शनिवार, 8 जनवरी 2011

चौथा कोना

इसीलिये तो गुनाहों से नहीं है तौबा
चलो २०१० के जाते-जाते और २०११ के आते-आते शहर ने जाना भी और माना भी मीडिया की ताकत को और उसकी भूमिका को भी. दिव्याकाण्ड में बेकसूर मुन्ना की रिहाई और हत्यारे बलात्कारी तक कानून के हाथ शायद सम्भव न हो पाते अगर 'हिन्दुस्तानÓ अखबार ने दिव्या के साथ हुये कुकृत्य के बाद पुलिस की लीपापोती को अपनी अना से न जोड़ लिया होता. जब डीआईजी प्रेम प्रकाश का तबादला हुआ तो कुछ अखबार वालों ने इसे दिव्या के साथ न्याय मान लिया. यह भी कहा कि मीडिया जीत गया. लेकिन हिन्दुस्तान के सम्पादक विश्वेश्वर (स्थानीय) नहीं माने. उनका दर्द था कि हम इतना भिड़कर भी कुछ नहीं कर पाये. तबादला न कोई सजा होती है और न ही दिव्या काण्ड में बलात्कारी के बराबर दोषी पुलिस का कुछ बिगड़ा. अब जबकि मुन्ना जेल से रिहा हो चुका है. अपराधी कानून के शिकंजे में है तो निश्चित ही इस जंगी सम्पादक की छाती को कुछ ठंडक पहुंची होगी. लेकिन एक पत्रकार के नजरिये से दिव्याकाण्ड की अखबारी मुहिम अभी पूरी नहीं हुई है. शहर के अखबारों ने दिव्या के साथ हुये दुष्कर्म में पुलिस कार्रवाई को मुद्दा बनाया था. आवाज उठायी थी कि पुलिस अभियुक्तों के साथ मिलकर काम कर रही है और यह मुद्दा अभी बाकायदा जिन्दा है. क्योंकि जिन पुलिसवालों ने तथ्यों को छुपाने, न$जरअंदाज करने या उसे तोडऩे मोडऩे की कोशिश की वे अभी भी सजा के दायरे से बाहर हैं. दिव्या की मां ने बार-बार कहा था कि उसे धमकियां मिल रही हैं...धमकियां देने वालों में जो नाम आये थे उनमें पुलिस के लोग भी थे. इन सरकारी 'बाराहोंÓ का कुछ नहीं हुआ है जबकि दोषियों तक पहुंचने में इतने विलम्ब और हाय-तौबा के असली कारण ये लोग ही हैं. अखबारों को अब इनके पीछे पड़ जाना चाहिये. इनका कुछ बिगड़े न बिगड़े लेकिन इन्हें 'ता-उम्रÓ यह सबक तो मिल ही जाना चाहिये कि केवल 'साहबÓ को सेट कर लेने से जो जी में आयेगा पुलिस कर लेगी ऐसा नहीं है. और भी लोग हैं जो देख रहे हैं. मीडिया भी उन्हीं और लोगों में है. मीडिया के दम के साथ-साथ दिव्या की मां सोनू भी दम-खम वाली महिला निकली. अपनी बेटी के लिये तो कोई भी जान लड़ा सकता है. लेकिन इस महिला ने गरीब मुन्ना के पक्ष में जो एड़ी रगड़ी वह छोटी बात नहीं है. न्याय का असली झरना तो वहीं से फूटा है. हमारी न्याय व्यवस्था की जान बसती है निर्दोषों में. भारतीय कानून न्याय करते वक्त यह ध्यान रखने का वचन देता है कि चाहें सौ गुनहगार छूट जाएं लेकिन किसी बेगुनाह को स$जा नहीं होनी चाहिये. इतने भयंकर दबाव और उत्पात के बीच एक महिला का मीडिया के सहारे अन्तिम क्षण तक टिके रहना बताता है कि अगर मीडिया चाहे तो हर गरीब, असहाय और निर्बल को पहाड़ उठाने जैसा बल दे सकता है. न्याय को न्याय बना सकता है. मेरा एक शेर है:-


'इसीलिये तो गुनाहों से नहीं है तौबा,


सजा किसी की मगर काटता है और कोई.Ó

नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ अपने प्रिय पत्रकार दोस्तों से अगले सप्ताह तक की विदा लेता हूं. तब तक के लिये चौथा स्तम्भ जिन्दाबाद.1

प्रमोद तिवारी

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