शनिवार, 18 सितंबर 2010

गरूदिन चल रहे हैं
प्रमोद तिवारी
मित्रों! आपको बताएं कि तुर्की की आजादी के बाद वहां के दृढ़ इच्छा शक्ति वाले 'सत्ता नायकÓ कमाल पाशा ने २४ घण्टे के भीतर अपनी देसी भाषा तुर्की को राष्ट्र भाषा के सिंहासन पर बिठा दिया था. वहां भी भारत की तरह ही कई विषमताएं व विसंगतियां थीं. वहां भी तरह-तरह के सवाल उठे थे. तुर्की के राष्ट्र चिंतकों का मानना था कि एक भाषा तुर्की को पूरे देश का संवाद माध्यम बनाने में कई साल लगेंगे. जब यह सवाल 'पाशाÓ के सामने आया तो उनका जवाब था कि आप लोग समझ लें कि जो समय आप लोगों को चाहिए वह इसी वक्त पूरा हो चुका है. अब जो भी काम होगा 'तुर्कीÓ में ही होगा. १९१९ में २४ घण्टे लगे एक देश को अपनी देसी भाषा को राष्ट्र भाषा के सिंहासन पर बिठाने में. और यहां सन् १९४७ से दो हजार १० तक की ६३ साल की यात्रा हो गई है हिन्दी न तो राज भाषा बन पाई है और न ही राष्ट्र भाषा. ऊपर से हिन्दी बोलने के गुनाह में महाराष्ट्र विधानसभा में अबू आजमी के मुंह पर तमाचा ऊपर से पड़ गया. यह तमाचा किसी और ने नहीं संविधान के प्रति निष्ठा व्यक्त करने वाले जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों ने ही मारा.
१४ सितम्बर से ३० सितम्बर तक पूरा देश हिन्दी दिवस मनाता है. सरकारी दफ्तरों और स्कूल-कालेजों में यह एक परम्परा सी है. ठीक वैसी जैसी किसी प्रिय की मृत्यु के बाद प्रत्येक वर्ष उसका श्राद्घ किया जाता है, उसका श्रृद्घा से स्मरण किया जाता है. 'हिन्दीÓ भी इस विशिष्ट काल में किसी गुजरी बुजुर्ग की तरह ही याद की जाती है. संकल्प लिये जाते हैं हिन्दी को व्यवहार में लाने के लिए. यह उस देश में होता है जो बिना हिन्दी के एक कदम भी नहीं चल सकता, लेकिन उसे अपनी चाल की असली ताकत कह भी नहीं सकता. देश की नयी पीढ़ी शायद यह नहीं जानती कि उसके देश के पास आज दिन तक उसकी संवैधानिक भाषा नहीं है. उसका राष्ट्र तो है लेकिन राष्ट्रभाषा नहीं है. फिर भी आप किसी 'बच्चेÓ (छात्र) से पूछें भारत की राष्ट्रभाषा क्या है तो वह कह देगा हिन्दी और आप बच्चा समझकर उसका जवाब मान भी जाएंगे क्योंकि संवैधानिक स्तर पर राष्ट्र की भाषा हिन्दी भले न हो लेकिन व्यवहार के स्तर पर तो पूरे देश को हिन्दी ही जोड़ती है. इसीलिए बच्चा सच्चा लगता है. कानपुर के विद्वान सेवक वात्स्यायन जी से हिन्दी के गरू दिनों (हिन्दी पखवारा) के अवसर पर हिन्दी की दशा-दिशा के बारे में बात चीत की गई तो वह तिलमिला गये. बोले, जब तक हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा घोषित नहीं किया जाता तब तक न हिन्दी का भविष्य है, न हिन्दी भाषियों का. और जब तक देश में 'कांग्रेसÓ या कांग्रेस की मानसिकता वाले लोग हैं, तब तक हिन्दी राष्ट्रभाषा हो ही नहीं सकती. वात्स्यायन जी का यह आक्रोश अकारण नहीं है. दरअसल आजादी के बाद अगर नेहरु जी बिना किसी परपंच के हिन्दी को राज भाषा घोषित कर देते तो आज हम हिन्दी दिवस नहीं मना रहे होते. वास्तव में आजादी के बाद इस मसले को उलझाने का पूरा काम राजनीतिकों ने किया. और उस समय की राजनीति का दूसरा नाम कांग्रेस ही था. वैसे भी आजादी के लिए देश भक्तों का मंच बनी कांग्रेस आखिर थी तो अंग्रेजी की ही पार्टी. वह तो जब बाल गंगाधर तिलक ने कांग्रेस की कमान संभाली तब इसका अंग्रेजी चोला उतरा लेकिन 'आत्माÓ लगता है आज दिन तक नहीं बदली. इसीलिए हिन्दी का संवैधानिक सुहाग आज दिन तक वैधव्य भोग रहा है.जब देश आजाद हुआ था तो संविधान में हिन्दी को राष्ट्र की राज भाषा घोषित किया गया था. चूंकि भारत विभिन्न भाषाओं और बोलियों वाला देश है, इसलिए एक व्यवस्था दी गई थी कि देश के जो क्षेत्र (राज्य) अहिन्दी भाषी हैं वे पूरे देश की भाषाई मुख्य धारा 'हिन्दीÓ में शामिल होने के लिए तैयारी करें और इसके लिए १५ वर्ष का समय निश्चित किया गया. इस तरह १९५० में लागू संविधान की मंशा के अनुसार हिन्दी को वर्ष १९६५ में इस देश की राज भाषा और राष्ट्र भाषा दोनों का ही दर्जा मिल जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.. सन् १९६५ में देश की संसद हिन्दी को भारत की राष्ट्र भाषा घोषित करने का साहस नहीं दिखा पाई. उल्टा इस प्रश्न पर संविधान में एक संशोधन कर दिया गया कि जब तक देश का प्रत्येक प्रांत हिन्दी को राज भाषा और राष्ट्र भाषा मानने के लिए तैयार नहीं होगा तब तक हिन्दी को देश की राष्ट्र भाषा घोषित नहीं किया जा सकता. वर्ष १९६५ में देश की आजादी कुल ६० करोड़ के आस-पास थी और मिजोरम की आबादी तब केवल पांच लाख के आस-पास रही होगी. . अब अगर मिजोरम नहीं चाहता कि देश की राज भाषा या राष्ट्र भाषा हिन्दी बने. तो समझो ६० करोड़ पर ५ लाख की आपत्ति अंतिम है. तब के उदार राष्ट्रहित चिंतकों ने दलील दी थी कि हम किसी पर जबरिया हिन्दी नहीं थोपेंगे...! यह क्या है..यह कौन सी राजनीतिक शक्ति है जो अपने सरकारी काम काज के लिए, व्यवहार के लिए देश को एक भाषा नहीं दे सकती. हिन्दी तो अनाथ है. यह तो केवल इसलिए जिंदा है कि इसे बोलने वाले और व्यवहार में लाने वाले लोग अभी इस देश में जिंदा हैं. वरना क्या है हिन्दी के पास 'हिन्दुस्तान मेंÓ न सरकारी संरक्षण, न संवैधानिक अधिकार, रही बात जन व्यवहार की तो आपने देख ही लिया कि एक विधायक को भारत के संविधान के प्रति निष्ठा व्यक्त करने में हिन्दी का प्रयोग करने पर चार मराठी विधायकों ने थप्पड़ों से मारा. दरअसल यह थप्पड़ तो देश की पूरी राजनीति ने उस दिन ही बो दिया था जिस दिन हिन्दी को राष्ट्र व राज भाषा बनाने के मुहूर्त में एक संशोधन के जरिए अहिंदी भाषियों की कृपा की आस में अनिश्चित काल के लिए लावारिस छोड़ दिया गया था.राष्ट्र भाषा के सवाल पर १९६५ से पहले १९६१ में देश के सभी मुख्यमंत्रियों का हिन्दी एक वृहद समीक्षा सम्मेलन बुलाया गया. इस सम्मेलन के संयोजक थे केरल के तानु पिल्लई. यह जमाना नेहरु जी का था. लगभग सभी मुख्यमंत्रियों ने एक राय प्रकट की थी कि अब प्रतीक्षा किये बगैर सारा काम हिन्दी में किया जा सकता है. इसी सम्मेलन में देश के शिक्षा मंत्री हुमायू कबीर को नेहरु जी ने भावी प्रधानमंत्री के रूप में भी पेश किया था. डा. राजेन्द्र प्रसाद ने सम्मेलन में एक प्रस्ताव दिया कि भारत में जितनी भी बोलियां बोली जाती हैं, अंग्रेजी, उर्दू सहित सब की लिपि एक हो जाये.. उनका मंतव्य था 'देवनागरीÓ हो जाये. लेकिन इन्हीं हुमायूं कबीर ने इसका विरोध कर दिया एक संशोधन के जरिए जिसमें उन्होंने देवनागरी लिपि को एक समृद्घ और अच्छी लिपि नहीं बताया बल्कि योरोप की तरह ही हिन्दी साहित्य की सभी भाषाओं को रोमन लिपि में लिखने का सुझाव दिया. उस समय उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के गवर्नर लाटूस तथा मेक्डानाल्ड हुआ करते थे. इन दोनों ने अंग्रेज होते हुए भी कहा कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में 'हिन्दीÓ ही राज भाषा होनी चाहिए. यहां के लोगों के लिए अंग्रेजी, फारसी गैर जरूरी है. जरा सोचिए हिन्दी देश को आजादी दिलाने में मुख्य सम्पर्क और क्रांति की भाषा रही और आजादी के बाद उसके बेटे ही उसे फारसी और इंग्लिश के मुकाबले 'तुच्छÓ साबित करने में लग गयेइंदिरा जी के कार्यकाल में भी हिन्दी को राष्ट्र भाषा का सम्मान और अधिकार का सवाल पुरजोर तरीके से उठा. इंदिरा जी के खास थे, सी.एन. अन्नादुरई. इनका काम ही था हिन्दी समर्थकों की आग में पानी डालना. दक्षिण भारत के लिए यह दायित्व उन्हें इंदिरा जी ने सौंपा था. दक्षिण में एक और थे रामास्वामी नैकर, वह भी हिन्दी भाषियों पर कहर ही बरपाया करते थे. उन्हें तब के कांग्रेसी आला कमान का निकटस्थ माना जाता था.प्रोफेसर वात्स्यायन बताते हैं-'' हिन्दी प्रकाण्ड विद्वान, विद्वान क्या.. हिन्दी के पंडित श्रीधर पाठक उन दिनों बेहद लोकप्रिय थे. हिन्दी प्रेमियों और आम हिन्दुस्तानियों ने उन्हें इलाहाबाद में आपस में चंदा करके एक भव्य बंगला बनवाकर भेंट किया था. श्री पाठक को नीचा दिखाने के लिए उस दौर में भी कांग्रेसियों ने (जिनके तार तब भी इंग्लैण्ड से सीधे जुड़े थे) अंग्रेजों से मदद लेकर श्रीधर पाठक से छ: गुना बड़ा बंगला बनवाकर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के संस्थापक श्री सैय्यद अहमद खान को दिया था. जनाब सैय्यद ने 'उर्दू-स्कूलÓ नाम का आंदोलन चलाया. आंदोलन के बैनरों में लिखा रहता था-''गंदी हिन्दी अजीम उर्दू की जैसी थी वैसी ही रही और अंग्रेजी थोपी जाने लगी. वास्तव में 'अंग्रेजीÓ हिन्दुस्तान में कांग्रेसियों द्वारा थोपी गई भाषा है. जिसके पि_ू लगातार बढ़ते जा रहे हैं, बिना यह सोचे समझे कि जिस देश के पास अपनी भाषा नहीं होगी वह देश कभी अपनी बात पूरे संवेग से नहीं कह पाता.1
प्रोफेसर वात्स्यायन बताते हैं-'' हिन्दी प्रकाण्ड विद्वान, विद्वान क्या.. हिन्दी के वाचक पंडित श्रीधर पाठक उन दिनों बेहद लोकप्रिय थे. हिन्दी प्रेमियों और आम हिन्दुस्तानियों ने उन्हें इलाहाबाद में आपस में चंदा करके एक भव्य बंगला बनवाकर भेंट किया था. श्री पाठक को नीचा दिखाने के लिए उस दौर में भी कांग्रेसियों ने (जिनके तार तब भी इंग्लैण्ड से सीधे जुड़े थे) अंग्रेजों से मदद लेकर श्रीधर पाठक से छ: गुना बड़ा बंगला बनवाकर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के संस्थापक श्री सैय्यद अहमद खान को दिया था. जनाब सैय्यद ने 'उर्दू-स्कूलÓ नाम का आंदोलन चलाया. आंदोलन के बैनरों में लिखा रहता था-''गंदी हिन्दी अजीम उर्दू की जैसी थी वैसी ही रही और अंग्रेजी थोपी जाने लगी. वास्तव में 'अंग्रेजीÓ हिन्दुस्तान में कांग्रेसियों द्वारा थोपी गई भाषा है. जिसके पि_ू लगातार बढ़ते जा रहे हैं, बिना यह सोचे समझे कि जिस देश के पास अपनी भाषा नहीं होगी वह देश कभी अपनी बात पूरे संवेग से नहीं कह पाता.

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