शनिवार, 14 मई 2011

चौथा कोना

लबड़-सबड़ नही चलने वाला...

कानपुर प्रेस क्लब के चुनाव तब तक साफ-सुथरे ढंग से नहीं होंगे जब तक 'चुनाव प्रक्रिया' तटस्थ और न्याय का मान रखने वालों के हाथो नहीं होगी। ९ बरस बाद चुनाव को राजी हुई प्रेस क्लब कमेटी इन दिनों काफी राहत महसूस कर रही होगी। क्योंकि परिवर्तन पर आमादा प्रेस क्लब मुक्ति मोर्चा ने आगामी चुनाव प्रक्रिया में पुरानी कमेटी के पदाधिकारियों और कार्यकारिणी के सदस्यों को शामिल करने में अपनी सहमति जता दी। यह सहमति इस बात का संकेत है कि प्रेस क्लब मुक्ति मोर्चा में भी ऐसे लोग प्रभावी हैं जो गैर संवैधानिक पुरानी कमेटी के वफादार हैं। प्रेस क्लब मुक्ति मोर्चा के अगुवाकारों में से एक ने पिछले पिछले अंक का चौथा कोना पढ़कर एक वरिष्ठ पत्रकार से कहा- 'चुनाव अधिकारी कवीन्द्र कुमार तो तटस्थ हैं।' अब बताइये मुक्ति मोर्चा का अगुवाकार भ्रम में है। उसे पुरानी कमेटी के सबसे वरिष्ठ कार्यकारिणी सदस्य तटस्थ लग रहे हैं। महोदय यह भूल गये हैं कि उनके तटस्थ चुनाव अधिकारी ने गत चुनाव में उन पत्रकारों को प्रेस क्लब की सदस्यता से वंचित करवा दिया था जो किसी समाचार पत्र में नौकरी नहीं कर रहे थे। प्रमोद तिवारी, दिलीप शुक्ला, धीरेन्द्र अवस्थी जैसे पत्रकार प्रेस क्लब के लायक नहीं थे। अब कोई इन अगुवाकारों से पूछे कि कवीन्द्र कुमार जी आज-कल किस अखबार में हैं...? इलेक्ट्रानिक मीडिया के   लोगों को प्रेस क्लब वाले पत्रकार मानते नहीं। इस तरह कवीन्द्र कुमार तो अपने ही बनाये षडय़ंत्री नियम के तहत प्रेस क्लब के सदस्य भी नहीं रहने वाले। फिर कवीन्द्र कुमार  को किस आधार पर चुनाव अधिकारी बना दिया गया और अगर बना भी दिया तो किसके मत से। किसकी सहमति से।  जबकि चुनाव तिथि घोषित होने के बाद अधिकारिक तौर पर कोई भी गम्भीर पहल, कार्रवाई, बैठक या विचार-विमर्श कहीं हुआ ही नहीं। ये मुक्ति मोर्चा शायद एक प्रदर्शन के बाद चुनाव घोषित हो जाने से अतिरेक में है। मैंने जोश-खरोश के साथ पुरानी कमेटी को उखाड़ फेंकने वाले एक युवा साथी से प्रेस क्लब की ताजा गतिविधियां के बारे में पूछा तो वह हताश सा लगा। ऐसा लग रहा था कि मानो मैं उसका सारा खेल बिगाड़े दे रहा हूं। तो मेरे नये पत्रकार दोस्तों मेरी एक बात गांठ बांध लो...। ये जो पुरानी कमेटी है इसमें कोई मेरे दुश्मन लोग काबिज नहीं थे। ये सब भी तुम्हाारे जितने ही मेरे प्रिय और अजी$ज हैं और रहेंगे। यह तो प्रेस क्लब में उनके कामकरने का ढंग था जिसकी वजह से मैं उनका आलोचक और विरोधी हो गया हूं। वह भी केवल प्रेस क्लब तक ही। वरना कोई मेरा भाई है, कोई भतीजा, कोई भांजा है। और कोई मामा। सिर्फ कहने भर के सम्बोधन नहीं हैं ये वाकई नाते-रिश्तेदारी वाले सम्बोधन हैं...। वैसे एक बात बता दूं इस बार $जरा कठिन होगा चुनाव में लीपना-पोतना...।  पता चला है साप्ताहिक अखबारों को, छोटे अखबारों को, इलेक्ट्रानिक मीडिया को और स्वतंत्र पत्रकारों को सदस्यता मिलेगी पर मताधिकार नहीं...। प्रेस क्लब को यह सब करने से पहले बताना होगा किकिस बिना पर वह सदस्यता देगा और किस बिना पर नहीं। यह बड़ा मुद्दा होगा और इसे पारदर्शी बनाना होगा। इसके साथ ही पुरानी कमेटी नौ बरस का लेखा-जोखा तैयार करे। लाखों रुपये का आय-व्यय का हिसाब है... जिसका कोई खाता बही यानी बैंक एकाउंट नहीं है। यह भी बताये कि उसने ९ बरस तक चुनाव क्यों नहीं कराये।   इन वर्षों में एक बार भी आमसभा या विशेष सभा क्यों नहीं बुलाई गई। इस तरह के ढेरों सवाल हैं।
ये सारे सवाल प्रेस क्लब के चुनाव में उठेंगे और नये उम्मीदवारों व उसके बाद कमेटी को इन सवालों के जवाब मांगने होंगे। कम से कम पत्रकारों को तो अपनी संस्था के भ्रष्टाचार को साफ करने में संकोच नहीं करना चाहिए।1
प्रमोद तिवारी

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