रविवार, 2 जनवरी 2011

खरीबात

संकल्प के कुण्ड में भ्रष्टाचार की आहुति

प्रमोद तिवारी

कानपुर में १६ जनवरी से भ्रष्टाचार मुक्त हिन्दुस्तान बनाने के लिये लक्षचण्डी महायज्ञ शुरू होने जा रहा है. जब से यह जानकारी हुई है सोच रहा हूं कि हवन कुण्ड की आग में समिधा को फूंकने से देश का भ्रष्टाचार कैसे दूर हो जायेगा...? और अगर ऐसा सम्भव है तो भारतवर्ष में जहां तरह-तरह के साधुओं, सन्तों, महंतों, पुजारियों और प्रवचनकर्ताओं की भारी भीड़ है. वहां भ्रष्टाचार का साम्राज्य कैसे स्थापित है. सबसे पहली बात तो यह समझ लें कि जहां भी प्रदर्शन और सजावट होगी, वहीं धोखा होगा, कभी अपने अगल-बगल इस तथ्य को जांच परख कर देख लें. धर्म न तो प्रदर्शन की वस्तु है और न ही सजावट की. क्योंकि धर्म जीवन में धारण करने की संहिता है. हमारा दावा रहता है कि हमारा धर्म, हमारी संस्कृति और हमारी सभ्यता इस धरती पर सबसे पुरानी है. हमें अपनी धर्म पारायणता पर गर्व भी रहता है. फिर तो भारत को शिष्ट आचार व्यवहार में दुनिया का नेतृत्व करना चाहिए. मगर यहां तो 'भ्रष्टाचारÓ में तेजी से छलांगे लगती जा रही हैं. दुनिया में कम ही देश अब हमसे ज्यादा भ्रष्ट बचे हैं. भ्रष्टाचार में प्रगति इस कदर है कि कुछ वर्षों में हम नम्बर एक हो जायेंगे. बावजूद इसके 'लक्षचण्डी महायज्ञÓ जैसे आयोजन होते रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे. तो क्या समझा जाये... भ्रष्टाचार निवारण में धार्मिक आयोजनों और कर्मकाण्डों का कोई मानी नहीं है. फिजूल का प्रदर्शन व प्रचार है या दूसरे शब्दों मे धोखा है...? अगर यह सवाल एक दशक पहले का होता तो निसन्देह मेरा जवाब हां, में होता. लेकिन आज इस तरह के यज्ञ, कर्मकाण्ड या प्रदर्शन ही शायद अकेला रास्ता शेष है जिससे कुछ सकारात्मक बदलाव सम्भव है. विशेष रूप से 'भ्रष्टाचारÓ के प्रश्न पर. यह मेरा कोरा धार्मिक कर्मकाण्डी विचार नहीं है बल्कि सामाजिक राजनीतिक हताशा में उपजा रास्ता देता एक विचार है. धार्मिक अनुष्ठानों में, कर्मकाण्डों में और कुछ हो न हो समुदाय विशेष, जिसे आप समाज विशेष भी कह सकते हैं और सम्प्रदाय विशेष भी, उसकी आस्था होती है. यह आस्था बड़ी काम की चीज है. यह आस्था का संक्रमण ही है जो भ्रष्टाचार को खाद दे रहा है. हमारी राजनीति में आस्था नहीं रही. राजनीतिकों में आस्था नहीं रही. और कमाल यह है कि हमारे पूरे जीवन की धुरी है 'राजनीति ही. इसका क्या मतलब हुआ यही न कि हमारी जीवन चर्या में आस्था का अकाल है. शायद इसीलिये हम राजनीतिक व्यवस्था से निराश, सामाजिक नैतिकता से हताश पारिवारिक और निज स्वार्थ में ज्यादा से ज्यादा संचय, शोषण और संग्रह में लग गये, अपने हिस्से से ज्यादा दोहन किया साधन का भी और धन का भी. जिसके हिस्से से गया उसने अराजकता का दामन थामा. व्यवस्था कुल भ्रष्ट हो गई. जबकि वह भी नहीं, उसे तो बहुत सोच-विचार कर 'शिष्टÓ बनाया गया है. इसे हमने भ्रष्ट बनाया है. हम कैसे भ्रष्ट से शिष्ट हों...? जो व्यवस्थागत् साधन हैं उन्हें हम पहले ही छिन्न-भिन्न कर चुके हैं. यदि ऐसा न किया होता, संवैधानिक, कानूनी, साममाजिक नैतिकता का पालन किया होता तो भ्रष्टाचार पनपता ही नहीं. लेकिन सर पीटने से क्या.... वह तो पनप ही गया है. ऐसे में जब तक हम अपनी आत्मिक, जिसे आध्यात्मिक भी कह सकते हैं, शुचिता की बहाली नहीं करते तब तक देश भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो सकता. यह आत्मिक क्रांति (स्प्रीच्युल रिवोल्यूशन) कैसे सम्भव हो?कोई सन्त, जिसमें लोगों की आस्था हो और उस संत की राष्ट्रीय आत्मा हो तो यह काम हो सकता है. बाबा राम देव के योग शिविर अगर लक्षचण्डी महायज्ञ जैसे आयोजन और कर्मकाण्ड राष्ट्रीयबोध से जुड़ जाएं तो यहां जुटने वाले लोग पुण्य बटोरने के चक्कर में शायद कुछ भ्रष्ट आचरण यज्ञकुण्ड में स्वाहा कर जाएं, नया संकल्प ले लें भ्रष्टाचार निरोध का. लेकिन यह होगा तब ही जब भ्रष्ट श्रद्धालु पुण्य बटोरने किसी शिष्ट सन्त की शरण में होंगे. वैसे भ्रष्टाचार को मिटाने का काम तो देश के नेताओं का था इसमें साधु-महात्माओं का क्या काम, लेकिन जब राजनीति भ्रष्ट होती है तो धर्म को आगे आना होता है.1

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