शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

aaj ki gazal

ताउम्र बस यही तो सोचता रहा हूँ मैं ,
किस- किस की मज़िलों का रास्ता बना हूँ मैं.

शायद निकल पाऊँगा  खारों के बीच से,
खुशबू तेरे अहसास  के नीचे दबा हूँ मैं.

कश्ती  के रुख से मैं नहीं वाकिफ ये झूठ है,
दरिया से दूर हूँ तो क्या आखिर हवा हूँ मैं .

बरसूँगा कभी आज जो बरसा नहीं तो क्या,
अक्सर मुझे लगा है के शायद घटा हूँ मैं.

महसूस हो रहा है मेरा जिस्म मुझे क्यों ,
क्या तोतली जुबान में कुछ कह गया हूँ मैं.

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

aaj ki gazal

ये जहाँ पहले उसे यूँ याद कर लेता तो था ,
वो धुंएँ के साथ थोड़ी रोशनी    देता तो था.

झील में खिलते कँवल पर भोर की अंगड़ाइयां,
मैंने ये मंज़र किसी की आंख में देखा तो था.

लाख था दुश्मन  मगर ये कम नहीं था दोस्तों ,
बद्दुआओं के बहाने नाम वो लेता तो था .

वक्त है जो आज मेरी प्यास अनजानी लगी,
यूँ तो मैं दरिया तेरी लहरों के संग खेला तो था.

मैं यहाँ पर किस तरह हूँ ये बताने के लिए ,
एक  टूटा पर तुम्हरे सामने फेंका तो था.

और अपनी नींद की खातिर मैं क्या क्या बेचता ,
इक सुनहरा ख्याब कल की रत फिर बेंचा तो था.
     by pramod tewari

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

मीडिया, बंगला और शिक्षा इस शहर की कशमीर समस्या है

  कल कानपुर के डीआईजी के सामने एक छात्रा  ने डी  ऐ वी ट्रस्ट के सचिव नागेन्द्र स्वरुप  की लिखित शिकायत की. शिकायत थी बंगाली लड़की के प्रवेश के लिए पैसे मांगने की , भ्रष्टाचार की . उस समय शहर  के हर अखबार के रिपोर्टर  डीआईजी आफिस में  मौजूद  थे. सबने छात्रा की फोटो खींची , बयांन  लिए लेकिन आज सुबह के किसी भी अख़बार में एक लाइन नहीं छापी. एक बार फिर साबित हुआ कानपुर का मीडिया  बंगले का बिकाऊ है...? मीडिया, बंगला और शिक्षा इस शहर की कशमीर समस्या है ...? लड़की का नाम है - लिजा बनर्जी.  इस लड़की  की शिकायत लेकर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय कार्य समिति सदस्य  संतोष द्विवेदी डीआई जी के पास गए थे .  अपने साथ दो दर्जन नेताओं को भी साथ ले गए थे. ये लड़की हफ्ते भर से  भटक रही है. उसे फोन पर लगातार धमकियाँ मिल रही  हैं. कुछ  नहीं हो पा  रहा .                                            हेलो संवाददाता

बुधवार, 13 जुलाई 2011

'तीसरा' प्यार का अभिशाप


प्यार की सबसे बड़ी मुसीबत है अधिकार. प्यार हुआ नहीं कि अधिकार ने हाथ बढ़ा दिया. एक लड़के को लड़की से प्यार हो जाता है. लड़की भी लड़के के प्यार में डूब जाती है. दोनों को जैसे ही अपने-अपने प्यार की आश्वस्ति होती है लड़का चाहता है कि अब लड़की सिर्फ उसे ही प्यार करे और लड़की भी कुछ अलग नहीं चाहती. वह भी यही चाहती है कि उसका प्रेमी अब किसी को नज़र उठाकर भी न देखे. दोनों जब तक ऐसा करते हैं उन्हें प्यार से कोई शिकायत नहीं रहती है. लेकिन जैसे ही प्यार में किसी तीसरे का प्रवेश होता है प्यार टूट जाता है. यह तीसरा क्या है? यह तीसरा ही है जो दोनों को यह एहसास कराता है कि तुम सिर्फ एक-दूसरे के लिये नहीं हो. कोई और भी है, तुम्हारे लिये. ये जो तीसरा है यही तो प्रवाह है प्यार का. फिर चौथा है... पांचवा है... छठा है... और यह सिलसिला अनंत है. इसमें अनंतो-अनंत प्रेम कथाओं का अनंत प्रवाह है.... ऐसे में प्यार सिर्फ दो शरीरों में बंधकर कैसे रह सकता है. इसलिये प्यार को जब भी सोचो शरीर को हटाकर सोचो. तुम्हें अनंतो-अनंत प्रेम कथाओं की अथाह प्रेमाभूति होगी. लेकिन मुसीबत यह है कि हमें बिना शरीर के प्रेम करना ही नहीं आता. इसीलिये 'तीसरा' प्यार का अभिशाप है.
प्रमोद तिवारी

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

दिल्ली, बाई-ट्रेन

मेरी दिल्ली जाने की तैयारी थी। न जाने कहाँ से मैने यह बात दुनिया लाल को बता दी। दुनिया लाल मेरे मित्र हैं। उन्होंने पूछा, 'काहे से जा रहे हो...?' मैंने बता दिया, बाई-ट्रेन। बस, फिर क्या था... पूरा इलाका जान गया कि मैं बाई-ट्रेन दिल्ली जा रहा हूँ।
मैं दूध लेने निकला था। चौराहे पर पन्ना लाल पनवाड़ी के पास रुक गया। उन्होंने एक जोड़ा पान मेरी ओर बढ़ा दिया। मैं पान दबाकर आगे बढऩे ही वाला था कि वह बोले, 'भैया! सुना है, आप बाई-ट्रेन दिल्ली जा रहे हो।' मैने कहा, 'हाँ ! लेकिन तुम्हें कैसे पता ...?'  वह बोले 'दुनिया लाल आये थे। कह रहे थे उन्होंने आपको बहुत समझाया... लेकिन आप माने ही नहीं।... क्या बात हो गई? जो आप बाई-ट्रेन दिल्ली जा रहे हो...?'  मैं इसके पहले भी दुनिया लाल की दोस्ती से कई बार मुसीबत में पड़ चुका था। इसलिए कुछ कहे बगैर मक्खन सिंह की दुकान की ओर बढ़ गया।
मक्खन सिंह मानो मेरा ही इंतजार कर रहे थे। देखते ही चहक उठे, 'सुना है आप कौनो मंजन वाली अंताक्षरी में भाग लेने दिल्ली जा रहे हो बाई-ट्रेन?'  मैने कहा 'ये सब तो ठीक है लेकिन तुम्हें कैसे पता...?'  मक्खन ने बताया 'दुनिया लाल आये थे कह रहे थे। जिन्दगी में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि आदमी जरा-जरा सी बात में बाई-ट्रेन दिल्ली जाने लगे।' मैं झुल्ला गया... अमां दिल्ली जाना है। बाई-ट्रेन न जाऊँ  तो क्या स्कूटर स्टार्ट कर दूं...? फिर लगा मक्खन से उलझना बेकार है। जो कहना है दुनिया लाल से कहूंगा। मैं दुनिया लाल के घर की ओर लपक लिया। रास्ते में चचा राम केवल अपना सेलून खोल चुके थे। मैने सोंचा कटिंग करा लूं। सो, कुर्सी पर बैठ गया। चचा ने खटखटाई और शुरू हो गए।...'अखबार की खबर थी कि अटल जी दिल्ली-लाहौर बस चलवा रहे हैं।...' हाँ, मैने सहमति में अपना सिर हिला दिया। चचा का हौसला बढ़ा। वह बोले, 'फिर आप क्यों बाई-ट्रेन दिल्ली जा रहे हो...? दुनिया लाल की आप न माने लेकिन अटल जी का इशारा तो समझें...।'  मैं समझ गया दुनिया लाल आज कल में ही चचा से सिर घुटवा कर गए हैं। ...गंजा कहीं का।
अब मेरा बर्दाश्त जवाब देने लगी थी। मैं सीधे दुनिया लाल के घर की ओर लपका।...अबे! तूने पूरे मोहल्ले में यह क्या रब-रब फैला रक्खी है। दुनिया लाल बोले, यार मैं तेरा दोस्त हूँ, कोई दुश्मन नहीं। तू देख, पिछले एक हफ्ते में कानपुर-दिल्ली लाइन में क्या कुछ नहीं हुआ। लूट हुई, जहर खुरानी हुई ,  पटरी टूटी, डिब्बे उतरे, लोग जख्मी हुए, जान पर बन आई, ऐसे में मेरा क्या फर्ज है। आज तुझे मेरी बात समझ में नहीं आ रही। कल जब तेरी औलादें बाई-ट्रेन दिल्ली जाएंगी तब समझ में आयेगी। मैं दुनिया लाल की बातों से 'कनफ्यूज' हो गया। अब सोंचता हूँ, बाई-बस ही निकल जाऊँ।
प्रमोद तिवारी

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"सहारा समय" साप्ताहिक में यह लेख पूर्व में प्रकाशित हो चुका है.

सोमवार, 11 जुलाई 2011

चौथा कोना

रखैल बना लिया प्रेस क्लब को

क जुलाई बीत गई और कानपुर प्रेस क्लब का चुनाव फिर नहीं हुआ. अब इस शहर के पत्रकारों को चाहे वह खूंटा गांड़ कर प्रेस क्लब में जमे हुए लोग हों या उन्हें उखाडऩे के लिये आसमान में तने हुए लोग हों, किसी तरह की सामाजिक, न्यायिक और मानवीय नैतिकता की बात करने का कोई अधिकार नहीं बनता है. मैं भी अब हड़ चुका हूं. कानपुर प्रेस क्लब के चुनाव के सम्बन्ध में अपने उदगार व्यक्त कर-करके नाक कटाकर भ्रष्टा खाने वालों की जमात में कन्नौज की इत्र फुरैहरी लेकर आखिर कोई कब तक घूमेगा.
     इस बार जिस तरह से चुनाव घोषित करने के बाद पलटी मारी गयी है यह इस बात का प्रमाण है कि कानपुर के इतिहास की सर्वाधिक भ्रष्ट और बेशर्म कार्यकारिणी यही है. जो लोग आज ये हरकत कर रहे हैं इन्हें शायद यह नहीं मालूम कि प्रेस क्लब का भी एक इतिहास लिखा जायेगा. और जब पचास वर्षों में पांच कार्यकारिणियों के बड़े-बड़े पत्रकारों की चर्चा होगी तो आने वाली पीढिय़ां सभी को आला दर्जे का चोर कहेंगी. हो सकता है कि मैं भी न बच पाऊं. मुझे भी इस संस्था से जुडऩे का इनाम मिले? पूरा शहर देख रहा है. पूरा शहर जान रहा है. एक तरह से हंस रहा है. बावजूद इसके खुद को प्रेस क्लब का ओहदेदार बताने में किसी को शर्म नहीं आ रही है. ये तो रही उनकी बात जो आसन जमाये बैठे हैं. अब उनको क्या कहें जो चुनाव-चुनाव का शोर खूब मचाते हैं लेकिन संवैधानिक चुनाव की प्रक्रिया और रास्तों की तरफ बढऩे में बार-बार मुंह के बल औंधे हो जाते हैं. ये वो लोग हैं जो शीलू को न्याय दिलाते हैं, कविता को न्याय दिलाते हैं, दिव्या के लिये अखबार को तलवार बना देते हैं,  लेकिन अपने और अपनी जमात के अधिकारों के बलात हरण पर मिमियाया करते हैं. मुझे मेरे ही एक अनुज ने बताया कि चुनाव तो हो जाते लेकिन पुराने दिग्गजों ने नये क्रान्तिकारियों को यह समझाया कि अगर इस तरह चुनाव हो गये तो बड़ी मुश्किल से प्रमोद तिवारी को प्रेस क्लब से बाहर कर पाये हैं वो फिर जिन्दा हो जायेंगे.  मुझे समझ में ही नहीं आ रहा है कि मैं मर कब गया था. मेरा एक शेर है-
'चलिये चलें वहां जहां अपना शुमार हो,
पत्थर के शहर में नहीं होगा निबाह और.'   
मुझे लगा कि जिस प्रेस क्लब को सजाने और पत्रकार पुरम जैसी आवासीय योजना को अमल में लाने के बदले मेरी पीठ ठोकी जानी चाहिये थी उस पर खंजर उतारे गये, ऐसे लोगों के साथ क्याजीना, क्यामरना? जब प्रजा आपको राजा मानती ही नहीं है तो राजा बना रहने का मतलब क्याहै? लेकिन जिन्हें षडय़ंत्र से ही सब कुछ हासिल होता है वो प्रजा चाहे या न चाहे, किसी भी कीमत पर सत्ताधीश बने ही रहना चाहते हैं चाहे इसके लिये उन्हें अपना शीश कुत्ते के सामने ही क्यों न झुकाना पड़े.
अब सवाल यह जरूर उठता है कि जब आपको कोई मतलब ही नहीं है तो आप परेशान क्यों हैं? परेशान इसलिये हूं कि दुनिया की हर अनीति पर अपनी राय रखने और टीका-टिप्पणी करने की रोटी खाता हूं. परेशान इसलिये हूं कि जब कोई पत्रकार मारा जाता है तो यह प्रेस क्लब बजाय उसके लिये लडऩे के उलटा उसे नकली, दोयम दर्जे का और छुटभैया कहकर भगा देता है. परेशान इसलिये हूं कि प्रेस मालिकों में आपसी प्रतिस्पर्धा इस कदर है कि पत्रकार एक तरह से न सोच सकते हैं न लिख सकते हैं. कम से कम प्रेस क्लब ऐसा मंच हो सकता है जहां से कर्मशील पत्रकार अपने अधिकार, सुरक्षा और न्याय की आवाज बिना किसी दबाव के उठा सकते हैं, जिसे फिलहाल शहर के चन्द पत्रकारों ने अपनी बपौती मान लिया है और उसका उपयोग वे अपनी रखैल की तरह करते हैं.1
  प्रमोद तिवारी

विकास के डंके में विध्वंस का डंक

कानपुर सिटी किसी भी तरह से शहर का विकास नहीं है इसे अगर कुछ कहा जा सकता है तो महज सुन्दरीकरण। डेवलेपमेन्ट और डेकोरेशन दो अलग-अलग चीजें हैं। डेवलेपमेन्ट आवश्यक आवश्यकता है और डेकोरेशन महज आवश्यकता है। सजावट चाहो तो करो और चाहो तो न करो। एक जीवन है और दूसरा शैली। शैली के  लिये जीवन तबाह नहीं किया जा सकता लेकिन न्यू कानपुर सिटी योजना में यही होने जा रहा है। जीवन तबाह होंगे और इसके बदले शहर की लाइफ स्टाइल बदली जायेगी। सीधे और साफ शब्दों में कहा जाये तो शहर बसने नहीं उजडऩे जा रहा है। मगर शहर की त्रासद स्थिति यह है कि इस योजना में निर्माण के उल्लास का डंका है। ज्यादातर लोग समझ नहीं पा रहे हैं  कि इस उल्लासी डंके में किस कदर ध्वंस का शोर निहित है। जहां न्यू कानपुर सिटी बसाया जाना है वहां से पहले से ही कानपुर शहर बसा हुआ है। होना यह चाहिये कि यह योजना बसे-बसाये इलाकों को विस्तार दे। जबकि जो होने जा रहा है उसकी नीव ही बसी-बसाई बस्तियों को उजाड़कर रखी जा रही है। प्रशासन ने मुनादी कर दी है कि एक पखवारे के भीतर धारा-6 के साथ-साथ धारा-17 के तहत्ï मैनावती मार्ग के ओर से लेकर छोर तक, आजाद नगर से बिठूर के बीच जीटीरोड और गंगा बैराज के दोआबे के बीच की जमीनें खाली कर दी जायें। केडीए ने इसे अधिग्रहित कर लिया है। इस इलाके में दर्जनभर गांव, दो दर्जन के आसपास वार्ड, दर्जन भर के आसपास फार्म हाउस, दसियों छोटे-बड़े स्कूल, बड़े-बड़े संतों के आश्रम और लगभग 50 हजार लोग, साथ ही 500 हेक्टेयर उपजाऊ खेत-खलिहान व बाग-बगीचे हैं। अब इस बसे-बसाये पुराने शहर को उजाड़ कर नया शहर बसाया जायेगा। कितना बेहूदा होगा यह नया शहर। जिनकी बाप-दादाओं की जमीनें हैं.  वह बर्रा बाइपास के  पार रहेंगे और जिनके पास स्वर्ग की तरइयां हैं वह गंगा तट का आनंद लेंगे. एक को खदेडऩे और दूसरे को घुसेडऩे का काम केडीए करेगी कानून के और डण्डे के दम पर। जिन्हें उजाड़ा जा रहा है केडीए उनके 200 गज का 30 हजार रुपया देगा और जिन्हें बसाया जायेगा, उनसे इतनी ही जमीन का 6 लाख से भी ज्यादा वसूलेगा। केडीए जो काम करेगा। ऐसा नहीं लगता कि भूमाफियाओं के लिये कुख्यात शहर के नामचीन बाहुबली भी केडीए के  आगे बौने हैं। आज कल के भूमाफिया और बिल्डर क्या करते हैं। कमजोरों पर जोर चलाकर औने-पौने में जमीन खरीदते हैं और फिर उसे आसमानी कीमत पर बचते हैं । कृष्ण करे तो लीला और कल्लू करे तो पाप। यही काम कोई गुण्डा करे तो उसकी सूची बनवाई जायेगी, अभी बनाई गई थी पिछले दिनों। यही काम सरकार के इशारे पर सरकार की सहमति पर केडीए करे तो विकास है। कहा जा रहा हे जनहित, नगरहित और  राष्ट्रहित जमीनों, बस्तियों, शहरों का अधिग्रहण किया जाता है। न्यू कानपुर सिटी इसी आवश्यक आवश्यकता का एक नया अध्याय है। धारा-6, धारा-16, धारा-17, धारा-.... सब बहाई जा रहीं हैं गंगा किनारे। इन धाराओं के बूते जमीनें खाली कराई जायेंगी क्योंकि यह धारायें राष्ट-हित के लिये ही बहती  हैं। अब हमें कोई यह समझाये कि एक घर उजाड़कर दूसरा घर बसाना किस तरह से राष्ट्रहित में हो सकता है। बसे को उजाड़कर अगर उसे वहीं शानदार तरीके से बसा दिया जाये तब भी इस योजना का कोई अर्थ निकलता है। अब मंगलकारी दिन आये हैं तो इन्हें फिर जंगल भेजने की तैयारी है। शहर की जमीनों पर सरकार की ही नीयत खराब है। योजनाओं व विकास के नाम पर कोई शातिर दिमाग इन्हें लगातार हजम कर रहा है और इस षडय़ंत्र में नेता शामिल हैं। वरना क्या कारण है कि 50 हजार के आसपास की जनता बलवाई हुई है और उनके नेतृत्व के लिये शहर में एक भी जनप्रतिनिधि तैयार नहीं है। अभी पिछले दिनों जो अतिक्रमण अभियान चला था और उसमें जो जमीने खाली कराई गईं
थी उनके बाबत विकास प्राधिकरण से पूछिये कि वह जमीनें कहां गईं तो पता चलेगा कि नीलाम कर दी गईं। खरीदी किसने तो पता चलेगा कि नेताजी या नेताजी के भतीजे जी या नेता जी के पिछलग्गू सेठ ने। केडीए के उपाध्यक्ष भले ही अपनी पीठ खुद अकेले में थपथपाते रहें लेकिन 30 हजार आदमियों को उजाड़ कर 300 लोगों के लिये 3 आदमियों को जमीनें बेंचना किसी भी तरह का विकास नहीं है। इससे तो यही लगता है कि केडीए कुछ लोगों के लिये एजेन्ट के  रूप में काम कर रहा है। कानपुर का तो भगवान ही मालिक है। हम सभासद चुनते हैं, वह ठेकेदार हो जाता है। हम विधायक चुनते हैं  तो वह बिल्डर हो जाता है। हम सांसद चुनते हैं, तो वह भूमाफिया हो जाता है। कम लोग जानते हैं  कि जिला प्रशासन ने शासन के पास भूमाफियाओं की जो पहली टापटेन सूची भेजी थी उसे उजागर करने की हिम्मत किसी की नहीं पड़ी। वरना जो मैं कह रहा हूं उसकी असलियत देखकर आंखें फटी की फटी रह जाती हैं। उसी सूची में सभासद, विधायक, सांसद, मंत्री, अफसर, गुण्डा, अखबार मालिक सब थे। भूमाफियाओं की सूची पर जो चिकचिक पिछले दो महीने चली उसकी मूल वजह यही थी। न्यू कानपुर सिटी योजना के अन्तर्गत क्षेत्रीय विधायक प्रेमलता कटियार, क्षेत्रीय पूर्व सांसद श्याम बिहारी मिश्र, मीडिया सम्राट दैनिक जागरण एजुकेशन डीलर्स डीपीएस, गौरव इण्टरनेशनल, जैन पब्लिक स्कूल आदि व धर्माधिकारी  आशाराम बापू, सुधांशु महाराज, मोरारी बापू तक की जमीनें हैं। लेकिन सुरसुरी कहीं नहीं है। इस चुप्पी में सिर्फ दो बातें हो सकती हैं या तो यह लोग आश्वस्त हैं कि इनका कुछ नहीं होगा या फिर इन्हें पता है कि इसमें कुछ हो नहीं सकता सिवाय ध्वंस के। इस योजना की नीयत पर शक तो इसलिये भी होता है कि साधारण बस्ती के लोग बलबलाए घूम रहे हैं और उधर आश्रमों, स्कूलों व फार्म हाउसों में निर्माण कार्य चल रहे हैं। इस योजना पर केडीए की नजर में अगर सब धान बाइस पसेरी हैं तो अधिग्रहण की कार्यवाही पहले बड़े वालों पर करें। गिरायें डीपीएस, फिर उसके बाद देखें मकड़ी खेड़ा की ओर लेकिन ऐसा होगा नहीं। केडीए झोपडिय़ां उजाड़ देगी फिर उसके बाद महलों व केडीए का अनन्त कालीन मुकदमा छिड़ जायेगा। इस योजना में अधिग्रहीत जमीन पर तीन लाख रुपये प्रति बीघे का मुआवजा तय किया गया है। इन जमीनों का मुआवजा नहीं कीमत दी जानी चाहिये क्योंकि यह कोई विकास-इकास नहीं है यह केडीए का विशुद्घ व्यापार है। जो सत्ता के कुछ लोगों के लिये खेला जा रहा है। जिस योजना में न रोटी हो, न कपड़ा हो, न मकान हो, न सुरक्षा हो, न स्वास्थ्य हो, न रोजगार हो तो उसके लिये जमीन पर मुआवजा क्यों? कीमत क्यों नहीं? मुआवजा हमेशा कीमत से कम होता है और इसलिये प्रयोग में लाया जाता है कि इससे बड़ा मानव हित जुड़ा होता है लेकिन यहां तो केडीए तीन लाख रुपये बीघे जमीन लेने के बाद उसे 30 लाख रुपये बीघे में बेचेंगी। ऐसी स्थिति में अधिग्रहीत जमीन के लिये कम से कम उनके निर्धारित सर्किल रेट पर जमीनों की कीमत दी जानी चाहिये। न्यू कानपुर सिटी की योजना है क्या इसके बारे में केडीए ने अभी तक कुछ भी सार्वजनिक नहीं किया है। अनुमान है कि एक बेहद सुन्दर बस्ती जिसमें वह सबकुछ होगा जो एक साथ एक जगह शहर में किसी दूसरे स्थान पर नहीं है।  सुन्दर बहुखण्डी इमारतें होंगी, सुन्दर-सुन्दर बड़े-बड़े पार्क होंगे। मनोरंजन के लिये सिनेमाघर, बाजार, अस्पताल, स्कूल, प्रेक्षागृह सब कुछ होगा। कितना अच्छा होगा जब यह सबकुछ होगा। कायदे की बात तो यह है कि न्यू कानपुर सिटी बसे, इसके लिये जमीनों का अधिग्रहण भी हो। चूंकि यहां बस्ती के बदले बस्ती ही बसनी है इसलिये बसे-बसाये घरों से छेड़छाड़ कतई न हो और यह किसी सूरत में उचित नहीं है। सरकार बजरिये केडीए कानून की बात कहती है जबकि उसके खजाने में करोड़ों-करोड़ रुपये इन्हीं घरों  की रजिस्ट्रियों का हजमा-हजम है। जैसा समझ में आ रहा है अगर वैसा हो गया तो क्या यह सरकारी धोखाधड़ी नहीं है। सरकार जब जानती थी कि उसके पास नये शहर की योजना है तो उसने महानगरीय सुविधाओं सहित जमीनों की खरीद-फरोख्त व निर्माण की सशुल्क अनुमति जैसी सरकारी मुहर क्यों ठोंकी और अगर यह फौरी योजना है तो जरा इस पर ठहर कर विचार हो जाना चाहिये। ऐसी भी क्या जल्दी है? फिर जब नया ही शहर बसाना है तो मैनावती मार्ग से लेकर बिठूर के बीच ही इतना तूफान क्यों और अगर यही जमीन बहुत प्यारी हो गई है तो बेचारे इन बसे-बसाये लोगों को क्यों उजाड़ रहे हो? पूरे शहर में कल्यानपुर से आगे चौबेपुर तक सड़क के दोनों ओर खाली जमीनें पड़ी हैं वहां बसा देते यह नया शहर न्यू कानपुर सिटी।
- प्रमोद तिवारी

चौथा कोना

'पत्रकार' मधुमक्खी का  छत्ता है, शहद की बोतल नहीं

कानपुर में डीआईजी प्रेम प्रकाश ने जब जागरण समूह के मालिकानों पर अमर्यादित हमला किया था उस व$क्त कई पत्रकार दोस्तों ने मुझसे पूछा था कि अगर आप उस समय मौके पर होते तो क्या करते...? वैसे तो यह कोई सवाल नहीं, फिर भी अगर मैं मौके पर होता तो मुझे डीआईजी को यह नहीं बताना पड़ता कि मैं कौन हूं..., पहली बात! वह मुझे उसी दिन से जानता जिस दिन से कानपुर के चार्ज पर होता. अगर पहले से परिचय होता तो पैदा हुई गलत$फहमी आसानी से दूर हो जाती. और अगर डीआईजी की मंशा ही हमलावर होती तो मैं दस मिनट के अन्दर पूरे शहर के मीडिया को मौके पर इक_ा (Ikaththa) कर लेता, फिर देखता... कौन दोषी पुलिस वालों को बचा पाता...? खुद मायावती भी चाहकर कुछ न कर पातीं. मनोज राजन ने वही किया जो मेरा जवाब था. वह भी चाहता तो सबसे पहले अपने चैनल के आकाओं को फोन करता. अपनी और शलभ की इज्जत और जान की $िफक्र करता. लेकिन नहीं, उसने वही किया जो एक जुझारू पत्रकार को करना चाहिये. उसने अपनी 'ताकत' को आवाज दी. पत्रकार की ताकत उसके अफसर नहीं उसकी कलम और कैमरा होता है.
अपने पत्रकार दोस्तों को आवाज दी. फलस्वरूप पलक झपकते राजधानी को समूची पत्रकार बिरादरी सड़क पर उतर आई. इसके बाद क्या हुआ...सबको पता है. 'वर्दीधारी गुंडे' निलम्बित हुए. सरकार ने पहली बार सार्वजनिक रूप से पत्रकारों के उत्पीडऩ को बर्दाश्त न करने का अल्टीमेटम दिया. $जरा सोचिए अगर पत्रकारों ने सड़क छाप दबाव न बनाया होता, सारे चैनल तत्काल चीखने न लगते तो क्या होता...?
ये दोनों शलभ और मनोज उकड़ू बने हजरतगंज थाने में रात काटते और सुबह जमानत के लिये घर परिवार वाले दौड़ते-भागते...परेशान होते. यह तब होता जब कोई विशेष साजिश न होती. मुझे तो शक है कि शलभ और मनोज उसी दवा माफिया के निशाने पर आ चुके हैं जिन्होंने सिल-सिलेवार तीन डाक्टरों का आसानी से कत्ल कर दिया. तीनों कत्लों में अफसरशाही और सत्ताशाही की संलिप्तता किसी से नहीं छुपी है. तीन शूटर अंदर है तीन डाक्टर मारे जा चुके हैं और दो मंत्रियों की कुर्सी जा चुकी है. यानी नौकरशाही, सत्ता और अपराधी तीनों एक साथ एक ही नाव पर. और नाव भी वो जो भ्रष्टाचार की नदी में हिचकोले मार रही हो. इन माफियाओं को डर है कि राजधानी की इस 'जय-वीरू' की जोड़ी के पास दवा के घपले से लेकर डा. सचान की हत्या तक की छानबीन में ऐसे-ऐसे तथ्य, साक्ष्य और सबूत मौजूद हो सकते हैं जो इस खूनी श्रंखला की आखिरी कड़ी साबित हो. और यह आखिरी कड़ी उस चेहरे को बेनकाब कर दे जो जनता के सामने अफसर, मंत्री या परम समाजसेवी के रूप में आदरणीय है...?
राजधानी लखनऊ में अपराधियों, सत्ताधारियों और नौकरशाही में कितना मजबूत गठजोड़ है इसका पर्दाफाश हो चुका है. एक के बाद एक तीन डाक्टर मारे गये, कोई शक. तीनों हत्याओं की घटनाओं को लीपापोता गया, कोई शक. तीनों शूटर भाड़े और विश्वास पर बुलाये गये, कोई शक. नहीं न, फिर हम यह शक क्यों न करें कि कल राजधानी में आईबीएन-७ के शलभमणि त्रिपाठी और मनोज राजन त्रिपाठी की हत्या का कुचक्र भी रचा गया हो सकता है.
अंत में अपनी ही बात दोहरा रहा हूं. मीडिया मालिक शहद की बोतल होते है लेकिन मीडिया मधुमक्खियों का छत्ता होता है माई डियर सिस्टर.1
प्रमोद तिवारी

फेसबुकनामा

कम हो गये चार आने

चवन्नी की विदाई का वक्त है पूरे मुल्क के साथ कानपुर का दिल भी बुझा-बुझा सा है. क्योंकि ये वो अमीर शहर है जिसने हमेशा चवन्नी को भी सर आंखों पर उठाया है. दस बीस बरस में चवन्नी भी उसके ज़हन से गैर हाजिर हो जाएगी. वो चवन्नी जो कभी कानपुर की ज़बान और बयान के आगे आगे चलती थी.
अगर किन्ही हजऱत में मर्दानगी कम है तो उनके लिए कहा जाता था कि 'अमां उनकी चवन्नी कम है'. अगर कोई मोहतरम अक्ल से पैदल हैं तो उनके लिए गढ़ा गया जुमला था कि 'अमां फलां साहब चवन्नी गिराए घूमते हैं.' और अगर कोई कंजूस है तो उसके लिए- 'अमां छोडि़ए वो तो रूपए में पांच चवन्नी बनाते हैं.' हालांकि के बावजूद चवन्नी के फेयरवेल के दिन जो मुहावरा मैने सबसे ज्यादा सुना वो'चवन्नीछाप' का था, जिसे सुनकर शायद चवन्नी भी टूटे हुए दिल वाली हो जाती होगी.
जहां तक मेरी जानकारी है ये मुहावरा 80 के दशक में कानपुर में उपजा और बाद में पूरे हिन्दोस्तान में बीमारी की तरह फैला. होता यूं था कि कानपुर से एक दौर में नौटंकी की पार्टियां पूरे देश में जाती थीं. इनमें उत्तेजक प्रसंग आने पर दर्शक मंच की तरफ चवन्नियां उछालते थे. बाद में ये चलन सिनेमा हाल तक जा पहुंचा. इन्ही लोगों को चवन्नी छाप कहा जाता था. मुहावरा पूरी तरह इंसानी मिजाज़ बताने के लिए था लेकिन बाद में चवन्नी का मिजाज़ भी इसी से तय होने लगा. दुनिया ये भूल गई कि इसी चवन्नी से बचपन अपने बेशुमार ख्वाब खरीद लेता था.
बहुत पुरानी बात नहीं है जब पतंगों की कीमत चवन्नी हुआ करती थी. दो चवन्नी मिलाकर मै और मेरा भाई सुपर कमांडो ध्रुव नागराज या डोगा की एक कामिक्स किराए पर लाते थे,जिसे पढ़ते पढ़ते ही मै निराला, मीर और तहलका तक पहुंचा. 25 पैसे में इनाम खोलने का एक कूपन मिलता था जिसमें कभी कभी घड़ी और मिथुन या धरमिंदर का बड़ा पोस्टर तक हाथ लग जाता था. शक्तिमान का स्टिकर भी चवन्नी में ही था. मांएं अपने बच्चों को नजऱ और हाय से बचाने के लिए चवन्नी की शरण में ही जाती थी. फिर बच्चे अपनी करधनी और गले से चवन्नी लटकाए घूमते थे. यही नहीं आंख दुखने पर मां जो देसी ट्यूब (जिसे आम जुबान में गल्ला कहते हैं,) बच्चे के लगाती थी वो भी चवन्नी का मिलता था. इसके साथ ही संतरे की वो सदाबहार टाफियां भी याद आती हैं जो मेरे पूरे बचपन भर 'चवन्नी की दो वाली' संज्ञा से ही नवाज़ी जाती रहीं. (अंग्रेजी में मजबूत कुछ बच्चे इन्हे आरेंज वाली टाफी भी कहते थे). इसी तरह कुछ टाफियों का नाम 'चवन्नी वाली' भी था. संतरे की फांक जैसा लैमनजूस या लैमनचूस (पता नहीं इसका सही नाम क्या होता है,) भी चवन्नी का ही मिल जाता था.
बचपने का रिजर्व बैंक यानि गुल्लक को तोड़कर अपनी अमीरी दिखाने के लिए जब सिक्कों की कुतुब मीनार बनाई जाती थी तो उसकी सबसे ऊपरी मंजिल भी चवन्नी से ही बनती थी. ये भी कहा जाता था कि चवन्नी को अगर कड़वे तेल में डुबो कर रेलगाड़ी के नीचे रख दो तो वो चुम्बक बन जाती है, कई दफा ये प्रयोग मैने भी सेन्ट्रल स्टेशन और गोविन्दपुरी की पटरियों पर आजमाया लेकिन सफल नहीं रहा. चवन्नी को उंगली की चोट से देर तक घुमाने की प्रतियोगिताएं भी खूब होती थी जिसमें इनाम वही चवन्नी होती थी. स्कूल के बाहर काला वाला तेज़ाब मिला हुआ चूरन भी चवन्नी में एक पुडिय़ा मिल जाता था जो कि जबान पर छाला निकालने के लिए काफी होता था. इसी तरह आइसक्रीम के ठेलों पर डिस्को नाम की एक आकर्षक चीज (पन्नी में भरा ठंडा रंगीन मीठा पेय) का दाम भी 25 पैसे था.
लेकिन फिर एक वक्त और भी आया जब इसी चवन्नी के दिन ऐसे बदले कि सफर पर जाते वक्त ढूढ ढूढ के चवन्नियां रखी जाने लगी. भिखारियों को देने के लिए. और भिखारी भी इन्हे, देने वालों को चवन्नीछाप कहके वापस कर देने लगे. बच्चों ने चवन्नी लेकर दुकान जाना बंद कर दिया और अगर कोई बच्चा पहुंच गया भी तो दुकानदार ने बनियागिरी दिखाते हुए उसका दिल तोड़कर उसे ये कहते हुए लौटा दिया कि चवन्नी नही चलेगी. जबकि मुझे घर के पास वाला बनारसी आज भी याद है जिसने मुझे 25 पैसे की इमली की गोली एक बिस्सी यानी 20 पैसे में इस शर्त के साथ दी थी कि मै पंजी या 5 पैसे उसे बाद में दे दूंगा. हालांकि मै उन्हे कभी दे नहीं पाया और पता नहीं बनारसी दादा कहां चले गए. चवन्नी के बंद होने पर व्यवहारिक रूप से कोई क्षोभ जरूरी नहीं है. लेकिन फिर भी चूंकि ये घटना अतीत के खूबसूरत पन्ने दोबारा पलट गई है इसलिए माहौल का जज्बाती होना लाजिमी है. पहले बनारसी दादा गए, फिर बचपन गया और आज बचपन के खजाने का सबसे बड़ा सिक्का यानि चवन्नी भी रूखसत हो गई.1
अरविन्द त्रिपाठी

'डकैत' का घर चोरी

है न मजेदार , राजदार , खुलासे वाली चटपटी खबर! तो सुनिए और पढि़ए.
         अपने शहर में एक आला शिक्षाधिकारी हैं. काफी समय से तैनात हैं. एक लम्बे समय तक  देश के बड़े हिंदी समाचार-पत्रों में से एक और स्व-घोषित एकमात्र बड़े होने का दावा करने वाले दैनिक समाचार पत्र के शिक्षा संवाददाता से उनकी ठनी रही . शिक्षा संवाददाता की क्या मजाल की वो बिना अपने मालिकानों की इच्छा के ठान लेते. अब आप सभी समझ ही गए होंगे की मालिकान के कामों को पूरा कराना ही उनका वास्तविक इरादा था. इस इरादे को पूरा करने में ये 'बिचारे'  अधिकारी महोदय  को 'डकैत' तक साबित कर बैठे. इसके बाद इन्हें, इनके बे-असरदार सरदार साथी और मालिकानों के एक शिक्षण संस्थान के प्रधानाचार्य को कथित सर्वश्रेष्ठ शिक्षक होने के कारण कम योग्यता के बावजूद राष्ट्रपति पुरस्कार बाँट दिए गए.  उक्त अधिकारी से उस समय जब  इस बारे में पूछा गया था तो उन्होंने इन अयोग्यों को इस पुरस्कार मिलने से रोक पाने में अपनी अक्षमता जाहिर की. जबकि इन अधिकारी महोदय की सक्षमता इतने से ही जग-जाहिर है की तमाम छपासों के बावजूद ये बड़ा अखबार और उनका इतना बड़ा पत्रकार इनका बात बांका नहीं कर पाया था.
    अब आता हूँ , अपनी खबर पर. इन्हीं डकैत अधिकारी महोदय ने शहर के स्कूल कालेजों को अपनी ताकत और मीडिया से बने नए गठजोड़ के साथ आराम से निर्बाध लूटा. बड़े अखबार के काम पूरे हो जाने के बाद अब किसी प्रकार का डर भी नहीं था.  होना भी नहीं चाहिए. पूर्वांचल के एक बाहुबली सत्ताधारी के संरक्षण के बाद तो और नहीं होना चाहिए. पर इनके साथ एक ऐसी घटना घटी जिसे उगलते-निगलते नहीं बन रहा है. हुआ दरअसल ये - इन्होने एक मकान बनवाया. आप कहेंगे , सभी बनवाते हैं, इसमें नया क्या है ?  मकान भव्य था, होना भी चाहिए, आला अधिकारी है. माहवारी और सत्रवारी  भी उनकी भव्य है. रही बात 'था' की तो अब उनका नहीं रहा. उन्होंने आय से अधिक संपत्ति का मामला न बने तो अपने मुंहलगे अधीनस्थ अध्यापक के सेवानिवृत्त प्रिंसिपल पिता के नाम से मकान बनवाया था. सोचा था , बनने के बाद कोई दिक्कत नहीं आएगी.और इस प्रकार काली कमाई को सफ़ेद किया जा सकेगा.
     पर हुआ ठीक विपरीत, अब वो मास्टरजी अपने परिवार के साथ उस मकान में रहने लगे हैं. साहब, परेशानहाल हैं. रसूख और धमक का प्रयोग कर अगर मकान खाली करवाते हैं तो    इस बार जरूर 'डकैत' कहलायेंगे. बाकी अखबार वालों ने भी इनसे धरा रखी है. मौके की तलाश में हैं. उन्होंने मास्टरजी को डराया, धमकाया पर अभी तक बात नहीं बनी है. 'बन्दा' मकान के अन्दर है और 'हनुमान चालीसा' जोर-जोर से पढ़ रहा है. कहता है की सरकार वैसे भी पंडितों की है. पूर्व मंत्री जी के घर का एक बार चक्कर जरूर लगा लेता है.1
हेलो संवाददाता

टाट मिल चौराहा: यातायात विस्फोट के मुहाने पर

शहर का टाटमिल चौराहा व्यस्ततम चौराहों में से एक है. इस चौराहे से शहर  आने और बाहर जाने वाले लोगों को प्रतिदिन जूझना पड़ता है. रेलवे और बस अड्डे जाने के लिये यात्रियों की आवाजाही इसी चौराहे से होती है. कानपुर दक्षिण के बाशिन्दे भी रोजमर्रा के कामों के साथ रोजी-रोजगार के लिये इसी चौराहे से गुजरते हैं. दूसरी तरफ यातायात के नियमों और आवश्यकता को दरकिनार कर इस चौराहे के एक कोने पर शहर का सबसे बड़ा बिजनेस काम्पलेक्स लगभग बन कर तैयार हो चुका है. माना जाता है कि इसके तैयार होने के बाद इस चौराहे पर यातायात का दबाव कई गुना बढ़ जायेगा. जबकि जनसुविधाओं में कहीं से कोई बढ़ोत्तरी नहीं हो सकी है.
इस विशाल बिजनेस मार्केट में पाया गया है कि पार्किंग की कोई व्यवस्था नहीं की गई है. जो पार्किंग स्थल नक्शे में दिखाया गया था वो बेसमेंट में है पर इस बेसमेंट में जाने का कोई रास्ता नहीं है. विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि इस बेसमेंट को भी मालिकान गोदाम बनाने के इरादे रखते हैं. यातायात एसपी श्री आर.पी. गौतम आने वाले समय में होने वाले यातायात के इस जन-दबाव से दबाव में हैं. वे कहते हैं कि पूरे काम्पलेक्स के निर्माण के समय किसी प्रकार से यातायात के नियमों का कोई अनुपालन नहीं किया गया. हद तो तब हो गई जब फुटपाथ भी शेष नहीं रह गया है.1
हेलो संवाददाता

बन्धु अभी भी बंधुआ है


देश की अर्थव्यवस्था में चाहे कितना उछाल आया है, शैक्षिक दर बढ़ी है, पर बंधुआ मजदूर की किस्मत का ताला अभी नहीं खुल सका है. पेट पालने के लिए एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करना आज भी उनकी नियति बना हुआ है. ठेकेदार और नियोक्ता दोनों उनका शोषण कर रहे हैं और उनके श्रम की कीमत पर डाका डाला जा रहा है.
बंधुआ मजदूर के पास खेती योग्य जमीन नहीं है. रोजी रोजगार के कोई साधन सरकार की तरफ से नहीं मिले हैं. ईंट भट्टों पर आसानी से काम मिल जाता है.और भट्टा मालिकों और ठेकेदारों द्वारा इनका जमकर शोषण किया जा रहा है. बिहार व झारखण्ड के लोकल ठेकेदार बड़ी संख्या में मजदूरों को यूपी में ला रहे हैं. ये ठेकेदार उन्हें भट्टा मालिकों को देते है. इनको पैसा भी सीधे मालिको से न मिलकर ठेकेदारों द्वारा ही दिया जाता है. पहले से मजदूरी निश्चित नहीं की जाती है. जब भट्टों का काम बंद होता है, उस समय मालिक जो चाहे उस रेट के हिसाब से मजदूरी देता है. श्रम मूल्य भी ठेकेदार को दिया जाता है और फिर ठेकेदार मनमर्जी से मजदूरों को पैसा देता है.
बिहार, झारखण्ड व छत्तीसगढ़ राज्यों में तो ये स्थिति है कि इनको गाँव के अन्दर भी नहीं रहने दिया जाता..गाँव के बाहर घास फूस की झोपड़ी बना कर ये लोग गुजारा करते हैं. इनके बच्चों के साथ वहां आज भी छुआछूत का वर्ताव है. इनके बच्चों को स्कूल में सभी आम बच्चों के साथ पढऩे को नहीं बैठाया जाता हैं. मजदूरी इतनी कम है कि इसमें गुजारा करना नामुमकिन है. बिहार आदि राज्यों मे एक दिन की मजदूरी 20-25 रु. और दो से तीन किलो चावल है. यूपी में कच्ची ईंट ढुलाई का 1000 प्रति ईंट पर 90-110 रु. मिलता है, जबकि पूरे परिवार के साथ खच्चर या घोड़ा जो भी इनके पास हो, उसकी मजदूरी भी शामिल होती है. छत्तीसगढ़ राज्य के मजदूर ज्यादातर निकासी के काम के लिए जाने जाते हैं. इनका काम तो और भी कठिन है.
वे गर्म ईंट को हाथ से निकाल कर चट्टे तक पहुचाते हैं. इनको मिलते हैं प्रति 4000 ईंट के 200 से 250 रु.. मास्क उपलब्ध नहीं कराये जाने से जले कोयले की राख सांस द्वारा इनके शरीर के अन्दर जाती है और उससे ये दमा अस्थमा जैसी गंभीर बीमारियों के शिकार हो जाते हैं.
जरूरी है श्रम सुधार
लखनऊ में विगत दिनों आयोजित कार्यक्रम में बाल एवं बंधुआ मजदूरों के उन्नयन में लगीं विजया रामचंद्रन ने कहा कि संगठित क्षेत्र की तरह इन मजदूरों को भी विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ मिलनी चाहिए. जैसे साथ मे आये बच्चों हेतु आंगनवाडी/ बालबाड़ी, प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएँ, जिसमें गर्भवती महिलाओं हेतु मातृत्व लाभ, कार्यस्थल पर शौचालय-स्नानघर के साथ आवास, मालिक के योगदान से भागीदारी प्राविडेंट फंड व पेंशन की सुविधाएँ आदि उपलब्ध करायी जानी चाहिए. . चूँकि इस कार्य में मालिक मजदूर के रिश्ते में निरंतरता नहीं होती, अत: मजदूरों को जहा भी वह जाएँ, उपर्युक्त सुविधाओं हेतु मान्यता मिलनी चाहिए.. हमें ऐसी योजना अपनानी पड़ेगी, ताकि प्रत्येक मालिक का हरेक मजदूर के खाते में निश्चित कल्याणकारी भुगतान जमा होता रहे. मजदूर जहा भी जाएँ उसको मिलने वाली सुविधाएँ बरकरार रहनी चाहिए.
इसके अलावा राज्य को ईंट उधोग पर एक कर लगाकर एक निधि का निर्माण करना चाहिए, जिससे मजदूर को कर्ज मिल सके तथा आपातकालीन परिस्थितियों में सामाजिक सुरक्षा मिल
.यदि श्रमिकों को अंतर्राज्य प्रवासी मजदूर अधिनियम (1068-1979) के अनुसार मजदूरी नहीं मिलती तो सरकार को मालिक/प्रधान - नियोक्ता के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए.. सेमिनार में इंटरनेशनल लेबर आर्गनाइजेशन जेनेवा के रिप्रजेंटेटिव्स ने भी अपने विचार साझा किये.1
शालिनी द्विवेदी

सोमवार, 27 जून 2011

फेसबुक पर चर्चा

पेट्रोल के बढ़ते दाम और साइकिल
जब से पेट्रोल के दाम 5 रुपए बढे मैंने कार खड़ी कर दी ,
बाइक थाम ली है. सुना है फिर बढऩे वाले हैं दाम .
मैं आज बाइस्किल के दाम पूँछ आया हूँ
- प्रमोद तिवारी
Jitendra Awasthi-  Pramod ji chinta na kare is desh ki vertman andhi, bahari sarkar kuch din aur rahi to nagar nigam ja kar paidal chalne ke rate puchne padenge.
Kavita 'kiran' Poetess-  bahut khoob!!! shikhar se shuny ki aur.......:)
 Amit Singh-  sir please hum sabhi ko bhi bicycle ke damo se avagat kara den nahi ti demand badhne per ye bhi mehangi ho jayegi.
Pramod Tewari-  Amit Singh @majak nahin, mai siriys hoon lekin jitendra awasthi ne cy&cil ke liye raaste ka sawal utdha ke muskil men dal diya hai
Shaalini Dwivedi- tiwari sir kanpur m raste bache hi kaha h ........ swimming pool ban gaye h isliye m to boat lene ki soch rahi hu kisi ko pata ho to plz bataye boat kaha milegi........................
Dileep Bhartiy-  ये सोच जब 20/- से 25/- हुआ तब भी आई थी जब 40/- से 45/-हुआ , और अब?.
 Farhan Wasti- Bahut acha hai Pramod Tewari jee. zabardast.
Rajendra Pandit-  दादा प्रणाम, साइकिल से दो फायदे रहेंगे एक्सरसाइज़ भी हो जायेगी और मुलायम सिंह यादव भी गदगद रहेंगे, आप साइकिल की सोंच रहे हैं.... मैतो सोच रहा हूँ अगर अबकी बार पेट्रोल के दाम बढ़े..... तो मज़बूत जूता ले आऊँगा... अरे भाई पैदल जो चलना पडेगा,,,
Gopal Mishra- DADA ke satya kathan ko pranam aivam pandit ji ko samarthan..pranam
Gopal Ojha- ÕãéÌ âãè ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
Pramod Tewari- Shaalini Dwivedi@aap ko boat chahia, rajendra ko majboot ,joota,awasthiji ko rasta.maine sarkar se bat ki hai .usane kaha hai aap sab ki murad bhut jald poori hone ja rahi hai..
Rohit Misra- dada very good comment
Piyush Ranjan- Pramod Tewari Shaalini Dwivedi@aap ko boat chahia, rajendra ko majboot ,joota,awasthiji ko rasta.maine sarkar se bat ki hai .usane kaha hai aap sab ki murad bhut jald poori hone ja rahi hai..HUM INTEZAAR KARENGE QUYAMAT TAK..KHUDA KARE KI...
Piyush Ranjan-  Aap sab mil kar bahut galat kar rahe hai....Tarah-Tarah ke 'options' sujha kar sarkaar ki GIDDH DRISHTI is par bhi dalwa rahe hai.
Ranjeet Singh Rajawat- sory sir,ye baiskil baad mai dhool khati hai ye tabhi nikalati hai jab petrol ke daam badate hai phir vahi daak ke teen paat..............
Pramod Tewari-  ranjeet ki is bat me dam hai lekin cycale ke sahare hi lad sakta hai aam aadmi petrol se. vz se w® km ki cycling do char mahanagaron ko chod diya jaya to desh bhar main ppetrol ke hosh uda sakati hai
Hemant Kumar- Kyu nahi mai swayam hi apni bicycle ko xz km/hour ki ma&imum speed tk chalata aya hoon.....aur minimum vz km/hr ki speed se to chalti hi hai................so we should promote cycling n RECYCLING.......
Piyush Ranjan-  Is speed par to shahar ki bhid-bhad me meri car chal pati hai... upar se kahi bhi jam ho to khadi...'cycle' vastutah ek accha option hai..Hemant ji,Pramod ji aur saare mitro ! aaiye hum sab mil kar 'cycle' aandolan aarambh kare. Taarekh aap sab decide kariye... sthaan rakhte hai apna Parade Ram Lila Ground.
Amit Bajpai- Good thought. the idea is ecofriendly lets go for" BICYCLE MOVEMENT"
Pramod Tewari- chalo karten hai suruaat
Ramesh Vishwakarma- Bahut khub sir...Humare pass bhi बाइस्किल  hai... Mere paise bachte hai... Aur Polution se bhi rahat..... E&ercise Ki jarurat nahi...
Piyush Ranjan- DOSTO! abhi is abhiyaan ki roop rekha taiyaar kar raha hoon, Pramod ji ka aashirwad hai. Bahut jaldi ise moorta roop denge. Tab tak aapske valueble comments ki apeksha karta hoon.
Piyush Ranjan- yeh abhiyaan sabhi ke liye hai, isliye iska aarambh kis prakar ho, aap sab apne vichar de.v
साभार :- प्रमोद तिवारी जी के फेसबुक एकाउंट में हुई चर्चा

संडे हो या मंडे, रोज खाओ डण्डे

फेसबुक में राजेन्द्र पंडित द्वारा 'अखिल ब्रह्मांडीय पत्नी शोषित महासभा' नाम से एक समूह का गठन किया गया. जैसा कि  नाम से जाहिर होता है कि इसमें शामिल होने वाले लोग पत्नी नामक जीव से परेशान लोग हैं. इसमें कमेंट देने वाले और स्टेटस लिखने वाले दोनों छुप-छुप कर ये काम कर रहे हैं. बार-बार शिकायत यह आ रही है कि लिखने वालों के कमेंट और स्टेटस डिलीट हो जाते हैं. यह फेसबुकिया गलती नहीं है. जरूर यह किसी पत्नी नामक प्राणी की खुराफात है जो इन पतियों की वैचारिक स्वतंत्रता का अतिक्रमण है.
इटावा में दैनिक जागरण के पत्रकार वेदव्रत गुप्ता ने  लिखा कि शोषित महासभा के सभी पदाधिकारी पतियों के हित में सन्डे की छुट्टी रद्द करने की सरकार से मांग करें ! इसका कारण उन्होंने बताया कि ये सन्डे पतियों के लिए आफत का दिन है, इस दिन पत्नियाँ पति के साथ नौकर जैसा व्यवहार करती हैं! अपनी आपबीती बताते हुए श्री गुप्ता लिखते हैं- मेरी बीबी ने आज पूरे दिन नचाया , सबरे-सबेरे चाय बनाने को विवश किया, और कहा- रोज मैं बनाती हूँ आज तुम बनाओ!  इसके बाद आटा का कनस्तर कंधे पर लाद दिया और आदेश दिया- पिसवा कर लाओ. फिर पकड़ा दी सामानों की फेहरिस्त, गुर्रा कर बोली- लेकर आओ वर्ना रोटी नहीं मिलेगी! ये सब काम करके लौटा तो पकड़ा दिए अपने कपडे.. साड़ी की फाल लगवा कर लाओ ...उसके बाद सारे घर के जूते चप्पल पोलिश करो.. फिर भी चैन नहीं आया ...अब कह रही है की कपड़ों पर प्रेस करो ...! हे भगवान बचाओ ऐसे सन्डे से !
इस समूह के संस्थापक और वरिष्ठ पत्रकार एवं व्यंग्यकार राजेन्द्र पंडित ने इसका जवाब दिया कि- 'शादी करके मिला ईनाम,
करो मियां अब सारे काम,
अगर की हीला हवाली,
तो मायके चली जायेगी घरवाली,
अगर नहीं गयी तो फिर वही पुराने हथकंडे-
'सन्डे हो या मंडे रोज़ खाओ डंडे'.1
फेसबुक से

यमुना नदी मे हुआ पहली बार घडियाल का प्रजनन

देश मे यह पहला मौका है जब किसी घडियाल ने सबसे प्रदूषित समझी जाने वाली यमुना नदी मे प्रजनन किया है. पहली बार यमुना नदी मे घडियाल के बच्चे पाये जाने को लेकर पर्यावरणविद उत्साहित है.  जिस प्रकार घडियाल ने यमुना नदी मे प्रजनन किया है उससे एक उम्मीद यह भी बंध चली है कि आने वाले दिनो मे यमुना नदी भी घाडियालों के प्रजनन के लिये एक मुफीद प्राकृतिक वास बन सकेगा.
 यह वाक्या उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के हरौली गांव के पास हुआ है जंहा इन बच्चो को लेकर गांव वाले खासे उत्साहित दिख रहे है. पहली बार घडियाल के प्रजनन को लेकर गांव वालो के साथ साथ आम इंसान भी गदगद हो गये है. गांव के ही किनारे यमुना नदी का प्रवाह है इसलिये यमुना नदी के किनारे गांव वाले अक्सर आ जाया करते है इसी लिहाज से एक स्कूली छात्र मुनेंद मुनेंद्र अपने करीब 5 साथियो के साथ आया तब उसने पहली बार घडियाल बच्चो को देखा है पहली बार बच्चे देखने के कारण मुनेंद्र इस बात का अंदाजा नही लगा पाया कि ये घडियाल या मगर के बच्चे है. लेकिन मुनेंद्र की खबर पर सबसे पहले पूरा का पूरा गांव मौके पर आया और इन बच्चो को देखा और अब पूरे इटावा मे चर्चा का बाजार गर्म है.
 वन्यजीव संरक्षण की दिशा मे काम रही संस्था सोसायटी फार कंजरवेशन आफ नेचर के महासचिव डा.राजीव चैहान का कहना है कि यमुना नदी मे आई बाढ से इटावा के आसपास का पानी साफ हो गया है और इसी वजह से घडियाल यमुना नदी मे प्राकृतिक वास बनाया है. ऐसा लगने लगा है देश मे सबसे अधिक प्रदूषण मे धिरी यमुना नदी का पानी कही ना कही अब इटावा के आसपास साफ हो रहा है इसी वजह से अब घडियाल यमुना नदी मे प्रजनन करने लगे है.
इस बदलाव को लेकर ऐसी उम्मीद बंधी है कि अब यमुना नदी भी घडियालो को पालने के लिये मुफीद हो गई मानी जा रही है. इससे पहले कभी भी यमुना नदी मे घडियाल ने प्रजनन नही किया है. इस बदलाव के बाद ऐसा लगने लगा है कि अभी तक सबसे सुरक्षित समझी जाने वाले चंबल नदी कही ना कही दूषित हो चली है इस कारण घडियाल यमुना नदी की ओर मुखातिव हो रहे है. पूरी की पूरी यमुना नदी मे एक मात्र एक ही नेस्ट देखा गया जिसमे करीब 46 बच्चे घडियाल के देखे जा रहे है. अभी तक देश मे सिर्फ चंबल एक मुख्य प्राकृतिक वासस्थल माना जाता है लेकिन अन्य जगहो पर इनकी छोटी छोटी सख्या भी पाये जाते है गिरवा नदी केतरनिया घाट ,सतकोशिया महानदी,र्काविट नेशनल पार्क,सोन नदी व केन मे इनकी संख्या कहने भर के लिये रहती है.
साल 2007 आखिर मे दिनो मे इटावा मे चंबल नदी मे एक सैकडा से अधिक घडियालो की मौत के बाद इस बात को प्रभावी ढंग से उठाया गया कि यमुना नदी के व्यापक प्रदूषण के कारण दूर्लभ प्रजाति के घाडियालो की मौत हो गयी है. लेकिन अनगिनत घडियाल विशेषज्ञो ने कई लाख रूपये खर्च करके भी घडियालो की मौत का पता लगाने मे कामयाब नही हो सके है.
यंहा पर इस बात का जिक्र किया जाना बेहद जरूरी होगा कि 2007 मे जब इटावा मे घडियालो की मौत का सिलसिला शुरू हुआ तो यह बात घडियाल विशेषज्ञो की ओर से प्रभावी तौर पर कही जाने लगी कि यमुना नदी मे हुये प्रदूषण की वजह से दुर्लभ प्रजाति के घडियालो की मौत हुई है लेकिन इस बात को कोई भी घडियाल विशेषज्ञ साबित नही कर पाया कि घाडियालो की मौत यमुना नदी के प्रदूषण का नतीजा है.
इसके अलावा वन्य जीव प्रेमियों के लिए चंबल क्षेत्र से एक बड़ी खुशखबरी सामने आई है. किसी अज्ञात बीमारी के चलते बड़ी संख्या में हुई विलुप्तप्राय घडियालों के कुनबे में सैकड़ों की संख्या में इजाफा हो गया है. अपने प्रजनन काल में घडियालों के बच्चे जिस बड़ी संख्या में चंबल सेंचुरी क्षेत्र में नजर आ रहे हैं वही दूसरी ओर यमुना मे घडियाल के बच्चो ने एक नई राह दिखाई है.
दिसंबर-2007 से जिस तेजी के साथ किसी अज्ञात बीमारी के कारण एक के बाद एक सैकड़ों की संख्या में इन घडियालों की मौत हुई थी उसने समूचे विश्व समुदाय को चिंतित कर दिया था. ऐसा प्रतीत होने लगा था कि कहीं इस प्रजाति के घडियाल किताब का हिस्सा बनकर न रह जाएं. घडियालों के बचाव के लिए तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं आगे आई और फ्रांस, अमेरिका सहित तमाम देशों के वन्य जीव विशेषज्ञों ने घडियालों की मौत की वजह तलाशने के लिए तमाम शोध कर डाले.
घडियालों की हैरतअंगेज तरीके से हुई मौतों में जहां वैज्ञानिकों के एक समुदाय ने इसे लीवर रिरोसिस बीमारी को एक वजह माना तो वहीं दूसरी ओर अन्य वैज्ञानिकों के समूह ने चंबल के पानी में प्रदूषण को घडियालों की मौत का कारण माना. वहीं दबी जुबां से घडियालों की मौत के लिए अवैध शिकार एवं घडियालों की भूख को भी जिम्मेदार माना गया. घडियालों की मौत की बजह तलाशने के लिए ही अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने करोड़ों रुपये व्यय कर घडियालों की गतिविधियों को जानने के लिए उनके शरीर में ट्रांसमीटर प्रत्यारोपित किए.
जिस यमुना नदी मे घडियाल ने पहली बार प्रजनन करके एक नया इतिहास लिखा है उसी यमुना नदी को अपने प्राकतिक स्वरूप को बनाये रखने के लिये देश की राजधानी दिल्ली में सर्वाधिक संघर्ष करना पड़ रहा है. उत्तराखंड के शिखरखंड हिमालय से उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद तक करीब 1,370 किलो मीटर की यात्रा तय करने वाली यमुना को ज्यादा संकट दिल्ली के करीब 22 किलोमीटर क्षेत्र में है, लेकिन बेदर्द दिल्ली को यमुना के आंसुओं पर कोई तरस नहीं आता. यही कारण है कि अभी तक यमुना की निर्मलता वापस नहीं लौट सकी. केन्द्र सरकार व कई राज्यों ने भले ही यमुना की निर्मलता के लिए ढाई दशक के दौरान 1,800 करोड़ से अधिक की धनराशि खर्च कर दी हो लेकिन यमुना के पानी की निर्मलता वापस लौटना तो दूर, वह साफ तक नहीं हो सका. जाहिर है कि अरबों की धनराशि पानी में बह गयी. विशेषज्ञों की मानें तो विश्व की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में यमुना का शीर्ष स्थानों में से एक है लेकिन घडियालों के प्रजनन के बाद विशेषज्ञों के पास कोई जबाब इस बात का नही है कि यह चमत्कार आखिरकार कैसे और क्यों हुआ?1
दिनेश शाक्य

कानपुर परिवर्तन

परिकल्पना और वास्तविकता

कानपुर शहर में सामाजिक विकास के लिए तीन तरह के समूह या संस्थान  पाए जाते हैं. एक जो पेशेवर दलाल हैं दूसरे बहुधा जोश-जोश में बने हुए संस्थान जो की कालांतर में समाप्त या निष्क्रिय हो जाते हैं अथवा ईमानदारी और नाकामी की वजह से हीनभावना से ग्रस्त रहते हैं, तीसरा और सबसे सशक्त पक्ष उन लोगों का होता है जो जीवन के अंतिम दिनों में हरिनाम जपने की बजाय सामाजिकता का चोला ओढना ज्यादा पसंद करते हैं, वे इसकी वजह बहुधा 'नाम और नामा' ही बताते हैं. ऐसे लोगों से मैं सदैव यही प्रश्न करना चाहता हूँ कि यदि जीवन के चौथे दौर कि बजाय जीवन के साथ ही इस सामाजिक उद्देश्य को सम्मान दिया होता तो आज देश कि ऐसी नौबत ही क्यों आती. उनके मुख्य और गौण (अप्रकट) उद्देश्य क्या होते हैं राजनैतिक महत्वकांक्षाएं और व्यापारिक हितों के जुडाव को वे कभी स्वीकार ही नहीं करते. इसका अंदाज़ा एक साधारण व्यक्ति लगा ही नहीं सकता.
उदाहरण के तौर पर बताता हूँ, मेरे कुछ मित्र जो कानपुर के प्रतिष्ठित उद्योगों के मालिक हैं, विचारक हैं, सामाजिक कार्यकर्ता भी... लोगों ने एक सामाजिक संस्था  के माध्यम से शहर के 25 बीमार स्कूलों को गोद लेकर उनमें सुधार कार्य शुरू किये, बताने की आवश्यकता नहीं की इन सरकारी स्कूलों में अति निर्धन या निर्धन वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं.अब   मान लीजिये की हम सुचारू रुप से इसका संचालन करते हैं और कल को सरकार  को एक प्रस्ताव देते हैं की इन विद्यालयों का विनिवेश किया जाए तो निश्चित रूप से हमारे साथ होगी और सरकार के पास इसको मानने के सिवा कोई रास्ता नहीं होगा (और जो नहीं माने उनके लिए पैसा और शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है). अब यदि हम इन स्कूलों को दूसरे तरीके से चलाने लगें  अपनी नीयत बदल दें और सर्व शिक्षा अभियान के अनुरूप काम न करके जनता से मोटी  फीस वसूलने लगें तो क्या होगा?
दूसरे उद्देश्यों में राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं भी पूरी करने की कोशिश कर सकते हैं. इसके साथ ही अगर शहर में 100-200 करोड़ निवेश करके कुछ औद्योगिक गतिविधियों को संचालित करें तो निश्चित रूप से जन समर्थन हमारे साथ होगा ही. इस प्रकार से शासन पर पूंजी यानी कार्पोक्रेसी  हावी हो जाती है. इस पूरे  देश की यही हालत है. जनता को यही नहीं पता सही क्या है और गलत क्या है?
एक पक्ष और भी स्पष्ट करना लाजिमी है की ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवी समाजशास्त्री और पूंजी समर्थित ज्यादातर जो विकासवाद के मॉडल सुझाते पाए जाते हैं, कोई अगर कहीं विदेश घूम के आता है और अपने अनुभवों को बताता है तो उसका प्रायोगिक क्रियान्वयन करने को सभी तत्पर दिखाई देते हैं. ऐसे में शासन और सत्ता प्रतिष्ठान में पूंजी की पकड़ सदैव उनकी सहयोगी होती है.
गाँधी के स्वदेशी और स्वराज की वकालत करते तो देखा जा सकता है लेकिन शहर के लिए स्वदेशी और स्वराज क्या है इसका अंदाज़ा एक बच्चा उनसे ज्यादा बेहतर बता सकता है. विकास के  स्थायित्व की बजाये तात्कालिक समाधानों की खोज उनको विदेशी माडलों में ही दिखाई देती है इसलिए प्राथमिकता होती है. शायद इसकी मूल वजह छपास हो.
अब इस शहर के आज़ादी के बाद के औद्योगिक स्वरुप की चर्चा  करें तो हम पाएंगे की इस शहर ने किसी ज़माने में  सचमुच में बहुत उन्नति की थी. लेकिन आज के हालत ये हैं कि लघु, छोटी और मझोली इकाइयां मिला के जो 8000 के ऊपर हुआ करती थी उनमें से तीन चौथाई आज रुग्ण,  मृतप्राय अथवा मृत हैं. कुल मिला के 6000 के आस-पास रुग्ण,  मृतप्राय अथवा मृत इकाइयों के पुनर्योजन  में लाखों लोगों के रोजगार और स्थायी विकास की अपार संभावनाएं मौजूद हैं.  लेकिन ये पश्चिम परस्त समाजशास्त्री बहुधा इस मुद्दे को लाल झंडे वालों का खिलौना मानते हैं, और उनके सरपरस्त  उद्योगपति बहुधा सरकार को गाली देते पाए जाते हैं.
'एकोहम द्वितियोनास्ति' की पूर्वाग्रह   पसंद ये समाजशास्त्री युवा वर्ग को वे सदैव हाशिये पर ही रखते हैं.
अब शहर के ऐसे  तंत्र में अगर नेतृत्व प्रतिभा खोजने जायेंगे तो अँधेरे में तीर चलने जैसा काम नहीं तो और क्या है? बेहतर होगा की पहले शिक्षा का समग्र सामाजिक स्वरुप तय करें. युवा शक्ति का संगठित केंद्र विद्यालय और महाविद्यालय हैं. उनको मुख्यधारा के समीप लाना हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए.
यह विचारधारा लेकर कानपुर मंडल से 40000 से ज्यादा स्वयं सेवी संगठन कार्यरत हैं. जिनके समाजशास्त्र का  जि़क्र मै ऊपर कर चुका हूँ.  413 कच्ची बस्तियों में से अधिकांश में मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह कहता है कि जैसे विचारों ने उन बस्तियों के लोगों में असुरक्षा कि भावना और अविश्वास ही बढाया है. 'आपने-मैंने' की ही परिणति है की देश में 900 से ज्यादा राजनितिक दल हैं. 'आपने-मैंने' की विचारधारा ने देश का सर्वाधिक अहित किया है. शहर हमारा है, देश हमारा है. 'आपने-मैंने' की जगह 'हमने' अधिक सार्थक रहेगा.1
राकेश मिश्र

फेसबुकनामा

फेसबुक पर लाइकिस्टों की आई बाढ़

जब से सोशल नेटवर्किंग का युग आया है, फेसबुक सबसे जबरदस्त रूप में सफल हुआ है.  इसकी आज की लोकप्रियता का आलम ये है की आज सभी खासोआम इसमें सदस्य के रूप में उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं. इसमें जुडऩे और खोजने की गति बहुत तेज है. कुल जमा तीन साल पहले भारत में इंटरनेट पर उतरा फेसबुक भारत में नेटीजनों की पहली पसंद बनता जा रहा है. देश में जितने इंटरनेट यूजर हैं उसमें से एक तिहाई फेसबुकिया हो गये हैं जिनकी अनुमानित संख्या 2.8 करोड़ है. इंटरनेट की दुनिया में फेसबुक का यह विस्तार इस अमेरिकी कंपनी के लिए सुखद सूचना है क्योंकि एशियाई बाजारों में भारत ही वह सबसे बड़ा बाजार है जिसपर कब्जा करने के बाद फेसबुक में व्यापार की अच्छी संभावना पैदा हो सकती है.
इस सबके बावजूद एक बड़ी समस्या है 'लाइक' यानी 'वाह-वाह' की. बहुत बार प्रस्तोता किसी गंभीर मुद्दे पर बहस चाहता है और उसके फेस्बुकिया  साथी सिर्फ लाइक करके निकल लेते हैं, तब उसकी हालत बहुत बुरी हो जाती है.
बहुत बार तो ऐसा होता है कि आपने अपना स्टेटस अपडेट किया नहीं की बीस-पच्चीस लाइकिस्ट तत्काल सक्रीय रूप से अपना मत दे बैठते हैं. किस मुद्दे  की पोस्ट है, इससे उनका कोई मतलब ही नहीं होता. यद्यपि ऐसी वाहों का कवि सम्मेलनों और मुशायरों में बहुत आवश्यक होती हैं. परन्तु यारों की फेस्बुकिया महफि़लों में ऐसी झूठी बड़ाई और मुद्दे की गंभीरता की अनदेखी से इस साईट में सदस्य बने गैर-गंभीर साबित हो रहे हैं. ये समस्या हाल में महिला साहित्यकार डा. सरोज गुप्ता ने बड़ी शिद्दत से उठायी. उन्होंने लिखा ''बहुत हो गया ,अपना सर दुखाते ,आपका सर खाते ,आज 'वाह -वाह' करती हूँ ,इसमें बहुत धार है! बहुत लायकिंग मिलती है.
.सुबह हो गयी -वाह ! चाय पी रही हूँ -वाह !
मुझे जुखाम हो गया -वाह!
फलां की अंत्येष्टि है -वाह!
राहुल की कैटरीना से शादी हो गयी -वाह.
 पुलिस ने बलात्कार किया -''वाह -वाह !'' जहां चाहे ''वाह'' लगाओ और प्रभु के गुण गाओ और फेस्बुकियों को अपना चहेता बनाओ! सुप्रभात -वाह -वाह -वाह!!!''
इस स्टेटस को अभी पचास से अधिक लाइक और पच्चासी से अधिक कमेंट मिले. जिसमें ज्यादातर ऐसे थे जो बीच बहस में इस तरह ऐंठ गये जैसे नम्बर घटवाने-बढ़वाने का खेल हो रहा हो.
निश्चल श्रीवास्तव ने कहा-  बात जहां से बोली जाये अगर सामने वाले को उसी जगह पर लगे तो परिणाम आयेगा ही. फिर चाहे वाह हो या आह.
प्रियांक पाठक को निश्चल की बात अच्छी नहीं लगी और उसने कहा कि सभी को अपनी पसन्द और नापसन्द जाहिर करने का हक है. इसलिये केवल वाह वाह करने वालों का विरोध नहीं किया जाना चाहिये.
इस वाह और आह में इतना तनाव बढ़ा कि दोनों में एक दूसरे से रिश्तेदारी कायम करनी पड़ी और सरोज गुप्ता को समझौता कराना पड़ा.
सरोज गुप्ता ने कहा कि- फेसबुक पर भरे पेट वाले लोगों का जमावड़ा है. अत: गम्भीर बातों, गम्भीर समस्याओं और राष्ट्रचिन्तन के मुद्दे पर  गम्भीर बहस नहीं हो रही है.
आशा मेहता ने वाह वाह से शुरुआत ही की और कहा- इस वाह में आम इन्सान की आह छिपी है. अदभुत अभिव्यक्ति या यूं कहें फेसबुक की गतिविधियों पर अदभुत कटाक्ष है. इस वाह में भी वे फेसबुक के लाइकिस्टों की गतिविधियों के प्रति अपने अन्दर के गुस्से को छिपा नहीं सकीं.1
अरविन्द त्रिपाठी

चौथा कोना

चुनाव से भागे 'चोर'

आदरणीय लोकेश शुक्ल के पुत्र युवा पत्रकार रितेष शुक्ल के शुभ विवाह में कानपुर के पत्रकारों का अच्छा खासा जमाव था. जब अखबार वाले होंगे तो अखबारों और पत्रकारों की ही चर्चा होगी. तो शुरू हो गई प्रेस क्लब की चर्चा. मैंने सौरभ शुक्ला से पूछा- १ जुलाई को चुनाव है न...! अरे कहां भैया, सब फिर टांय...टांय फिस्स हुआ जा रहा है. कह दिया गया है चुनाव नहीं होंगे. सौरभ का यह जवाब मुझे चौकाने वाला था और कानपुर के जिम्मेदार पत्रकारों को धिक्कारने वाला भी. प्रेस क्लब की मौजूदा कार्यकारिणी अगर अब भी चुनाव टालकर नवीन मार्केट में बनी रहना चाहती है तो लगता है परिवर्तन और संवैधानिकता चाहने वालों को सड़क पर उतरना होगा.
 पिछली बार जब अन्ना जी के समर्थन में मैं तम्बू लगाकर प्रेस क्लब के नीचे बैठा तो युवा पत्रकारों ने मेरे धरने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. उसी धरने से मुहिम चली और घनघोर दबाव में प्रेस क्लब के महामंत्री कुमार ने १ जुलाई को चुनाव कराने की घोषणा कर दी. इसके बाद पत्रकारों के बीच आपसी क्या राजनीति हुई मुझे नहीं पता लेकिन इतना अवश्य पता है कि परिवर्तन की अगुवाई कर रहे नये पत्रकारों को डराकर, बरगलाकर, फुसलाकर, रिरियाकर खामोश रहने को राजी कर लिया गया है.
शर्म आनी चाहिये ऐसे लोगों को जो खुद को पत्रकार कहते हैं और एक असंवैधानिक, भ्रष्ट और अराजक संस्था के साथ सार्वजनिक रूप से व्यभिचार करते हैं. १० साल बाद भी अगर चुनाव कराने में दग रही है. तो इसका मतलब है इस पूरे गिरोह ने जमकर भ्रष्टाचार किया है. १० बरस तक लाखों रुपये आये-गये और प्रेस क्लब जैसी संस्था के पास बैंक एकाउंट नहीं है. एक बूढ़ा अन्ना पूरे देश से भ्रष्टाचार मिटाने को मरा जा रहा है और यहां की जवान पत्रकारिता भ्रष्टाचारियों से डरकर किसी पिल्ले की तरह या कूं-कूं कर रही है या दुम हिलाती है. लगता नहीं कि ये गणेश शंकर विद्यार्थी की नगरी है.

आमरण अनशन पर बैठने की तैयारी
परिवर्तन चाहने वाले पत्रकारों ने प्रेस क्लब चुनाव की मांग को लेकर आमरण अनशन पर बैठने की ठानी है. अनशनकारियों की मांग होगी-
स्न जिला प्रशासन के हस्तक्षेप और देख-रेख में प्रेस क्लबचुनाव.
स्न पिछले दस साल का पाई-पाई का हिसाब.
स्न हिसाब न देने पर जांच और उचित कार्रवाई हो.
चैनलों पर लोकल सेंसरशिप
उत्तर प्रदेश में इस समय मीडिया पर सरकार का पूरा दबाव है. यहां कानपुर में पिछले दिनों शहर के तीन-चौथाई हिस्से में अचानक 'सहारा समय' का प्रसारण गायब हो गया. पता किया तो सूत्रों ने बताया कि लखनऊ के आदेश पर स्थानीय प्रशासन ने केबल आपरेटर को डंडा दिखा दिया है- 'सहारा समय' कहीं नजर नहीं आना चाहिये. और सहारा गायब. स्थानीय सहारा समय कार्यालय से उनके चैनल के गायब होने के बारे में पूछा तो सूत्रों की जानकारी की पुष्टि हुई. बताया गया कि सहारा समय पर अघोषित सेंसर इसलिये लागू था कि चैनल कांग्रेसी व्यापारी संजीव दीक्षित के मामले में ऐसा पर्दाफाश जिसके बाद यह कहना बहुत आसान हो जाता कि संजीव दीक्षित को सरकार के इशारे पर साजिशन फंसाया गया है. चैनल के पास इस बात के पक्के सबूत थे. इधर पिछले हफ्ते कानपुर में 'आईबीएन-७' का अता-पता नहीं चला. अभी राष्ट्रीय चैनल के स्थानीय प्रतिनिधि संयोगवश एक समारोह में मिले तो चर्चा का विषय यही राष्ट्रीय चैनलों का स्थानीय अपहरण ही रहा. 'आईबीएन-७' के अवरुद्ध या छुपे-छुपे प्रसारण की वजह का हम कानपुर के पत्रकार कुछ कयास ही लगाते कि शलभ और मनोज पर सार्वजनिक रूप से भरे बाजार में किसी फिल्म गुण्डे की तरह दो पुलिस अफसरों का दौड़ा-दौड़ाकर हमलावर होना बताया गया कि डा. सचान की आत्महत्या को आत्महत्या न मानकर दोनों मीडिया मैनों ने अपनी 'हत्या' का सामान जुटा लिया है। शलभ और मनोज राजन ने जब अपनी तथ्यपरक विश्लेषणात्मक पत्रकारिता से टीवी स्क्रीन पर यह साबित कर दिया कि डा. सचान की आत्महत्या झूठ है, सच तो हत्या और हत्यारों के बीच कहीं गुम है तो सरकार बौखला गई और इसी बौखलाहट में उसके 'दो गुण्डों' ने शलभ और मनोज को ठिकाने लगाने की ठान ली. मैंने घटना की अगली भोर मनोज और शलभ से बात की दोनों अपनी मुट्ठी भींचे हुये हैं. अच्छा लगा न वे हताश हैं, न निराश हैं, न डरे-सहमे हैं बल्कि अब और प्रतिबद्धता के साथ सच कहने को आकुल हैं. लेकिन अभी भी इन दोनों पत्रकारों की जान खतरे में है. क्योंकि डा. सचान कांड का असली नायक अभी भी अपनी चालें चल रहा है. जेल में मौते इसका प्रमाण हैं.1
प्रमोद तिवारी

अग्रलेख

बांस से ही बनती है कलम

शलभमणि त्रिपाठी और मनोज राजन त्रिपाठी कोई आज से माया सरकार की आंखों की किरकिरी नहीं  थे. डा. सचान की हत्या से पहले भी आरुषि हत्याकांड, इंजीनियर मनोज गुप्ता हत्याकांड साथ ही बसपा विधायकों के बलात्कार, हत्या, अपराध और काले कारनामों के पर्दाफाश में इन दोनों मुखर पत्रकारों ने प्रखर भूमिका निभाई. मनोज और शलभ से मेरी जब-कब बात होती रहती है. इन दोनों ने कई बार आशंका जताई कि मायावती सरकार में उनके खिलाफ कुछ भी हो सकता है. जान-माल के साथ-साथ मान-प्रतिष्ठा सब कुछ निशाने पर है. शलभ, मनोज तो प्रदेश की राजधानी में हैं जब उनके साथ 'सरकारी गुण्डों' की ये मजाल है तो बाकी प्रदेश के छोटे नगरों व कस्बों में पत्रकारों के प्रति पुलिस का क्या रवैया रहता होगा, इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है.
कई बार सरकार या प्रशासन समझ नहीं पाता कि उसके बयानों और कृत्यों का सिर्फ सीधा प्रभाव ही नहीं होता बल्कि उससे आम लोगों में एक संदेश भी जाता है, जब कुर्सी पर बैठे नेता, अधिकारी अपने छिछियाये छोथ के लिये मीडिया वालों को गरियायेंगे, उन्हें सबक सिखाने की ताड़ में रहेंगे तो उनके मातहत क्याकरेंगे...? वे नम्बर बढ़ाने के चक्कर में बढ़-बढ़ के बैटिंग करेंगे ही. अपने बॉस को खुश करने के लिये वे किसी के भी बांस कर देंगे. मायावती 'मीडिया' को जातिवादी और बिकाऊ मानती हैं. ऐसा उनकी बोली-वानी और क्रियाकलापों से जगजाहिर है. अभी कुछ माह  पहले दैनिक जागरण के मालिक पर पुलिस का हमला हुआ था. सरकार ने इस मामले की खूब खिल्ली उड़ाई थी. और जो पुलिस, अधिकारी व कर्मचारी बदतमीजी और मारपीट करने की भूमिका में थे उन्हें दण्डित करने के बजाय पुरस्कृत सा किया गया था. इस घटना से पुलिस और मीडिया के बीच क्या संदेश गया...? यही न कि पत्रकारों को मारो शोहरत और पदवी मिलती है. अगर ऐसा ही चलता रहा तो  वह दिन भी दूर नहीं जो सरकार के खिलाफ लिखने वालों को पुलिस घर में घुस-घुसकर मारेगी. उसके बाद लोकतंत्र में शायद ही कुछ बचे. लेकिन मैं तीन स्तंभों वाली मौजूदा व्यवस्था को सिर्फ इतना बताना चाहता हूं कि चौथे स्तंभ पर ज्यादा बांस न चलाओ. क्योंकि इसी बांस से कलम भी बनती है.

पेट्रोलियम पदार्थों की वृद्धि के विरुद्ध सपा का प्रदर्शन

पेट्रो पदार्थों के लिये केन्द्र सरकार ने बाजार आधारित मूल्य व्यवस्था लागू कर रखी है. इसी बहाने केन्द्र की कांग्रेसनीति सरकार ने लगातार पेट्रोल, डीजल व घरेलू गैस सिलेंडरों की कीमतों में पुन: वृद्धि कर दी है. विगत माह पेट्रोल में पांच रुपये व कल घरेलू गैस सिलेंडरों में पचास रुपये व डीजल में ३ रुपये प्रति लीटर व कैरोसिन में दो रुपये प्रति लीटर की वृद्धि कर मध्यम वर्ग सहित सभी अमीर व गरीबों को सीधे प्रभावित किया है.
आज कानपुर के किदवईनगर चौराहे पर हुये प्रदर्शन में समाजवादी युवजन सभा के कार्यकर्ताओं द्वारा  कांग्रेस नीति केन्द्र सरकार की इस पेट्रो पदार्थों की मूल्य वृद्धि के खिलाफ उग्र नारेबाजी की गई. केन्द्र सरकार का पुतला बनाकर फूका गया.
प्रवीन कुमार यादव ने कहा महंगाई की मार से जनता त्राहि-त्राहि कर उठी है. इस बार की मूल्य वृद्धि का असर खान-पान, यातायात, भाड़ा और अन्य जीवनोपयोगी वस्तुओं की कीमतों में पड़ेगा.
प्रदर्शन में पुष्कर सिंह चन्देल, दुर्गा शंकर मिश्र आदि प्रमुख रूप से सक्रिय रहे.1
हेलो संवाददाता

बड़े से छोटा और छोटे से बड़ा बनाया जाता चौराहा

 कानपुर दक्षिण का एक मुख्य चौराहा किदवईनगर का चौराहा सुन्दरीकरण के नाम पर खोद दिया गया है. यह चौराहा कानपुर के ट्रांसपोर्ट नगर आने-जाने  वाले ट्रकों और शहर आने-जाने वाली रोडवेज बसों की आवाजाही का केन्द्र है. भारी वाहनों के साथ-साथ दोपहिया वाहनों, कारों और टैम्पो-टैक्सी सहित पैदल यात्रियों का आना-जाना इस चौराहे पर रातो-दिन बना रहता है. लगभग दो लाख से अधिक वाहन और लगभग दस लाख आबादी प्रतिदिन इस चौराहे से गुजरती है. जिसकी समस्या इस खुदे चौराहे से और बढ़ जाती है.
विगत ९ जून की रात एक जेसीबी के माध्यम से किदवईनगर चौराहे के सेंटर पोल के चारो तरफ दो  फीट से अधिक गहरी खुदाई शुरू कर दी गई. खुदाई के बाद निकली मिट्टी-रोड़े को तब से आज तक पड़े रहने दिया गया. उसकी सुरक्षा के लिये लगाये गये बांस-बल्ली स्वयं ही कमजोरी का शिकार हैं. अर्थात नाम मात्र के लिये ही लगे हुये हैं. इस बड़े व्यास के गड्ढे के कारण चौराहे का शेष मार्ग बहुत छोटा हो गया है और शेष जगह भी खुदाई से निकली मिट्टी और निर्माण सामग्री से अतिक्रमित है. लोगों का आना-जाना दूभर है.
आईआईटी कानपुर में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख डा. विनोद तारे का कहना है भारी वाहनों के गुजरने वाले चौराहे छोटे और कम व्यास के गोले होते हैं. इसी नियम का पालन देश-दुनिया में किया जाता है. कानपुर विकास प्राधिकरण द्वारा किये जा रहे इस अनियोजित विकास की घोर भर्तस्ना करते हुये युवा ट्रांसपोर्टर कंवल गांधी का कहना है एक अच्छी खासी सड़क और चौराहे का सत्यानाश कर दिया गया है. आम जनता में इससे खासा रोष है.1
हेलो संवाददाता

क्राइस्ट चर्च कालेज

शिक्षा नहीं सम्पत्ति है विवाद की मूल जड़

गरीब बच्चों के पढऩे के लिये दान दी गई जमीनों पर कानपुर में क्राइस्ट चर्च कालेज की स्थापना की गई थी. भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में इस कालेज और इसके छात्रों का अविस्मरणीय योगदान रहा है. वर्तमान में कालेज में अव्यवस्था और अफरातफरी का माहौल है. ऐसा नहीं कि यहां शैक्षणिक स्टाफ की कमी है या फिर उनमें योग्यता नहीं. ऐसा भी नहीं कि यहां विद्यार्थियों की कमी है. नये छात्रों की आवक भी जारी है. छात्र-छात्राएं प्रतिदिन नये सत्र में प्रवेश के लिये कालेज के चक्कर काट रहे हैं. परन्तु कालेज के प्रबन्धन को कब्जियाने के बहाने बनाये गये दो प्रिंसिपल और उनके अलग-अलग प्रवेश फार्मों में से किस को वैध माना जाये? किस प्रकार प्रवेश पायें? विद्यार्थियों मे से किसे विश्वविद्यालय वैध मानेगा. अध्ययन कर अपना भविष्य निर्मित करने आये विद्यार्थियों का भविष्य प्रबन्धन के मालिकाना हक के विवाद में क्षत-विक्षत हुआ जा रहा है.
अल्पसंख्यक प्रबन्धन वाला क्राइस्ट चर्च कालेज विगत दो-तीन वर्षों से लगातार खबरों में सुर्खियां बढ़ा रहा है. कभी यहां के दो अध्यापक बर्खास्त कर दिये जाते हैं तो कभी कालेज के आफिस में ताला डाल दिया जाता है और कभी डा. परवेज डीन की शराबबाजी चर्चा का विषय बन जाती है. विवाद की तह पर जाने पर ज्ञात होता है कि मालरोड जैसी सड़क के किनारे स्थित इस कालेज की अरबों की भूमि पर अब नजर लग गयी है. यह काम प्रबन्धन पर कब्जा करने के साथ ही किया जा रहा है. बताया जाता है कि डा. परवेज डीन आगरा डायोसिस (एडीटीए) संस्था के बनाये हुये प्राचार्य है जबकि सोसायटी रजिस्ट्रार के पास इस नाम की संस्था रजिस्टर्ड ही नहीं है. दूसरी तरफ जिस संस्था का रजिस्ट्रेशन है वह है लखनऊ डायोसिस (एलडीटीए) इसे एंग्लिकन चर्च द्वारा स्थापित किया गया था. इस संस्था द्वारा डा. फिलोमिना रिचर्ड्स को प्रिंसिपल घोषित किया गया, जिन्हें वर्तमान में बरामदे से अपनी प्रिंसिपली चलानी पड़ रही है.
विश्वस्त सूत्रों का कहना है कि इस प्रिंसिपली के विवाद की जड़ वे जमीनें हैं जो कालेज से सम्बद्ध हैं. समय-समय पर काबिज प्रबन्धन एडीटीए संस्था की जमीनों को औने-पौने में बेचा जाता रहा है. आज इन सम्पत्तियों में व्यापारिक केन्द्र स्थापित किये गये हैं. वेस्ट काट स्कूल के बगल वाली जमीन पर निर्मित बाला जी काम्पलेक्स संस्था की ऐसी अवैध गतिविधि का परिणाम लगतजा है. क्राइस्ट चर्च कालेज के ऐतिहासिक छात्रावास के कमरों की छतों में छेद कर न रहने योग्य बना दिया गया. इस प्रकार उसे भी बेचने की तैयारी है. नाम न छापने की शर्त पर कालेज के कर्मी बताते हैं कि प्रिंसिपल डा. परवेज डीन कभी भी राष्ट्रीय पर्वों तक में झंडारोहण नहीं करते हैं. आम शहरियों का मानना है कि देश और देश के कानून व प्रतीक चिन्हों का निरन्तर अपमान कर ऐसे ऐतिहासिक शैक्षणिक संस्थान पर काबिज व्यक्ति के इरादों पर अंकुश लगाने का काम प्रशासन को तत्काल करना चाहिये.१
हेलो संवाददाता 

मंगलवार, 21 जून 2011

जरूरत क्रान्ति की पूरी किसानी की


अन्ना हजारे और उनकी टीम पर एक व्यंग्य कसा जा रहा है कि पूरा देश साथ है तो  चुनाव लड़कर संसद में क्यों नहीं आते? बाबा रामदेव भी पिटने से पहले अपनी हिट मुद्रा में यही कहते पाये गये कि न उन्हें कोई पद चाहिये न कुर्सी चाहिये और न ही वह कभी चुनाव लड़ेंगे. अन्ना या बाबा कोई नये नहीं हैं जो देश को यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि उनके पास अभूतपूर्व जनसमर्थन है या यूं कहिये  पूरा देश उनके साथ है बावजूद इसके वे सत्ता के लोभी नहीं हैं. जय प्रकाश नारायण और महात्मा गांधी पहले ही खुद को सत्ता से दूर रखकर राजनैतिक बदलाव के लिये प्रण-प्राण से लगने वाले और सत्ता प्राप्ति के बाद मची किच-किच में प्राण गंवा देने वाले उदाहरण के रूप में देश के सामने हैं. लगता है अन्ना या बाबा अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रीय राजनीतिक संतों की गति से यही सन्देश प्राप्त कर सके कि जो सुदृढ़, ईमानदार और सद् चरित्र होते ही वे सत्ता से दूर रहते हैं. मेरी दृष्टि में आज यह  सोच उचित नहीं रह गई. गांधी अगर आजादी के बाद सत्ता के शीर्ष पर नहीं विराजे तो देश कोई शीर्ष पर नहीं जा पहुंचा. बल्कि रसातल में चला गया. हालत यह हो गई है कि लोग आज यह कहते कतई नहीं हकलाते कि इस आजादी से बेहतर तो गुमाली थी.
अक्सर कहा जाता है कि अगर नेहरू की जगह पटेल या जिन्ना पहले प्रधानमंत्री होते तो भारत की तस्वीर कुछ और होती. लेकिन मैं कहता हूं कि अगर भारत का पहला प्रधानमंत्री मोहनदास करमचंद्र गांधी होता तो निश्चित ही देश की तस्वीर कुछ और होती. आपातकाल के दौरान गांधी के पदचिन्हों पर चलते हुये जयप्रकाश जी भी राजनीतिक संत की कोटि में जा बैठे. उन्होंने भी संघर्ष के बाद हाथ आयी सत्ता पर सवारी नहीं गांठी. नतीजा यह हुआ कि देश में पहले सत्ता परिवर्तन के परिणाम इस कदर शर्मनाक रहे कि लोग आज यह कहते पाये जाते हैं कि इससे तो बेहतर इमरजेंसी थी. यहीं अगर इमरजेंसी जंग के विजेता जयप्रकाश जी देश के प्रधानमंत्री बने होते तो मोरार जी के नेतृत्व वाली गैर कांग्रेसी सरकार कुंजड़ों की तरह लड़-भिड़कर तहस-नहस न हुई होती. किसी भी आंन्दोलनों में आम समर्थकों का विश्वास किसी नेता विशेष पर टिका होता है. उसके व्यक्तित्व और कृतित्व से आन्दोलन की भावना बनती है जिसके पीछे भीड़ चलती है. आजादी की लड़ाई में गांधी के पीछे था देश. ऐसे ही आपातकाल की लड़ाई में जयप्रकाश के साथ था देश और आज भ्रष्टाचार से जब जंग छिड़ी है तो देश अन्ना के साथ भी है और बाबा के साथ भी. आन्दोलनों के नायकों के पीछे सहनायकों की भी बड़ी भूमिका होती है. ये सहनायक नायक के प्रति तो पूर्ण समर्पण रखते हैं लेकिन उसके अतिरिक्त किसी और को अपना नेता मानने में उन्हें दिक्कत होती है.
गांधी और जयप्रकाश को दिल और दिमाग में रखकर निस्वार्थ भाव से देश सेवा के लिये निकलने वालों में सत्ता संचालन के प्रति निष्प्रभ भाव अब कोई सफल सूत्र नहीं रहा है. जिस व्यक्तित्व के प्रति सभी का समर्थन भाव हो नेता उसे ही होना चाहिये चाहे आन्दोलन का, चाहे सत्ता का. फिर एक बात और जब शेर की सवारी करनी नहीं तो जंगल में घूम-घूम कर शेर के सामने जाने का क्या मतलब. शेर आ जायेगा जिसे सवारी करनी आती है वो सवारी करेगा नहीं तो बाकी शेर ही करेगा.
यानी  शेर खा जायेगा और इस देश को सत्ता  ही खाये जा रही है. अन्ना जी, बाबा जी या और कोई अकुलाहट भरा चरित्र जो देश के किसी कोने में अंगड़ाई ले रहा हो तो वो भी आज की तारीख में संसद में बैठे हुये लोगों की इस चुनौती पर ताल ठोंके कि जब चुनाव आयेगा तो उस मैदान में भी देखा जायेगा.
फिर एक बात और भी है जो काफी हद तक सही भी है कि व्यवस्था में खामियां निकालना या उसे सत्ता बदलना ही केवल नेतृत्व प्रदान करना नहीं है. नेतृत्व का मतलब है संघर्ष के बाद बदलाव की सत्ता को सही रास्तों पर कसी लगाम वाली घोड़ी की तरह सरपट दौड़ाना.
अन्ना हजारे या रामदेव सरीखे लोग जब चुनाव न लडऩे की वचनबद्धता के साथ चुने हुए प्रतिनिधियों को उखाडऩे की बात करते हैं तो ये समझ नहीं आता कि ये लोग उखाडऩे के बाद करेंगे क्या... उगायेंगे क्या.... देश के भ्रष्टाचार विरोधी क्रान्तिकारियों तुम्हें पूरी किसानी करनी होगी केवल खराब $फसल उखाड़ फेंकने से कुछ नहीं होगा. अगर नयी नस्ल के उन्नत बीज नहीं बोये तो....
प्रमोद तिवारी

खरीबात

मुकाबला पांच सौ बनाम सवा सौ करोड़ का है

जिन लोगों को लग रहा है कि भ्रष्टाचार पर मचा यह हाहाकार भी देर-सबेर तूफानी समन्दर की तरह थमेगा ही, वे भ्रम में हैं. किन्हीं स्थितियों में अगर यह हाहाकार थमा भी तो वह और बड़े तूफान की खामोशी होगी. 'भ्रष्टाचार' तो एक बहाना होगा. असली फैसला तो राजनीति बनाम जनता में 'सुप्रीमो'  कौन, इस पर होगा. लोकतंत्र में जो कुछ भी है सब जनता के लिये है. ये संसद, ये सचिवालय, ये न्यायालय, ये संविधान, ये कायदे, ये कानून, ये नियम आदि...इत्यादि सब कुछ. इन संस्थाओं में संसद की सर्वोच्चता का आधार भी यही है कि उसे सीधे-सीधे जनता आकार देती है. जनता की प्रतिनिधि होने के कारण संसद अन्य सभी संस्थाओं पर भी निगाह रखने का अधिकार रखती है. नैतिक रूप से भी और संवैधानिक रूप से भी. उसे आवश्यक जान पड़ता है वह कानून बनाती है, उसे आवश्यक जान पड़ता है वह कानून बदल देती है. लेकिन यह सब वह करती जनता के लिये ही है.
हाल के दिनों के घटनाक्रम में जनता एक कानून के रूप-स्वरूप को तय करने में दखलंदाजी कर रही है. यह दखलंदाजी संसद को नागवार गुजर रही है. संसद के अपने तर्क-वितर्क हैं और जनता की अपनी आवाज. जहां तर्क-वितर्क होंगे वहां कायदे कानून  की बात होगी.  और जहां 'आवाज' होगी वहां समय संगत परिवर्तन की मांग होगी. तर्क-वितर्क का आधार न्याय और संविधान के ठोस धरातल पर भी सम्भव हो सकता है जबकि जनता की आवाज तो हमेशा ही समय की बदलती धारा के संक्रमण से ही उपजती है. जो हमेशा ही एक नवप्रयोग के जोखिम की तरह ही है. आवाज लगाने वालों के लिये भी और आवाज सुनने वालों के लिये भी. चूंकि भारतीय लोकतंत्र ने अपनी एक अच्छी  खासी उम्र जी ली है. उसके पास लोकतांत्रिक मर्यादा निभाने का अपना अनुभव है, साथ ही लोकतंत्र और उसकी प्रणालियों में व्यवहारिक विरोधाभाषों से उपजी विसंगतियां भी हैं. लोकतंत्र की अब इससे और बड़ी विसंगति क्या हो   सकती है कि आज  देश की जनता दो तरह की आवाजें लगा रही है. एक संसद के भीतर से और दूसरी जंतर-मंतर रामलीला मैदान से. जनता दो तरफा बहस भी कर रही है. है न कमाल की असंगति भारतीय लोकतंत्र की. और  यह कोई एक दिन में नहीं पैदा हुई. ६० साल की अनदेखी का नतीजा है. संसद में जब जनता अपना प्रतिनिधि चुनकर ५ साल के लिये भेजती है तो सेवक मुद्रा में उस प्रतिनिधि का काम होता है अपने क्षेत्र की आवाज को संसद में उठाना. जब जनता के चुने प्रतिनिधि अपना दायित्व बाखूबी नहीं निभाते हैं तो जनता की अनसुनी टाली गई आवाजें जंतर-मंतर और रामलीला मैदानों में इकट्ठा  होने लगती हैं. संसद को समझना होगा कि जंतर-मंतर और रामलीला मैदानों से जो आवाजें आ रही हैं वे अलग देश के लोगों की नहीं हैं. ये वही लोग हैं जिन्होंने पिछले दिनों तुम्हें वोट देकर संसद में पहुंचाया है. लेकिन मौजूदा राजनीति उन्हें नकारे दे रही है. उसे विरोधी राजनीतिक दलों के धरना प्रदर्शनों और अन्ना व रामदेव के धरना प्रदर्शनों में कोई अन्तर नहीं लग रहा.... बस यही धोखा है.
चाहे अन्ना की हो या रामदेव की, इन्हें वर्तमान में देशवासियों की आवाज ही माना जाना चाहिये. जो भी इससे अलग इनकी और किसी तरह से व्याख्या या पहचान करेगा. समय आने पर खुद अपने हाथों धोखा खाने के लिये तैयार होगा. केन्द्र सरकार जिसके साथ आज सभी राजनीतिक पार्टियां भीतर-भीतर एक स्वर साधती हैं, उन्हें नहीं लगता कि अन्ना के अनशन और रामदेव के 'स्वांग' से देश का हर होशमंद नागरिक गुड़ चुका है. तभी तो सरकार को जंतर-मंतर पर केवल अन्ना की टीम दिखती है और रामलीला मैदान में रामदेव की मंडली.... उसने कहना भी शुरू कर दिया है कि भारत की जनता की असली आवाज संसद भवन के भीतर (चलने वाले जूते-चप्पल) हैं न कि दीवारों के बाहर मचने वाला शोर. अच्छा हो कि समय रहते जनता की असली आवाज की पहचान हो जाये. वरना फैसला कतई नहीं है. एक तरफ पांच सौ हैं और दूसरी तरफ सवा सौ करोड़.
प्रमोद तिवारी

शनिवार, 18 जून 2011

फेसबुकनामा

जूता-कथा

रोज-रोज जूता. जिधर देखिये उधर ही 'जूतेबाजी'. जूता नहीं हो गया, म्यूजियम में रखा मुगल सल्तनत-काल के किसी बादशाह का बिना धार (मुथरा) का जंग लगा खंजर हो गया. जो काटेगा तो, लेकिन खून नहीं निकलने देगा. बगदादिया चैनल के इराकी पत्रकार मुंतजऱ अल ज़ैदी ने जार्ज डब्ल्यू बुश के मुंह पर जूता क्या फेंका? दुनिया भर में 'जूता-मार'  फैशन आ गया . ... न ज्यादा खर्च. न शस्त्र-लाइसेंस की जरुरत. न कहीं लाने-ले जाने में कोई झंझट. एक अदद थैले तक की भी जरुरत नहीं. पांव में पहना और चल दिये. उसका मुंह तलाशने, जिसके मुंह पर जूता फेंकना है.
जार्ज बुश पर मुंतजऱ ने जूता फेंका. वो इराक की जनता के रोल-मॉडल बन गये. जिस कंपनी का जूता था, उसका बिजनेस घर बैठे बिना कुछ करे-धरे बढ़ गया. भले ही एक जूते के फेर में मुंतजऱ अल ज़ैदी को अपनी हड्डी-पसली सब तुड़वानी पड़ गयीं हों. क्यों न एक जूते ने दुनिया की सुपर-पॉवर माने जाने वाले देश के स्पाइडर-मैन की छवि रखने वाले राष्ट्रपति की इज्जत चंद लम्हों में खाक में मिला दी हो. इसके बाद तो दुनिया में जूता-कल्चर ऐसे फैला, जैसे जापान का जलजला. जिधर देखो उधर जूता. सबसे ज्यादा 'जूतम-जाती' की हवा चली दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सर-जमीं पर. यानि भारत में.
जहां तक मुझे याद है, पहला जूता देश के एक हिंदी अखबार के संवाददाता ने मौजूदा केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंवरम् के ऊपर एक प्रेस-वार्ता में फेंका गया. जूता फेंकने वाले पत्रकार की दलील थी कि, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मौत के बाद राजधानी दिल्ली में भड़के सिक्ख-दंगों की जांच में ढिलाई को लेकर गुस्से का इजहार है. मामले को तूल देने का मतलब पत्रकार या फिर विरोधी दलों की दुकान चलवाने के लिए मुद्दा तैयार कर देना था. सो न चाहकर भी बिचारे गृहमंत्री खून सा घूंट पी कर रह गये. पत्रकार को माफ कर दिया. गृहमंत्री को राजनीति करनी थी. सत्ता के गलियारों में कहीं एक अकेला जूता, आवाज न पैदा कर दे. ये सोचकर गृहमंत्री चुप्पी लगा गये. लेकिन जिस अखबार में पत्रकार नौकरी करता था, वहां राजनीति हो गयी.
पता नहीं देश के गृहमंत्री के मुंह पर फेंका गया जूता, कब अखबार और उसके मालिकों की ओर उडऩे लगे? और सरकार, अखबार मालिकों से कौन सा पुराना हिसाब इस जूते ही आड़ में पूरा या चुकता कर ले. इसलिए बिना देर किये, जूता फेंकने वाले पत्रकार को नौकरी से बर्खास्त करके 'बिचारे' की श्रेणी में ला दिया गया . बेरोजगार करके. सल्तनत भी खुश और अखबार मालिक भी. इससे न सल्तनत को सरोकार था. न अखबार के मालिकान को, कि आवेश में फेंके गये एक जूते का वजन पत्रकार और उसके परिवार पर कितना भारी पड़ेगा?
इसके बाद तो जिसे देखो, वो ही घर से जूता पहनकर निकलता और जिसका मुंह उसे अपने हिसाब-किताब से ठीक लगता, उसके मुंह पर फेंक आता. जूता नहीं हो गया, मानो घर में मरा हुआ चूहा हो गया. गृहमंत्री पर एक पत्रकार द्वारा जूता फेंकने की नौबत क्यों आई? जूता फेंकने के बाद मुद्दा ये उछलना चाहिए था. मगर मुद्दा उछला सिर्फ गृहमंत्री पर जूता फेंका गया. एक अखबार के पत्रकार ने फेंका. जिस वजह से फेंका, वो वजह आज भी वैसी ही है. गृहमंत्री भी वही हैं. संभव है कि आरोपी पत्रकार ने जूता भी संभालकर रख लिया हो.
इसके बाद देश के जाने माने योग-गुरु बाबा रामदेव की ओर जूता उछाल दिया गया. भरी सभा में. मामला जूते के इस्तेमाल का था . पैर में नहीं. किसी के मुंह पर . सो जूता, योग-गुरु, और जूते का मालिक सब सुर्खी बन गये. दो-चार दिन सबने चटकारे लेकर 'जूता-बाबा' कांड पर चटकारे लिये. बात में जूता, जूता-मालिक के पैर में पहन लिया गया. जूते का मालिक अपने घर में और बाबा अपने आश्रम में खो-रम गये. देश में दो-चार छोटे-मोटे और भी जूता-कांड हुए. ये अलग बात है कि बदकिस्मती के चलते वे उतनी सुर्खी पाने में कामयाब नहीं हो सके, जितने बाकी या पहले हो चुके जूता-कांडों को चर्चा मिली.
अब फिर देश के एक कद्दावर नेता को भीड़ के बीच जूतियाने की 'बंदर-घुड़की' दी गयी. मारा या उनकी ओर जूता उछाला नहीं गया. शायद ये सोचकर कि बार-बार जूता फेंकने से, जूता और जूते की मार का वजन कम हो जाता है. कुछ दिन पहले ये बात भारत आये इराकी पत्रकार मुंतजऱ अल ज़ैदी ने मुझे भी इंटरव्यू के दौरान सुनाई और समझायी थी. मुंतजऱ साहब की दलील थी, कि बार-बार, और हर-किसी पर जूता फेंकने से, जूते की चोट कम हो जाती है. या यूं कहें कि रोज-रोज जूता फेंकने से जूते की 'इज्जत' को ठेस पहुंचती है.
इस बार जूते के शिकार होते होते बचे कद्दावर नेता जनार्दन द्विवेदी. देश की राजधानी दिल्ली में. और जूता दिखाने वाला था सुनील कुमार नाम का कथित पत्रकार. कथित इसलिए कि देश की पत्रकार जमात ने ही इस बात से इंकार कर दिया कि वो पत्रकार भी है. पत्रकार जमात की दावेदारी के मुताबिक हमलावर एक शिक्षक है. जूता उठाने वाला कौन है? इससे ज्यादा जरुरी सवाल ये है कि उसने जूता उठाया क्यों? उसने अपनी मर्जी से जूता उठाया, या फिर किसी विरोधी या असंतुष्ट ने उसे उकसाकर, नेता जी के ऊपर जूता सधवाया. सवाल ये भी पैदा होता है कि जब जूता उठा लिया, तो फिर उछाला, या नेता जी पर जड़ा क्यो नहीं? जो भी हो. न तो मैं जूता फेंकने वाला हूं. न ही किसी को उकसाकर, किसी और पर जूता फिंकवाने वाला. चाहे कोई किसी पर फेंके और किसी के मुंह पर जूता पड़े. बे-वजह फटे में भला टांग क्यों अड़ाऊं? हां इतना जरुर लग रहा है, कि अगर देश में इसी तरह जूते का बेजा इस्तेमाल होता रहा तो, वो दिन दूर नहीं होगा, कि आपके पैर को अपना जूता कितना ही भारीलगे, लेकिन जिसके मुंह पर जूता फेंका जायेगा, उसके मुंह के लिए जूते का वजन कम हो जायेगा. मैं तो खुले दिल-ओ-दिमाग से यहीं कहूंगा कि जूते का हर समय इस्तेमाल ठीक नहीं. वरना एक दिन वो आ जायेगा, कि आज जिस जूते से इंसान खौफ खाता है. आने वाले कल में वही जूता अपनी 'इज्जत' बचाने की लड़ाई लडऩे के लिए विवश हो जायेगा. और एक दिन वो भी आ जायेगा जब देश की 'जूता-बिरादरी' के अस्तित्व की लड़ाई लडऩे वाले संगठन गली-कूचों में पैरोडी गाते फिर रहे होंगे- जूते को न उठाओ, जूते को रहने दो, जूता जो उठ गया तो...जूता कहीं का न रह जायेगा....1           
 अरविन्द त्रिपाठी

फेसबुकनामा

फेसबुक में आई और छाई
'सिल्ट वार्ता'

कई  वर्षों पूर्व हेलो कानपुर के एक अंक में 'सिल्ट' की महिमा पर एक व्यंगात्मक लेख प्रस्तुत किया गया था. जो आज के शहर के हालातों को देखते हुए मौजूं हो चला. तब ये और सुखिऱ्यों का हिस्सा बना जब इसे आजकल की नव-तकनीक यानी फेसबुक का प्रयोग कर के आप सभी की नजर किया गया.मूल लेख एक बार फिर आपके सामने है -
'मैंने चारों तरफ नजर घुमाई , मुझे हर कहीं सिल्ट नजर आई.' सिल्ट क्या है.. मुझसे एक उत्सुक छात्र ने पूंछा. मैंने कहा, 'सिल्ट नाले नालियों में जमा गन्दगी है, जिससे शहर की सीवर लाइनें चोक हो जाती हैं और बरसात में शहर नरक हो जाता है.' उत्सुक छात्र बोला रहे न आप सिल्ट के सिल्ट. इतने बड़े हो गए अभी तक सिल्ट का मतलब नहीं जान पाए. सिल्ट नाले... नालियों की गन्दगी नहीं है ,ये नगर निगम और जलसंस्थान की सालाना बंदगी है. सिल्ट टेंडर है,सिल्ट कमीशन है, सिल्ट ठेका है, सिल्ट मौका है. सिल्ट सभासद की दारू है, सिल्ट इंजीनियरों का मुर्गा है, अधिकारियों का अधिकार है. सिल्ट केवल सिल्ट नहीं समूची सरकार है. मैंने कहा नहीं बेटा सिल्ट शहर की गन्दगी हटाने के बीच बहुत बड़ा रोड़ा है. वो बोला नहीं सर, सिल्ट मिस्टर अरोरा है. इसी सिल्ट ने उसका जीवन संवारा है.पहले उसके पास साईकिल नहीं थी अब कर है ,बंगला है और बीबी के लिए जेवरातों का बड़ा पिटारा है. ये सिल्ट, सिल्ट नहीं शहर की आत्मा है. जैसे आत्मा अजर अमर है , वैसे ही सिल्ट को न तो कोई नाले से हमेशा के लिए निकाल सकता है और न ही हमेशा के लिए बना रहने दे सकता है. जैसे आत्मा का वस्त्र बदल जाता है, वैसे ही सिल्ट का जमादार बदल जाता है. एक जमादार उसे नाले में बहाता है दूसरा उसे पुन: नाले में डाल देता है. उत्सुक छात्र के जागरूक उत्तर के बाद मैंने चारों तरफ नजर घुमाई मुझे हर कहीं सिल्ट नजर आई.'
इसी बीच देश में एक बड़ी घटना घट गयी है.  वैसे तो हम सभी हर बड़ी घटना के लिए तैयार रहने लगे हैं. गांधी की ह्त्या से शुरू हुआ सिलसिला निगमानंद की असामयिक मौत तक जारी है. हम सभी बस. 'अरे ....' करके चुप रह जाते हैं. आता हूँ, उस खास घटना पर नहीं तो आप सभी कहेंगे, क्या आप भी 'सिल्ट' की ही तरह से फ़ैल जाते हो? तो मित्रों, विगत दिनों वर्धा-आश्रम से बापू का चश्मा खो गया है. ये बात भी फेसबुक में सुर्खियाँ बटोर रही है. इसी बीच प्रमोद तिवारी जी की 'सिल्ट' आ गयी. वैसे वो चश्मा भी खोज रहे थे. उन्होंने सुझाया था की अब देश में नाक और कान वाले तो रहे नहीं अत: चश्मा देश से बाहर चला गया होगा.
तभी 'सिल्ट' की समस्या पर आर. विक्रम सिंह जी ने कहा 'प्रमोद जी, सिल्ट उठाने का नगर-संयोजक आप को बनाया जाता है. आप समिति बनाइये और उठ्वाइये इसे. मैंने इस स्थिति में ये जान लिया की जरूर चश्मा इन्हीं के पास है, क्योंकि चश्मा लगाने के लिए इनके पास नाक और कान हैं, यानी वो मान और सक्रियता है, जिससे समस्या को समझा जा सके. अन्यथा देश में वैसे भी अपमान योग चल रहा है. अब देखो बाबा को, वो रामलीला मैदान, दिल्ली में अपना अपमान करा कर लौटा है. हवाई जहाज से चढ़कर देश-देश घूमकर अब वो भी अपना और अपमान कराएगा. प्रमोद जी ने भी आगे बढ़कर सिल्ट उठाने की जिम्मेदारी लेने में अपनी सक्षमता दिखाई. प्रज्ञा विकास ने इस 'सिल्ट' को बेहतरीन सिल्टमय प्रस्तुति कहा. व्यंग्यकार राजेन्द्र पंडित ने भी इसे सराहा. हद तो तब हो गयी जब इस हलकी-फुलकी फुहार के बीच कुछ फेसबुकिये साथी अपने घर और गली का पता बताने लगे. धन्य हो- 'फेसबुक की सिल्ट-गाथा'.1
अरविन्द त्रिपाठी

चौथा कोना

 लादेन की पुत्रवधू को बीवी बना दिया

मै न्यूज़24 का नियमित दर्शक हूँ और चैनल के कुछ पत्रकारों से भी मेरी दोस्ती है. यूज़24 पर गलतियाँ होते रहती है. लेकिन इस बार ब्लंडर हुआ है. आश्चर्य है कि इस ब्लंडर को किसी ने नहीं पकड़ा और दो बार कार्यक्रम को उसी ब्लंडर के साथ चलाया गया.
बहरहाल आपको कार्यक्रम में हुए ब्लंडर के बारे में बतलाते हैं. न्यूज़24 ने ओसामा बिन लादेन और उसकी बीवियों से संबंधित स्पेशल रिपोर्ट चलायी. स्टोरी की हेडिंग कुछ इस तरह से थी -
स्न हम तुम एक कमरे में बंद थे
स्न और चाभी खो गयी .
स्न प्रोमो और स्लग का अंदाज कुछ ऐसा था -
स्न जब लौटता था लादेन
स्न किसी भी लड़ाई से
स्न तो बंद हो जाता था कमरे में
स्न अपनी बीवी के साथ ..........
यहाँ तक तो सब ठीक था. लेकिन ओसामा बिन लादेन के साथ उसकी बीवी के तौर पर जिस महिला की तस्वीर लगायी गयी थी वह दरअसल ओसामा बिन लादेन की बीवी की तस्वीर नहीं है. यह गलत तस्वीर बाकायदा आधे घंटे तक दिखाई गयी.
ओसामा की तस्वीर के साथ न्यूज़24 के महान प्रोड्यूसर ने किसी दूसरी महिला की तस्वीर लगा दी. यह महिला कोई और नहीं ओसामा बिन लादेन के बेटे 'ओमर लादेन' की ब्रिटिश पत्नी जेन फेलिक्स ब्राउन है. इस नाते वो ओसामा बिन लादेन की पुत्रवधू हुई. लेकिन न्यूज़24 के प्रोड्यूसरों ने पुत्रवधू को बीवी में तब्दील कर दिया और धड़ल्ले से कार्यक्रम को चलाते रहे. पहले 9
बजे प्राईम टाइम में कार्यक्रम चला. फिर इसका रिपीट टेलीकास्ट दूसरे दिन 3.30 बजे किया गया.
लेकिन दो बार कार्यक्रम दिखाने के बावजूद किसी ने इस ब्लंडर को नहीं पकड़ा. एक दर्शक के नाते मुझे न्यूज़24 की इस हालत पर अफ़सोस भी हो रहा है
और तरस भी आ रहा है. मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि सुनील झा जैसे लोग जिन्हें अनुराधा प्रसाद ने चैनल की कमान सौंप रखी है वो क्या कर रहे हैं?
न्यूज़24 पर गलतियाँ पर गलतियाँ हो रही है और जिनकी जि़म्मेदारी बनती है उनके कान पर जूँ तक नहीं रेंग रही.1
हरि शंकर शाही

शहर में बनता पानी का बाज़ार

देश भर में घटते पेयजल से अब अपना शहर भी अछूता नहीं रहा. यद्यपि हमारी पहचान गंगा जैसी राष्ट्रीय नदी के किनारे बसे शहर के बाशिंदों के रूप में है. पर अब वही जीवनदायिनी और मोक्षदायिनी गंगा हमारी प्यास को तृप्त करने में सक्षम साबित नहीं हो रही है. अंधा-धुन्ध बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के दुष्परिणाम अब सामने आने लगे हैं. गंगा में घरेलू सीवेज और औद्योगिक कचरा के बहाव को रोकने की कोई नीति  अब तक नहीं बन पायी है. आज गंगा सहित सभी नदियों में प्रदूषण की मात्रा इतनी घातक हो गयी है की इन नदियों का पानी पीने और खेती दोनों कामों के लिए अनुपयुक्त हो गया है. इसके  परिणामस्वरूप आम जनता की जरूरतें भूगर्भ के जल पर बढ़ती जा रही हैं. जिसके  रासायनिक  संघटन में परिवर्तन होने लगा है. अब इस पानी के अधिकाधिक दोहन के कारण जल-स्तर में गिरावट और रासायनिक तत्वों का अतिक्रमण अर्थात प्रदूषण बढ़ता जा रहा है. सहना आज़मी से लेकर हेमा मालिनी तक अब सभी शुद्ध जल के अर्थशास्त्र को समझ कर उसके विज्ञापनों में अपने चमकते चेहरों के साथ उपस्थित हैं.
    कानपुर शहर के पेयजल की जरूरतों को पूरा करने में सरकारी जल-संस्थान अक्षम साबित हो रहा है. पनकी से आने वाली नहर में आने वाले पानी की दुर्दशा आज आम शहरी के सामने आ चुकी है. अंग्रेजों के समय की पाइप लाइनें सीवर सहित पेयजल उपलब्ध कराती हैं इसलिए अब कन्पुरिओं ने उस पानी पर विशवास खो दिया है. गरीब से गरीब शहरी भी अब पीने के लिए हैंडपंप के पानी पर अभी अपना विशवास बनाए हुए है. आर्थिक रूप से सक्षम लोग आज निजी बोरिंग करवा कर सब-मर्सिबल के माध्यम से घर, सड़क और अपना गला तर कर रहे हैं.  वर्षा जल संचयन की प्रवृत्ति की संस्कृति के अभाव और निरंतर तालाबों में अतिक्रमण के कारण बढ़ते जल-दोहन का प्रभाव निश्चित ही आने वाले समय में इन आम और ख़ास सभी पर पडेगा. राजेन्द्र सिंह 'जल-पुरुष' का कहना है भारत में एक भी शहर में कोई नदी नहीं बहती है बल्कि नाला बहता है. दिल्ली में यमुना नाम का , लखनऊ में गोमती नाम का और कानपुर में गंगा नाम का नाला बहता है. सरकारें इसी बहाने हम से हमारा पानी हमारे होठों से छीन लेना चाहती हैं. देश में बढ़ता बोतल-बंद जल-व्यवसाय को वे आगामी ख़तरा बताते हैं. उनकी इस बात की पुष्टि तब हो जाती है जब कानपुर के एयरफोर्स कैम्पस तक में सरकार औने सैनिकों और अधिकारिओं को पीने के लिए शुद्ध जल मुहैया नहीं करवा पा रही है. या इसे यूं कहें की इन्हें सरकार के द्वारा दिया जाने वाला पेयजल अब शुद्ध नहीं महसूस होता है. उनका  अब सरकारी नलके के पानी से अपना विशवास उठ गया है. इस बारे में शरद कुमार त्रिपाठी का कहना है  'हमारी प्यास का अंदाज़ भी अलग है,कभी दरयाओं को ठुकराते हैं तो कभी आंसू  तक पी   जाते हैं.'1           
  हेलो संवाददाता

बैराज बना 'हादसा प्वाइंट'


कानपुर की प्यास बुझाने के लिए गंगा नदी पर  गंगा बैराज बनाया गया था. किसी को ये उम्मीद नहीं थी , एक दिन ये जान को गंवाने जान लेने और चोट-चपेट का केंद्र स्थल बन जाएगा. नव-युवक लड़कों में तेज गाड़ी चलाने और करतबबाजी का खेल इस बैराज में अब आम हो चला है. इसके निर्माण के समय ही तेज मोटरसाइकिल पर सवार एक लड़के की रस्सी से फंसकर जान गंवाने की घटना हुयी थी. तब से कल तक इस स्थान पर ऐसे हादसों की रोक-थाम के सारे प्रयास अब तक नाकाफी साबित हुए हैं. बैराज के आगे कानपुर की तरफ गंगा का तेज बहाव अक्सर गंगा नहाने आने वालों की जान का दुश्मन बनता रहा है. विगत दिनों गंगा दशहरा के शुभ अवसर पर पुलिस और जल-रक्षकों के द्वारा बरती गयी  कर्तव्यों की कोताही  का परिणाम कई जाने गंवाना रहा.
जल-संस्थान के महाप्रबंधक रतन लाल कहते हैं की जब अभी तक निर्माण पूरा नहीं हो पाया है तो आम नागरिकों का यहाँ आना-जाना खतरनाक हो सकता है, जैसा की बार-बार होने वाली घटनाओं से साबित हो रहा है. यद्यपि निर्माण की अवधि में होने वाली देरी की वजह और तय समय-सीमा में निर्माण न करवा पाने की अक्षमता के बारे में वे चुप्पी साध जाते हैं और हादसों के लिए कानपुर प्रशासन पर जिम्मेदारी धकेल देते हैं. वास्तव में यहाँ कम उम्र के छात्रों  के द्वारा किया जाने वाला प्रतिदिन की धमाचौकड़ी को स्थानीय पुलिस थाना के द्वारा रोकना चाहिए परन्तु प्रेमी-जोड़ों और नियमित मछली पकड़ से होने वाली आमदनी से आत्ममुग्ध स्थानीय नवाबगंज पुलिस इन सभी हादसों को नियंत्रित करने के लिए कोई कदम नहीं उठा पायी है. और ये गंगा बैराज हादसों का केंद्र बनता जा रहा है.
अभी कल ही दोस्तों के साथ बैराज पर गंगा नहाने गये सात युवक तेज धारा में फंसकर डूब गए। साथियों की चीख-पुकार सुनकर पानी में कूदे इलाके के गोताखोरों ने छह युवकों को तो किसी तरह बहाव से बाहर निकाल लिया, लेकिन काफी तलाश के बाद भी एक युवक का रात तक पता नहीं चल पाया। नौबस्ता थानाक्षेत्र में मछरिया निवासी 25 वर्षीय आशिक अली जरीब चौकी स्थित एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था। शुक्रवार को कंपनी में छुट्टी होने के कारण वह साथी कर्मचारियों प्रीतम, बच्चा, शनि, धीरज, अजय व अनीस आदि आठ लोगों के साथ बैराज पर गंगा नहाने गया था। बताते हैं सभी युवकों ने पहले शराब पी, इसके बाद गंगा में नहाने कूद पड़े।इन सातों में से छ: को तो बचा लिया गया किन्तु अभी तक एक  का पता नहीं चल पाया था. हद तो तब ये है की प्रदेश सरकार इस क्षेत्र को बोट क्लब और ओपन थियेटर बनाने की योजना पर भी काम कर रही है.1
बैराज में अवैध मत्स्य-आखेटन
गंगा बैराज में  एक लम्बे अरसे से प्रदेश के मछली के व्यापारिओं का स्थानीय मछुआरों के साथ मिली-भगत करके पुलिस के संरक्षण में मत्स्य-आखेटन का खेल चल रहा है. इसी मछली पकडाई के व्यापार में कटरी में वर्चस्व की लड़ाई में गैंगवार जारी रहती है. कभी एक गुट हावी होता है तो कभी दूसरा गुट. शहर के नामी अखबारों के क्राइम रिपोर्टर भी  इस काम में शामिल  हैं. एक तरफ गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया जा चुका है, जिसके तहत मत्स्य आखेटन पूरी तरह से प्रतिबंधित है. सरकार गंगा में डालफिन जैसी मछलियों को संरक्षित करने के लिए 'प्रोजेक्ट' ला रही है तो दूसरी तरफ दूसरी तमाम स्थानीय प्रजातिओं को पूरी तरह से समाप्त करने के लिए चलाये जा रहे प्रक्रम की साजिश को संरक्षण दे रही है.
मुख्य संवाददाता

खरीबात

 जरूरत क्रान्ति की पूरी किसानी की

अन्ना हजारे और उनकी टीम पर एक व्यंग्य कसा जा रहा है कि पूरा देश साथ है तो  चुनाव लड़कर संसद में क्यों नहीं आते? बाबा रामदेव भी पिटने से पहले अपनी हिट मुद्रा में यही कहते पाये गये कि न उन्हें कोई पद चाहिये न कुर्सी चाहिये और न ही वह कभी चुनाव लड़ेंगे. अन्ना या बाबा कोई नये नहीं हैं जो देश को यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि उनके पास अभूतपूर्व जनसमर्थन है या यूं कहिये  पूरा देश उनके साथ है बावजूद इसके वे सत्ता के लोभी नहीं हैं. जय प्रकाश नारायण और महात्मा गांधी तो खुद को सत्ता से दूर रखकर राजनैतिक बदलाव के लिये प्रण-प्राण से लगने वाले और सत्ता प्राप्ति के बाद मची किच-किच में प्राण गंवा देने वाले उदाहरण के रूप में पहले से ही देश के सामने हैं. लगता है अन्ना या बाबा अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रीय राजनीतिक संतों की गति से सही सन्देश नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं. गांधी अगर आजादी के बाद सत्ता के शीर्ष पर नहीं विराजे तो देश कोई शीर्ष पर नहीं जा पहुंचा. बल्कि रसातल में चला गया.
अक्सर कहा जाता है कि अगर नेहरू की जगह पटेल या जिन्ना पहले प्रधानमंत्री होते तो भारत की तस्वीर कुछ और होती. लेकिन मैं कहता हूं कि अगर भारत का पहला प्रधानमंत्री मोहनदास करमचंद्र गांधी होता तो निश्चित ही देश की तस्वीर आज  कुछ और होती. आपातकाल के दौरान गांधी के पदचिन्हों पर चलते हुये जयप्रकाश जी भी राजनीतिक संत की कोटि में जा बैठे. उन्होंने भी संघर्ष के बाद हाथ आयी सत्ता पर सवारी नहीं गांठी. नतीजा यह हुआ कि देश में पहले सत्ता परिवर्तन के परिणाम इस कदर शर्मनाक रहे कि लोग आज यह कहते पाये जाते हैं कि इससे तो बेहतर इमरजेंसी थी. यहीं अगर जंग के विजेता जयप्रकाश जी देश के प्रधानमंत्री बने होते तो मोरार जी के नेतृत्व वाली गैर कांग्रेसी सरकार कुंजड़ों की तरह लड़-भिड़कर तहस-नहस न हुई होती. किसी भी आंन्दोलनों में आम समर्थकों का विश्वास किसी नेता विशेष पर टिका होता है. उसके व्यक्तित्व और कृतित्व से आन्दोलन की भावना बनती है जिसके पीछे भीड़ चलती है. आजादी की लड़ाई में गांधी के पीछे था देश. ऐसे ही आपातकाल की लड़ाई में जयप्रकाश के साथ था देश और आज भ्रष्टाचार से जब जंग छिड़ी है तो देश अन्ना के साथ भी है और बाबा के साथ भी. आन्दोलनों के नायकों के पीछे सहनायकों की भी बड़ी भूमिका होती है. ये सहनायक नायक के प्रति तो पूर्ण समर्पण रखते हैं लेकिन उसके अतिरिक्त किसी और को अपना नेता मानने में उन्हें दिक्कत होती है. आन्दोलन चाहे छोटा हो या बड़ा, सबका ढांचा तकरीबन एक सा ही होता है. आजादी के बाद जब गांधी ने सत्ता से दूरी बनायी तो देश बंट गया. जिस नेता के पीछे आजादी पूर्व सभी के सर नत थे आजादी के बाद उसे गोली मार दी गयी. कुल मिलाकर मैं कहना यह चाहता हूं कि गांधी और जयप्रकाश को दिल और दिमाग में रखकर निस्वार्थ भाव से देश सेवा के लिये निकलने वालों में सत्ता संचालन का निष्प्रभ  भाव कोई सफल सूत्र नहीं है. जिस व्यक्तित्व के प्रति सभी का समभाव हो नेता उसे ही होना चाहिये चाहे आन्दोलन का चाहे सत्ता का.
फिर एक बात और जब शेर की सवारी करनी नहीं तो जंगल में घूम-घूम कर शेर के सामने जाने का क्या मतलब. शेर आ जायेगा जिसे सवारी करनी आती है वो सवारी करेगा नहीं तो बाकी शेर के भोजन ही तो बनेंगे.
यानी सत्ता उन्हें खा जायेगी और इस देश को सत्ता  ही खाये जा रही है. अन्ना जी, बाबा जी या और कोई अकुलाहट भरा चरित्र जो देश के किसी कोने में अंगड़ाई ले रहा हो तो वो भी आज की तारीख में संसद में बैठे हुये लोगों की इस चुनौती पर ताल ठोंके कि जब चुनाव आयेगा तो उस मैदान में भी देखा जायेगा. फिर एक बात और भी है जो काफी हद तक सही भी है कि व्यवस्था में खामियां निकालना या उसे बदलना ही केवल नेतृत्व प्रदान करना नहीं है. नेतृत्व का मतलब है  संघर्ष के बाद सत्ता को सही रास्तों पर कसी लगाम वाली घोड़ी की तरह सरपट दौड़ाना.
अन्ना हजारे या रामदेव सरीखे लोग जब चुनाव न लडऩे की वचनबद्धता के साथ चुने हुए प्रतिनिधियों को उखाडऩे की बात करते हैं तो ये समझ नहीं आता कि लोग उखाडऩे के बाद रोपेंगे क्या... उगायेंगे क्या.... देश के भ्रष्टाचार विरोधी क्रान्तिकारियों तुम्हें पूरी किसानी करनी होगी केवल खराब $फसल उखाड़ फेंकने से कुछ नहीं होगा अगर नयी नस्ल के उन्नत बीज नहीं बोये तो....1
प्रमोद तिवारी