मंगलवार, 27 जुलाई 2010

चौथा कोना

लत्ता हो गई पत्रकारिता

कानपुर में दैनिक जागरण और लखनऊ में राष्ट्रीय सहारा दैनिक को समझ आ चुका होगा कि दलित बेटी की हुकूमत का मूड क्या है? कानपुर में विश्व के नम्बर एक अखबार के मालिक महेन्द्र मोहन की मौजूदगी में उनके चीफ रिपोर्टर को डीआईजी प्रेम प्रकाश ने खुद मारा और अपने सिपाहियों से मरवाया. मालिक निदेशक 'महेंदर बाबूÓ बेचारे तिलमिला कर रह गये, न कुछ कह पाये, न कुछ कर पाये. यहां तक कि डीआईजी के तबादले के लिए पूरा जोर लगा डाला... तबादला तो दूर उन्हें शाबाशी मिली. तभी तो वह आज भी डटे हैं हां, जिसका अंदाजा नहीं था... और न ही कोई साफ कारण था.... डीएम साहब जरूर बदल दिये गये. माया हुकूमत का यह कानपुर वालों को एक संदेश है कि उसकी नजर में अखबार या मीडिया का कोई लिहाज नहीं है. ठीक इसीतरह पिछले दिनों लखनऊ में 'वेंट्स क्वीनÓ की अगवानी में राष्ट्रीय सहारा के पत्रकारों पर लाठीचार्ज भी यही बताता है कि यह सरकार न तो 'सहाराश्रीÓ के सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों को मान देती है और न ही उनके समाचार-पत्र को. यह सरकार (माया) तो समय-समय पर 'सहारा समूहÓ को 'डेंटÓ देने की कोशिश में रहती है. यह तो दम है सुब्रत राय सहारा का कि वह हर डेंट को झेलते हैं और प्रतिक्रिया में देश के संविधान, कानून और आजादी का भरपूर इस्तेमाल कड़ा प्रतिरोध करते हैं. लेकिन जागरण वालों ने क्या किया...? वे बेइज्जत हुए मार खाई और उसके बाद घटना को छुपाने में लग गये, मानो कोई बड़ा गुनाह कर डाला हो. जब अखबार खुद अपने ऊपर हुई ज्यादती का प्रतिरोध नहीं करेगा तो उसके कारिंदों की आखिर क्या सामाजिक दशा होगी. आज कानपुर शहर में प्रेम प्रकाश के नेतृत्व वाली पुलिस के सामने 'पत्रकारोंÓ और पॉकेट मारों में कोई फर्क नहीं रह गया है. एक जिम्मेदार रिपोर्टर ने मुझे बताया कि डीआईजी ने पिछले एक महीने में बारी-बारी से शहर के आधा दर्जन शेर बनकर घूमने वाले रिपोर्टरों के थानों में प्रवेश पर अघोषित रोक लगा रखी है. ये वे पत्रकार हैं जो 'डीआईजीÓ के काफी करीबी प्रचारित थे. इन पत्रकारों के बारे में थानों की दलाली भी चर्चित है. कुल मिलाकर लत्ता हो गये हैं कानपुर के पत्रकार..? आखिर पत्र और पत्रकारों की इस दशा के लिए जिम्मेदार कौन है? जब पैसे लेकर खबरें छापना पवित्र व्यावसायिकता की श्रेणी में आ जायेगा. दलाली और वसूली पत्रकारों का लक्ष्य होगा, अखबरों के मालिक और संपादक राजनीति दलों की पक्षधरता करेंगे, राज्यसभा जाएंगे, खुलेआम किसी दल विशेष के पक्ष में अभियान चलाएंगे, किसी नेता विशेष को मिटाने में अपने थैले खोलेंगे, कागज काला करेंगे तो अगला भी यानी सामने वाला 'पीडि़त बलिष्ठÓ भी मौका आने पर अपना 'दांत-बलÓ दिखायेगा ही. कौन नहीं जानता कि सहाराश्री और मुलायम सिंह यादव के बीच क्या है..? महेन्द्र मोहन तो खुद सपा से राज्य सभा गये. अब अगर यह दोनों 'व्यक्तित्वÓ दलित पुत्री माया की तीसरी आंख के सामने आते हैं तो कैसे कहा जाये कि यह तीसरे खंभे का चौथे खंभे पर प्रहार है. इसे यह क्यूं न माना जाये कि बसपा अपने नम्बर वन दुश्मन सपा के सूरमाओं को अपने निशाने पर रखे है.शहर भूला नहीं होगा जागरण के 'फोटोग्राफरÓ लल्ला पर तत्कालीन एसएसपी डीएन सांवल की पुलिस का हमला और बदले में पत्रकारों का जवाब..। जागरण प्रबंधन उस मौके पर भी 'सांवलÓ की खैर ख्वाही में लगा था और अपने फोटोग्राफर को ही दोषी मान रहा था. लेकिन तब 'प्रेस क्लबÓ ने मोर्चा लिया. कुछ हुआ हो न हुआ हो... घटना के बाद वर्षों कानपुर में किसी डीआईजी या आईजी की पत्रकारों को छेडऩे की हिम्मत नहीं थी. लेकिन आज का प्रेस क्लब केवल चंदा खोरी और भ्रष्ट आचरण वाले पत्रकारों का कुनबा भर बनकर रह गया है. प्रेस क्लब में दस वर्षों से उन सतही पत्रकारों का कब्जा है जो शहर के गुंडा-माफियाओं से आर्थिक रूप से पोषित हैं. चुनाव कराने के नाम पर प्रेस क्लब की पूरी कार्यकारिणी को ऐसा लगता है मानो उनसे उनके बाप का 'राज-पाटÓ बदलने को कहा जा रहा है. जिस शहर में ऐसे भोथरे पत्रकारों का नेतृत्व होगा, व्यापारी अखबारों का वर्चस्व होगा और दल्ले पत्रकारों के हाथों कलम होगा तो पत्रकारिता लत्ता होगी ही. इसमें क्या दोष कानपुर के प्रेम प्रकाश का या लखनऊ के हरीश कुमार का. बाकी बात रही माया सरकार की तो चौथे स्तम्भ पर बार-बार अकारण हमलावर होना आम जनता पर हमलावर होना भी है. इसलिए ज्यादा सत्ता के मद में इतराना ठीक नहीं.1प्रमोद तिवारी

एजुकेशन हब में छेद
करोड़ों का निवेश और लंबे ताम-झाम से निजी इंजीनियरिंग कालेज खोलने वालों को समझ आ रहा होगा कि शिक्षा.. विशेषरूप से तकनीकी शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा अर्थात सीधे-सीधे जीवन यापन से जुड़ी शिक्षा किसी पैकेज, स्कीम या विज्ञापन की बैसाखियों पर साध कर न किसी को दी जा सकती है और न हीं ली जा सकती है. खरीदना बेंचना तो बहुत दूर की बात है. शहर के कामयाब धनाढ्यों के खारिज इंजीनियरिंग कालेज तो कम से कम २०१० सत्र में यही सीख दे रहे हैं.
प्रदेश में तेजी से उभरे कानपुर नाम के 'एजुकेशन हबÓ में इसबार छेद दिख रहा है. पहले यूपीटीयू की प्रवेश परीक्षा के नतीजे आये. इन नजीजों ने काकादेव के कोचिंग गुरुओं की गुरुअईÓ ढीली कर दी. शहर से न कोई उल्लेखनीय रैंक आई और न ही कानपुर कोई विशेष आकर्षण पैदा कर सका. अब जब प्रवेश के लिए कालेजों के चयन की बारी आई तो इंजीनियर बनाने वाले कालेज खाली पड़े हैं और यूपीटीयू पास युवा टेलेंट एडमीशन लेने से इंकार कर रहा है. नतीजनत... लगभग सभी के लिए प्रवेश के दरवाजे खोल देने के बाद भी इस बार प्रदेश के निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों में अच्छी खासी तादाद में सीटें नही भर पायीं.सीटें भरने का यह हाल तब है जबकि इस साल इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा आयोजित करने वाली संस्था उत्तर प्रदेश प्रावधिक विश्वविद्यालय (यूपीटीयू) नें परीक्षा में बैठने वाले करीब-करीब सभी छात्रों को कांउसिलिंग में बुला लिया है. प्रावधिक विश्वविद्यालय से संबद्ध निजी और सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेजों में इस साल बीटेक की 1.05 लाख सीटें हैं. उत्तर प्रदेश में प्रावधिक विश्वविद्यालय के तहत 280 कॉलेज हैं.बीते साल भी कांउसिलिंग के बाद निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों की 16,000 सीटें नहीं भर पाई थीं. इस बार की काउंसिलिंग में यह संख्या और बढ़ गई है. लगभग ४८ हजार सीटें खाली पड़ी हैं. यह सब तब है जब इस बार छात्रों को लुभाने के लिए निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों ने प्रवेश के दो महीने पहले से ही जबरदस्त विज्ञापन अभियान छेड़ दिया था. निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों ने छात्रों को आकर्षित करने के लिए काउंसिलिंग सेंटर पर अपने सजीले स्टॉल भी सजा रखे थे. इन स्टॉलों पर छात्रों को मनचाहा ट्रेड देने का वादा भी किया गया. निजी इंजीनियरिंग कालेज अपने यहां के प्लेसमेंट के बारे में भी बढ़ा-चढ़ाकर बताते रहे यहां तक कि एडमीशन के साथ लेप-टॉप, मोबाइल, कंसेशन व कमीशन की स्कीमें भी लगाईं लेकिन नतीजे में शिक्षा और पान का गुटखा अलग-अलग उत्पाद निकले. स्तरीय शिक्षा में एक तरह से छात्रों ने कानपुर ही क्यों पूरी की पूरी यूपीटीयू को ही खारिज कर दिया. कानपुर में एक लाख ६४ हजार बच्चों को काउंसिलिंग के लिए बुलाया गया. केवल ३५ प्रतिशत ही बच्चे काउंसिलिंग में आये और इनमें भी कितनों ने ही माहौल देखकर एडमीशन लेने का मन छोड़ दिया. हालत यह है कि शहर के जो इंजीनियरिंग कालेज मीडिया और होर्डिंगों में छाये पड़े हैं वे ये छुपाने में लगे हैं कि उनके यहां एडमीशन की क्या स्थिति है. कालेजों ने अखबारों के मुंह पर पहले ही विज्ञापन की पट्टी बांध रखी है जिसके कारण वे तमाम सच्चाइयां जो कालेज संचालकों के धंधे को नुकसान पहुंचा सकती हैं, अभी भी सार्वजनिक नहीं हैं. कोचिंग संचालक अमित थालिया कहते हैं कि चाहे कोचिंग हो या इंजीनियरिंग कालेज थोथे प्रचार से कुछ नहीं होगा. इसबार कोचिंग और इंजीनियरिंग कालेजों में प्रवेश को लेकर जो हताशा देखी जा रही है उसका कारण है कि संस्थानों की ओर से विज्ञापनों में जो दावे किये गये वे वक्त के साथ सबके सामने आ गये. जैसे अगर किसी कोचिंग में वास्तव में शिक्षा का स्तर है तो इसका असर यूपीटीयू के रिजल्ट में साफ हो जाता है. ऐसे ही अगर किसी इंजीनियरिंग कालेज में वाकई हुनरमंद तैयार किये जाते हैं तो इसका असर कैंपस सलेक्शन में या बच्चों के प्लेसमेंट से साफ हो जाता है. चूंकि उत्तर प्रदेश में विशेष रूप से कानपुर में इंजीनियरिंग कालेजों की शुरुआत को अब ४ वर्ष हो ही चुके हैं तो यहां के शैक्षणिक स्तर और उससे प्लेसमेंट की गुंजाइशों की तस्वीर उभरने लगी है. जिसकी पहली झलक उत्साह जनक नहीं है. विश्व विद्यालय के पूर्व कुलपति का कहना है कि प्रदेश में लगभग २७७ इंजीनियरिंग कालेजों की आवश्यकता नहीं है. प्रतिभा और व्यवसायिक आवश्यकता को देखते हुए प्रदेश में १०० से ज्यादा कालेज नहीं होने चाहिए. इसबार जो सीटें खाली पड़ी हैं इसका एक कारण कालेजों की बहुतायतता भी है.कानपुर के साथ-साथ राजधानी लखनऊ की भी यही दशा है. काउंसिलिंग समाप्ति के बाद हर कालेज अब भी यहां एडमीशनों की तलाश कर रहा है. बीते बुधवार को 82,000 से 1,10,000 तक की रैंक वाले 28,000 छात्रों को काउंसिलिंग के लिए बुलाया गया था. पर इनमें से केवल 5500 छात्रों ने ही रिपोर्ट किया. इस बार उत्तर प्रदेश सरकार ने यूपीटीयू को दो हिस्सों गौतमबुद्ध प्रावधिक विश्वद्यालय लखनऊ और महामाया प्रावधिक विश्वविद्यालय में बांट दिया है. काउंसिलिंग से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि छात्रों का ज्यादा रुझान पश्चिमी उत्तर प्रदेश में स्थित इंजीनियरिंग कॉलेजों की ओर है जिनमें प्रवेश महामाया प्रावधिक विश्वविद्यालय के जरिए हो रहा है. हालांकि सीटें भरने में दिक्कत वहां भी आ रही है. बदलाव के इस दौर में इंजीनियरिंग करने के इच्छुक छात्रों की प्राथमिकताएं भी बदल गई हैं. सूचना तकनीकी के लिए इंजीनियरिंग छात्रों की दीवानगी अब बीते दिनों की बात लगती है. उत्तर प्रदेश प्रावधिक विश्वविद्यालय (यूपीटीयू) की प्रवेश परीक्षा पास करने वाले छात्रों की ट्रेड को लेकर रुचि बदल गयी है.पहले जहां कंप्यूटर साइंस और सूचना तकनीकी का बोलबाला था वहीं इस बार यूपीटीयू से संबंद्ध इंजीनियरिंग कालेजों में प्रवेश लेने के इच्छुक छात्र सिविल, इलेक्ट्रिकल और मेकेनिकल जैसे ट्रेड को अपनी पहली पसंद बना रहे हैं. छात्रों की प्राथमिकताओं में अब आईटी नीचे हो गया है जबकि सिविल पहली पसंद बन गया है.1विशेष संवाददाता
खरी बात
विषैला प्रतिकार
सवर्ण अभिभावक जिस राह पर अपने बच्चों को ढकेल रहे हैं उस पर सिर्फ कांटे ही नहीं कुं आं और खाई भी हैं. इस सप्ताह रमाबाई नगर और आस-पास से लगातार खबरें आईं कि अमुक गांव के अमुक स्कूल में सवर्ण बच्चों ने इसलिए मिड-डे मील (दोपहर का सरकारी भोजन) का तिरस्कार कर दिया क्योंकि इसे दलित रसोइयों ने बनाया था. जहां से भी ये खबरें आईं तुरन्त पुलिस और प्रशासन के आला अफसर मौके पर दौड़े. खूब माथा-पच्ची हुई, पंचायत बैठी, लोगों को समझाया बुझाया गया, मान मन्न्उवल हुई. लेकिन किसी भी स्कूल के प्रधानाचार्य शिक्षाधिकारी या सवर्ण अभिभावकों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की गई. क्या इसतरह की घटनाएं कानूनन अपराध नहीं हैं? क्या सार्वजनिक रूप से सवर्णों का यह दलित तिरस्कार दलित उत्पीडऩ की श्रेणी में नहीं आता. एक व्यक्ति किसी कारण वश दूसरे व्यक्ति को जाति सूचक शब्द के साथ गाली देता है, तत्काल उस पर हरिजन एक्ट ठोंक दिया जाता है. क्या यह कुल दलित समाज को कुछ नामित सवर्णों की ओर से गाली नहीं है. आखिर पुलिस क्यों नहीं रिपोर्ट लिखती, क्यों नहीं उन गांव वालों को जेल में डालती जिन्होंने कोमल, पावन, सुंदर चित्त वाले बच्चों के दिल और दिमाग में 'जातीय विषÓ घोलने का काम किया है. प्रदेश में दलित उत्थान के एजेंडे वाली सरकार है. वह सरकार है जिसने सवर्णों को जूतों से मारकर सत्ता हासिल करने का डंका पीटा था. आज जब 'जूताÓ खाने का काम कुछ सिरफिरे सवर्णों ने खुलेआम किया है तो सरकार चुप्पी साधे है. प्रशासन समझदार काजी की भूमिका में नजर आ रहा है. और पुलिस पंडित जी को, ठाकुर साहब को, सेठ जी को हरिजन-एक्ट में सड़ा देने वाले तेवर नहीं दिखा रही है. सभी मामले को किसी तरह दबाने में लगे हैं. क्योंकि अगर यह चिंगारी जरा भी भड़की तो सूबे का सारा जातीय सौहार्द अनियंत्रित अराजकता में तब्दील हो सकता है. निसंदेह सरकार पुलिस और प्रशासन बेहद समझदारी और संजीदगी से काम ले रहा है. आप सोच रहे होंगे एक तरफ कानूनी कार्रवाई की पुरजोर वकालत और दूसरी तरफ लीपा-पोती का समर्थन.. आखिर यह कैसी खरी-खरी है..? तो यह खरी-खरी ऐसी है कि 'जूताÓ मारकर कोई सत्ता भले हथिया ले लेकिन जूता मारकर कोई व्यवस्था नहीं चला सकता. जिस समय मायावती ने दलित स्वाभिमान के भ्रम में सवर्णों को सार्वजनिक रूप से गरियाया था तब भी पुलिस, प्रशासन व व्यवस्था को उस विषैले बयान को संज्ञान में लेकर कठोर कार्रवाई करनी चाहिए थी. लगभग 'जूताÓ मारने जैसी ही कार्रवाई .. लेकिन 'जूताÓ से व्यवस्था कहां चलती है? शायद इसीलिए तब की सरकार मौन थी और शायद इसीलिए आज की सरकार भी मौन है. आज जब प्रदेश में मायावती की सरकार है तो यह दलितों के सामाजिक उत्थान का स्वर्णिम काम होना चाहिए. दलितों के प्रति अन्य जातियों का प्रेम बढऩा चाहिए. केवल अर्थ व्यवस्था ही नहीं सामाजिक अवस्था भी सुधारनी चाहिए दलितों की. लेकिन जब दलित का नेतृत्व निज जातीय उत्थान के लिए अन्य जातियों के खिलाफ अपमान जनक भाषा और भेद-भाव पूर्ण कानूनी कार्रवाइयों का इस्तेमाल करेगा तो प्रतिक्रिया में विषैले जातीय विद्वेष का ही जन्म होगा. पिछले हफ्ते कानपुर और कन्नौज जिलों में 'मिड-डे-मीलÓ की बहिष्कार की घटनाओं के रूप में सवर्णों की विषैली प्रतिक्रिया ही प्रकट हुई है. जातीय विद्वेष विष है. विष का व्यवहार समान होता है. वह सब को मारता है. जिन सवर्ण अभिभावकों ने अपने बच्चों का जेहनी तौर पर दलित रसोइये के हाथों खाना न खाने की 'घुट्टीÓ पिलाई है, उन्हें पता नहीं कि उनसे कितनी बड़ी खता हो गई है.ये बच्चे जिस दौर में कदम रख रहे हैं वहां अगर ये इसी मानसिकता से आगे बढ़े तो भूखों मर जाएंगे. होटलों में, शादी-ब्याह के समारोहों में, ढाबों में, यहां तक कि शहर के घरों में कौन पूछ रहा है किसकी जाति..? शहरों में तो घरों में झाड़ू-पोंछा ही नहीं, चौका-बरतन और खाना बनाने का ज्यादातर काम मुख्यत: दलित लड़कियों ने ही संभाल रखा है. शादी-ब्याह में तो खाना परोसने का काम अब दलित बहुल काम हो चुका है. आज उन्होंने जाने-अनजाने अपने बच्चों में 'विषारोपणÓ कर दिया है. जो दुनिया है उसमें जाति और धर्म का कोई व्यवहारिक महत्व नहीं बचा है. वैसे भी जाति 'संस्कारगत गुणों का समूहÓ और धर्म आध्यात्मिक विकास का नाम होता है. जब समाज को संस्कारों से और मनुष्य को 'अध्यात्मÓ से कोई लेना-देना शेष नहीं रह पा रहा है फिर दलित, सवर्ण का, हिन्दू-मुसलमान का काम क्यों..? मिड-डे-मील का यह नया मसला मेरी दृष्टि में सवर्णों का खुद अपनी पौध की जड़ों में तेजाब डालनेवाला कृत्य हुआ. सवर्ण तो वह है जो शबरी के जूठे बेर खाये.. रैदास के चरणों में बैठकर आचरण सीखे.. और अगर सामने भीमराव जैसी दलित मेधा पड़ जाये तो उसे निखारकर अम्बेडकर बना दे.1
चिंगारी छुआ छूत की
कानपुर देहात यानी रमाबाई नगर और उसके आस-पास एक खतरनाक चिंगारी सुलग रही है. यह चिंगारी अगर भड़की तो देश के सबसे बड़े प्रांत उत्तर प्रदेश के साथ-साथ पूरा देश भी जल सकता है जिसकी राख आजादी के ६३ वर्ष बाद हर भारतीय के माथे पर कलंक का टीका होगी.
कानपुर देहात रमाबाई नगर होते ही एक खतरनाक चिंगारी का गर्भ ग्रह बनता जा रहा है. यह चिंगारी है जातीय विद्वेष और छुआ-छूत की आजादी के ६३ वर्ष बाद यह कल्पना करना विश्व की सभी पीढ़ी को तैयार करते समय उनके मां-बाप आदमी से आदमी के स्वार्थ को पाक-नपाक बताएंगे. जरा मुश्किल है लेकिन यहां कानपुर देहात और पड़ोस के जिलों में विशेष रूप से कन्नौज में यह ग्रह मुश्किल नहीं है. इन इलाकों के करीब दर्जन भर मध्याह््न भोजन बनाने वाले विद्यालयों में सवर्ण परिवारों के बच्चों ने अपने अभिभावकों के कहने पर भोजन लेने से इंकार कर दिया. क्योंकि भोजन दलित रसोइये ने बनाया है. इस तरह की घटनाएं एक कड़ी बनाती नजर आ रही हैं. जबकि १५ अगस्त १९९५ को भारत सरकार ने यह मिड-डे मील कार्यक्रम की शुरूआत की थी, सब साथ-साथ मिलकर खायेंगे सब साथ मिलकर पढ़ेंगे. भेद भाव खत्म होगा सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ेगी. बच्चे पेट से मजबूत रहेेंगे तो पढऩे में ध्यान लगेगा. लेकिन उसे यह नहीं पता कि कल साथ-साथ खाते-पीते अचानक बच्चों के बहाने बड़े-बूढ़े छुआ छूत का घिनौना खेल खेलने लगेंगे. यह चिंगारी भड़क भी उस दौर में रही है जब सूबे का नेतृत्व एक दलित महिला के हाथों है. रमाबाई नगर में सबसे पहले इस चिंगारी ने जन्म लिया अकबरपुर ब्लॉक के ग्राम भवानीदीन में सबसे पहले सवर्ण छात्रों ने दलित के हाथों मिड-डे मिल खाने से इन्कार कर दिया. इसी ब्लाक के नहरपुर प्राइमरी स्कूल में भी दलित महिला ने खाना पकाया था जिसे बच्चों ने यह कहकर खाने से इन्कार कर दिया कि भोजन संक्रामक है. इसी तरह संबलपुल ब्लाक के झींझक गांव में जस्सापुर प्राइमरी स्कूल है यहां ८५ छात्र हैं यहां के बच्चों ने मिड-डे मील बायकाट कर रखा था. कारण वही कि खाना बनाने वाले दलित वर्ग के थे. इसी तरह डेरापुर ब्लाक क े कपासी में प्राइमरी स्कूल है यहां भी ब्राहम्णों और ठाकुरों के बच्चों ने दलित रसोंइये नीलू कठेरिया के हाथों बने खाने का बहिष्कार कर दिया. झींझक ब्लाक का एक गांव है सम्बलपुर इस विद्यालय में ५२ छात्र हैं यहां खाना बनाने का काम मीनू बाल्मीकि करती हैं. इस विद्यालय में केवल दलित छात्र ही लंच ग्रहण कर रहे हैं. बाकी लोग हाथ जोड़कर खाना खाने से इंकार कर रहे हैं. विद्यालय के हेड मास्टर भागवत सिंह कहते हैं कि अचानक सवर्णों के बदले मिजाज को समझना मुश्किल है हालंाकि वो ग्रामीणों से मिले भी और उन्होंने समझाने का प्रयास भी किया लेकिन रमाबाई नगर में इस तरह की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं. अकबरपुर थाना क्षेत्र में एक गांव आता है मैरखपुर यहां सवर्ण बच्चों के अभिभावकों ने स्कूल में घुसकर तोड़-फोड़ की और किचन में ताला डाल दिया. दलित महिला रसोइये को घण्टों बन्धक भी बनाये रखा. ऐसी ही हिंसात्मक एवं शर्मनाक घटनाऐं कन्नौज जिले में भी लगातार हो रही हैं, जहां सवर्ण ग्रामीण लगातार दलित महिला के हाथों बने भोजन को अपने बच्चों के लिए अछूत बता रहे हैं एक घटना है बहादुरपुर ग्राम सभा की, यहां ४७ बच्चों के लिए एक दलित रसोइये ने खाना बनाया जिसमें ३५-४० बच्चोंं ने खाना खाने से इन्कार कर दिया. यहां सिर्फ इतना ही नहीं हुआ मिड-डे मील बनाने के लिए दलित महिला की नियुक्ति के विरोध में स्कूल हेड मास्टर व अध्यापकों एवं अन्य स्टाफ को भीं बंधन बना लिया गया. इस बारे में बेसिक शिक्षा अधिकारी (रमाबाई नगर) संजय शुक्ला का कहना है कि घटना के लिए जिम्मेदार तत्वों की पहचान कर ली गई है और माहौल बिगाडऩे वालों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्यवाही की जायेगी. डेरापुर ब्लाक के गांव बिसोहा, लोनारी, अकबरपुर ब्लाक के गांव कुची, डेरापुर ब्लाक के गांव शहजादपुर आदि के प्राइमरी विद्यालयों में मिड-डे मील बहिष्कार की घटना संज्ञान में आयी. जिले के जिम्मेदार अधिकारी लगातार जाति विद्वेष के केन्द्र बन रहे प्राइमरी विद्यालयों का दौरा कर रहे हैं और स्थितियों पर नजर बनाये हुए हैं. दलित रसोइयों के खिलाफ बढ़ते असंतोष और आक्रोश को देखते हुए कई गांवों के प्राइमरी पाठशालाओं में सवर्ण जाति के खानसामा नियुक्त करने के निर्देश दिये गये. कई जगहों पर उन दलित लोगों क ो दूसरे कामो में लगा दिया गया जहां सवर्णो के बच्चों ने खाना खाने से इन्कार कर दिया. इसी तरह कई और प्रशासनिक कदम हैं जो यह दर्शाते है कि सवर्णों की ओर से चलायी जा रही मिड-डे मील बहिष्कार की मुहिम के आगे प्रशासन सख्ती दिखाने से कतरा रहा है.1 विशेष संवाददाता

सोमवार, 12 जुलाई 2010

खरी बात
नाम का हुआ तो काम का भी हो....
प्रमोद तिवारी
मायावती ने एक तरह से एक अनाम जिले को नाम दिया है. 'कानपुर देहातÓ कोई नाम है? जब कानपुर को शहर और देहात दो भागों में बांटा गया था तो देहात क्षेत्र का नाम 'अकबरपुरÓ तकरीबन तय था. लेकिन कभी माती ( जहां आज मुख्यालय है) तो कभी अकबरपुर की किचकिच में कोई नाम जगत गजट नहीं हो पाया. बहुत हुआ तो कानपुर का देहात कानपुर देहात कहलाने लगा. और धीरे से यही नाम सरकारी और आम जुबान पर चढ़ गया. अब मायावती ने इसे नाम दिया है 'रमाबाई नगरÓ. अब सवाल यह है कि कानपुर देहात को रमाबाई नगर उच्चारित भर कर देने या कर लेने से होगा क्या? मायावती ने जिले को नाम की घोषणा के साथ कोई काम की घोषणा तो की नहीं है. यह जिला फिर भी नाम भर का ही रहेगा. क्योंकि किसी भी राजनीतिक दल ने इसे अपने ईंधन और साधन के अलावा कुछ समझा नहीं. वरना, पूरे प्रदेश में एक भी जिला ऐसा बताइये जो चार जनपदों की लोकसभाई सीटों में टुकड़ों-टुकड़ों बंटा हो, और उसके लिए किसी कोने से कोई आवाज न उठी हो. सीतापुर, कन्नौज, इटावा और औरैया जनपदों की लोकसभा सीटों में कानपुर देहात का मतदाता अपना वोट डालकर किसकी मुंह की ओर ताकेगा. सोचा है किसी नेता ने...। यह बड़ी साजिश है कानपुर देहात को छिन्न-भिन्न कर इसे केवल राजनीतिक ईंधन बनाने की. इसमें कतई संदेह नहीं कि कानपुर की राजनीतिक चेतना पर किसी का वश नहीं है. चाहे महानगर हो या देहात यहां का वोटर किसी भी दल को बपौती की गारंटी नहीं देता. शायद इसीलिए जातीय गणित का ताल तिकड़म बिनने के लिये कानपुर देहात को जिले बाहर की कई लोकसभाई सीटों में छितरा दिया गया है. अब बिल्हौर के मतदाता दो जिले पार कर मिसरिख जायेंगे सड़क बनवाने की मांग लेकर...? इन मूर्ख योजनाकारों से पूछो कि कानपुर को विभाजित कर देहात को पृथक अस्तित्व में लाने के पीछे का कारण क्या था? यही न कि गांव के लोगों को प्रशासकीय कामों के लिये एक छोर पर बने कलेक्ट्रेट मुख्यालय तक पहुंचने में सिर्फ समय और धन का ही नुकसान नहीं हो रहा था बल्कि साधन का भी टोटा था. अकबरपुर माती को देहात का मुख्यालय घोषित किया गया ताकि गांवों की दौड़ भाग बचे. यह निर्णय भी राजनीति की देन रहा है. और चुनाव में नया परिसीमन भी राजनीतिक निर्णय ही कहा जायेगा. आखिर कानपुर देहात का योजनाकार कौन है? शायद ऊपर वाला...। तभी तो शोभन सरकार अपने श्रृद्धालुओं के बूते सड़कें व पुल बनवाये दे रहे हैं, लेकिन अरबों रुपये की बजट धारी सरकारों के प्रतिनिधि केवल अपनी पार्टियों की ताकत बढ़ाने में जनबल और धनबल का शोषण ही कर रहे हैं. कानपुर देहात में दलों की उठती-गिरती स्थितियों ने एक ऐसे दल-दल का निर्माण कर दिया है, जिसमें देहातों को शनै: शनै: धंसते ही जाना है..। अगर ऐसा नहीं है तो ३५ बरसों में अकबरपुर माती मुख्यालय एक औसत नगर के रूप में तो उभर ही आना चाहिए था. जबकि हालत यह है कि देहात मुख्यालय आज भी ईंट-पत्थर की चंद इमारतों में पत्थर की तरह ही व्यवहार कर रहा है. न आने-जाने का त्वरित साधन, न अधिकारियों का पूर्णवास और न ही महानगरीय मोह से अलग कोई जनप्रतिनिधि. कानपुर देहात के लगभग सभी एमएलए, एमपी, यहां तक कि ब्लाक प्रमुख भी कानपुर नगर में ही रहना ज्यादा पसंद करते हैं. ऐसे में केवल नाम बदलने भर से क्या होगा? 1

नाम की राजनीति काम की नहीं

कानपुर देहात के लोग पूछ रहे हैं ये रमाबाई कौन हैं..? ऐसे ही जब कानपुर विश्वविद्यालय का नाम शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय रखा गया था तब शहरुओं ने पूछा था- ये शाहू जी महाराज कौन है..? ..... रमाबाई डा. भीमराव अम्बेडकर की प्रेरणा स्रोत पत्नी का नाम है. अब आइये खबर पर- सूबे की मुखिया मायावती ने गुरुवार को कैबिनेट की बैठक में कानपुर देहात का नाम बदलकर रमाबाई नगर कर दिया और अमेठी को फिर से जिला बनाकर उसका नाम धर दिया शाहू जी महाराज नगर. दोनों ही जिलों में इस समय कांग्रेस के सांसद हैं. एक है राहुल गांधी और दूसरे हैं राजाराम पाल. राजा राम पहले बसपा में थे और इसी क्षेत्र से सांसद भी चुने गये थे लेकिन इस समय वह कांग्रेस में हैं. कांग्रेसी सांसद बनने के बाद वह लोकसभा में सवालों के बदले रिश्वत लेने के आरोप में बर्खास्त हुए और मायावती ने उन्हें बसपा से निकाल बाहर किया. राजाराम भी कम जझारु नहीं निकले. किसी तरह कांग्रेस से टिकट मैनेज कर मेहनत की और बसपा के ही आधार वोट पर खड़े होकर फिर सांसद बन गये. राहुल दलित भोज और रात्रि वास से पहले ही मायावती की आंखों की किरकिरी बने हुए हैं. इसतरह मायावती व उनके नीति नियंताओं ने काफी चालाकी से इन दोनों ही जिलों को छेड़कर जहां राहुल के लिए विकासीय दिक्कतें पैदा कर दी हैं वहीं कानपुर देहात का नाम रमाबाई नगर रखकर क्षेत्र को याद दिलाया है कि यह दलितों का गढ़ है राजाराम पाल का नहीे.

कायदे से नामकरण व जिला बनाने के सवाल पर बवाल हो जाना चाहिए कम से कम कांग्रेस की ओर से. लेकिन सब खामोश हैं. कारण कि नया जिला बनाना प्रदेश सरकार का संवैधानिक अधिकार है. हां, नाम बदलने के लिए जरूर केन्द्र से मंजूरी चाहिए. अब अगर देहात कांग्रेस ताल ठोंक दे तो जिलों के जन्म और नामकरण की राजनीति में एक और तड़का लग जाये. लेकिन देहात कांग्रेस भला क्यों करेगी जब राष्ट्रीय कांगे्रस मौन है. इस संबंध में सांसद राजाराम पाल का कहना है कि नाम बदलने से अगर कानपुर देहात का विकास होता है तो कोई आपत्ति नहीं लेकिन नहीं लगता कि मायावती का हाथी यहां विकास लेकर दौड़ेगा. हालांकि जिले का नाम बदलने के पीछे सरकार का कहना है कि कानपुर नगर और कानपुर देहात दोनों नामों में काफी समानता होने के कारण भ्रम हो जाता था जिससे कई प्रशासनिक कार्य प्रभावित होते थे. इसलिए हो रही असुविधा को समाप्त करने के लिए कानपुर देहात का नाम बदल दिया गया है.इससे पहले भी कानपुर देहात को दो बार अलग जिला बनाया गया लेकिन आज तक इसके स्वरूप के विकास में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ. समय-समय पर सभी राजनीतिक दलों ने इस जिले को विभाजित करने में अपने राजनीतिक हित पूरे किये हैं. अपने विकास की राह देख रहे इस जिले को 34 साल का एक लंबा सफर तय करने के बाद एक बार फिर नए नाम की पहचान मिली है. रमाबाई नगर नाम के साथ अब देखना यह है कि सरकार इसके विकास और रख रखाव में कितना ध्यान देती है. गौरतलब है कि कानपुर जिले के विशाल क्षेत्र को मद्देनजर रखते हुए इसके ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करने के लिए 9 जून 1976 को कानपुर देहात के नाम से एक जिले का सृजन किया गया था, लेकिन प्रशासनिक असुविधाओं को देखते हुए 12 जुलाई 1977 को तत्कालीन जनता सरकार विभाजन को रद्द कर इसे दोबारा कानपुर में शामिल कर दिया. इसके बाद बनी कांग्रेस की सरकार ने 25 अप्रैल 1981 को कानपुर देहात को नगर से अलग नए जिले का पुन: निर्माण किया. जिसमें पांच तहसीलों घाटमपुर, अकबरपुर, डेरापुर, भोगनीपुर और बिल्हौर के साथ ही 17 विकास खंड इसके अन्दर आए थे. 1984 में रसूलाबाद को तहसील का दर्जा दिया गया जो कि देहात में ही हैं. इसके बाद पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने अपने शासनकाल के दौरान 11 अप्रैल 1994 में कानपुर देहात का नाम अकबरपुर करने की घोषणा के साथ ही यहां माती मुख्यालय की आधारशिला रखी. जिसमें जिला मुख्यालय, विकास भवन, पुलिस अधीक्षक कार्यालय आदि भवनों का निर्माण भी हुआ. माती मुख्यालय में लगे शिलापट्टों पर आज भी जिले का नाम अकबरपुर खुदा हुआ है. लेकिन अधिसूचना जारी न होने के कारण अभी तक इसका नाम कानपुर देहात ही रहा. 1997 में घाटमपुर और बिल्हौर तहसीलों को देहात से अलग कर फिर नगर में शामिल कर दिया गया और सिकंदरा कस्बे को पृथक कर तहसील का दर्जा दे दिया गया. 12 जुलाई 2001 को तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने माती में तैयार भवनों से प्रशासनिक कार्यों को शुरू करने की हरी झंडी दे दी. वर्तमान में इस जनपद के 3242.88 वर्ग किमी क्षेत्रफल में लगभग 25 लाख की आबादी निवास कर रही है और अकबरपुर, भोगनीपुर, रसूलाबाग, डेरापुर और सिकंदरा जैसी तहसीलें शामिल हैं.इसके दस ब्लाकों में आठ नगर पंचायतें, एक नगर पालिका व 612 ग्राम पंचायतें व 102 न्याय पंचायतों में 1032 राजस्व गांव शामिल हैं. कानपुर देहात का नाम रमाबाई नगर रखने के पीछे राजनीति के गलियारों में चर्चा है कि मायावती ने मिशन 2012 की शुरुआत कर दी है. वह दलितों के वोट को एक बार फिर अपना बनाने के लिए ऐसा कर रही हैं.1

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

माया का दामन दाग की माया

उत्तर प्रदेश की मुखिया मायावती की माया मायावती ही जानें. इन दिनों कह रही हंै कि बसपा में अब कोई अपराधी नहीं रहेगा. चार दिन पहले पांच सौ अपराधियों को उन्होंने बाहर का रास्ता भी दिखाया. लेकिन आज भी उन की पार्टी में लगभग एक दर्जन सांसद व आधा दर्जन मंत्री संगीन अपराधों में सीधे-सीधे या परोक्ष संलिप्तता का आरोप झेल रहे हैं. जब तक ऊपर व्याप्त व स्थापित गंदगी साफ नहीं होती जिलों-जिलों के छोटे-बड़े अपराधियों को बाहर करने से कुछ हासिल नहीं होगा. जब भी चुनाव आते हैं बहन जी कोई न कोई नये नुस्खे के साथ मैदान में आती हैं. लोकसभा के गत् चुनाव के ठीक पहले एक तरह से उन्होंने अपराधियों की भर्ती शुरू कर दी थी और आज जब विधान सभा चुनाव व पंचायत चुनाव सत्ता के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं तो मायावती अपराधियों की छटनी में लग गई हैं. बसपा से पहले पंडितों विशेषरूप से सवर्णों की छटाई और जब अपराधियों की कटाई इस बात का संकेत है कि बहन मायावती का पुराना सोशल इंजीनियरिंग का फारमूला इस बार कतई लागू नहीं होगा. बसपा पूर्ण दलित फंडे के साथ चुनाव मैंदान में होगी. होता यह है कि दबंग और सवर्णों के आगे 'बहुजन सत्ताÓ बहुजन की नहीं रह पाती. दूसरे दलों को मौका मिलता है दलितों में सेंधकारी का. कांग्रेस के युवराज राहुल वैसे भी बहन मायावती की दलित संवेदना को बुरी तरह आहत कर रहे हैं. अपराधियों की बसपा से सफाई कोई आलोचना का विषय नहीं हो सकता. लेकिन मायावती का अंदाज ही कुछ ऐसा है कि बिना टोका-टाकी और टीका-टिप्पणी के कोई काम हो ही नहीं सकता. अब बताइये सोशल इंजीनियरिंग के बल पर प्रदेश की सत्ता में आई बसपा ने लोकसभा चुनाव के पहले अपराधियों की भर्ती शुरू कर दी थी. लोकसभा चुनाव के पहले बसपा की मुखिया मायावती ने उन सभी अपराधियों को लोकसभा के टिकट दिए, जो जीतकर आ सकें, ताकि बसपा की मुखिया का प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा हो सके.
पर बसपा का यह प्रयोग विफल रहा. इसकी कारण यह भी बताया जा रहा है कि बसपा में आने वाले अपराधियों के बारे में विपक्षी दलों व स्वयंसेवी संस्थाओं ने जमकर विरोध किया. लेकिन उन्होंने एक न मानी.पिछले लोकसभा चुनाव के मौके पर नेशनल इलेक्शन वॉच ने कुल अस्सी प्रत्याशियों में से सोलह अपराधियों की चिन्हित सूची जारी की थी. जो चुनाव में अपनी किस्मत अजमा रहे थे. नेशनल इलेक्शन वॉच के अनुसार इन पर हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण आदि जघन्य वारदात करने के आरोप हैं. इन अपराधियों में संभल सीट से डीपी यादव, वाराणसी से विधायक मुख्तार अंसारी ने किस्मत अजमाई थी. इसी तरह, आजमगढ से अकबर अहमद डम्पी, फिरोजाबाद से एसपी सिंह बघेल, मुजफफनगर से कादिर राणा, मैनपुरी से विनय शाक्य, बरेली से इस्लाम साबिर अंसारी, कुशीनगर से स्वामी प्रसाद मौर्य, श्रावस्ती से रिजवान जहीर, हरदोई से राम कुमार, कौशाम्बी से गिरीश चन्द्र, अम्बेडकरनगर से राकेश पाण्डेय, सुलतानपुर से मोहम्मद ताहिर, गाजीपुर से अफजार अंसारी, आंवला से कुंवर शिवराज सिंह और उन्नाव से अरूण शंकर शुक्ला उर्फ अन्ना शाामिल थे.अब तक बसपा ने घोषित तौर पर जिन अपराधियों को बाहर का रास्ता दिखाया है, उनमें सांसद अफजाल अंसारी, उनके विधायक भाई मुख्तार अंसारी व अरूण शंकर शुक्ला उर्फ अन्ना शामिल हैं. सूत्रों का कहना है कि वर्तमान में बसपा ने आपराधिक छवि के जो लोग शामिल हैं, उनमें 12 सांसद, 68 विधायक व करीब आधा दर्जन मंत्री शामिल हैं.राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि बसपा चुनाव के पहले जनता में अपनी छवि सुधारने के लिए अपराधियों को बाहर करने का दावा कर रही है. वैसे सभी दलों में अपराधी घुसे हुए हैं, जो दलों को चुनाव जिताने का काम करते हैं. अर्सा पूर्व जहां ये अपराधी अपरोक्ष रूप से राजनीतिक दलों को फायदा पहुंचाते थे, वहीं अब वे खुद जनप्रतिधि बनकर सामने आ चुके हैं. साथ ही यह भी एक सवाल है कि पार्टी में अब भी जमे कद्दावर अपराधियों पर कार्रवाई होगी या फिर उन्हें बख्श दिया जाएगा, इस पर प्रदेश की निगाहें लगी हुई हैं. लोगों में यह भी चर्चा है कि चुनाव पूर्व होने वाले इस सफाई अभियान से उन लोगों के वे घाव शायद भर पाएंगे, जो इन अपराधियों ने तीन साल सत्ता में रहते हुए उन्हें दिए हैं. माया ही नहीं हर नेता जान गया है कि इस देश की जनता की याददाश्त बहुत कमजोर है.पर बसपा का यह प्रयोग विफल रहा. इसकी कारण यह भी बताया जा रहा है कि बसपा में आने वाले अपराधियों के बारे में विपक्षी दलों व स्वयंसेवी संस्थाओं ने जमकर विरोध किया. लेकिन उन्होंने एक न मानी.पिछले लोकसभा चुनाव के मौके पर नेशनल इलेक्शन वॉच ने कुल अस्सी प्रत्याशियों में से सोलह अपराधियों की चिन्हित सूची जारी की थी. जो चुनाव में अपनी किस्मत अजमा रहे थे. नेशनल इलेक्शन वॉच के अनुसार इन पर हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण आदि जघन्य वारदात करने के आरोप हैं. इन अपराधियों में संभल सीट से डीपी यादव, वाराणसी से विधायक मुख्तार अंसारी ने किस्मत अजमाई थी. इसी तरह, आजमगढ से अकबर अहमद डम्पी, फिरोजाबाद से एसपी सिंह बघेल, मुजफफनगर से कादिर राणा, मैनपुरी से विनय शाक्य, बरेली से इस्लाम साबिर अंसारी, कुशीनगर से स्वामी प्रसाद मौर्य, श्रावस्ती से रिजवान जहीर, हरदोई से राम कुमार, कौशाम्बी से गिरीश चन्द्र, अम्बेडकरनगर से राकेश पाण्डेय, सुलतानपुर से मोहम्मद ताहिर, गाजीपुर से अफजार अंसारी, आंवला से कुंवर शिवराज सिंह और उन्नाव से अरूण शंकर शुक्ला उर्फ अन्ना शाामिल थे.अब तक बसपा ने घोषित तौर पर जिन अपराधियों को बाहर का रास्ता दिखाया है, उनमें सांसद अफजाल अंसारी, उनके विधायक भाई मुख्तार अंसारी व अरूण शंकर शुक्ला उर्फ अन्ना शामिल हैं. सूत्रों का कहना है कि वर्तमान में बसपा ने आपराधिक छवि के जो लोग शामिल हैं, उनमें 12 सांसद, 68 विधायक व करीब आधा दर्जन मंत्री शामिल हैं.राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि बसपा चुनाव के पहले जनता में अपनी छवि सुधारने के लिए अपराधियों को बाहर करने का दावा कर रही है. वैसे सभी दलों में अपराधी घुसे हुए हैं, जो दलों को चुनाव जिताने का काम करते हैं. अर्सा पूर्व जहां ये अपराधी अपरोक्ष रूप से राजनीतिक दलों को फायदा पहुंचाते थे, वहीं अब वे खुद जनप्रतिधि बनकर सामने आ चुके हैं. साथ ही यह भी एक सवाल है कि पार्टी में अब भी जमे कद्दावर अपराधियों पर कार्रवाई होगी या फिर उन्हें बख्श दिया जाएगा, इस पर प्रदेश की निगाहें लगी हुई हैं. लोगों में यह भी चर्चा है कि चुनाव पूर्व होने वाले इस सफाई अभियान से उन लोगों के वे घाव शायद भर पाएंगे, जो इन अपराधियों ने तीन साल सत्ता में रहते हुए उन्हें दिए हैं. माया ही नहीं हर नेता जान गया है कि इस देश की जनता की याददाश्त बहुत कमजोर है.










गद्दीबाज गुरु -घंटाल

बगैर लिखे कोइ पत्रकार हो सकता है..? बगैर बहस करे कोइ वकील हो सकता है? बगैर इलाज करे कोई डाक्टर हो सकता है? जवाब यही होगा कि नहीं. कुछ ऐसा ही हाल काकादेव कोचिंग का भी है वहां बगैर डिग्री के लोग अपने को बीटेक लिख रहे हैं और बीटेक में सेलेक्शन के ठेके लिये हैं. इन आधुनिक द्रोणाचार्यों ने पढऩे और पढाने को बदलते सन्दर्भों में अपडेट करने की कोई कोशिश भी शुरु नहीं की है. यही नहीं इन्होंने प्रचार प्रसार और तामझाम के साथ अपनों को अपने बने -बनाये क्रेज, ग्लैमर, और पसन्द को भुनाने के अवसर देकर अपने वारिस तैयार करने शुरु कर दिये हंै. बड़ों के साथ छोटों को जोड़ कर छात्रों के भविष्य बनाने की इस अन्तहीन श्रृंखला को हमने जानने का प्रयास किया है. शुरुआत सिग्मा से ही करते हंै. पिछले वर्ष सिग्मा के बनने के बाद कोचिंग के तीन महारथी एक प्लेटफार्म पर आये थे और छात्रों को भी इनसे बड़ी उम्मीदे बंधी थी. ज्यादा से ज्यादा छात्रों के ज्यादा से ज्यादा बैच लगाने के जोश और योजना के तहत इन्हें अपने साथ कई अन्य छोटे बड़े नामों को जोडऩा पड़ा था. यहीं से बीज पड़ा था सिग्मा में फूट का. आने वाला छात्र अनीस पंकज और आशीष से तो पढऩा चाहता था लेकिन अन्य महारथियों को झेलने को तैयार नहीं था. आखिर सवाल उसके कैरियर का था. सिग्मा टूटा एक्सिस के दो प्रोफेसर एक साथ मिलकर पढ़ायेंगे. अनीस श्रीवास्तव और राज कुशवाहा एक के साथ जहॉ उसका शानदार बैक-ग्राउन्ड उपलब्धियों भरा इतिहास और आईआईटी की डिग्री जुड़ी है वहीं दूसरे के साथ उसका तेजतर्रार दिमाग कोचिंग को व्यापार बना देने की क्षमता और सत्ता शीर्ष से जुड़े लोगों का वरदहस्त है. यह मिलन कितना स्थाई होगा इसे शायद भगवान ही जानता होगा. एपेक्स क्लासेज के नाम से मैथ पढ़ाने वाले आशीष विश्नोई अब विश्नोई क्लासेज के नाम से अपने भाई अनुपम को मैथ की गद्दी सौंप रहे हैं. मैथ में आशीष बच्चों की पहली पसन्द हैं. पंकज अग्रवाल कैमिस्ट्री का जाना पहचाना नाम है, उनके साथ निर्मल सिंह तो हैं ही उनके नजदीकी आदर्श अग्रवाल भी हैं. फिजिक्स में विवेक की अपनी स्टाइल है और नाम भी. विवेक पान्डेय के साथ उनके भाई विनय जुड़े हंै. विनय किदवईनगर में अपनी कोचिंग चलाते हंै, और अब काकादेव में भी अपनी कोचिंग के अच्छे बच्चों को मैथ में गाइड करते हैं। अभिषेक गुप्ता की जमीन पर सिग्मा का कब्जा हो चुका है, अब वे नयी जगह पर अपने पॉव मजबूत करने में लगे हैं. उनके साथ हैं नवनीत गुप्ता । अमित पान्डेय के रहस्यमयी व्यक्तित्व के लिये जितना कहा जाये कम है लेकिन उनके साथ ओ0पी0 जुनैजा जैसा नाम जुड़ा है. फिजिक्स का जाना पहचाना नाम है नारकर का. पंकज अग्रवाल जैसे कई सरों के वे सर रहे हैं. कई साल बाद वे काकादेव लौट आये हैं और फिलहाल चर्चा में भी हैं. संजीव राठौर के साथ बबोल सर कैमिस्ट्री में अपनी धाक रखते हैं. आलोक दीक्षित कैमिस्ट्री में एकला चलो में विश्वास रखते हैं. काकादेव के साथ एक पैर उन्होंने मालरोड में भी रख दिया है. महेश सिंह चौहान के लिये अपने इन्जीनियरिंग कालेज संभालना और फिर काकादेव कोचिंग बड़ा का है, उनकी पत्नी अर्चना उनका हाथ बंटाती हंै. थालिया क्लासेज में जहां अमित थालिया मैथ का मोर्चा सभंाले हैं, वहीं उनकी पत्नी दीप्ती थालिया कैमिस्ट्री का. कोटा से आये थालिया ने इसबार फिजिक्स मे डा0ए0 के दास और विजय श्रीवास्तव को अपने साथ जोड़ लिया है. जी0डी0 वर्मा कैमिस्ट्री के साथ उनके दो भाई जुड़े हैं. लेकिन फिलहाल कोचिंग के मैनेजमेन्ट तक ही सीमित हैं. प्राण क्लासेज के प्रथ्वीपति ने कोंचिग की शुरुआत की थी अनुराग श्रीवास्तव के साथ मिलकर. अनुराग खुद आईएएस बन गये और कानपुर में डी0एम0 भी रहे. स्वदेशी के सर्मथक पृथ्वी खुद ही नहीं समझ पा रहे हंै कि क्या -क्या करें ? काकोदव मे पढ़ा भी रहें हैं, एच0बीटी0आई के विजिटिंग प्रोफेसर हंै और बी0एन0एस0डी० दीन दयाल में भी पढ़ाने जातेे हैं. संजय चौहान कोचिंग की दुनिया के दादा कोंडके बन चुके है. बाकी के बारे में क्या कहा जाये जो केवल और केवल खरीद-फरोख्त या सेलेक्टेड बच्चों को मिठाई खिलाकर फोटो खीचकर बड़ी-बड़ी होर्डिंग लगाकर अपनी दुकानें चला रहे हैं, और जिम्मेदारी लोग ऑखों पर पट्टी बांधे हैं. कोचिंग में अपने वारिस तैयार करना और छात्रों के भविष्य की पतवार उनके हाथों मे सौंप देना कितना न्याय संगत है ? पंकज कहते हंै कोई किसी को वारिस नहीं बना सकता है. शिक्षा के क्षेत्र में यहां तो जिसको अच्छा पढ़ाना आता होगा वही टिक पायेगा. अपना वारिस तैयार करने की बात से वे इन्कार करते हैं. अमित थालिया कहतें हैं, दो के साथ मिलकर पढ़ाने का चलन बढ़ा है. जरुरी है यह कि छात्र संतुष्ट हों और कामयाब भी और ये जबर्दस्त प्रयास के बगैर नहीं हो सकता. सर और स्टुडेन्ट के संयुक्त प्रयास के बगैर. वकील और डाक्टर दिगभ्रमित हों तो नुकसान चन्द लोगों का होगा, लेकिन अगर 'मार्डन सरोंÓ ने नियत और नीति खराब की तो देश की दिशा और दशा खराब हो जायेगी. 1 मुख्य संवाददाता

मंडी को गुरुकुल बनाना होगा

लूट खसोट, दलाली, बेईमानी, झूठे दावों, फर्जी रैकटों की खरीद-फरोख्त से भरी काकादेव कोचिंग मंडी में सब रंगे सियार हों, ऐसा भी नहीं है. कुछ ने आज तक अपना सिद्घान्त नहीं छोड़ा है, और एकला चलो की तर्ज पर गुनगुनाते चले जा रहे हैं. सुखद यह है कि गिरते रिजल्ट और रैकिंग में पड़े सूखे ने बाकी को भी आत्मावलोकन को विवश कर दिया है. व्यवसाय की मजबूती और प्रतिस्पर्धा के बावजूद केवल ताम झाम और प्रचर प्रसार पर निर्भर रहने के बजाय पढऩे-पढ़ाने और अच्छा रिजल्ट लाने की बातें शुरू हो गयी हैं. कोटा का नाम सारे भारत में है. कानपुर से भी पिछले कुछ वर्षो में कोटा की तरफ छात्रों का पलायन शुरू हुआ है. लेकिन कानपुर कोचिंग ने अपना ऐसा नाम फैलाया कि कोटा से सर कानपुर आना शुरू हो गये . मैथ का जाना पहचाना नाम ओपी जुनैजा कानपुर लौट आये हैं. इस साल नारकर सर भी कानपुर में डेरा जमा चुके हैं. नारकर फिजिक्स की दुनिया का परिचित नाम हैं यह दोनों कोटा से ही कानपुर आये है. वालिया दम्पत्ति तो सात साल पहले कोटा के आफरों को ठुकराकर यहॉ आये हैं. पहले दिन से ही दलालों के कोचिंग भर देने की मृग मरीचिका से सम्मोहित हुये बगैर अमित और दीप्ति मैथ और केमिस्ट्री में अच्छे रिजल्ट दे रहे हैं. इस बार तो उन्होंने फिजिक्स की भी अच्छी फैकल्टी चालू की है. खरीद फरोख्त की दुनियां से दूर प्राण कोचिंग का भी अपना इतिहास है. अच्छे रिजल्ट के बावजूद कभी ताम-झाम और प्रचार-प्रसार के चक्कर में नहीं पड़ते हैं. मैथ में अगर कोई बच्चा आशीष विश्नोई से हटता है तो सीधे अभिषेक गुप्ता के पास पहुंचता है लेकिन अभिषेक की पूरे कानपुर में कोई होर्डिंग और विज्ञापन नहीं दिखता है. काकादेव में पढ़ाई के समानान्तर विकसित हो रहे प्रापर्टी डीलिंग, रीयल इस्टेट और माफियागीरी की भेंट चढ़े अभिषेक अब छोटी सी जगह किराये पर लेकर काम चला रहे हैं. कुछ ऐसा ही वाकया पंकज अग्रवाल के साथ हो चुका है. उनके निर्माणाधीन हाल में केडीए की सील जड़ी जा चुकी है, कारण कल तक उनके साथ सिग्मा में रहे एक सर उनसे व्यक्तिगत खुन्नस मानने लगे थे. पंकज कहते हंै कोई फर्क नहीं पड़ता है, बच्चा पढऩे आता है, उसे अच्छी पढ़ाई चाहिये, चमकदार हाल और एसी से पढ़ाई नहीं होती है. फिजिक्स के विवेक अपने यहॉ एक घन्टे का समय किसी भी छात्र की प्राब्लम हल करने के लिये रखते हैं, भले वह किसी भी कोचिंग का हो. आलोक दीक्षित ने इस बार माल रोड पर नयी कोचिंग शुरू की है, सीनियर छात्रों के लिये जहां फिजिक्स और मैथ की फैकल्टी दिल्ली और कोटा से है. बताते हैं कि इस बार हर कीमत पर कानपुर को रिजल्ट देना होगा अन्यथा काकादेव का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा. कहते हंै उधर के अच्छे छात्रों को दूर की भाग दौड़ से बचाने के लिये कानपुर की सर्वोत्तम फैकल्टी देने का प्रयास किया गया है. फिजिक्स में अनीष श्रीवास्तव और मैथ में आशीष विश्नोई को आज भी बेजोड़ माना जाता है, लेकिन बड़े बैच और घटिया सोच वालों के साथ ने उनको भी विवादित बना दिया है. कल तक अनीष श्रीवास्तव के साथ पढ़ा रहे हारून पिछले साल उनसे अलग हुये थे. कारण एक ही था कि हजार पन्द्रह सौ के बैच में रिजल्ट लाना मुश्किल हो जाता था, और फिर बदनामी होती थी. उन्होंने नब्बे से ज्यादा के बैच न पढ़ाने का ऐलान कर रखा है. रिजल्ट भी अच्छे आना शुरू हो गये हैं. दूसरी तरफ खुले आम परचे बांट कर एस0आर0बी0 100 (सुप्रीम रैंकर) बैच में सौ बच्चों का एडमीशन लेने वाले महारथी बाद में अंधाधुंध कमाई की होड़ में उस बैच में पांच सौ तक एडमीशन कर लेते हैं. व्यस्तता इतनी कि बाद में छात्र को समय नहीं देते. इसी वर्ष आईआई टी में सेलेक्ट हुए एक छात्र उत्कर्ष गुप्ता कहते हैं, 'मैं तो कभी इनके यहॉ (नाम लेकर) एडमीशन की सलाह नहीं दॅूगा. इनमें से कुछ के दरबेनुमा हाल इतने खतरनाक हैं कि जाने और आने का मात्र एक दरवाजा हैै, कोई खिड़की नहीं. उस पर हजार बारह सौ के बैच. कहीं किसी दिन कोई दुर्घटना हुयी तो कोई माफी मांगने की हिम्मत नहीं कर सकेगा. हमने पिछले वर्ष भी आधुनिक द्रोणाचार्यों के लाक्षाग्रहों पर विस्तृत रिपोर्ट छापी थी. बात कुछ लोगों की केडीए, नगर निगम, फायर, एक्साइज, इन्कमटैक्स की नोटिस से आगे नहीं बढ़ी. कुछ अधिकारियों की जेब गरम हो गयीं और फाइलें बन्द. इन सबसे अलग कारपोरेट कोचिंग टारगेट, आकाश, एलन फिटजी, जैसी कई कोचिंग भी कानपुर में पैर जमा चुकी हंै. आकाश के राकेश बताते हैं कि मेडिकल में इस बार हमारे रिजल्ट कानपुर में सबसे अच्छे रहे हैं. कारण हम फैकल्टी से समझोता नहीं करते हैं. इस वर्ष उनके यहां टेस्ट भी आल इन्डिया आधार पर होंगे. प्राची वाष्णेय, सिद्घार्थ रवि, रिषभ गुप्त ने रैंक लाकर कोचिंग का नाम बढ़ाया है. 1हेलो संवाददाता
महागुरुओं की बोलती बन्द
आज सिग्मा के महा-गुरूओं के पास कुछ भी कहने के लिये शब्द नहीं हैं. हैदराबाद के रैंकर को अपना बताकर विज्ञापन तो हो जाएगा, कुछ सौ छात्र फिर चकाचौंध में फंसकर एडमीशन ले लेंगे लेकिन आखिरकार काठ की हान्डी कब तक चढ़ेगी ?''सात लूटेंगे सत्तर करोड़ÓÓ सिग्मा की यह गाथा हमने दो हजार नौ में अपनी कवर स्टोरी बनाई थी . सिग्मा बनने के साथ ही हमने उसमें दरार पडऩे की खबर भी छापी थी. सिग्मा टूटने की खबर के साथ हमने यह छापा था कि नये रूप रंग के साथ सिग्मा फिर आ सकता है. हमसे पहले या बाद में किसी अखबार या चैनल ने सिग्मा ब्रान्ड को विज्ञापन के अतिरिक्त किसी नजरिये से न देखने के लिये आंखे बन्द कर ली थीं. सैकड़ों छात्रों का कैरियर दांव पर लगा था। हमारी खबर के बाद छात्रों की फीस वापस की गयी, बच्चों को किसी भी सर से पढऩे की छूट दी गयी. पुष्ट सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार लगभग सात हजार छात्रों ने सिग्मा में एडमीशन लिया था. हमने अपनी खबर में लिखा ही था कि '' लूट का ऐसा कल्पवृक्ष जिसकी जड़ों में अकूत दौलत कमाने की चाहत और तनों में मेधावियों की सपनों को चूर-चूर करने की अदम्य शक्ति ...? पूरे वर्ष सिग्मा ऐसा ही कुछ करता रहा. कभी अपने ही कोचिंग के सरों की थुक्का फजीहत का षडयन्त्र तो कभी अपने छात्रों को हतोत्साहित करने की आत्मघाती कोशिश. राज अनीष एंड कम्पनी से पहले अलग हो गये, आशीष, अनुराग, बाद में पंकज अग्रवाल नेताओं और दलों की तर्ज पर विलय और टूट की दलदली मुहिम में डूब गये हजारों बच्चों के सपने. आज यह प्रश्न काकादेव में चारों ओर तैर रहा है कि जो लोग अपने स्वार्थ और हितों की दीवारें इतनी ऊंची कर लेते हैं कि जिनसे टकराकर मेघा के पंख कट कर गिर जायें उनके हाथों में अपने बच्चों का भविष्य कैसे सौंपा जाये? गल्तियों से सबक सीखने को कोई तैयार नहीं है. सिग्मा टूट गया. एक्सिस सिग्मा बन गया है. नये सत्र की शुरूआत के साथ पिछले साल की तर्ज पर अखबारों के पहले पेज पर एक्सिस सिग्मा छा गया है. पहले विज्ञापन में फिजिक्स कैमिस्ट्री और मैथ को एक साथ पढ़ाने का दावा किया गया था. इसमें फिजिक्स के अनीस श्रीवास्तव, राज कुशवाहा के साथ कैमिस्ट्री के संजय चौहान और मैथ के कुछ अनजान नाम थे. इसी बीच कुछ खिचड़ी पकी और मैथ के नाम विज्ञापन से गायब हो गये . लोगों का मानना है कि आशीष-अनुराग से उनका टैक्ट हो गया है. चन्द दिन नहीं बीते कि कैमिस्ट्री के संजय चौहान भी सिग्मा नाम के अलग विज्ञापन में प्रचार करने लगे . फिलहाल एक्सिस सिग्मा के बैनर तले अनीष श्रीवास्तव व राज कुशवाहा ही एक जुट हैं और आज की तारीख में सबसे बड़ा कौतूहल है कि आखिर अनीष के पैर कितने कमजोर हो गये हंै कि उन्हें राज नाम की बैशाखी कि जरूरत है. अनीष किसी पहचान का मोहताज नहीं है फिर यह गठजोड़ क्यों? जितने मुंह उतनी बाते हैं. कोई अनीस की टीआरपी गिरने की बात करता है तो कोई उनके हाईफाई टीचिंग स्टाइल को दोषी ठहराता है. आशीष विश्नोई, अनीष श्रीवास्तव, पंकज अग्रवाल से मिलने के लिये हमने उनके दरों पर कई बार दस्तक दी लेकिन पंकज को छोड़कर किसी से मुलाकात न कर सके. पंकज मानते हैं कि सिग्मा बनाना एक प्रयोग था जो फेल हो गया. इसके लिये वे इगो क्लैश को जिम्मेदार मानते हैं.अपनी कोचिंग में अभिवावकों व छात्रों से बड़ी निश्चिंतता से मिल रहे पंकज कहते हैं - 'मैं दलालों को कुछ देने के बजाय सीधे गरीब छात्रों की ही मदद में विश्वास रखता हंू. काकादेव में लूट खसोट की इस चरम से वे भी क्षुब्ध थे और मानते हंै कि इससे दो गुने तो आईआईटी में बच्चे तब सेलेक्ट होते थे जब मात्र सात हजार सीटे आईआईटी में होती थीं, आज दो गुनी सीटे हैं . पूछना हमकों बहुत कुछ था आशीष और अनीष से लेकिन जबाब के लिये वे मिले नहीं और हम नहीं पूछ सके कि क्या ये सच है कि जब छात्रों की आपको मोरल सपोट की जरूरत होती है तब आप विदेश यात्राओं पर क्यों चले जाते हंै. या यह कि सारे भारत के साथ विदेशों में पढ़ी जाने वाली टीएमएच प्रकाशन, पियरसन पब्लिकेशन, भारती भवन पटना की किताबें इनके यहॉं क्यों नहीं पढ़ायी जाती हंै या यह भी कि आप लोग अपने को अपडेट करने में विश्वास क्यों नही रखते हैं, आज भी आपके यहॉ कम्प्यूटर में कोरल 5 में काम क्यों हो रहा है? आखिर जब काकादेव आने वाले आधे छात्र अनीष, पंकज और आशीष के नाम पर आते हैं तो आप क्यों नही सुधर रहे हैं. 1 हेलो संवाददाता
कोचिंग मंडी धड़ाम
कोचिंग का कचरा, रेंकों के तस्कर, काकादेव का कोचिंग कलंक, कोचिंग की कलंक गाथा, उतर गया पानी, सात लूटेंगे सत्तर करोड़, द्रोण के लाक्षागृह...आदि-इत्यादि. ये चंद जुमले हैं जो आज काकादेव कोचिंग मंडी से जुड़े हर शख्स की जुबान पर हैं. लेकिन जो हेलो कानपुर के नियमित पाठक हैं वे जानते हैं कि ये जुमले नहीं हेलो कानपुर के वे चिंगारी छोड़ते शीर्षक हैं जिनको नक्कारखाने में तूती की आवाज समझकर काकादेव के महागुरुओं ने अनदेखा कर दिया था. इस साल पूरी कोचिंग मंडी धड़ाम है. १५ हजार बच्चों में केवल सवा सौ-डेढ़ सौ बच्चे ही आईआईटी के लिए क्वालीफाई कर पाये हैं. यह संख्या तो शहर को तब भी नसीब हो जाती थी जब काकादेव में महागुरुओं ने सिंडीकेट बनाकर पूरे देश की प्रतिभा को लूटने का जाल नहीं फैलाया था. दावे तो इस बार भी हो रहे ह्रैं लेकिन ये दावे एक आंसू के आठ-आठ रो भी रहे हैं. काकादेव कोचिंग मंडी में ही इसबार के नतीजे देखकर यह कहने वाले 'सरोंÓं ने सर उठाना शुरू कर दिया है कि बिल्डरों, शेयर बाजारियों और धंधेबाजों की अगर यही रफ्तार रही तो शहर को हर तरह की प्रतिष्ठा देने वाला यह पवित्र व्यवसाय मिटियामेट हो जाएगा.
रिपोर्ट- मुख्य संवाददाता
पांच साल में कुछ नहीं बदला, दलालों का वर्चस्व, रैंकों की खरीद फरोख्त,हजार -पन्द्रह सौ छात्रों के बैच, सरों की उठा पटक और इसके बीच पिसते बच्चे. दूसरी तरफ हैं चमचमाती बिल्डिगें एसी कक्षायें, हान्डा-सीआरवी से पधारते सर, रैंक शरूद्गद्ग&द्यद्गद्गह्म् होर्डिंंगें, और अखबारों में फुल पेज के विज्ञापन. यह ईश्वर की कृपा ही थी कि जब कानपुर से उद्योगों का सफाया हो रहा था तो काकादेव ने उम्मीदों की एक नयी किरण जगायी. पन्द्रह बीस साल पहले कुछ लोगों ने बीस पच्चीस के बैच में छात्रों को पढ़ाने का जो जूनूनी अभियान रूद्गुरू किया था वह धीरे - धीरे अरबों के टर्न ओवर वाले व्यवसायों में बदल गया है. इस व्यवसाय में करोड़ों रूपया अखबारों के विज्ञापन के रूप में मिलने लगा है. हजारों लोगों को हास्टल, टिफिन कैरियर, पेइंग गेस्ट, रेस्टोरेन्ट, जैसे कामों में जगह मिली. लेकिन अफसोस यह कि काकादेव कोचिंग हब बनने के बजाय मंडी बन गया. तकरीबन वैसी ही मंडी जैसी कभी मुजरा करने वालों के लिए प्रसिद्घ थी. अच्छे से अच्छा पढ़ाकर, इन्जीनियरिंग और मेडिकल टेस्ट में अपडेट होकर ज्यादा से ज्यादा सेलेक्शन कराने के बजाय तामझाम, दलाली बट्टे, खरीद-फरोख्त के रास्ते पर चलकर रूद्गार्टकट अपना लिया. दो हजार पांच में रैंकों की खरीद-फरोख्त का जो सिलसिला रूद्गुरू हुआ था, दस में भी उस पर विराम लगता नहीं दिख रहा है. 2005 में हमने बताया था कि कैसे उस साल के टापर पीयूष श्रीवास्तव (इलाहाबाद) को काकादेव के चार कोचिंग संचालकों ने लाखों रूपये देकर खरीदने का प्रयास किया था. इसी तरह गुजरात के रहने वाले और बम्बई जोन से से सेलेक्ट हुये पारसविल पटेल को राज कुरूद्गवाहा, ओपी जुनैजा और संजीव राठौर ने अपनी कोचिंग का छात्र बताया था, हांलाकि हमारे संवाददाता को वे उससे सम्बन्धित कोई जानकारी नहीं दे सके थे. इसी तरह एक दर्जन अन्य छात्र भी थे जिनको लेकर दावे कई कोचिंग संचालकों ने किये थे. लेकिन सभी फर्जी थे. काकादेव से गाडिय़ों के काफिले निकलते रहे, सुदुरवर्ती जिलों के ग्राम प्रधान से लेकर प्राइवेट स्कूलों के टीचर और प्रिन्सपल तक एडवान्स लिफाफे पहॅुचाते रहे. रावतपुर से सेन्ट्रल तक द्गद्घद्भद्मद्गुरूद्गह्यवालों से लेकर चाय पान और भिखारी के रूप में भी दलालों की एक फौज तैयार हो गयी जो निर्धारित दर से आधे में भी एलानियां एडमीरूद्गन कराने लगी. एक-एक क्लास में हजार-पन्द्रह सौ छात्रों को एक साथ बैठकर पढ़ाया जाने लगा. रिजल्ट निकलते ही कभी खरीदकर और कभी बाहर के छात्रों को बगैर जाने पहचाने अपना बताकर बड़े- बड़े दावे किये जाना बदस्तूर जाते हंै. उसके बाद बड़ी- बड़ी होर्डिगें से पार्टीं जाने लगती हंै दीवारें/अखबारों में पहले पेज पर विज्ञापन.पांच से दस आ गया. झूठे विज्ञापनों का मकडज़ाल जारी है. दो हजार आठ में ही हेलो कानपुर ने लिख दिया था- ''उतर गया पानीÓÓ. काकादेव कोचिंग मंडी का तो पानी उतर रहा है लेकिन मोटी खाल वाले बेरूद्गर्म आंखों का पानी उतरने को तैयार नहीं है. दो हजार दस का रिजल्ट निकलने के बाद सबके सांप संूघ गया है, सब मान रहे हंै कि रिजल्ट गिरा है रैंके गायब हो गयी हैं लेकिन फर्जी दावे बदस्तूर जारी है. हिंमाशु सक्सेना फिजिकली हैन्डीकैप्ड कोटे से सेलेक्ट हुआ है. पंकज अग्रवाल के साथ संजीव राठौर मनीष कोबरा सब उसके लिए दावे कर रहे हैं. अनीष श्रीवास्तव व राजकुशवाहा द्वारा आई0आई0टी0 में तेइसवी रैंक पर आये समीर अग्रवाल व ५८वीं रैंक पर आये अक्षय सिंघल को अपना बताया जा रहा है लेकिन किसी ने भी इन्हें काकादेव में आज तक नहीं देखा है. इसका सीधा प्रमाण यह है कि पंकज अग्रवाल इस छात्र को अपना बताने को तैयार नहीं है, जबकि पिछले वर्ष यह सब सिग्मा के झण्डे तले एक थे. लोकेश अग्रवाल ने आकाश इन्स्टीटयूट से अल्टीमेट शार्टटर्म कोर्स किया था. सी0बी0एस0ई 2010 में शहर की टापर रहे लोकेश को लेकर आधा दर्जन कोचिंग संचालक अपने-अपने दावे कर रहे हैं पिछले वर्ष हारून से फिजिक्स पढ़कर आईआईटी रैंकर आशीष आनन्द को मैथ, व कैमिस्ट्री के लिये लाखों रूपये का आफर देकर ठग लिया गया था. बाद में वह सहबान और संजीव की होर्डिंगों में दिखायी देने लगा था. कोचिंग मंडी में सन्नाटा है, सांप सा संूघ गया है सबको फिर भी सब अपने- अपने रिजल्ट को सन्तोषजनक या अच्छा बता रहे हंै. दिक्कत उनकी है जिन्होंने एक हजार से आठ हजार तक एडमीशन लिये थे. अब जब आई0आई0टी0 में शहर से सेलेक्टेड छात्रों की बात हो रही है तो दावे पचास से पांच सौ के बीच घूम रहे हैं. हारून कोचिंग के नेगी सर स्वीकारते हंै कि पचास बच्चे तक सेलेक्ट हुये होंगे. पंकज अग्रवाल का मानना है कि एक सौ तीस चालीस हुये हैं, आलोक दीक्षित का दावा साढ़े चार सौ का है . हेलो कानपुर की पुख्ता जानकारी तो यही कह रही है कि शहर में जनरल कैटागिरी में आई0आई0टी0 की 180 वी रैंक आयी है जो आलोक दीक्षित व महेश सिंह की कोचिंग से है. बाकी के बारे में राम जाने .1अनुराग अवस्थी मार्शल