सोमवार, 13 सितंबर 2010

मथुरा के प्रोफेसर

पुराने जमाने में यहाँ की खुर्चन की बड़ी ख्याति थी, अब प्रोफेसर नाम कमा रहे हैं. यह हजरत वनस्पति विज्ञान (बाटनी) के खलीफ ा हैं. यह अपनी शिष्या को फूल पत्ती का ज्ञान देते देते कामशास्त्र में निपुण बनाने का काम करने लगे, इन्हें सफलता भी मिली. इसके बाद इनका उत्साह कुछ ज्यादा बढ़ गया अपनी चेली को बगल में मकान लेकर रहने का दबाव बनाने लगे. दरअसल विज्ञान के कुछ विषयों में प्रैक्टिकल होता है इसमें किसको कितने नम्बर मिलने हैं इसका फैसला इन्हीं गुरू घंटालों के हाथ में होता है. ये नासपीटे इसी का फ ायदा उठाकर प्रैक्टिस करने में सफल हो जाते हैं. इनसे परेशान इनकी माता अब पुलिस की शरण में है और ये पुलिस से भाग रहे हैं. ये गुणवान मास्टरजी मास्टरों के अध्यक्ष भी हैं, होना चाहिए भी ऐसी प्रतिभायें कभी कभी जन्म लेती हैं. अपने शहर का एक प्रोफेसर भी इनके जैसे रासायनिक एवं भौतिक गुणों वाला है. यह मुछमुंडा मास्टर सनलाइट साबुन की तरह चिकना और क्रिकेट का बेहद शौकीन है. वैसे बल्ला या गेंद पकडऩा तो इसके दादा नाना कोई भी नहीं जानते थे लेकिन ये उस्ताद क्रिकेट मैचों के दौरान बलबलाने लगते हैं. इस खेल के साथ साथ इन्हें दूसरा खेल भी बेहद पसन्द है. ये अपने यहाँ मास्टरनियों की भर्ती मेंअक्ल देखने के बजाय शक्ल देखकर करते हैं. इनकी रंगीनियां अरब देशों के शेखों जैसी है. गुरूजी फुलटास मौज लेते हैं. हालात ये है कि लीगल घरैतिन के पास करवा चौथ के दिन ही पहुँच पाते हैं. कुल मिलाकर 364 दिन मौज ही मौज फकीरों वाला हाल है. मुझे कुछ ऐसा लगता है कि अपने देश के मास्टर बिहार वाले बटुकनाथ से प्रेरणा लेकर लुच्चई पर उतर आये हैं. जिधर देखो छिनरे मास्टर डेंगू के मच्छर की तरह हवा में भिनभिना रहे हैं. स्वाइन लू और डेंगू के वैक्सीन तो जल्द ही वैज्ञानिक खोजने की तैयारी में हैं, लेकिन इन लोफरों का टीका कौन ईजाद करेगा. हो सकता है कि आगे चलकर विज्ञान पढऩे वाली लड़कियों से लोग शादी ही न करें, पता नहीं उनका कब प्रैक्टिकल हो चुका हो.

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