सोमवार, 12 जुलाई 2010

खरी बात
नाम का हुआ तो काम का भी हो....
प्रमोद तिवारी
मायावती ने एक तरह से एक अनाम जिले को नाम दिया है. 'कानपुर देहातÓ कोई नाम है? जब कानपुर को शहर और देहात दो भागों में बांटा गया था तो देहात क्षेत्र का नाम 'अकबरपुरÓ तकरीबन तय था. लेकिन कभी माती ( जहां आज मुख्यालय है) तो कभी अकबरपुर की किचकिच में कोई नाम जगत गजट नहीं हो पाया. बहुत हुआ तो कानपुर का देहात कानपुर देहात कहलाने लगा. और धीरे से यही नाम सरकारी और आम जुबान पर चढ़ गया. अब मायावती ने इसे नाम दिया है 'रमाबाई नगरÓ. अब सवाल यह है कि कानपुर देहात को रमाबाई नगर उच्चारित भर कर देने या कर लेने से होगा क्या? मायावती ने जिले को नाम की घोषणा के साथ कोई काम की घोषणा तो की नहीं है. यह जिला फिर भी नाम भर का ही रहेगा. क्योंकि किसी भी राजनीतिक दल ने इसे अपने ईंधन और साधन के अलावा कुछ समझा नहीं. वरना, पूरे प्रदेश में एक भी जिला ऐसा बताइये जो चार जनपदों की लोकसभाई सीटों में टुकड़ों-टुकड़ों बंटा हो, और उसके लिए किसी कोने से कोई आवाज न उठी हो. सीतापुर, कन्नौज, इटावा और औरैया जनपदों की लोकसभा सीटों में कानपुर देहात का मतदाता अपना वोट डालकर किसकी मुंह की ओर ताकेगा. सोचा है किसी नेता ने...। यह बड़ी साजिश है कानपुर देहात को छिन्न-भिन्न कर इसे केवल राजनीतिक ईंधन बनाने की. इसमें कतई संदेह नहीं कि कानपुर की राजनीतिक चेतना पर किसी का वश नहीं है. चाहे महानगर हो या देहात यहां का वोटर किसी भी दल को बपौती की गारंटी नहीं देता. शायद इसीलिए जातीय गणित का ताल तिकड़म बिनने के लिये कानपुर देहात को जिले बाहर की कई लोकसभाई सीटों में छितरा दिया गया है. अब बिल्हौर के मतदाता दो जिले पार कर मिसरिख जायेंगे सड़क बनवाने की मांग लेकर...? इन मूर्ख योजनाकारों से पूछो कि कानपुर को विभाजित कर देहात को पृथक अस्तित्व में लाने के पीछे का कारण क्या था? यही न कि गांव के लोगों को प्रशासकीय कामों के लिये एक छोर पर बने कलेक्ट्रेट मुख्यालय तक पहुंचने में सिर्फ समय और धन का ही नुकसान नहीं हो रहा था बल्कि साधन का भी टोटा था. अकबरपुर माती को देहात का मुख्यालय घोषित किया गया ताकि गांवों की दौड़ भाग बचे. यह निर्णय भी राजनीति की देन रहा है. और चुनाव में नया परिसीमन भी राजनीतिक निर्णय ही कहा जायेगा. आखिर कानपुर देहात का योजनाकार कौन है? शायद ऊपर वाला...। तभी तो शोभन सरकार अपने श्रृद्धालुओं के बूते सड़कें व पुल बनवाये दे रहे हैं, लेकिन अरबों रुपये की बजट धारी सरकारों के प्रतिनिधि केवल अपनी पार्टियों की ताकत बढ़ाने में जनबल और धनबल का शोषण ही कर रहे हैं. कानपुर देहात में दलों की उठती-गिरती स्थितियों ने एक ऐसे दल-दल का निर्माण कर दिया है, जिसमें देहातों को शनै: शनै: धंसते ही जाना है..। अगर ऐसा नहीं है तो ३५ बरसों में अकबरपुर माती मुख्यालय एक औसत नगर के रूप में तो उभर ही आना चाहिए था. जबकि हालत यह है कि देहात मुख्यालय आज भी ईंट-पत्थर की चंद इमारतों में पत्थर की तरह ही व्यवहार कर रहा है. न आने-जाने का त्वरित साधन, न अधिकारियों का पूर्णवास और न ही महानगरीय मोह से अलग कोई जनप्रतिनिधि. कानपुर देहात के लगभग सभी एमएलए, एमपी, यहां तक कि ब्लाक प्रमुख भी कानपुर नगर में ही रहना ज्यादा पसंद करते हैं. ऐसे में केवल नाम बदलने भर से क्या होगा? 1

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