शनिवार, 28 मई 2011

नारद डाट कॉम

तूने मैंने...सुनी 

अब पूरा ब्रह्माण्ड सुनेगा, अमरवाणी को. देश की सर्वोच्च अदालत को धन्यवाद. अब लोग जानेंगे कि हमारे माननीय लोग हमाम में कैसे लगते हैं. इनका सादा टिनोपाल धुल जायेगा. बचेगी तो सिर्फ कालिख. वैसे मेरी जानकारी के अनुसार इनकी सीडी पिछले ५ सालों में ब्लू फिल्म की तरह सुनी गई. लोग चुपचाप इसे सुनते थे और पूरी मौज लेते थे. अब आम आदमी सुनेगा. मुन्नी बदनाम होकर रहेगी, शीला भी लाज नहीं बचा पायेगी. अब तो इस पर सीरियल भी बन सकता है एकता कपूर जरूर कुछ बनाने का मन बना रही होंगी. उनके लिये गरमा-गरम मसाला मिल गया है. ऐसी मसालों से उनके सीरियल घर-घर में तुलसी का पौधा बन गये हैं. सास बहू से लगाकर नौकर-नौकरानी सब तस्कीन से इसका मजा लेंगे. इसके बाद हो सकता है कि अमर की बी.सी. पर कुछ लगाम लग जाये. जिन्होंने इस सीडी को पहले सुना है उनका मानना है कि इस पर रोक हटानी तो चाहिये थी लेकिन इसे सिर्फ वयस्कों के लिये करना चाहिये था. बढ़ती उम्र के बच्चे इसे सुनकर बौरा सकते हैं या फिर इसे दोहराने की भूल भी कर सकते हैं. महिलायें तो इससे दूर ही रहें तो बेहतर रहेगा. पास रहने की हिमाकत घर से दूर कर सकती है फिर अमर की ही शरण में जाना पड़ सकता है. बाद में वो भी ऐसी किसी सीडी का हिस्सा बन किसी अदालत में कैद हो सकती है. बाबू  साहब को चाहिये कि पूर्वांचल की मांग छोड़ इस सीडी को पेटेंट कराने की बात करें. अरबों रुपये की कमाई हो सकती है. इस समय देश का हर आदमी इस सीडी के लिये पगलाया हुआ है बिना समय खोये इसे सुनना चाहता है. केन्द्र और राज्य सरकारों के लिये  ये बेहतर मौका है इस सीडी पर कोई नया कर लगा दे. खाली खजाने भरने में देर नहीं लगेगी. बीपीएल कार्ड धारकों के लिये इसे टैक्स फ्री रखा जाना चाहिये. प्राकृतिक नियम के अनुसार मौज पर सबका अधिकार है. मौज ही मौज फकीरों की ऐसी तैसी रहीसों की.
खम्बा बचा के
एक आदमी की पत्नी कोमा में चली गई. लोग समझे मर गई है. अन्तिम संस्कार के लिये जब ले जा रहे थे तो अर्थी खम्बे से टकरा गई और वो औरत उठ बैठी. दो साल बाद वो वास्तव में मर गई. जब अर्थी सड़क पर चल रही थी तो सब लोग राम नाम सत्य है कह रहे थे लेकिन उसका पति... खम्बा बचा को, खम्बा बचा के कह रहा था.




स्त्री सत्ता का पतन पुरुष सत्ता का बोलबाला

 
मनुष्य को अपने नाते-रिश्तेदारों की विरासत प्राणी-सृष्टि ने दी परन्तु विवाह संस्था ने उसे एक नया अर्थ दिया. जब तक मनुष्य मनुष्य में लैंगिक सम्बन्ध, उसके रक्त सम्बन्धों के व्यक्तिओं में भी बिना बाधा के चल रहे थे और उन्हें नैतिक समझा जाता रहा तब तक व्यक्तिगत पसन्दी ना पसन्दी का बहुत महत्व नहीं था परन्तु आगे चलकर व्यक्ति जैसे-जैसे अपनी पसन्द नापसन्द व्यक्त करने लगा वैसे-वैसे रक्त सम्बन्धों की लैंगिक व्यवस्था नष्ट होने लगी. यहीं से शुरु हुआ मातृसत्ता का पतन. महाभारत एवं ओरेस्तियन ट्रिलोजी एस्किलस में मानवी विकास क्रम का अदभुत चित्रण किया गया है.
एक पति-पत्नी वाली विवाह संस्था के अस्तित्व के पूर्व जो संस्थायें प्रचलित थी उनमें संतति की पहचान केवल मां की ओर से होती थी और मातृसत्ता का अस्तित्व था समय के साथ जब स्त्री पुरुष सम्बन्ध केवल पुरुष की पसन्दगी से निर्धारित होने लगे तो संतति का पिता निश्चित हुआ.
इसी कारण पितृसत्ता का जन्म हुआ. पुरुष अनेक स्त्रियों पर अधिकार जतलाने लगा उनकी वासनाओं का शिकार होने लगी. उन्होंने इससे बाहर निकलने के लिये कुछ की वासनाओं का बलि बनना मजबूरी में स्वीकार किया और एक पति-पत्नी विवाह शुरु हुआ परन्तु फिर भी स्त्री पर अन्य पुरुषों ने अधिकार जतलाना नहीं छोड़ा. यह अधिकार धीरे-धीरे एक दिन तक मर्यादित रहा और उन्हें पर पुरुष के आत्मसमर्पण की दुष्ट पद्धति में फंसा दिया. यह उनका आत्म स्वतंत्रता के लिये समझौता था. उसे कभी अतिथि कभी पति के मित्र के साथ लेटना पड़ता था. सुकरात (रोम का दार्श्रनिक) को पत्नी को उसके मित्र के साथ केटो की पत्नी को उसके मित्र के साथ लेटना पड़ा. महाभारत में कहा है कि संकट के समय अपनी पत्नी को निर्मल अंत:करण से मित्र को अर्पण करें. मातृसत्ता के काल में स्त्री परिवार की प्रमुख के साथ सामाजिक और धार्मिक जीवन के कानून बनाने वाली शक्ति भी थी उस काल इन नियमों के नाम मातृदेवताओं पर आधारित थे. ईश्वर के राजा आकाश और उसकी पत्नी पृथ्वी के पुत्र क्रानव से मनुष्य सृष्टि आरम्भ हुई. ऐसा ग्रीक और रोमन कहते हैं. इस युग में अराजकता और अव्यवस्था थी कानून और नियमों को बनाने के लिये पितृदेव प्रोमीथियस मनुष्य की ओर से आया विरोध ये प्रकृति देवताओं का प्रमुख धौस खड़ा हो गया. इसमें प्रकृति देवताओं की पराजय हुई समझौता हुआ जलपरी थीटिस का विवाह पिलियस नामक मनुष्य के ऊपर मनुष्य रूपधारी पुरुष देवता की विजय हुई. मातृसत्ता में मातृहत्या एक पाप माना जाता था. एक बेटे की मां ने अपने पति की हत्या की थी (प्रेमी के कारण) बेटे ने मां की हत्या कर दी परन्तु उसे मां की हत्या की अतएव उसे पापी माना गया क्योंकि मां का पति के साथ रक्त सम्बन्ध नहीं था. पितृसत्ता में मां एक सामान्य हो गयी है. यह सब ग्रीक और रोमन महाकाव्यों में लिखा है.1
नुष्य को अपने नाते-रिश्तेदारों की विरासत प्राणी-सृष्टि ने दी परन्तु विवाह संस्था ने उसे एक नया अर्थ दिया. जब तक मनुष्य मनुष्य में लैंगिक सम्बन्ध, उसके रक्त सम्बन्धों के व्यक्तिओं में भी बिना बाधा के चल रहे थे और उन्हें नैतिक समझा जाता रहा तब तक व्यक्तिगत पसन्दी ना पसन्दी का बहुत महत्व नहीं था परन्तु आगे चलकर व्यक्ति जैसे-जैसे अपनी पसन्द नापसन्द व्यक्त करने लगा वैसे-वैसे रक्त सम्बन्धों की लैंगिक व्यवस्था नष्ट होने लगी. यहीं से शुरु हुआ मातृसत्ता का पतन. महाभारत एवं ओरेस्तियन ट्रिलोजी एस्किलस में मानवी विकास क्रम का अदभुत चित्रण किया गया है.
एक पति-पत्नी वाली विवाह संस्था के अस्तित्व के पूर्व जो संस्थायें प्रचलित थी उनमें संतति की पहचान केवल मां की ओर से होती थी और मातृसत्ता का अस्तित्व था समय के साथ जब स्त्री पुरुष सम्बन्ध केवल पुरुष की पसन्दगी से निर्धारित होने लगे तो संतति का पिता निश्चित हुआ.
इसी कारण पितृसत्ता का जन्म हुआ. पुरुष अनेक स्त्रियों पर अधिकार जतलाने लगा उनकी वासनाओं का शिकार होने लगी. उन्होंने इससे बाहर निकलने के लिये कुछ की वासनाओं का बलि बनना मजबूरी में स्वीकार किया और एक पति-पत्नी विवाह शुरु हुआ परन्तु फिर भी स्त्री पर अन्य पुरुषों ने अधिकार जतलाना नहीं छोड़ा. यह अधिकार धीरे-धीरे एक दिन तक मर्यादित रहा और उन्हें पर पुरुष के आत्मसमर्पण की दुष्ट पद्धति में फंसा दिया. यह उनका आत्म स्वतंत्रता के लिये समझौता था. उसे कभी अतिथि कभी पति के मित्र के साथ लेटना पड़ता था. सुकरात (रोम का दार्श्रनिक) को पत्नी को उसके मित्र के साथ केटो की पत्नी को उसके मित्र के साथ लेटना पड़ा. महाभारत में कहा है कि संकट के समय अपनी पत्नी को निर्मल अंत:करण से मित्र को अर्पण करें. मातृसत्ता के काल में स्त्री परिवार की प्रमुख के साथ सामाजिक और धार्मिक जीवन के कानून बनाने वाली शक्ति भी थी उस काल इन नियमों के नाम मातृदेवताओं पर आधारित थे. ईश्वर के राजा आकाश और उसकी पत्नी पृथ्वी के पुत्र क्रानव से मनुष्य सृष्टि आरम्भ हुई. ऐसा ग्रीक और रोमन कहते हैं. इस युग में अराजकता और अव्यवस्था थी कानून और नियमों को बनाने के लिये पितृदेव प्रोमीथियस मनुष्य की ओर से आया विरोध ये प्रकृति देवताओं का प्रमुख धौस खड़ा हो गया. इसमें प्रकृति देवताओं की पराजय हुई समझौता हुआ जलपरी थीटिस का विवाह पिलियस नामक मनुष्य के ऊपर मनुष्य रूपधारी पुरुष देवता की विजय हुई. मातृसत्ता में मातृहत्या एक पाप माना जाता था. एक बेटे की मां ने अपने पति की हत्या की थी (प्रेमी के कारण) बेटे ने मां की हत्या कर दी परन्तु उसे मां की हत्या की अतएव उसे पापी माना गया क्योंकि मां का पति के साथ रक्त सम्बन्ध नहीं था. पितृसत्ता में मां एक सामान्य हो गयी है. यह सब ग्रीक और रोमन महाकाव्यों में लिखा है.1
भ्रष्टाचार की श्रेणी ऊपर से नीचे

सीमालिया-    ११ प्रतिशत
रूस-        २१ प्रतिशत
नेपाल-        २२ प्रतिशत
पाकिस्तान-    २३ प्रतिशत
बंगला देश-    २४ प्रतिशत
अर्जनटाईना-    २९ प्रतिशत
श्रीलंका-        ३२ प्रतिशत
भारत-        ३३ प्रतिशत
चीन-         ३५ प्रतिशत
ब्राजील-        ३७ प्रतिशत
द. अफ्रीका-    ४५ प्रतिशत
यू.ए.ई.-        ६३ प्रतिशत
फ्रांस-        ६६ प्रतिशत
अमरीका-    ७१ प्रतिशत
यू.के.-        ७६ प्रतिशत
जापान-        ७८ प्रतिशत
जर्मनी-        ७९ प्रतिशत
स्विटजरलैंड-    ८७ प्रतिशत
आस्ट्रेलिया-    ८७ प्रतिशत
कनाडा-        ८९ प्रतिशत
सिंगापुर-        ९३ प्रतिशत
न्यूजीलैंड-    ९३ प्रतिशत
डेनमार्क-        ९३ प्रतिशत

मार्शल का बाईस्कोप

खुदा ही खुदा / हाले शहर
एक कनपुरिये ने बाहर रहने वाले अपने रिश्तेदार को फोन किया कि जब आना तो फला सड़क से मत आना, उधर खुदा पड़ा है. रिश्तेदार जब कुछ दिनों बाद छुट्टी हो गयी तो आये. लेकिन यह क्या उनके घर की हर सड़क खोद कर पाइप डाले जा रहे थे. वे जैसे-तैसे घर पहुंचे तो मुंह से निकला यहां तो चारो ओर खुदा ही खुदा है.
जेएनयूआरएम से पैसे की बरसात क्या हुई, सारे शहर में सीवर लाइनें पडऩा शुरू हो गया. कोई प्लान नहीं कि अगर इस सड़क पर डालें तो इधर का ट्रैफिक उधर से निकल जायेगा. उसके बाद दूसरी तरफ डालें. एक साथ चारो ओर सड़कें खोद दी गईं. बड़े-बड़े पाइप सड़कों के किनारे डाल दिये गये. पूरा शहर जाम से जाम लड़ाने लगा. घंटे-दो घंटे के जाम दस बारह घंटे में बदलने लगे. इस पर भी तुर्रा यह कि कहीं घटिया पाइप पड़ रहे हैं, कहीं चिटके, कहीं रिजेक्टेड. कभी महाना, कभी पाटनी, तो कहीं स्वयं नगर आयुक्त और एडीएम घटिया पाइप पकड़ चुके हैं. सोचिये तब क्या होगा जब यह पाइप लाइन चालू होगी. सीवर से भरी और जब इसके लीकेज से कोई माल रोड धसेगी, बैठेगी और फिर खुदेगी. क्या होगा तब उस पूरे इलाके का? व्यापार, रोजमर्रा के  काम सब ठप्प हो जायेंगे. आखिर टूटे पाइपों को जमीन के अन्दर दफन करने से सीवर लाइनों के चालू होने के बाद जिन्न निकलेगा उसे कौन, कहां, कैसे दफन कर पायेगा? भाई कह रहे हैं उसमें भी फायदे हैं, आसपास के बड़े एरिया में रूमफ्रेशनर और रोड पर रुमाल की बिक्री बढ़ जायेगी.
बीमार अस्पताल, हेल्दी साहब स्वास्थ्य महकमा इस समय ज्यादा परेशान है.  कारण कई हैं. एक तो ऊपर से धन की बरसात इतनी हो रही है कि सम्भालना मुश्किल. उसकी बंदरबाट और खाने-पीने की लड़ाई में सीएमओ मर रहे हैं. जांच की आंच इतनी तेज कि बेचारे दो मंत्री भी उसमें जल गये. अपने शहर का भी नुकसान हुआ. विभाग में सारे घर के बदल डालूंगा स्टाइल में तूफान आया. संविदा के डाक्टरों को हटाया गया. सीएमओ परिवार कल्याण पद खत्म कर दिया. उम्मीद  थी कि इससे कुछ फर्क पड़ेगा. राहुल गांधी आरटीआई में सूचनाएं क्या मांगते हैं, अपने शहर के युवक कांग्रेसी भी खड़े हैं, अस्पतालों में दस रुपये का नोट लगाये एप्लीकेशन लिये. विभाग की सेहत पर कोई फर्क नहीं है वह अजगर करें न चाकरी, पंक्षी करे न काम... को मूलमंत्र बनाये हैं.
अब देखिये शहर की एक तहसील में तैनात बड़े वाले डा. साहब अपना ट्रान्सफर शहर के नजदीक चाहते हैं. क्योंकि साहब का अपना अस्पताल श्यामनगर में चल रहा है. ऐसे में पचास किमी दूर (हफ्ते में दो दिन ही सही) अपनी कार से जाना, मतलब सरकारी अस्पताल को स्वस्थ करना और अपने अस्पताल को बीमार करना. बस बड़े साहब ने और बड़े साहब के यहां अर्जी लगाई और गांधी जी भी पहुंचा दिये. तहसील में तैनात एक छोटे डा. साहब की भी अर्जी और गांधी जी ऊपर पहुंच गये, कि बड़े वाले पन्डित जी को हटाकर मुझे चार्ज दे दो.
शहर के नजदीक जिन डाक्टर साहब को वहां से हटाकर कल्यानपुर भेजकर वह जगह खाली करानी है, वह डाक्टर साहब चवन्नी खर्च करने को तैयार नहीं हैं. उन्हें पता है कि जब उन दो का पैसा जमा है और उनको इधर-उधर भेजा जायेगा तो मुझे कल्यानपुर पहुंचा ही दिया जायेगा.
अब शहर के बड़े साहब चक्कर में हैं कि कल्यानपुर ट्रान्सफर वो भी बगैर चवन्नी के, सवाल ही नहीं उठता. बस अब न देने वालों के चक्कर में देने वाले भी परेशान हैं. अस्पताल तो तब सुधरेंगे जब व्यवस्था सुधरेगी और व्यवस्था तब सुधरेगी जब साहब बैठकर काम करेंगे. अभी तो मई-जून बस इसीलिये है कि कौन कहां कब से तैनात है और कितने देकर कहां जाना चाहता है.
टांग खिचाई का मिशन
कांग्रेस प्रदेश में सरकार बनाने का दावा कर रही है. लेकिन कांग्रेसियों का अपना राष्ट्रीय कार्यक्रम टांग खिचाई खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है. जिले में इस समय कांग्रेस की दो सीटें हैं. देहात और नगर मिलाकर कुछ चौदह सीटें है. अब कांग्रेस को सरकार बनानी है तो दो को पांच छह में बदलना पड़ेगा. हालत यह है कि इन दो में ही अभी भाभई मची है. सीसा वाली सीट सामान्य हो गई है, यहां वाले नेता जी का नाम कभी बिल्हौर के लिये उछलता है तो कभी दूसरी जगहों से. नेता जी ताक रहे हैं कि कहां से हमारे श्री श्री श्री १००८ हमें प्रकाश फैलाने के लिये भुजेंगे. दूसरे वाले पहले से ही चतुर चौकन्ने हैं. उन्हें मालूम है कि उनके लिये प्रकाश नहीं अंधेरा किया जायेगा. वैसे भी पुरानी विधानसभा दो हिस्सों में बट गयी है. विरोधी कभी उनको इधर-उधर खिसकाने के शोशे छोड़ते हैं तो कभी मनोज तिवारी जैसे भोजपुरी गायक का तराना छेड़ देते हैं. पूर्वांचल जिन्दाबाद. अपने भारी भरकम नेता जी भी तेल और तेल की धार पहचानना जानते हैं, उन्होंने बगल की छावनी पर निगाह गड़ा दी है. मुस्लिमों की बड़ी संख्या, ऊपर से रिश्तेदार विधायक के पुराने समर्थक, सब मिलकर आराम से बेड़ा पार कर देंगे. रिश्तेदार विधायक जी तो कमल खिलाने महराजपुर चले गये हैं. करो कितनी टांग खिचाई करोगे? लेकिन बाकी सीटों का क्या होगा? क्या ऐसे होगा मिशन २०१२ पूरा?
अनुराग अवस्थी 'मार्शल'

ग्राम-पंचायतों का सोशल-आडिट प्रारम्भ

गांव-गांव आयी सरकार मौका मुआयना को
जिला प्रशासन ने ग्राम-पंचायतों के सोशल-आडिट का काम शुरू किया है. इसकी मंशा जिले के आला अधिकारिओं में प्रदेश सरकार की जनोपयोगी योजनाओं का वास्तविकता के धरातल पर वास्तविक मूल्यांकन है. निचले पायदान के प्रशासन के नुमाइंदे इन्हीं योजनाओं को किस बेतरतीबी से क्रियान्वित कर रहे हैं, इसका आम जनता के सामने खुली जांच प्रक्रिया के माध्यम से 'सरकार आपके द्वार' जैसा कदम उठाया गया है. इस योजना के तहत जिला स्तर के प्रशासनिक अधिकारिओं से ग्राम पंचायतों की खुली बैठकों में मनरेगा , पंचायत भवन और आदर्श जलाशय योजना जैसी अति महत्वाकांक्षी जन-उपयोगी योजनाओं का वास्तविक लाभ आम ग्रामीण समाज तक पहुंचाने का काम किया जा रहा है.
प्रदेश सरकार की मंशा के अनुरूप शुरू किये गए सोशल-आडिट सर्वे में प्रदेश के विकासोन्मुखी नजरिये और कियान्वयन के स्तर पर असहयोग और उपेक्षा का नमूना साफ़ उजागर होता है. कानपुर जिला प्रशासन द्वारा जिला पंचायतराज अधिकारी के. एस. अवस्थी को कानपुर के घाटमपुर विकास खंड के गुच्चूपुर एवं मखौली ग्राम-पंचायतों का सोशल-आडिट करने का आदेश दिया गया था.उन्होंने दोनों ग्राम-पंचायतों में पंचायत-भवनों में आम ग्रामीणों के साथ खुली बैठकें कीं. अपनी जांच आख्या में उन्होंने ग्राम पंचायत गुच्चूपुर में परित्यक्त पंचायत भवन की तकनीकी जांच करवाने के मौके पर ही आदेश कर भवन की पुनरोपयोगिता के आदेश किये. पंचायत सफाई कर्मी की कार्य के प्रति उपेक्षा की शिकायत पर प्रतिकूल प्रविष्टि के निदेश दिए.ग्राम-पंचायत मखौली में सफाई कर्मी विगत पांच माह से अनुपस्थित पाया गया जिसका वेतन रोके जाने और स्पष्टीकरण प्रस्तुत किये जाने का आदेश दिया गया. इसी ग्राम-पंचायत मखौली में विद्यालय में निर्मित शौचालय में दरवाजा नहीं लगा पाया गया.ग्राम पंचायत सचिव और सहायक विकास अधिकारी (पं0) को प्रतिकूल प्रविष्टि का आदेश दिया गया. यहाँ आंगनवाड़ी केंद्र की कमी की जनता की मांग को उच्चाधिकारिओं तक प्रकाश में लाने का आश्वासन देते हुए श्री अवस्थी ने ढाई वर्षों से ए0 एन0 एम0 के नहीं आने की शिकायत भी अपनी जांच आख्या में की है.
प्रदेश के ग्राम्य विकास मंत्री दद्दू प्रसाद के आदर्श जलाशय योजना को हरहाल में लागू करने के हाल के निर्देशों को पूरी तरह से ग्राम-पंचायतों में लागू नहीं किया जा रहा है. इन दोनों ग्राम पंचायतों में की गयी जांच में पाया गया एक भी आदर्श जलाशय का निर्माण अभी तक नहीं किया गया है जबकि विगत वर्ष शासन से इस सम्बन्ध में मांगी गयी सूचना पर प्रत्येक ग्राम-पंचायत में एक आदर्श जलाशय के खुदवा लिए जाने की सूचना दी जा चुकी है.ग्राम पंचायत गुच्चूपुर में विगत 30 वर्षों से कोई तालाब नहीं खोदा गया है. जबकि मखौली में एक मात्र तालाब खोदा गया जिसे आदर्श जलाशय के मानकों के अनुरूप नहीं खोदा गया था. जबकि दोनों ग्राम-पंचायतों में खाते में लाखों रुपये शेष हैं और उनका अभी तक किसी जन-उपयोगी योजना में उपयोग नहीं किया गया है.आदर्श जलाशय योजना के प्रति उपेक्षा का कारण ये भी सामने आया गांवों के अधिकतर तालाबों पर अवैध तरीके से कब्जे हो चुके हैं. जबकि माननीय  सर्वोच्च न्यायालय का तालाबों के अतिक्रमण हटवाने का बारे में स्पष्ट निर्णय है.
वर्षा जल संचयन और जल संरक्षण के द्रष्टिकोण से तालाबों की कमी के कारण से पेयजल संकट दिनोदिन गहराता जा रहा है. कुओं के समाप्तप्राय हो जाने की दशा में हैण्ड-पम्पों पर पेय जल आपूर्ति का बोझ बढ़ता जा रहा है. जल-संरक्षण के महत्व को मानते हुए श्री अवस्थी कहते हैं गावों में अब तालाबों के संरक्षण की परम्परा समाप्त होती जा रही है.जिसका खामियाजा मानव और पशु-पक्षियों को उठाना पड़ रहा है. यदि ग्रामीणों ने इस प्रकार से जलाशयों के निर्माण में शासन की मदद और मंशा का लाभ नहीं उठाया तो आने वाली पीढियां इन्हें माफ नहीं करेंगी.1
अरविन्द त्रिपाठी

फेसबुकनामा

फेसबुक बनी फेकबुक
 भाइयों और बहनों, भारतीयों की युवाशक्ति के समय को बर्बाद करने का गोरों का खेल जारी है. क्रिकेट, फ़ुटबाल,बालीबाल, टेनिस,टेबिल टेनिस  जैसे खेल वे हमारे देश में लाये. हमारे देश के इतिहास में इन और ऐसे बहुत से खेलों के बारे में कोई आख्यान या विवरण नहीं मिलता है. अभी क्रिकेट का आई.पी.एल. चल रहा है. हज़ारों करोड़ रुपया विज्ञापन और विभिन्न मदों में बहाया गया. देश का सैकड़ों घंटे का बहुमूल्य समय बर्बाद हुआ. बिजली सहित तमाम संसाधन जो देश के विकास में व्यय होने चाहिए व्यर्थ के शौक में बेकार हुए. मैच-फिक्सिंग और सट्टा से ये मैच ओत-प्रोत रहे. अब एनी खेलों को भी इसी तरह से आगे लाया जाएगा. अभी भारतीय जन-मानस राष्ट्र-मंडल खेलों में हुए घपले-घोटाले को भूला नहीं है.उसके नायक जेल में हैं. क्रिकेट के राष्ट्रनायकों का तिलिस्म भी आम जनता में आना बाकी है. वास्तव में हमारे देश के लोगों के पास खेलों के लिए कभी समय ही नहीं रहा. हमारे देश के संस्कार में श्रम मूलक सभ्यता का सर्व-मान्य होना इसका एक ख़ास कारण रहा है. ब्रिटिश काल में ही भारतीय समाज ने सिनेमा के बारे में जाना. शुरुआत में सिनेमा अंग्रेजों के मनोरंजन का साध्य था. बाद में ये धार्मिक, पौराणिक  और ऐतिहासिक प्रतीकों के माध्यम से भारतीय एकता का माध्यम बनता गया. अंग्रेजों ने कभी नहीं सोचा था की उनकी इस विधा का भारतीय एकीकरण में इस तरह प्रयोग हो जाएगा ठीक भारतीय रेलों की ही तरह . इस सब के बावजूद गांधी जी ने एक ही सिनेमा देखा था 'राम राज्य' वो आजीवन उसकी कामना करते रहे. उनकी प्रथम पुस्तक 'हिंद स्वराज' में उनके बहुत सारे प्रश्न और उनके ही शब्दों में दिए गये जवाब यदि कभी भी लागू कर दिए गए होते तो देश की दशा और दिशा कुछ और ही होती.
आज के अतिव्यस्त समाज में सोशल नेट्वर्किंग के माध्यम से देश-दुनिया में अपने से जुड़ों से जुड़े रहने का एक सफल तरीका आम चलन में है. इंटरनेट के प्रयोग ने आज लोगों के बीच की दूरी को कम कर दिया है. चैट रूम और  सोशल नेट्वर्किंग अब आम प्रयोग में है. आज 76 साल के अशोक जैन भी फेसबुक में हैं और 15 साल से तरुण पाण्डेय भी फेसबुक में हैं. मात्र 24 साल के मि. जुकरबर्ग और उनकी सहयोगी टीम ने जिस फेसबुक का निर्माण किया था आज वो दुनिया में सबसे ज्यादा लोकप्रिय है. जो जितना देर से इसका सदस्य बनता है उसे लगता है की मैं अभी तक यहाँ क्यों नहीं आया. उसे अपने तरीके यानी अपनी पसंद और रुचियों के पूरे देश-दुनिया के लोगों का साथ मिलने में देर नहीं लगने वाली. बस करना है, थोड़ा इंतज़ार. कहना ये है की राम की ही तरह यहाँ भी यही हाल है की - 'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी'. सच ही है की जिसे इसका दुरूपयोग ही करना है तो आसानी से इसका दुरूपयोग कर पा रहा है, उसकी गतिविधियों पर नियंत्रण करने का कोई माध्यम नहीं है. कोई नियम-क़ानून नहीं है. आमना-सामना नहीं होने के कारण झूठी बातें, झूठी रुचियाँ, झूठे आदर्श , झूठे प्यार, झूठे मनुहार आदि का बोलबाला रहता है.इस सम्बन्ध में राजेश राज की पंक्तिया गौरतलब हैं-
इस तरह रिश्ते निभाता है ज़माना आजकल,
फेस बुक पर हो रहा मिलना मिलाना आजकल.
 इस तरफ हम हैं, उधर है कौन? क्या मालूम पर, इक भरोसे पर है सुनना-सुनाना आजकल .
सुख्यात कवि और शायर, राजनेता,समाजसेवी, युवा शक्ति सभी अपने संगी-साथिओं के साथ आज फेसबुक पर हैं.पर हाल बुरा है. अफीम जैसा बहुत बुरा नशा है. बहुत समय इसमें जाया हो रहा है. आयु सम्बन्धी नैतिकता का कोई मायने नहीं रह गया है. इस सबसे बढ़कर गिरोहबंदी भी इसकी बड़ी बुराई और बिमारी है. कुछ ख़ास लोगों के साथ मिलकर दूसरों पर हावी होने का खेल भी जारी रहता है. किसी को हतोत्साहित करने और उसपर हावी होने का काम भी किया जाता है. झूठी शान दिखाने के क्रम में कानपुर के एक समाजसेवी संगठन साह्वेस के संचालक ने एक पूर्व सहयोगी रहे वैभव मिश्रा को जान से मारने की धमकी दी. ऐसी घटनाएं आम होने लगी हैं. वरिष्ठ पत्रकार राजेश श्रीनेत कहत हैं भाई, जिसमें फेस करने की हिम्मत नहीं वह फेसबुक पर क्यों आते हैं, समझ में नहीं आता। अच्छी भली सोशल नेटवर्किंग साइट का कबाड़ा कर रखा है। लोगों की समझ में यह नहीं आता कि यह टाइम पास के लिए नहीं बनाई गई है।इन फेस्बुकिया एक्टिविस्टों में अब पत्रकार होने का भ्रम पैदा हो गया है. चौथा  स्तम्भ, पंचम स्तंभ, जैसे समूह बनाए जाते हैं. कुछ ख़ास समाज्सेविओं ने भी गिरोहबंदी करते हुए समूह बना लिए हैं जो एक-दूसरे की बड़ाई दिनभर करते रहते हैं.
कुछ तो ऐसे हैं की उनके पास एक की लैपटॉप या कम्प्यूटर है पर आई.दी. कई हैं, जिन्हें वे अकेले ही चलाते हैं . इस समस्या की चपेट में आये धर्मेन्द्र सिंह कहते हैं की उनका विरोधी इस तरह से काम कर रहा है. पर शायद उन्हें याद नहीं रहा की कभी वो भी इन्हीं हथियारों ऑयर इसी तकनीक का प्रयोग करके यहाँ तक आये हैं. उनकी सफलता में इसी फेसबुक का ही हाथ रहा है.1     
 हेलो संवाददाता

शुक्रवार, 27 मई 2011

दूल्हा रिजेक्ट करें लेकिन...

पिछले एक पखवारे में हमारे जनपद में लड़कियों ने खूब दूल्हे रिजक्ट किये। एक दूल्हा इसलिए रिजेक्ट हुआ कि उसकी उम्र दुल्हन के चाचा से ज्यादा थी। एक इसलिए रिजेक्ट हुआ कि वह हाई स्कूल फेल था लेकिन बोल 'अंग्रेजी'  रहा था। दुल्हन से अंग्रेजी की दुर्दशा नहीं देखी गई। एक को लड़की ने इसलिए भगा दिया कि वह बिना हीरो हाण्डा के फेरे लेने को तैयार नहीं था। एक कुर्ता-पायजामा पहने था इसलिए रिजेक्ट कर दिया गया। निश्चित तौर पर यह हमारे नगर में नारी गौरव युग का प्रारम्भ है। मैं चाहता हूं यह परम्परा और आगे बढ़े। हमारे महानगर की लड़कियां और जागरुक हों। वह सिर्फ दूल्हे को देखकर ही सेलेक्ट, रिजेक्ट का फैसला न करें। वह उसके घर और घर की आधारभूत सुविधाओं को भी देखें। जैसे कि घर यानी भावी ससुराल में बिजली की क्या व्यवस्था है? मीटर अपना है या बगल वाले से किराए पर बिजली ली है? मीटर अपना है तो बिजली आती है या नहीं? आती है तो कितने दिनों? हर दिन आती है तो कितनी देर के लिए? जितने समय बिजली नहीं आती है, उसके लिए क्या वैकल्पिक इंतजाम है? जनरेटर है कि नहीं? इनवर्टर है कि नहीं? अब बताओ अगर ससुराल में जनरेटर या इनवर्टर नहीं है और बिजली भी यदा-कदा ही आती है तो लाख पढ़ा-लिखा हो दूल्हा, लाख उमर भी फन्ने खां हो, हीरो हाण्डा भी न मांग रहा हो, कुर्ता-पायजामा भी न पहने हो, फिर भी उमस भरी गर्मी में वह दुल्हन के किस काम का। वह कूलर तो बन नहीं जाएगा। पंखा तो हो नहीं जाएगा। इसलिए दूल्हे के पास एक अदद जनरेटर या इनवर्टर जरूर होना चाहिए। बिजली की ही तरह लड़कियों को पानी पर भी ध्यान देना चाहिए। 'रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून' को विस्मृत नहीं करना चाहिए। शादी से पहले लड़की को जानना चाहिए कि उसकी होने वाली ससुराल में जल-संस्थान का पानी इस्तेमाल किया जाता है या हैण्डपम्प का, पड़ोसी से पानी मांग कर काम चलाया जाता है या निजी बोरिंग है। अगर निजी बोरिंग है तो आँख बंद करके दूल्हा 'सेलेक्ट' किया जा सकता है लेकिन अगर पड़ोसी से पानी मांग कर काम चलाया जा रहा है तो ससुराल वालों की बजाय पड़ोसी के बारे में गहन जानकारी की जरुरत है। जैसे पड़ोसी पानी क्यों दे रहा है, कब से दे रहा है? उसका स्वभाव कैसा है? आमदनी क्या है? पानी के बारे में उसकी राय क्या है? वह कब तक पानी देता रहेगा आदि-इत्यादि। यदि इन सभी प्रश्नों के सही-सही उत्तर मिल जाएं तो बेहतर हो कि लड़की पड़ोसी के यहां ही कोई गुंजाइश तलाशे अन्यथा दूल्हे को रिजेक्ट कर दे क्योंकि पड़ोसी के भरोसे गृहस्थी नहीं चलाई जा सकती। अब अगर हैण्डपम्प का पानी इस्तेमाल किया जाता है तो देखें, हैण्डपम्प घर में लगा है या चौराहे पर? चौराहे पर लगा हो तो 'अरेन्ज' मैरिज का प्रश्न ही नहीं। हां, घर में लगा हो तो विवाह के लिए सोचा जा सकता है, यह ध्यान में रखते हुए कि इलाके का वाटर लेबल क्या है? अब अगर किसी लड़की को यह पता चले कि उसकी भावी ससुराल पूरी तरह से जल संस्थान की सप्लाई पर निर्भर है तो उसे ऐसे परिवार से किसी भी सूरत में रिश्ता नहीं जोडऩा चाहिए क्योंकि अब जल-संस्थान के पानी से घर बसते नहीं, उजड़ते हैं। बिजली, पानी की तरह और भी बहुत से बिन्दु हैं, जिसके  आधार पर लड़कियां दूल्हों को रिजेक्ट कर सकती हैं। बस थोड़ी सी और हिम्मत की जरूरत है।
प्रमोद तिवारी

आ गई... आ गई

मैरा एक मित्र इन दिनों कानपुर आया हुआ है, वह भी मुंबई से। उसने अभी कल ही मुझसे पूछा कि 'यार, कानपुर में कभी-कभी अचानक पूरा का पूरा मोहल्ला आ गयी... आ गयी.. आ गयी.. काहे को चिल्लाने लगता है। आखिर ऐसी क्या चीज आ जाती है कि पूरा का पूरा मोहल्ला चिल्लाने लगता है और वह भी एक साथ। कभी मुझसे भी मिलवाओ उससे। जरूर उसमें कुछ न कुछ तो खास बात होगी ही। इतना हुल्लड़ तो हमारे यहां मुंबई में तब भी नहीं मचता जब स्टेज पर रानी मुखर्जी के सामने 'बिना शर्ट पहने अपने सल्लू मियां इंट्री लेते हैं।' ...मैं अपने दोस्त को क्या बताता.. लेकिन छुपाता भी तो कब तक... मैंने कहा, 'यार, कुछ नहीं... बस बिजली आती है।' जिसकी खुशी में पूरा मोहल्ला चिल्ला उठता है... आ गयी.. आ गयी...।' मित्र का अगला प्रश्र था कि '.... तो फिर बिजली जाती कहां है?'  इसका जबाव भी मेरे लिए दूभर ही था। मैंने कहा, 'भइए, अगर मुझे यह मालूम होता कि जाती कहां है तो आ गयी.. आ गयी.. चिल्लाने वालों में मैं खुद शामिल क्यों होता? ...फिर तुम ये सब बातें छोड़ों। कुछ दिन अगर तुम भी इस शहर में रह गये तो खुद ही पसीने से तर बनियाइन मुंह से फूंकते हुए चिल्लाते घूमोगे ...आ गयी ...आ गयी।'  तभी जोरों से आवाजें आने लगी आ गयी ...आ गयी ...आ गयी। मित्र महोदय ने मुझे देखा फिर छत पर टंगा खामोश पंखा....। पंखा धीरे-धीरे डोलने लगा था।
प्रमोद तिवारी 

शनिवार, 14 मई 2011

नारद डॉट कॉम

गुप्ता जी!



वैसे तो शहर में हजारों गुप्ता लोग रहते हैं। लेकिन आज जिन गुप्ता जी के चेहरे पर मैं टीनोपाल लगाना चाहता हूं उनको लोग के.डी.ए. वाले गुप्ता जी के नाम से जानते हैं। खबर आई है कि बीते पखवारे ये ६ बार केडीए आये और जैसा वहां होता है उनका काम नहीं हुआ। गुप्ता जी की उम्र जैसा अखबारों में छपा है ८० वर्ष की है सेहत देखते हुये लगता है कि सैकड़ा जरूर ठोकेंगे। इस समय की दौड़ाई के पहले भी २० वर्षों में गुप्ता जी ने लाखों परिक्रमायें यहां की जरूर की होंगी लेकिन प्लाट की रजिस्ट्री नहीं करवा पाये। यहां अगर गणित का ऐकिक नियम लगायें तो चूंकि जब पिछले २० वर्षों में विकास प्राधिकरण ने हजारों बार दौड़ाने के बाद भी गुप्ता जी का काम नहीं किया तो इन १५ दिनों में कैसे हो सकता है? यदि हो जाता तो गणित का ये शाश्वत नियम फेल हो जाता है।
यहां सवाल ये उठता है कि गलती पर कौन है केडीए या गुप्ता जी? मुझे तो लगता है कि सौ फीसदी गुप्ता जी वन-वे ट्रैफिक में घुस गये हैं। ये रिश्वत के बिना काम करवाना चाहते हैं। चाहे कुछ हो जाये पैसा नहीं देंगे। तो भाई गुप्ता जी क्या नतीजा निकला? इतनी बार तो आप अपनी ससुराल नहीं गये होंगे जितनी बार केडीए के चक्कर काटे हैं और नतीजा सिफर ही आया। आने-जाने का खर्चा भाड़ा सब जोड़ लेओ तो हजारों इसी में घुस गये होंगे और पसीना घाते में बहाया। हर तरफ से आप नुकसान में रहे। आप समझ रहे होंगे कि अखबार में खबर छपने से आपका काम हो जायेगा तो गुप्ता जी मुगालते में मत रहिए, मेरी मानिए चुपचाप माल खर्चिये और अपना काम बनाइये।
बुढ़ापे में प्लाट की रजिस्ट्री का सुख तो भोग लीजिये। जहाँ तक रुपये पैसे का सवाल है बिना इसके नाती-पोते तक लिफ्ट नहीं मारते हैं तो ऐसे में किसी विभाग विशेष को दोष देना ठीक नहीं है। रिश्वत की ये विष बेल ६० वर्षों की कठिन तपस्या के बाद इस तरह लहलहा रही है यदि आप इसे सुखाना चाहते हैं तो कम से कम ३० बरस का समय तो दीजिये ही।
मन
आपका मन सबसे अच्छा दोस्त है यदि आप इसे अपने नियंत्रण में रखते हैं। दूसरी तरफ यदि आप इसके नियंत्रण में हैं तो ये आपका सबसे बड़ा दुश्मन है।1

मार्शल का बाईस्कोप

आतंकियों के प्रति राजनैतिक सेवाभाव

पाकिस्तान में कोई सुरक्षित नहीं है, यहां तक कि लादेन भी भारत में हर कोई सुरक्षित है, अफजलगुरु और कसाब तक।
कन्नौज से रश्मि ने यह एसएमएस भेजा है। कुछ इसी तरह के एसएमएस इस समय मोबाइल पर करोड़ों लोगों को दिन भर फारवर्ड करते देखा जा सकता है।
एक और एसएमएस है मनीषा का
अमेरिका ने पाकिस्तान में घुसकर लादेन को मारा है। हम अफजल व कसाब को भारत में बिरियानी खिला रहे हैं।
एक लम्बा चौड़ा सन्देश यह भी है
अमेरिका खाली था, पाक में अटैक कर लादेन को मारा, इराक में अटैक कर सद्दाम को मारा अफगानिस्तान में...।
हम व्यस्त हैं अफजल की फांसी की फाइल पर दस्तख्वत करने का वक्त नहीं है हमारे पास। सुनील का यह एसएमएस नहीं हिन्दुस्तान की व्यवस्था (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) पर थू-थू है। लोक का तंत्र पर अविश्वास है। सारे भारत में इस समय आक्रोश, उत्तेजना और बेचैनी है। दाउद इब्राहीम पाक में बैठकर राज कर रहा है। मुम्बई आज भी उसके इशारों पर नाच रही है। उसकी अरबों की सम्पत्ति कारोबार और अपराधों का संजाल उसके घर के लोग सम्भाल रहे हैं। हमारे कानून भोथरे हैं, हमारी इच्छाशक्ति मर गई है, हमारे अधिकारी डरपोक हैं, हमारी व्यवस्था को लकवा मार गया है, या ये सब दादुद के पेड एजेंट बन गये हैं। इस पर निसर्च की गुंजाइश है।
एक दाउद का क्या रोना? अबू सलेम चुनाव लडऩे के लिये यों कहिये माननीय बनने के लिये हिन्दुस्तान आया है।
सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ में मारा गया, इसकी जांच में सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई, एसआईटी सभी लगे हैं। सोहराबुद्दीन मतलब दुर्दान्त आतंकवादी। सोहराब की आड़ में कांग्रेस मोदी को निपटाना चाहती है।
अपने दिग्गी राजा कह रहे हैं चाहे जितना बड़ा अपराधी हो (लादेन जी) भी। अन्तिम संस्कार विधि-विधान से होना चाहिये। मतलब बाकायदा दफन, ताकि फिर जब वहां उर्स हों तो दिग्गी राजा जा सकें।
क्या ट्विन टावर में मरने वालों (जिनमें भारतीय भी थे) के अन्तिम संस्कार हो पाये थे...।
जैसे ही कोई सिरफिरा कानून का दायरा लांघकर हथियार उठाता है और फिर बेगुनाहों की हत्या करता है फिर उसको अपना पेशा, शौक या पैशन बना लेता है  फिर उस पर सभ्य समाज के नियम कायदे लादे क्यों जायें?
इसीलिये ताज और संसद  पर हमले के दोषियों को हम बिरियानी खिलाकर बाड़ी बिल्डर बना रहे हैं। इसीलिये विस्फोट, दंगे, आतंकवादी घटनाएं हमारे यहां त्योहार के रूप में होने लगी हैं। हम भीख मांगने में विश्वास करते हैं। दाउद हमें दो, सईद हाफिज हमें दे दो...।
हमें भीख मांगने की आदत है। भीख वह भी भिखारियों से। नतीजा सिफर। 1
अनुराग अवस्थी 'मार्शल'

चौथा कोना

लबड़-सबड़ नही चलने वाला...

कानपुर प्रेस क्लब के चुनाव तब तक साफ-सुथरे ढंग से नहीं होंगे जब तक 'चुनाव प्रक्रिया' तटस्थ और न्याय का मान रखने वालों के हाथो नहीं होगी। ९ बरस बाद चुनाव को राजी हुई प्रेस क्लब कमेटी इन दिनों काफी राहत महसूस कर रही होगी। क्योंकि परिवर्तन पर आमादा प्रेस क्लब मुक्ति मोर्चा ने आगामी चुनाव प्रक्रिया में पुरानी कमेटी के पदाधिकारियों और कार्यकारिणी के सदस्यों को शामिल करने में अपनी सहमति जता दी। यह सहमति इस बात का संकेत है कि प्रेस क्लब मुक्ति मोर्चा में भी ऐसे लोग प्रभावी हैं जो गैर संवैधानिक पुरानी कमेटी के वफादार हैं। प्रेस क्लब मुक्ति मोर्चा के अगुवाकारों में से एक ने पिछले पिछले अंक का चौथा कोना पढ़कर एक वरिष्ठ पत्रकार से कहा- 'चुनाव अधिकारी कवीन्द्र कुमार तो तटस्थ हैं।' अब बताइये मुक्ति मोर्चा का अगुवाकार भ्रम में है। उसे पुरानी कमेटी के सबसे वरिष्ठ कार्यकारिणी सदस्य तटस्थ लग रहे हैं। महोदय यह भूल गये हैं कि उनके तटस्थ चुनाव अधिकारी ने गत चुनाव में उन पत्रकारों को प्रेस क्लब की सदस्यता से वंचित करवा दिया था जो किसी समाचार पत्र में नौकरी नहीं कर रहे थे। प्रमोद तिवारी, दिलीप शुक्ला, धीरेन्द्र अवस्थी जैसे पत्रकार प्रेस क्लब के लायक नहीं थे। अब कोई इन अगुवाकारों से पूछे कि कवीन्द्र कुमार जी आज-कल किस अखबार में हैं...? इलेक्ट्रानिक मीडिया के   लोगों को प्रेस क्लब वाले पत्रकार मानते नहीं। इस तरह कवीन्द्र कुमार तो अपने ही बनाये षडय़ंत्री नियम के तहत प्रेस क्लब के सदस्य भी नहीं रहने वाले। फिर कवीन्द्र कुमार  को किस आधार पर चुनाव अधिकारी बना दिया गया और अगर बना भी दिया तो किसके मत से। किसकी सहमति से।  जबकि चुनाव तिथि घोषित होने के बाद अधिकारिक तौर पर कोई भी गम्भीर पहल, कार्रवाई, बैठक या विचार-विमर्श कहीं हुआ ही नहीं। ये मुक्ति मोर्चा शायद एक प्रदर्शन के बाद चुनाव घोषित हो जाने से अतिरेक में है। मैंने जोश-खरोश के साथ पुरानी कमेटी को उखाड़ फेंकने वाले एक युवा साथी से प्रेस क्लब की ताजा गतिविधियां के बारे में पूछा तो वह हताश सा लगा। ऐसा लग रहा था कि मानो मैं उसका सारा खेल बिगाड़े दे रहा हूं। तो मेरे नये पत्रकार दोस्तों मेरी एक बात गांठ बांध लो...। ये जो पुरानी कमेटी है इसमें कोई मेरे दुश्मन लोग काबिज नहीं थे। ये सब भी तुम्हाारे जितने ही मेरे प्रिय और अजी$ज हैं और रहेंगे। यह तो प्रेस क्लब में उनके कामकरने का ढंग था जिसकी वजह से मैं उनका आलोचक और विरोधी हो गया हूं। वह भी केवल प्रेस क्लब तक ही। वरना कोई मेरा भाई है, कोई भतीजा, कोई भांजा है। और कोई मामा। सिर्फ कहने भर के सम्बोधन नहीं हैं ये वाकई नाते-रिश्तेदारी वाले सम्बोधन हैं...। वैसे एक बात बता दूं इस बार $जरा कठिन होगा चुनाव में लीपना-पोतना...।  पता चला है साप्ताहिक अखबारों को, छोटे अखबारों को, इलेक्ट्रानिक मीडिया को और स्वतंत्र पत्रकारों को सदस्यता मिलेगी पर मताधिकार नहीं...। प्रेस क्लब को यह सब करने से पहले बताना होगा किकिस बिना पर वह सदस्यता देगा और किस बिना पर नहीं। यह बड़ा मुद्दा होगा और इसे पारदर्शी बनाना होगा। इसके साथ ही पुरानी कमेटी नौ बरस का लेखा-जोखा तैयार करे। लाखों रुपये का आय-व्यय का हिसाब है... जिसका कोई खाता बही यानी बैंक एकाउंट नहीं है। यह भी बताये कि उसने ९ बरस तक चुनाव क्यों नहीं कराये।   इन वर्षों में एक बार भी आमसभा या विशेष सभा क्यों नहीं बुलाई गई। इस तरह के ढेरों सवाल हैं।
ये सारे सवाल प्रेस क्लब के चुनाव में उठेंगे और नये उम्मीदवारों व उसके बाद कमेटी को इन सवालों के जवाब मांगने होंगे। कम से कम पत्रकारों को तो अपनी संस्था के भ्रष्टाचार को साफ करने में संकोच नहीं करना चाहिए।1
प्रमोद तिवारी

कोचिंग मंडी

 सर निकले प्रश्न पत्र विक्रेता

मुख्य संवाददाता

हाल ही में ए.ए.ए.आई.ई. की परिक्षाओं का प्रश्न पत्र लीक हो गया। प्रश्न पत्र लीक हो जाने के साथ ही एक बार फिर ए.ए.ए.आई.ई. की परीक्षा संयोजन व्यवस्था की असलियत सामने आई क्योंकि यह पहली बार नहीं है जब इस परीक्षा का प्रश्न पत्र परीक्षा होने से पहले ही आउट हो गया है। यह प्रश्न पत्र आउट होने के बाद से इसकी जड़ें कानपुर कोचिंग मण्डी में तलाशी जा रही है। चूंकि मामला बड़ा है इसलिए स्पेशल टास्क फोर्स से लेकर खुफिया तक सब इस मामले को सुलझाने के लिए कानपुर की कोचिंग मण्डी खासतौर काकादेव कोचिंग मण्डी की पूरी व्यवस्थाओं को ही खंगालने में लगे हुए हैं।
दूसरी तरफ पर्चा लीक होने की खबर का खुलासा होने के बाद से मण्डी में स्थापित कोचिंगों के सर अपने आपको इस पूरे मामले से बचाते फिर रहे हैं। पर्चा लीक होने के विषय पर बात करने से तमाम सर और इनकी प्रबन्धकीय व्यवस्था में शामिल हर आदमी खुद को ईमानदार और पाक-साफ बताने के अलावा कुछ भी कहने या बताने में कन्नी काट रहा है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब पूरी कोचिंग मण्डी पाक-साफ और दूध की धुली हैै तो पर्चा लीक होने की तलाश आखिर कानपुर कोचिंग मण्डी में हो ही क्यों रही है। इसका उत्तर यह है कि दरअसल खुद को ईमानदार बताकर कोचिंग चला रहे तमाम सर सरासर झूठ बोल रहे हैं। पहली बात तो ये कि ये तमाम सर अध्यापक नहीं, शुद्ध व्यापारी हैं। कोचिंग प्रतियोगिताओं की तैयारियाँ कराने वाले शिक्षण संस्थान नहीं बस इन व्यापारियों केशोरूम हैं। यही वजह है कि ये तमाम सर छात्र-छात्राओं का भविष्य संवारने के नाम पर अपना व्यापार कर रहे हैं। विशुद्ध व्यापार और प्रतियोगी परिक्षाओं के पर्चे लीक कराने को इन लोगों ने इस कोचिंग व्यापार का एक अहम हिस्सा बना लिया है। ठीक वैसे ही जैसे प्रतियोगी परीक्षाओं में अव्वल आने वाले प्रतियोगियों की खरीद-फरोख्त करने-कराने में ये कोचिंग सर अपना सारा हुनर दिखाते हैं। सफल प्रतियोगी खरीदे व बेचे जाते हैं।
ए.ए.ए.आई.ई. का पर्चा आउट होने में एस.टी.एफ. की अब तक की तफ्तीश में तीन सरों के नाम सामने आ रहे हैं।
जिनमें सर्वेश विक्रम सिंह सर, कीर्ति सर के अलावा मेडिकल कोचिंग चलाने वाले एक और सर शामिल हैं। कोचिंग मंडी में इन तीनों सरों की अच्छी कमाई है और हजारों छात्रों का एडमिशन भी इनके कोचिंग शोरूम में है। पर्चा आउट होने के प्रकरण में इनकी मिली भगत की आशंकाओं ने इनके क्रियाकलापों और निश्चित सफलता दिलाने के दावों के आधार की हकीकत भी साफ  कर दी है।
एस.टी.एफ. सूत्रों के मुताबिक अभी तक इन तीन सरों के खिलाफ इतने पर्याप्त सबूत नहीं मिले हैं जिनके आधार पर इनके खिलाफ कोई अग्रिम कार्यवाही की जा सके लेकिन जल्द ही पर्याप्त सबूत जुटा लिए जायेंगे। एस.टी.एफ. के मुताबिक पर्चा लीक कराने में इन सरों का महत्वपूर्ण हाथ है लेकिन इस पूरे गोरखधन्धे में ये सर सीधे तौर पर शामिल नहीं होते हैं। इस पूरे काम को अंजाम इनसे मोटी रकम पाने वाले इनके गुर्गे ही देते हैं। इसके पहले अभी कुछ समय पहले बी.एड. परीक्षा का प्रश्न पत्र लीक होने के बाद भी कानपुर की कोचिंग मण्डी को इसी तरह खंगाला गया था। इस प्रकरण में कोचिंग मण्डी में वर्षों से स्थापित सर जी.डी.वर्मा का नाम आया था लेकिन बाद में जाँच टीम से साँठ-गाँठ कर जी.डी. वर्मा ने यह पूरा ठीकरा अपने भाई मंटू वर्मा के सिर पर फोड़ दिया था और खुदको इस पूरे मामले से अलग करने में कामयाब हो गये थे।
ए.ए.ए.आई.ई. का पर्चा लीक होने के बाद मामले को सुलझाने में लगी टीम ने एक बार फिर जी.डी.वर्मा को ही अपना निशाना बनाया लेकिन वर्मा जी पहले से ही सचेत थे। सूत्रों के मुताबिक इन तीनों सरों का सुराग भी जी.डी.वर्मा पर कसे गए शिकंजे का ही परिणाम है। फिलहाल तो एस.टी.एफ. अभी इन्हीं तीन कोचिंग सरों के इर्द-गिर्द ही अपनी जाँच कर रही है लेकिन उम्मीद जतायी जा रही है कि जल्द ही इन तीन सरों के अलावा भी कुछ और नए कोचिंग व्यापारी सर इस मामले में बेनकाब होंगे।1

कवर स्टोरी

काकादेव चला कोटा बनने...?
विशेष संवाददाता

इस बार बहस का सेंटर प्वाइंट है काकादेव की मेडिकल कोचिंगों की टूटन। कानपुर और काकादेव आकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्रों में अस्सी प्रतिशत छात्र इंजीनियरिंग के लिये समर्पित होते हैं। दस प्रतिशत मेडिकल के और शेष दस प्रतिशत में बैंक, सेना, एकाउंट्स, एयरहोस्टेस, इंग्लिश स्पीकिंग आदि के।

काकादेव कोटा की राह पर चल निकला है या फिर एक बार मंडी की ओछी हरकतों और घात प्रतिघात का साक्षी बनने जा रहा है।
यह बहस तेज हो गई है। इस बार बहस के पीछे इंजीनियरिंग कोचिंगों के लम्बे-चौड़े (कुछ असली-कुछ फर्जी) दावे नहीं हैं, छात्रों के हितों को किनारे कर कारपोरेट स्टाइल के कांट्रैक्ट नहीं हैं, एक सर द्वारा दूसरे सर के पैसे मार देने के किस्से नहीं है और नहीं हैं ट्रिपल एईई के आउट पेपर से काकादेव के जुड़ाव के शक की सुई पर।
इस बार बहस का सेंटर प्वाइंट है काकादेव की मेडिकल कोचिंगों की टूटन। कानपुर और काकादेव आकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्रों में अस्सी प्रतिशत छात्र इंजीनियरिंग के लिये समर्पित होते हैं। दस प्रतिशत मेडिकल के और शेष दस प्रतिशत में बैंक, सेना, एकाउंट्स, एयरहोस्टेस, इंग्लिश स्पीकिंग आदि के।
इसीलिये सर्वाधिक जोड़-तोड़, आपसी प्रतिद्वन्द्विता, उठापटक, रैंकरी की खरीद-फरोख्त, विज्ञापनी चमक-दमक, एडमीशन की कमीशनबाजी भी इंजीनियरिंग कोचिंगों में ज्यादा दिखती है।
तुलनात्मक रूप से देखा जाये तो मेडिकल कोचिंगों में नैतिकता, प्रतिस्पर्धा, छात्रों के प्रति डिवोशन, सफलता के दावे, फीस, सब कुछ लिमिट में दिखता है। ऐसा नहीं है कि इंजीनियरिंग की कोचिंगों में सब व्यापारी या बेईमान भाव से जुटे हैं और ऐसा भी नहीं कि मेडिकल में सब कुछ अच्छा-अच्छा है। इंजीनियरिंग में जहां कुछ रंगे सियारों ने बदनामी का ज्यादा ढोल पीट दिया है वहीं मेडिकल में इक्का-दुक्का होने वाली इस तरह कीघटियापन की हरकतें काफी हद तक तो दबी ही रह जाती हैं।
काकादेव में मेडिकल कोचिंग में सर्वाधिक प्रतिष्ठित नाम न्यू लाइट है। दो दशक से ज्यादा पुरानी न्यू लाइट कोचिंग के पास जहां उपलब्धियों का पहाड़ है वहीं फर्जी दावों का टोंटा। कोचिंग डायरेक्टर एस.पी. सिंह के आलोचकों की कमी नहीं है। लेकिन उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं कि वे रैंकरों की खरीद-फरोख्त में विश्वास नहीं करते हैं।
२०१० में ही न्यू लाइट का दावा है कि सीपीएमटी में उसके ३५३, बीएचयू में १९, सीबीएसई १७४... आदि छात्र सेलेक्ट हुये थे। इनमें से तीन भानु मौर्या, समग्र अग्रवाल व उदय पी यादव रैंकर थे।
यूं तो काकादेव में मेडिकल की आधा दर्जन और कोचिंग भी हैं। सबकी अपनी विशेषतायें और उपलब्धियां भी।
पैक्टजेम, न्यू स्पीड, सरदेसाई।  इनमें से प्रमुख हैं। अब एक नया नाम इनमें जुड़ा है ब्रेवगार्ड।
यह बाहर से आये बहादुरों का दल नहीं है। ब्रेवगार्ड के आठ महारथी कल तक न्यू लाइट से जुड़े थे। न्यू लाइट की इस टूटन पर काकादेव में चर्चाओं का बाजार भी गर्म है और उम्मीदों का सेन्सेक्स भी। आलोचक, समीक्षक और जानकार इसे न्यू लाइट के लिये बड़ा झटका मान रहे हैं। न्यू लाइट से एक साथ इतने लोगों का निकलना और पास में ही योजनाबद्ध ढंग से कोचिंग में क्लास शुरू कर देने को जहां लोग शेर की मांद में घुसकर चुनौती देना मान रहे हैं, वहीं ब्रेवगार्ड और न्यू लाइट के दोनों पक्ष एक दूसरे की हर गतिविधि पर बारीकी से निगाह रखते हुये सधी प्रतिक्रिया दे रहे हैं।
काकादेव के पुराने अखाड़चियों पर विश्वास करें तो न्यू लाइट इस झटके से उबर आयेगी। उनके अनुसार यहां जितनी भी कोचिंग चल रही हैं, उनमें से अधिकांश कभी न कभी कम या लम्बे समय तक डा. एसपी सिंह के शागिर्द रहे हैं। फिर उन्होंने अपनी कोचिंग खोल ली। इनमें से अधिकांश को अपने भाग्य, मेहनत, प्रचार-प्रसार और रिजल्ट के अनुकूल मार्केट शेयर मिल गया है। लेकिन न्यू लाइट का नम्बर एक सिंघासन आज भी अपराजेय है।
आगे भी यह रहेगा या नहीं यह कोई नहीं जानता, लेकिन पहली बार काकादेव में कोटा की तर्ज पर फैकल्टी की बात शुरू हुई है। कोर्स प्लान, बेस्ट फैकल्टी, डाउट क्लीयरेंस को अपनी स्पेशिलटी बताया जा रहा है।
व्हाट इस मोर इम्र्पाटेन्ट
इंस्टीट्यूट आर फैकल्टी। जैसे स्लोगन छापे जा रहे हैं।
जानकार जानते हैं कि सुदूर राजस्थान में कोटा कभी बन्सल क्लासेज के नाम  पर जाना जाता था। हालांकि एलन्स उनसे भी पुराने अपने को बताते हैं।
दो कमरों में चलने वाली दोनों कोचिंगें आज मल्टीस्टोरी बिल्डिंग में चल रही हैं। बाद में इन्हीं की फैकल्टी टूट कर रेजोनेन्स, मोशन, वाइब्रेन्ट, कैरियर प्वाइंट बनीं। आज भी वहां एक कोचिंग से बीत-बीस फैकल्टी टूटकर दूसरे में चली जाती हैं। देश के कोने-कोने से अपने बच्चों को लेकर जाने वाले अभिभावक यहां एडमीशन के लिये कोचिंग की बिल्डिंग और विज्ञापन नहीं फैकल्टी ही देखते हैं।
इस नजरिये से देखा जाये तो काकादेव कोटा की राह पर चल निकला है। कोटा में सब कुछ अच्छा नहीं है लेकिन कोचिंग मंडी अगर कोचिंग हब बनने की दिशा में पहला कदम उठाती है तो स्वागत होना ही चाहिये।
क्या है ब्रेवगर्ड 
न्यू लाइट के राजदीप श्रीवास्तव, विजय बहादुर, आशुतोष दुबे, विपिन द्विवेदी, राकेश चौरसिया, डीडी पाण्डे, टीचर्स ने गौरव दुबे और अभय शुक्ला मैनेजर के साथ मिलकर बनाई है ब्रेवगर्ड। नौ साल से बाइस साल तक का अनुभव लिये न्यू लाइट के इन पुराने महारथियों की कसमसाहट और खुलकर कुछ कर दिखाने की तमन्ना ने इन्हें अलग होने को मजबूर किया।
ब्रेवगर्ड में फर्नीचर फिटिंग, जनरेटर सेटिंग और सिटिंग स्टूडेंट के बीच खड़े-खड़े डी.डी. सर कहते हैं, वहां हमें बन्धुआ रहना पड़ता था, आखिर हम टीचर हैं। केवल अन्डरलाइन पोर्शन पढ़ाने से हम खुद ही अनकम्र्फटेबल फील करते थे। अपनी विशेषता पर जोर देते हुये वे कहते हैं हमारे मैनेजर हमारे पार्टनर हैं और हम अलग होने के बावजूद इस सेशन के स्टूडेंट के लिये हमारे दरवाजे खुले हैं। उनका जोर है कि बिल्डिंग, इंस्टीट्यूट और ब्रान्ड नहीं फैकल्टी ही सफलता का रास्ता बनाती है।
जवाब न्यू लाइट का...
हां, मैं अडरलाइन पोर्शन ही पढ़ाने को देता हूं...। स्टूडेंट यहां सेलेक्शन कराने के लिये आया है। उसके अभिभावकों ने हमारे विश्वास पर अपने खून पसीने की कमाई से फीस जमा की है। यह कहना है डा. एस.पी. सिंह का। अपनी बात को समझाते हुये सिंह कहते हैं कि मेरा दावा है एनसीईआरटी की बुक्स से बाहर का एक भी क्वेश्चन पेपर में नहीं आता है। अगर आ जाये तो मैं पहला आदमी हूंगा जो इन पर दावा ठोंक दूंगा।
प्रमाण स्वरूप एम्स के पेपर को दिखाते हैं...हर प्रश्न के आगे बुक के किस पेज पर वह प्रश्न है लिख रखा था। बोले आप देखिये यहां हर समय टीचर की मीटिंग और क्वेश्चन पेपर पर रिसर्च हुआ करती है, पूरी टीम उसके लिये मैंने लगा रखी है। ऐसे में अगर रैलिवेन्ट चीजों के अलावा टीचर अपने सोआफ के लिये पढ़ायेगा तो छात्रों के समय का नुकसान होगा, जो मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा।
फैकल्टी के अलग होने के सवाल पर वे कहते हैं, अच्छा है, कल तक  मेरे साथ थे, खूब तरक्की करें। हां, मैं इस बार    बाहर से अच्छी फैकल्टी बुला रहा हूं और उसको पूरे सेशन के लिये कान्ट्रैक्ट  पर लूंगा।1