सोमवार, 27 सितंबर 2010

प्रथम पुरुष

भीख मांगना अपराध नहीं

डा. रमेश सिकरोरिया

भीख मांगना अपराध नहीं है. उसके लिये बच्चों या विकलांगों को पकड़ कर सजा देना उनके साथ अन्याय है. हमारे देश में इसे अपराध नहीं मानते थे. गौतम बुद्घ के अनुयायी तो भिक्षा मांग कर ही पेट भरते थे. अंग्रेजों ने १९२० में इसे अपराध की संज्ञा दी है और कानून बना कर रोका और हमने १९५९ इसे और विस्तृत किया इसमें ३ वर्ष से १० वर्ष तक की सजा का प्राविधान कर दिया. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि गाना गाकर, नाचकर, भविष्य बताकर, सड़क पर कुछ बेच कर और अब तो वाहन साफ कर भी पैसा मांगना इस कानून की परिध में आता है. भीख मांगने का मुख्य कारण है मां-बाप का अपने बच्चों को पेट भरने के लिए विवश करना. यह भी हो सकता है कि उसके पास घर नहीं है, बच्चे का बाप नहीं है, वे बीमार हैं, विकलांग हंै या उन्हें नशे की आदत है या उनमें जिम्मेदारी का अभाव है, वे अपने बच्चों की शिक्षा स्वास्थ्य और पालन पोषण नहीं करते हैं या कर नहीं सकते हैं. तमाम बच्चे काम करना चाहते हैं. किसी भी प्रकार का कूड़े में से के टुकड़े उठाने का, चाय देने का इत्यादि. उनके लिये प्रत्येक शहर में स्कूल खेालने चाहिए, जहां रहने की व्यवस्था हो. शिक्षा तो उनका मौलिक अधिकार है.ऐसे परिवार जिनके पास रहने को घर नही है, फुटपाथ या अन्य जगह रहते हैं, उनमें से केवल ९ प्रतिशत भीख मांगते हंै, २३ प्रतिशत कुछ काम करते हंै, परन्तु उनको माह में केवल १५ दिन काम मिलता है. ३३ प्रतिशत को १६ से २५ दिन विकलांगों कुष्ठरोगियों या मानसिक रोगियों को कोई काम नहीं मिलता. ऐसे लोगों को विशेष तौर पर बच्चों को पकड़ करके सुधार ग्रह में बन्द करके हम क्या कर रहे हैं ? सुधार ग्रह तो जेल से भी बुरे हैं . हम ऐसा करके बच्चों का जीवन बरबाद कर रहे हैं. पाप कर रहे हैं. हमारा स्वार्थ उनको गरीब बने रहने, बिना घर के, भीख मांग कर जीने के लिए मजबूर कर रहा है ताकि हमारी सेवा के लिए वे उपलब्ध रहें.अंत में-विश्व में केवल तीन देश ऐसे हैं जिन पर विदेशियों ने कभी राज्य नहीं किया- १. अफ गानिस्तान२. चीन३. एविसीनिया1(लेखक पूर्व स्वास्थ निदेशक हैें)

नारद डाट काम

वणिक शक्ति

कमलेश त्रिपाठी

पिछले हफ्ते इन भाई लोगों का सम्मेलन हुआ था. देश-विदेश के वणिकों ने इसमें नाप तौल कर हिस्सा लिया. यह बिरादरी अब उत्परिवर्तन के दौर में है. इस महाकुम्भ के एक दिन पहले से मय की दुकानों में मदिरा कम पडऩे लगी थी, उसका असर भाषणों में भी दिखाई दिया। खूब तलवारें भांजी गयी, सभी राजनैतिक पार्टियों को चेताया गया कि हमें भी सरकार में शामिल करो, वरना हम भी नई पार्टी बना लेंग. हे! वणिकों तुम्हें कौन रोक रहा है इस काम से? फिर इस देश में में सबको सब कुछ करने की छूट है. राम तो दूर की बात है यहाँ तो दशरथ राज चल रहा है. तुमने शहर का हृदयस्थल मालरोड मारे बेलचों के खोद डाला, तुमसे किसी ने कुछ कहा. इस कानपुर शहर की तो बात ही कुछ जुदा है, यहाँ छेड़ छाड़ से लेकर बलात्कार और खाने पीने के सामानों में मिलावट से लेकर नकली मुद्रा तक चलाने की छूट है. यहाँ हर आदमी के बाप का राज है. ऐसे में सोचने की बात है कि बाप के राज में हर आदमी को पूरी मौज लेने का अधिकार है. इस महाभीड़ में प्रदेश के एक बड़े कथित वणिक नेता की नामौजूदगी लोगों को जरूर सालती रही. यह नेता दरअसल असली राजपूत है, सूबे में जिसका राज चलता है ये उसी के पूत बन जाते हैं. पंजे से साइकिल का हैंडिल थामते हुए इस समय पुत्र सहित हाथीनशीं हैं, फिर यहाँ एक बात और है बनिये का मतलब बनना होता है न कि बिगडऩा. इसके लिए पार्टी जाँघिये की तरह बदलनी पड़े तो क्या हर्ज है?अब जरा इन जातिगत सम्मेलनों के असली दर्शन पर आइये. आज हर जाति, प्रजाति और उपजाति का अपना व्यक्तिगत संगठन जरूर है और करीब-करीब सबमें दाल भी बट रही है. अभी तक ऐसे किसी जातीय, उपजातीय संगठन ने कोई अच्छा सामाजिक काम नहीं किया है. गर्मी में एक प्याऊ तक नहीं लगवाया. एक तरह से ठीक भी किया, लगवाते तो बोर्ड टँगवा देते कि सिर्फ वणिकों के लिए. आज समाज लौकी की तरह कट रहा है, सगे भाई को देने के लिए कुछ नहीं है लेकिन पूरी जाति को उठाने का दावा करते हैं. बसपा जैसी पार्टी जिसका उदय जातिगत राजनीति से ही हुआ था, अब वो सबकी बात कर रही है. ऐसे में हे! वणिकों पोस्टर में चित्र छपवाने से कुछ होने वाला नहीं है. कुछ अच्छा करो चाहे अपनी ही बिरादरी के लिए ही हो, तलवारें भांजने से कुछ भला होने वाला नहीं है फिर एक अंग्रेजी कहावत है -'चैरिटी बिगिन्स फर्म होमÓ1

गांधी बनोगे, गुप्ता जी!

प्रमोद तिवारी

वैश्य एकता परिषद की महारैली

हम लोग कल को केन्द्रीय मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल, ग्रामीण विकास राज्य मंत्री प्रदीप जैन, सांसद नवीन जिंदल, विधायक सलिल विश्नोई व श्यामा चरण गुप्ता जैसे आम जनता से विश्वास पा चुके जन प्रतिनिधियों को सोनिया, अटल, मुलायम और मायावती के बजाय सुमंत के नेतृत्व में कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा से नहीं 'गुप्ता पार्टीÓ के टिकट पर चुनाव लड़ता देख सकते हैं...

पिछड़ों और दलितों की राजनीतिक एकजुटता हमने मुलायम सिंह यादव और मायावती की सरकारों की शक्ल में साफ-साफ देख ली है. अब वैश्वों की राजनीतिक एकजुटता देखना बाकी है. कानपुर में दो केन्द्रीय मंत्री सहित कई विधायकों और सांसदों की मौजूदगी में ऐलान हुआ कि अगर देश की राजनीति में वैश्यों का उचित प्रतिनिधित्व न हुआ तो वह अपना अलग राजनीतिक दल बना लेंगे. यह उद्घोष यहां १९ सितम्बर को वैश्य एकता परिषद की रैली में हुआ, जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष सुमंत गुप्ता हैं. अर्थात सुमंत गुप्ता के नेतृत्व में अब देश के वैश्यों का एक दल कभी भी अस्तित्व में आ सकता है. और हम लोग केन्द्रीय कोयला मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल, ग्रामीण विकास राज्य मंत्री प्रदीप जैन, सांसद नवीन जिंदल, विधायक सलिल विश्नोई व श्यामा चरण गुप्ता जैसे आम जनता से विश्वास पा चुके जन प्रतिनिधियों को सोनिया, अटल, मुलायम और मायावती के बजाय सुमंत के नेतृत्व में कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा के बजाय 'गुप्ता पार्टीÓ टिकट पर चुनाव लड़ता देख सकते हैं. श्री प्रकाश जायसवाल और प्रदीप जैन से तो इस संबंध में बात नहीं हो सकी लेकिन सलिल विश्नोई जरूर मिल गये. भाजपा से विधायक सलिल जी का मानना है कि वैश्य एकता परिषद में जो कहा गया वह कतई उचित है. यह पूछे जाने पर कि अगर कल को वैश्यों की पार्टी बनती है तो क्या आप भाजपा छोड़ देंगे? उन्होंने कहा कि यह तो समय बतायेगा, अभी से क्या कहा जा सकता है. सलिल जी का यह जवाब नि:संदेह एक बड़ी राजनीतिक हलचल का संकेत माना जाना चाहिए. यह जवाब बताता है कि सम्मेलन में कही गई बातें केवल बातें नहीं हैं. इसके राजनीतिक निहितार्थ को समझना होगा. वैश्यों का यह मंच साधारण नहीं था. मंच पर विश्व के नम्बर एक अखबार के मालिक और सपा से राज्यसभा सदस्य रह चुके महेन्द्र मोहन गुप्ता जी भी मौजूद थे. हालांकि उन्होंने सुमंत जी को चुनावी राजनीति से अलग रहने का ही मशविरा दिया, लेकिन वहीं पूर्व सांसद श्यामा चरण गुप्ता काफी उतावले दिखे. उन्होंने दल बनाने के लिए एक करोड़ रुपये देने का भी ऐलान कर दिया. पूरे सम्मेलन में एक बात बहुत मजबूती और ताकत से उठाई गई वैश्य समाज की ओर से कि अब वैश्य शोषण नहीं करायेगा. जो लोग यह कह रहे थे और मंच पर हाथ से हाथ मिलाकर 'हल्ला-बोलÓ की मुद्रा बना रहे थे, जरा उन पीडि़तों और शोषितों के नाम जान लीजिए. सुरेश गुप्ता (स्थाई स्थानीय अध्यक्ष, अजित सिंह पार्टी) पवन गुप्ता (सफल उद्यमी), सलिल विश्नोई (विधायक, भाजपा), महेन्द्र मोहन गुप्ता (मालिक, जागरण समूह), श्री प्रकाश जायसवाल (केन्द्रीय कोयला मंत्री) प्रदीप जैन (केन्द्रीय राज्य मंत्री), नवीन जिंदल (बड़े उद्यमी व कांग्रेसी सांसद), सुमंत गुप्ता (अध्यक्ष, वैश्य एकता परिषद), श्यामा चरण गुप्ता (पूर्व सांसद एवं बड़े उद्यमी) आदि. तो ये हैं वैश्य कौम के उत्पीडऩ से परेशान लोग. आगे कुछ भी लिखूं कम पड़ेगा. इसलिए एक कर विशेषज्ञ वैश्व अधिवक्ता वैश्व जाति नहीं वैश्व प्रवृत्ति पर किया गया चिंतन यहां काबिले गौर है. एक वरिष्ठ अधिवक्ता लेकिन दिमाग से खुले वैश्व ने इस सम्मेलन पर जो कहा वह काबिलेगौर है- 'आजादी के बाद इस देश को दीमक और चूहे की तरह अगर किसी कौम ने कुतरा और चाटा है तो वह यही व्यापारी वर्ग है. जिस पर जाति के आधार पर वैश्यों का और राजनीति के आधार पर भाजपा का वर्चस्व रहा है और आज भी है. कोटा, परमिट, लाइसेंस और इन पर छूटें किस लिए दी गई थीं. ताकि देश विकास करे. उत्पादन बढ़े. आम जनता तक चीजें पहुंचे लेकिन इन व्यापारियों ने इसे चोरी और ब्लैक का धंधा बनाकर अपनी तिजोरियां भर लीं और आजादी के पहले चालीस वर्ष बिना डकारे हजम कर गये. वकील साहब की यह आक्रामक मुद्रा विचारणीय है. शहर में वनस्पति घी और पान मसाले का बड़ा व्यापार होता है. पिछले साल एक राष्ट्रीय चैनल ने इनकी खबर ली तो जनाब पैसा बनाने के लिये ये लोग आम जनता को जहर खिलाते पाये गये. कायदे से इन्हें जेल में होना चाहिए लेकिन जेल तो ये गये नही, हां! बाद में उसी राष्ट्रीय चैनल पर इन घी वालों के विज्ञापन जरूर दिखे. वाकई बड़ा उत्पीडऩ हुआ वैश्यों का. बेचारे घी में सुअर की चर्बी मिला रहे थे. सुअर तो कुछ कह नहीं रहा था पर नगर निगम के स्वास्थ्य अधिकारी नाहक ही पिल पड़े और सेम्पिलिंग करा ली. ऐसे ही चैनल वाले न जाने कहां से रिपोर्ट ढूंढ़ कर दिखाने लगे, न चाहते हुए भी लाखों का विज्ञापन देना पड़ा. अगर होती वैश्यों की कोई राजनीतिक पार्टी, तो न कोई सुअर की चर्बी मिलाने से रोक पाता और न ही कोई चैनल सच न दिखाने की शर्त पर विज्ञापन ऐंठ पाता. कौन नहीं जानता सुमंत गुप्ता और आनंद गुप्ता हर चुनाव में या चुनाव के आगे-पीछे ऐसे ही मंच तैयार करके वैश्यों के वोटों की ठेकेदारी करते हैं. पिछले विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी पवन गुप्ता वोटिंग के ठीक पहले की रात ब्रह्म नगर चौराहे पर मंदिर की ओट में इस लेखक को वैश्यों के वोटों के एक ठेकेदार को नोटों की मोटी-मोटी गड्डियां पकड़ाते दिखे. लेकिन वोटों के अकाल में अपनी जमानत फिर भी नहीं बचा पाये. इस रैली में कोई आर.सी. गुप्ता थे. उन्होंने कहा कि ब्राह्मणों और ठाकुरों को उनकी औकात बताओ. यह भाषा तो अभी तक बसपाइयों की थी. इस भाषा से समाज को, प्रदेश को या देश को कुछ भी हासिल नहीं हुआ. गुप्ता जी, फिर अगर आपकी यही ललकार कहीं दिलों पर असर कर गई तो वैश्यों की सारी ताकत (व्यापारी) कोने में धरी रह जायेगी. अगर वैश्य एकता परिषद की यह मूल भावना है और मंच पर मौजूद नेता लोग इस भावना से सहमत हैं तो अब वे ठाकुरों, ब्राह्मणों, पिछड़ों और दलितों से संबंध तोड़ लें. न उन्हें माल बेंचे और न उनसे वोट मांगे. गिन लें 'गुप्ताओंÓ के घर और कर लें राज. मंच पर केन्द्रीय मंत्री बैठे रहे, उन्हें मुख्यमंत्री घोषित किया जाता रहा और वह मुस्कराते रहे. प्रदीप जैन घनघोर पृथक्तावादी, समाज को तोडऩे वाले और आपसी वैमनस्य को बढ़ाने वाले स्वर पर तालियां पीटते रहे. ऐसे ही तो स्वर थे बसपाइयों के- तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार. जिन्होंने विधायिका का मुंह नहीं देखा उनकी बात और है. उन्हें राजनीतिक दृष्टि से बच्चा और कच्चा समझ कर अनदेखा भी किया जा सकता है. लेकिन बिहार में जातिवादी राजनीति को कोसने वाले श्री प्रकाश जायसवाल अपने शहर में जातिवादी राजनीति के उद्घारक बन गये हैं, इसकी अनदेखी कैसे हो. प्रदीप जैन तो सीधे राहुल गांधी के सिपहसलार बनकर नरेगा से दबे-कुचलों को उठाने का जिम्मा लिये हैं. अगर ये महोदय भी गुप्ता पार्टी के गठन के पक्ष में हैं तो इसका मतलब यह हुआ कि राहुल का यूथ ब्रिगेड भी उसी सड़ी मानसिकता का शिकार है जिसने देश को पहले से ही सड़ा रखा है. नवीन जिंदल तो खाप पंचायतों तक के प्रति उदार हैं, इसलिए इनके राजनीतिक नजरिए पर क्या कहा जाए? शोषण, उत्पीडऩ और राजनीतिक पिछड़ेपन की बात करने वाले ये आज के वैश्य भूल गये हैं कि बनिया जब राजनीत में उतरता है तो सबसे पहले पैंट, शर्ट, टाई, बूट उतार कर लगोंटी पहन लेता है. एसी कोच छोड़कर थर्ड क्लास में सफर करता है. १९ सितम्बर को ये जितने मंच पर वैश्यों के अम्बेडकर बन रहे थे, इनसे कहो तुम सब अपनी संपदा वणिक उत्थान में दान कर दो और लंगोटी पहनकर आ जाओ मैदान में. देश को इस समय ऐसे बनियों की सख्त जरूरत है. एक-आध करोड़ से क्या होगा. चाहे श्री प्रकाश जायसवाल हों या प्रदीप जैन, नवीन जिंदल हो या सलिल विश्नोई, श्यामा चरण गुप्ता हों या महेन्द्र मोहन गुप्ता इन सभी चुने हुए प्रतिनिधियों को १९ सितम्बर के जातीय तमाशे के बाद अब यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि वह किस बनिये की राह पर चलेंगे? जिसका नाम मोहनदास करम चन्द्र गांधी है उसकी या सुमंत गुप्ता की.1

शनिवार, 18 सितंबर 2010

नारद डाट काम
कारों के प्रकार
कमलेश त्रिपाठी
पहले आप एक बार ठीक से खोपड़ी में उतार लें कि मैं कोई कार मेला या किसी कार निर्माता कंपनी की एजेन्टी नहीं कर रहा हूँ. मेरी पूरी बात तफ्शील से भेजे में पैबस्त करने से पहले कार के आगे ÓÓबलातÓÓ शब्द को जोड़ लें फिर पाँच रूपये में पूरा आनन्द लें. दरअसल मैं आपसे गंगा मैया की सौगंध खाकर कहता हूँ कि मंैने जीवन में कभी भी कार वाला लफड़ा नहीं किया है और देखा भी है तो सिर्फ सिनेमा में. मेरे जमाने में नंबर 1 बलात्कारी प्रेम चोपड़ा हुआ करते थे और बाद में यह जगह राजबब्बर ने अपने नाम करवा ली थी. उस समय शिकार शिकारी से एक डायलाग मारती थी मुझे भगवान के लिये छोड़ दो प्लीज. शिकारी कहता था- हे इतनी सुंदर चीज मैं भगवान के लिये कैसे छोड़ दूँ ? यह बातें पहले रूपहले पर्दे पर आया करती थीं और लोग इसे एक नाटक के रूप में देखते थे. अब जमाना बदल गया है, देश में कारपोरेट कल्चर अपना रंग दिखा रहा है. हरदोई जिले में 90 वर्षीय माता जी को भाई लोगों ने निपटा दिया, तो अपने शहर में आई0सी0यू0 में सी0सी0यू0 हो गया. अब नर्सिंग होम दिवंगत होने वाला है, लड़कियों की सेज सजी हुई है. अब सिर्फ कोठे वाला केरोसिन छिड़कना बाकी है. मालकिन कृष्ण जन्मभूमि की हवा जन्माष्टमी से खा रहीं है. क्या जमाना था कभी दूसरों को अॅाक्सीजन दिया करती थीं, आज खुद की हवा खराब है. शातिर खोपड़ी का मालिक इनका पति लादेन बन गया है, पुलिस उसकी तलाश में अपनी स्टाइल से जुटी हुई है. न लादेन मिला और नही ये मिलेंगे. बात ठीक भी है बीवी बेचारी अंदर है, ऐसे में पूरा खानदान क्या वहाँ मटर छीलेगा? कुछ लोग बाहर रहने जरूरी हैं. वैसे भी जेल में लोग जरूरत से ज्यादा भर लिये गये हैं. अब जरा आइये असली बात पर, कार पर बलात् चढऩे की पुरानी इंसानी सभ्यता है, पहले ऐसा कभी-कभी होता था, अब कभी कभी ऐसा नहीं होता है. कुछ अद्भुत किस्म के बलात्कार भी होने लगे हैं. पहले होते हैं और बाद में नहीं होते है. फिल्मी कलाकार शाइनी नौकरानी का सेवन करने के आरोपों को झेल रहे थे, अब अचानक 'सीन' बदल गया है, नौकरानी घोषणा कर रही है कि वो बलात्कार नहीं सत्कार था. बस थोड़ी समझ का फर्क है. पहले औरत अबला थी अब कर्बला बन गई है या फिर बला तो बड़ी पुरानी है. तो भाई लोगों! इस लफड़े से अगर बचना है, तो 'गे' बन जाओ, नहीं तो मारे बलात्कारों के सारे बाल Óग्रेÓ होना तो दूर की बात है खोपड़ी से वी0आर0एस0 ले लेंगे.

प्रथम पुरुष

यूरोप में है जाति प्रथा की जड़

डा. रमेश सिकरोरिया

सामंतवाद में लगभग सभी देशों में जातिवाद प्रथा थी. प्रमाण स्वरूप इग्लैण्ड में टेलर , स्मिथ गोल्ड स्मिथ, बेकर, ब्यूचर, पॉटर, बारबर , मैसन, कार्पेन्टर, टरनर, वाटरमैन, शेफर्ड, गार्डनर इत्यादि उपनाम यह बताते हैं कि इनके पूर्वज उपनाम के अनुसार व्यवसाय करते थे. जातिवाद प्रथा का जन्म त्वचा के रंग से शुरू हुआ और आज भी गोरे रंग को काले रंग से अधिक महत्व मिलता है. बाद में सामंतवाद ने इसे व्यवसाय के अनुसार समाज में बांट दिया. कहने को तो केवल चार जातियँा हंै ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र परन्तु वास्तव में सैकड़ों जातियां और उपजातियां हैं जैसे कि यादव , कुर्मी , नट, कायस्थ , भूमिहार, गोसेन्स. प्रत्येक व्यवसाय जाति में परिणित हो गया. जैसे बढ़ई, कुम्हार, धोबी, नाई, दर्जी , कसाई, मल्लाह, धोबी, केवट, तेली, कहार, गड़रिया इत्यादि. सामंतवाद में कृषि के साथ हस्तकला भी विकसित हुई और समाज को प्रगति दी. भारत में अंग्रेजों के आने से पहले हस्तकला उच्च शिखर पर थी. ढाका के मलमल, मुर्शिबाद की सिल्क, कश्मीर की शॅाल, कालीन, जेवर इत्यादि. उसका उत्पादन विश्व का ३१.५ प्रतिशत था जो अंग्रेजों के आने के बाद ३ प्रतिशत हो गया. हस्तकला में ४० प्रतिशत आबादी लगी थी और विश्व के तमाम देशों में उनका माल बिकता था. किसी भी देश की सम्पन्नता उसके उद्योग में लगी आबादी पर निर्भर करती है. अमरीका में केवल २-३ प्रतिशत आबादी कृषि में लगी है, ९७-९८ प्रतिशत उद्योग में या अन्य सेवाओं में. अंग्रेजों ने यहां आकर अपने मिलों के माल बेचने के लिये यहां की हस्तकला को नष्ट कर दिया. उन पर आसमान छूने वाली निर्यात कर लगाकर. परिणास्वरूप १० प्रतिशत से भी कम आबादी हस्तकला (उद्योग) में रह गई. ३० प्रतिशत लोग भुखमरी के शिकार हो गये, उनके पास कोई काम नहीं रहा, वे भीख मांगने लगे या जुर्म (अपराध) करने लगे. जनजातियां जो पहले हस्तकला में निपुण थीं, अपराध करने लगीं, ठगी करने लगीं. राजनीति ने जातिवाद की जड़ों को सींचना शुरू कर दिया. सत्ता के लिए उन्होंने जाति आधारित वोट बैंक बना डाले , प्रत्येक चुनाव में इसको प्रत्याशी के चयन में देखा जाता है. आरक्षण का लाभ उठाने के लिए प्रत्येक जाति पिछड़ी या शैड्यूल्ड जाति बनना चाहती है. फर्जी प्रमाण-पत्र बनवा कर नौकरियां पाने की होड़ चल रही है. बच्चों का स्कूल में प्रवेश कराकर छात्रवृत्ति पाने की भी तीव्र आकांक्षा रहती है. शादियां तो अपनी ही जाति में करने की प्राथमिकता है विभिन्न जातियों में हिंसात्मक झगड़े होते हैं, स्कूलों में भी होने लगे हैं. मुसलमानों, ईसाइयों और सिखों में भी जातियां हैं. जातिवाद प्राविधिक (तकनीकी) प्रसार, जन मानस के संघर्ष और अंतर जातीय विवाह से दूर होगा. तकनीकी कालेजों में हर जाति के बच्चे पढ़ेंगे, समाज में हर वर्ग आर्थिक रूप से बराबरी पर आयेगा तो जातिवाद स्वत: समाप्त हो जाएगा.1

(लेखक पूर्व स्वास्थ निदेशक हैें)

चौथा कोना

ताकि कोई कुलटा न कहे

प्रमोद तिवारी

१४ सितम्बर को 'आई-नेक्स्टÓ का हिन्दी प्रेम देखा. कानपुर में कोई दूसरा अखबार इस दिन विशेष पर 'आई-नेक्स्टÓ की हिन्दी विषयक सामग्री के सामने टिकने वाला नहीं था. चौबीस पेज के अखबार में ११ पेज हिन्दी और हिन्दी दिवस को समर्पित थे. हर पृष्ठ के मथ्थे पर निज भाषा उन्नति का मुकुट शोभित था और इस विशेष प्रस्तुति पर समाचार-पत्र की ओर से प्रतिक्रिया भी आमंत्रित थी. दरअसल जो लोग 'आई-नेक्स्टÓ पढ़ते होंगे निश्चित ही उनमें इस अंक को देखकर तीखी प्रतिक्रिया ही हुई होगी. चूंकि मैं अखबारी लेखन के व्यवसाय का बंदा हूं इसलिए हर अखबार का मैं नियमित, गहरा पाठक भले न हूं लेकिन उस पर नजर तो रखता ही हूं. सो, तीखी.. बेहद तीखी... बल्कि तेजाबी प्रतिक्रिया हुई मेरे भीतर.. मेरी दृष्टि में निज भाषा भाषा उन्नति की बात करने का अधिकार इस समाचार-पत्र को है ही नहीं. जिस दिन से इस अखबार ने शहर में कदम रखा है हिन्दी का ही नहीं कुल 'भाषाÓ का कचरा कर रखा है. एक तो वैसे ही नयी पीढ़ी हिन्दी लिखने, बोलने और समझने में सामान्यत: गंभीर नहीं है, शुद्घ नहीं है, समृद्घ नहीं है ऊपर से इस अखबार ने शहर को संदेश दिया है कि आज के युवाओं को जरूरी नहीं है कि वह हिन्दी भाषा की शुचिता का ध्यान रखें. वह 'गड्ड-मड्डÓ सहज अभिव्यक्ति व हकलाती और अशुद्घ हिन्दी में गिरती-पड़ती अंग्रेजी का तड़का लगाकर अपनी श्रेष्ठता साबित कर सकता है. यह अखबार इसीतरह की हकलाती भाषा का इस्तेमाल भी करता है. रही बात निज भाषा उन्नति की तो यह अखबार भाषाई व्यभिचार का उदाहरण तो हो सकता है निज भाषा उन्नति का सदाचार इसके बूते की बात नहीं है. न मानें तो १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस विशेष अंक में ही प्रकाशित समाचारों व लेखों को पढ़ लें जैसे-'प्लास्टिक की बढ़ती डिमांड ने प्लास्टिक टेक्नोलॉजी में अच्छे करियर आम्प्शंस अवेलेबल कराए हैं. प्लास्टिक टेक्नोलॉजी बेसिकली केमिकल इंजीनियर प्लास्टिक से बनने वाले प्रोडक्ट्स के लिए रॉ-मटीरियल की प्रिपरेशन से लेकर प्रोडक्ट बनाने के पूरे प्रॉसेस को हैंडल करता है.Ó अब बताइये यह कौन सी भाषा है हिन्दी, अग्रेजी हिग्लिश या कनपुरिया... इसे क्या कहें..? मुझे तो हिन्दी दिवस पर 'आई-नेक्स्टÓ की सजी-धजी प्रस्तुति ऐसी लगी कि मानो किसी स्वच्छंद लोभी, कामी और कुलटा स्त्री ने करवा-चौथ के दिन सोलह श्रृंगार करके अपने सुहाग के लिये निर्जला व्रत रखा हो, पति की दीर्घायु की कामना की हो लेकिन उसे पता न हो कि उसका पति कौन है...? प्रश्न उठता है फिर उसने श्रंृगार किया ही क्यों..? व्रत रखा ही क्यों..? शायद इसलिए कि कोई उसे कुलटा न समझे.1

गरूदिन चल रहे हैं
प्रमोद तिवारी
मित्रों! आपको बताएं कि तुर्की की आजादी के बाद वहां के दृढ़ इच्छा शक्ति वाले 'सत्ता नायकÓ कमाल पाशा ने २४ घण्टे के भीतर अपनी देसी भाषा तुर्की को राष्ट्र भाषा के सिंहासन पर बिठा दिया था. वहां भी भारत की तरह ही कई विषमताएं व विसंगतियां थीं. वहां भी तरह-तरह के सवाल उठे थे. तुर्की के राष्ट्र चिंतकों का मानना था कि एक भाषा तुर्की को पूरे देश का संवाद माध्यम बनाने में कई साल लगेंगे. जब यह सवाल 'पाशाÓ के सामने आया तो उनका जवाब था कि आप लोग समझ लें कि जो समय आप लोगों को चाहिए वह इसी वक्त पूरा हो चुका है. अब जो भी काम होगा 'तुर्कीÓ में ही होगा. १९१९ में २४ घण्टे लगे एक देश को अपनी देसी भाषा को राष्ट्र भाषा के सिंहासन पर बिठाने में. और यहां सन् १९४७ से दो हजार १० तक की ६३ साल की यात्रा हो गई है हिन्दी न तो राज भाषा बन पाई है और न ही राष्ट्र भाषा. ऊपर से हिन्दी बोलने के गुनाह में महाराष्ट्र विधानसभा में अबू आजमी के मुंह पर तमाचा ऊपर से पड़ गया. यह तमाचा किसी और ने नहीं संविधान के प्रति निष्ठा व्यक्त करने वाले जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों ने ही मारा.
१४ सितम्बर से ३० सितम्बर तक पूरा देश हिन्दी दिवस मनाता है. सरकारी दफ्तरों और स्कूल-कालेजों में यह एक परम्परा सी है. ठीक वैसी जैसी किसी प्रिय की मृत्यु के बाद प्रत्येक वर्ष उसका श्राद्घ किया जाता है, उसका श्रृद्घा से स्मरण किया जाता है. 'हिन्दीÓ भी इस विशिष्ट काल में किसी गुजरी बुजुर्ग की तरह ही याद की जाती है. संकल्प लिये जाते हैं हिन्दी को व्यवहार में लाने के लिए. यह उस देश में होता है जो बिना हिन्दी के एक कदम भी नहीं चल सकता, लेकिन उसे अपनी चाल की असली ताकत कह भी नहीं सकता. देश की नयी पीढ़ी शायद यह नहीं जानती कि उसके देश के पास आज दिन तक उसकी संवैधानिक भाषा नहीं है. उसका राष्ट्र तो है लेकिन राष्ट्रभाषा नहीं है. फिर भी आप किसी 'बच्चेÓ (छात्र) से पूछें भारत की राष्ट्रभाषा क्या है तो वह कह देगा हिन्दी और आप बच्चा समझकर उसका जवाब मान भी जाएंगे क्योंकि संवैधानिक स्तर पर राष्ट्र की भाषा हिन्दी भले न हो लेकिन व्यवहार के स्तर पर तो पूरे देश को हिन्दी ही जोड़ती है. इसीलिए बच्चा सच्चा लगता है. कानपुर के विद्वान सेवक वात्स्यायन जी से हिन्दी के गरू दिनों (हिन्दी पखवारा) के अवसर पर हिन्दी की दशा-दिशा के बारे में बात चीत की गई तो वह तिलमिला गये. बोले, जब तक हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा घोषित नहीं किया जाता तब तक न हिन्दी का भविष्य है, न हिन्दी भाषियों का. और जब तक देश में 'कांग्रेसÓ या कांग्रेस की मानसिकता वाले लोग हैं, तब तक हिन्दी राष्ट्रभाषा हो ही नहीं सकती. वात्स्यायन जी का यह आक्रोश अकारण नहीं है. दरअसल आजादी के बाद अगर नेहरु जी बिना किसी परपंच के हिन्दी को राज भाषा घोषित कर देते तो आज हम हिन्दी दिवस नहीं मना रहे होते. वास्तव में आजादी के बाद इस मसले को उलझाने का पूरा काम राजनीतिकों ने किया. और उस समय की राजनीति का दूसरा नाम कांग्रेस ही था. वैसे भी आजादी के लिए देश भक्तों का मंच बनी कांग्रेस आखिर थी तो अंग्रेजी की ही पार्टी. वह तो जब बाल गंगाधर तिलक ने कांग्रेस की कमान संभाली तब इसका अंग्रेजी चोला उतरा लेकिन 'आत्माÓ लगता है आज दिन तक नहीं बदली. इसीलिए हिन्दी का संवैधानिक सुहाग आज दिन तक वैधव्य भोग रहा है.जब देश आजाद हुआ था तो संविधान में हिन्दी को राष्ट्र की राज भाषा घोषित किया गया था. चूंकि भारत विभिन्न भाषाओं और बोलियों वाला देश है, इसलिए एक व्यवस्था दी गई थी कि देश के जो क्षेत्र (राज्य) अहिन्दी भाषी हैं वे पूरे देश की भाषाई मुख्य धारा 'हिन्दीÓ में शामिल होने के लिए तैयारी करें और इसके लिए १५ वर्ष का समय निश्चित किया गया. इस तरह १९५० में लागू संविधान की मंशा के अनुसार हिन्दी को वर्ष १९६५ में इस देश की राज भाषा और राष्ट्र भाषा दोनों का ही दर्जा मिल जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.. सन् १९६५ में देश की संसद हिन्दी को भारत की राष्ट्र भाषा घोषित करने का साहस नहीं दिखा पाई. उल्टा इस प्रश्न पर संविधान में एक संशोधन कर दिया गया कि जब तक देश का प्रत्येक प्रांत हिन्दी को राज भाषा और राष्ट्र भाषा मानने के लिए तैयार नहीं होगा तब तक हिन्दी को देश की राष्ट्र भाषा घोषित नहीं किया जा सकता. वर्ष १९६५ में देश की आजादी कुल ६० करोड़ के आस-पास थी और मिजोरम की आबादी तब केवल पांच लाख के आस-पास रही होगी. . अब अगर मिजोरम नहीं चाहता कि देश की राज भाषा या राष्ट्र भाषा हिन्दी बने. तो समझो ६० करोड़ पर ५ लाख की आपत्ति अंतिम है. तब के उदार राष्ट्रहित चिंतकों ने दलील दी थी कि हम किसी पर जबरिया हिन्दी नहीं थोपेंगे...! यह क्या है..यह कौन सी राजनीतिक शक्ति है जो अपने सरकारी काम काज के लिए, व्यवहार के लिए देश को एक भाषा नहीं दे सकती. हिन्दी तो अनाथ है. यह तो केवल इसलिए जिंदा है कि इसे बोलने वाले और व्यवहार में लाने वाले लोग अभी इस देश में जिंदा हैं. वरना क्या है हिन्दी के पास 'हिन्दुस्तान मेंÓ न सरकारी संरक्षण, न संवैधानिक अधिकार, रही बात जन व्यवहार की तो आपने देख ही लिया कि एक विधायक को भारत के संविधान के प्रति निष्ठा व्यक्त करने में हिन्दी का प्रयोग करने पर चार मराठी विधायकों ने थप्पड़ों से मारा. दरअसल यह थप्पड़ तो देश की पूरी राजनीति ने उस दिन ही बो दिया था जिस दिन हिन्दी को राष्ट्र व राज भाषा बनाने के मुहूर्त में एक संशोधन के जरिए अहिंदी भाषियों की कृपा की आस में अनिश्चित काल के लिए लावारिस छोड़ दिया गया था.राष्ट्र भाषा के सवाल पर १९६५ से पहले १९६१ में देश के सभी मुख्यमंत्रियों का हिन्दी एक वृहद समीक्षा सम्मेलन बुलाया गया. इस सम्मेलन के संयोजक थे केरल के तानु पिल्लई. यह जमाना नेहरु जी का था. लगभग सभी मुख्यमंत्रियों ने एक राय प्रकट की थी कि अब प्रतीक्षा किये बगैर सारा काम हिन्दी में किया जा सकता है. इसी सम्मेलन में देश के शिक्षा मंत्री हुमायू कबीर को नेहरु जी ने भावी प्रधानमंत्री के रूप में भी पेश किया था. डा. राजेन्द्र प्रसाद ने सम्मेलन में एक प्रस्ताव दिया कि भारत में जितनी भी बोलियां बोली जाती हैं, अंग्रेजी, उर्दू सहित सब की लिपि एक हो जाये.. उनका मंतव्य था 'देवनागरीÓ हो जाये. लेकिन इन्हीं हुमायूं कबीर ने इसका विरोध कर दिया एक संशोधन के जरिए जिसमें उन्होंने देवनागरी लिपि को एक समृद्घ और अच्छी लिपि नहीं बताया बल्कि योरोप की तरह ही हिन्दी साहित्य की सभी भाषाओं को रोमन लिपि में लिखने का सुझाव दिया. उस समय उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के गवर्नर लाटूस तथा मेक्डानाल्ड हुआ करते थे. इन दोनों ने अंग्रेज होते हुए भी कहा कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में 'हिन्दीÓ ही राज भाषा होनी चाहिए. यहां के लोगों के लिए अंग्रेजी, फारसी गैर जरूरी है. जरा सोचिए हिन्दी देश को आजादी दिलाने में मुख्य सम्पर्क और क्रांति की भाषा रही और आजादी के बाद उसके बेटे ही उसे फारसी और इंग्लिश के मुकाबले 'तुच्छÓ साबित करने में लग गयेइंदिरा जी के कार्यकाल में भी हिन्दी को राष्ट्र भाषा का सम्मान और अधिकार का सवाल पुरजोर तरीके से उठा. इंदिरा जी के खास थे, सी.एन. अन्नादुरई. इनका काम ही था हिन्दी समर्थकों की आग में पानी डालना. दक्षिण भारत के लिए यह दायित्व उन्हें इंदिरा जी ने सौंपा था. दक्षिण में एक और थे रामास्वामी नैकर, वह भी हिन्दी भाषियों पर कहर ही बरपाया करते थे. उन्हें तब के कांग्रेसी आला कमान का निकटस्थ माना जाता था.प्रोफेसर वात्स्यायन बताते हैं-'' हिन्दी प्रकाण्ड विद्वान, विद्वान क्या.. हिन्दी के पंडित श्रीधर पाठक उन दिनों बेहद लोकप्रिय थे. हिन्दी प्रेमियों और आम हिन्दुस्तानियों ने उन्हें इलाहाबाद में आपस में चंदा करके एक भव्य बंगला बनवाकर भेंट किया था. श्री पाठक को नीचा दिखाने के लिए उस दौर में भी कांग्रेसियों ने (जिनके तार तब भी इंग्लैण्ड से सीधे जुड़े थे) अंग्रेजों से मदद लेकर श्रीधर पाठक से छ: गुना बड़ा बंगला बनवाकर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के संस्थापक श्री सैय्यद अहमद खान को दिया था. जनाब सैय्यद ने 'उर्दू-स्कूलÓ नाम का आंदोलन चलाया. आंदोलन के बैनरों में लिखा रहता था-''गंदी हिन्दी अजीम उर्दू की जैसी थी वैसी ही रही और अंग्रेजी थोपी जाने लगी. वास्तव में 'अंग्रेजीÓ हिन्दुस्तान में कांग्रेसियों द्वारा थोपी गई भाषा है. जिसके पि_ू लगातार बढ़ते जा रहे हैं, बिना यह सोचे समझे कि जिस देश के पास अपनी भाषा नहीं होगी वह देश कभी अपनी बात पूरे संवेग से नहीं कह पाता.1
प्रोफेसर वात्स्यायन बताते हैं-'' हिन्दी प्रकाण्ड विद्वान, विद्वान क्या.. हिन्दी के वाचक पंडित श्रीधर पाठक उन दिनों बेहद लोकप्रिय थे. हिन्दी प्रेमियों और आम हिन्दुस्तानियों ने उन्हें इलाहाबाद में आपस में चंदा करके एक भव्य बंगला बनवाकर भेंट किया था. श्री पाठक को नीचा दिखाने के लिए उस दौर में भी कांग्रेसियों ने (जिनके तार तब भी इंग्लैण्ड से सीधे जुड़े थे) अंग्रेजों से मदद लेकर श्रीधर पाठक से छ: गुना बड़ा बंगला बनवाकर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के संस्थापक श्री सैय्यद अहमद खान को दिया था. जनाब सैय्यद ने 'उर्दू-स्कूलÓ नाम का आंदोलन चलाया. आंदोलन के बैनरों में लिखा रहता था-''गंदी हिन्दी अजीम उर्दू की जैसी थी वैसी ही रही और अंग्रेजी थोपी जाने लगी. वास्तव में 'अंग्रेजीÓ हिन्दुस्तान में कांग्रेसियों द्वारा थोपी गई भाषा है. जिसके पि_ू लगातार बढ़ते जा रहे हैं, बिना यह सोचे समझे कि जिस देश के पास अपनी भाषा नहीं होगी वह देश कभी अपनी बात पूरे संवेग से नहीं कह पाता.

सोमवार, 13 सितंबर 2010

नारद डाट काम
नक्कालपुर
कमलेश त्रिपाठी
पुन तो ये कर्ण पुर है और न ही कानपुर. इस शहर का नाम है अब नक्कालपुर. यहां हर चीज नकली है दूध, दही, पनीर, घी, मसाले और सोना- चांदी. अब तो शहर में नकली नोट भी बनने लगे हैं. अब यह अपना नगर अपने आप में पूर्ण हो गया है. पूरा शहर 'डीÓकी चपेट में है. 'डीÓ बोले तो डुप्लिकेट. मैंने एक मुद्रा उत्पादन करने वाले से पूछा भाई यह काम क्यों करते हो? उसने पलट कर कहा कभी भारत का संविधान पढ़ा है? उसमें साफ लिखा है कि देश के हर नागरिक को बराबर का दर्जा प्राप्त है. ये कौन सी बात हुई कि सरकार छापें तो ठीक और हम छापें तो नकली. आप हमारी छपाई तो देखिए उसके सामने सरकारी मुद्रा नकली लगती है. हम तो ऐसी तकनीक लगा रहे हैं कि बैंक वाले तक गच्चा खा जाते हैं. इस शहर में केवल दो चीजें असली हैं एक पुलिस और दूसरे अपराधी. बलात्कार से लेकर छेडख़ानी तक सब ओरिजनल तरीके से हो रही है. खेत से शुरू हुआ बलात्कार आई0सी0यू0 तक पहुंच गया है. खेत खलिहानों में बलात्कार तो बड़ी पुरानी विद्या है लेकिन आई0सी0यू0 में ऐसा होना इस शहर की अपनी नवीनतम तकनीक है. चिकित्सा के क्षेत्र में ये कदम मील का पत्थर बन सकता है. जानकारों का मानना है कि एैसा इसलिए संभव हो सका चूँकि सूबे के सेहत मंत्री अपने शहर से ही हैं और कमाल करने वाला नर्सिंग होम का मालिक उनकी नाक के बाहर झाँकता हुआ बाल है. अब यहां दिमाग खर्च करने की एक बात सामने आई है कि शहर में जब मात्र दो चीजें असली हैं तो उनमें प्राकृतिक प्रेम होना अनिवार्य है. इसके चलते अपराधी और शहर की पुलिस राम और भरत की जोड़ी में हैं. दोनों ही एक दूसरे के लिए कुछ भी त्यागने को तैयार हैं अगर थोड़े दिन और यही कथा चलतीे रही तो ये दोनों भी नकली बन जाएंगे. आखिर नक्कालपुर का कुछ असर तो होना ही चाहिए.

प्रथमपुरुष

जादू ज्ञान है, शिक्षा है करिश्मा नहीं

डा. रमेश सिकरोरिया

भारत में २२ हजार पंजीकृत जादूगर हैं. जादूगर सम्राट पी० सी सरकार के बेटे पी०सी सरकार जूनियर और उनकी बेटी मनिका सरकार कोलकाता में ''जादू विश्वविद्यालयÓÓ २००९ में खोले देंगे . उनका कहना है जादू भी एक विद्या है एक ज्ञान है कोई करिश्मा नहीं है. प्रत्येक जादू से एक शिक्षा मिलती है आप कुछ सोचने को मजबूर होते हंै जादू आपको एक भ्रम में ले जाता है. आपको एक सुखद कल की आशा दिलाते हंै. आपको विश्वास दिलाते हैं कि आप कितनी भी खराब स्थिति में हों, कुछ भी सम्भव हो(चमत्कार- अद्भुत बात) उनके अनुसार राधा नाथ सिकंदर ने सबसे पहले माउंट ऐवरस्ट को ढंूढा अतएव उनका नाम होना चाहिए. गुरू रवीन्द्र नाथ टैगोर का व्यापक दृष्टिकोण देश के प्रति राष्ट्रीयता की भावना अच्छी है परन्तु विश्व के प्रति व्यक्ति के लिए मानवता उससे ऊपर है. कँाच के टुकड़ेे को हीरे के मूल से नहीं खरीदूंगा .यदि मेरा विश्वास विश्व के मानव में नहीं रहेगा तो मैं अन्दर से भूखा रहंूगा .मैं देश के प्रति राष्ट्रीयता को अपने ईश्वर को ढांकने नहीं दंूगा . यूरोप में जो राजनैतिक संस्कृति (स्भ्यता) पैदा हुई उसने दुनिया को जंगली पौधे की तरह ढकने की कोशिश की. अपनी अलगाववादी सोच से उसने अपने से भिन्न तमाम जातियों को हड़पने की कोशिश की .उन्होंने उनके तमाम साज के साधन और उनका भविष्य नष्ट किया या हड़प लिया .एक आदमखोर की तरह उसको भय था कि अन्य जातियँा उससे आगे न बढ़ जायें अतएव हमेशा उनको कमजोर बनाने की कोशिश की . टैगोर ने उनसे कहा क्या वे अपने आदर्शों का पालन कर रहे हैं? अपने लोगों के मन में दूसरों के प्रति क्रोध ,घृणा पैदा करके! ठीक है ऐसे लोगों को जागरूक करने की उनकी अज्ञानता मिटाने की परन्तु उनकी सीमायें अपने देश या जाति के बाहर पूरी मानव जाति के लिए होनी चाहिए. उनके लिए भी जिनकी सोच उनके विपरीत है .यदि सभी जातियँा या देश उनकी तरह सोचने लगें तो पूरे विश्व की सोच में समानता आ जाये और विश्व एक मशीन की तरह नीरस हो जायेगा.सोच हमेशा बदलती रहती है आवश्यकता है पूरी स्वतन्त्रता के साथ एक दूसरे के विचार का लेन- देन . हिंसा से तो हिंसा पैदा होती है जो एक बेवकूफी है. सोच की जबरदस्ती बदलने से सच को नहीं पाया जा सकता आतंक सच की मृत्यु कर देता है.उन्होंने कहा भारत हिन्दू का है मुसलमान का है या किसी और का है यह महत्वपूर्ण नहीं है, कोई जाति महत्वपूर्ण है अन्य जातियों से यह बेमानी है क्योंकि भगवान (ईश्वर) के बनाये हुए सभी मानव तमाम जातियों के हितों की रक्षा में जुटे हुए हैं. यही ईश्वर की स्थायी धरोहर है हमारा अहं सत्य और असत्य को समझने में भूल करता है. स्थायी सभ्यता की जगह अस्थाई सभ्यता का निर्माण कराना चाहता है .सरकार बार बार सादगी की बात करती है. सभी मंत्रालयों से कहती है खर्च कम करे बेफिजूली बिल्कुल न करे परन्तु सरकार के खर्चों में महसूस होने वाली कमी नहीं दिख रही है.मंत्रियों और अधिकारियों के भ्रमण के लिये धन राशि २००७-०८ की धनराशि के दुगनी करी दी ७५.५० करोड़ से १५१ करोड़. गैर योजना पर ५ करोड़ खर्च होते हैं ७२.३८८ करोड़ रूपय की सबसिडी (राहत) दी जाती है बड़ी राहत ६६.५३७ करोड़ २८२९ करोड़ ब्याज की ९५८ करोड़ डाक (पोस्टल) पर २०६४रू० अन्य प्रकार की सेवाओं पर आने वाली सबसिडी उसमें शामिल नहीं हैं. इस प्रकार की सेवाओं पर आने वाली सबसिडी उसमें शामिल नहीं है.सार्वजनिक उद्यम या संस्थाओं पर २७१२० करोड़ रूपय व्यय होते हैं ६८४ करोड़ गैर योजना ग्रंाट एवं कर्ज सरकार को नहीं मिलता . यह संस्थायें बाजार से ४१८१ करोड़ उगाहती होती हैं. टैक्स में राहत देने से २७८६६४४ करोड़ रूपये का बोझ पड़ता है .योजनाओं को ठीक से न बनाने और समय से न पूरा करने से ९५९१३ करोड़ की जगह १४२२.२२७ करोड़ का व्यय हुआ ४८ अधिक ८९७ में से २७६ योजनाओं में ऐसा हुआ ३०८ योजनायें समय से पूरी नहीं हुईं .-आवश्यक है सरकार का यह जानना कि वह -१-क्या करे और उसके लिए धन व्यय करे २-क्या न करे और उसके लिए धन व्यय करे ३-क्या न करे और उसके लिए धन व्यय न करे उसे प्रति वर्ष सभी कार्यक्रमों का लेखा -जोखा करना चाहिए और निर्णय लेना चाहिए कि कौन कौन से खर्चे बन्द करे जायें और इसकी प्रधानमंत्री के कार्यालय को जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए .आम जनता को भी यह विवरण उपलब्ध कराया जाये क्योंकि वह टैक्स दे रहे हैं और धन का व्यय उसके लिये किया जा रहा है.1(लेखक पूर्व स्वास्थ निदेशक हैें)

आसान नहीं बलात्कार की गुथ्थी

सब कुछ हो सकता है लेकिन एक छत के नीचे पड़े आधा दर्जन बिस्तरों में से किसी एक पर पड़ी कराह रही किसी टूटी-फूटी लड़की के साथ बलात्कार नहीं हो सकता. इन परिस्थितियों में बलात्कार हो सकता है लेकिन गन-प्वाइंट पर. वह भी काम वासना के लिए नहीं बल्कि दुश्मनी निकालने के लिए, किसी को तबाह करने के लिए, बेइज्जत करने के लिए. और अगर ऐसी परिस्थितियोंं में काम वासना के लिए रेप होगा तो 'शिकारÓ को बेहोश या असहाय किये बगैर नहीं होगा. 'गन प्वाइंटÓ पर रेप हुआ नहीं है यह पक्का है. इंजेक्शन की बात 'बलात्कारÓ की आशंका में तो सामने नहीं आई है, हां, हत्या की आशंका में जरूर सामने आयी. अब अगर नशे या बेहोशी के इंजेक्शन किसी भी नियत से कविता के नसों में अतारे गये होते तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट में जरूर आते. लेकिन पोस्टमार्टम में ऐसा कुछ नहीं है. तो प्रश्न उठता है कविता के कपड़ों पर वीर्य कहां से आया और यह किसका है. बस इस बिंदु की सही जांच-पड़ताल ही चांदनी में कविता के साथ बलात्कार और बलात्कारी की सच्चाई को सामने ला सकती है.1

काली पड़ गई चांदनी
प्रमोद तिवारी
कानपुर के चांदनी नर्सिंग में एक दलित किशोरी कविता अपनी टूटी टांग का इलाज कराने आती है. डाक्टर उसे 'आईसीयूÓ में भर्ती कर देते हैं. रात में कविता के साथ अस्पताल का एक वार्ड ब्वाय बलात्कार करता है. सुबह बवाल हो जाता है. नर्सिंग होमों में इसतरह के बवाल होते ही रहते हैं. पुलिस का काम होता है इन बवालों को शांत कराना. लेकिन यहां मामला बिगड़ गया. कविता के साथ छेड़छाड़, बलात्कार और फिर हत्या के आरोपों को मीडिया ने पचने नहीं दिया. पुलिस और अस्पताल प्रबंधन कविता और उसके घरवालों के आरेपों को इलाज का पैसा देने के लिए जवाबी दबाव की कार्रवाई मानकर चल रहे थे. लेकिन सब कुछ धरा का धरा रह गया जब 'कविताÓ के कपड़ों पर 'वीर्यÓ की मौजूदगी पाई गई.

कविता की कहानी हत्या और बलात्कार की कहानी नहीं है, यह कहानी है आज के 'सिस्टमÓ के साथ बलात्कार और हत्या की. यह तो कहो एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल नहीं माना वरना किसी को पता ही नहीं चलता कि चांदनी में क्या हुआ. मीडिया के कुछ रिपोर्टर लोग तक बजाय सी.सी कैमरे के फुटेज तलाशने, कविता के आरोपों की सच्चाई जानने, दोषियों को सामने लाने के इस चक्कर में रहे कि किसी तरह चैनलों पर खबर न चले. एक 'आपरेटरÓ ने तो घंटों एक चैनल को ही जाम रखा. कारण कि यह चैनल चांदनी नर्सिंगहोम के 'आईसीयूÓ में कविता के साथ छेड़छाड़ (तब तक बलात्कार की बात नहीं उठी थी) की घटना को बार-बार प्रसारित करने से बाज नहीं आ रहा था. फिर भी जुर्म जुर्म होता है, खून-खून होता है, वह सर चढ़कर बोलता है. किसी के चाहने न चाहने के बावजूद कविता के साथ घटा अपराध सभ्य, सुसंस्कृत और संभ्रांत कहे जाने वाले समाज के मुंह पर चढ़े नकाब को नोंच फेंकने में कामयाब रहा. अदालत आगे किसी को कुसुरवार माने या न माने लेकिन शहर की जनता ने जान लिया है कि कानपुर में चांदनी नर्सिंग में कविता के साथ किसी एक 'वहशीÓ ने बलात्कार नहीं किया बल्कि उसके साथ पुलिस, प्रशासन, अस्पताल प्रबंधन, साथी मरीज और यहां तक कि घर वाले शामिल थे. शायद इसीलिए कविता को सबने मिलकर मार-डाला. अगर कविता को जहर के इंजेक्शन नहीं ठोंके गये फिर तो निश्चित ही वह इतने ठेर सारे बलात्कारियों को देखकर दहशत से मर गई होगी. पुलिस तो समझ के ही बाहर हो गई है. घटना के एक हफ्ते बाद तक वह यह नहीं बता पा रही है कि सीसी कैमरे की वास्तविकता क्या है. रिकार्डिंग है कि नहीं. अगर २४ घंटे की रिकार्डिंग का ही सिस्टम है तो घटना के २४ घंटे के भीतर 'सीसी कैमरेÓ को कब्जे में न लेने का दोषी कौन है...? जब तक पोस्टमार्टम रिपोर्ट में 'सीमेनÓ की मौजूदगी नहीं बताई गई तब तक पुलिस ने कविता के बयान और उसकी मौत के आधार पर जांच ही नहीं शुरू की. साक्ष्य ही नहीं जुटाये. उल्टा कविता के घर वाले दबाव में आकर भाग जाएं इसके लिए गिरफ्तार अभियुक्त और अस्पताल प्रबंधन को खुली छूट दी. दबंग अभियुक्त ने अस्पताल में खुली छूट गुंडई की. ऊपर से कविता के परिवारीजनों व तीमारदारों पर बवाल करने का मामला दर्ज कर लिया गया. इस पूरी घटना में अगर सर्वाधिक बलात्कारी भूमिका किसी की है तो वह है पुलिस. कविता की मौत के प्रश्न पर सर्वाधिक चौंका देने वाली पोस्टमार्टम रिपोर्ट एक ओर बलात्कार के संकेत देती है, लगभग पुष्टि सी करती है लेकिन मौत का कारण 'हड्डीÓ का टूटना ही बताती है. जबकि कविता की मौत में जहर के इंजेक्शन (प्राण लेवा) की बात हर कोने से उठी है. कविता ने कहा- ''चुप न रहने पर जहर का इंजेक्शन लगाने की धमकी दीÓÓ. गिरफ्तार अभियुक्त कह रहा है कि बलात्कार हास्पिटल के ही एक डाक्टर ने किया और जहर के इंजेक्शन लगाये दूसरे 'वार्ड ब्याज ने. अगर जहर के इंजेक्शन से मौत हुई तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट में जहर क्यों नहीं निकला. क्या यह तथ्य नहीं है कि अस्पताल वालों ने पुलिस के साथ-साथ पोस्टमार्टम को भी साधने की कोशिश की. कथित अभियुक्त तो यहां तक कह रहा है कि अस्पताल मालिक के घरवालों को एक लाख रुपये देकर जबरिया उसको फंसाया गया है. क्या 'राकेशÓ का यह बयान एक तथ्य नहीं है कि 'दामादÓ को बचाने में सास, ससुर ने पूराजोर लगाया.. वरना किसी कुकर्मी कर्मचारी के लिए अस्पताल मालिक अपना सर आरे के आगे क्यों देते...। अस्पताल मालिक के घरवालों को एक लाख रुपये देकर जबरिया उसको फंसाया गया है. क्या 'राकेशÓ का यह बयान एक तथ्य नहीं है कि 'दामादÓ को बचाने में सास, ससुर ने पूराजोर लगाया.. वरना किसी कुकर्मी कर्मचारी के लिए अस्पताल मालिक अपना सर आरे के आगे क्यों देते...।अस्पताल वाले कितने रसूकदार होते हैं इसका एक उदाहरण 'केडीएÓ की कार्रवाइयां है. जो लोग 'सील बंदÓ भवन में अस्पताल चला रहे हैं, एक 'आईएएसÓ दीपक कुमार (तत्कालीन केडीए उपाध्यक्ष) के कहने पर थाना पुलिस रिपोर्ट लिखकर कार्रवाई न कर रही हो, एक नर्स की रहस्यमय मौत पर परदा डालने में पहले भी कामयाब हो चुके हो उनके लिए दलित कविता की मौत और बलात्कार को पचाना कौन सा दूभर था. लेकिन इसबार धब्बा इतना बड़ा और गहरा था कि चांदनी काली पड़ गई. अगर कविता के साथ बलात्कार और हत्या की सघन और निष्पक्ष जांच हो जाए तो सबसे पहले स्थानीय पुलिस साक्ष्य नकारने की दोषी बनती है. और अंत में अगर एक लाख का कोई सौदा हुआ है तो कविता के मां-बाप भी घटना को गलत मोड़ देने के दोषी बनते हैं. इस एक नन्ही जान की तो 'दुनियाÓ दुश्मन दिखती है. कायदे से तो इस 'दुनियाÓ को ही सूली पर लटका देना चाहिए. लेकिन यह भी तो एक 'कविताÓ जैसी कविता ही है जिसका अंतत: बलात्कार ही होना है.1

प्रथम पुरुष

जन स्वास्थ्य कमाई का जरिया भी

डा. रमेश सिकरोरिया

हमारे देश में जन स्वास्थ्य, चिकित्सा पर आधारित है अर्थात बीमारियों का इलाज किया जाये. इससे बिमारियां थोड़े समय के लिये रूक जाती हंै लुप्त नहंीं होतीं. इस नीति से स्थायी जन सुधार के उपायों को टाल दिया जाता है. केवल अस्थायी उपाय चलाये जाते हैं एन्टीबायोटिक एवं अन्य दवाओं की उपलब्धता के कारण स्वच्छ जल,अच्छी सफाई , अच्छा भोजन अच्छे घर इत्यादि का प्रबन्ध करना आवश्यक समझा नहीं जाता और इन्हें नीचे स्तर पर ड़ाल देते हंै .विभिन्न भाषायें, संस्कृति और विचार धारायें धीमी गति के कारण हैंै. इसका मुख्य कारण है चिकित्सकों का दवा बनाने वाली संस्थाओं का वे हमेशा बीमारियों के उपचार को उनकी रोक थाम से अधिक महत्व देते हंै क्योंकि इसमें उनका स्वार्थ है, उनके लिये अधिक धन कमाने का अवसर है, वे जन मानस के स्वास्थ्य के बारे में क्यों सोचें वे अर्थव्यवस्था , कर्ज के कैपीटल ब्याज अदायगी एवं आर्थिक दंड इत्यादि का दष्टिकोण अपनाते हैं. राजनीति में केवल शीघ्र होने वाले लाभ का सोचते हंै और नीति बनाते हंै. सरकारी तंत्र प्लान बनाने ,धन उपलब्ध कराने और लक्ष्य निर्धारित करने में लगा रहता है. पश्चिम में जन स्वास्थ्य में जो सफलता मिली है उसका प्रमुख कारण है प्रत्येक को एक निर्धारित जीवन स्तर देने के साधन उपलब्ध कराये जाने . हमारे दल बीमारी फैले तो दवा (गोलियँा) बांट दी और फिर आराम से सो जाओ . बिमारी क्यों फैली, उसके कारणों को जड़ से उखाडऩे का कोई प्रयत्न नहीं होता . क्यों नहंी होता स्पष्ट है कि सफाई व्यवस्था या अच्छी सफाई के व्यवस्था कराने में ंसरकारी तन्त्र व अन्य का लाभ कम है जबकि दवाओं और वैक्सीन का प्रबंध करने में लाभ अधिक है. स्थायी उपाय करें तो भविष्य में धन कमाने की सम्भावना कम हो जायेगी. अतएव बिमारी कम हो जायेगी. इलाज करो नयी बीमार पैदा होने दो. अतएव स्थायी समाधान के लिए राजनैतिक एवं सामाजिक आन्दोलन चलाना होगा. इस समय जन स्वास्थ्य का कार्य जिनके नियंत्रण में उनकी इच्छा जन स्वास्थ्य सुधार के विपरीत है. उनकी इसमें रूचि नहीं है अच्छा जन स्वास्थ्य होना एक सामाजिक न्याय है. प्रत्येक का अधिकार है की उसे अच्छा स्वास्थ्य मिले और इसकी जिम्मेदारी शासन की है. उसे समझना होगा की अच्छा जन स्वास्थ्य- गरीबी, भुखमरी निम्नस्तर के भोजन, अशिक्षा प्रदूषित पेय जल सामाजिक भेदभाव आसुरक्षा, गंदगी या राजनीती में मौलिक अधिकारी की लड़ाई है दवा बांटने या टीका लगवाने से जन स्वास्थ्य में स्थायी सुधार नहीं होगा. अतएव जन स्वास्थ्य जन स्वास्थ्य को बीमारी की रोक थाम से ना जोड़ा जाये. इसका संचालन दवा र्निमाताओं एवं चिकित्सकों के हांथ से लेकर सामाजिक एवं राजनीति के कार्यकर्ताओं के हांथों में सौपा जाना चाहिए और उसकी सफलता के लिए जिम्मेदार हों. जो भी स्थायी उपाय करने हंै उनके लिए आवश्यकता अनुसार धन एवं अन्य साधन दिये जायें. अन्यथा बीमार नहीं रहेगा बीमारी रहेगी. दवा निर्माताओं का स्वास्थ्य सुधरता रहेगा. आम आदमी का स्वास्थ्य गिरता रहेगा. अस्वस्थ्य शरीर और मन का आदमी देश के लिए क्या कर पायेगा .आप स्वयं समझ सकते हैं.देश के शहरों में ८ करोड़ गरीब रहते हैं. गांव में १२ करोड़ ९.१ करोड़ व्यक्ति प्रतिवर्ष गांव से शहरों में बसने जाते हैं. क्यों गांव में उसके जीने के साधन नहीें हैं?उच्चतम न्यायल ने वर्ष २००८ में तीन सदस्यों की कमेटी यह देखने के लिए बनायी थी कि वर्ष २००६ में पुलिस एक्ट में कितना सुधार हुआ. उसमें ६ मुख्य बिन्दुओं पर आदेश दिये थे. परन्तु आज तक इस कमेटी में २८ में से केवल ८ राज्यों की समीक्षा की है. केवल ८ बैठकें की हैं. लगता है एक ओर कमेटी के कार्य की समीक्षा बनानी पड़ेगी. १ वर्ष में १० लाख रूपये खर्च कर चुकी है. २० लाख और मांग रही है अब क्या सुधार होगा पुलिस एक्ट मेें!1(लेखक पूर्व स्वास्थ निदेशक हैें)

नारद डाट काम

दोगुनी रफ्तार

कमलेश त्रिपाठी

वैसे मैं बुजुर्गों का बहुत सम्मान करता हूँ, वो भी तहे दिल से लेकिन सठियाये लोगों पर मुझे बड़ी कोफ्त होती है.मेरा अपना मानना है कि इनके हाथ में सत्ता नहीं होनी चाहिए.हो सकता है कि मेरी इस बात से आप एकमत न हों.चूँकि कुछ लोग इस दुनिया में साठा को पाठा मानते हैं. इसीलिए अपने देश में 99.9 फीसदी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री वही हुये हैं जिनके दाँत और आँत दोनों ही शरीर से इस्तीफा दे चुके हैं.आगे चलते रहिये आप मेरी बात को मानने के लिए विवश हो जायेंगे.अभी हाल में प्रधानमंत्री जी कामनवेल्थ गेम की तैयारियों की हालत देखने गये थे. हालत उन्हें पतली लगी या मोटी ये तो रब जाने लेकिन बयान बड़ा गलत दे गये थे. कह गये कि दोगुनी रफ्तार से काम करें.हो सकता है ये बात उन्होंने वहाँ काम पर लगे मजदूरों का उत्साह बढ़ाने केे लिए कही हो लेकिन इसके बाद से कलमाड़ी की टीम डबल पावर से जुट गई है. अब वो पूरे राष्ट्रकुल खेलों को ही खा जायेंगे. पहले से कलमाड़ी टीम की रफ्तार खाने में वायुसेना के विमान जैसी रही है. इस बयान के बाद वो राकेट की स्पीड से खाना शुरू कर देंगे. मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री जी को अपने बयान में स्पष्ट कर देना चाहिये था कि यह बयान कलमाड़ी की सेना को छोड़कर और सबके लिए है. वैसे भी प्रधानमंत्री जी की टीम में खाने वालों की कमी कहाँ है? एक से एक धुरंधर देश को कच्चा चबाये जा रहे हैं.सब्जी मसाले से लेकर शक्कर तक सभी खा गये. पता नहीं कल आदमी भी खाने लगें. कुल मिलाकर प्राजी के इस बयान का मुझे उल्टा असर पड़ता दिखाई दे रहा है.खैर कोई बात नहीं .खूब खाओ अब्बा का माल है. तुम नहीं खाओगे तो क्या अमेरिका से लोग आयेंगे खाने के लिए. यह देश तुम्हें तुम्हारे बाप, दादाओं ने खाने के लिए ही सौंपा हैं. इतना खाओ कि पेट तो पेट आतें तक फट जायें. यह इस देश के लोगों की बदनसीबी नहीं तो और क्या है? जहाँ इन्सान का पेट न भर रहा हो वहाँ तुम इतना खा रहे हो कि पेट फटा जा रहा है.

जमींदोज किसान

बर्बादी का एक्सप्रेस वे

विशेष संवाददाता

किसान से आसान कुछ नहीं. उसे देव भी सताये और दैत्य भी. अभी देखिए २६ अगस्त को संसद घेरने की किसानी हुंकार को उत्तर प्रदेश की मुखिया मायावती ने पूर्ण समर्थन दिया वही किसान जब अलीगढ़ में अपनी जमीन बचाने के लिए सड़क पर उतरा तो उसके आंदोलन को कुचलने में लग गई. पुलिस की गोलाबारी में तीन किसानों की मौत हो गई. मौत क्या हुई राजनीति की पौबारा हो गई. कांग्रेस, सपा, भाजपा और बसपा सब किसानों के हिमायती हो गए. राहुल गांधी तो दलित की कुटिया से किसान की खटिया तक जा पहुंचे. टप्पल में बारिश में भीगते हुए जब उन्हें किसानों के साथ मंच पर खड़ा देखा गया तो कहने वालों ने कहा कि यह तो बाप और दादी से भी दो कदम आगे हैं..। चाहे इन्दिरा जी रही हों चाहे राजीव गांधी, किसानों के बीच इसबार प्रदेश में गंगा और जमुना के दो अरब क्षेत्र में आंदोलन पनप रहा है. एक अनुमान के अनुसार गंगा-यमुना एक्सप्रेस वे जैसी विकास की परियोजनाओं से करीब २५ हजार के आस-पास गांव प्रभावित होंगे. अकेले नोएडा से आगरा तक यमुना एक्सप्रेस वे में १२ सौर गांवों के लगभग ७ लाख से ज्यादा किसान परिवार प्रभावित हो रहे हैं.लाजमी है कि विकास होगा तो कुछ लोग प्रभावित होंगे. लेकिन जानने वाली बात यही है कि प्रभावित हमेशा आदिवासी और किसान ही क्यों होता है. विकास के नाम पर उसी की बलि क्यों ली जाती है. क्या यह उसकी नियति है कि जिंदगी भर वह शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से महरूम रहे. और शहर के लोगों को यह सब जल्दी मिले, इसके लिए एक दिन उसका आशियाना भी उजाड़ दिया जाए.अलीगढ़ में किसानों के उग्र आंदोलन और राज्य के अन्य हिस्सों में भी इसकी आग फैलने की आशंका को देखते हुए मायावती सरकार पूरी तरह बचाव की मुद्रा में आ गई है. मामले की न्यायिक जांच के अलावा मृतक के परिजनों को पांच के बजाए 10 लाख रुपए देने और 450 के बजाए 570 रुपए प्रति वर्ग मीटर मुआवजा देने के प्रस्ताव के बावजूद किसान आंदोलन वापस लेने के मूड में नहीं हैं. स्थानीय किसान नेता और कांग्रेस के महासचिव राम बाबू कटैलिया के सरकार से समझौते करने के बावजूद किसानों का कहना है कि वे नोएडा की तरह 850 रुपए प्रति वर्ग मीटर के मुआवजे की अपनी मांग पर अड़े रहेंगे. कल यदि किसानों को 850 रुपऐ प्रति वर्ग मीटर या उससे अधिक भी मिल जाए लेकिन मौजूं सवाल यही उठता है ऐसी स्थिति हमेशा बनती ही क्यों है. ऐसा उत्तर प्रदेश ही नहीं देश के किसी भी अन्य राज्यों में भी देखने को क्यों मिलता है. पहले यह बांधों-खदानों के नाम पर होता था. फिर 'सेजÓ के नाम पर हुआ और अब ई-एक्सप्रेस-वे और ई-टाउनशिप के नाम पर हो रहा है. बांधों से बनी बिजली आज तक गांवों में नहीं पहुंच पाई. खदानों के खनिजों से सरकार और कंपनियों ने अपने खजाने तो भर लिए लेकिन वहां बसे आदिवासियों की कभी सुध नहीं ली. 'सेजÓ के नाम पर हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन किसानों से ले ली गई लेकिन स्थानीय किसानों को 'सेजÓ कंपनियों में नौकरी देने की बात हवा हो गई. और अब एक्सप्रेस वे और टाउनशिप आ गई है. कल को कुछ और आ जाएगा. जमींदोज तो किसान ही होंगे. ऐसे में ठेठ गांव का जागा किसान महेन्द्र सिंह टिकैत का यह कहना कतई काबिले गौर है कि सरकार किसानों की सबसे बड़ी दुश्मन है. जिस चीज के सरकार किसानों को दो रुपये देती है उसी चीज को आगे दो हजार रुपये में बेचती है. वही दो हजार रुपये की चीज आगे २० हजार की कीमत ररखने लगती है. यह कौन सा विकास है. यह तो व्यापार भी नहीं हुआ. खुली लूट हुई. अगर सरकार व्यापार करना चाहती है तो किसानों से व्यापारी की ही तरह बात करे. यह लूट तो बर्दाश्त के बाहर है.

मथुरा के प्रोफेसर

पुराने जमाने में यहाँ की खुर्चन की बड़ी ख्याति थी, अब प्रोफेसर नाम कमा रहे हैं. यह हजरत वनस्पति विज्ञान (बाटनी) के खलीफ ा हैं. यह अपनी शिष्या को फूल पत्ती का ज्ञान देते देते कामशास्त्र में निपुण बनाने का काम करने लगे, इन्हें सफलता भी मिली. इसके बाद इनका उत्साह कुछ ज्यादा बढ़ गया अपनी चेली को बगल में मकान लेकर रहने का दबाव बनाने लगे. दरअसल विज्ञान के कुछ विषयों में प्रैक्टिकल होता है इसमें किसको कितने नम्बर मिलने हैं इसका फैसला इन्हीं गुरू घंटालों के हाथ में होता है. ये नासपीटे इसी का फ ायदा उठाकर प्रैक्टिस करने में सफल हो जाते हैं. इनसे परेशान इनकी माता अब पुलिस की शरण में है और ये पुलिस से भाग रहे हैं. ये गुणवान मास्टरजी मास्टरों के अध्यक्ष भी हैं, होना चाहिए भी ऐसी प्रतिभायें कभी कभी जन्म लेती हैं. अपने शहर का एक प्रोफेसर भी इनके जैसे रासायनिक एवं भौतिक गुणों वाला है. यह मुछमुंडा मास्टर सनलाइट साबुन की तरह चिकना और क्रिकेट का बेहद शौकीन है. वैसे बल्ला या गेंद पकडऩा तो इसके दादा नाना कोई भी नहीं जानते थे लेकिन ये उस्ताद क्रिकेट मैचों के दौरान बलबलाने लगते हैं. इस खेल के साथ साथ इन्हें दूसरा खेल भी बेहद पसन्द है. ये अपने यहाँ मास्टरनियों की भर्ती मेंअक्ल देखने के बजाय शक्ल देखकर करते हैं. इनकी रंगीनियां अरब देशों के शेखों जैसी है. गुरूजी फुलटास मौज लेते हैं. हालात ये है कि लीगल घरैतिन के पास करवा चौथ के दिन ही पहुँच पाते हैं. कुल मिलाकर 364 दिन मौज ही मौज फकीरों वाला हाल है. मुझे कुछ ऐसा लगता है कि अपने देश के मास्टर बिहार वाले बटुकनाथ से प्रेरणा लेकर लुच्चई पर उतर आये हैं. जिधर देखो छिनरे मास्टर डेंगू के मच्छर की तरह हवा में भिनभिना रहे हैं. स्वाइन लू और डेंगू के वैक्सीन तो जल्द ही वैज्ञानिक खोजने की तैयारी में हैं, लेकिन इन लोफरों का टीका कौन ईजाद करेगा. हो सकता है कि आगे चलकर विज्ञान पढऩे वाली लड़कियों से लोग शादी ही न करें, पता नहीं उनका कब प्रैक्टिकल हो चुका हो.

राहुल चले अपनी राह

प्रमोद तिवारी

लीक छोड़ तीनै चलें, शायर सिंह, सपूत राहुल शायर तो हैं नहीं लेकिन शायरों जैसा दिल जरूर रखते हैं वरना यह कैसे कहते मैं दिल्ली में आदिवासियों का प्रतिनिधि हूं.सिर्फ शायरों का दिल ही नहीं अगर शेर जैसा जिगरा न होता तो वह आदिवासियों के बीच अपना शरीर न ले जाते. सपूत तो वह है ही. इसका प्रमाण मां सोनिया गांधी के चेहरे पर साफ झलकता है. अब बची लीक तो पिछले कुछ अरसे से राहुल के कदम कुछ इस अंदाज से उठ रहे हैं कि लगता है कवि प्रमोद तिवारी नहीं बल्कि राहुल गांधी कह रहे हैं-बदला-बदला लग रहा है मेरे कदमों का मिजाज, अब रहेंगे रास्ते या मंजिलेें कह जाएंगी. राहुल जिस राह पर हैं उस पर केन्द्र सरकार के कई मंत्रियों के 'हित-अर्थीÓ उठी जा रही है. राहुल नहीं देख रहे सरकार के हित क्या और कहां हैं. वह फिलहाल देश हित में जो समझ रहे हैं, वही कह रहे हैं, वही कर रहे हैं. मां सोनिया का उनको पूरा सर्पोट मिल रहा है. तो क्या ऐसा नहीं लगता कि मनमोहन के चिदंबरम, प्रणव मुखर्जी, मंटोक इन दिनों दस जनपथ के बजाय अन्तर्राष्ट्रीय बाजार की ओर ज्यादा आश्वस्त और संतुष्ट हैं . अमरीका कह भी रहा है कि मनमोहन सिंह अब पहले से ज्यादा ताकतवर प्रधानमंत्री हैं. यह बयान उसने परमाणु दायित्व कानून के पास होने पर दिया. वैसे भी इस सच्चाई से कौन इंकार कर सकता है कि संप्रग पर व्र्लड बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक, और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का ही कब्जा है. मनमोहन सिंह और मंटोक सिंह तो इन बैंकों के पूर्व कर्मी रह चुके हैं. पी. चिदम्बरम ने जिस दिन वित्त मंत्री का पद संभाला था उसी दिन 'वेदांतÓ के निदेशक पद को त्यागा था. उसी वेदांत के लिए चिदम्बरम सेना भेजने को तैयार हैं और राहुल अचानक आदिवासियों के साथ खड़े होकर उसे खदेडऩे में लग गये. यह विरोधाभास या तो किसी बड़ी क्रंाति की आहट है या फिर देश के साथ अब तक का सबसे बड़ा खिलवाड़ हो रहा है.1

राहुल संप्रग 36

विशेष संवाददाता

दिवासियों का हक छीनना विकास नहीं है. जो भी आदिवासियों का हक छीनेगा, 'मैं उसका विरोध करूंगा.....Ó यह कहना किसी और का नहीं कांग्रेस के राजकुंअर राहुल गांधी का है. लगता है राहुल गांधी की जुबान पर वाकई 'गांधीÓ बिराज गये हैं. वरना हाल-फिलहाल आपरेशन ग्रीन हंट के बहाने पूर्व और पूर्वोत्तर राज्यों में आदिवासियों का हक छीनने वाले आपरेशन के कर्ता-धर्ता देश के गृह मंत्री पी. चिदंबरम ही तो हैं, जोकि कांग्रेस नीति 'संप्रगÓ सरकार के प्रमुख मजबूत स्तंभों में से एक हैं देश के गृह मंत्री हंै. तो क्या राहुल कह रहे हैं कि वह केन्द्र सरकार के खिलाफ जाकर भी 'हकÓ के सवाल पर हकलाएंगे नहीं बल्कि मु_ी तान के कृत्रिम विकास के समर्थकों की बोलती बंद करेंगे...। इस तरह तो राहुल अपनी ही सरकार के खिलाफ चले जाएंगे. चले क्या जाएंगे.. धीरे-धीरे चले ही जा रहे हैं. न सिर्फ राहुल बल्कि कांग्रेस में एक खेमा सा उभरता दिखाई दे रहा है जो 'संप्रंगÓ की नीति और नियति दोनों पर न सिर्फ सवाल खड़े कर रहा है बल्कि बवाल खड़े कर रहा है. अगर यह कोई आंतरिक रणनीति न होकर वाकई स्याह और सफेद की पहचान की राजनीति है तो समझो कांगे्रस पार्टी और कांग्रेस नीति 'संप्रगÓ सरकार अब एक सिक्के के दो पहलू नहीं रहे. अकेले राहुल ही नहीं उनकी मां सोनिया गांधी के हालिया लक्षण भी यही संकेत दे रहे हैं कि पार्टी लाइन और सरकार की लाइन अलग-अलग है. निश्चित ही कांग्रेस और उसकी सरकार के बीच कुछ चल रहा है. तभी तो कुछ-कुछ जलन की गंध राजनीतिक रूप से संवेदनशील नथुनों को फाड़े दे रही है. ध्यान से समझिए जरा इन तथ्यों को-ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर डेविड कैमरन अपने पहले भारतीय दौरे पर आये हुए थे. उनके कार्यक्रमों की सूची में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और महासचिव राहुल गांधी से मुलाकात का कार्यक्रम भी दर्ज था. मगर अफसोस भारतीय सत्ता के इन दोनों संविधानेतर महाशक्तियों ने अंतिम समय में कैमरन से मिलने से शिष्टतापूर्वक इनकार कर दिया. सोनिया ने जहां अपनी बीमारी का बहाना बनाया, वहीं राहुल एक दिन पहले अचानक कैमरन के ही मुल्क ब्रिटेन की यात्रा पर निकल गये. आखिर ऐसा क्यों हुआ ?अभी हाल में महंगाई को लेकर भारतीय संसद में विपक्षी सांसद जोरदार हंगामा कर रहे थे और संसद में सोनिया के बयान की मांग की जा रही थी. मगर सोनिया उपलब्ध नहीं थीं. इसके पहले भोपाल गैस त्रासदी प्रकरण को लेकर बड़ा बवाल मचा. उनके स्वर्गीय पति पर गंभीर आरोप लगाये गये. भोपाल गैस त्रासदी के फैसले से ठीक पहले स्पेनिश लेखक जैवियर मोरो अपनी किताब द रेड साड़ी के विवाद को लेकर भारत पहुंचे थे. सोनिया गाधी के जीवन पर केंद्रित इस पुस्तक में कई विवादास्पद टिप्पणियां थीं. मगर इस पुस्तक पर दस जनपथ से कोई बयान जारी नहीं किया गया. मां-बेटों से अलग दिग्गज कांग्रेसियों की कार्य व बयान शैली को भी देखें. आपरेशन ग्रीन हंट को लेकर पार्टी के अंतर्विरोध बाहर आये, नक्सलवाद के खिलाफ सेना के इस्तेमाल पर दिग्विजय और चिदंबरम आमने-सामने हो गये. कामनवेल्थ को लेकर मणिशंकर अय्यर ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि के वक्त कांग्रेस संदेश के संपादक अनिल शास्त्री ने सोनिया से हस्तक्षेप की गुहार लगाई. मगर सानिया गांधी और उनके पुत्र खामोश रहे. दस जनपद सिर्फ कांग्रेस का ही नहीं हाल केे दौर में भारतीय राजनीति का मुख्य केेन्द्र है. इसकी चुप्पी इतनी सामान्य बात नहीं है. आखिर सरकार के कदम और मैडम सोनिया व बाबा राहुल के कदम आपस में कदम ताल क्यों नहीं कर रहे. इसी सिक्के का दूसरा पहलू अर्थात सरकारी पहलू भी देखें. यूपीए-2 के पुरोधा जिन्हें मालूम है कि उन्होंने यह कुर्सी इन्हीं दो लोगों के बदौलत पाई है, क्यों इनकी खोज खबर नहीं ले रहे? क्या यह साबित करने की कोशिश में जुट गये हैं कि सरकार को इन दोनों दिग्गजों के बैशाखी की जरूरत नहीं. सारे फैसले खुद लिये जा रहे हैं. चाहे आपरेशन ग्रीन हंट हो, पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि का मसला हो, पाकिस्तान के बातचीत के बिंदू हों या फिर मोदी से निपटने की स्ट्रैटजी. न तो किसी मसले पर उनसे सलाह ली जा रही है और न ही उनके स्टैंड का ख्याल रखा जा रहा है.यह जगजाहिर है कि माओवाद से निबटने और पेट्रोलियम पदार्थों का कीमतों को बाजार पर छोड़ देने के फैसलों के मामले में दोनों उन फैसलों के खिलाफ होते जो सरकार ने लिये. मगर इसके बावजूद सरकार ने ऐसे फैसले बेहिचक लिये. दिग्विजय, अनिल शास्त्री और मणिशंकर अय्यर जैसे नेता ने संभवत: यही सोचकर अपनी ही सरकार की नीतियों पर सवाल खड़े कर रहे हैं कि उन्हें सोनिया और राहुल का समर्थन मिलेगा. मगर सरकार बड़ी बेरहमी से इन्हें खामोश करने के तरीके तलाश रही है. इसका अर्थ कहीं यह तो नहीं कि कांग्रेस दो धड़े में बंट गयी है. मौजूदा सरकार में जिम्मेदार पदों पर काबिज कांग्रेसी हर हाल में सोनिया-राहुल जैसे वट वृक्षों की छाया से निकल कर अपना अस्तित्व साबित करने में जुट गयी लगती है. हालांकि अगर वाकई ऐसा हो रहा है और कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार की छत्र-छाया से निकल कर आत्म निर्भर होने की कोशिश में है तो इसे सकारात्मक संकेत के रूप में देखा जाना चाहिये. मगर यहां मामला अलग है. कांग्रेसी सोनिया-राहुल की छत्र-छाया से इसलिये बाहर नहीं निकल रहे कि वे आत्मनिर्भर होना चाहते हैं, बल्कि इसलिये यह कदम उठा रहे हैं, क्योंकि उन्हें कई जनविरोधी फैसले लेने हैं, जो वे सोनिया-राहुल के प्रभाव में रहते हुए नहीं ले सकते. चिदंबरम को खनिज संपन्न पूर्वी भारत को माओवादियों के कब्जे से मुक्त कराकर टाटा और जिंदल को सौंपना है. इस काम के लिये जरूरत हुई तो वे इन इलाकों में बमबारी तक करवाने में नहीं हिचकेंगे. और उन्हें मालूम है कि सोनिया या राहुल से उन्हें इस मसले पर समर्थन मिलने वाला नहीं. वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को बाजार की ताकतों को खुश करने के लिये कई ऐसे फैसले लेने हैं जो जनता में त्राहिमाम मचा सकते हैं. मनमोहन-मोंटक की अर्थशास्त्री जोड़ी का लक्ष्य वर्ल्ड बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश जैसी संस्थाओं की नीतियों को भारत में लागू करना है. दोनों इन्हीं बैंकों के पूर्व कर्मी रह चुके हैं. वैसे यूपीए-2 पर वर्ल्ड बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश के पूर्व कर्मियों का ही कब्जा है. सरकार ने जनोन्मुखी वाम दलों से पहले ही पीछा छुड़ा लिया है, अब वे अपनी पार्टी की जनोन्मुखी ताकतों को साइड करने में जुटे हैं, ताकि बाजारोन्मुखी फैसले लेने में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो. कहा यह भी जा रहा है कि सरकार को ऐसा शेप अमेरिकी प्रभाव में दिया जा रहा ताकि भारत सरकार पूरी तरह अमेरिकी पि_ू की तरह काम करे. लेकिन सबकुछ इतना आसान नहीं... मगर जो कुछ भी करने की कोशिश की जा रही है वह इतना आसान नहीं. सोनिया गांधी न तो महात्मा गांधी है जिन्होंने आजादी के बाद नेहरू-पटेल द्वारा साइड-लाइन किये जाने की बात चुप-चाप सह ली और साबित कर दिया कि उन्होंने सत्ता भोगने के लिये आजादी की लड़ाई नहीं लड़ी थी. सोनिया गांधी भारतीय राजनीति का वह किरदार है जिसने लगभग डूब चुकी कांग्रेस को ऐसी राजनीतिक शक्ति में तब्दील कर दिया जो आज अजेय लगने लगी है. अगर वह इस पार्टी के लिये ऐसा करिश्मा कर सकती है तो अपने पुत्र के राजनीतिक कैरियर के लिये जनता का रुख फिर से मोड़ सकती है. सरकार के आज क जन विराधी फैसले कहीं आने वाले चुनाव तक मौजूदा मनमोहनी सरकार के सर पर ही न बीतें. सोनिया और राहुल अपने साथ अपनी कांग्रेस लेकर इसी सरकार को कटघरे में न खड़ा कर दें. क्योंकि चिदंबरम जिस वेदांगता के लिए सब कुछ किए दे रहे थे उसे किसी और ने नहीं काली हांडी से राहुल गांधी ने खदेड़ामनमोहन यूं ही नक्सलियों को अपना नहीं कहने लगे हैं? मगर सोनिया उपलब्ध नहीं थीं. इसके पहले भोपाल गैस त्रासदी प्रकरण को लेकर बड़ा बवाल मचा. उनके स्वर्गीय पति पर गंभीर आरोप लगाये गये. भोपाल गैस त्रासदी के फैसले से ठीक पहले स्पेनिश लेखक जैवियर मोरो अपनी किताब द रेड साड़ी के विवाद को लेकर भारत पहुंचे थे. सोनिया गाधी के जीवन पर केंद्रित इस पुस्तक में कई विवादास्पद टिप्पणियां थीं. मगर इस पुस्तक पर दस जनपथ से कोई बयान जारी नहीं किया गया. मां-बेटों से अलग दिग्गज कांग्रेसियों की कार्य व बयान शैली को भी देखें. आपरेशन ग्रीन हंट को लेकर पार्टी के अंतर्विरोध बाहर आये, नक्सलवाद के खिलाफ सेना के इस्तेमाल पर दिग्विजय और चिदंबरम आमने-सामने हो गये. कामनवेल्थ को लेकर मणिशंकर अय्यर ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि के वक्त कांग्रेस संदेश के संपादक अनिल शास्त्री ने सोनिया से हस्तक्षेप की गुहार लगाई. मगर सानिया गांधी और उनके पुत्र खामोश रहे. दस जनपद सिर्फ कांग्रेस का ही नहीं हाल केे दौर में भारतीय राजनीति का मुख्य केेन्द्र है. इसकी चुप्पी इतनी सामान्य बात नहीं है. आखिर सरकार के कदम और मैडम सोनिया व बाबा राहुल के कदम आपस में कदम ताल क्यों नहीं कर रहे. इसी सिक्के का दूसरा पहलू अर्थात सरकारी पहलू भी देखें. यूपीए-2 के पुरोधा जिन्हें मालूम है कि उन्होंने यह कुर्सी इन्हीं दो लोगों के बदौलत पाई है, क्यों इनकी खोज खबर नहीं ले रहे? क्या यह साबित करने की कोशिश में जुट गये हैं कि सरकार को इन दोनों दिग्गजों के बैशाखी की जरूरत नहीं. सारे फैसले खुद लिये जा रहे हैं. चाहे आपरेशन ग्रीन हंट हो, पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि का मसला हो, पाकिस्तान के बातचीत के बिंदु हों या फिर मोदी से निपटने की स्ट्रैटजी. न तो किसी मसले पर उनसे सलाह ली जा रही है और न ही उनके स्टैंड का ख्याल रखा जा रहा है.यह जगजाहिर है कि माओवाद से निबटने और पेट्रोलियम पदार्थों का कीमतों को बाजार पर छोड़ देने के फैसलों के मामले में दोनों उन फैसलों के खिलाफ होते जो सरकार ने लिये. मगर इसके बावजूद सरकार ने ऐसे फैसले बेहिचक लिये. दिग्विजय, अनिल शास्त्री और मणिशंकर अय्यर जैसे नेता ने संभवत: यही सोचकर अपनी ही सरकार की नीतियों पर सवाल खड़े कर रहे हैं कि उन्हें सोनिया और राहुल का समर्थन मिलेगा. मगर सरकार बड़ी बेरहमी से इन्हें खामोश करने के तरीके तलाश रही है. इसका अर्थ कहीं यह तो नहीं कि कांग्रेस दो धड़ों में बंट गयी है. मौजूदा सरकार में जिम्मेदार पदों पर काबिज कांग्रेसी हर हाल में सोनिया-राहुल जैसे वट वृक्षों की छाया से निकल कर अपना अस्तित्व साबित करने में जुट गयी लगती हंै. हालांकि अगर वाकई ऐसा हो रहा है और कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार की छत्र-छाया से निकल कर आत्म निर्भर होने की कोशिश में हंै तो इसे सकारात्मक संकेत के रूप में देखा जाना चाहिये. मगर यहां मामला अलग है. कांग्रेसी सोनिया-राहुल की छत्र-छाया से इसलिये बाहर नहीं निकल रहे कि वे आत्मनिर्भर होना चाहते हैं, बल्कि इसलिये यह कदम उठा रहे हैं, क्योंकि उन्हें कई जनविरोधी फैसले लेने हैं, जो वे सोनिया-राहुल के प्रभाव में रहते हुए नहीं ले सकते. चिदंबरम को खनिज संपन्न पूर्वी भारत को माओवादियों के कब्जे से मुक्त कराकर टाटा और जिंदल को सौंपना है. इस काम के लिये जरूरत हुई तो वे इन इलाकों में बमबारी तक करवाने में नहीं हिचकेंगे. और उन्हें मालूम है कि सोनिया या राहुल से उन्हें इस मसले पर समर्थन मिलने वाला नहीं. वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को बाजार की ताकतों को खुश करने के लिये कई ऐसे फैसले लेने हैं जो जनता में त्राहिमाम मचा सकते हैं. मनमोहन-मोंटक की अर्थशास्त्री जोड़ी का लक्ष्य वर्ल्ड बैंक और अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं की नीतियों को भारत में लागू करना है. दोनों इन्हीं बैंकों के पूर्व कर्मी रह चुके हैं. वैसे यूपीए-2 पर वर्ल्ड बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक और अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व कर्मियों का ही कब्जा है. सरकार ने जनोन्मुखी वाम दलों से पहले ही पीछा छुड़ा लिया है, अब वे अपनी पार्टी की जनोन्मुखी ताकतों को साइड करने में जुटे हैं, ताकि बाजारोन्मुखी फैसले लेने में कोई व्यावधान उत्पन्न न हो. कहा यह भी जा रहा है कि सरकार को ऐसा शेप अमेरिकी प्रभाव में दिया जा रहा ताकि भारत सरकार पूरी तरह अमेरिकी पि_ू की तरह काम करे. लेकिन सबकुछ इतना आसान नहीं... मगर जो कुछ भी करने की कोशिश की जा रही है वह इतना आसान नहीं. सोनिया गांधी न तो महात्मा गांधी हंै जिन्होंने आजादी के बाद नेहरू-पटेल द्वारा साइड-लाइन किये जाने की बात चुप-चाप सह ली और साबित कर दिया कि उन्होंने सत्ता भोगने के लिये आजादी की लड़ाई नहीं लड़ी थी. सोनिया गांधी भारतीय राजनीति का वह किरदार है जिसने लगभग डूब चुकी कांग्रेस को ऐसी राजनीतिक शक्ति में तब्दील कर दिया जो आज अजेय लगने लगी है. अगर वह इस पार्टी के लिये ऐसा करिश्मा कर सकती है तो अपने पुत्र के राजनीतिक कैरियर के लिये जनता का रुख फिर से मोड़ सकती है. सरकार के आज के जन विराधी फैसले कहीं आने वाले चुनाव तक मौजूदा मनमोहनी सरकार के सर पर ही न बीतें. सोनिया और राहुल अपने साथ अपनी कांग्रेस लेकर इसी सरकार को कटघरे में न खड़ा कर दें. क्योंकि चिदंबरम जिस वेदांगता के लिए सब कुछ किए दे रहे थे उसे किसी और ने नहीं काली हांडी से राहुल गांधी ने खदेड़ामनमोहन यूं ही नक्सलियों को अपना नहीं कहने लगे हैं?1