शनिवार, 22 जनवरी 2011

खरीबात

या तो बलात्कार करो या करवाओ...

शीलू पर अत्याचार हुआ है. एक गरीब किशोरी बलात्कार का शिकार हुई है. शिकार भी किसी और की नहीं उसकी जिसने गरीब असहायों और आमजन की सेवा की कसमें ली थीं. इस सेवा भाव के बदले सरकार उसे वेतन देती है. इसतरह सत्ताधारी विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी वेतनभोगी 'बलात्कारीÓ हुए. आज कल बहन जी पुरुषोत्तम द्विवेदी पर तेजाब बरसा रही हैं. उसे अपराध की कठोर से कठोर सजा दिलाने का डंका बजा रही हैं लेकिन कोई इनसे पूछे कि इस पुरुषोत्तम द्विवेदी को विधायक बनाने से पहले उन्होंने इस व्यक्ति में क्या काबिलियत देखी थी. क्या यह 'बसपाÓ के लिए अपना जीवन लगा देने वाला कार्यकर्ता था. या फिर क्षेत्र का प्रतिष्ठित जुझारू समाजसेवी था या बांदा जिले में उसकी ईमानदारी या बौद्घिक क्षमताओं का बड़ा मान-सम्मान था. क्या सोचकर इसे टिकट दिया गया था. ऐसे ही सत्तापक्ष के और भी कई विधायक हत्या, बलात्कार और अन्य जघन्य अपराधों में जेल के पीछे हैं. इन सारे लोगों ने बसपा से 'टिकटÓ खरीदा था. ये दुस्परिणाम गैरराजनीतिक मन और मस्तिष्क के लोगों को विधायक व सांसद का पद बेचने के कारण है. अभी २ हजार १२ के लिए भी विभिन्न चुनाव क्षेत्रों से बसपा ने अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है. इसी घोषणा में एक नाम कानपुर सीसामऊ विधान सभा क्षेत्र से भी है. इस क्षेत्र से 'फहीम अहमदÓ को प्रत्याशी बनाया गया है. फहीम अहमद कतई राजनीतिक व्यक्ति नहीं है.  एक समय पूरे उत्तर भारत की सर्वाधिक खूनी रंजिश के कारण वह दहशत के पर्याय थे. फहीम के नाम से यह शहर एक अरसे तक थर्राया है. वक्त ने फहीम को बदला. आज वह शांत हैं. अपनी अपराधिक छवि से काफी हद तक बाहर भी आ गये हैं. लेकिन वह 'बसपाÓ की नीतियों-रीतियों वाले हैं. जबकि पहले वह सपा और कांग्रेस में भी शुमार किये जा चुके हैं.  उन्हें अपनी 'सेहतÓ के लिए 'सत्ताÓ चाहिए ही चाहिए. किसी भी ऐसे का ताकत में आना किसी दलित उद्घारक का ताकत में आना कतई नहीं है. फिर इसतरह के लोगों को टिकट देने के पीछे बसपा की क्या सोच है..? दरअसल मायावती नीत बसपा ने दलितों की आंखे खोलकर उन्हें खंदक की और दौड़ा दिया है. यही काम पिछड़ों को एक जुट करके मुलायम ने किया. नतीजा समाने है केवल यादव ही अब मुलायम को मानें तो मानें वरना जातीय व साम्प्रदायिक गणित के जोड़ा-घटाने का ही नाम रह गया है समाजवादी पार्टी. कांग्रेस और भाजपा तो प्रथम दोषी हैं ही. इनकी सामंती राजनीति के खिलाफ ही जन तिलमिलाहट ने मायावती और मुलायम सिंह को कुर्सी दी थी.  जनता के बीच से निकले इन गरीब और पीडि़त व्यक्तिओं को तो अपनों का दर्द समझना चाहिए. लेकिन इन दोनों ने अभी तक उसी तबके को आहत किया है जो इनके स्वागत में गांधी परिवार और संघ परिवार त्याग कर आया था. आज इन दोनों नेताओं की कार्यशैली पूर्व सामंतों से भी ज्यादा घातक और निष्ठुर है. एक तरह से बेहद निराशा जनक क्रांति रही यह.
बसपा का जन्म और सत्ता में आना क्रांति ही तो है. मुलायम का पार्टी बनाना और पावर में आना क्रांति ही तो है लेकिन जब नियत में खोट हो तो कोई भी क्रांति एक षडय़ंत्र साबित होती है.
जैसा कि आज उत्तर प्रदेश में हो रहा है.  कितनी गंदी बात है कि सीट निकालने के और  धन उगाहने के चक्कर में राजनीतिक दल छांट-छांट कर गुंडो, लम्पटों और भ्रष्टाचारियों को टिकट देते हैं. और जब ये लोग सर से पांव तक   'गूं ' से  सने मिलते हैं तो कहते हैं कानून 'सजा देगा. इनसे पार्टी का कोई लेना देना नहीं.1
 

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