शनिवार, 30 अप्रैल 2011

नारद डाट काम

फटने का डर

लोग २१ मई की बात कर रहे हैं इनका मानना है कि इस तारीख को धरती फट जायेगी और इसी के साथ पूरी दुनिया का रामनाम सत्य होना है। बाकायदा इसके प्रचार के लिये होर्डिंग तक लग गये हैं। लोग दहशत में हैं, होना चाहिये भी। फटने का डर मानव जाति में जन्मजात होता है चाहे कुछ भी फटे लोगों को तकलीफ होती है। भविष्य बांचने वालों का मानना है कि १२ जून तक शनिदेव वक्री चल रहे हैं तब तक कुछ भी फट सकता है।
जेलों में माननीयों के लिये आरक्षण तक करवाना पड़ सकता है। ऐसी स्थिति भी आ सकती है कि चोर उचक्कों को थोक के भाव में जेल से बाहर का रास्ता दिखाया जाये। हालात भी कुछ ऐसे ही बन रहे हैं। राजा अन्दर गये तो सुरेश कलमांड़ी पहुंच गये तमाम  कारपोरेट सेक्टर के कारपोरेटर पहले से वहां आराम फरमा रहे हैं। शीला, मुन्नी जिसे देखो अन्दर जाने को बेताब हैं वो तो भला हो सीबीआई का कि अम्मा पर रहम आ गया। लेकिन अन्ना कहां मानना वाले हैं उनकी मंशा तो जेल में सड़वाने की है। दूसरों का कल बताने वालों की मानें तो १२ जून तक ऐसी फटाई होनी है कि कोई रफूगर रफू नहीं कर पायेगा। इन्हीं ग्रहों की दशा ने प्रेस क्लब में भी फटन पैदा कर दी है। मिश्र और लीबिया की तरह यहां भी लोकतंत्र की बहाली होने के आसार दिख रहे हैं। कुल मिलाकर इस फटन से कोई बच नहीं रहा है। इसलिये पूरी सावधानी अपेक्षित है। मैं तो बहुत पहले से इस फटन के शिकार हुये अपने शहर के एकलौते मंत्री के लिये दिल से दुखी था, अब सोंच-सोंच के घबरा रहा हूं कि पता नहीं अब किसका खतना होने वाला है। बेचारे किस्मत के मारे कचेहरी का चुनाव निपटा रहे हैं, डर है कहीं वहां भी फटन की इस क्रिया की चपेट में न आ जायें। मैं तो ठाकुर जी से यही विनती करता हूं कि भगवान सबको साबुत रखे चाहें दोस्त हो या दुश्मन।
पिता- बेटा! १२वीं पास करने के    बाद क्या इरादा है?
बेटा- बीसीए करने का मन है।
पिता- ये बीसीए क्या होता है?
बेटा- बाप की कमाई से ऐश।1

मार्शल का बाईस्कोप

भ्रष्टाचारी कनकैयाबाजी

अनुराग अवस्थी 'मार्शल'

देश, मनमोहनी सोनिया की मायावी साथियों के साथ भ्रष्टाचार और कालेधन, आय से अधिक सम्पत्ति पर मुलायम रवैय्ये आक्रोशित उद्विलत, उत्तेजित और उद्विग्न है।
ये सब ढील देकर पेेंच लड़ाया करते हैं किसी भी कानूनू का मंझा इतना मजबूत नहीं है  कि भ्रष्टाचार की पतंग को कन्ने से काट सके। एक कटती भी है तो इसे और ये इनके राजा-रानी खुद ही लूट कर दुबारा उड़ा देते है। देश की जनता इनकी लगातार उड़ती पतंगो को देख कर परेशान है। अब अन्ना का लंगर इनकी पतंगो को रोक पायेगा इस पर है सबकी निगाहे, लेकिन कुछ दिग्विजय राजा इन लगरों की ही कमजोर कर पतंगों के लगातार उडऩे की हवा तैयार कर रहे है।
ऊपर जब यह हाल है तो बीच वाले भी मौज मार रहे है। ए.सी कमरे में बैठकर नीचे डी सी पंखे की हवा से भी महस्म लोगों के लिए बनाने वालों के कानूनों ने व्यवहार किया है कि 'अंधेर नगरी बनाकर सब राजा मौज ही मौज कर हरे है
फर्जी पायजट प्लेन उड़ा रहे है पता

किसी को चल ही नहीं रहा है। एग्जाम के लिए तैयार पेपर गलत बन जा रहे हैं, लीक हो जा रहे है।
जो काम सुप्रीम कोर्ट नहीं कर सकता उसे ककवन गांव प्रधान बीडीओ ने कर दिखाया। गांव में कल १४९ बी पी एल थे, इनमें से कुछ मर चुके, कुछ गांव छोड़कर चले गये कुछ लखपति हो गये, स्वयं इसमे गांव प्रधान पति भी शामिल है। सूची छोटी नहीं हुई। इन्द्रा आवास के लिए ४५००० रुपये बाटने का नम्बर आया तो सूची २१८ की हो गयी। नीचे से ऊपर तक दस जगह दस्तखतख् सस्तूति होती हुई रुपया आ गया और बंटने लगा।
सी बी आई इन्क्वायरी की मांग पर सुप्रीम कोर्ट में रिट होती है और फैसला तीन-छ: और बारह महीने तक नहीं होता है। यही कारण है कि आरूषि हत्याकाण्ड में भी सबूत नहीं मिलते है।
वि.वि.के फार्मों पर हीरोइनों की फोटो चिपकी मिलती है। तब पता चलता है कि ठेके पर फार्म भरे जा रहे हैं।
बी.एड. का सेशन एक साल का होता है ले किन चार साल से एक्जाम ही नहीं हुए है। सेशन चल रहा है।
अब तो साफ हो गया है कि जिम्मेदारों की फौज 'अजगर करै न चाकरी पंक्षी करै'। को अपना मुल मंत्र बनाये है।
 जहां नजर डालिए या तो मुंगेरीलाल मिलेगें या नटवरलाल मुगेरीलाल ए सी कमरे में बैठकर नीति बना डालते है। उन्हें मालूम ही नहीं है कि जहंा इस योजना को लागू होना है वहां स्टाफ कितनी है, मौसम कैसा रहता है, दिक्कते क्या आती है।
व्यवहारिकता से कोसों दूर अपना मुंगेरी कल्पना की उड़ान मेें चावला को पीछे छोड़ता अपना मुंगेरी ११७० रु० में  गेंहू खरीदने का आदेश कर देता है और बेचारा किसान १०७० में आढ़ती को गेहूं  बेंचकर अपने घर जाता है। फिर यही आढ़ती सरकारी बोरों में गेहूँ  पैक कर ११७० रु० लें लेता है। कु छ दक्षिणा बांट देता है। सरकारी स्टाफ के नटवरलाल अपना काम पूरी इमानदारी से कर रहे है। जहां मौका मिले एक के तीन बना रहे है। नटवरलाल पुलिस प्रशासन न्यायपालिका आयकर पत्रकारिता एन जी ओ सभी क्षेत्रों में फैले हैं।
मुंगेरीलाल और नटवरलाल से बचाने के लिए देश में सरकार को अन्ना हजारे आयात  करने पड़ेगे। इतने अन्ना कहां से आयेंगे। अन्ना आयेंगे तो उनके साथ शान्ति भूषण किरन बेदी,  केजरीब ल कहां से लाये जायेंगे।
एक अन्ना और शान्तिभूषण पर ही ग्रहण लग रहे है। बाकी का क्या होगा। अब तो जरूरत इस बात की है कि हर आदमी को अपनी डयूटी खुद पूरी करनी पड़ेगी। उसे जन्म मृत्यु, आय जनगणना, पल्सपोलियो ड्राइविंग लाइसेन्स खुद जाकर बनवाने पडेगा।
अवैध कब्जा खुद हटाना होगा। वरना पहली बार के बाद दुबारा जुर्माना ५०० रुपये तिबारा और ज्यादा चौबारा ज्यादा। वरना चौराहे सड़कें जाम ही रहेंगी। सरकारी कब्जा हटाओ अभियान चलता ही रहेगा। गांवा में चकरोड कभी खाली नहीं होंगा।
जिम्मेदारी को मुगेंरीलाल और नटवरलाल बनने से रोकना पड़ेगा। वरना इस देश में हर जान जोन के बाद एक डिवाइडर बनेगा। एक सी बी आई इन्क्वायरी होगी, एक मंत्री इस्तीफा देगा। तब तो सड़क डिवाइडर बन जायेंगे सी बी आई के पास इतने मुकदमे होंगे जितने लेखपालों के पास १२२ बी की फाइलें और पूरा मंत्रीमण्डल जेल पहुंच जायेगा। देश और प्रदेश तब भी नहीं सुधरेगा।
 नियम कानून की जानकारी हर व्यक्ति  को दी जायेगी। फिर कानून का पालन हर आदमी के लिए अनिवार्य कर दिया जाये। कानून तोडऩे पर जुर्माना फिर कड़ी सजा।
तीसरे कानून का राज स्थापित करने की जिम्मेदारी जिनकी है इसके लिए हर महीने गांधी छाप की मोटी गड्डियां लेते हैं उनको हर्रा खोरी करने पर पहले वार्निंग फिर नुकसान की वसूली और फिर नौकरी से बाहर। कड़े कानून, कड़ाई से पालन उल्लघन पर कड़ा दण्ड। वरना सारे विश्व में हम भिखारियों और सांप का देश माने जाते थे, अब मुंगेरीलाल और  नटवरलाल का देश माने जाये।
और अंत में  
कलमाड़ी अन्दर, कनुमोझी का नम्बर, राजा बना है बन्दर, फिर भी एक-एक बेइमान सिकन्दर क्योंकि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और।1

चौथा कोना

फिरने लगा 'पानी' पर पानी
लगने लगी जंग पर 'जंग'

कानपुर प्रेस क्लब के चुनाव के लिये जारी जंग पर पानी भी फिरने लगा है और जंग भी लगनी शुरू हो गई है। जो लोग अन्तिम सांस तक प्रेस क्लब को अभंग देखना चाहते थे उसके पद और पदलाभ को अपनी बपौती मान बैठे थे, उन सारे के सारे लोगों ने धीरे-धीरे नयी कमेटी के चुनाव की बागडोर अपने हाथो में मैनेज कर ली है। जो युवा पत्रकार लोग परिवर्तन के लिये मुट्ठी  ताने थे वे हाथ खोलकर खारिज प्रेस क्लब के मठाधीशों से घुल मिल गये  लगते हैं। तभी तो तकरीबन पुरानी कमेटी ही सदस्यता सूची की जांच करेगी, पुरानी कमेटी ही तय करेगी कि चुनाव किसकी देख-रेख में होगा और पुरानी कमेटी ही यह भी बतायेगी कि पत्रकार कौन है और कौन नहीं...। और अगर ऐसा ही कुछ हुआ तो यह बदलाव केवल किसी बोतल के लेबल बदलने जैसा ही होगा... बस! न शराब बदलेगी और न ही बोतल...। वैसे भी यह बात पत्रकारों की कौम को खुद समझनी चाहिये कि जिन लोगों ने घोर अलोकतांत्रिक तरीके से कानपुर के समूचे पत्रकार जगत की भावनाओं को वर्षों चिढ़ाया और खिझाया है वही लोग अब नये लोकतंत्र की रचना करेंगे। सौरभ शुक्ला! यह नाम इस चुनाव में परिवर्तन का चेहरा बनकर उभरा है लेकिन अब उनका कहना है कि वह अकेले क्या कर सकते हैं? इसका सीधा सा अभिप्राय है कि उनकी भूमिका अब शिथिल है। उनकी बातचीत में 'यथास्थितिवाद' का पूरा पुट है। उनका कहना है कि जब अखबार की ओर से महेश शर्मा, सरस बाजपेयी, इरफान, राजेश द्विवेदी के नाम स्क्रीनिंगकमेटी के लिये भेजे गये हैं तो हम 'अखबार' से थोड़े ही लड़ सकते हैं...? वैसे मेरी जानकारी में स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यों को हिन्दुस्तान, अमर उजाला या दैनिक जागरण के बोर्ड आफ डायरेक्टरों ने अपना प्रतिनिधि घोषित नहीं किया है। रही बात अखबार से लडऩे या न लडऩे की तो इस मुगालते में भी किसी पत्रकार को नहीं होना चाहिये कि वह किसी अखबार से लड़ भी सकता है।  खुद पीछे पलट कर देखें... प्रेस क्लब के चुनाव हों... इसके लिये जब-जब शहर के युवा क्रान्तिकारियों से कहा गया तो सभी ने एक ही जवाब दिया- भैया! नौकरी बचाएं कि प्रेस क्लब की राजनीति करें। आखिर घर गृहस्थी और बीवी बच्चे भी तो हैं...। इन्हीं जवाबों के कारण ही मैंने हिन्दुस्तान, अमर उजाला, जागरण और राष्ट्रीय सहारा के सम्पादकों और प्रबन्धकों से सीधी बात की। सभी से निवेदन किया कि वे अपने अधीनस्थों में यह विश्वास जगाये कि प्रेस क्लब की सक्रियता से नौकरी या अखबार का कोई मतलब नहीं है। मैं समझता हूं जो बदलाव हुआ उसमें सभी अखबारों के उच्च पदस्थ लोगों की सहमति शामिल है। अब इस सहमति का मान-सम्मान बनाये रखना, उसे बढ़ाना और प्रेस क्लब की खोई प्रतिष्ठा को वापस लाना, किसी और का नहीं आम पत्रकारों का काम है। यह मौका है 'आत्मशुद्धि' का और इसके लिये मठों और उनके धीशों को धो-धाकर कोने में खड़ा करना होगा।
सरस बाजपेयी, महेश शर्मा, राजेश द्विवेदी, इरफान, कवीन्द्र  कुमार, इन सभी लोगों पर समय से चुनाव न होने का दोष है। फिर ये लोग नये चुनाव कराने के अधिकारी कैसे हो सकते हैं। ये चुनाव लड़ तो सकते हैं लेकिन चुनाव करा कैसे सकते हैं। 'चुनाव आयोगÓ की संरचना ध्यान में होनी चाहिये। क्या सत्ताधारी दल कभी चुनाव आयोग की भूमिका अदा कर सकता है...? या तो चुनाव संचालन में शामिल  लोग चुनाव न लडऩे का फैसला करें... या फिर चुनाव लडऩा है तो चुनाव संचालन की प्रक्रिया से खुद को अलग रखें। खुद सोचिये! अगर कानून बनाने वाले, अपराध करने वाले और फैसला सुनाने वाले चेहरे एक ही हैं तो प्रेस क्लब के नाम पर न्याय और सच्चाई का इतना तूफान क्यों ... और अगर ऐसा ही फेने वाला तूफान उठाना था तो मेरे जैसे किनारे खड़े पत्रकार को बीच में लाने की आवश्यकता ही क्या थी...?
वैसे मैं अनावश्यक ही खुद को बीच में समझ रहा हूं। सच बात तो ये हैं कि जब तक कमेटी भंग नहीं हुई क्रान्तिकारियों ने मुझे पल-पल की खबर दी और राय मशविरा किया। जैसे ही कमेटी भंग हुई उसके बाद क्या चल रहा है इसकी जानकारी देना किसी ने भी मुनासिब नहीं समझा...।  खैर! कोई बात नहीं...
मैं झूम के गाता हूं
कमजर्फ जमाने में,
इक आग लगा ली है
इक आग बुझाने में।
यह कहने वाला भी तो मैं ही हूं।1
          प्रमोद तिवारी

खरीबात

कसी मुट्ठी पसर गयी

आमसभा के दबाव में विवादित ९ बरस पुरानी असंवैधानिक प्रेस क्लब की कमेटी ने चुनाव तो घोषित कर दिये लेकिन घोषणा के तुरन्त बाद चुनाव प्रक्रिया को खास लोगों के हाथों का खिलौना बना दिया। कमाल की बात तो यह है कि चुनाव के नाम पर प्रतीक्षित चुनाव प्रक्रिया उन्हीं के हाथों में सौंप दी गई है जो कि चुनाव पक्ष में नहीं थे। मौजूदा सीन क्या है। $जरा ये देखिये।
१७ अप्रैल को प्रेस क्लब कार्यकारिणी की बैठक में २३ अप्रैल तक ग्यारह सदस्यीय कार्यकारिणी बना कर सारी औपचारिकताएं पूरी करने के साथ ही १ जुलाई को प्रेस क्लब का चुनाव कराने  का निर्णय लिया गया था। कार्यकारिणी के लिये सदस्यों के निर्धारण की जिम्मेदारी महेश शर्मा और राजेश नाथ अग्रवाल को सौंपी गयी। महेश शर्मा और राजेश अग्रवाल को शहर के सभी अखबार समूहों और चैनलों के संचालकों मालिकों या सम्पादकों से मिल कर उनसे एक-एक नाम की स्वीकरोक्ति लेनी थी। १७ तारीख को हुए इस फैसले के बाद प्रेस क्लब चुनाव कराने को आतुर सभी बदलाव के पक्षधर पत्रकार आश्वस्त थे कि २३ अप्रैल तक कार्यकारिणी सदस्यों का निर्धारण कर लिया जायेगा।
खैर २३ अप्रैल का दिन भी आ गया इस दिन सौरभ शुक्ल, गजेन्द्र सिंह, मनोज शर्मा, आदित्य द्विवेदी और नीरू मिश्र, सुनील गुप्ता, कवीन्द्र शर्मा, प्रदीप दीक्षित, इरफान, महेश शर्मा,राजेश अग्रवाल सहित इक्का-दुक्का और पत्रकार भी प्रेस क्लब पहुंचे। एक बार फिर चुनाव कराने  न कराने की मंशा सबके सामने आई। महेश शर्मा और राजेश अग्रवाल को जिस ग्यारह सदस्यीय कार्यकारिणी को बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी वह उस दिन तक बनी ही नहीं थी।
दरअसल ये दोनों ही लोग उस दिन तक किसी अखबार या चैनल के आफिस गये ही नहीं थे। कार्यकारिणी तो २३ अप्रैल को भी शायद ही बन पाती अगर वहां मौजूद युवा पत्रकारों ने इसे बनाने के लिये जिद न पकड़ी होती। खैर जैसे-तैसे वहां मौजूद लोगों ने ही कार्यकारिणी के लिये हर अखबार और चैनल से एक-एक नाम बताये। सभी के दफ्तरों में फोन से ही सम्पर्क किया गया और सहमति या असहमति जानी गयी और ग्यारह लोगों की कार्यकारिणी बनायी गयी। जिसमें  सरस बाजपेयी (दैनिक जागरण), आदित्य द्विवेदी (राष्ट्रीय सहारा), इरफान (उर्दू समाचार पत्रों की तरफ से), अनिल त्रिवेदी (स्वतंत्र भारत), अमित गंजू (ई.टीवी), महेश शर्मा (अमर उजाला), आर.एन. अग्रवाल (जी.न्यूज), राजीव सक्सेना (जन सन्देश), राजेश द्विवेदी (हिन्दुस्तान), धमेन्द्र मिश्र (दैनिक आज), प्रदीप दीक्षित (पाइनियर) शामिल किये गये।
इस कमेटी के बनने के बाद तय किया गया है कि मई के पहले हफ्ते में कार्यकारिणी की अगली बैठक होगी और उसी में प्रेस क्लब चुनाव के लिये पत्रकारों को सदस्य बनाने की अग्रिम प्रक्रियाशुरू की जायेगी। कार्यकारिणी का काम यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी अखबार या चैनल से जो नाम आये हैं वह सम्पादकीय विभाग से ही हैं अखबार या चैनल के अन्य विभागों से नहीं।
इस ग्यारह सदस्यीय कार्यकारिणी ने कवीन्द्र शर्मा को चुनाव अधिकारी नियुक्त किया है। इस बीच प्रेस क्लब में यह भी चख-चख मची है कि अभी तक चुनाव प्रक्रिया में इलेक्ट्रानिक चैनल के पत्रकारों को शामिल नहीं किया गया था तो इस बार क्यों शामिल किया गया है। हालांकि इस चख-चख को फिलहाल गुरुओं ने यह कह कर खारिज कर दिया है कि पहले चुनाव की बाकी तैयारियां हो जायें यह सब बाद में सोंचा जायेगा।
मजेदार बात यह है कि नयी ग्यारह सदस्यीय कार्यकारिणी में शामिल सरस बाजपेयी, इरफान, महेश शर्मा, राजेश द्विवेदी सहित चुनाव अधिकारी कवीन्द्र शर्मा खारिज करे जा चुकी प्रेस क्लब कमेटी के पदाधिकारी हैं।
इस कमेटी के नौ साल डटे रहने के दौरान इन लोगों की निष्पक्षता तो कभी नजर नहीं आयी क्योंकि यदि निष्पक्षता होती तो कमेटी के नौ साल पूरे न हो पाते। चुनाव न जाने कब के हो गये होते। खैर जो भी हो फिलहाल तो इसी कमेटी और नये चुनाव अधिकारी से ही निष्पक्षता की उम्मीद की जा रही है आगे की आगे देखी जायेगी।1
शैली दुबे

ऐसे निभाई जिम्मेदारों ने अपनी जिम्मेदारी

जिले में तैनात लोक सेवकों का दायित्व है कि उनके रहते कानून का अक्षरश: पालन हो और जिले में हर तरह से शान्ति और विकास का राज कायम रहे। शहर में प्रतिबन्ध के बाद भी धड़ल्ले से बिक रहे पान मसाला के कागजी पाउचों के सम्बन्ध में जिले का हर छोटे से लेकर बड़ा जिम्मेदार अधिकारी लगता है या तो अनभिज्ञ है या फिर जानबूझ कर कानून के साथ खुले आम हो रहे इस खिलवाड़ से अपना मुंह फेरे हुये है।

किसी भी जिले में कानून व्यवस्था को लागू करने की अहम जिम्मेदारी जिला प्रशासन की होती है। जिलाधिकारी, उपजिलाधिकारियों, वरिष्ठ पुलिस कप्तान, पुलिस कप्तान सहित जिले में तैनात लोक सेवकों का दायित्व है कि उनके रहते कानून का अक्षरश: पालन हो और जिले में हर तरह से शान्ति और विकास का राज कायम रहे। शहर में प्रतिबन्ध के बाद भी धड़ल्ले से बिक रहे पान मसाला के कागजी पाउचों के सम्बन्ध में जिले का हर छोटे से लेकर बड़ा जिम्मेदार अधिकारी लगता है या तो अनभिज्ञ है या फिर जानबूझ कर कानून के साथ खुले आम हो रहे इस खिलवाड़ से अपना मुंह फेरे हुये है। कानून के पालन, शान्ति और विकास के समीकरण का बिगड़ा रूप आज शहर के सामने है। सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेश के बिना मसाला पाउच की बिक्री विकास कर रही है कानून और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन हो रहा है और सभी प्रशासनिक अधिकारी शान्त हैं। आइये देखते हैं इस पूरे मामले में कौन सा जिम्मेदार अधिकारी क्या कहता है।
नगर आयुक्त आर.विक्रम सिंह- १ मार्च को सिटी मजिस्ट्रेट की तरफ से माननीय सर्वोच्च न्यायालय का पान मसाले के प्लास्टिक पाउचों पर प्रतिबन्ध लगाने का आदेश मिला था। पान मसाला के प्लास्टिक पाउचों के खिलाफ अभियान चलाया गया था। काफी पाउच जब्त किये गये थे। उसके बाद से इस सम्बन्ध में कोई नया आदेश किसी की तरफ से नहीं आया। आयेगा तो कार्यवाही की जायेगी। जहां तक बात है कागज के पाउच में पान मसाला बिकने की तो इसके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है।

एडीए सिटी शैलेन्द्र सिंह- इस सम्बन्ध में मेरे पास कोई नया आदेश नहीं आया है। जहां तक बात है पान-मसाला के कागज के पाउचों और उनको अधिकतम खुदरा मूल्य से ज्यादा पर बेचने की तो इस सम्बन्ध में मुझे न तो कोई जानकारी है और न ही कोई शिकायत ही अब तक आयी है। अगर बात सही है तो कार्यवाही की जायेगी।

एडीएम आपूर्ति अखिलेश कुमार मिश्र-  इस सम्बन्ध में मेरे पास कोई भी नया पुराना आदेश नहीं आया है और न ही मसाले के प्लास्टिक पाउचों को बेचने से रोकना मेरे अधिकार क्षेत्र में। जहां तक बात है इन नये कागजी पाउचों को अधिकतम खुदरा मूल्य से ज्यादा कीमत पर बेचने से रोकने की तो यह भी मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं है।

जिला प्रदूषण नियंत्रण अधिकारी राधेश्याम- मुझे इस बात की तो जानकारी नहीं है कि एल्यूमिनियम की लेयर चढ़े पान-मसाला के पाउच बिक रहे हैं या नहीं। फिलहाल तीन कम्पनियों त्रिमूर्ति फ्रेगरेन्स प्राइवेट लिमिटेड (शिखर पान-मसाला), के.के. टुबेको प्राइवेट लिमिटेड (आशिकी पान-मसाला), ए.जे. पान प्राइवेट लिमिटेड के कागज पाउचों के सैम्पल लैब टेस्टिंग के लिये लखनऊ भेजे गये हैं जिनकी रिपोर्ट अभी नहीं आयी है। दो और कम्पनियों केसर पान-मसाला और पान पराग पान-मसाला के सैम्पल पाउच भी आये हैं इन दोनों को भी सैम्पल टेस्टिंग के लिये भेजा जाना है। मानक के अनुसार कागज पाउच पर ०.०३ मिली माक्रोन से ज्यादा मोटी एल्यूमिनियम की पर्त नहीं होनी चाहिये। अन्यथा इससे जल प्रदूषण का भी खतरा बढ़ेगा।

कानपुर मण्डलायुक्त पी.के. महान्ती- माननीय सर्वोच्च न्यायालय के पान-मसाला के प्लास्टिक पाउचों पर लगाये गये प्रतिबन्ध के आदेश के बाद इस संदर्भ में अब तक कोई भी नया आदेश नहीं आया है। कागज पाउचों पर भी प्रतिबन्ध होने की जानकारी मुझे नहीं है। अगर प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड कह रहा है कि इन कागजी पाउचों पर चढ़ी एल्यूमीनियम की पर्त का कोई मानक है और यदि इन पाउचों को प्रदूषण बोर्ड ने स्वीकृत नहीं किया है तो इस तरह के कागज के पाउचों को भी नहीं बिकने दिया जायगा। रही बात इन पाउचों को अधिकतम खुदरा मूल्य से ज्यादा में बेचने की तो यह बात बाद की है। पहले तो यह पता करना है कि प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड की अनुमति के बिना इस  तरह के पान मसाले के पाउच बिक ही कैसे रहे हैं। पूरा मामला देखूंगा। हर स्थिति में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का अक्षरश: पालन किया जायेगा।

जिलाधिकारी हरिओम- इस सम्बन्ध में कानपुर के जिलाधिकारी डा. हरिओम से करीब ७-८ दिनों तक लगातार सम्पर्क करने का प्रयास किया गया। उनके आफिस जाकर और उनके आवास जाकर भी। रोजाना दर्जनों बार उनके सीयूजी नम्बर पर फोन भी किये गये पर फोन नहीं उठा। इसके बाद इस पूरे मामले के सम्बन्ध में विस्तृत एसएमएस लिख कर भी उनके मोबाइल पर भेजा गया लेकिन उसका भी कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला। लगता है जिलाधिकारी महोदय अति व्यस्त है होना भी चाहिये। पूरा शहर खुदा पड़ा है, सारी नागरिक व्यवस्थायें चौपट हैं। नागरिक व्यवस्थाओं का एक भी कोना दुरुस्त नहीं है पर शहर के जिलाधिकारी व्यस्त हैं कौन से आवश्यक कार्यों में ये तो वे ही जानें पर शहर में पान-मसाला बिना प्रदूषण नियंत्रण से स्वीकृत कागज पर एल्यूमिनियम की परत चढ़ी पैकिंग में बिक रहा है। इसे रोकने की सबसे पहली जिम्मेदारी कायदे से जिलाधिकारी को ही बनती है। पर ऐसा क्यों नहीं हो रहा है इस प्रश्न का जवाब स्वयं जिलाधिकारी महोदय ही दे   सकते हैं।

वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक राजेश राय- पान-मसाला  के प्लास्टिक पाउचों की बिक्री पर प्रतिबन्ध लगाने के सम्बन्ध में माननीय सुप्रीम कोर्ट का अब तक कोई भी आदेश मुझे नहीं मिला है। वैसे यह काम नगर निगम के स्वास्थ्य विभाग का और जिलाप्रशासन का है पुलिस का नहीं। अगर स्थानीय प्रशासन और नगर निगम इस सन्दर्भ में पुलिस महकमे से कोई सहायता मांगेगा तो जरूर की जायेगी।1

कवर स्टोरी

व्यवस्था पर मसाले की पीक
मुख्य संवाददाता 
 
अफसरशाही आम नागरिकों से तो उम्मीद करती है कि सभी लोग कानून का पालन करें और न्यायालयों के आदेशों को मानें पर क्या अफसरशाही खुद ऐसा करती है? शायद नहीं। शहर में आजकल खुले आम न्यायालय के आदेशों की वह भी माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अवहेलना की जा रही है। पर पूरी की पूरी अफसरशाहों की फौज मौन है। सब हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं।

सरकार का दावा है हर जगह कानून का राज है। सारी व्यवस्थाएं ठीक हैं। संवैधानिक कानूनों का पालन हो रहा है। न्यायालय सरकार की इस थोथी बयानबाजी से असहमत है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि क्या न्यायालय की यह असहमत सोच गलत है तो इसका जवाब है बिल्कुल नहीं। दरअसल न्यायालय का तमाम सरकारी दावों पर असहमत होना बिल्कुल सही है जायज है। हालांकि इस असहमति के विचार की जनक पूरी तरह से सरकार नहीं बल्कि काफी हद तक सरकारी मशीनरी है। अफसरशाही आम नागरिकों से तो उम्मीद करती है कि सभी लोग कानून का पालन करें और न्यायालयों के आदेशों को मानें पर क्या अफसरशाही खुद ऐसा कर रही है? शायद नहीं। शहर में आजकल खुले आम न्यायालय के आदेशों की वह भी माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अवहेलना कर पान मसाला बिक रहा है। पर पूरी की पूरी अफसरशाहों की फौज मौन है। सब हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। १७ फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस जी.एस. सिंघवी और ए.के. गांगुली की पीठ ने पान-मसाला गुटखा के प्लास्टिक पाउचों के सम्बन्ध में एक आदेश जारी किया। इस आदेश के  तहत एक मार्च से पूरे देश में पान-मसाला के पाउचों की बिक्री पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। इस प्रतिबन्ध को लागू करने की जिम्मेदारी जिला प्रशासन की थी। आदेश में स्पष्ट था कि बिक्री पर प्रतिबन्ध केवल प्लास्टिक पाउचों पर है। भविष्य में मसाला प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से स्वीकृति वैकल्पिक पाउचों में ही बेचा जा सकेगा। इस प्रतिबन्धात्मक आदेश के बाद भी शहर में चोरी छिपे प्लास्टिक पाउचों में मसाला की बिक्री जारी रही। उस दौरान कुछ पान-मसाला निर्माताओं ने दफ्ती की डिब्बी में मसाला बेचना शुरू भी किया लेकिन प्रशासन ने उसे भी नहीं बिकने दिया। प्रतिबन्ध लगने के पन्द्रह दिन बाद ही तमाम कम्पनियों ने एल्यूमिनियम लेयर वाले कागजी पाउचों में पान-मसाला पैक कर बेचना शुरू कर दिया। शुरुआत में तो ये पाउच लुका-छिपा कर बेचे गये लेकिन पिछले करीब एक महीने से इन कागजी पाउचों में पान-मसाला खुले आम बिक रहा है। वह भी खुदरा मूल्य से ज्यादा कीमत पर। यानी कि एक साथ दोहरे कानूनों का उल्लंघन हो रहा है। पहला है सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना का और दूसरा उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का। लेकिन जिले का हर प्रशासनिक अधिकारी एक ही बात कह रहा है कि न तो मसाला बिक्री पर प्रतिबन्ध हटाने का कोई नया अदालती आदेश ही मिला है और न ही मसाला बेचे जाने के बारे में कोई जानकारी ही है।
ये वाकई कमाल की बात है कि जिस शहर में के अधिकांश सरकारी दफ्तरों के भवन पान-मसाले की पीक से रंगे पड़े हों उन्हीं दफ्तरों में जाकर अपना काम करने वाले अधिकारी इस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं। दरअसल अधिकांश प्रशासनिक अधिकारियों को यह पता है कि शहर में पान-मसाला बेचा जा रहा है वह भी बिना स्वीकृति पाउचों में। पर मामला सर्वोच्च न्यायालय से जुड़ा है इसलिये हर अधिकारी इस बारे में अनभिज्ञता जता कर बस अपना पल्ला झाडऩे की फिराक में है बस। कुछ भी प्रशासनिक अधिकारी इस मामले में कुछ भी तर्क दें पर यह भी सच है कि इस तरह सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को न मानने का अपराध तो हो ही रहा है और इसके लिये पाउच बनाने वाले मसाला निर्माता, बेचने वाले दुकानदार, खरीदने वाले उपभोक्ता और सब कुछ देख कर अनदेखा करने वाले शहर के प्रशासनिक अधिकारी सभी दोषी हैं।1

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

नारद डाट कॉम

अण्णा मत बनना भाई

इन दिनों पूरे देश में अण्णा बनने की बहार छाई हुई है जिसे देखो भ्रष्टाचार के पीछे बिना नहाये धोये पड़ा है। शहर के भी कुछ लोग सरक गये हैं ऐसे ही कुछ लोग आरटीओ आफिस पहुंच गये। बेचारों का तम्बू गडऩे से पहले उखड़ गया। बिछा-बिछा के इतना मारे गये कि अन्दर तक का पलस्तर उखड़ गया। भैया किसी के पेट पर लात मारोगे तो यही गति होनी है अगर लोग घर द्वार जान गये तो वहां तक हजामत बनाने पहुंच जायेंगे। ऐसे में थोड़ा संभलकर चलने की दरकार है। अण्णा की तो कट गई उनके पीछे खोपड़ी मुड़वाने वाला तक नहीं है उन्हें काहे की चिन्ता है। धोती कुर्ता झाड़ के पूरे देश को दुखी किये हैं। प्रधानमंत्री तक परेशान हैं, सोनिया जी भी दुखी हैं, दुखी तो राजा भी है बेकार स्पेक्ट्रम के लफड़े में फंस गया। शहर के बड़े ज्योतिषियों का मानना है कि अण्णा के ग्रह और लक्षण दोनों ही ठीक नहीं है जो भी इनके पास रहेगा लफड़े में फंस जायेगा। शान्तीभूषण को ही देख लीजिये। आराम से कम्बल ओढ़ के देशी घी पेल रहे थे वो भी सपरिवार। इनके पास आते ही छूत लग गई। लोग पतलून उतारने पर उतर आये हैं अब तो कच्छा तक शरीर से जुदा होने की नौबत है। खुद तो लपेटे में आ गये और लौंडा भी लपेटे में हैं। कुल मिलाकर तबियत ठीक नहीं है। अण्णा इस परिवार के लिये तो स्वाइन फ्लू से ज्यादा खतरनाक बन गये हैं। मेरी राय अगर अरविन्द केजरीवाल मान लें तो उनकी सेहत के लिये मुफीद रहेगा। जवानी के दिन हैं मौज मस्ती करो कहां इन 'एक्सपाइरी डेट लोगों के लफड़े में फंस रहे हो। इनके बस का कुछ नहीं है। हसनअली के इस देश में इनकी बिसात ही क्या है? लखनऊ वाले सड़क मिजाज अफसर विजय शंकर पाण्डे को ही देख लीजिये, सपरिवार निपट गये। ये भी भ्रष्टाचारियों की मुखालफत गदर टाइम से कर रहे हैं। मैंने अपनी बात आप लोगों को उदाहरण सहित समझाने की कोशिश की है, समय से खोपड़ी में पैबस्त कर लीजिये तो ठीक है वर्ना शान्ति भूषण बनने को तैयार हो जाइये।
सौदा
पहला बेटा- पिता जी मेरी गर्लफ्रेंड प्रेगनेंट हो गयी है। एक लाख मांग रही है। पिता जी ने जोरदार कन्टाप मारा और एक लाख दे दिये।
दूसरा बेटा- मेरी भी प्रेगनेंट हो गई है दो लाख मांग रही है। पिता जी ने लात घूसों से मारा और रुपये दे दिये।
कुछ समय बाद
बेटी-डैडी मैं प्रेगनेंट हो गई हूं। डैडी ने गले से लगाया और कहा अब तो कमाई का टाइम आया है।1

जनता के साथ जनजागरण अभियान

भ्रष्टाचार से लडाई के अभियान के प्रणेता च्अन्ना हजारेज् और उनके साथ डा. किरण बेदी, अरविन्द केजरीवाल, स्वामी अग्निवेश और प्रशांत भूषण देश-व्यापी जन-जागरण के लिये जनता के बीच जा कर और जनता के सहयोग से 29 अप्रैल वाराणसी से अपना प्रथम चरण का  अभियान प्रारम्भ कर रहे हैं। 
 
जैसा कि सभी को मालूम हैं, रेमन मैग्सेसे पुरुस्कार प्राप्त विख्यात समाजसेवी एवं वर्तमान में भ्रष्टाचार से लडाई के अभियान के प्रणेता च्अन्ना हजारेज् और उनके साथ डा. किरण बेदी, अरविन्द केजरीवाल , स्वामी अग्निवेश  और प्रशांत भूषण देश-व्यापी जन-जागरण के लिये जनता के बीच जा कर और जनता के सहयोग से 29  अप्रैल वाराणसी से अपना प्रथम चरण का  अभियान प्रारम्भ कर रहे हैं। इस अभियान के माध्यम से ये सभी लोग आम जनता के साथ सीधे संवाद स्थापित करेंगे जिसमें आम जनता को च्जन लोकपाल बिल ज् के उद्देश्य और आवश्यकता के बारे में विस्तार से बताया जायेगा। साथ ही आम-जनमानस के मनोमस्तिष्क में इस बिल के बारे में व्याप्त भ्रांतियों को भी दूर किया जायेगा।  इस जन जुड़ाव और जनसम्पर्क का एक और पहलू यह भी है कि इसके माध्यम से आम लोगों के लोकपाल विधेयक के सम्बंध में जुड़े नजरियों से भी रूबरू होने का मौका मिलेगा और इस तरह से तमाम नये विचार भी सामने आयेंगे जो कि आगे भविष्य में काफी लाभदायक साबित हो सकते हैं। केंद्र सरकार की इस बिल के निर्माण में लायी जाने वाली रुकावटों को भी जनता के समक्ष उजागर किया जाएगा। इस यात्रा  में 30 अप्रैल को सुल्तानपुर में उनका दूसरा पड़ाव होगा। 1  मई को वे सभी लखनऊ में झूले लाल पार्क, धरना स्थल पर सायं 5  बजे जनता के मध्य होंगे। कानपुर नगर, कानपुर देहात और आस-पास के जिलों की जनता और समाजसेवी संगठनों से अनुरोध है की वे अधिकतम संख्या में 1 मई को लखनऊ पहुंचकर सायं 5  बजे की सभा में अपनी बहुमूल्य उपस्थिति दर्ज कराएं और इस च्महा अभियानज् में अपना योगदान करें।                     
 हालसी रोड में च्इंडिया अगेंस्ट करप्शनज् आन्दोलन की बैठक में केंद्रीय टीम के इस सन्देश को बताते हुए अशोक जैन बताते है च्अन्ना के इस आन्दोलन के बहाने आम जनता के भ्रष्टाचार विरोधी रुख को केंद्र और राज्यों की सरकार ने महसूस कर लिया है। अब वो दिन दूर नहीं जब ये बिल लागू हो। इस बिल के माध्यम से निरंकुश और भ्रस्ट राजनैतिक कार्यप्रणाली को नियंत्रित किया जा सकेगा।ज् बैठक में आये लोगों को धन्यवाद  देते हुए श्री जैन ने आन्दोलन के अगले कदम को मजबूती से रखने का सन्देश दिया।  बैठक में अशोक जैन,शालिनी कपूर,राहुल मित्तल, गौरव, नलिन मिश्र, ओमेन्द्र भारत, सुमंत मिश्र आदि प्रतिष्ठित समाजसेविओं ने भाग लिया।
                 अरविन्द त्रिपाठी

चौथा कोना

अभी काम पूरा नहीं हुआ है


अगर प्रेस क्लब को वाकई अनीतियों व पुरानी कब्जे की बीमारी से उबारना है तो आम पत्रकारों को चुनाव की नकेल अपने हाथ में लेनी होगी। जो लोग कल तक चुनाव न कराने की गोटें बिछा रहे थे अब आप अगर उन्हें नये चुनाव की गोटें सजाने का अवसर देंगे तो यह बदलाव भी एक छद्म परिवर्तन से आगे नहीं बढ़ेगा। इसलिये भंग चुनाव समिति का एक भी सदस्य चुनाव प्रक्रिया में शामिल नहीं होना चाहिये। अगर ऐसा हुआ तो समझो चेहरे बदलकर नयी षडय़ंत्री समिति अंगड़ाई ले रही है।

लगभग ९ बरस बाद कानपुर प्रेस क्लब नीयतखोर कार्य समिति के चंगुल से मुक्त हुआ। परिवर्तन के पक्षधर कुछ पत्रकारों ने हिम्मत दिखाई और खुद को अजेय समझने वाले मठाधीशों को पलक झपकते  औंधा कर दिया। एक जुलाई को नये चुनाव घोषित हुये हैं। प्रेस क्लब से मेरा सीधा नाता रहा है। मेरे ही महामंत्रित्व काल में इस मंच ने प्रेस क्लब का पुनरुद्धार कराया और 'पत्रकारपुरम आवासीय योजना को मूर्त रूप दिया।
मैं जब महामंत्री बना इसके पहले की समिति भी वर्षों से हमारे बुजुर्ग पत्रकारों के नेतृत्व में काम कर रही थी। चुनाव तब भी अटके हुये थे। समय पर नहीं हो रहे थे। उन दिनों मैं जागरण का मुख्य संवाददाता हुआ करता था और चुनाव कराने में मैंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। शैलेन्द्र दीक्षित 'आज के  सम्पादक थे और पूर्णत: मेरे साथ थे। इतना गहरा सम्बन्ध होने के बावजूद आज मेरा प्रेस क्लब से नाता इसलिये नहीं है क्योंकि जो समिति अभी तक काबिज थी उसने मुझे प्रेस क्लब का सदस्य होना भी स्वीकार नहीं किया था। यह वह समिति थी जिसके अध्यक्ष से लेकर कार्यकारिणी के कई सदस्य तक मेरे साथ, मेरे नेतृत्व में मेरे विश्वासपात्र बनकर वर्षों से पत्रकारिता कर रहे थे। कुछ तो इनमें ऐसे थे( थे क्या..., हैं...) जब सामने पड़ते हैं तो आज भी कहते हैं कि उनकी कुल पत्रकारिता की हैसियत मेरी ही वजह से है। ये वे लोग हैं जो शायद मुझे इस धरती का सबसे मूर्ख व्यक्ति समझते हैं। मैं कानपुर के प्रेसक्लबिया पत्रकारों और उनकी राजनीति के बारे में क्या कहूं। खुद सोचिये जिस महामंत्री से हिसाब लेना था, चार्ज लेना था उसे सदस्य तक नहीं बनाया। मुझे सदस्य न बनाने का आधार बनाया गया मेरी तत्कालीन बेरोजगारी। मैं उन दिनों किसी अखबार में नौकरी नहीं कर रहा था। कितना बचकाना और षडय़ंत्री 'क्लाज बनाया था इन लोगों ने जबकि दिलीप शुक्ला, कमलेश त्रिपाठी, अम्बरीष, विष्णु त्रिपाठी सरीखे कितने ही गैर नौकरी वाले पत्रकार उक्त चुनाव प्रक्रिया में निर्णायक भूमिका अदा कर रहे थे। सच कहूं... दो हजार दो से पहले जो भी पत्रकार मेरे दोस्त भाई या हितैषी बने फिरते थे। प्रेस क्लब के गत चुनाव के बाद मैंने उनकी दिली रिश्तों की फाइल बंद कर दी है। अब चूंकि यहीं रहना है इसलिए व्यवहार में सभी से मिलना जुलना रहता है... बस। हां, इधर जो नये युवा पत्रकार मैदान में आये हैं, मेरा सरोकार उन्हीं से है। और यह परिवर्तन किन्हीं पुराने, वरिष्ठों या क्रान्तिकारियों की वजह से नहीं हुआ है।  नये युवा पत्रकारों की अकुलाहट से हुआ है।
   तो नये मित्रों तुम्हारे लिये मेरा एक खुला सन्देश है- तुम्हें सजग रहना है। क्योंकि भ्रष्ट, अकर्मण्य और डरे हुये वरिष्ठ अभी भी अपना जाल बुनना बन्द नहीं करेंगे। वे फिर से नये मुखौटों से प्रेस क्लब पर अपना कब्जा रखने का षडय़ंत्र रचेंगे।  क्योंकि प्रेस क्लब आर्थिक भ्रष्टाचार का पुराना व स्थापित अड्डा रहा है और आज भी है। कोशिश होगी, बोतल बदले, शराब नहीं। तभी तो आम सभा के डर से कार्यसमिति ने अपने घुटने टेक कर नये चुनाव की घोषणा की। इसका सीधा सा अर्थ है कि नये चुनाव की प्रक्रिया का निर्धारण आम पत्रकारों से नहीं होगा।
इसे वही लोग अंजाम देंगे जो या तो इस समिति में काबिज थे या फिर इतने डरपोक और उदासीन कि ९ बरस तक चुपचाप 'प्रेस क्लब का भ्रष्ट आचार सहते रहे। अगर प्रेस क्लब को वाकई अनीतियों व पुरानी कब्जे की बीमारी से उबारना है तो आम पत्रकारों को चुनाव की नकेल अपने हाथ में लेनी होगी। जो लोग कल तक चुनाव न कराने की गोटें बिछा रहे थे अब आप अगर उन्हें नये चुनाव की गोटें सजाने का अवसर देंगे तो यह बदलाव भी एक छद्म क्रांति से आगे नहीं बढ़ेगा। इसलिये भंग चुनाव समिति का एक भी सदस्य चुनाव प्रक्रिया में शामिल नहीं होना चाहिये। अगर ऐसा हुआ तो समझो चेहरे बदलकर नयी षडय़ंत्री समिति अंगड़ाई ले रही है।1
प्रमोद तिवारी

खरी बात

फेवीकोल का मजबूत जोड़
 दरअसल प्रेस क्लब की गद्दी पर चिपक जाने की परम्परा की शुरूआत शहर के वरिष्ठ और समझदार कहे जाने वाले हमारे वयोवृद्घ पत्रकार विष्णु त्रिपाठी ने शुरू की थी। उन्होंने ही प्रेस क्लब कमेटी की सीटों के ऊपर फेवीकोल का पोस्टर चिपकाया था जिसका असर आज भी देखने को मिल रहा है।


प्रेस क्लब की परम्परा  ही कुछ ऐसी है कि यहां की कुर्सी पर जो  भी एक बार बैठ गया  उसने जब तक उठने का नाम नहीं लिया जब कि उसे हिलाकर उठाया या भगाया नहीं गया। एक दिन टीवी पर फेवीकोलका विज्ञापन देख रहा था  जिसमें इधर-उधर भागते एक शरारती बच्चे की मां अजिज आकर बच्चे को फेवीकोल के खाली डिब्बे में बैठा देती है और बच्चा चिपक कर वहीं बैठा रहता है। यह विज्ञापन पहले मेरी समझ में पूरा नहीं आता था। पर जबसे प्रेस क्लब की कमेटी पर निगाह डाली है तब से मानने लगा हूं कि यह विज्ञापन सत्य घटना पर आधारित है।
दरअसल प्रेस क्लब की गद्दी पर चिपक जाने की परम्परा की शुरूआत शहर के वरिष्ठ और समझदार कहे जाने वाले हमारे वयोवृद्घ पत्रकार विष्णु त्रिपाठी ने शुरू की थी। उन्होंने ही प्रेस क्लब कमेटी की सीटों के ऊपर फेवीकोल का पोस्टर चिपकाया था जिसका असर आज भी देखने को मिल रहा है। भई कमाल का असरीला है यह फेवीकोल शुरूआत से बात करें तो प्रेस क्लब के संस्थापक सदस्यों स्व. नरेन्द्र मोहन गुप्ता, खान गुफरान जैदी,  सईदुल हसन नकवी तक तो सब ठीक ठाक चलता रहा। विष्णु त्रिपाठी के पहली बार अध्यक्ष बनने के साथ ही पहला काम तो यह हुआ कि संवाददाता संघ का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया गया। इसके बाद विष्णु त्रिपाठी और योगेश बाजपेयी वाली प्रेस क्लब कमेटी मन लगाकर पहली बार ऐसी जमी कि हटने का नाम ही नहीं लिया। उस समय का माहौल आज के माहौल से थोड़ा जुदा था। इस कमेटी का भी आम विरोध हुआ। अमर्यादित तमाशे के बाद त्रिपाठी  जी को हटाकर दुबारा चुनाव कराये गये। फिर सईदुल हसन नकवी और शैलेन्द्र दीक्षित की अगुवाई में कमेटी बनी। इस दौरान महामंत्री शैलेन्द्र दीक्षित का कानपुर से वास्ता टूट गया। वह आगरा चले गये। उनका पदभार सम्भाला अरुण अग्रवाल ने। अरुण अग्रवाल और नकवी साहब भी वर्ष दर वर्ष प्रेस क्लब को भोगते रहे। फिर हो-हल्ला हुआ और  फिर चुनाव कराया गया। इस बार अध्यक्ष बने शैलेन्द्र दीक्षित और महामंत्री प्रमोद तिवारी। दीक्षित जी और तिवारी जी की जुगल जोड़ी भी प्रेस क्लब में तीन साल तक डटी रही। आखिर में ये लोग भी स्वेच्छा से हटे नहीं बल्कि हटाये गये।
हांलाकि प्रमोद तिवारी और शैलेन्द्र दीक्षित का कार्यकाल प्रेस क्लब का स्वर्णिम कार्य काल कहा जाता है और ऐसा है भी क्योंकि इसी कमेटी  ने प्रेस क्लब का पुनरुद्घार करवाया जहां आज शहर के सारे पत्रकार आराम से  जा कर ठंडी हवा खाते हैं और आराम फरमाते हैं। इसके अलावा खास पत्रकारों के लिए बनी योजना पत्रकारपुरम भी इसी जुगल जोड़ी की ही देन है। जहाँ आज भी शहर के न जाने कितने पत्रकारों के मकान बने हैं, वह अलग बात कि तमामों ने अपने नाम आवंटित मकान मुनाफे में बेंच डाले। कुल मिलाकर यही एक मात्र ऐसी कमेटी थी जिसके शहर के पत्रकारों को कुछ दिया था और पत्रकारों के हित की लड़ाई भी लड़ी। खैर जो भी हो इस कमेटी ने भी खुद इस्तीफा नहीं दिया इसको भी हटाया गया और इसको हटाकर विष्णु त्रिपाठी और जमील साहब की एक कार्यकारी कमेटी बनाई गयी। यह कार्यकारी कमेटी प्रेस क्लब का काम काज देखने के लिए नहीं चुनाव कराने के लिए बनायी गयी थी। लेकिन कमाल की बात यह थी कि चुनाव कराने के लिए बनायी गयी त्रिपाठी जी की यह कमेटी उस कमेटी से भी ज्यादा समय तक कुर्सी से चिपकी रही जिसे हटा कर इसे चुनाव कराने की बागडोर सौंपी गयी थी।  स्वेच्छा से तो कोई हटता नहीं है तो त्रिपाठी जी की यह कमेटी भी कहाँ हटती सो इन्हें भी जबरन हटाना पड़ा। चुनाव की तैयारियाँ हुई पूर्व महामंत्री प्रमोद तिवारी की सदस्यता ही समाप्त कर दी गयी बाकी बचे शैलेन्द्र दीक्षित तो अच्छा ही हुआ कि वो पहले ही बिहार कूच कर गये थे वरना सदस्यता तो उनकी भी नहीं रहती। खैर जैसे-तैसे चुनाव हुए अध्यक्ष बने अनूप बाजपेयी और महामंत्री कुमार।
इस कमेटी ने तो कुर्सी से चिपकने के पिछले सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिये। कुर्सी के ऊपर लगे फेवीकोल के पोस्टर को साफ कर यह कमेटी कुर्सी से ऐसी चिपकी कि नौ साल बीत जाने के बाद आज भी अन्दर से कुर्सी से हटने का मन नहीं बना पा रही है। इसलिए इसकमेटी के साथ भी वही हुआ, पिछला इतिहास एक बार फिर दोहराया गया। मतलब इनको भी झकझोर कर कुर्सी से हटाना पड़ा। बहरहाल अब नये कमेटी के चुनाव की तैयारियां की जा रही हैं। इस उम्मीद के साथ कि प्रेस क्लब की सीटों के ऊपर लगाफेवीकोल का मनहूस पोस्टर अब शायद हटेगा और अगले साल प्रेस क्लब अपने नये अध्यक्ष और अन्य पदाधिकारियों से रू-ब-रू होगा।
शैली दुबे

बचेंगे वही जो भ्रष्टाचार विरोधी हवा के साथ होंगे

जिस तरह से आज सारी राजनीतिक पार्टियां लोकपाल बिल की 'ड्राफ्ट कमेटी के सदस्यों की खुदाई में लगी हैं। अगर इसका शतांश भी देश की 'सीबीआई या अन्य कोई जांच एजेंसी लग जाये तो मंत्री स्तर पर काम कर रहे, कर चुके और आगे मंत्री का ख्वाब रखने वाले नेता लोग शत् - प्रतिशत जेल चले जायें।
अन्ना हजारे के आन्दोलन से और कुछ हो न हो लेकिन इतना निश्चित हो गया है कि इस देश की  राजनीति पूर्णत: भ्रष्टाचारियों के गिरफ्त में है और बेशर्म भी है। दिग्वजय सिंह, अमर सिंह, लालू, मुलायम, कांग्रेस के बातूनी रट्टू तोते (मनीष तिवारी, अभिमन्यु सिंहवी आदि... इत्यादि) और तो और राहुल, सोनिया और आडवाणी तक सब के सब खिसियायी बिल्ली, बिलौटे की तरह लोकतंत्र और संविधान का खंभा नोचने में लगे हैं। अमर सिंह तो कमाल की चीज निकले...। राजनीति के जिस गटर में हाथ डालो गुरु निकल आते हैं। ऊपर लिखे चन्द नाम बतौर नमूने के हैं... वास्तविकता यह है कि भ्रष्टाचारियों को जल्द से जल्द सजा के लिये देश का कोई भी राजनीतिक दल दृढ़ नहीं है। सोनिया ने अन्ना हजारे के समर्थन में सर्वाधिक स्पष्ट बयान जारी किया है। लेकिन यह केवल बयान है। कांग्रेस पहले दिन से आज तक कभी ऐसी पार्टी नहीं रही जिसमें रहते हुये कोई भी व्यक्ति गांधी परिवार की मर्जी के खिलाफ कोई बात कह सके। और अगर किसी ने कभी कोई ऐसी जुर्रत की तो वह फिर कांग्रेस का नहीं रहा। आरिफ मोहम्मद 'शाहबानो प्रकरण में कैसे फंसे और कांग्रेस से बाहर हुये पुराने कांग्रेसी जानते हैं। ऐसे में दिग्वजय सिंह, मनीष तिवारी मुंह दबा-दबा के जो लोकतंत्र और संविधान की मीमांशा करते हुये अन्ना और उनके सहयोगियों पर प्रहार कर रहे हैं उसे कैसे मान लिया जाये कि यह केवल अभिव्यक्ति की आजादी का मामला है। अगर लोकपाल बिल कांग्रेस के एजेंडे में है जैसा कि सोनिया गांधी ने अन्ना को लिखे जवाबी पत्र में कहा है। तो कांग्रेस को आगे आकर अन्ना के साथ ठीक वैसे ही खड़ा होना चाहिये जैसे केजरीवाल, अग्निवेश जी, शान्तिभूषण, मनीष सिसौदिया  आदि लोग खड़े हैं। दुनिया ने देख लिया कि पूरा भ्रष्ट देश भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने को तैयार है। फिर क्या देर...? आडवाणी भी अन्ना की पहल पर गन्ना लेकर दौड़ पड़े। जाने कौन सा लोकतांत्रिक कायदा-कानून बघारने लगे। भूल गये राम मन्दिर का उन्मादी आन्दोलन और बरबाद सौहार्द। भाजपा और कांग्रेस के सामने अन्ना का आन्दोलन एक खुला अवसर था। देश बचाऊ और चुनाव जिताऊ मुद्दा हथियाने का। सीना खोलकर इनमें से कोई भी दल आगे आता पूरा देश उसके साथ होता। लेकिन नहीं यह आन्दोलन जिस मांग पर टिका है उसके पूरे होने का मतलब है संसद का दो तिहाई से भी ज्यादा हिस्सा जेल जाये। फिर सत्ताभोगी नेताओं के लिये ऐसा कानून किस काम का। जिससे उनके लिये भी जेल के रास्ते खुलने की नौबत आन पड़े। तभी तो पूरी बेहयाई से छोटे-बड़े नेता, छोटे-बड़े मंचों पर अन्ना एण्ड कम्पनी को घेरने में लगे हुये हैं बिना यह सोचे-समझे कि लोकतंत्र में जनभावना का कितना मान और महत्व होता है। एक खबर पढ़ी थी एम.जे. अकबर के सम्पादन में निकले अंग्रेजी के समाचार पत्र 'एशियन एज में, खबर थी कि राम जन्मभूमि आन्दोलन के दौरान आडवाणी जी को चांदी की जो प्रतिमाएं भेंट की गयी थीं उन्हें गलवाकर उन्होंने अपनी बेटी के लिये 'क्राकरी बनवा दी थी। सोनिया आडवाणी तो पाये के राजनीतिक हैं। बाकी के बारे में क्या कहा जाये? $जरा देखिये! एक मुद्दा पूरा देश का मत लिये चौराहे पर खड़ा है और 'मतÓ के भूखे उससे न$जर नहीं मिला पा रहे हैं। मुलायम सिंह तुम बढ़कर अन्ना का दामन थामो। देखो मायावती का हाथी कैसे चरमरा कर बैठता है। लेकिन कैसेथामो...? अगर अन्ना वाला कानून बन गया तो जेल के रास्ते उनके लिये भी तो हैं। शान्तिभूषण के पीछे अमर सिंह पड़ गये हैं। उनके घपले और भ्रष्टाचार निकाले जा रहे हैं। जिस तरह से आज सारी राजनीतिक पार्टियां लोकपाल बिल की 'ड्राफ्ट कमेटी के सदस्यों की खुदाई में लगी हैं। अगर इसका शतांश भी देश की 'सीबीआई या अन्य कोई जांच एजेंसी लग जाये तो मंत्री स्तर पर काम कर रहे, कर चुके और आगे मंत्री का ख्वाब रखने वाले नेता लोग शत् - प्रतिशत जेल चले जायें। यह मानना मेरा है और कहना अरविन्द केजरीवाल का। एक तरफ  जन लोकपाल बिल का मसविदा तेजी से आगे बढ़ रहा है। दूसरी तरफ अन्ना हजारे और उनके साथियों को तरह-तरह से भ्रष्ट सिस्टम के लाभार्थी तर्क, कुतर्क और शरारतों से भोंथरा करने में लगे हैं। यह कतई उचित नहीं है। न्यायालय ने भी समिति के अस्तित्व पर सवाल उठाये हैं। पूछा है कि यह समिति कैसे जनता की  ओर से प्रमाणित समिति मानी जाये। इसके लिये बहुत ज्यादा मारा-मारी की आवश्यकता नहीं है। केवल अन्ना के धरने के पक्ष में उबले देश के मनोभाव को देख लिया जाये। अन्ना के आमरण अनशन को लोकतांत्रिक  आतंकवाद का नाम भी दिया गया इस दौरान। जी हां! यह वही आतंक है जिसने देश को गुलामी से मुक्त कराया। पुन: यही आतंक अब भ्रष्टाचार से मुक्ति  की बात कर रहा है। लोकतंत्र के पक्षधर सभी दल, बुद्धिजीवी और संविधान विशेषज्ञ केवल इतना बता दें कि जिस व्यक्ति और समिति के पीछे पूरे देश का समर्थन है उससे किस लोकतांत्रिक मर्यादा की उम्मीद की जा रही है। अरे भ्रष्टों! लोकतंत्र का मान तो तुमको रखना है? जब पूरा देश भ्रष्टाचार की मुक्ति का वाहक है तो उसके पोत को किनारे लगाओ। उसे डुबाने के षडय़ंत्र में जुटकर खुद को लोकतंत्र का 'समझदार साबित मत करो। जो  व्यक्ति बीमार होता है वही इलाज के लिये दौड़ता है। हमारा देश भ्रष्ट हो गया है अब वह उससे मुक्ति चाहता है। इस चाहना में जो बाधा बनेगा समय उसे तहस-नहस करके ही छोड़ेगा। मुझे वह वक्त तेजी से आता दिखाई दे रहा है जब मौजूदा राजनीति  के तमाम 'राजा और तमाम कौड़ा चोर, उचक्कों, हत्यारों  के साथ बाकी के दिन जेल में काटेंगे। बचेंगे वही, जो इस भ्रष्टाचार विरोधी हवा के साथ होंगे।1

कवर स्टोरी

प्रेस क्लबऔर अन्ना इफेक्ट


कहने को तो प्रेस क्लब का अपना एक संविधान है। लेकिन हकीकत यह है कि पूरे के पूरे प्रेस क्लब का इस संविधान से  कोई लेना-देना नहीं है। हर साल प्रेस कांफ्रेंस शुल्क के जरिये  लाखों की कमाई होती है। लेकिन न तो इस कमाई का और न ही किये जाने वाले खर्चों का कोई हिसाब प्रेस क्लब के पास है। और तो और प्रेस क्लब का कोई बैंक एकाउंट ही आज तक खोला गया है। कुल मिलाकर खाता न बही जो कही वो सही की तर्ज पर सारा खेल चल रहा है।

इसे कहते हैं असली अन्ना इफेक्ट जिस इफेक्ट की वजह से कानपुर प्रेस क्लब की निवर्तमान हठीली कमेटी की चूलें तक हिल गयीं और उसे आखिरकार प्रेस क्लब चुनाव की घोषणा करनी ही पड़ी भले खिसियाकर ही सही, और करते  भी क्योंनहीं आखिर उस समय प्रेस क्लब का माहौल भी तो शोले फिल्म जैसा ही हो गया था जब जय और वीरू सूरमा भोपाली के पास जाते हैं और कहते हैं बाकी तो सब ठीक है पर मुँह से ना न निकले और न निकलने पर सूरमा भोपाली की क्या गति होती है यह फिल्म देखने वाले सब लोग बाखूबी जानते ही हैं, बस फिल्म और प्रेस क्लब की हकीकत में मंगलवार के दिन फर्क यह था कि यहाँ जय वीरू भी दो नहीं कई थे और सूरमा भोपालियों का तो पूरा संगठन ही था दो को छोड़ कर तो ऐसे में चुनाव कराने के लिये न कहने का प्रश्न ही नहीं उठता था। अच्छा ही हुआ जो उठा भी नहीं वरना इन नये दिलजले-सिरचढ़े जय वीरूओं का भरोसा भी क्या न जाने सूरमा भोपालियों को क्या-क्या डॉयलाग सुनाते। खैर प्रेस क्लब में जो हुआ शालीनता की सीमा के भीतर ही हुआ जैसा कि पत्रकारिता जैसेपढ़े लिखे पेशे में होना चाहिए। यूं तो प्रेस क्लब के चुनाव को लेकर पिछले काफी समय से खबरनवीसों की जमात में अन्दर चूँ-चपड़ मची ही हुई थी, बस चूँ-चपड़ ही ज्यादा कुछ नहीं। कई बार प्रेस क्लब का चुनाव कराने की बात भी आई लेकिन उसमें होता यह रहा कि जब यह बात अध्यक्ष अनूप बाजपेयी और महामंत्री कुमार से बड़े उम्रदराज लोगों ने उठाई तो उन्हें यह कह कर कि बताओ भाई जी आप भी हमारे खिलाफ, अरे हम तो आप के ही छोटे भाई हैं कह कर मना लिया गया और जब यही बात छोटों ने कही तो उन्हें उनकी औकात बताई गयी। कुल मिलाकर हर बार चुनाव कराने की माँग पर नया पैतरा बदला गया पूरी की पूरी प्रेस क्लब समिति विशेष रूप  से अध्यक्ष और महामन्त्री चुनाव कराने के नाम पर कन्नी ही काटते रहे।
दरअसल प्रेस क्लब चुनाव कराने के लिए इस नये सफल संघर्ष की शुरुआत भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के समर्थन में 'चौथा कोना (जो कि हेलो कानपुर का साफ-साफ दो टूक बात कहने वाला नियमित स्तम्भ है) के नवीन मार्केट में दिये गये धरने के साथ ही हो गयी थी। यह धरना प्रमोद तिवारी की अगुवाई में शहर के तमाम ईमानदार पत्रकारों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के समर्थन में दिया था। इसी धरने के दौरान कुछ युवा पत्रकारों ने एक ऐसा प्रश्न उठा दिया जिसका जवाब देना प्रमोद तिवारी और उनके सहयोगियों के लिये बेहद जरूरी हो गया था।
यह प्रश्न कुछ इस तरह था- 'भइया भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना का समर्थन तो कर रहे हैं लेकिन सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार तो प्रेस क्लब में ही हो रहा है। वर्षों से चुनाव नहीं कराये गये हैं। आने वाले पैसों और होने वाले खर्च का कोई हिसाब किताब  नहीं है न कोई कुछ सुनने वाला है न कोई कुछ बताने वाला है। बताइये इसके लिये कौन लड़ेगा?
वास्तव में यह वह जरूरी प्रश्न था जिसका जवाब देना इस धरने में शामिल उन सभी ईमानदार पत्रकारों के लिये उतना ही जरूरी था जितना कि खाना और पीना। इसलिये इस धरने में ही इस प्रश्न का जवाब देते हुये इस भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रेस क्लब की वर्तमान कमेटी को भंग कर चुनाव कराये जाने का अभियान छेड़ दिया गया।
अब इसके बाद चौथा कोना के धरने में पूछे गये सवाल का जवाब देने की बागडोर प्रेस क्लब मुक्ति मोर्चा बनाकर आदित्य द्विवेदी, सौरभ शुक्ल, सरस बाजपेई सहित कई युवा पत्रकारों के हाथों में दी गयी। इसके बाद कई मर्तबा प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनूप बाजपेयी और महामंत्री कुमार को प्रेस क्लब की आम बैठक बुलाकर चुनाव कराने के लिये कहा गया लेकिन किसी के कानों में जूं नहीं रेंगी प्रेस क्लब कमेटी के सारे मेम्बरान युवा पत्रकारों की इस जायज मांग को अनसुना ही करते रहे। युवा पत्रकारों ने बदलाव के लिये अपने पहले अस्त्र के रूप में एसएमएस  अभियान छेड़ कर  पूरे शहर के पत्रकारों को बदलाव के मैसेज भेजे गये। इस दरम्यान मुक्ति मोर्चा के अगुआकार सौरभ शुक्ल ने महामंत्री कुमार से कई बार बिना तनाव के ही चुनाव कराने को कहा लेकिन हर बार महामंत्री ने उन्हें चुनौती पूर्ण ठंग से ललकारा और कहा च्च्उखाड़ लो....जो उखाडऩा होज्ज्। अंतत: प्रेस क्लब मुक्ति मोर्चा ने १७ अप्रैल को शहर के सभी पत्रकारों सहित प्रेस क्लब को भी चुनाव के सवाल पर नगर निगम में वार्ता के लिये आमंत्रित किया बुलाया। इस आमंत्रण पर पूरे शहर के करीबडेढ़ सैकड़ा पत्रकार आये लेकिन प्रेस क्लब समिति की तरफ से केवल सरस बाजपेयी, इरफान और विनय गुप्ता ही मौजूद रहे। मालूम हो कि सरस बाजपेई बदलाव के पक्ष में चल रही मुहिम के भी पक्षधर हैं और प्रेस क्लब के वरिष्ठ मंत्री भी हैं। बाकी सारे पदाधिकारी कन्नी काट गये। प्रेस क्लब मुक्ति मोर्चा की आयोजित यह काल वाकई काफी हंगामादार रही। प्रेस क्लब कमेटी की मनमानी का जमकर विरोध हुआ। जबकि इस बैठक में गैर हाजिर प्रेस क्लब की अवैध हो चुकी समिति के अवैध पदाधिकारी प्रेस क्लब मुक्ति मोर्चा की इस सार्थक बैठक को अवैध तरीके सेअवैध बताकर अपनी खिसियाहट मिटाते रहे। बहाना था कि अगर मीटिंग प्रेस क्लब में होती तो आते नगर निगम में नहीं आयेंगे।
परिवर्तन के हामी पत्रकारों का यह कदम ९ साल से जमी प्रेस क्लब पर काफी भारी पड़ गया। उन्हें भनक लग गई कि इस बार न धमकी चलेगी न प्रार्थना। दरअसल युवा शक्ति ने एक गम्भीर निश्चय कर लिया था जिसकी भनक प्रेस क्लब के रूढ़ी पदाधिकारियों को लग गयी थी। यह निर्णय था 'आमरण अनशनÓ का। सौरभ शुक्ला आमरण अनशन की अनौपचारिक घोषणा कर चुके थे। जैसे-जैसे नगर निगम पत्रकारों का जमाव बढ़ता गया पुरानी कमेटी के पांव उखड़ते गये। अभी बैठक पूरी तरह से शुरू भी हो पाती कि महामंत्री कुमार ने फोन के जरिये एक दिन बाद यानी कि १९ अप्रैल को आम सभा की बैठक करके चुनाव घोषित करने का वायदा कर दिया। इस वादे के साथ यह बैठक स्थगित कर दी गयी। सारे शहर के पत्रकारों के मोबाइल मुक्ति मोर्चा के विजय अभियान के सन्देश से भर गये। जय-जय करते हुये १९ अप्रैल की आम सभा का इन्तजार शुरू हो गया। लेकिन बात यहीं नहीं थमी। प्रेस क्लब के पदाधिकारियों ने आम सभा में पहले १७ अप्रैल को अपनी कार्य समिति की बैठक बुला ली और बैठक में ही १ जुलाई को चुनाव घोषित कर दिया और चुनाव कराने के विधि विधान के बारे में जिम्मेदारियों भी सौंप दी। प्रेस क्लब कार्य समिति की बैठक में प्रेस क्लब कमेटी के चुनाव कराने के लिये हामी भर दी। तय हुआ कि कमेटी भंग कर शहर के सभी अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक चैनलों से एक-एक पत्रकार को लेकर २३ अप्रैल तक एक ग्यारह सदस्यीय कार्यकारी कमेटी बनाई जायेगी। हर संस्थान के संपादकों से मिलकर ग्यारह सदस्यीय कमेटी बनाने की जिम्मेदारी दो पत्रकारों महेश शर्मा और राजेश नाथ अग्रवाल को सौंपी गयी है।

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

नारद डाट काम

ये तो रीति है 
 हजारे अब हजारों भी नहीं करोड़ों-अरबों बन गये हैं। उन्हें लेनी देनी से बहुत घृणा है वे इसे भ्रष्टाचार कहते हैं। उन्हें कैसे समझाया जाये कि लेनी-देनी तो रीति है। जन्म से लेकर मृत्यु तक ये पीछे लगी रहती हैं। अस्पताल चाहें सरकारी हो या गैर सरकारी लड़का पैदा होते ही लेनी-देनी ऐसे शुरू होती है जो मुंडन और शादी से होते हुये भैरोघाट तक पिछियाये रहती है। मुंशी प्रेमचन्द्र भी इसको लेकर खासे परेशान थे उनकी नमक का दरोगा कहानी तो कम से कम यही चुगली करती है। इस जरा सी बात के लिये अन्ना जी ने करोड़ों रुपये की मोमबत्तियां फुंकवा डालीं। प्रदूषण से जूझ रहे इस देश के लिये ये बड़ा झटका है।  यस यस यस करते-करते लोगों के नाखून अंगुलियों से जुदा हो गये। टीवी न्यूज वालों/वालियों के गले में खिच-खिच शुरू हो गयी वो तो भला हो स्टैप्सिल्स का जो पहले से अब आराम है कुल मिलाकर अन्ना भाई का ये लड़कपन न मुझे पसन्द आया और न ही इस देश के नेताओं को। इनके इस बचपने ने नेताओं को लाल कपड़ा दिखा दिया है। बुरी तरह से भड़के हुये हैं ताल ठोंककर कह रहे हैं चुनाव में दो-दो हाथ आजमा के दिखाओ। अब हजारे बाबू को तलाशे रास्ता नहीं दिख रहा है। दुर्योधन, दुशासन, कृपाचार्य, शकुनि और तिकोने मुंह वाले एक नेता के सामने टिकना बड़ा कठिन काम है। लगने में हजारे भाई की कोई सानी नहीं है पहले तिकोने मुंह वाले को कमेटी से बाहर का रास्ता दिखाया अब फरमा रहे हैं कि मंत्रिमण्डल से फूट जाओ। बात सोचने की है कि अगर ये नेता मान लो चला ही गया तो देश की कृषि का क्या होगा? जाहिर है सूख जायेगी, दालें रांण बन जायेंगी दो  टके में भी कोई नहीं पूंछेगा मुंह और मंसूर की दूरी पूरी तरह घट जायेगी, चीनी अपनी किस्मत पर रोयेगी। अब आप लोग ही बताइये कि हजारे जी की ये बातें कहां तक उचित हैं?  अब तो अडवाणी जी भी मूंछे फडफ़ड़ाने लगे हैं उन्हें लोकतंत्र के मिटने का खतरा दिख रहा है। बस हजारे भाई एक बार बुढ़ौती में प्रधानमंत्री बन लेने दो बाद में क्रान्ति करना। बेचारे करें भी क्या सारे बाल सफेद कर लिये लेकिन हल्दी नहीं लगी तो नहीं ही लगी। अब ये नई बाधा सामने आ गयी है। अन्ना भाई संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ नहीं हैं चूकि इसी में हमारी भलाई है तुम्हारा साथ देने में भूखे रखने के सिवा और क्या मिलना है?
बात पते की
अगर हम ठीक हैं तो हमें क्रोध करने की क्या दरकार? और यदि हम गलत हैं तो हमें क्रोधित होने का अधिकार ही कहां है?1

मार्शल का बाईस्कोप

भ्रष्टाचार: व्यवहार से बना खरपतवार

अन्ना साड़ से घूम रहे हैं देश में भ्रष्टाचारी। भ्रष्टाचार पहले व्यवहार हुआ, फिर जबरार हुआ, फिर शिष्टाचार हुआ। पहले सरकारी आदमी घूस चुपके से लेता था, आम आदमी उसे व्यवहार के नाम पर कुछ दे देता था। व्यवहार का कोई रेट नहीं होता है। हम शादी बारात में रुपये से आगे... चाहे जो कुछ दे दें। फिर रेट तय हुआ और ये नजराना से जबराना हो गया। उतना ही देना पड़ेगा। अब ये शिष्टाचार में बदल गया है। मतलब जैसे मिलने पर जय राम जी की, जय भीम, पांव लागी होता है वैसे ही घूस, पैसा तो देना ही देना है। मुझे लगता है भ्रष्टाचार अब खरपतवार बन गया है। शिष्टाचार चाहो तो न करो, लेकिन खेत-खलिहान में खरपतवार तो उग ही  जाता है। अब खरपतवार काटे बगैर कुछ नहीं होगा।
अब व्यवहार से शुरू हुये खरपतवार बन चुके इस भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिये अपने अन्ना भाई आ चुके हैं। सारा देश उनके साथ उपवास, कैण्डल मार्च में शामिल है। मेरे एक मित्र हैं व्यूरोक्रेसी में ऊपर तक पहुंच रखने वाले छोटे अफसर। कहते हैं जब सब मार्च निकाल रहे हैं तो भ्रष्ट कौन है? भ्रष्ट तो हम सब हो चुके हैं, बताइये क्या बगैर हेलमेट लगाये और गाड़ी के सभी कागज लिये बगैर चलना, पुलिस के द्वारा रोकने पर मैं प्रेस/नेता... का हवाला देकर निकलना या फिर पचास का नोट देकर बचना क्या है? स्टेशन पर लगी लाइन में जुगाड़ से टिकट लेने का प्रयास करना क्या है? शहर में आये सर्कस/जातू/म्यूजिकल नाइट/मैच में सक्षम होते हुये भी फ्री पास झटकना क्या है?
मैं फिर कह रहा हूं भ्रष्टाचार शुरू ऊपर से होता है खत्म नीचे से होगा। अन्ना के साथ अनशन पर बैठने से ही नहीं, अन्ना की तरह अपने जीवन को पाक-साफ बनाकर। घूस लेंगे नहीं। घूस देंगे नहीं। अपना काम ईमानदारी से करेंगे, नियम से चलेंगे, न कानून तोड़ेंगे न खींसे निपोरनी पड़ेंगी।
बाबा साहब अमर रहें
बाबा साहब को श्रद्धांजलि समर्पित हो गयी। गांधी जयंती, रामनवमी, अम्बेडकर जयंती सब या तो एक दिन की छुट्टी का नाम है या वोट बढ़ाऊ अभियान का दूसरा नाम। डा. अम्बेडकर ने हमें वो संविधान दिया, जो हमें स्वाभिमान और सम्मान के साथ जीने की राह सिखाता है। कुछ लोगों ने अम्बेडकर की अवहेलना की और कुछ ने इसे हाईजैक कर लिया। आरक्षण को लेकर आज लोग आमने-सामने हो रहे हैं। क्या सरकारी नौकरियां इतनी हैं कि सबको मिल जायें तो फिर जो एक बार आरक्षण का लाभ पा गया उसको दुबारा क्यों? क्या एक युवा आईएएस, पीसीएस या बैंक में आने के बाद भी दलित या पिछड़ा बना रहता है तो फिर घुरहू मोची का नम्बर कब आयेगा। प्रोन्नति में आरक्षण का क्या काम? कार्यदक्षता, ईमानदारी और अनुभव के बल पर ही प्रोन्नति होनी चाहिये, लेकिन नहीं देश और समाज से बड़ा है अपना वोट बैंक। इस मामले में सभी नेता लगभग एक ही हैं...। किससे क्या उम्मीद करेंगे।
सपा-बसपा आगे, भाजपा कांग्रेस पीछे
उत्तर प्रदेश चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। सब कुछ ठीक रहा तो जुलाई में पालिकाओं के चुनाव और दिसम्बर जनवरी में विधानसभा के। बसपा की तैयारी लगभग पूरी है। प्रत्याशी घोषित हो चुके हैं। कार्यकर्ताओं के सम्मेलन और बैठकें होती रहती हैं। कैडर और बूथ लेबिल पर भर्ती, पदाधिकारी, लिस्ट रजिस्टर चला ही करता है। अनुसूचित सीटों के प्रभारी नौशाद अली मुस्लिमों को एकजुट करते घूम रहे हैं। खुद प्रत्याशियों और विधायकों ने बूथ इन्चार्ज बनाने शुरू कर दिये हैं। समाजवादी पार्टी ने भी पहले लिस्ट निकाल दी है।
भाजपा-कांग्रेस अभी सो रही है। कांग्रेस तो फिर भी पर्यवेक्षक घुमाकर बायोडाटा इक_ा कर रही है, इसी बहाने कुछ गर्मी बनाये है। भाजपाई परेशान हैं कि टिकट कब घोषित होंगे? कौन फाइनल करेगा? गडकरी, अडवाणी या जेटली? गडकरी के गुप्तचरों की टीम घूम रही है। शाही जी टिकट देंगे तो क्या होगा, वे तो प्रेमलता के चश्मे से देखते हैं। पार्टी समरसता दिवस मना रही है और हालत यह है कि पूरी पार्टी अपने दोनों अध्यक्षों के खिलाफ खड़ी है। श्याम बिहारी, द्रोण, पचौरी, पाटनी, गोपाल अवस्थी, बालचन्द्र, रामदेव...। पार्टी के बड़े नेता कलराज आये थे और कार्यक्रम की सूचना आधे नेताओं को नहीं दी गई। बड़ी पार्टी ज्यादा काम, कार्यकर्ता का कामतमाम। भाजपा संगठनात्मक कामों का एजेंडा और रूपरेखा ऐसा बनाती है जैसे नीचे वाले सब ठलुआ हैं या पार्टी से वेतन भोगी। आज मशाल जुलूस, कल हनुमान चालीसा पाठ,  परसों स्थापना दिवस, नरसों पदयात्रा, फिर चार दिन तक यात्रायें चलेंगी...। कार्यकर्ता कह रहा है प्रत्याशी कौन पार्टी कर रहे है व्यक्ति नहीं संगठन को मानिये।
भाजपा कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टियां हैं राष्ट्र पहले है, पार्टी हित बाद में। अभी इन्हें अन्ना, राडिया, पवार, रामदेव के चक्रव्यूह से बाहर आने में समय लगेगा। अक्टूबर में टिकट होंगे तब प्रत्याशी गाल फुलाये लोगों को मनायेंगे या प्रचार करेंगे। अपने गप्पू भइया ने तो कह दिया है पार्टी अक्टूबर में अगर टिकट देगी भी तो नहीं लड़ेंगे।
और आखिरी बात
पिपराइच में विधानसभा का उपचुनाव और विषधन में ग्राम सभा का उपचुनाव। जाति, धर्म, पैसा, दबाव, जोड़तोड़ दलीय समझौते सभी कुछ आइने के तरह साफ हैं। अन्दाजा लगा लीजिये कि कैसे होंगे अगले कुछ महीनों में होने वाले पालिका चुनाव और फिर विधानसभा के चुनाव।1


अनुराग अवस्थी 'मार्शल

अतिक्रमण हटाने का अभियान या बचाने की मुहिम

कानपुर  भी देश के अन्य प्रमुख और पुराने शहरों की ही तरह से अतिक्रमण की समस्या से बुरी तरह ग्रस्त है। शहर आने वाले देश और प्रदेश की जानी-मानी राजनैतिक, सामाजिक और प्रशासनिक पदों पर आसीन अति महत्वपूर्ण व्यक्तिओं को कानपुर आगमन पर इस समस्या के कारण सड़क के च्जाम के झामज् से अक्सर दो-चार होना पड़ता रहा है। जिला प्रशासन और कानपुर नगर निगम इस समस्या से निजात पाने के लिए तमाम प्रयासों के बावजूद जन-सहयोग की कमी के कारण कभी सफल नहीं हो पाया है। शहर के किसी भी एक मुख्य मार्ग या बाजार को पूरी तरह से अतिक्रमण-मुक्त अभी तक नहीं किया जा सका है। क्षेत्रीय सभासद, जोनल अफसरों और पुलिस की मिली भगत से इस अतिक्रमण के कोढ़ को समाप्त करने में सभी जगह बुरी तरह से असफलता का सामना करना पड़ा है। अब इस बार ये अतिक्रमण विरोधी अभियान कड़ाई से चलाने की पूरी तैयारी थी पर एक खास तरीके से इसे पलीता लगाने के लिए पूरी तैयारी  कानपुर के एक समाचार पत्र के माध्यम से शहर के अतिक्रमणकारिओं    ने कर ली गयी। दूसरी तरफ समाचार पत्र की अति सक्रियता की चाल समझकर कानपुर नगर निगम प्रशासन ने अपनी गुरिल्ला नीति से अतिक्रमणकारिओं की इस तैयारी को बुरी तरह से ध्वस्त करने की योजना बना ली है।
 कानपुर के नगर आयुक्त आर। विक्रम सिंह बताते हैं, 15 अप्रैल से अतिक्रमण के विरुद्ध शहर व्यापी अभियान की स्वीकृति के मद्देनजर एक पत्र कानपुर मंडलायुक्त के समक्ष भेजा गया था, जिसमें क्षेत्रवार अभियान के आधार पर पुलिस और पी.ए.सी. की मांग सम्बन्धी बातों को कानपुर नगर निगम की तरफ से रखा गया था। ये स्वीकृति पत्र और आदेश गुप्त होना चाहिए जिससे अभियान को वास्तविक लाभकारी बने जा सकता। इसे अखबार को नहीं दिया जाना चाहिए था। इसकी उचित शिकायत की जायेगी और दोषी को दण्डित करवाने की संस्तुति कानपुर के मंडलायुक्त पी. के. महान्ति से की जायेगी।
उन्होंने इस अभियान को उद्देश्यपूर्ण और प्रभावी बनाने के लिए इसे अभियान शुरू होने के एक दिन बाद यानी 16 अप्रैल से उस विज्ञापित तिथिवार और क्षेत्रवार अभियान में परिवर्तन कर दिया है। इस प्रकार अब कार्यवाही गुरिल्ला नीति के तहत होगी । अतिक्रमणकारिओं से यूजर चार्ज वसूली के साथ ही साथ अडंगाकारिओं पर कड़ी कार्रवाही की योजना बनायी है। पूरे अभियान की वीडीओग्राफी कराये जाने के साथ ट्रैफिक पुलिस विभाग की भी मदद ली जायेगी। श्री सिंह कहते हैं, यद्यपि कानपुर कमिश्नर से स्वीकृति अवश्य ली गयी है पर यह अभियान पूरी तरह से कानपुर नगर निगम के द्वारा ही चलाया जाएगा न की कानपुर कमिश्नर के द्वारा। शहर के इस सम्मानित अखबार की इस तरह की गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग से शहर के अतिक्रमणकारिओं  ने राहत की सांस ली थी जो नगर आयुक्त की सक्रियता के बाद फांस बन सकती है।

अरविन्द त्रिपाठी
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

प्रमुख जैन मंदिर

कानपुर में जैन धर्मावलम्बी काफी बड़ी संख्या में निवास करते हैं। अपने दैनिक पूजन-अर्चन और धार्मिक त्यौहारों को सम्पन्न करने के लिये जैन धर्मावलम्बियों ने शहर में कई जैन मंदिरों का निर्माण कराया है। जैन धर्म के प्रमुख मंदिर शहर के अलग-अलग स्थानों में स्थित हैं।
१-श्री 1008 पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर रतन लाल नगर, कानपुर,
२-श्री 1008 शांतिनाथ दिगंबर जैन मंदिर चौक सर्राफा, कानपुर,
३-श्री दिगंबर जैन मंदिर कश्मीर ब्लॉक, किदवई नगर, कानपुर,
४-श्री चन्द्र प्रभु दिगंबर चैतालय नवाबगंज, कानपुर,
५-श्री चन्द्र प्रभु दिगंबर जैन चैतालय फूल महल कराची खाना,कानपुर
६-श्री चन्द्र प्रभु दिगंबर जैन मंदिर कम्पनी बाग, कानपुर
७-श्री दिगंबर जैन गली वाला मंदिर पंचकुला, जनरलगंज कानपुर,
८-श्री दिगंबर जैन मंदिर आनंदपुरी कानपुर,
९-श्री दिगंबर जैन मंदिर अनंतपुरी कानपुर,
१०-श्री दिगंबर जैन मंदिर धरमपुरवा कानपुर
११-श्री दिगंबर जैन मंदिर लोहाई कानपुर
१२-श्री दिगंबर जैन पंचायती बड़ा मंदिर जनरलगंज कानपुर
१३-श्री दिगंबर जैन पंचायती मंदिर लेनिन पार्क, जवाहर नगर कानपुर
१४-श्री दिगंबर जैन पुष्पदंत चैतालय स्वरूप नगर, कानपुर
१५-श्री महावीर दिगंबर जैन चैतालय मॉडल टाउन कानपुर
१६-श्री महावीर दिगंबर जैन चैतालय शांति नगर कैंट, कानपुर
१७-श्री महावीर दिगंबर जैन मंदिर काली बाड़ी लाल कचेरी, कानपुर
१८-श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन कराची खाना, कानपुर
१९-श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर एम ब्लॉक, किदवई नगर कानपुर,
२०-श्री दिगंबर जैन मंदिर हालसी रोड, कानपुर   
किदवई नगर,आनंदपुरी में एक भव्य जैन मंदिर का निर्माण कराया गया है। जिसे अभी कुछ दिन पहले ही विधिवत पूजन-कर्म और पंचकल्याणक समारोह के पश्चात जैन समाज के लोगों को  पूजा-अर्चना के लिये  खोल दिया गया है भव्यता के लिहाज से यह मंदिर कानपुर के अन्य जैन मंदिरों में एकदम अलग है।
जैन काँच का मंदिर कानपुर में जैन धर्मावलम्बियों द्वारा निर्मित करायी गयी एक प्राचीन धार्मिक धरोह तो है ही साथ ही कानपुर के मशहूर आकर्षक पर्यटक स्थलों में से एक है। वास्तुकला की पारंपरिक पुरानी शैली में निर्मित, यह मंदिर पूरी तरह से काँच से बनाया गया है, खूबसूरती से सजी  तामचीनी और काँच में बनी जटिल डिजाइन के साथ सजाया. मंदिर की  दीवारों, फर्श और छत पर मंदिर के चारों ओर अलंकृत दर्पण का काम मन-मस्तिष्क को स्तंभित कर देता है। कांच के टुकड़ों में बने भित्ति चित्र और चित्रों के माध्यम से जैन दर्शन को दर्शाया गया है। यह जैन मंदिर मुख्य रूप से भगवान महावीर के अनुयायियों और शिष्यों को समर्पित है, एक विशाल मंदिर आसन पर भगवान महावीर विराजमान हैं और उनके साथ ही मंदिर में जैन धर्म के अन्य  23 जैन तीर्थंकरों (आदिनाथ  जी,अजितनाथ जी,सम्भवनाथ जी,अभिनंदन ज,सुमतिनाथ जी, पद्ममप्रभु जी, सुपाश्वॅनाथ जी, चंदाप्रभु जी, सुविधिनाथ जी, शीतलनाथ जी, श्रेंयांसनाथ जी, वासुपूज्य जी, विमलनाथ जी, अनंतनाथ जी, धर्मनाथ जी, शांतिनाथ जी, कुंथुनाथ जी, अरनाथ जी, मल्लिनाथ जी, मुनिसुव्रत जी, नमिनाथ जी, नेमिनाथ जी, पाश्वॅनाथ जी) की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। ऐतिहासिक और धार्मिक लिहाज से यह मंदिर न केवल जैन समाज के ही लिये वरन पूरे कानपुर के लोगों के लिये बेहद महत्वपूर्ण है।1
हेलो संवाददाता

जैन प्रतीक चिन्ह



किसी भी धर्म के लिये उसका  प्रतीक चिन्ह उसकी अपनी पहचान से जुड़ा होता है और इस लिये किसी भी धर्म का प्रतीक चिन्ह उसके लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। वास्तव में प्रतीक चिन्ह के माध्यम से किसी धर्म के समस्त मूल भावों को चिन्हों के माध्यम से सारांश रूप में अंकित किया जाता है और इसीलिये वह अपने धर्म की पहचान होता है।


 कुछ वर्षों पहले तक जैन धर्म का कोई निश्चित प्रतीक चिन्ह नहीं था। बदलते जा रहे वैश्विक माहौल और अन्य वजहों से जैन धर्मावलम्बियों ने जैन धर्म के लिये एक प्रतीक चिन्ह की आवश्यकता महसूस की इस लिये वर्ष 1975 में 1008 भगवान महावीर स्वामी जी के 2500वें निर्वाण वर्ष अवसर पर समस्त जैन समुदायों ने जैन धर्म के प्रतीक चिह्न का एक स्वरूप बनाकर उस पर सहमति प्रकट की। यह प्रतीक चिह्न जैन धर्म और उसके सिद्धांतो का द्योतक है।
जैन प्रतीक चिह्न कई मूल भावनाओं को अपने में समाहित करता है। इस प्रतीक चिह्न का रूप जैन शास्त्रों में वर्णित तीन लोक के आकार जैसा है। इसका निचला भाग अधोलोक, बीच का भाग- मध्य लोक एवं ऊपर का भाग- उर्ध्वलोक का प्रतीक है। इसके सबसे ऊपर भाग में चंद्राकार सिद्ध शिला है। अनन्तान्त सिद्ध परमेष्ठी भगवान इस सिद्ध शिला पर अनन्त काल से अनन्त काल तक के लिए विराजमान हैं। चिह्न के निचले भाग में प्रदर्शित हाथ अभय का प्रतीक है और लोक के सभी जीवों के प्रति अहिंसा का भाव रखने का प्रतीक है। हाथ के बीच में 24 आरों वाला चक्र चौबीस तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत जिन धर्म को दर्शाता है, जिसका मूल भाव अहिंसा है,ऊपरी भाग में प्रदर्शित स्वस्तिक की चार भुजाएँ चार गतियों- नरक, त्रियंच, मनुष्य एवं देव गति की द्योतक हैं। प्रत्येक संसारी प्राणी जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होना चाहता है। स्वस्तिक के ऊपर प्रदर्शित तीन बिंदु सम्यक रत्नत्रय-सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चरित्र को दर्शाते हैं और संदेश देते हैं कि सम्यक रत्नत्रय के बिना प्राणी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता है। सम्यक रत्नत्रय की उपलब्धता जैनागम के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के लिए परम आवश्यक है। सबसे नीचे लिखे गए सूत्र च्परस्परोपग्रहो जीवानाम्ज् का अर्थ प्रत्येक जीवन परस्पर एक दूसरे का उपकार करें, यही जीवन का लक्षण है। संक्षेप में जैन प्रतीक चिह्न संसारी प्राणी मात्र की वर्तमान दशा एवं इससे मुक्त होकर सिद्ध शिला तक पहुँचने का मार्ग दर्शाता है।  प्रत्येक धर्म के दो रूप होते हैं- 1. विचार और 2. आचार। जैन धर्म के विचारों का मूल है, अनेकांत या स्याद्वाद और उसके आचार का मूल है, अहिंसा। जैन धर्म कहता है- च्अहिंसा के अधिकाधिक पालन से प्राणी मात्र को अधिकाधिक सुख मिलेगा।
अहिंसा परमो धर्म:। जैन धर्म में अहिंसा का सबसे ऊँचा स्थान है। अहिंसा की अत्यन्त सूक्ष्म व्याख्या और विवेचना की गई है। मनुष्य तो मनुष्य, किसी भी त्रस या स्थावर जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए। हमसे उठते-बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते, खाते-पीते, बोलते-चालते असंख्य जीवों की हिंसा होती रहती है। इस हिंसा से हमें भरसक बचना चाहिए। अहिंसा के विचार और कृत्य से ही स्वयं का व समस्त मानव समाज का कल्याण हो सकता है। इस लिये अहिंसा का अनवरत विचार मनुष्य के लिये बेहद आवश्यक है।1
     

कवर स्टोरी

अहिंसा
परमोधर्म:
भारतीय दर्शन में मनुष्य के लिये काम,क्रोध,मद,लोभ,मोह ये पाँच महाशत्रु बताये गये हैं जो मनुष्य के भीतर ही रहते हैं और संसार की सभी बुराइयों का मूल हैं। और इन पाँच शत्रुओं में से क्रोधया हिंसा तो मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। अगर मनुष्य हिंसा को वश में कर ले उस पर विजय पा ले तो समस्त विश्व में शांति और प्रेम का विस्तार होगा और हर जगह खुशहाली होगी। जैन धर्म में भी इन पाँचों को मनुष्य का शत्रु ही बताया गया है और अहिंसा के सदाविचार पर ही सबसे ज्यादा जोर दिया गया है जो आज हमारे लिये सबसे बड़ी आवश्यकता है।
समस्त विश्व को शान्ति,अहिंसा प्रेम का ज्ञान देने वाले जैन  धर्म की महत्ता आज इस वैर वैमनस्याता और कलह भरी दुनिया में शान्ति चाहने वाले बखूबी जानते हैं। आज के परिवेश में हमें जैन धर्म के उपदेशों और मान्यताओं की ही परमावश्यकता है जो हमें त्याग और अहिंसा की अनमोल नीति और ज्ञान देता है। जैन धर्म भारत के प्रचीन धर्मों में से ही एक है। ऐतिहासिक तथ्यों को देखने पर पता चलता है कि अगर भारत को विश्वगुरु कहा जाता है तो वह अक्षरश: सत्य ही है। इसकी वजह भी बिल्कुल स्पष्ट है क्योंकि यही वह पुण्य प्रतापी धरती है जहाँ से कई मौलिक और श्रेष्ठ मान्यताएँ, परम्पराएँ और दर्शन निकले जो कालान्तर में इतने ज्यादा प्रभावी और उपयोगी हुए कि धर्म के रूप में स्थापित हो कर सामने आये। वैसे पुरातन हिन्दु ग्रन्थों के अनुसार धर्म का अर्थ है च्धार्यति इति धर्म:ज् जो धारण किया जाय अर्थात जिसका निर्वहन और वहन किया जाय वही धर्म है। भारत की धरती से विश्वशान्ति और समृद्धि के लिये जिन धर्मों का उद्गम हुआ उनमें से एक महत्वपूर्ण और विश्व को शांति का संदेश देन वाला जैन धर्म भी है।
 जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है । च्जैनज् उन्हें कहते हैं  जो च्जिनज् के अनुयायी हों। च्जिनज् शब्द बना है च्जिज् धातु से। च्जिज् माने-जीतना। च्जिनज् माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं च्जिनज्। जैन धर्म अर्थात च्जिनज् भगवान का धर्म। जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है-
णमो अरिहंताणं॥
णमो सिद्धाणं॥
णमो आयरियाणं॥
णमो उवज्झायाणं॥
णमो लोए सव्वसाहूणं॥
एसो पंच णमोकारो॥
सव्व पावपणासणो॥ मंगलाणं च सव्वेसिम॥
पदमं हवई मंगलं॥
अर्थात अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पाँच परमेष्ठी हैं।
 जैन मतावलम्बियों का अभिमत है कि जैन धर्म की भगवान महावीर के पूर्व जो परम्परा प्राप्त है, उसके वाचक निगंठ धम्म (निर्ग्रन्थ धर्म), आर्हत् धर्म एवं श्रमण परम्परा रहे हैं। जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ जी के समय तक च्चातुर्याम धम्मज् था। धर्म साधक अत्यन्त ऋजु,प्रज्ञ एवं विज्ञ थे। वे स्त्री को भी परिग्रह के अंतर्गत समझकर बहिद्धादान में उसका अन्तर्भाव करते थे। भगवान महावीर ने छेदोपस्थानीय चारित्र (पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ) की व्यवस्था की।
जिसमें ब्रह्मचर्य व्रत का अलग से उल्लेख किया है। पूज्यपाद ने महावीर के विभाग-युक्त चारित्र का स्वरूप बताया है। ये विभाग महावीर स्वामी के पहले नहीं थे। जैन धर्म के चौबिस तीर्थंकरों में से महावीर स्वामी का महत्व इस दृष्टि से भी अलग है कि उन्होंने उग्र तपस्या करके संघर्षों को सहज रूप से झेलने का एक मानदंड स्थापित किया तथा आत्मजय की साधना को अपने ही पुरुषार्थ एवं चरित्र से सिद्ध करने की विचारणा को लोकोन्मुख बना कर भारतीय मनीषा को नया आयाम दिया।  महावीर स्वामी का जन्म दिन चैत्र शुकल  त्रयोदशी को महावीर स्वामी जन्म कल्याणक  पर्व के रूप में मनाया जाता है । जैन ग्रन्थों के अनुसार भगवान् महावीर स्वामी का जन्म ईसा से 599 वर्ष पूर्व (आधुनिक गणना के अनुसार २७ मार्च) चैत्र शुक्ल त्रयोदशी उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र सोमवार कुन्डल पुर (बिहार) में हुया था। पूरे विश्व में जैन धर्मावलम्बी महावीर स्वामी का जन्म दिवस बहुत हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं।1

रविवार, 10 अप्रैल 2011

नारद डाट कॉम

एक अदद पूनम  बस...
 मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूरा विश्वास है कि आप सभी लोग पूनम पाण्डे को अवश्य जानते होंगे। अगर नहीं तो, नवरात्रि में मिलावटी कूटू का आटा खाके आपको मरना नहीं तो कम से कम सरकारी अस्पताल में भर्ती तो जरूर हो जाना चाहिये। खैर चलिये, जान लीजिये ये हैं क्या बला? दरअसल ये अबला नहीं बल्कि कर्बला हैं, इनके पाये जाने का स्थान मुम्बई है और ये ठीकठाक माडल हैं। कुछ दिनों पहले ये अपना मनमोहक चित्र शराब के एक विज्ञापन कलेंडर में छपवा चुकी हैं। इस बार वल्र्डकप में इन्होंने पुख्ता दावा किया था कि अगर इंडिया ये कप जीतती है तो ये अपने पूरे कपड़े स्टेडियम में उतार कर ३-४ बार चक्कर लगायेंगी। मैं गंगा मइया की कसम खाकर कहता हूं कि जैसे मैंने उनकी ये घोषणा टीवी पर देखी मैंने पूरा मैच (एक-एक) गेंद देखी। सहवाग और सचिन जब जल्दी आउट हुये तो मुझे लगा कि मेरी हसरत और मंसूबे गन्दे नाले में बहने वाले हैं। भला हो गौतम गम्भीर और धोनी का जिन्होंने मेरी आस को जिन्दा रखा। भारत वल्र्ड कप जीत गया, मैं टीवी में लगातार आंख गड़ाये रहा लेकिन पूनम नहीं दिखाई पड़ी। अगर २-४ को छोड़ दें तो वहां के सभी दर्शक पूनम पाण्डे का ही इन्तजार करते रहे। मुरलीधरन की बड़ी-बड़ी विकराल आंखे अपने आखिरी मैच को परम यादगार बनाने के लिये पूनम को खोजती रहीं। पवार साहब भी बराबर दायें-बायें चकर-मकर करते रहे। मुझे लगाकर करोड़ों लोग अपनी छाती पीटकर शान्त हो गये। पूनम की इस वादा खिलाफी ने लोगों का दिल टुकड़े-टुकड़े कर डाला। वैसे भी मनुष्य जाति में पाण्डे प्रजाति के लोग अदभुत गुणवत्ता वाले होते हैं। मंगल पाण्डे से शुरू होइये और डण्डा पाण्डे तक जाइये ऐसा आपको मानव का प्रकार शायद ही दिखाई पड़े। खैर कुछ भी हो मैं पूनम के साहस का कायल हो गया हूं। टीवी पर इतनी बात बोलना भी बड़े हिम्मत की बात है। देश को तुम पर गर्व है थोड़ी ताकत और लगाओ, चार साल बाद अगला वल्र्ड कप आयेगा, दुनिया तुम्हारा इन्तजार करेगी। शाबास पूनम पाण्डे।
ये विज्ञान है!
अन्ना हजारे एण्ड कम्पनी भ्रष्टाचार के लिये बनाई गई कमेटी में शरद पवार को रखने से खफा है। ये लोग प्राजी के चातुर्य को नहीं जानते हैं उन्होंने चोर को ही सामान रखाने की जिम्मेदारी सौंपी है। अब ऐसे में चोरी कैसे होगी?1

मार्शल का बाईस्कोप

हम नहीं सुधरेंगे...

गुजराती, मराठी, उत्तर भारतीय..... पर हिन्दुस्तानी नहीं।
उतारो चश्मा, कभी तो भारतीय बनो।
धोनी के छक्के से भारतीय टीम के विश्वकप जीतते ही सारा देश भारतीय रंग में रंग गया। गंावो में खेतों से कस्बो नगरों की गलियों से दिल्ली मुम्बई जैसे महानगरों तक उल्लास, हर्ष, गौरव से जति, धर्म, आयु, गरीब अमीर, मजदूर, मालिक की सभी दीवारों टूट गयी। महिला हो या पुरूष, बच्चे हों या बूढ़े सभी क्रिकेट में भारत के विश्व विजेता बनने पर इतने खुश थे जैसे उनकी अपनी एक करोड़ की लाटरी खुल गयी। सारा देश टीम इन्डिया की कर रहा था। सचिन ० पर आउट हुए थे, फिर भी उनकी चर्चा थी, गम्भीर का शतक नहीं बन पाया इसका अफसोस था। धोनी पूरे टूर्नामेंट में नहीं चल पाये थे, लेकिन फाइन मे कप्तानी का हक अदा कर दिया था इसका सन्तोष था। जातिवाद का जहर और हिन्दू मुस्लिम की खाई कुछ छणों कई दिनों तक पट चुकी थी।
टेलीविजन सेट पर युवराज और भज्जी के आंसू देखकर केवल पजांब की आंखे नहीं सारे भारत की आंखे नम हो गयी थी। खुशी से।
हर भारतीय जब जाति प्रान्त और धर्म की दीवारें तोड़ कर हिन्दुस्तानी बन गया।
तो ऐसा लगा कि अगर देश प्रेम से ओतप्रोत एक  सौ इक्कीस करोड़ की इस  आबादी को रचनात्मक दिश दे दी जाये तो देश में असम्भव कुछ भी नहीं रह जायेगा। दूसरी तरफ भारत का मस्तक हिमालय की तरह ऊँचा हो जाने पर भी नेता अपनी सोंच से ऊपर नहीं उठ सके। हर मुख्यमंत्री अपनी प्रान्तीय दीवारों में कैद रहा। शीला दीक्षित को विराट कोहली और दिखे। नरेन्द्र मोदी को गुजराती युसुफ पठान और मुनाफ पटेल। बहन जी को सुरेश रैना और ..........। महाराष्ट्रीय चाहवाण को सचिन....। झारखण्ड के रमन सिंह को धोनी उत्तराखण्ड के निशंक को ......। पंजाबी बादल को भज्जी...........।
अपनी सनक को ड्रीम प्रोजेक्ट का नाम देकर अरबों रूपये बरबाद करने वाले कंगालों के पास अगर एक तो भी हर खिलाड़ी को बराबर बराबर बांट जाता लेकिन और उतना ही रुपया मिलता जितना आज मिला लेकिन तब शायद गुजराती, पंजाबी, मराठी,... के खेल से बाहर निकलकर हर खिलाड़ी और ज्यादा गौरववित होता। सोंच के इस घटिया स्तर पर हर राजनैतिक नेता बराबर निकला चाहें वह राष्ट्रवाद की बात करने वाले भाजपाई मोदी है, सर्वजन का मुलम्मा चढ़ाये मायावती, कांग्रेस को भारत का पर्याय मानने वाली शीला या बाकी और मुख्यमंत्री। शर्म है इनकी सोच और समझ पर सारे भारत को हम सबको।
अनुराग अवस्थी 'मार्शल'

चौथा कोना

अन्ना हजारे के समर्थन में चौथा कोना का धरना
गणेश शंकर विद्यार्थी की कर्मभूमि रहे कानपुर में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आमरण अनशन पर बैठे अन्ना हजारे के समर्थन में पत्रकारों का धरना आयोजित हुआ। इस धरने को च्चौथा कोनाज् ने आयोजित किया था। नवीन मार्केट के शिक्षक पार्क के इस धरने में कानपुर के सभी अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकारों और छायाकारों ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। धरने का नेतृत्व शहर के जाने माने  कवि एवं  पत्रकार प्रमोद तिवारी जी ने किया। धरने के मध्य अपने संक्षिप्त उद्बोधन में प्रमोद जी ने आपातकाल के दिनों की याद दिलाते हुए नयी पीढ़ी के पत्रकारों से कहा कवि  दुष्यंत कुमार ने जयप्रकाश नारायण को जेहन में रख कर एक शेर कहा था । एक बूढ़ा आदमी है इस मुल्क में या यूँ कहो कि इस अँधेरी कोठरी में एक रोशनदान हैं । आज यही पंक्तियाँ बुजुर्ग युवा समाजसेवी अन्ना हजारे के किरदार को भी उजागर करती हैं ।  कानपुर के सभी सजग पत्रकारों से आग्रह है कि अन्ना हजारे द्वारा जन लोकपाल बिल को लागू कराये जाने की मांग को लेकर किये जा रहे आमरण अनशन को समर्थन देने के लिए चौथा कोना के एक दिवसीय धरने में शामिल होकर अपनी ईमानदार भूमिका का संकल्प दोहराए और कत्र्तव्य पथ पर आगे बढे!  उन्होंने स्वरचित पक्तियां  भी कहीं.
उठा लाओ कही से भी उजाले की किरण कोए
अंधेरो की नहीं अब धमकियाँ बर्दाश्त होती हैं !
उजाले के लिए जलते हैं जो दीपक खुले दिल से,
तजुर्बा है मेरा उनके हवाएं साथ होती है ।
शहर में पत्रकारों और समाजसेविओं  के  मध्य चर्चित रहे इस धरने में  वर्तमान प्रेस क्लब के वरिष्ठ मंत्री सरस बाजपेयी शामिल रहे। इसी प्रकार कानपुर के राष्ट्रीय सहारा के स्थानीय सम्पादक नवोदित जी ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी।  नयी दुनिया साप्ताहिक समाचार पत्र के ब्यूरो चीफ कमलेश त्रिपाठी और राष्ट्र.भूमि के संवाददाता  प्रवीन शुक्ला भी उपस्थित रहे। लगभग एक सौ पच्चीस से अधिक पत्रकारों ने इस धरने में भाग लियाण्
यद्यपि इस कार्यक्रम की सूचना कानपुर के सभी बड़े अखबारों को पूर्व में दे दी गयी थी, किन्तु अखबारी व्यस्तता और अन्य कारणों से उपस्थित न हो सके लोगों अपनी असमर्थता को स्पष्ट किया जो इस धरने के महान उद्देश्य के लिए सफलता की बात कही। जैसा कि सर्वविदित है कि कानपुर प्रेस क्लब का चुनाव विगत सात सालों से नहीं हुआ है और इस संस्था में तमाम गड़बडिय़ा व्याप्त हैं। इस समस्या पर भी इस धरने में दबी जबान से बात शुरू हुयी जो अंतत: मुखर हो गयी। पत्रकारों और छायाकारों में इस संस्था के चुनाव न करवाने पर रोष है, जो अन्ना हजारे के लोकपाल बिल को लागू करवाने के माध्यम से उजागर हो गया। किन्तु प्रमोद तिवारी सहित वरिष्ठ पत्रकरों ने इस के लिए अगला संघर्ष शुरू करने के लिए उनके मध्य नेतृत्व तैयार करने के लिए रास्ता तलाशने का मार्ग दिखाया।1
अरविन्द त्रिपाठी
( लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं)

कवर स्टोरी

श्री राम
आपदामपहर्तारं दातारां सर्वसम्पदाम्।
लोकाभिरामं श्री रामं भूयो-भूयो नमाम्यहम।।
नीलाम्बुज श्यामल कोमलांङ्गम सीतासमारोपितवामभागम।
पाणौमहासायक चारुचापं नमामि रामं रघुवंश नाथम।।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम केवल हिन्दुओं के आराध्य ही नहीं बल्कि स्वयं भारत की अखंड पहचान हैं,भारत और भारतीयों का अस्तित्व हैं। बिना राम के भारत और भारतीयता की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। राम भारत के कण कण में बसे हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम मानवता की पहचान हैं। इसीलिये भारतीय परम्पराओं में रामराज्य की बात कही गयी है। जिसके पीछे का सार्थक तर्क यह है कि जहाँ राम का नाम है वहां शुभ, मगंल, सुख, शान्ति, ज्ञान और समृद्धि ही होगी। अमंगल और अशुभ जैसा कुछ भी होगा ही नहीं।

राम महज एक नाम नहीं है बल्कि एक मंत्र है। एक ऐसा मंत्र जो हर भारतीय के हृदय में बसा हुआ है। राम केवल हिन्दुओं के आराध्य ही नहीं हैं बल्कि स्वयं में एक सम्पूर्ण संस्कृति और मानवता को स्वयं में समाये हुये हमारे लिये एक जीवन्त उदाहरण भी हैं। इसीलिये उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम भी कहा जाता है। क्योंकि उनका सम्पूर्ण जीवन चरित्र ही समस्त मानव समाज के लिये एक ऐसा उदाहरण है जिसपर चलकर ही विश्व शान्ति और वसुधैव कुटुम्बकम् की पुरातन भारतीय मान्यता और विचार को सार्थक और यथार्थ किया जा सकता है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होने वाले नव संवत्सर की नवमी को मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने धरती पर अवतरण किया।
पौराणिक मान्यता के अनुरूप श्री राम का जन्म त्रेतायुग में इक्ष्वाकुवंश में हुआ था। स्वयं मानस में तुलसीदास जी ने इस बात की पुष्टि की है 'नौमी तिथि मधुमास पुनीता, भये प्रकट क्रपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारीÓ। हमारी हिन्दू परम्परा में भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं माना गया है। कहने का मतलब यह है कि हिन्दू परम्परा के अनुसार मनुष्य स्वयं परमपिता परमेश्वर का ही एक अंश है। इसीलिये हिन्दू मान्यताओं में हर देवी-देवताओं का अवतरण दिवस मनुष्यों के जन्म दिवस की ही भांति निश्चित किया गया है और इसके पीछे तमाम सार्थक तर्क भी हिन्दू ग्रन्थों में दिये गये हैं। जैसा कि आधुनिक इतिहासकारों में भी मर्यादा पुरुषोत्तम के जन्म की अवधि को लेकर अभी भी मतैक्य नहीं हो पाया है।
इसकी भी एक वजह है। दरअसल राम स्वयं अनादि हैं अजन्मा हैं। उनका जन्म हुआ ही नहीं। वे तो स्वयं समस्त पृथ्वीवासियों की मनोकामनाओं की परिणित स्वरूप इस धरती पर अवतरित हुए थे। भारतीय पुराणों के अनुसार समय काल की गणना  कल्प के अनुसार होती है।  एक कल्प में १४ मन्वन्तर होते हैं। प्रत्येक मन्वन्तर का अलग मनु होता है। अब तक ६ मन्वन्तर (पहले स्वायम्भुव, दूसरे स्वारोचिष, तीसरे उत्तम, चौथे तामस, पांचवे रैवत और छठवें मनु) वर्तमान में सातवें वैवस्वत मनु का काल चल रहा है। इस काल में भी २६ महायुग समाप्त होने के बाद वर्तमान महायुग के तीन युग समाप्त होकर अब कलयुग चल रहा है। भारतीय पुराणों के अनुसार चार युगों (सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग) का एक महायुग होता है। महायुग सौरमान से ४३ लाख २० हजार वर्ष का होता है। एक सहस्त्र महायुगों का एक कल्प होता है। भारतीय मान्यता के अनुसार सृष्टि रचयिता ब्रह्मा का एक दिन एक कल्प का होता है और रात्रि भी एक कल्प की होती है और सात सौ बीस कल्प का ब्राह्मवर्ष माना गया है। इस प्रकार सौ ब्राह्मवर्ष स्वयं ब्रह्मा की आयु मानी गयी है।
भारतीय पौराणिक काल की गणना के अनुसार कलयुग का आरम्भ महाभारत के युद्ध के पश्चात माना जाता है। यानी ईसा से लगभग ३१ सौ वर्ष पहले। इस सम्बन्ध में डा. पुसल्कर  की किताब वैदिक ऐज में वैवस्वत मनु का समय महाभारत से १७ सौ १० वर्ष पूर्व कहा गया है। इतिहासकारों का एक वर्ग पुराणों में इक्ष्वाकुवंश की नामावली को देखकर मिथ्या अनुमान करता है कि राम कृष्ण के बाद हुये थे। अग्निपुराण के २६वें अध्याय में स्पष्ट किया गया है कि राम के पुत्र लव तथा इनके पुत्र पद्म हुये। पद्म के पुत्र ऋतुपर्ण और ऋतुपर्ण के अक्ष्वापाणि हुये। अक्ष्वापाणि के पुत्र शुद्धोधन तथा इनके पुत्र बुद्ध हुये। इस नामावली में केवल प्रमुख राजाओं का ही वर्णन है। बुद्ध का जन्म लगभग ढाई हजार वर्ष से कुछ अधिक पहले हुआ था। हालांकि यह समय काल भी अभी तक विवादित ही है। इस प्रकार राम का आविर्भाव कलयुग में आता है। पुराणों और हिन्दू ग्रन्थों में कृष्ण के देहावसान से कलयुग का प्रादुर्भाव बताया गया है।
इस आधार पर मर्यादा पुरुषोत्तम के आविर्भाव की यह गणना अतार्किक और मित्था ही है।  कुल मिलाकर जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम अजन्मे हैं, अनादि हैं। इसलिये उनके  धरती पर  अवतरण के काल का निर्णय करना इतना सरल नहीं है। इसके पीछे भी एक तर्क है। हिन्दू परम्परा में पूर्वजों का इतिहास लिखने की वैसी परम्परा कभी नहीं रही है जैसा कि वर्तमान में इतिहास लिखा जाता है। जो भी ऐतिहासिक तथ्य वंशावलियां राज्यकाल इत्यादि मिलते भी हैं वो भी पुराणों और प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में कथानक के रूप में ही लिखे गये हैं। इसके पीछे भी एक सार्थक तर्क  हिन्दू परम्परा की यह मान्यता 'बीती ताहि विसार दे आगे की सुधि लेÓ मतलब जो बीत गया है उससे अगर मानवीय, आध्यात्मिक व धार्मिक विकास की कोई सीख मिले तो उसे तो हमें अपने मन-मस्तिष्क में औरों को देने, उसे आगे बढ़ाने के लिये रखना चाहिये।
बाकी सबको भूत समझकर विसार देना चाहिये। सबसे बड़ी बात यह है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने  इस धरती पर कब अवतार लिया यह काम इतिहासकारों का है। उनके अवतरण के सही-सही समय की जानकारी मिल जाने का मर्यादा पुरुषोत्तम के चरित्र और उनके लिये हमारी श्रद्धा और महत्ता पर  कोई फर्क न तो अब तक पड़ा है और न ही आगे भी पड़ेगा।
श्री राम अनादिकाल से समस्त भारतीयों के हृदय में वास कर रहे थे, आज भी कर रहे हैं और हमेशा ही निश्चित रूप से करते ही रहेंगे। क्योंकि ऐसी कोई स्थिति है ही नहीं जो राम हमसे अलग हो सकें और हम राम से। यूं तो हिन्दू धर्म में राम से पूर्व और राम के बाद भी तमाम अवतार हुये। लेकिन उन सब में राम का महत्व बिल्कुल अलग है। हिन्दू धर्म में अवतारों की महत्ता का साहित्यिक तरीके से वृत्तांत बताने की परम्परा है।  मजे की बात यह है कि राम कथा ही सभी भारतीय भाषाओं में कही गयी। चाहे वह संस्कृत में आदि कवि बाल्मीकि कृत अखण्ड रामायण हो, तेलगू में बुद्धराज कृत रंगनाथ रामायण हो, उडिय़ा में शारलादास कृत विकंला रामायण हो, कन्नड़ में बत्तलेश्वर कृत तोरबे रामायण हो, गुजराती में भलण कृत रामायण हो,  अवधी में तुलसीदास कृत रामचरित मानस हो या अन्य तमाम भारतीय भाषाओं में लिखी गयी अलग-अलग रामायण काव्य। इसकी वजह सीधी और सपाट है और वह यह कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम का चरित्र ही कुछ इस तरह का है कि उससे ज्यादा आदर्श और मर्यादित इस संसार में और कुछ हो ही नहीं सकता। जो हमें मूल रूप से यही सिखाता है किसत्य मार्ग पर चलते हुये दूसरों के लिये जियो। क्योंकि मानव जीवन समस्त जीवों के कल्याण के लिये ही मिला है।
हिन्दू ग्रन्थों और राम काव्यों के नजरिये से देखा जाये तो मर्यादा पुरुषोत्तम अपने भक्तों के लिये बहुत सरल हैं। अपने नाम से लेकर अपनी मर्यादा सभी में। लेकिन अध्यात्मिकता की कसौटी पर राम अपने आप में सब कुछ समेटे हुये हैं।
शंकर, ब्रह्मा सहित अन्य देवी-देवताओं ने भी समय-समय पर भगवान राम की स्तुति की है। तुलसीदास जी की रामचरित मानस में यह उल्लेख आता है कि शंकर-सती एक बार सीता हरण के बाद आकाश मार्ग से गुजर रहे थे। नीचे जंगल में माँ सीता की  खोज में भटक रहे श्री राम को देखकर अनायाश ही भगवान शंकर ने पूर्ण श्रद्धा से भगवान राम को प्रणाम किया और उनके हृदय में भाव जगा-'हरि लोचन छवि सिन्धु निहारी, कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारीÓ। साथ चल रही पार्वती को शंका हुई कि शंकर तो जगत के ईश्वर हैं परन्तु उन्होंने नृप सुत को सच्चिदानन्द कहकर प्रणाम क्यों किया। तब भगवान शंकर ने पार्वती को रामकथा का वृत्तांत बताते हुये कहा- 'सोइ मन इष्ट देव रघुवीराÓ। इसके अलावा भी जब श्रीराम लंका पर चढ़ाई करने के लिये समुद्र किनारे पहुंचे तब विद्वानों ने उनसे समुद्र के किनारे शिवलिंग का निर्माण कर विधिवत पूजन करने का उपाय बताया। श्रीराम ने ऐसा ही किया और उस शिवलिंग का नाम रामेश्वर रखा। साथ मौजूद वानर सेना और अन्य लोगों के पूछने पर उन्होंने रामेश्वर का अर्थ बताया- राम के ईश्वर हैं जो, अर्थात शिव। कैलाश पर्वत पर पार्वती के साथ विराजे भगवान शिव से भगवान राम के रामेश्वर नाम का वर्णन सुनकर नहीं रहा गया और उन्होंने पार्वती से कहा कि वास्तव में राम आदर्श हैं और स्वयं भगवान शिव ने पार्वती को रामेश्वर का भावार्थ यह कहकर बताया कि राम ईश्वर हैं जिसके वही रामेश्वर और इसके साथ ही समस्त देवी-देवताओं ने राम द्वारा स्थापित रामेश्वर शिवलिंग पर पुष्पों की वर्षा की।
रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में वर्णित है कि शंकर पार्वती जी से कहते हैं कि जिसका मन राम के चरणों में अनुरक्त है वही सर्वज्ञ है, वही गुणी है, वही ज्ञानी है, वही पृथ्वी का भूषण है, पंडित है और दानी है, वही धर्म परायण है। रामभक्ति संजीवनी जड़ी है तथा श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही इसका अनुपान है। इसके मनोरोग नष्ट होते हैं। 'रघुपति भगति सजीवन मूरी, अनुपान श्रद्धा मति पूरी'। जब विमल ज्ञान के जल से प्राणी स्नान कर लेता है तब प्राणी के हृदय में रामभक्ति छा जाती है। राम की भक्ति के बिना सुख नहीं है। 'राम विमुख न जीव सुख पावै' और 'हिम से अनल प्रकट बस खोई, विमुख रामसुख पाव न कोई'। हरि भक्ति बिना संसार रूपी समुद्र से नहीं तरा जा सकता है। यह मानस का अटल सिद्धान्त है। 'बिनु हरि भजन भव तरिअ यह सिद्धान्त अपेल'।
भारत में प्राचीनकाल से ही यह विषय बहस का रहा है कि भक्ति श्रेष्ठ है या ज्ञान। श्रीमद भागवतपुराण में भक्ति को श्रेष्ठ माना गया है। अध्यात्म में स्थिति तथा तत्व ज्ञान द्वारा परमात्मा का नित्य दर्शन हो वही ज्ञान कहा जाता है। तत्व ज्ञानी उद्धव तथा तत्वज्ञान हीन गोपियों का संवाद साहित्य का प्रिय विषय रहा। वहीं रामचरित मानस में भक्ति मार्ग की श्रेष्ठता को महिमा मंडित किया गया है। लेकिन भक्ति और ज्ञान में भेद नहीं किया गया है। भेद वस्तुत: कृतिम है। ज्ञान कहने, समझने में कठिन है तथा साधन करने में भी कठिन है। यदि संयोगवश ज्ञान प्राप्त भी हो जाये तो इसे सुरक्षित रखने में अनेक विघ्न आते रहते हैं। 'कहत कठिन, समुझत कठिन, साधन कठिन विवेकÓ।
मर्यादा पुरुषोत्तम को समझने और उनकी कृपा पाने के लिये ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। बल्कि उनकी कृपा पाने में ज्ञान तो काफी हद तक बाधक ही है। क्योंकि  ज्ञान का आधार बुद्धि जो दोषमुक्त नहीं है जबकि भक्ति का आधार हृदय है। जो दोषमुक्त हो सकता है। यदि हृदय में भक्ति का भाव और वास हो ठीक वैसे ही जैसे कि कबीरदास जी ने अपने दोहे में कहा है कि- 
आठ पहर चौंसठ घड़ी मेरे और न कोय, नैना माहीं तू बसे नींद को ठौर न होय।।
जब भक्त की यह स्थिति हो जाती है तभी वह राम को समझ सकता है। जिसका सीधा सा मतलब है कि राम को समझने के लिये सब कुछ विसारना पड़ता है। क्योंकि जहाँ राम हैं वहाँ और कोई नहीं,और कोई हो ही नहीं सकता। इसी लिये राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं,भगवान हैं जीवन के आधार हैं। जब राम की कृपा मिल जाती है तो उसके बाद फिर कोई अन्य आवश्यकता नहीं रह जाती है।1

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

नारद डॉट कॉम

इक लामबाजी की जै जै
शब्द जरूर उर्दू का है लेकिन है बहुत गूढ़। इसका मतलब ठीक से समझने के लिये आपको गायक मुकेश का एक नग्मा गुनगुनाना पड़ेगा। बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं। बस इसी जगह आपको इस शब्द का अर्थ समझना पड़ेगा। आप जरूर सोच रहे होंगे मैं इकलाम बाजी जैसे उर्दू के शब्द के पीछे हाथ धोकर क्यूं पड़ा हूं? दरअसल इसका हिन्दी हरफ थोड़ा सा अश्लील प्रकृति का है वैसे आम बोलचाल की भाषा में इसका उपयोग लोग धड़ल्ले से करते हैं। पराठा शब्द भी इसका पर्याय है और सभ्य भाषा में इसे लोग समलैंगिक भी कहते हैं, अंग्रेजी में 'गे' के रूप में जाना जाता है। इतनी लम्बी प्रस्तावना बनाने के पीछे मेरे पास इसकी ठोस वजह है। एक अमेरिकी लेखक ने उदाहरण सहित एक सनसनीखेज खुलासा किया है उसने महात्मा गांधी  को समलैंगिक बताया है सबूत के तौर पर दो लोगों के नाम भी दिये हैं। बड़ी अजीब बात है बापू को स्वर्ग सिधारे वर्षों बीत गये हैं फिर ऐसी ओछी बात करना सिर्फ प्रचार पाने का एक घटिया तरीका भर समझ में आ रहा है। फिर अगर ये मान भी लिया जाये कि महाविद्वान ये अमेरिकी कथाकार सही और प्रमाणिक बात कर रहे हैं तो मैं एक बात पूरे दावे से कह सकता हूं कि बापू के दूसरे पार्टनर इस कथाकार के नाना या दादा जरूर रहे होंगे। दूसरों के बारे में अभद्र बातें करने वाले लोग कम से कम अपनों को तो छोड़ ही देते हैं लेकिन अंग्रेजी संस्कृति की भली चलाई ये कोई रिश्ते-नाते मानते कहां हैं? इन महान लेखक का नाम आप जरूर जानना चाहेंगे, ये हैं थामस बेवर और इनकी किताब का नाम है 'गोइंग नेटिवÓ। किताब के कुछ अंश पढऩे के बाद मुझे लगा कि महोदय कुछ सरके हुये भी हैं उन्होंने बापू के ऊपर कुछ महिलाओं के साथ भी घनिष्ठ सम्बन्ध होने की बात कही है। अगर बेवर साहब की माने तो बापू ने पूरे जीवन में सिर्फ एक ही काम किया है, बस पुरुषों और औरतों से जिन्दगी की डोर जोड़ते रहे। खैर कोई बात नहीं पगलों के इस संसार में महापगलों का क्या कहना?
कितने आदमी थे?
गब्बर के पैदा होते ही उसकी मां ने उसे ३-४ कंटाप जड़ दिये।
नर्स ने पूछा बहिन जी ये क्या कर रही हैं?
अरे ये मुआ पूंछ रहा है कितने आदमी थे?1

प्रथम पुरुष

नये जमाने के हिसाब से आवश्यक हैं कानून संशोधन 

हम मृत्यु से डरते हैं क्यों? क्योंकि हमको भुला दिया जायेगा। हमारे प्रियजन, संगी-साथी, समाज हमें भुला देगा इसीलिये हम मरने से डरते हैं। हम चाहते हैं कि हमें हमेशा याद रक्खा जाये। क्या यह सम्भव है यदि सभी लोग सभी को हमेशा याद रक्खें तो मस्तिष्क तो इन यादों से फट जायेगा। उसके पास और कुछ करने की जगह ही नहीं रहेगी। यह अस्वाभाविक है फिर भी हम यह आशा करते हैं। हमने श्री राम श्री कृष्ण के चरित्र निर्माण किये उनसे असाधारण कार्य कराये उनको अमरत्व दिया परन्तु उन्हें भगवान कहा मनुष्य नहीं। हम मशहूर होना चाहते हैं हम स्मारक बनवाते हैं अपनी याद को कायम करने को हम  ऐसा क्यों चाहते हैं मेरी  समझ में तो यह एक एहं है। अपने को श्रेष्ठ समझने का सच तो यह है कि आप ऐसा कार्य करें (दूसरों के लिये समाज के लिये) जिन्हें याद रक्खा जाये। उन कार्यों को आपको या आपके नाम को नहीं परन्तु हो रहा है उल्टा। महापुरुषों के नाम को याद रक्खा जा रहा है उनके कार्यों को नहीं। अतएव मृत्यु के जरिये नहीं वह तो एक दिन आनी ही है। इस जीवन में ऐसे कार्य करें जिन्हें हमेशा याद रक्खा जाये। हमको अवसर मिला है कि समाज हमें याद रक्खे। अच्छे विचार अच्छे कार्य कभी नहीं मरते। स्मारक, मन्दिर, मसजिद तो एक दिन ढह जायेंगे। वैसे भी इनका अस्तित्व सभी नहीं मानते परन्तु अच्छे कार्यों को कोई नहीं नकारता। कोई बात नहीं तुमको भुला दिया जाये परन्तु यह तो कहा जाये अच्छा इन्सान था। डर के मत जीओ मृत्यु तो उस अवसर का अन्त है जब हमारी कुछ करने की क्षमता शेष नहीं रहती, पेड़ की तरह जो फल नहीं दे सकता छाया नहीं दे सकता, नदी जो पानी नहीं दे सकती इत्यादि-इत्यादि। मृत्यु एक अवस्था है प्रत्येक कृति की (सृष्टि की) कुछ नहीं तो कम से कम अपनी वाणी से अपने कार्यों से किसी को दुखी न करें इस बात का एहसास रहे आपको।
हमने १९४७ में आजादी पायी संविधान बनाया परन्तु हमारा प्रशासन अंग्रेजों के बनाये कानूनों पर चल रहा है जो इतने पुराने है कि उनसे अपराधों और अपराधियों पर रोक लगाना और सजा दिलाना असम्भव है।
१. कुष्ठ रोग का इलाज अब सम्भव है परन्तु इसे लाइलाज बताकर तलाक मिल सकता है। १८६९ का कानून।
२. किसानों को कर्ज मिलने का कानून १८८४ का है।
३. फैक्ट्रीज एक्ट १९४८ का है।
४. गंगा व अन्य पुलों पर चुंगी १८६७ के कानून से लगती है।
५. सरकारी भवनों पर १८९९ का कानून लगता है।
६. पुलिस को चलाने का कानून १८६१ का है।
७. होटलों और रेस्टोरेंटों पर १८६७ का कानून लगता है।
८. देश का एक कानून कहता है कि १५ वर्ष की पत्नी से सहवास अपराध नहीं है और दूसरा कानून विवाह की उम्र १८ वर्ष स्त्री के लिये और २१ वर्ष पुरुष के लिये है।
हम देश को १०० वर्ष से भी पुराने कानून पर चला रहे हैं। लगता है हमारे कानून बनाने वाले अन्धे हैं बहरे हैं और जानबूझ कर कानूनों में सुधार नहीं करना चाहते हैं। ऐसे पुराने कानूनों से उनका स्वार्थ सिद्ध हो रहा होगा।
 चीन में न्याय व्यवस्था
हमारे यहां के एक टीम ने जिसमें सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी थे एक चीन में एक आरोपी के मुकदमे की प्रक्रिया३ माह में पूरी करके उसे जेल में भेज देते हैं। अन्य सभी मुकदमे भी ६ माह में तय कर दिये जाते हैं। उनकी सभी अदालतें कम्प्यूटर के नेटवर्क से जुड़ी हैं। जज के सामने सभी सूचनाएं उपलब्ध रहती हैं। सभी सूचनाएं पर्दे पर उपलब्ध रहती है जिसे वादी, जज प्रतिवादी देख सकते हैं। कम्प्यूटर पर घटना के स्थान पर पाये गये उंगलियों के निशान, हथियार एवं गवाहों के बयान भी मुकदमे के समय उपलब्ध रहती है। चीन में क्रिमिनल अपराध केवल ६७ प्रतिशत हैं अन्य मुकदमे (सिविल एवं व्यवसाय सम्बन्धी) ६८ प्रतिशत हैं। जिनको बातचीत के द्वारा तय करने की कोशिश होती है। इसके लिये एक कमेटी होती है। न्यायालय इसे मान्यता देता है और अपने आदेश में लिखता है। वर्ष में लगभग एक करोड़ मुकदमे होते हैं जिसमें १० हजार सुप्रीम कोर्ट में। बहस समाप्त होने पर एक या दो दिन में मुकदमा तय हो जाता है बहस अधिक से अधिक १० दिन चलती है। अदालत का आदेश अधिक से अधिक पांच पन्नों का होता है अन्तिम आदेश केवल एक पेज का। भ्रष्टाचार के मुकदमे (सरकारी) बहुत कम होते हैं। उनका निर्णय ३ माह में पूरा हो जाता है। भारत उनकी प्रणाली से बहुत कुछ सीख सकता है और अपनी न्याय व्यवस्था सुधार सकता है।1