सोमवार, 13 सितंबर 2010

राहुल संप्रग 36

विशेष संवाददाता

दिवासियों का हक छीनना विकास नहीं है. जो भी आदिवासियों का हक छीनेगा, 'मैं उसका विरोध करूंगा.....Ó यह कहना किसी और का नहीं कांग्रेस के राजकुंअर राहुल गांधी का है. लगता है राहुल गांधी की जुबान पर वाकई 'गांधीÓ बिराज गये हैं. वरना हाल-फिलहाल आपरेशन ग्रीन हंट के बहाने पूर्व और पूर्वोत्तर राज्यों में आदिवासियों का हक छीनने वाले आपरेशन के कर्ता-धर्ता देश के गृह मंत्री पी. चिदंबरम ही तो हैं, जोकि कांग्रेस नीति 'संप्रगÓ सरकार के प्रमुख मजबूत स्तंभों में से एक हैं देश के गृह मंत्री हंै. तो क्या राहुल कह रहे हैं कि वह केन्द्र सरकार के खिलाफ जाकर भी 'हकÓ के सवाल पर हकलाएंगे नहीं बल्कि मु_ी तान के कृत्रिम विकास के समर्थकों की बोलती बंद करेंगे...। इस तरह तो राहुल अपनी ही सरकार के खिलाफ चले जाएंगे. चले क्या जाएंगे.. धीरे-धीरे चले ही जा रहे हैं. न सिर्फ राहुल बल्कि कांग्रेस में एक खेमा सा उभरता दिखाई दे रहा है जो 'संप्रंगÓ की नीति और नियति दोनों पर न सिर्फ सवाल खड़े कर रहा है बल्कि बवाल खड़े कर रहा है. अगर यह कोई आंतरिक रणनीति न होकर वाकई स्याह और सफेद की पहचान की राजनीति है तो समझो कांगे्रस पार्टी और कांग्रेस नीति 'संप्रगÓ सरकार अब एक सिक्के के दो पहलू नहीं रहे. अकेले राहुल ही नहीं उनकी मां सोनिया गांधी के हालिया लक्षण भी यही संकेत दे रहे हैं कि पार्टी लाइन और सरकार की लाइन अलग-अलग है. निश्चित ही कांग्रेस और उसकी सरकार के बीच कुछ चल रहा है. तभी तो कुछ-कुछ जलन की गंध राजनीतिक रूप से संवेदनशील नथुनों को फाड़े दे रही है. ध्यान से समझिए जरा इन तथ्यों को-ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर डेविड कैमरन अपने पहले भारतीय दौरे पर आये हुए थे. उनके कार्यक्रमों की सूची में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और महासचिव राहुल गांधी से मुलाकात का कार्यक्रम भी दर्ज था. मगर अफसोस भारतीय सत्ता के इन दोनों संविधानेतर महाशक्तियों ने अंतिम समय में कैमरन से मिलने से शिष्टतापूर्वक इनकार कर दिया. सोनिया ने जहां अपनी बीमारी का बहाना बनाया, वहीं राहुल एक दिन पहले अचानक कैमरन के ही मुल्क ब्रिटेन की यात्रा पर निकल गये. आखिर ऐसा क्यों हुआ ?अभी हाल में महंगाई को लेकर भारतीय संसद में विपक्षी सांसद जोरदार हंगामा कर रहे थे और संसद में सोनिया के बयान की मांग की जा रही थी. मगर सोनिया उपलब्ध नहीं थीं. इसके पहले भोपाल गैस त्रासदी प्रकरण को लेकर बड़ा बवाल मचा. उनके स्वर्गीय पति पर गंभीर आरोप लगाये गये. भोपाल गैस त्रासदी के फैसले से ठीक पहले स्पेनिश लेखक जैवियर मोरो अपनी किताब द रेड साड़ी के विवाद को लेकर भारत पहुंचे थे. सोनिया गाधी के जीवन पर केंद्रित इस पुस्तक में कई विवादास्पद टिप्पणियां थीं. मगर इस पुस्तक पर दस जनपथ से कोई बयान जारी नहीं किया गया. मां-बेटों से अलग दिग्गज कांग्रेसियों की कार्य व बयान शैली को भी देखें. आपरेशन ग्रीन हंट को लेकर पार्टी के अंतर्विरोध बाहर आये, नक्सलवाद के खिलाफ सेना के इस्तेमाल पर दिग्विजय और चिदंबरम आमने-सामने हो गये. कामनवेल्थ को लेकर मणिशंकर अय्यर ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि के वक्त कांग्रेस संदेश के संपादक अनिल शास्त्री ने सोनिया से हस्तक्षेप की गुहार लगाई. मगर सानिया गांधी और उनके पुत्र खामोश रहे. दस जनपद सिर्फ कांग्रेस का ही नहीं हाल केे दौर में भारतीय राजनीति का मुख्य केेन्द्र है. इसकी चुप्पी इतनी सामान्य बात नहीं है. आखिर सरकार के कदम और मैडम सोनिया व बाबा राहुल के कदम आपस में कदम ताल क्यों नहीं कर रहे. इसी सिक्के का दूसरा पहलू अर्थात सरकारी पहलू भी देखें. यूपीए-2 के पुरोधा जिन्हें मालूम है कि उन्होंने यह कुर्सी इन्हीं दो लोगों के बदौलत पाई है, क्यों इनकी खोज खबर नहीं ले रहे? क्या यह साबित करने की कोशिश में जुट गये हैं कि सरकार को इन दोनों दिग्गजों के बैशाखी की जरूरत नहीं. सारे फैसले खुद लिये जा रहे हैं. चाहे आपरेशन ग्रीन हंट हो, पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि का मसला हो, पाकिस्तान के बातचीत के बिंदू हों या फिर मोदी से निपटने की स्ट्रैटजी. न तो किसी मसले पर उनसे सलाह ली जा रही है और न ही उनके स्टैंड का ख्याल रखा जा रहा है.यह जगजाहिर है कि माओवाद से निबटने और पेट्रोलियम पदार्थों का कीमतों को बाजार पर छोड़ देने के फैसलों के मामले में दोनों उन फैसलों के खिलाफ होते जो सरकार ने लिये. मगर इसके बावजूद सरकार ने ऐसे फैसले बेहिचक लिये. दिग्विजय, अनिल शास्त्री और मणिशंकर अय्यर जैसे नेता ने संभवत: यही सोचकर अपनी ही सरकार की नीतियों पर सवाल खड़े कर रहे हैं कि उन्हें सोनिया और राहुल का समर्थन मिलेगा. मगर सरकार बड़ी बेरहमी से इन्हें खामोश करने के तरीके तलाश रही है. इसका अर्थ कहीं यह तो नहीं कि कांग्रेस दो धड़े में बंट गयी है. मौजूदा सरकार में जिम्मेदार पदों पर काबिज कांग्रेसी हर हाल में सोनिया-राहुल जैसे वट वृक्षों की छाया से निकल कर अपना अस्तित्व साबित करने में जुट गयी लगती है. हालांकि अगर वाकई ऐसा हो रहा है और कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार की छत्र-छाया से निकल कर आत्म निर्भर होने की कोशिश में है तो इसे सकारात्मक संकेत के रूप में देखा जाना चाहिये. मगर यहां मामला अलग है. कांग्रेसी सोनिया-राहुल की छत्र-छाया से इसलिये बाहर नहीं निकल रहे कि वे आत्मनिर्भर होना चाहते हैं, बल्कि इसलिये यह कदम उठा रहे हैं, क्योंकि उन्हें कई जनविरोधी फैसले लेने हैं, जो वे सोनिया-राहुल के प्रभाव में रहते हुए नहीं ले सकते. चिदंबरम को खनिज संपन्न पूर्वी भारत को माओवादियों के कब्जे से मुक्त कराकर टाटा और जिंदल को सौंपना है. इस काम के लिये जरूरत हुई तो वे इन इलाकों में बमबारी तक करवाने में नहीं हिचकेंगे. और उन्हें मालूम है कि सोनिया या राहुल से उन्हें इस मसले पर समर्थन मिलने वाला नहीं. वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को बाजार की ताकतों को खुश करने के लिये कई ऐसे फैसले लेने हैं जो जनता में त्राहिमाम मचा सकते हैं. मनमोहन-मोंटक की अर्थशास्त्री जोड़ी का लक्ष्य वर्ल्ड बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश जैसी संस्थाओं की नीतियों को भारत में लागू करना है. दोनों इन्हीं बैंकों के पूर्व कर्मी रह चुके हैं. वैसे यूपीए-2 पर वर्ल्ड बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश के पूर्व कर्मियों का ही कब्जा है. सरकार ने जनोन्मुखी वाम दलों से पहले ही पीछा छुड़ा लिया है, अब वे अपनी पार्टी की जनोन्मुखी ताकतों को साइड करने में जुटे हैं, ताकि बाजारोन्मुखी फैसले लेने में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो. कहा यह भी जा रहा है कि सरकार को ऐसा शेप अमेरिकी प्रभाव में दिया जा रहा ताकि भारत सरकार पूरी तरह अमेरिकी पि_ू की तरह काम करे. लेकिन सबकुछ इतना आसान नहीं... मगर जो कुछ भी करने की कोशिश की जा रही है वह इतना आसान नहीं. सोनिया गांधी न तो महात्मा गांधी है जिन्होंने आजादी के बाद नेहरू-पटेल द्वारा साइड-लाइन किये जाने की बात चुप-चाप सह ली और साबित कर दिया कि उन्होंने सत्ता भोगने के लिये आजादी की लड़ाई नहीं लड़ी थी. सोनिया गांधी भारतीय राजनीति का वह किरदार है जिसने लगभग डूब चुकी कांग्रेस को ऐसी राजनीतिक शक्ति में तब्दील कर दिया जो आज अजेय लगने लगी है. अगर वह इस पार्टी के लिये ऐसा करिश्मा कर सकती है तो अपने पुत्र के राजनीतिक कैरियर के लिये जनता का रुख फिर से मोड़ सकती है. सरकार के आज क जन विराधी फैसले कहीं आने वाले चुनाव तक मौजूदा मनमोहनी सरकार के सर पर ही न बीतें. सोनिया और राहुल अपने साथ अपनी कांग्रेस लेकर इसी सरकार को कटघरे में न खड़ा कर दें. क्योंकि चिदंबरम जिस वेदांगता के लिए सब कुछ किए दे रहे थे उसे किसी और ने नहीं काली हांडी से राहुल गांधी ने खदेड़ामनमोहन यूं ही नक्सलियों को अपना नहीं कहने लगे हैं? मगर सोनिया उपलब्ध नहीं थीं. इसके पहले भोपाल गैस त्रासदी प्रकरण को लेकर बड़ा बवाल मचा. उनके स्वर्गीय पति पर गंभीर आरोप लगाये गये. भोपाल गैस त्रासदी के फैसले से ठीक पहले स्पेनिश लेखक जैवियर मोरो अपनी किताब द रेड साड़ी के विवाद को लेकर भारत पहुंचे थे. सोनिया गाधी के जीवन पर केंद्रित इस पुस्तक में कई विवादास्पद टिप्पणियां थीं. मगर इस पुस्तक पर दस जनपथ से कोई बयान जारी नहीं किया गया. मां-बेटों से अलग दिग्गज कांग्रेसियों की कार्य व बयान शैली को भी देखें. आपरेशन ग्रीन हंट को लेकर पार्टी के अंतर्विरोध बाहर आये, नक्सलवाद के खिलाफ सेना के इस्तेमाल पर दिग्विजय और चिदंबरम आमने-सामने हो गये. कामनवेल्थ को लेकर मणिशंकर अय्यर ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि के वक्त कांग्रेस संदेश के संपादक अनिल शास्त्री ने सोनिया से हस्तक्षेप की गुहार लगाई. मगर सानिया गांधी और उनके पुत्र खामोश रहे. दस जनपद सिर्फ कांग्रेस का ही नहीं हाल केे दौर में भारतीय राजनीति का मुख्य केेन्द्र है. इसकी चुप्पी इतनी सामान्य बात नहीं है. आखिर सरकार के कदम और मैडम सोनिया व बाबा राहुल के कदम आपस में कदम ताल क्यों नहीं कर रहे. इसी सिक्के का दूसरा पहलू अर्थात सरकारी पहलू भी देखें. यूपीए-2 के पुरोधा जिन्हें मालूम है कि उन्होंने यह कुर्सी इन्हीं दो लोगों के बदौलत पाई है, क्यों इनकी खोज खबर नहीं ले रहे? क्या यह साबित करने की कोशिश में जुट गये हैं कि सरकार को इन दोनों दिग्गजों के बैशाखी की जरूरत नहीं. सारे फैसले खुद लिये जा रहे हैं. चाहे आपरेशन ग्रीन हंट हो, पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि का मसला हो, पाकिस्तान के बातचीत के बिंदु हों या फिर मोदी से निपटने की स्ट्रैटजी. न तो किसी मसले पर उनसे सलाह ली जा रही है और न ही उनके स्टैंड का ख्याल रखा जा रहा है.यह जगजाहिर है कि माओवाद से निबटने और पेट्रोलियम पदार्थों का कीमतों को बाजार पर छोड़ देने के फैसलों के मामले में दोनों उन फैसलों के खिलाफ होते जो सरकार ने लिये. मगर इसके बावजूद सरकार ने ऐसे फैसले बेहिचक लिये. दिग्विजय, अनिल शास्त्री और मणिशंकर अय्यर जैसे नेता ने संभवत: यही सोचकर अपनी ही सरकार की नीतियों पर सवाल खड़े कर रहे हैं कि उन्हें सोनिया और राहुल का समर्थन मिलेगा. मगर सरकार बड़ी बेरहमी से इन्हें खामोश करने के तरीके तलाश रही है. इसका अर्थ कहीं यह तो नहीं कि कांग्रेस दो धड़ों में बंट गयी है. मौजूदा सरकार में जिम्मेदार पदों पर काबिज कांग्रेसी हर हाल में सोनिया-राहुल जैसे वट वृक्षों की छाया से निकल कर अपना अस्तित्व साबित करने में जुट गयी लगती हंै. हालांकि अगर वाकई ऐसा हो रहा है और कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार की छत्र-छाया से निकल कर आत्म निर्भर होने की कोशिश में हंै तो इसे सकारात्मक संकेत के रूप में देखा जाना चाहिये. मगर यहां मामला अलग है. कांग्रेसी सोनिया-राहुल की छत्र-छाया से इसलिये बाहर नहीं निकल रहे कि वे आत्मनिर्भर होना चाहते हैं, बल्कि इसलिये यह कदम उठा रहे हैं, क्योंकि उन्हें कई जनविरोधी फैसले लेने हैं, जो वे सोनिया-राहुल के प्रभाव में रहते हुए नहीं ले सकते. चिदंबरम को खनिज संपन्न पूर्वी भारत को माओवादियों के कब्जे से मुक्त कराकर टाटा और जिंदल को सौंपना है. इस काम के लिये जरूरत हुई तो वे इन इलाकों में बमबारी तक करवाने में नहीं हिचकेंगे. और उन्हें मालूम है कि सोनिया या राहुल से उन्हें इस मसले पर समर्थन मिलने वाला नहीं. वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को बाजार की ताकतों को खुश करने के लिये कई ऐसे फैसले लेने हैं जो जनता में त्राहिमाम मचा सकते हैं. मनमोहन-मोंटक की अर्थशास्त्री जोड़ी का लक्ष्य वर्ल्ड बैंक और अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं की नीतियों को भारत में लागू करना है. दोनों इन्हीं बैंकों के पूर्व कर्मी रह चुके हैं. वैसे यूपीए-2 पर वर्ल्ड बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक और अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व कर्मियों का ही कब्जा है. सरकार ने जनोन्मुखी वाम दलों से पहले ही पीछा छुड़ा लिया है, अब वे अपनी पार्टी की जनोन्मुखी ताकतों को साइड करने में जुटे हैं, ताकि बाजारोन्मुखी फैसले लेने में कोई व्यावधान उत्पन्न न हो. कहा यह भी जा रहा है कि सरकार को ऐसा शेप अमेरिकी प्रभाव में दिया जा रहा ताकि भारत सरकार पूरी तरह अमेरिकी पि_ू की तरह काम करे. लेकिन सबकुछ इतना आसान नहीं... मगर जो कुछ भी करने की कोशिश की जा रही है वह इतना आसान नहीं. सोनिया गांधी न तो महात्मा गांधी हंै जिन्होंने आजादी के बाद नेहरू-पटेल द्वारा साइड-लाइन किये जाने की बात चुप-चाप सह ली और साबित कर दिया कि उन्होंने सत्ता भोगने के लिये आजादी की लड़ाई नहीं लड़ी थी. सोनिया गांधी भारतीय राजनीति का वह किरदार है जिसने लगभग डूब चुकी कांग्रेस को ऐसी राजनीतिक शक्ति में तब्दील कर दिया जो आज अजेय लगने लगी है. अगर वह इस पार्टी के लिये ऐसा करिश्मा कर सकती है तो अपने पुत्र के राजनीतिक कैरियर के लिये जनता का रुख फिर से मोड़ सकती है. सरकार के आज के जन विराधी फैसले कहीं आने वाले चुनाव तक मौजूदा मनमोहनी सरकार के सर पर ही न बीतें. सोनिया और राहुल अपने साथ अपनी कांग्रेस लेकर इसी सरकार को कटघरे में न खड़ा कर दें. क्योंकि चिदंबरम जिस वेदांगता के लिए सब कुछ किए दे रहे थे उसे किसी और ने नहीं काली हांडी से राहुल गांधी ने खदेड़ामनमोहन यूं ही नक्सलियों को अपना नहीं कहने लगे हैं?1

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें