच है..? दरअसल मायावती नीत बसपा ने दलितों की आंखे खोलकर उन्हें खंदक की और दौड़ा दिया है. यही काम पिछड़ों को एक जुट करके मुलायम ने किया. नतीजा समाने है केवल यादव ही अब मुलायम को मानें तो मानें वरना जातीय व साम्प्रदायिक गणित के जोड़ा-घटाने का ही नाम रह गया है समाजवादी पार्टी. कांग्रेस और भाजपा तो प्रथम दोषी हैं ही. इनकी सामंती राजनीति के खिलाफ ही जन तिलमिलाहट ने मायावती और मुलायम सिंह को कुर्सी दी थी.  जनता के बीच से निकले इन गरीब और पीडि़त व्यक्तिओं को तो अपनों का दर्द समझना चाहिए. लेकिन इन दोनों ने अभी तक उसी तबके को आहत किया है जो इनके स्वागत में गांधी परिवार और संघ परिवार त्याग कर आया था. आज इन दोनों नेताओं की कार्यशैली पूर्व सामंतों से भी ज्यादा घातक और निष्ठुर है. एक तरह से बेहद निराशा जनक क्रांति रही यह.
बसपा का जन्म और सत्ता में आना क्रांति ही तो है. मुलायम का पार्टी बनाना और पावर में आना क्रांति ही तो है लेकिन जब नियत में खोट हो तो कोई भी क्रांति एक षडय़ंत्र साबित होती है.
जैसा कि आज उत्तर प्रदेश में हो रहा है.  कितनी गंदी बात है कि सीट निकालने के और  धन उगाहने के चक्कर में राजनीतिक दल छांट-छांट कर गुंडो, लम्पटों और भ्रष्टाचारियों को टिकट देते हैं. और जब ये लोग सर से पांव तक   'गूं ' से  सने मिलते हैं तो कहते हैं कानून 'सजा देगा. इनसे पार्टी का कोई लेना देना नहीं.1
 

गैस ऐजेन्सी और कम्पनी ...मौसेरे भाई

गैस ऐजेन्सी और कम्पनी ...मौसेरे भाई
                                                           विशेष संवाददाता

ये लाखों लाख उपभोक्ता वही हैं जिनकी वजह से इन भ्रष्ट एजेंसियों के मालिकानों और कर्मचारियों के घरों के चूल्हे जल रहे हैं और दो वक्त की रोटी नसीब  हो रही है. उपभोक्ता ही इन तेल कम्पनियों और गैस एजेंसियों को अन्नदाता हैं.
शहर में इंडियन आयल, भारत गैस और हिन्दुस्तान पेट्रोलियम की छियालिस गैस एजेंसियों की रहनुमाई करने वाली यूनियन एलपीजी गैस वितरक संघ लम्बे समय से गैस एजेंसियों के लिये तो संघर्ष कर रही है. लेकिन वितरक संघ के लिये इन छियालिस एजेंसियों का हर नैतिक अनैतिक लाभ के आगे शहर के लाखों उपभोक्ताओं की दुख तकलीफें कोई मायने नहीं रखती हैं. अपने घरों में चूल्हा जलाने के लिये तेल कम्पनी से लेकर गैस एजेंसियों के चक्कर लगा रहे हैं उनकी मनमानी सह रहे हैं. ये लाखों लाख उपभोक्ता वही हैं जिनकी वजह से इन भ्रष्ट एजेंसियों के मालिकानों और कर्मचारियों के घरों के चूल्हे जल रहे हैं और दो वक्त की रोटी नसीब है. बल्कि कहा जा सकता है कि उपभोक्ता ही इन तेल कम्पनियों और गैस एजेंसियों को अन्नदाता हैं और अन्नदाता का इस तरह अपमान न तो होना चाहिये और न ही बर्दाश्त करना चाहिये. बेहयाई की बात अलग है शहर में गैस का भीषण  संकट है. यह बात गैस वितरक संघ अव्वल तो मानता ही नहीं और अगर काफी नानुकुर के बाद मानता भी है तो बस इतना कि शहर में गैस की कोई किल्लत नहीं है जो थोड़ी सी दिक्कत थी भी तो वो तेल कम्पनियों से बातचीत करके पूरी तरह सुलझा ली गयी है. हर उपभोक्ता को आवश्यकता के हिसाब से गैस मिल रही है. वितरक संघ के पदाधिकारी चाहे वो संघ के अध्यक्ष अनिल मित्तल हों या महामंत्री भारतीश मिश्र या अन्य पदाधिकारी सब यही दावे कह रहे हैं
कि गैस की कोई किल्लत नहीं है और यदि किसी उपभोक्ता को ऐसी कोई दिक्कत है भी तो वो उनसे सम्पर्क कर सकता है. वितरक संघ के पदाधिकारी चाहे जो भी दावे करें लेकिन असलियत यह है कि ये तमाम दावे सिर्फ झूठ का पुलिन्दा मात्र हैं. और हों भी क्यों न सीधी सी बात है कि वितरक संघ जमात है गैस एजेंसियों के नुमाइन्दों की और उपभोक्ता को शिकायत भी गैस एजेन्सी से ही है. ऐसे में कोई अपने ही खिलाफ की गई शिकायत का समाधान कैसे कर सकता है.
तो फिर ऐसे में सबसे बढिय़ा तरीका है कि उपभोक्ता से दूर ही रहो तो अच्छा. संघ के पदाधिकारी करते भी यही है. एल.पी.जी. वितरक संघ बना है गैस एजेंसियों के हितों की रक्षा के लिये और वो इन हितों की रक्षा कर भी रहा है. गैस सिलेंडरों की काला बाजारी, कनेक्शन के नाम पर जबरन चूल्हा व अन्य उत्पाद बेचने और गैस की घटतौली जैसे ही तमाम अनैतिक काम शहर की हर गैस एजेंसी में हो रहे हैं. गैस आने के २० से २५ दिन बाद बुकिंग और बुकिंग के ७-१० दिन बाद गैस की डिलीवरी करने, गोदाम से सिलेंडर उठाने पर भी होम डिलीवरी के चार्ज लेने के मनमाने नियम इन सारी की सारी एजेंसियों में लागू हैं. जो कि तेल कम्पनियों के प्रावधानों के मुताबिक केवल दण्डनीय तो हैं ही ईमानदारी से जांच के बाद दोषी पाये जाने पर एजेंसियों को स्थायी तौर पर रद्द तक किया जा सकता है.
लेकिन गैस एजेंसियों के खिलाफ रद्दीकरण जैसी कोई कार्यवाही आज तक नहीं हुयी है वजह है इस तरह की कार्यवाही में वितरक संघ एक बहुत बड़ी आड़ है जिसकी ओट में यह सब काम हो रहा है. सिलेंडर लेना तो दूर फोन पर किसी एजेंसी में गैस बुक कराना भी एक बहुत बड़ा काम है. वजह है इन तमाम एजेंसियों के फोन ही अक्सर नहीं उठाये जाते हैं. और एजेंसियों की तो बात ही दूर है जब स्वयं गैस वितरक संघ के अध्यक्ष की एजेंसी का ही यह हाल है. इस पूरे मसले पर वितरक संघ के महामंत्री भारतीश मिश्रा का कहना है कि थोड़ा बहुत अनियमितताएं तो गैस एजेंसियों में है लेकिन फिर भी उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं का ख्याल रखा जाता है. महामंत्री कुछ भी कहें लेकिन उपभोक्ताओं की अम्बारी परेशानियों को देख कर तो ऐसा नहीं लगता कि वितरक संघ को उपभोक्ताओं की जरा भी फिक्र है. क्योंकि अभी भी पूरे शहर के उपभोक्ता एक-एक सिलेंडर के लिये परेशान ही है. 1
बोल मेरी जनता कितनी गैस
मुख्य संवाददाता

गैस कम्पनियों के गिनती के नुमाइन्दे कह रहे हैं कि गैस का किसी भी तरह का संकट नहीं है.एल पी जी वितरक संघ कर रहा है कि गैस की बहुत मामूली सी दिक्कत थी तो जरूर लेकिन अब गैस आराम से मिल रही है छ: लाख से ज्यादा गैस उपभोक्ताओं को गैस सूंघने तक को नहीं मिल रही है खाना पकाने के लिए मिलने की बात ही दूर की है. तो क्या शहर के सारे के सारे उपभोक्ता एक साथ मिलकर झूठ बोल रहे हैं वे भी एक सिलेण्डर के लिए जिसको पाना उसका संवैधानिक अधिकार है. नहीं ऐसा कतई नहीं है.

पूरा शहर चिल्ला रहा है कि गैस की बहुत किल्लत है, खाना पकाने के लिए गैस नहीं मिल रही है, एक-एक सिलेण्डर के लिए घण्टों और कभी-कभी तो कई दिन लाइन लगानी पड़ रही है लोगों में आक्रोश है. हर कोई किसी  भी तरह किसी भी कीमत पर गैस सिलेण्डर पाना चाहता है. पर गैस कम्पनियों के गिनती के नुमाइन्दे कह रहे हैं कि गैस का किसी भी तरह का संकट नहीं है. सप्लाई पहले से ज्यादा अच्छी है और डिमाण्ड पहले से कम. एल पी जी वितरक संघ कर रहा है कि गैस की बहुत मामूली सी दिक्कत थी तो जरूर लेकिन अब गैस आराम से मिल रही है बावजूद इसके ये शहर के लगभग सवा छ: लाख से ज्यादा गैस उपभोक्ताओं को गैस सूंघने तक को नहीं मिल रही है खाना पकाने के लिए मिलने की बात ही दूर की है. तो क्या शहर के सारे के सारे उपभोक्ता एक साथ मिलकर झूठ बोल रहे हैं वे भी एक सिलेण्डर के लिए जिसको पाना उसका संवैधानिक अधिकार है. नहीं ऐसा कतई नहीं है. न तो रसोई गैस की किल्लत कोई मनगढ़न्त कहानी है और न ही ये लाखों लाख, लोग झूठ बोल रहे हैं अगर कोई झूठा है तो वो हैं गैस कम्पनियां और उनके नुमाइंदे जो कि अपना सारा ध्यान और ऊर्जा गैस की समस्या को निपटाने की बजाय जनता से झूठ बोलने में लगा रहे हैं. शहर के करीब सवा छ: लाख से अधिक उपभोक्ताओं में से सबसे ज्यादा करीब चार लाख उपभोक्ता इंडियन आयल कम्पनी के ही हैं और बाकी के उपभोक्ता हिन्दुस्तान और भारत गैस के हैं. शहर में गैस की सबसे ज्यादा दिक्कत भी इंडियन आयल कम्पनी के उपभोक्ताओं को ही है. लेकिन ताज्जुब यह कि कम्पनी के आला अफसरान फील्ड आफीसर से लेकर एलपीजी उपमहाप्रबन्धक तक सब एक साथ यही बेसुरा राग अलाप रहे हैं कि शहर में गैस की कोई किल्लत ही नहीं है और अगर है भी तो उन्हें इस बात की कोई जानकारी या सूचना नहीं है. गैस एजेंसियां जितना कहती हैं उनको उतने सिलेंडर बगैर किसी रुकावट के दिये जा रहे हैं. ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि शहर के आम लोग झूठे हैं या फिर गैस किल्लत को लेकर उसकी चीख पुकार गैस कम्पनियों के ऊंचा सुनने वाले नुमाइन्दों तक नहीं पहुंच पा रही है. वैसे आम लोगों की इस परेशानी और तकलीफ को गैस कम्पनियों तक पहुंचाने की नैतिक जिम्मेदारी गैस एजेंसियों की भी है. तो क्या गैस एजेंसियों ने भी इस जनपीड़ा को गैस कम्पनियों तक नहीं पहुंचाया. ये वो सवाल हैं जिनका जवाब न तो गलत सही
शेष पेज- २ पर...


तरीकों से लाखों का मुनाफा कमा रही गैस एजेंसियों के पास है न ही तेल कम्पनियों के पास. क्योंकि दरअसल दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं. पेट्रोलियम मंत्रालय से लेकर गैस एजेंसियों तक किसी को भी गैस की किल्लत और इसकी वजह से जनता को होने वाली परेशानियों से कोई सरोकार नहीं है.
अगर मुद्दा अपने मुनाफे का या अपने वेतन और सुविधाओं की बढ़ोत्तरी का होता तो अब तक तेल कम्पनियों के कर्मचारियों से लेकर गैस एजेंसियों के मालिकान तक हड़ताल व विरोध से लेकर हर वो तरीका अख्तियार कर लेते जिनसे उनकी स्वार्थ सिद्धि हो सकती लेकिन यह मामला तो जनता का है बेचारी जनता का तो आखिर कोई बेवजह सिरदर्द क्यों ले.
इंडियन आयल के फील्ड आफीसर जयपाल सिंह नेगी और मानवेन्द्र भटनागर की जिम्मेदारी शहर के उपभोक्ताओं की समस्याओं के निराकरण करने की है. अब तक हजारों लोग उनको फोन करके इस समस्या से अवगत करा चुके हैं. समस्याओं को सुनने और उनको सुलझाने की बजाय इन अधिकारियों का कहना है कि उनकी जिम्मेदारी उपभोक्ताओं की गैस सम्बन्धी व्यक्तिगत समस्याओं के निराकरण की है न कि गैस की इस जनसमस्या को निपाटने की. ये अधिकारी शायद यह भूल गये कि बूंद-बूंद से सागर और व्यक्ति-व्यक्ति से जनता बनती है. ऐसे में जब कोई जनसमस्या है तो वो व्यक्तिगत तो वैसे भी हो गयी. इसके अलावा गैस किल्लत के इस दौर में तमाम गैस एजेन्सियों के उपभोक्ताओं की व्यक्तिगत समस्याओं में से कितनी समस्याओं का निराकरण में हो पाया और गैस एजेंसियों के खिलाफ क्या कार्यवाही हो पायी इसका जवाब इन दोनों फील्ड आफीसरों सहित ग्राहक सेवा सम्भागीय अधिकारी राकेश सरोज के पास भी नहीं है. जबकि वास्तविकता यह है कि उपभोक्ताओं की अब तक कराई गयी शिकायतों पर पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता से कार्यवाही हुई होती तो शहर की छियालिस की छियालिस गैस एजेंसियों में ही ताले लग गये होते. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं. गैस एजेंसियां सिलेंडर उपभोक्ताओं को देने की बजाय ब्लैक में बेच कर कमाई में जुटी हैं. और गैस कम्पनियों के अधिकारी कान में तेल डालकर सो रहे हैं. अब ऐसे में जनता अगर कुछ ज्यादा ही उग्र हो जाये तो उसकी खातिरदारी के लिये पुलिस का डण्डा तो तैयार है ही.1



इनसे करें शिकायत
इंडियन आयल

फील्ड आफीसर, कानपुर
१. जयपाल सिंह नेगी- ९४१५०१९१३७
२. मानवेन्द्र भटनागर- ९४१५०१९१५८
ग्राहक सेवा कक्ष सम्भागीय कार्यालय
०५२२-२३२३०६५

राकेश सरोज- ९४१५०१९१८०
इंडियन आयल भवन, कपूरथला काम्पलेक्स अलीगंज लखनऊ- २२६०२४

सम्भागीय कार्यालय- एन.के. श्रीवास्तव (प्रबन्धक एल.पी.जी. सेल्स.)फोन ०५२२-२३३४०९४, २३७७४९६
पता उपरोक्त

नरेश गेरा (वरिष्ठ सम्भागीय प्रबन्धक)
फोन- ०५२२-२३३४०९४, २३७७४९६,
पता उपरोक्त

मुख्य प्रबन्धक (एलपीजी सेल्स)
यादवेन्द्र श्रीवास्तव
९४१५११५११६, ०५२२-२३०५७३७
पता- उत्तर प्रदेश राज्य कार्यालय-१, टी.सी.- ३९/वी, विभूति खण्ड, गोमतीनगर, लखनऊ- २२६०१०

उप महाप्रबन्धक एलपीजी) बी.पी. देवनाथ
फोन- ०५२२-२३०५७०४

भारत पेट्रोलियम
 एल.पी.जी. विजनेस यूनिट
भारत पेट्रोलियम कारपोरेशन लिमिटेड
प्लाट नम्बर ए-५ एण्ड ए-६ सेक्टर-१ , नोएडा,
फोन- ०१२०-२४७४७०२/०३/३८/०१

रीजनल एल.पी.जी. मैनेजर
फोन- ०१२०-२४७४७०२/०३/३८/०१

लखनऊ एल.पी.जी. टेरिटरी, बी.पी.सी.एल. लखनऊ
टेरीटरी आफिस एण्ड पाटलिंग प्लांट कुर्सी रोड गुडम्बा, लखनऊ
फोन- ०५२२-२३६१०४३

गैस वितरक संघ
अनिल मित्तल(अध्यक्ष)
मो.- ९३३५०८६२४०, ९४१५०५२६८८
भारतीश मिश्रा (महामंत्री)
मो.- ९४१५०४३४९१

एच.पी. गैस कस्टमर सर्विस सेल
एच.पी. गैस रीजनल आफिस, साइट नं.-२, रोड नं.- १३, यू.पी.एस.आई.डी.सी. इंडस्ट्रियल एरिया, पोस्ट बाक्स नं.- १८, लखनऊ, उत्तर प्रदेश- २०९८०१
फोन- ०५१५- २८२९१२३

शनिवार, 15 जनवरी 2011

नारद डॉट काम

लखनऊ के बाद...

ये तो होना ही था. कानपुर से लगाकर फर्रुखाबाद तक छोटी लाइन बड़ी बन गयी है अब ऐसे में लखनऊ ही सेहत के लिये मुफीद शहर बचा था. लेकिन लफड़े वहां भी कम थोड़े हैं एक टांग उठाओ दूसरी अपने आप लखनऊ पहुंच जाती है. कनपुरिये फर्रुखाबादी कसीदे पढऩे में किसी से कम कहां हैं? उनके लखनऊ फूटने पर मुझे एक सत्यकथा याद आ रही है. मेरे एक रिश्तेदार हैं उनका मकान किदवई नगर में है. बचपन में होली-दिवाली जब हम उनके यहां जाते थे तो हर बार मकान नया होता था. उस लड़कपन में मैं सोचता था कि चच्चू बड़े रईस आदमी हैं. इसी के चलते हर साल नये मकान में रहने चले आते हैं. होश संभाला तो पता चला कि चच्चू रईस नहीं अव्वल दर्जे के कारीगर हैं साल भर का किराया मारकर नये मकान में चले जाते थे. इसके लिये उनकी कई बार भद्र भी पिटी, लेकिन कोई बात नहीं अब उनके पास अपना खुद का मकान है और उनकी  किराया मारने की समस्या  स्थाई रूप से खत्म हो चुकी है. बात सीधी सी है शहर या मकान बदलने से शोहरत (बिगड़ी हुई) ठीक होने वाली नहीं है. सरसौल से फर्रुखाबाद फिर वहां से लखनऊ अगले चुनाव में गाजीपुर फिर उसके बाद कहां? पांच साल में दो बार शहर बदलना कुल मिलाकर ठीक नहीं है. इस तरह के तबादले पुलिस के सिपाहियों के भी नहीं होते हैं. वो भी एक रेन्ज में १२ बरस दण्ड पेलते हैं. मैं यहां बहिन जी की दूरदर्शिता  का कायल बन गया हूं. उन्हें अपने पूत के पैर पालने में ही दिख गये थे. इसी के चलते उन्हें अपने नजदीक बुला लिया है. अब ये अवध की शान में गुस्ताखी करेंगे, उसके बाद कहां जायेंगे इसका खुदा हाफिज. बीते चार सालों में इनका मिजाज मौसम की तरह बदल गया है. अब ये अपने आपको पुरी का शंकराचार्य मानने और समझने लगे हैं. आम आदमी के सामने इनका भाव प्याज की तरह हो गया है. दरअसल  इन्हें ये पता नहीं है कि प्याज में दर्जनों पर्ते होती हैं जब उतरना शुरू होती हैं तो प्याज भी आलू के भाव बिकने लगता है. फिर आलू तो ऐसी चीज है चाहें भूनकर खाओ या उबाल कर मजा खाने वाले को पूरा मिलता है. मेरा अपना मानना है कि लखनऊ के लोग कनपुरियों से ज्यादा अक्लमन्द और नफासद पसन्द हैं. उन्हें गोली खाने के बजाय खिलाने में ज्यादा तस्कीन मिलता है. वो उड़ती चिडिय़ा के पृष्ठभाग को रंग सकते हैं. ये किस खेत की मूली हैं? फिर तो लौटकर यहीं आना पड़ेगा, ऐसे में चच्चू की तरह मकान या शहर बदलने की क्या जरूरत है.
    सी.एम.ओ. ध्यान दें

शहर के मास्टरों की खुराक पर कड़ी निगाह रखें, ये  हाड़कपाऊ ठण्ड में भी गर्माये हुये हैं.1

प्रथम पुरुष

भारतीय प्रशासनिक सेवा परीक्षाओं की अपारर्शिता 

 भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई ए. एस) की परीक्षा की पारदर्शिता एवं निष्पक्षता पर उठते सवाल. आर.टी.आई में पूछे गये प्रश्नों के उत्तर विरोध बास एवं छिपाने का संकेत करते हैं.
१. झूठे रोल नम्बरों की संख्या निरंतर बढ़ रही है वर्ष २००३ में ९२ थी २०१० में ४२४५ पहुंच गयी ४ लाख परीक्षार्थियों में अर्थात १.०६'
२. यू.पी.एस.सी कहती है कि कापियों की पुन: अवलोकन मूलांकन या जांच नहीं हो सकती है क्योंकि उन्हे नष्ट कर दिया जाता है. एक बार यह भी कहा कि पुन: मूल्यांकन किया गया परन्तु कोई गलती नहीं पायी गयी. कट आफ मार्क अर्थात निम्र अंको को प्राप्त करने की निर्धारित प्रक्रिया नहीं बतायी जाती, उनकी संख्या भी नहीं बताते , सही उत्तरों को सूची नहीं देते. अतएव मनमाने ढंग से उत्तीर्ण अभ्यार्थियों की सूची बनायी जाती है.
३.एक परीक्षाथी को २००८ को उत्तर दिया गया कि उसकी कापियों को दो बार पुन: मूल्यांकन किया गया कोई गलती नहीं पायी गई. उसी वर्ष दूसरे को उत्तर दिया गया कि सभी कापियां नष्ट कर दी गई है अत: पुन: मूल्यांकन सम्भव नहीं है अतएव ८० दिन बाद पुन: मूल्यांकन कैसे हुआ. एक परीक्षार्थी की कापी ही उपलब्ध नहीं हो सकी खो गयी. परीक्षार्थी द्वारा हस्ताक्षरित रजिस्टर की कापी मांगने पर उत्तर मिला कि उसे ६ माह में नष्ट कर देते हैं दूसरे से कहा गया २ वर्ष में नष्ट कर देते है.
४. रोल नं कम्पयूटर द्वारा बनाये जाते हैं अतएव २००४ से ६०००० रोल न. में से १२६४ साक्षात्कार के लिये चुने गये परन्तु केवल ११५४ पहुंचे.
५.यू.पी.एस.सी.परीक्षार्थियों द्वारा प्राप्त किये अंको को गुप्त रखती है इन अंको को देने की जानकारी गुप्त रखती है इन अंको को देने की प्रणाली बताने को भी गुप्त रखती है तमाम अस्थिर या परिर्वतन शील कारण बताती है.
६. ५०००० विद्यार्थियों की संख्या टी.एस.ए के जबाब मांग रही है. राष्ट्रपति ने भी प्रक्रिया में सुधार लाने को कहा. यू.पी.एस.सी नया पाठयक्रम ला रहा है क्या होगा तभी उसकी निष्पक्षता और पारदर्षिता पर विश्वास होगा.
मध्यम वर्ग के आधार शिला की कहानी-
मध्यम हमेशा सबसे महत्वपूर्ण रहा है गौतम बुद्घ ने भी मध्यम (बीच) पथ अपनाने को कहा राम भी मध्य में खड़े है अगल-बगल में सीता और लक्ष्मण मंच पर भी सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति मध्य में होता है,
स्वर्णपदक विजेता मध्य में खड़ा होता है अगल-बगल रजत और कांस्य विजेता जीतने वाले देश का झंडा भी बीच में सबसे ऊंचाहोता है पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी भी मध्य में होती है पेड़ों में भी सबसे ऊंची डाली मध्य में होती है. हाथ में बीच की अंगुली सबसे लम्बी होती है. चारो ओर मध्य का बोल-बाला है चक्र का केन्द्र भी मध्य में होता है.
मध्य वर्ग की उत्पत्ति अच्छे व्यवहार से हुई इसके पहले उच्च वर्ग राजा निम्र वर्ग या साधारण वर्ग को हमेशा तिरस्कार या जूते की ठोकर पर रखता था. मध्यम वर्ग इस तसवीर को बदल दिया आपकी माल हालत कुछ भी हो आप मध्यम वर्ग की श्रेणी में आने लगे. मुख्य पैमाना था आप दूसरों से कैसे व्यवहार करते है.1

जनता और मीडिया के संघर्ष की जीत

जनता और मीडिया के संघर्ष की जीत
दिव्या केस में नपे पुलिस अफसर

नीलम, दिव्या, कविता, वन्दना और शीलू सहित न जाने कितनी बालिग-नाबालिग कन्याओं के साथ घटित यौन-शोषण और अंतत: हत्या तक किए गए जघन्यतम अपराधों के लिए जाना जाने वाला विगत वर्ष अपने साथ ही कई गहरे जख्म मानवता और भारतीय संस्कृति पर दे गया था. नया वर्ष परत-दर-परत खुलासे और कार्यवाहियों का वर्ष जाना जाने वाला है. एक ही दिन शीलू के बलात्कारी विधायक की गिरफ्तारी व कानपुर के बहुचर्चित दिव्या हत्याकाण्ड के मामले में लापरवाही बरतने के आरोपी पुलिस के आला अधिकारियों पर गिरी गाज एक सुखद एहसास देने वाला साबित हुआ.
दिव्याकाण्ड में कत्र्तव्य की शिथिलता बरतने के आरोपी तत्कालीन डी०आई०जी प्रेम प्रकाश, एस०पी० (ग्रामीण) लालबहादुर, कल्याणपुर क्षेत्राधिकारी लक्ष्मी निवास मिश्र व कल्याणपुर थानाध्यक्ष अनिल कुमार सिंह पर अपराधियों को श्रय देने व केस की सही जांच न करने के कारण गाज गिरी है. इसी क्रम में नरैनी बांदा के बसपा विधायक पुरूषोत्तम नरेश द्विवेदी को गिरफ्तार कर प्रदेश सरकार ने संकेत देने में काफी देर की है कि दोषी चाहे कितना ही शक्तिशाली व उच्च पदस्थ क्यों न हो कानून से ऊपर नहीं. दोनों घटनाओं में जनता के विरोध को मिले मीडिया के स्वर ने अंजाम  तक पहुंचाया. यद्यपि कानपुर में आन्दोलनरत जनता व दिव्या की मां सहित प्रबुद्ध जन-मानस में यह प्रश्न आज भी कौंध रहा है कि कल्यानपुर चौकी इन्चार्ज शालिनी सहाय को क्लीन चिट क्यों दी गयी? उसके द्वारा किये गये पुलिसिया जुल्म की कहानी क्षेत्र की जनता की जुबानी कहने में आम व खास सभी शर्मसार होते हैं. मुन्ना ही नहीं किन्नर समेत पकड़े गये तीन-चार युवक तो पुलिस की खाकी वर्दी से इस तरह डर चुके हैं कि वे होमगार्ड तक को देखकर कांपने लगते हैं. पर अन्त भला तो सब भला. भले ही पूरा न सही पर काफी हद तक सन्तोषजनक है.1

भ्रष्टाचार तो मिट कर रहेगा- प्रखर जी महाराज


विशेष संवाददाता

सरसैया घाट पर शुक्लागंज उन्नाव में १६ जनवरी से शुरू होने वाले लक्षचण्डी यज्ञ के उद्देश्य पर चर्चा करते हुए संत प्रखर जी महाराज ने कहा देश में व्याप्त भ्रष्टाचार का कारण आम लोगों में धर्म निष्ठता में गिरावट का आना है. यदि आजादी के बाद अन्य प्रशासनिक व संवैधानिक उपलब्धों की ही भांति नैतिक व धार्मिक आचार विचार पर भी बल दिया गया होता तो समाज में आई चहुं तरफा गिरावट परिलक्षित न हुई होती.
प्रखर जी ने कहा यह यज्ञ के प्रारम्भ के पूर्व ही फलदायी साबित हो रहा है. यज्ञ का प्रारम्भ होने के दो-तीन माह पूर्व से ही देश भर मेें माहौल बनने लगा है. जिसके परिणाम स्वरूप देश भर में बड़े घपले और घोटाले उजागर होने लगे हैं. उच्च पदस्थ राजनैतिक और प्रशासनिक अधिकारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार की खबरें आम जनता तक पहुंचने लगी हैं जिससे देश भर में भ्रष्टाचार के विरूद्घ उकताहट की स्थिति है. उनका कहना है यज्ञ सम्पन्न होने के उपरान्त उत्पन्न होने वाली सकारात्मक ऊर्जा से भ्रष्टाचार की समाप्ति हो सकेगी.
उन्होंने इसी प्रकार के कु ल चार यज्ञ पूरे देश में करने की योजना बनायी है जिससे भ्रष्टाचार की समाप्ति हो सकेगी. उन्होंने इसी प्रकार के कुल चार यज्ञ पूरे देश में किए जाने की सूचना दी. यज्ञ के संबंध में जानकारी देते हुए उन्होंंने बताया देश भर से आए २५०० ब्राह्मणों के द्वारा यह यज्ञ कराया जा रहा है, जो आदि शक्ति दुर्गा जी को समर्पित है. आदि शक्ति को विस्मृत किए जाने से ही समाज दुर्दशा ग्रस्त होता जा रहा है. भ्रष्टाचार उसी दुर्दशा का परिचायक है. आज का समय देश में आजादी के बाद के काल का सर्वाधिक संक्रमण काल मानते हुए प्रखरजी कहते हैं बिना नैतिक व आध्यात्मिक उन्नति के समाज में सुधार नहीं लाया जा सकता है. सरसैया घाट से यज्ञ स्थल तक जाने के लिए जिला प्रशासन पीपों का पुल बनाने जा रहा है. ए.डी.एम सिटी एस.के. सिंह ने यज्ञ स्थल का दौरा कर तैयारियों का जायजा लिया और यज्ञ को परम उद्देश्य के प्रति समर्पित बताया. उन्होंने कहा कि १६ जनवरी से २ फरवरी तक चलने वाले इस यज्ञ में लाखों लोग शामिल होंगे. कार्यक्रम में हिस्सा लेने आने वाले नागरिकों की सुरक्षा का पूरा इंतजाम किया गया है.ताकि लोगों को सुविधा के साथ ही सुरक्षा भी मिल सके .1

कवर स्टोरी

श्रीलक्षचण्डी महायज्ञ में भ्रष्टाचार की आहुति

मुख्य संवाददाता

हर कोई चाहता तो है कि देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है. क्योंकि अभी तक हुये सभी उपाय सम्भवत: वाह्यमन से ही किये गये थे और उनका थोड़ा बहुत असर जो हुआ भी है वो बस बाहर ही बाहर हुआ. लगता है भीतर से तो बिल्कुल नहीं.
 
निश्चित रूप से यह गंगातिरिये कनपुरियों के लिये सौभाग्य की बात है कि आध्यात्मिकता और आस्था की छत्रछाया में भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े जा रहे यज्ञीय आन्दोलन की शुरुआत अपने शहर से हो रही है वो भी गंगा की गोद से. भ्रष्टाचार के खिलाफ गंगाजली उठाये प्रखर जी महाराज के सानिध्य में ढाई हजार ब्राह्मणों के और अनेकानेक श्रद्धालुओं की उपस्थित में होने वाला इस लक्षचण्डी यज्ञ से भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आध्यात्मिक माहौल तैयार होगा. वैसे पूरा हिन्दुस्तान और समूची भारतीय संस्कृति ही यज्ञ-हवन, पूजा-दान, जप-तप की ही संस्कृति है और युगों से ही अनेकानेक यज्ञ किये जा रहे हैं. लेकिन १६ जनवरी से २ फरवरी तक सरसैया घाट में होने वाले इस यज्ञ का महत्व ही कुछ और है.
दरअसल यज्ञ होने की वजह ही इस यज्ञ के महत्व को बढ़ाती भी है और बताती भी और वह वजह है भ्रष्टाचार की खिलाफत. आज भ्रष्टाचार देश के लिये एक ऐसी समस्या है जो देश को धीरे-धीरे दीमक की तरह खोखला किये जा रही है. हर कोई चाहता तो है कि देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है. क्योंकि अभी तक हुये सभी उपाय सम्भवत: वाह्यमन से ही किये गये थे और उनका थोड़ा बहुत असर जो हुआ भी है वो बस बाहर ही बाहर हुआ लगता है भीतर से तो बिल्कुल नहीं. यह यज्ञ एक आत्मिक प्रयास है.
भ्रष्टाचार को जड़ से पूरी तरह से नेस्तोनाबूत करने का. भारत आस्थाओं का देश है और आस्था की शक्ति पत्थर को भी भगवान बना देती हैं. वो भगवान जो पालनहार होता है, मंगलदायी होता है और सर्वशक्तिमान भी होता है. इसी शब्दों में भ्रष्टाचार के खिलाफ यह यज्ञीय प्रयास ठीक वैसा ही है जैसा कि किसी गम्भीर लाइलाज बीमारी के औषधीय इलाज कराने के साथ ही महामृत्युंजय और मृत संजीवनी का जापीय और हवनीय इलाज भी करवाया जाता है और मन से करने पर उसका असर भी होता है. ठीक वैसे ही इस लक्षचण्डी महायज्ञ का असर भी निश्चित रूप से ही होना. हमको भी इस यज्ञ से पूरे मन और श्रद्धा के साथ जुडऩा और जुटना होगा. ठीक वैसे ही जैसे स्वामी प्रखर जी महाराज और उनके सानिध्य में ढाई हजार ब्राह्मण जुड़े और जुटे हैं. अगर हम सबके मन पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ जुड़ गये तो भ्रष्टाचार की कमर निश्चित रूप से टूट जायेगी.
इस यज्ञ के शुरू होने से पहले ही कुछ लोग तरह-तरह की बेवजही अटकलें और आशंकाये उठा कर उनका प्रचार भी करने में जुटे हैं. इसमें कोई नई बात नहीं है. हर अच्छे कामों में इस तरह की विघ्न बाधायें आती हैं. इस तरह के विघ्न साबित करते हैं कि हम सच्चाई और सफलता के मार्ग पर चल रहे हैं. इस अदभुत यज्ञ के आयोजन के बारे में कुछ भी नकारात्मक कहने या करने से पहले कुछ बातों पर विचार करना बेहद जरूरी है. सबसे जरूरी और पहली बात यह है कि भ्रष्टाचार स्वामी प्रखर जी महाराज और यज्ञ के आयोजकों की कोई व्यक्तिगत या घरेलू समस्या नहीं है. जिसके लिये वे इतना अकुलाए हुये हैं.
यह देश की सार्वभौमिक समस्या है जिसके लिये यह प्रयास किया जा रहा है. दूसरे अर्थों में यह प्रयास एक तरह की सच्ची देश सेवा और जन सेवा ही है. वैसे तो यह काम देश के राजनेताओं और आला अफसरान का है लेकिन वो स्वयं ही भ्रष्टाचार के दल-दल में आकण्ठ डूबे हुये हैं. ऐसे में किसी न किसी को तो इस तरह की जनसेवा करनी ही चाहिये. अब अगर यह गंगाजली प्रखर जी महाराज ने ही उठा ली है तो हम सबको मिल कर पूरे मन से इस यज्ञ को सफल बनाने का आचमन कर लेना चाहिये. बाकी के गिले शिकवे अगर फिर भी कोई बच कर रह जायें तो बाद में बताये और निपाये जा सकते हैं. सरसैया घाट में होने वाला यह लक्षचण्डी महायज्ञ भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाले लक्षचण्डी यज्ञों की परम्परा का प्रथम यज्ञ है. इसके बाद तीन और यज्ञ अभी इसी परम्परा में हर वर्ष कराये जायेंगे. प्रखर जी महाराज को विश्वास है कि सन २०१६ तक देश से भ्रष्टाचार खत्म हो ही जायेगा. अगर ऐसा होता है तो कनपुरिया लहजे में स्वामी जी के मुंह में घी शक्कर.1


शनिवार, 8 जनवरी 2011

चौथा कोना

इसीलिये तो गुनाहों से नहीं है तौबा
चलो २०१० के जाते-जाते और २०११ के आते-आते शहर ने जाना भी और माना भी मीडिया की ताकत को और उसकी भूमिका को भी. दिव्याकाण्ड में बेकसूर मुन्ना की रिहाई और हत्यारे बलात्कारी तक कानून के हाथ शायद सम्भव न हो पाते अगर 'हिन्दुस्तानÓ अखबार ने दिव्या के साथ हुये कुकृत्य के बाद पुलिस की लीपापोती को अपनी अना से न जोड़ लिया होता. जब डीआईजी प्रेम प्रकाश का तबादला हुआ तो कुछ अखबार वालों ने इसे दिव्या के साथ न्याय मान लिया. यह भी कहा कि मीडिया जीत गया. लेकिन हिन्दुस्तान के सम्पादक विश्वेश्वर (स्थानीय) नहीं माने. उनका दर्द था कि हम इतना भिड़कर भी कुछ नहीं कर पाये. तबादला न कोई सजा होती है और न ही दिव्या काण्ड में बलात्कारी के बराबर दोषी पुलिस का कुछ बिगड़ा. अब जबकि मुन्ना जेल से रिहा हो चुका है. अपराधी कानून के शिकंजे में है तो निश्चित ही इस जंगी सम्पादक की छाती को कुछ ठंडक पहुंची होगी. लेकिन एक पत्रकार के नजरिये से दिव्याकाण्ड की अखबारी मुहिम अभी पूरी नहीं हुई है. शहर के अखबारों ने दिव्या के साथ हुये दुष्कर्म में पुलिस कार्रवाई को मुद्दा बनाया था. आवाज उठायी थी कि पुलिस अभियुक्तों के साथ मिलकर काम कर रही है और यह मुद्दा अभी बाकायदा जिन्दा है. क्योंकि जिन पुलिसवालों ने तथ्यों को छुपाने, न$जरअंदाज करने या उसे तोडऩे मोडऩे की कोशिश की वे अभी भी सजा के दायरे से बाहर हैं. दिव्या की मां ने बार-बार कहा था कि उसे धमकियां मिल रही हैं...धमकियां देने वालों में जो नाम आये थे उनमें पुलिस के लोग भी थे. इन सरकारी 'बाराहोंÓ का कुछ नहीं हुआ है जबकि दोषियों तक पहुंचने में इतने विलम्ब और हाय-तौबा के असली कारण ये लोग ही हैं. अखबारों को अब इनके पीछे पड़ जाना चाहिये. इनका कुछ बिगड़े न बिगड़े लेकिन इन्हें 'ता-उम्रÓ यह सबक तो मिल ही जाना चाहिये कि केवल 'साहबÓ को सेट कर लेने से जो जी में आयेगा पुलिस कर लेगी ऐसा नहीं है. और भी लोग हैं जो देख रहे हैं. मीडिया भी उन्हीं और लोगों में है. मीडिया के दम के साथ-साथ दिव्या की मां सोनू भी दम-खम वाली महिला निकली. अपनी बेटी के लिये तो कोई भी जान लड़ा सकता है. लेकिन इस महिला ने गरीब मुन्ना के पक्ष में जो एड़ी रगड़ी वह छोटी बात नहीं है. न्याय का असली झरना तो वहीं से फूटा है. हमारी न्याय व्यवस्था की जान बसती है निर्दोषों में. भारतीय कानून न्याय करते वक्त यह ध्यान रखने का वचन देता है कि चाहें सौ गुनहगार छूट जाएं लेकिन किसी बेगुनाह को स$जा नहीं होनी चाहिये. इतने भयंकर दबाव और उत्पात के बीच एक महिला का मीडिया के सहारे अन्तिम क्षण तक टिके रहना बताता है कि अगर मीडिया चाहे तो हर गरीब, असहाय और निर्बल को पहाड़ उठाने जैसा बल दे सकता है. न्याय को न्याय बना सकता है. मेरा एक शेर है:-


'इसीलिये तो गुनाहों से नहीं है तौबा,


सजा किसी की मगर काटता है और कोई.Ó

नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ अपने प्रिय पत्रकार दोस्तों से अगले सप्ताह तक की विदा लेता हूं. तब तक के लिये चौथा स्तम्भ जिन्दाबाद.1

प्रमोद तिवारी

खरीबात

अब तो शैतान के मुकाबले भगवान ही कुछ करे तो करे
प्रमोद तिवारी
खलील जिब्रान की छोटी सी कहानी है. एक राजा बहुत ही न्यायप्रिय और जनप्रिय था प्रजा उसे देवता की तरह पूजती थी. पड़ोस के राज्य में एक शैतान रहता था, उसे राजा और उसकी प्रजा से बेहद जलन थी. एक रात चुपके से वह शैतान प्रजा प्रिय राजा के राज्य में घुस गया. राज्य में एक बड़ा सा कुंआ था. लोग उसका पानी पीकर राजा को दुआएं देते थे. शैतान ने उस  कुँए के पानी में 'शैतानीÓ घोल दी अब जो भी उस कुंए का पानी पीता अपने राजा को गालियां देने लगता. कहता कि राजा बहुत दुष्ट है धीरे-धीरे यह शैतानी पूरे नगर में फैल गई. राजा तक भी गालियां पहुंचने लगी राजा ने अपने विश्वस्तमहामंत्री को बुलाया और पूछा ये रातों-रात क्या हो गया. प्रजा तो मुझे देवता की तरह पूजती थी. अचानक शैतान क्यों समझने लगी. राजा ने अपने महामंत्री से इसका कारण पता लगाने को कहा. महामंत्री ने गुप्तचरों के जरिये पता लगाया. पता चला यह काम पड़ोस के शैतान का है. महामंत्री ने राजा को सारा किस्सा विस्तार से समझाया. राजा सोच में पड़ गया. उसने महामंत्री से इस अजीब समस्या का समाधान सुझाने को कहा. महामंत्री ने काफी सोज विचार के बाद राजा से कहा कि अब केवल एक ही रास्ता है कि आप और हम खुद भी इस कुंए का पानी पी लें. दोनों राजा और मंत्री ने ऐसा ही किया. अगले दिन प्रजा फिर से राजा के अनुरूप हो गये उसकी जय-जयकार करने लगी... यह कहानी भारतीय राजनीत को समझने में कितनी समीचीन है इसको हम आप खुद समझें. क्या  ऐसा नहीं लगता कि पड़ोसी शैतान या दोस्त शैतान ने हमारे देश के कुंए में भी शैतानी घोल रखी है फलस्वरूप देश आम जनता अपने राजा को सही ढंग से पहचान नहीं पाती नतीजा यह होता है कि जब राजा राजधर्म निभाता है तो गालियां मिलती हैं और जब वह भ्रष्ट हो जाता है तो उसकी पूजा होने लगती है. यह कहानी राजा और प्रजा के बीच के आचार व्यवहार के दर्शन को भी समझने में मदद देती है जैसे की यदि राजा राजधर्म निभाता है तो प्रजा उससे अनुकूल आचरण करती है. उसे देवता की तरह पूजती है. यह कथा साथ ही साथ यह भी बताती है कि प्रजा का आचरण भ्रष्ट हो जाये तो शिष्ट राजा को राज चलाने के लिए भ्रष्ट भी होना पड़ता है हमारे देश की स्थिति आज की तारीख में कुछ ऐसी ही है पूरा देश भ्रष्टाचार से थर्राया हुआ है और भ्रष्टाचार का आलम यह है कि देश के प्रथम पुरूष से  लेकर अंतिम पुरूष तक समान रूप से व्याप्त है भ्रष्टाचार से कैसे मुक्त हो कुएं में घुली शैतानी को पानी (जीवन) से कैसे अलग किया जाये इस ओर न तो खलील जिब्रान की यह कथा कुछ बताती है न ही कोई अन्य... सब चिल्ला रहे हैं भ्रष्टाचार....भ्रष्टाचार. हर भ्रष्ट अपनी भ्रष्टता के आगे बड़े भ्रष्ट और भ्रष्टाचार की नजीर रखता है ऐसी विषम स्थिति में भ्रष्टाचार मुक्त भारत की सोचना अंधेरे में  काली बिल्ली को ढूंढऩा सरीखा है अर्थात अगर कोई रास्ता हाथ आयेगा भी तो धुप्पल में... वह भी तब जब हम बिना कुछ सोचे समझे हाथ पैर मारते रहें... वरना अपना देश उस अंधेरी कोठरी में तबदील हो चुका है जिसे आपातकाल के दौरान में क्रांन्तिकारी शायर दुष्यन्त कुमार ने पहले ही देख लिया था. तब फिर भी गनीमत थी कि शायर को जय प्रकाश नारायण सरीखे किरदार में रोशनी की उम्मीद  दिखाई दी थी. उन्हीं का शेर है - एक बूढ़ा आदमी  है मुल्क में या यों कहो, इस अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है. लेकिन आज का दुष्यन्त जमुना प्रसााद उपाध्याय कहता है,नदी के घाट पर यदि ये सियासी लोग बस जायें, तो प्यासे लोग इक-इक बूंद पानी को तरस जायें, गनीमत है कि मौसम पर हुकूमत चल नहीं सकती, नहीं तो सारे बादल इनके खेतों में बरस जायें. यह किरदार हमारे देश की सियासत यानी 'राजनीतिÓ का है कोई उम्मीद नहीं कोई सहारा नहीं.1

एक्सपो २०१०

 एक्सपो २०१०
 घोटाले का सांस्कृतिक कार्यक्रम
हेलो संवाददाता
ब्रजेन्द्र स्वरूप पार्क में नेशनल हैण्डलूम सप्ताह के अवसर पर २१ दिसम्बर से १० जनवरी तक चलने वाले नेशनल एक्सपो में एक ऐसा घोटाला सामने आया, जिसका चर्चा-ए-आम न हो सका. परन्तु एक खास वर्ग में उपजे असन्तोष की तह पर जाने पर जानकारी मिली कि प्रत्येक स्तर की प्रदर्शनियों मेलों व महोत्सवों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता रहा है. चूंकि यह कार्यक्रम हमारी राष्ट्रीय धरोहरों व संस्कारों को नई पीढ़ी से जोडऩे में सहायक होते हैं इसलिए इनके माध्यम से रंजन व मनोरंजन के अवसर बनाए जाते रहे हैं. विगत दिनों कानपुर महोत्सव में प्रत्येक शाम संास्कृतिक कार्यक्रमों के लिए अपनी प्रतिमान  गढऩे में सफल रही. शहर के ऊर्जावान स्त्रोतों के बल पर पहली बार  आयोजित कानपुर महोत्सव के विपरीत केन्द्र व राज्य की सरकारों की आर्थिक मदद से आयोजित होने  वाले इस हैण्डलूम्स एक्सपों  में धन के स्त्रोत केवल सांस्कृतिक कार्यक्रमों के मद में ही सूख गय जबकि सचिव व निदेशक दिनेश सक्सेना ५ तारीख को ही एक्सपो की अपार सफलता की स्वीकृति देने का वक्तव्य दे गए.
एक्सपो प्रभारी राजीव त्रिपाठी की अनुपस्थिति में जिम्मेदारी वहन क र रहे क्लर्क ए.के. मिश्र का कहना है सवा लाख की शाल व पच्चीस ग्राम की साड़ी जैसे बेहतर उत्पादों की प्रदर्शनी लगाए इस बार  के एक्सपो में सोलह राज्यों की पैंतालिस समितियों के स्टाल हैं. सबसे ज्यादा जम्बू-कश्मीर के स्टाल है. वर्तमान में ६ नेशनल व कुल बारह अन्य एक्सपो पूरे देश में लगे इस कारण सभी स्टालों में कम माल आ सका इस वर्ष पिछले वर्ष के ७२ स्टालों की अपेक्षा कम स्टाल हैं. इसके बावजूद कानपुर नगर की जनता के उत्साह के चलते एक्सपो में आईं सहकारी समितियां  अपने लक्ष्य से अधिक लाभ कमा चुकी हैं. श्री मिश्र कहते हैं कि प्रत्येक वर्ष आयोजित की जाने वाली संास्कृतिक संध्या इस वर्ष नहीं कराई जा रही है. कारण सर्दी, बजट कम का होना और हैण्डलूम समितियों का असहयोगात्मक रुख है.  उनका मानना है कि प्रचार का ही एक तरीका सांस्कृतिक कार्यक्रम होता है. इस बार मद का धन होर्डिंग व अखबार में विज्ञापनों में व्यय किया गया है. जबकि सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार लगवाई गई तीस होर्डिंगों में से अधिकतर केवल कागज पर ह और अखबारों को दिया जाने वाला विज्ञापन तो प्रतिवर्ष दिया जाता था. इसमें कुछ नये मद में किया गया खर्च नहीं था. परन्तु निल बैलेन्स पर होने वाले इस कार्यक्रम में विगत वर्षो की तरह लगभग १२-१३ लाख रुपय सांस्कृतिक कार्यक्रमों के व्यय का बजट चुपके से घोट कर पी लिया गया. देश में आए घोटालों के मौसम में यद्यपि यह घोटाला कम राशि  का है, परन्तु मामला ऐसे मुद्दे का है जिसे कतई अनदेखी नहीं की जा सकती . पूर्व में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की वजहों से वर्ष भर तैयारी व प्रतीक्षा करने वाली पीढिय़ां ऐसे भव्य या भीड़ वाले कार्यक्रमों के माध्यम से शहर के विभिन्न क्षेत्रों के योग्यतम कलाकारों का साक्षात्कार इस तरह के मेले, महोत्सवों के माध्यम से ही करते थे. पहले ऐसे कलाकारों कवियों व शायरों के मेहनताने का घोटाला होता था और उनसे ब्लैंक रसीदों पर हस्ताक्षर कराए जाते थे और दाल में नमक बराबर खा लिया जाता था. पर इस बार दाल ही पूरी पी ली गई. दाल में काला नहीं वरन्  पूरी दाल ही काली लगती है क्योंकि धन की कमी व अन्य विभागों के सहयोग न करने का रोना रोने वाले श्री मिश्र के लिए इतना बताना ही पर्याप्त है कि कानपुर महोत्सव, खादी प्रदर्शनी व मावी बिठूर महोत्सवों के लिए भी किसी सरकार से कोई मदद नहीं मिली थी पर शहर के उद्योगपतियों व समाज सेवियों न मंशा को माप कर पूरी मदद की व सदैव करते रहे हैं. संबंधित विभाग के मन्त्री जगदीश नारायण शय के संज्ञान में मामला आ चुका है उन्होंने समाचार पत्र के संवाददाता से उच्च स्तरीय जांच का आश्वासन दिया है. बहुत हद तक संभव है इस जांच में एक्सपो प्रभारी राजीव त्रिपाठी सहित अन्य मोटी खालों वाले प्रशासनिक अधिकारियों पर नकेल कसी जाए, जिससे ऐसी घटना की पुरावृत्ति न हो.1

कवर स्टोरी


पुलिस का कानूनी खेल
मुख्य संवाददाता
 पुलिस के बताये लगभग सभी आरोपी बेकसूर ही निकले. यह केवल वारदातों को खोलने के लिये होने वाली पुलिसिया हड़बड़ाहट नहीं थी. यह तो बस कानून के साथ की जाने वाली नितांत खिलवाड़बाजी ही थी.
गुजरा साल एक बार फिर शहर की आवाम को पुलिस का असली चेहरा दिखा गया. साथ ही यह भी साबित कर गया कि हमारी रक्षा  के लिये बनाई गयी पुलिस दरअसल हमारी रक्षा के लिये नहीं बल्कि अपने डण्डे के बलबूते हमारा शोषण और उत्पीडऩ करने के लिये ही है. इस साल हुये कविता काण्ड, वन्दना काण्ड, दिव्या काण्ड और इन सबके बाद इन घटनाओं को लेकर पुलिस की हैवानी प्रतिक्रिया किसी से छुपी नहीं है. इन तमाम मामलों में पुलिस ने अगर कुछ किया भी तो बस लीपापोती ही की. हर घटना के बाद पुलिस ने ताबड़तोड़ घटना का खुलासा होने का दावा किया वो भी दो-चार बेकसूरों को पकड़कर जबरन उसे जुल्म इकरार करवा कर. एक दो होते तो कुछ गनीमत भी थी लेकिन अधिकतर मामलों में आखिर में पता चला सच घटना के तुरन्त बाद बताये गये पुलिसिया सच से एकदम जुदा ही निकला. पुलिस ने अपनी शुरुआती कहानी में जिन-जिन बेकसूरों को आरोपी करार दिया. अदालती  छन्नी लगने के बाद पुलिस के बताये लगभग सभी आरोपी बेकसूर ही निकले. यह केवल वारदातों को खोलने के लिये होने वाली पुलिसिया हड़बड़ाहट नहीं थी. यह तो बस कानून के साथ की जाने वाली नितांत खिलवाड़बाजी ही थी. पुलिस की इस खिलवाड़बाजी से अब तक न जाने कितनी जिन्दगियां ही खिलवाड़ बन गयी हैं और न जाने कितने लोग घुट-घुटकर मर गये. इन तमाम काण्डों और अपराधों पर अभी तक पर्दा ही पड़ा रहता अगर इनमें से कुछ को लेकर आम लोगों ने बाकायदा जन आन्दोलन न चलाया होता.
कानून की रक्षक पुलिस की कानून के साथ की जाने वाली खिलवाड़बाजी का सबसे पहला नमूना देखने को मिला घाटमपुर में. घाटमपुर की वन्दना अपने साथ हुये दुराचार की रपट लिखाने के लिये कई दिन लगातार घाटमपुर पुलिस थाना के चक्कर लगाती रही. पुलिस ने उसकी रिपोर्ट लिखना तो दूर रहा बल्कि इन आमजन के ऊपर ही अपने हाथ साफ करने का दुस्साहसिक प्रयास किया. अपने साथ हुये इस हैवानी दुष्कर्म के बाद जब वन्दना को पुलिस का भी रवैया वैसा ही दिखा तो उसने दुखी होकर अपने एक पत्र के जरिये सारी दास्तान का बयान करने के बाद आग लगा कर आत्महत्या कर ली. फर्ज अदायगी के नाम पर उस समय डीआईजी रहे प्रेम प्रकाश ने घाटमपुर थाना इन्चार्ज मनोहर सिंह  को लाइन हाजिर कर पूरे मामले में लीपापोती कर ली. मनोहर सिंह लोगों का उत्पीडऩ करने के वास्ते एक बार फिर से बहाल हो गये. लेकिन वन्दना, वो तो यह दुनिया ही छोड़कर चली गयी.
पुलिस के उत्पीडऩ की कहानी यहीं खत्म हो जाती तो ठीक था लेकिन ऐसा नहीं हुआ. यह सिलसिला आगे भी जारी रहा.
वन्दना के आत्मदाह की आग अभी बुझी भी नहीं थी कि शहर के चर्चित चांदनी नर्सिंग होम में गम्भीर हालत में भर्ती कविता के साथ हुए बलात्कार और बलत्कार के हैवानी कारनामें  में  हुई उसकी मौत ने एक बार फिर से लोगों को आवाज उठाने पर मजबूर कर दिया लगातार बढ़ रहे अपराधों से बेफिक्र सोई हुई पुलिस एक बार फिर नींद से जागी और इस पूरे मामले का खुलासा करने की फर्जअदायगी में जुट गयी. पुलिस ने इस इस घटना के आरोपियों को इस घटना से जड़े अहम सबूतों को मिटाने,हटाने और छिपाने का पूरा मौका दिया.पहले तो पुलिस ने इस काण्ड में पर्याप्त सबूत न होने की बात कह कर चांदनी नर्सिंग होम के मालिकानों की गिरफ्तारी को ले कर तमाम बहाने बनाये लेकिन लोगों के लगातार पड़ रहे दबाव को  ले कर आनन-फानन में एक बार फिर पुलिस ने अपनी फर्ज अदायगी की कुछ  लोगों को गिरफ्तार किया गया. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी इस घटना में भी पुलिस को अदालत में मँुह की खानी पड़ी. पुलिस को आखिर तक इस घटना का महत्वपूर्ण सबूत नर्सिंग होम सी.सी.टी.वी. की फुटेज नहीं मिल पायी और दोषियों बचने का पूरा मौका मिल गया.
 वन्दना और कविता की घटना अभी शान्त भी नहीं हो पायी थी कि शहर में फिर एक मासूम लड़की  दिव्या के साथ दुष्कर्म की हैवानी वारदात हो गयी. दिव्या के साथ दुष्कर्म के बाद पुलिस तुरन्त ही हरकत में आयी.दिव्या के दुष्कर्मियों को तलाशने के लिये नहीं बल्कि इस पूरे मामले को ही किसी भी कीमत पर दबाने के लिये.यह पुलिस का दुर्भाग्य था कि एक अबोध बच्ची के साथ हुए दुष्कर्म की घटना से थर्राया शहर एक साथ इस घटना के विरोध में खड़ा हो गया. इस कांड के खुलासे के लिये पुलिस एक बार फिर सक्रिय हो गयी और उसने आनन फानन में इस घटना का मनमाफिक खुलासा भी कर दिया. खास बात यह थी कि दिव्या के साथ जिस ज्ञानस्थली विद्यालय में दुष्कर्म हुआ था वहां पुलिस ने फर्जअदायगी भर के लिये भी एक बार झांकना तक मुनासिब नहीं समझा.लोगों के विरोध की वजह से पुलिस ने इस मामले में पहले आरोपी के रूप में पेश किये लोगों को छोड़ कर दिव्या के पड़ोसी मुन्ना को बतौर आरोपी पेश कर दिया. हंलाकि दिव्या की मां शुरु से ही मुन्ना को निर्दोष बता रही थी लेकिन पुलिस  ेमुन्ना को जेल भेज दिया. इतने पर भी जब बात नहीं बनी तो पुलिस ने ज्ञान स्थली विद्यालय के प्रबन्धकों और उनके दोनों लड़कों को भी दोषी बना कर जेल भेज दिया एक बार फिर मेडिकल जांचों और अदालती छन्नी के बाद मुन्ना को निर्दोष करार दे दिया गया.अब पुलिस के पास इस पूरे घटना क्रम में मुन्ना के ऊपर हुए पुलिसिया अत्याचार के लिये सिवाये बेबुनियाद दलीलों के अलावा और कुछ नहीं बचा.
बात सिर्फ इतनी सी है कि पिछले बरस एक के बाद एक हुए इस तरह के काण्डों के बाद भी पुलिस की कार्यशैली में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया.अब देखना यह है कि नये साल में पुलिस का रवैया कुछ बदलता है या नहीं.

प्रथम पुरूष

भारतीयता का अमेरिकीकरण
हमने पांच बातें अमरीका से सीखी हैं और उन्होंने पांच बातें हमसे ली हैं. हमने जो पांच बाते अमरीका से सीखी हैं वे हैं:-
१. अंग्रेजी बोलने में जिसे कोई न समझ पाये (टवॉग) वर्तमान में हम सभी अमरीका के लिये काम कर रहे हैं वैक्तिक संस्थाओं में मीडिया में सॉफ्टवेयर में, आउट सोर्सिंग में किसी भी मल्टीनेशनल कार्यालय में जायें आपको महसूस होगा कि सभी जो कुछ बोल रहे हैं वह समझ में नहीं आता अमरीका में बैठा हुआ भी नहीं जानता कि उससे क्या कहा जा रहा है या वह क्या कह रहा है.
२. माल की संस्कृति मन्दिर$ोंंं का स्थान पर माल ले रहे हैं. युवा पीढ़ी में इन स्थानों पर लोग इक_ा हो रहे हैं. एक बात जरूरी हुई है कि इनमें ध्यान रखा जा रहा है कि उस क्षेत्र या समाज के लोग क्या खाना चाहते हैं क्या खरीदना चाहते हैं माल छोटे शहरों में पनप रहे हैं मीडिया भी उनका प्रचार कर रहा है.
३. अमरीका का जंक और भारत का स्वादिष्ट खानों का मिलन हो रहा है. अमरीका की तरह खाद्य पदार्थ बहुत बड़े स्तर पर नहीं बनाया जाता है. सुअर और गाय का मांस नहीं परोसा जाता और देश के लोगों के स्वाद का ध्यान रखा जाता है. मैकडोनल्ड के १६० रेस्टोरेंट खुल गये हैं. डोमिनो के  भी पैकिजो के स्थान पर  प्लेटों पर खाना मिलता है. सभी प्रकार  का चीनी, भारतीय (उत्तर दक्षिण का) और अमरीका का पि$जा.
४. भारत का सिनेमा अमरीका के सिनेमा का रूप ले रहा है. हमारी फिल्में भारतीय कम अमरीकन अधिक लगती हैं. कलाकारों के कपड़े तक. क्योंकि उनके बनाने में बड़ी-बड़ी कम्पनियों का धन लग रहा है जो देश को अपनी चीजें बेचना चाहते हैं. फिल्में बड़ा माध्यम हैं. कलाकार भी अब अमरीका की फिल्मों के कलाकारों की तरह ही ऐक्टिंग कर रहे हैं. कहानियां भी वैसी ही हो रही हैं. संगीत भी मिला-जुला हो गया है. टी शर्टस का बोल-बाला हो गया, धोती गायब हो गयी है.
५. शिक्षा में युवा पीढ़ी अमरीका भाग रही है. गत वर्ष १०३२६० वहां गये सबसे अधिक १५ प्रतिशत चीन से केवल ९८५१०,   ३० प्रतिशत स्नातक से नीचे की शिक्षा के लिये आर्थिक स्थिति या रोजगार (नौकरी) की कमी से भी कोई फर्क नहीं पड़ता. अमरीका से केवल ३१४६ पढऩे आये हालांकि संख्या बढ़ रही है.
अमरीका ने निम्न पांच बाते हमसे ग्रहण की हैं:-
१. महात्मा गांधी के अहिंसा का मंत्र जेट हवाई जहाजों के गर्जना एटम बोम्ब के विस्फोट, कीटाणु युद्ध एवं आतंकवाद को समाप्त करने का यही उपाय 'मंत्रÓ है. शक्ति प्रयोग असफल हो रही है. मन बदलना, सोच बदलना होगा तभी हथियार  बम्ब डालने के लिये हाथ रुकेंगे. विश्व में २७००० एटम बोम्ब हैं जो आतंकवादी चुरा सकते हैं. प्राप्त कर सकते हैं. मार्टिन लूथर किंग और अब ओबामा इस मंत्र को अपनाने को कह रहे हैं. पर्ल एसबक ने अपनी पुस्तकों में इस मंत्र का जिक्र बार-बार किया. समाज की, व्यवस्था की और शासन (राज्यों) की क्रूरता को इस मंत्र से हटाया जा सकता है. शक्ति प्रयोग से तो एक क्रूरता का स्थान दूसरी क्रूरता ले लेती है. इल स्टेनली जोन्स रिचर्ड ग्रिग्स की किताबे अमरीका में मानव अधिकारों को प्राप्त करने का हिस्सा बन गयी. कौन पढ़ाता है कौन सीखता है एक मूक प्रश्न है. पृथ्वी पर जीवित रहने के नियमों पर महात्मा गांधी ने कहा. अंटारटिका में जब जमा हुआ पानी अर्थात पाला या हिम पिघलता है तो तापमान गिरता है जीवन दान देता है. प्रकृति के नियमों का पालन करने को उन्होंने कहा अन्यथा पानी का अकाल होगा. बाढ़ आयेगी (समुद्र में) आबादी का पलायन होगा, बीमारियां फैलेंगी. पर्यावरण की सुरक्षा का मंत्र दिया. पृथ्वी से प्राप्त होने वाले सभी तत्वों का संतुलित प्रयोग करना होगा यही जीवित रहने का नियम है.
२. दलाई लामा का बढ़ता प्रभाव वे अभी तक ४१ बार अमरीका गये उनकी लोकप्रियता ओबामा के बराबर है. उनको सुनने २०००० व्यक्ति इक_ा होते हैं. दलाई लामा कहते हैं कि वे भारत के बेटे हैं वे महात्मा गांधी की सोच को आगे बढ़ा रहे हैं.
३. योग एवं हिन्दुत्व की सोच का प्रसार हो रहा है. हेनरी डेविड योरियायू ने कहा वह योगी हैं. राल्फ बाल्डो इमरासन ने ब्रह्मा पर कविता लिखी. स्वामी विवेकानन्द द्वारा शुरू किया गया योग अब अमरीका में जड़े जमा चुका है. योग के गुरु अपार धन कमा रहे हैं. योगा पैन्ट ४३६० रुपये में बिक रही है. सैकड़ो लोग एक दूसरे का हाथ पकड़कर 'ओमÓ का उच्चारण करते हैं. योग का अर्थ ही है जुडऩा गुरु कहते हैं. अमरीकन तो योग को अपना ही कहने लगे हैं.
४. भारत के विद्वान व्यक्ति अमरीका के हर क्षेत्र में जगह बना रहे हैं. हरगोविन्द खुराना, एस चन्द्रशेखर, वेकटरमन रामाकृष्णनन, वीनादास, गायत्री चक्रवर्ती, स्पविक, अमरव्य सेन, प्रनब वर्धन, कौशिक बासु, ए.के. रामानुजम, सीएम नमीम, विक्रम चन्द्रा, मनी, सूरी, प्रार्थी चटर्जी, ज्ञान पाण्डे, ज्ञान प्रकाश अमरीका के उच्चतम विद्वानों (अपने-अपने क्षेत्रों में) में आते हैं. भारत के विद्वानों को मांगा जा रहा है स्वीकार किया जा रहा है राजनीति में भी.
५. भारत की सॉफ्टवेयर कम्प टाटा कन्टलसी ने अमरीका में जगह बना ली है. सिलीकौन घाटी २५ प्रतिशत भारतीय बहुत पहले हो गयी होती यदि हमारी सरकार ने हमने ध्यान दिया होता कि सॉफ्टवेयर भारत की अन्य भाषाओं में ९० करोड़ देश के भारतीय तक पहुंचाना है. हमे समझना  होगा सॉफ्टवेयर की कुंजी हार्डवेयर है. विश्व में अभी हमारा केवल २ प्रतिशत हिस्सा है. हमारी व्यवस्था में केवल १० प्रतिशत कम्प्यूटर है जब कि विकसित देशों में ५० प्रतिशत कम्प्यूटर हैं.1

नारद डाट कॉम

नये कलेवर में पियक्कड़
हां,  मेरा निश्चित मानना है कि देश के सारे पियक्कड़ अगर एक प्लेटफार्म पर आ जायें तो वो अपनी सरकार बना सकते हैं. इसके पीछे मेरा कोई कुतर्क नहीं बल्कि स्ट्रांग लॉजिक है. केन्द्र से लगाकर देश की हर राज्य सरकार इन्हीं पियक्कड़ों पर साल दर साल जुल्म सितम ढ़ाये जा रहे हैं, ये बेचारे उफ तक नहीं करते और न ही कोई राजनीतिक सामाजिक संगठन इनकी मुश्किलें दूर करने को तैयार है. प्याज टमाटर के दाम बढ़े तो लोगों ने आस्तीनें खोंच ली, शराब पर कितने टैक्स बढ़ओ कोई कुछ कहने सुनने वाला नहीं है. यू.पी. का एक लूला(टुन्डा) ४०वे से लगाकर बोतल पर गुण्डा टैक्स वसूल रहा  है, है किसी माई के लाल  में दम जो उसका दूसरा हाल भी टूटे जैसा कर दे. जवाब निगेटिव में है आज  तक उसका कोई कुछ नहीं कर पाया. देश की सरकारों को क्या कहें? साल के आखिरी दिन मुंह ऐसे सूंघ रहे थे पुलिस वाले जैसे केवड़े के रुह की तलाश में हों. दिल्ली में ५०० शराबियों को पकडऩे के बाद अपनी पीठ पर खुद घूंसे मार-मारकर ऐसे शाबासी ली जैसे आरुषि कांड का खुलासा कर लिया हो. अब पियक्कड़ों के ऊपर हो रही ज्यादतियों की एक मिसाल देखिये. बार और पब सरकार चलाने का लाइसेंस देती है. वहां जाकर आपने २,४,६ पैग धरे, उसके बाद घर जाने का नम्बर आया, आप अपनी गाड़ी से चल दिये और रास्ते में खुद पिये हुये दरोगा जी मिल गये उन्होंने आपके मुंह में मशीन घुसेड़कर बता दिया कि आप यद्यप्रमी है फिर सारी कानूनी कार्रवाई हुई. मैं देश को सारी अदालतों से गुजारिश कर रहा हूं कि इन पियक्कड़ों को कम सो कम प्राकृतिक न्याय तो जरूर दिलाये. दारू सरकार को पियें और जेल भी जायें. ये कहां का न्याय है? दारू पीके यदि गाड़ी चलाना जुर्म है तो पीने के बाद घर पहुंचाने की व्यवस्था भी सरकार की ही होनी चाहिए लेकिन कुछ ठीक करने के बजाय सारे के सारे लोग यद्यप्रेमियों के पीछे पड़े रहते हैं. इस शहर के कलेक्टर साहिब भी क्या चीज हैं लोगों से कह रहे हैं कि दारू न पियें और गरीबों को कम्बल बांटे. बात सुनने और कहने दोनों में अच्छी लग रही है लेकिन असलियत कुछ जुदा ही है इन बंटे हुये कम्बलों के बदले अधिकांश लोग दारू ही खरीद कर पी लेते हैं. बात में दम न नजर आ रहा हो तो दारू और कम्बल साथ-साथ बटवाइये फिर देखिये लाइन कहां की लम्बी है?
मि. भरोसे मंद
ये नाम है राहुल द्रविण का है. दक्षिण अफ्रीका दौरे पर २०० कैच लेने का रिकार्ड भी बनाया है. लेकिन भाई लोगों ये ४०० कैच छोड़ भी चुके हैं इसकी लिखा पढ़ी कौन करेगा?1

सोमवार, 3 जनवरी 2011

नारद डाट काम
हैप्पी न्यू इयर
कमलेश त्रिपाठी
नये साल की शुरुआत मैं बुरी खबर से करने का आदी रहा हूं और वही करने की तैयार भी है. समाचार बोस्टन विश्वविद्यालय से है. वहां के वैज्ञानिकों ने ठोस दावा किया है कि वातावरण का इन्सान के ऊपर इतना गहरा असर पड़ता है कि उसमें जेनेटिक परिवर्तन आने लगते हैं. उदाहरण के तौर पर यदि आप लम्पटों के मोहल्ले में रहते हैं तो आपकी आने वाली पीढिय़ां निश्चित तौर पर महान लम्पट होंगी. इस खबर के बाद से मेरी चिंता बढऩा स्वभाविक है. कल के कानपुर की तस्वीर जेहन में आते ही रक्त चाप अस्थिर होने लगता है. चोरों के इस शहर की आने वाली नस्ल क्या और कैसी होगी आसानी से समझा जा सकता है. इंजीनियर केडीए वाले जैसे होंगे और डाक्टर चांदनी नर्सिंग होम की गुणवत्ता धारण किये रहेंगे. विद्यालयों में शारीरिक शिक्षा के पीरियड में बलात्कार के गुण सिखाये जायेंगे. पुलिस और कोर्ट कचेहरी की बात सोच कर तो गैस खारिज होने से मना कर देती है फिर उस पर वकील साहबानों का क्या कहना? उनमें अपराधियों के गुण पनपने लगे हैं बजाय कलम के तमंचा चलाने लगे हैं. बस यही सब देखकर मुझे बोस्टन के वैज्ञानिकों की बात में दम नजर आ रहा है. अपराधियों की पैरवी करते-करते कुछ ही वर्षों में ये वकील लोग तमंचा चलाने में सिद्घहस्त हो जाते हैं. यहां एक अच्छी खबर ये है कि २,४,१० अभी ऐसे वकील हैं जिन्हें अभी भी कलम चलाने पर विश्वास है. कुल मिलाकर मुझे अब ऐसा लगने लगा है कि खबर का निर्माण किस बुरी चीज से होता है. अगर कोई चीज अच्छी है तो खबर बन ही नहीं सकती है जैसे कोई ये कहे कि पं. बद्रीनारायण तिवारी मानस संगम करवाते हैं तो लोग कहेंगे कि ये भी कोई खबर है. हां इसी जगह कोई ये बताये कि पंडित जी परसों लैंडमार्क में मुर्गे की टांगें खींच रहे थे तो लोग इस बात में मुर्गा खाने से ज्यादा लुत्फ उठायेंगे. आज लोगों को मुर्गा खाने के बजाय मुर्गा बनाने में ज्यादा आनन्द आता है. नकारात्मकता का प्रतिशत दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है. इन दिनों हर मां-बाप अपने बच्चों को इंजीनियर, डाक्टर या आई.ए.एस. बनाना चाहता है, कोई भगत सिंह आजाद या गांधी बनाने की सोंच भी नहीं सकता है. कारण साफ है उनका हाल देखा और उनके बाद में उनके परिवार का भी. अब जमाना ए.राजा और रानी (राडिया) का है. ऐसे में अगर आने वाली नस्ल में अनुवांशिक परिवर्तन की बात बोस्टन के वैज्ञानिक कर रहे हैं तो इसमें गलत क्या है?1
प्रथमपुरुष
जनसंख्या गणना की जातीय उठापटक
हमारे देश में जन संख्या गणना में जाति पूंछे जाने पर ही मतभेद पैदा हो गए हमारे समाज में जब जाति इतनी महत्वपूर्ण है तो उसे जानने या बताने में इतनी हिचक या आपत्ति क्यों. इस प्रकार तो आप पुरूष है या स्त्री पूछने पर भी आपत्ति हो सकती है लड़कियों और स्त्रियों की उम्र पूछने पर पति का नाम बच्चों की संख्या पूछने पर भी क्या-क्या छिपायेंगें. कुछ भी छिपाना हीनता की भावना आत्म सम्मान के अभाव का सूचक है. ब्राजील से कुछ सीखिये उनकी जन संख्या गणना हो रही है. २,२५००० कार्य करना विश्व के ५वें सबसे बड़े देश में घर-घर जाकर विभिन्न प्रश्न पूंछ रहे हैं उनकी कार्य प्रणाली डिजिटल है ५ करोड़ ८० लाख घरों में यह कार्य ३ माह में पूरा कर लेंगे. नक्शों एवं जन संख्या गणना के विवरण में क्षेत्र के परर्यावरण जिसमें गलियों में प्रकाश व्यवस्था, स्कूलों एवं इलाज करने के स्थानों की जानकारी भी होती है. इससे प्रशासन को प्रत्येक क्षेत्र में पायी जाने वाली सुविधाओं काी जानकारी हो जाती है. उनके यहां आई.डी.डी. कार्ड १० वर्ष पहले बट चुके हैं. जिसमें उनका नम्बर टैक्स का नम्बर बोट करने का नम्बर भी अंकित होता है. उनका नाम उनके, उनके पिता का नाम, उनका लिंग, उनके पैदा होने की जगह, उनकी फोटो उनकी फिन्गर प्रिंट उनके डिजिटल हस्ताक्षर उनका डिजिटल न: एवं आई.डी. देने की तारीख अंकित रहती है. इस जन गणना में प्रत्येक की आय, जाति, धर्म, भाषा, पर्चावरण, कार्य स्थल तक पहुचने में कितना समय लगता है शामिल किया गया है. देश में बारह से आकर बसने वालों परिवारों के नये रूप (एक लिंग के पति-पत्नी एवं एकल माता पिता) का भी विवरण लिया जायेगा. उनका कहना है इससे उन्हें अपनी नीतियां बनाने भी सहायता मिलेगी. अधिक उम्र के व्यक्तियों बढ़ते हुए एवं नये रूप के परिवारों को अधिक सुविधा देने मेें उनको यह भी जानकारी मिलेगी कि उनकी नीतियां अर्थिक एवं भौतिक विकास कर रही हैं और वे लक्ष्य प्राप्त कर रहे हैं या नहीं. सामाजिक प्रगति के कार्य में बहुत प्रभाव पड़ता है. १९९८ में गरीब परिवारों की संख्या २ करोड़ ४३ लाख से घट कर २००८ में ८९ लाख आ गयी. प्रत्येक व्यक्ति के व्यवसाय की सूचना से अच्छी नीतियाँ बनायी जा रही है. उनमें विषमता या दुहरापन नहीं आ पाता है. जिन क्षेत्रों में बिजली पानी सड़क का अभाव है उन्हें प्राथमिकता मिलती है जन संख्या की तमाम सूचानाओं का विकेन्द्री करण है उतएव जालिकायें अपनी नीतियाँ सार्वजनिक हित में बना रहे है. गरीब से गरीब आदमी सूचना देना चाहता है क्योंकि इससे उन्हें सुविधायें मिलेगी.

गरीबी रेखा में भारत और नीचे आया

देश के ८ राज्यों में ४२.१ करोड़ इस रेखा के नीचे हैं स्वास्थ्य शिक्षा एवं आय की उपलिब्धता न होना इन आकड़ों में जुड़ी है दिल्ली में १४' बिहार में ८१' अन्य राज में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश राजस्थान है. भारत में ३०' का अभाव है ४१' शिक्षा में ३१' स्वास्थ्य में अन्य विकसित देशों के मुकाबले (असमानता) महिलाओं को बराबरी का दर्जा न होने मुख्य है १३८ देशों में भारत का १२२ वां नम्बर है संसद में केवल ९' २७' माध्यमिक या उच्च शिक्षा में पुरूष ५०'. गरीबी में स्वास्थ्य, शिक्षा एवं आय के साथ महिलाओं एवं पुरूषों के विकास में असमानता भी आंकी गई. 1

चौथा कोना

खुद सुधरो फिर छेड़ो सुधार की मुहिम

दिसम्बर के आखिरी हफ्ते में पलटकर देखा जाता है बीते साल को. चौथा कोने से पलटकर देखने में २ हजार १० कनपुरिया पत्रकार के मानमर्दन का वर्ष कहा जायेगा. एक आईपीएस अधिकारी ने कानपुर प्रेस को यह सबक दिया है कि चाहे नौकरी वाले पत्रकार हों या फैक्ट्री (प्रेस) मालिक वाले पत्रकार अगर अपने गरेबान में झांके बगैर दूसरे में खोट निकालने का धन्धा करोगे तो मारे जाओगे.... तन से भी, मन से भी और धन से भी. वर्ष २०१० भी कानपुर के भोंथरे पत्रकारों के कारण नपुंसक पत्रकारिता का ही वर्ष रहा . जहां थोड़ा बहुत पुंसत्व दिखा भी वहां भी धोखा निकला. लोग समझते रहे बहादुर पत्रकारिता हो रही है. निर्बल को न्याय दिलाने का संघर्ष चल रहा है. जबकि तह में निकला एक अखबार के अहं का फंसाव और एक शातिर लम्बरदार द्वारा उगाही को रचा गया एक षडय़ंत्र...जो रपट पड़े की हर गंगे के कारण २०१० की सबसे सनसनीखेज पत्रकारिता और संघर्षशील पत्रकारिता प्रचारित हो गई.जी हां, यहां दिव्या काण्ड पर कलमकारों की भूमिका का इशारे-इशारे में जिक्र हो रहा है. पिछले दिनों मेरी कानपुर के समस्त स्थानीय सम्पादकों से मुलाकात हुई. चारो सम्पादक (दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, अमर उजाला और राष्ट्रीय सहारा) इस बात से बेहद चिन्तित और आहत मिले कि कानपुर में 'प्रेसÓ दूसरे शब्दों में मीडिया बेहद शर्मनाक स्थिति में पहुंच गया है. पत्रकारों की कोई इज्जत या हैसियत नहीं रह गई. सम्पादकों की यह चिन्ता वाजिब है. ये अखबार चाहे विश्व के नम्बर एक हों, चाहे देश के या प्रदेश के इनमें अब इतनी कूबत नहीं बची है कि ये अपने कलमकारों की ढाल या तलवार बन सके, मान लो कोई अखबार यह दायित्व निभाये भी तो बाकी के प्रतिद्विन्द्वी अखबार ढाल और तलवार दोनों को निस्तेज करने की मुहिम में लग जायेंगे. जैसा कि दिव्या काण्ड के दौरान हिन्दुस्तान की मुहिम के साथ हुआ. कानपुर में 'हिन्दुस्तानÓ के साथ जो हुआ कोई अप्रत्याशित या पहली घटना नहीं थी. ऐसा यहां तब भी होता रहा है जब शहर में खेल दैनिक जागरण और आज दो ही अखबार थे. सच्चाई तो यह है कि इन दो अखबारों की प्रतिस्पर्धा ने शहर की पत्रकारिता का माहौल चौपट कर दिया. आज ने तो अपने पत्रकारों को गुण्डों की भूमिका में सड़क पर उतार दिया था. अखबारों में सड़क छाप लफंगों और टुच्चों को शायद पहली बार 'आजÓ में ही स्थान मिलना शुरू हुआ. अब तो खैर कोई मानदण्ड है ही नहीं किसी अखबार में किसी के भर्ती होने का. साहब के गांव का सबसे बदतमीज लड़का यूनिट का सबसे प्रभावी रिपोर्टर बनता है. क्योंकि वह अखबार के पक्ष में, साहब के कक्ष में सबसे बढिय़ा दलाली जो कर लेता है. इस पर ज्यादा लिखने की आवश्यकता नहीं है... अब तो सब जगजाहिर है. हां, एक बात २०१० के समापन पर कानपुर के एक-एक पत्रकार से फिर कहूंगा कि तुम लोगों की अगर गली-गली, चौराहे-चौराहे, ऊपर-नीचे जो फजीहत हो रही है तुम सब उसके लिये पक्के जिम्मेदार लोग हो. प्रेस क्लब का चुनाव क्यों नहीं हो रहा...? २०१० भी गया. अरे, रूअंटो आंसू पोंछो. दसियो लाख डकार चुकी बेईमान समिति को कान पकड़कर प्रेस क्लब से बाहर करो. नया चुनाव कराओ. एक अच्छी और सच्ची टीम चुनो. 'प्रेस क्लबÓ के मंच को मीडिया बैनरों से दूर पत्रकारों के बैनर से लैस करो. और अगर ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हाारे लिये लडऩे का कोई दूसरा फोरम फिलहाल है नहीं. यह काम अब तभी सम्भव होगा जब शहर के सभी अखबारों के सम्पादक मन बनायेंगे. जहां तक मैं आपको बता पा रहा हूं शहर का हर सम्पादक अब निर्जीव प्रेस क्लब में प्राण फूंकने की आवश्यकता पर सहमत है. गतिविधियां शुरू करो, नौकरी नहीं जायेगी.1 प्रमोद तिवारी

रविवार, 2 जनवरी 2011

खरीबात

संकल्प के कुण्ड में भ्रष्टाचार की आहुति

प्रमोद तिवारी

कानपुर में १६ जनवरी से भ्रष्टाचार मुक्त हिन्दुस्तान बनाने के लिये लक्षचण्डी महायज्ञ शुरू होने जा रहा है. जब से यह जानकारी हुई है सोच रहा हूं कि हवन कुण्ड की आग में समिधा को फूंकने से देश का भ्रष्टाचार कैसे दूर हो जायेगा...? और अगर ऐसा सम्भव है तो भारतवर्ष में जहां तरह-तरह के साधुओं, सन्तों, महंतों, पुजारियों और प्रवचनकर्ताओं की भारी भीड़ है. वहां भ्रष्टाचार का साम्राज्य कैसे स्थापित है. सबसे पहली बात तो यह समझ लें कि जहां भी प्रदर्शन और सजावट होगी, वहीं धोखा होगा, कभी अपने अगल-बगल इस तथ्य को जांच परख कर देख लें. धर्म न तो प्रदर्शन की वस्तु है और न ही सजावट की. क्योंकि धर्म जीवन में धारण करने की संहिता है. हमारा दावा रहता है कि हमारा धर्म, हमारी संस्कृति और हमारी सभ्यता इस धरती पर सबसे पुरानी है. हमें अपनी धर्म पारायणता पर गर्व भी रहता है. फिर तो भारत को शिष्ट आचार व्यवहार में दुनिया का नेतृत्व करना चाहिए. मगर यहां तो 'भ्रष्टाचारÓ में तेजी से छलांगे लगती जा रही हैं. दुनिया में कम ही देश अब हमसे ज्यादा भ्रष्ट बचे हैं. भ्रष्टाचार में प्रगति इस कदर है कि कुछ वर्षों में हम नम्बर एक हो जायेंगे. बावजूद इसके 'लक्षचण्डी महायज्ञÓ जैसे आयोजन होते रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे. तो क्या समझा जाये... भ्रष्टाचार निवारण में धार्मिक आयोजनों और कर्मकाण्डों का कोई मानी नहीं है. फिजूल का प्रदर्शन व प्रचार है या दूसरे शब्दों मे धोखा है...? अगर यह सवाल एक दशक पहले का होता तो निसन्देह मेरा जवाब हां, में होता. लेकिन आज इस तरह के यज्ञ, कर्मकाण्ड या प्रदर्शन ही शायद अकेला रास्ता शेष है जिससे कुछ सकारात्मक बदलाव सम्भव है. विशेष रूप से 'भ्रष्टाचारÓ के प्रश्न पर. यह मेरा कोरा धार्मिक कर्मकाण्डी विचार नहीं है बल्कि सामाजिक राजनीतिक हताशा में उपजा रास्ता देता एक विचार है. धार्मिक अनुष्ठानों में, कर्मकाण्डों में और कुछ हो न हो समुदाय विशेष, जिसे आप समाज विशेष भी कह सकते हैं और सम्प्रदाय विशेष भी, उसकी आस्था होती है. यह आस्था बड़ी काम की चीज है. यह आस्था का संक्रमण ही है जो भ्रष्टाचार को खाद दे रहा है. हमारी राजनीति में आस्था नहीं रही. राजनीतिकों में आस्था नहीं रही. और कमाल यह है कि हमारे पूरे जीवन की धुरी है 'राजनीति ही. इसका क्या मतलब हुआ यही न कि हमारी जीवन चर्या में आस्था का अकाल है. शायद इसीलिये हम राजनीतिक व्यवस्था से निराश, सामाजिक नैतिकता से हताश पारिवारिक और निज स्वार्थ में ज्यादा से ज्यादा संचय, शोषण और संग्रह में लग गये, अपने हिस्से से ज्यादा दोहन किया साधन का भी और धन का भी. जिसके हिस्से से गया उसने अराजकता का दामन थामा. व्यवस्था कुल भ्रष्ट हो गई. जबकि वह भी नहीं, उसे तो बहुत सोच-विचार कर 'शिष्टÓ बनाया गया है. इसे हमने भ्रष्ट बनाया है. हम कैसे भ्रष्ट से शिष्ट हों...? जो व्यवस्थागत् साधन हैं उन्हें हम पहले ही छिन्न-भिन्न कर चुके हैं. यदि ऐसा न किया होता, संवैधानिक, कानूनी, साममाजिक नैतिकता का पालन किया होता तो भ्रष्टाचार पनपता ही नहीं. लेकिन सर पीटने से क्या.... वह तो पनप ही गया है. ऐसे में जब तक हम अपनी आत्मिक, जिसे आध्यात्मिक भी कह सकते हैं, शुचिता की बहाली नहीं करते तब तक देश भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो सकता. यह आत्मिक क्रांति (स्प्रीच्युल रिवोल्यूशन) कैसे सम्भव हो?कोई सन्त, जिसमें लोगों की आस्था हो और उस संत की राष्ट्रीय आत्मा हो तो यह काम हो सकता है. बाबा राम देव के योग शिविर अगर लक्षचण्डी महायज्ञ जैसे आयोजन और कर्मकाण्ड राष्ट्रीयबोध से जुड़ जाएं तो यहां जुटने वाले लोग पुण्य बटोरने के चक्कर में शायद कुछ भ्रष्ट आचरण यज्ञकुण्ड में स्वाहा कर जाएं, नया संकल्प ले लें भ्रष्टाचार निरोध का. लेकिन यह होगा तब ही जब भ्रष्ट श्रद्धालु पुण्य बटोरने किसी शिष्ट सन्त की शरण में होंगे. वैसे भ्रष्टाचार को मिटाने का काम तो देश के नेताओं का था इसमें साधु-महात्माओं का क्या काम, लेकिन जब राजनीति भ्रष्ट होती है तो धर्म को आगे आना होता है.1

नमस्ते दो हजार दस
मुख्य संवाददाता
सन दो हजार दस पानी बिजली और सड़क की मूलभूत जरूरतों, स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं तथा सुरक्षा के नाम पर हर आम या खास कनपुरिये के मुंह से बस यही कहला गया कि बस 'बस अब बसÓ भी करो. पूरे साल जिम्मेदारों के गैरजिम्मेदार आश्वासन ही मिलते रहे, हर जिम्मेदार आदमी ने चाहे वो नेता हो,पुलिस हो, प्रशासनिक अधिकारी हो, या फिर व्यवस्था से जुड़ा कोई और जिम्मेदार, हर एक ने वो सब तो जरूर किया जो उसे नहीं करना चाहिये था पर ऐसा या वह कुछ भी नहीं किया जिसको करना उसका नैतिक और व्यवस्थाई कर्तव्य था. जनता को मौके बेमौके अपना सब कुछ बताने वाले जनप्रतिनिधियों ने जनता की सेवा के बजाय उनका उपभोग और उपयोग ही किया. प्रशासनिक अधिकारियों ने जनता की सुनने और उसको संरक्षण देने के बजाय बस अपने मन की की और अपनी जेबें भरीं.आम लोगों की सुरक्षा के लिये बनाई गई पुलिस ने पूरे साल पुलिस बस खासमखास लोगों की सेवा में ही मन लगाये रखा यहाँ तक तो गनीमत थी लेकिन रक्षक कही जाने वाली पुलिस ही भक्षक बनकर शहर की मासूम बच्चियों वन्दना, कविता, दिव्या, के साथ बलात्कार करने वालों को बचाने के लिये पूरी मीडिया, लोकतांत्रिक व्यवस्था और कानून व्यवस्था के साथ छल प्रपंच और बलात्कार करती रही और बाकी का सारा तंत्र और लोकतान्त्रिक खम्भे अपनी मौन सहमति के साथ सब होता देखते रहे. ऐसे में मीडिया ने बीच बीच में जब कभी मुहिम चलाने की कोशिश की तो उसे पुलिस और प्रशासन की नाराजगी और दमन चक्र का सामना करना पड़ा.खास तौर पर सुरक्षा-सुरक्षा ही वह मूल है जो जंगल और शहर में अंतर करती है. पूरे साल शहर में चोर उचक्कों, चैन स्नेचरों, बदमाशों, ठगों और दबंगों ने तो राज किया ही पुलिस अपनी मौजूदगी का एहसास भी नहीं करा सकी. कल्याणपुर में रिटायर्ड सिपाही अशोक दुबे का घर साफ हुआ हो, स्वरूप नगर में बैंक मैनेजर की पत्नी की चैन छिनी हो, दादानगर पनकी में फैक्ट्री मालिक की लूट हुयी हो या पूरे शहर में लाइन कम्पनी के नाम पर करोड़ो की ठगी, पुलिस का काम टालमटोली के बाद बस एफ आई आर लिखने तक ही सीमित रहा. इतनी वारदातें हुईं कि पुलिस लौटकर दुबारा पीडि़त के घर तक नहीं गयी. व्यापारियों के झोले छिनने और महिलाओं के गले से चैन छिनने से शायद ही कोई मोहल्ला अछूता बचा हो.अस्पताल, स्कूल, घर, बाजार, कोई जगह नहीं बची जहां मासूम कविता और दिव्या को हैवानों ने अपना शिकार न बनाया हो, और पुलिस शर्मनाक ढंग से ऊपर के दबाव या सिक्कों की खनक के चलते दल्ले की भूमिका में न उतरी हो. दादानगर पनकी में तो लोडर में लोड माल को खुद पुलिस दरोगा ने ही लूट लिया. पूर्व पुलिस कप्तान (डी आई जी) शहर में मीडिया को भी एक सीख दे गये कि अपना आचरण ठीक रखो वरना एक होमगार्ड ही तुमको ठीक कर देगा. घटनाओं के खुलासे में पुलिस की रही सही पोल भी खुल गई. दो नवम्बर को गीतानगर निवासी ज्वैलर्स शैलेन्द्र की बिल्हौर में दिनदहाड़े हुयी लूट की घटना का खुलासा बदमाशों द्वारा किराये पर ली गई गाड़ी के मालिक ने स्वयं चार नवम्बर को डी आई जी से इस घटना के बारे में खबर कर दी थी. सब बदमाश चिन्हित हो गये थे. लेकिन पुलिस करीब डेढ़ महीने बाद छब्बीस दिसम्बर को बेमन से रेडमारती है और केवल एक मास्टर माइन्ड पकड़ पाती है. कन्नौज के बाकी बदमाश फरार हो जाते हैं. यह है पुलिस की कार्यप्रणाली कहां एस ओ जी, एस टी एफ, नो एन्ट्री में बीस रूपये में ट्रक की एन्टी न पूरे शहर को नरक बना दिया और दर्जनों काल कवलित हो गये. दो सौ रूपये घंटे वाले मिलन केन्द्र फास्टफूड सेन्टर और रेस्टोरेन्ट के नाम पर पूरे शहर में खुलेआम वैश्यावृत्ति कराते रहे और पुलिस महीना वसूलती रही. चिडिय़ाघर रोड और बिठूर से अगर यह भागये गये तो रावतपुर में मंदिर के पास से लेकर पनकी स्वरूपनगर सब जगह यह कुकुरमुत्तों की तरह से उग आये है. हत्था, हत्थायुक्त डकै ती, दबंगई से गोली बारी, जबर्दस्ती मकान दुकान खाली करा लेना कहीं से भी हमको खाकी की मौजूगी का एहसास दो हजार दस में नहीं दिला सका. हर शहरी के मुंह से यही निकला बस अब बस.सड़कजे एन यू आर एम की योजना में पूरा शहर हड़प्पा काल में पहुंच गया. सड़कों की ऐसी खुदाई हुई कि लोगों को खुदाई याद आ गई. रायपुरवा अनवरगंज के तो मकानों की नीव ही दरक गई और छतें चटक गई. बगैर प्लानिंग ट्रैफिक कन्र्वजन और समयबद्घ योजना के काम करने का नतीजा यह है कि पूरा शहर खुदा है, जहां लाइन पड़ गयी है वहां आगे काम नहीं है. एव वर्ष पहले सीवर लाइन पड़ गयी थी, बरसात निकल गयी. नया साल आ गया, अभी सड़क बनने का मूर्हूत नहीं आ पाया है बनने वाली सड़कों के इर्द-गिर्द नाली न बनने का नतीजा यह है कि एक बरसात में ही सड़क नाली बन कर बह जाती है और फिर गड्ढा और खडंजा बचता है. नाली बनती है तो अतिक्रमण का शिकार हो जाती है. गुरूदेव पैलेस से चिडिय़ाघर और कल्याणपुर क्रासिंग से पनकी जाने वाली दो अच्छी सड़के शहर की इस बार मिली है, जो जमाने से चलने लायक नहीं थी. लेकिन नालियों का अभाव और फुटपाथ पर कब्जा अगर नगर निगम ने न रोका तो यह सड़के इतिहास बन जायेंगी.पेयजलपानी के लिये गंगाबैराज पूरे साल केवल प्रेमी युगलों के डूबने के काम आता रहा. पेयजल की पूर्ति के लिए अभी पाइपलाइनों के पडऩे और वाटर सैनिटिंग सिस्टम के ठप्प रहने से पूरे साल दो चार रोना पड़ा. सब सर्मसेबिल पम्प बगैर वैध बिजली मीटर के चलते कई बार कनेक्शन काटे गये. स्वच्छ पेयजल अभी सपना बना हुआ है. जरौली बर्रा से आवास विकास तक दर्जनों पानी की टंकियां ठूंठ बनी खड़ी हैं. इन पर करोड़ों की लागत आयी थी. जल निगम और जिला प्रशासन इन्हें चालू करने और पाइप लाइन से जोडऩे में पूरे साल कोई उल्लेखनीय काम नहीं कर सका. पत्रकारपुरम में पानी की लाइनों की खुदाई में पता चला कि पाइप पड़े ही नहीं हैं आधी जगहों में. अब ऐसे में टंकी कैसे घरों तक पहुंचाये पानी.शिक्षा-देश की शान आईआईटी कई नये प्रोजेक्टों और उपलब्धियों के साथ जहां गर्व से सर ऊपर कर रहा था मेधावी छात्र छात्राओं द्वारा तनाव के चलते आत्महत्या से भी कराहता रहा पूरे साल. खराब रिजल्ट के चलते कुछ छात्र निकाले भी गये और उसकी गूंज कपिल सिब्बल तक पहुंची. मेडिकल कालेज के डाक्टर, कन्नौज के मेडिकल कालेज की मान्यता एमसीआई से बचाने के लिये सालभर शन्टिंग करती रही. एक और रामा कालेज अपने छात्रों के साथ धोखाधड़ी के आरोप में घिरा रहा. इंजीनियरिंग कालेजों की थोक बाजार में कैम्पस प्लेसमेंट कम, इश्तहार बाजी ज्यादा होती रही. नये कालेजों पर रोक से पहले ही एक्सिस ग्रुप ने शहर में अपनी जोरदार धमक दिखायी. कुछ और कालेज भी ग्यारह में तैयार हो जायेंगे.बीएड परीक्षा बीरबल की खिचड़ी बन गई जो हाईकोर्ट, शासन, विश्वविद्यालय के बीच छात्रों को तीन साल से झुला रही है. बगैर मान्यता के ग्यारहवीं बारहवीं की कक्षाएं चला रहे विद्यालयों पर कोई लगाम इस साल भी नहीं लग सकी. सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में डाक्टरों की तरह टीचरों के न जाने का भी महीना बंधना जारी रहा. साल खत्म होते-होते सीएसए के प्रोफेसर और कर्मचारियों को बकाया वेतनभत्ते खुशबू की भांति हवा में तैर गयी.स्वास्थ्यस्वास्थ्य सेवाओं में एक तरफ कानपुर विदेशों में टूरिस्ट हब के रूप में डेवलप हो रहा है और पूरे एशिया नहीं यूरोप से भी लोग अपने देश की तुलना में कानपुर में अच्छे सस्ते इलाज के लिये आ रहे हैं तो दूसरी तरफ अस्पताल के गट पर सड़क पर और बरामदे में औरतें बच्चा जन रही हैं. सरकार की जननी सुरक्षा योजना को सफल बनाने में अपने नाम का योगदान देने आयी गर्भवती स्वास्थ्य मंत्री के जिले में लूटपाट का शिकार हो रही हंै. इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता, सरकारी अस्पतालों को इस वर्ष सबसे ज्यादा मदद मिली, रामादेवी में कई करोड़ से बनने वाला सौ शैय्या अस्पताल ग्यारह में बनकर तैयार हो जायेगा और उर्सला हैलट में लगाकर सीएचसी, पीएचसी भी नये रंगरोगन में सजधजकर तैयार हो रहे हैं. लेकिन तीन-चार माह पहले जब सात शहर चिकनगुनिया, डेगू और स्वाइन फ्लू की चपेट में था तब बड़े नर्सिंगहोमों से सरकारी अस्पतालों तक हाउसफुल का बोर्ड लगा था। और मरीज आटो रिक्शा लिये एक अस्पताल से दूसरे के गेट पर दौड़ते दम तोड़ते रहे थे.पूरे शहर के ब्लड बैंकों की हालत तो और ज्यादा खराब है. नकली-प्रदूषित और पेशेवर रक्तदाताओं का खून दोगुने चौगुने दामों में बिक रहा है. सरकारी डाक्टरों के महीना बांधकर नर्सिंग होमों में इलाज करने के बदले में झोलाछाप भी महीना बांधकर ग्रामीण क्षेत्रों में इलाज कर रहे हैं.बिजलीबिजली पूरे साल कनपुरियों को चिढ़ाती रही और बगैर आये करेंट मारती रही. गर्मी की कटौती ने सब रिकार्ड तोड़ दिये और इसी के साथ केसा की अवैध वसूली के रिकार्ड. कैस्को को टारन्ट के हाथों में ट्रान्सफर होने की प्रक्रिया इस वर्ष शुरू हो गयी. इस पर सवाल-जवाब खूब हुये. कर्मचारियों ने हायतौबा खूब मचायी. लेकिन नतीजा कुछ नहीं हाथ आया. बिजली कटौती पर शहरी खूब चिल्लाये और राजनैतिक दलों ने भी खूब हाय तौबा मचायी. कभी महाना ने मोमबत्ती लेकर धरना दिया तो कभी इरफान सोलंकी खटिया डालकर लेटे, कभी ज्ञानेश मिश्र ने मेहमानों कानपुर न आना.... की पट्टी दिखाई तोकभी महेश दीक्षित, संजीव दरियावादी ने कैस्को का पुतला फूंका.लेकिन चालीस लाख की आबादी में सारे राजनैतिक दल निजी दलीय स्वार्थीयों की छोड़कर कभीएक साथ मिलकर चार हजार आदमी नहीं इक्ठठा कर सके. अगर करते शायद तो बिजली में होता कुछ सुधार. ए बी सी कन्डेक्टर लाइन डालकर विभाग बिजली चोरी रोकने में कुछ प्रयास करता दिख रहा है लेकिन खराब ट्रंासफर और ऊपर से कटौती ने पूरे साल करेन्ट मारकर झूल सका. कुल मिलाकर पिछले तमाम वर्षों की तरह इस ठिठुरती ठंड में यह साल सन् २०१० भी ठंडी अलविदा कर गया और ठंड भरे सत्कार के साथ २०११ हमारे जीवन में आ गया. इस उम्मीद के साथ कि भले ही २०११ ने हमारा स्वागत सर्दगोई से किया हो लेकिन यह नया साल पुराने साल की तरह म से कम आफत भरा तो नहीं होगा.1