शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

चौथा कोना

लेकिन इतनी जल्दी क्या है?

प्रमोद तिवारी

समझ में नहीं आता कि किसी को 'बलात्कारीÓ बताने की आखिर इतनी जल्दी क्यों रहती है कानपुर के मीडिया को. हाल के दिनों में दो स्तब्धकारी घटनाएं हुईं. पहली चांदनी नर्सिंग होम में और दूसरी रावतपुर गांव के एक स्कूल में. पहली घटना में कविता के साथ नर्सिंग होम के आईसीयू में बलात्कार की बात समाने आई और दूसरी घटना में सैकड़ों छात्रों की मौजूदगी में चलते स्कूल में नन्हीं जान अनुस्का के 'बलात्कारÓ का सनसनीखेज समाचार प्रकाश में आया. दोनों ही घटनाओं में पहले ही दिन से अखबारों में 'बलात्कारियोंÓ की ओर इशारा होने लगा. 'कविताÓ के मामले में नर्सिंगहोम का 'वार्ड-ब्यायÓ बलात्कार की धारा के साथ अंदर है. और इसी तरह अनुस्का के मामले में विद्यालय का संचालक और उसका बेटा सलाखों के पीछे है. इन दोनों ही घटनाओं में मीडिया पीडि़त पक्ष की ओर से हमलावर मुद्रा में रहा. उसने पुलिस और प्रशासन पर 'बलात्कारियोंÓ को बचाने का आरोप लगाया. जनता को समझाया कि रसूखदार लोगों ने इन अमानवीय कृत्यों में भाग लिया और पुलिस उन्हें बचा रही है. इसमें क्या संदेह कि पुलिस रसूखदारों को बचाती है, घटना छुपाती है. निर्दोषों को फंसाती है. लेकिन इसके उलट जो न हुआ हो उसे बताया जाये, जो दोषी न हो उस पर दोष सिद्घ करने का जतन किया जाये. घटना को नाहक तूल दिया जाये, तो इसे क्या कहेंगे? नर्सिंग होम का कोई आईसीयू (जिसमें केबिन न हो, बेडों के बीच केवल पर्दे की ओट हो) भला रहस्यमयी बलात्कार का घटनास्थल कैसे हो सकता है? एक टूटी-फूटी लड़की के साथ रेप हो और उसी कमरे में मौजूद लोग कोई चीख पुकार न सुनें, यह कैसे संभव है? लेकिन नहीं... मीडिया ने ऐसा शोर मचाया कि 'वार्ड-ब्यायÓ बलात्कारी हो गया. जबकि बाद में डाक्टरी रिपोर्ट के अनुसार कविता के शरीर पर जो वीर्य मिला, वह घटना के दिन से पांच दिन पुराना प्रतीत हुआ. इसी तरह अनुस्का के मामले में जांच-पड़ताल के बाद अमानवीय यौनाचार का स्थान विद्यालय नहीं निकला, अनुस्का का पड़ोस निकला. जब तक तथ्य सामने आते, हर छोटे-बड़े अखबार ने एक अस्पताल और एक विद्यालय को 'बलात्कार-स्थलÓ की तरह प्रचारित कर दिया. पूछिए जरा उन लोगों से जिनके परिवारीजन 'बलात्कारीÓ की कालिख के साथ सींखचों के पीछे है. पुलिस भी मीडिया के शोर और दबाव में उन्हें हत्या और बलात्कार के आरोप में बांध चुकी है. जबकि अनुस्का का बलात्कारी यौन विकृत पड़ोसी निकला और कविता के बलात्कारी की तलाश शुक्लागंज में हो रही है. मीडिया को समझना चाहिए कि अखबार में छपा अच्छा, भले ही सच्चा न माना जाये लेकिन बदनामी और इल्जाम आदमी को 'ता-उम्रÓ सजा देते हैं. अदालत माने न माने लेकिन दुनिया उनका जब-तब मखौल उड़ा ही देती है. वह गुनाह जिसमें कोई बेगुनाह फंसा हो, असली गुनहगार को बचाता भी है. मीडिया को यह बात समझनी चाहिए.1

खरीबात

क्या पुलिस वालों के बेटियां नहीं होतीं

पहले घाटमपुर की वंदना, फिर शुक्लागंज की कविता के साथ दुष्कर्म. दोनों ही मामलों में आरोपियों को बचाने को लेकर सम्पूर्ण महानगर समेत आसपास के जिलों तक में कानपुर पुलिस ने अपनी खूब थू-थू करवायी. इसके बाद महराजपुर के कमलापुर गाँव की दलित युवती (काल्पनिक नाम) किरण के साथ हुए दुष्कर्म मामले में भी पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज करने के बजाए पीडि़त परिवार को थाने से भगा दिया. हालांकि बाद में डीआईजी कानपुर के आदेश पर मामला दर्ज हो गया. लेकिन जब बारह वर्षीय अनुष्का उर्फ दिव्या के साथ दुष्कर्म हुआ, वह भी अप्राकृतिक, जिसमें उसकी मौत तक हो गयी और कल्यानपुर पुलिस का आरोपियों को बचाने के लिए इस बयान कि दिव्या गर्भवती थी, को अखबारों में पढऩे के बाद उन अभिवावकों में आक्रोश को भर दिया, जिनकी बेटियाँ भी दिव्या की तरह किसी स्कूल में शिक्षा ग्रहण करने जा रही हैं. रोशन नगर की रहने वाली 12 वर्षीय अनुष्का नमक फैक्ट्री चौराहे के पास स्थित भारती ज्ञानस्थली विद्यालय में कक्षा 6 की छात्रा थी. बीती 27 सितम्बर को वह अपने ही स्कूल में लहूलुहान अवस्था में पाई गयी. स्कूल प्रबन्धन व वहाँ पढ़ाने वाली अध्यापिकाओं व बच्चों की देखभाल को रखी गयी आया समेत सभी ने बच्ची को तुरन्त अस्पताल ले जाने में खूब लापरवाही बरती. बच्ची लहुलूहान हालत में अपनी अंतिम सांसें गिनती रही और अन्तत: इलाज में देरी के चलते उसकी मौत हो गयी. मामला जब कल्यानपुर थाना पुलिस के संज्ञान में पहुँचा तो अन्य मामलों में अपनी थू-थू करा चुकी पुलिस ने बिना कुछ सोचे-समझे मासूम को गर्भवती बता दिया. पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पुलिस के बयान की पोल खुली. मालूम पड़ा कि उसके साथ अप्राकृतिक यौनाचार किया गया था. वह भी इतना वीभत्स कि डाक्टरों तक का दिल दहल गया. अनुष्का की पोस्टमार्टम रिर्पोट में जब यह खुलासा हुआ कि उसकी मौत अप्राकृतिक दुष्कर्म, अत्यधिक रक्तस्राव व समय पर इलाज न मिलने से हुई, तो उसको गर्भवती बताने वाली कल्याणपुर पुलिस के प्रति अभिवावकों का आक्रोश फूट पड़ा. हेलो कानपुर से हुई बातचीत में बिरहाना रोड निवासी मनीष साहू कहते हैं कि मेरी भी दो बेटियाँ अनुष्का की तरह स्कूल जाती हैं. मैं तो इस कांड के बाद से डर गया हूँ, पर बेटियों को शिक्षा दिलाना जरूरी है, इसलिए उनको स्कूल भेजना मजबूरी भी है. लेकिन पुलिस की ऐसी कौन सी मजबूरी है, जो वह मासूम से दुष्कर्म करने वालों को बचाने के साथ उसकी माँ पर उल्टा आरोपियों से समझौता करने का दबाव बना रही है. ऐसा लगता है कि जैसे पुलिस की आँख का पानी मर गया हो. इसी तरह काहू कोठी निवासी सुनीता तिवारी तो अनुष्का कांड में पुलिस की भूमिका देख उसे दुष्कर्मियों से भी ज्यादा घृणित नजरों से देखने लगी हंै. उनके अनुसार अनुष्का के साथ अप्राकृतिक यौनाचार करने वाला, इंसान के रूप में हैवान है और उसे बचाने वाले खुंखार दरिंदे, फिर चाहे वह पुलिस ही क्यों न हो! वह कहती हैं, क्या पुलिस वालों के बेटियाँ नहीं होतीं? वह सवाल करती हैं, अगर ऐसे हादसे का शिकार किसी पुलिस वाले की बेटी बनी होती, तो क्या तब भी वह ऐसी ही बयानबाजी करती? मनीष और सुनीता की तरह ही लगभग सभी अभिभावकों ने पुलिस के खिलाफ खूब जमकर अपना आक्रोश जाहिर करते हुए पुलिस के आला अधिकारियों पर भी सवाल खड़े किये कि क्या उन्होंने अपने आँख-कान बंद कर रखे हैं, जो उन्हे अपने मातहतों की कारगुजारियाँ दिखाई व सुनाई नहीं देती.पुलिस दुष्कर्म के आरोपियों को सजा दिलाने के बजाए उल्टा पीडि़त परिवारों को ही आरोपी से समझौता करने का दबाव बनाकर अपराध-अपराधियों को बढ़ावा दे रही है. वैसे देखा जाये तो पुलिस के प्रति अभिवावको का आक्रोश उगलना कुछ हद तक जायज भी है, क्योंकि दो माह के दरम्यान तीन युवतियों समेत एक मासूम बच्ची से दुष्कर्म हो जाने पर भी पुलिस सिर्फ दो काम करती रही, एक तो एफआईआर लिखने के बजाए पीडि़त परिवारों को थाने से टरकाना. दूसरा मामला दर्ज हो जाने पर आरोपी को सजा दिलाने के बजाए किसी खा़स वजह के चलते बचाना.1

सुधांशु श्रीवास्तव

न्याय की बात

आस्था, विश्वास और परम्परा का नाम है भारत

पहले २४ सितम्बर का इंतजार हुआ फिर ३० सितम्बर का. और अब जो फैसला आया, उसकी सबसे बड़ी खासियत रही कि उच्च न्यायालय ने आस्था, विश्वास और परम्परा को न्याय का आधार बनाया. इस देश में कई बार कानूनी कलाकारियों में सर्वमान्य सच तक झूठा साबित हो जाता है. कई बार हमारी न्याय व्यवस्था साक्ष्य, सबूत और गवाहों की गणित में फैसले का योग शून्य निकाल बैठती है, जिससे आम जन का न्याय के प्रति विश्वास डगमगा जाता है. उदाहरण के तौर पर एक घटना का उल्लेख करना चाहूंगा. वरिष्ठ भाजपा नेता व राज्य मंत्री दर्जा प्राप्त संतोष शुक्ला की हत्या थाने में दिन दहाड़े सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में हुई थी. इस सनसनीखेज हत्याकाण्ड का आरोपी साक्ष्य, गवाह और सबूतों के अकाल में बाइज्जत बरी हो गया. यह हत्याकाण्ड 'न्यायÓ प्रक्रिया पर एक सवालिया निशान है. सबने देखा क्या हुआ, कब हुआ, कैसे हुआ? सबसे पहले तो थाना पुलिस ही इस हत्या की गवाह थी, साक्ष्य, सबूत सब थाना पुलिस के हवाले था. बावजूद इसके एक मंत्री स्तर का व्यक्ति मार दिया गया और कानून की दृष्टि में इसका कोई 'हत्याराÓ नहीं निकला.खुलेआम हुई इस हत्या में अभियुक्त क्यों छूटा? शायद इसीलिए कि हमारे न्यायाधीश आंख खोलकर नहीं, बल्कि उस पर साक्ष्य, सबूत और गवाहों की पट्टी बांधकर फैसला देते हैं. जो गुनाह खुलेआम होते हंै, उसकी सजा भी उसी तरह खुलकर होनी चाहिए. सच का साक्ष्य, गवाह या सबूत से क्या लेना-देना. सूरज सच है. वह पूरब दिशा से ही उगेगा. चाहे कोई पूरब को पूरब माने या न माने. सूरज का उगना ही दिशा का पूरब होना है. ऐसे ही कुछ गुनाह भी होते हैं, वाद भी होते हैं और आरोप भी होते हैं. 'रामÓ देश के पुरुषार्थ पुरुष, नायक, पूर्वज और पूज्य हैं, उनका जन्म अयोध्या में हुआ.. यह सच है. इसी के साथ यह भी सच है कि बाबर बाहर से भारत पर हमला करने आया था. वह इस देश का खून नहीं है. देश के किसी भी मुसलमान की रगों में बाबर नहीं दौड़ता, हां, अगर ठहर कर, ध्यान से और दिल और दिमाग को खोलकर सोचा जाये तो 'रामÓ दौड़ते जरूर मिल जाएंगे. चलो न्यायालय ने 'रामÓ में नाम पर आस्था, विश्वास और सबूत का साक्ष्य और सबूतों के बराबर तरजीह दी. देश ने उसे स्वीकारा, इसे राम की कृपा और ऊपर वाले की मर्जी समझकर शांति बहाली की दिशा में आगे बढऩा चाहिए. चाहे हिन्दु हों या मुसलमान. यह देश राम का है और इस देश में पैदा होने वाला बच्चा-बच्चा राम का है. बाबा रामदेव यह बात का सार्वजनिक रूप से कह भी रहे हैं और उस पर आज दिन तक किसी ने कोई आपत्ति भी नहीं की है.1 विशेष संवाददाता

राम जी के फैसले
प्रमोद तिवारी, प्रसंगवश
भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे. मर्यादा के लिए उन्होंने अपना राजसी ठाट-बाट ठुकराया, वनवासी बने, धोबी के व्यंग्य बाण सुने, पत्नी का परित्याग किया. यहां तक कि त्रेता से कलयुग तक आते-आते अराजक संघियों और अम्बेडकरवादियों से गालियां सुनीं. फिर बने राजनीति के मोहरे. उनके नाम पर खून-खराबा हुआ, चुनाव हुए और सत्ता भोग के लिए उन्हें भाजपाइयों ने जब चाहा एजेंडे में रखा और जब चाहा बाहर कर दिया. इसके बाद आया फैसले का वक्त. राम नाम पर मची हाय-तौबा के फैसले का वक्त. 2002 से शुरू हुई अदालती कार्यवाही में कुल 90 दिन सुनवाई हुई, जिसमें चार प्रमुख मुकदमों में दलीलें पेश की गयी. ये चार वाद थे- भगवान श्रीराम विराजमान बनाम राजेन्द्र सिंह, गोपाल सिंह विशारद बनाम जहूर अहमद, निर्मोही अखाड़ा बनाम बाबू प्रियदत्त राम व अन्य और सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड बनाम गोपाल विशारद व अन्य. इनमें से चौथे वाद को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया जो सुन्नी वक्फ बोर्ड बनाम गोपाल सिंह विशारद का था. फैसला बाकी तीन के संदर्भ में आया है. इन तीन वादों में भी मुख्य फैसला भगवान श्रीरामचंद्र विराजमान बनाम राजेन्द्र सिंह से जुड़ा है, जिसके संदर्भ में उच्च न्यायालय ने कहा है कि रामलला जहां विराजमान हैं, वह उन्हीं का स्थान है.पहले वाद के तहत जो मुख्य सवाल सामने रखे गये थे, उसमें अदालत को यह निर्णय करना था कि क्या विवादित स्थल आस्था, विश्वास या परम्परा के अनुसार भगवान राम का जन्मस्थान है? यदि हां, तो इसका प्रभाव? महत्वपूर्ण फैसला इसी एक बिंदु पर आया है. हाइकोर्ट ने आस्था, विश्वास और परंपरा तथा ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर पाया है कि जिस स्थान को लेकर विवाद है और जहां बाबरी मस्जिद निर्मित की गयी थी, वह वास्तव में हिन्दुओं के पुरुषार्थ पुरुष रामचंद्र से ताल्लुक रखती है, जो धर्मग्रंथों और साक्ष्यों के अनुसार अयोध्या में ही पैदा हुए थे. अदालत के इस फैसले से वाद संख्या तीन में उठाये गये सवाल का भी जवाब मिल जाता है, जिसमें इस बात पर निर्णय करना था कि क्या विवादित संपत्ति मस्जिद है, जिसे बाबर द्वारा बनवाये जाने पर बाबरी मस्जिद कहा जाता है? जाहिर है अदालत ने माना है कि इस विवादित संपत्ति को वर्तमान में मस्जिद नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसे बाबर ने ही मुसलमानों को वक्फ किया था, इसका कोई साक्ष्य सामने आया नहीं है. संभवत: इसी आधार पर हाईकोर्ट ने सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड का दावा ही खारिज कर दिया. क्योंकि सुन्नी वक्फ बोर्ड ने बतौर वादी जो दावे किये थे, वे बहुत ही कमजोर थे और इस ऐतिहासिक विवाद में एक तरह से बचकाने दावे किये थे. राम के राजनीतिक इस्तेमाल का पहला कीड़ा कांग्रेस और राजीव गांधी के जेहन में रेंगा था. उन्होंने ही राम जन्म भूमि पर शिलान्यास कराया था. तब कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष ने राजवी गांधी को चेताया था कि राम जन्म भूमि को राजनीतिक रंग न दें. उन्होंने तो यह तक कहा कि शिलान्यास हुआ तो पहला फवड़ा उनके ही मारना होगा. लेकिन उस बुर्जुग की किसी ने नहीं सुनी. एक हाहाकारी चुनावी जीत से लगा कांगेस और राजीव गांधी ने क्या चाल चली. लेकिन यह चाल चार कदम बाद ही अपनी चाल भूल गई. एक प्यारा, ईमानदार, कुछ कर गुजरने की चाह रखने वाला नवजवान राजीव गांधी अपने शातिर दोस्तों के कहने पर राम नाम पर राजनीति करने को राजी हो गया. कुछ ही वर्षों में इस कृत्य पर फैसला आ गया. जिस देश ने राजीव को ४०० से ज्यादा सांसदों की टीम के साथ संसद भेजा, उसी देश ने चार साल बाद उसे 'चोरÓ तक कहा. राजीव और कांगेस दोनों की ही मर्यादा धूल-धूसरित सी हो गई. राम के नाम पर राजनीति करने का जो पहला गुनाह हुआ, मेरी दृष्टि में कांग्रेस का १४ वर्षीय सफाया पहला फैसला था. इसके बाद राम जन्म भूमि पर भव्य मंदिर का वचन लेकर आडवाणी खुद राम बन गये. राम नाम की इस नौटंकी में भाजपा को 'सत्ताÓ तो मिल गई, लेकिन सत्ता भोगियों ने मंदिर निर्माण का वचन भंग कर दिया. राम नाम पर मचे कलयुगी विवाद पर दूसरा फैसला अडवाणी और भाजपा की वर्तमान में तहस-नहस मर्यादा के रूप में आया. और अब जबकि हाईकोर्ट ने अपने फैसले में मान लिया कि अयोध्या में आस्था, विश्वास, परम्परा और साक्ष्य के आधार पर अयोध्या में विवादास्पद स्थल राम जन्म भूमि ही है, वहां बिराजे 'रामललाÓ नहीं हटेंगे तो एक बार फिर से राजनीति शुरू हो गई है. दरअसल हाईकोर्ट के फैसले के बाद जिस तरह से हिन्दुओं और मुसलमानों ने शालीनता, धैर्य और सौहार्द का आचरण बरता उससे राजनीतिकों की कल्ला कई. उन्हें उम्मीद थी कि दंगा होगा, हिन्दू-मुसलमानों का फिर ध्रुवीकरण होगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. पहले तो २४-४८ घंटे समझ ही नहीं आया क्या कहें... क्या करें...? सिवाय इसके कि देश में अमन चैन है, जनता का बहुत-बहुत धन्यवाद. लेकिन इसके बाद मुलायम सिंह यादव से नहीं रहा गया. बोले, फैसला उचित नहीं है. जिस दिन मुलायम का यह बयान आया, लेखक दुबई में था. हिन्दुस्तान में उनके बयान पर जो प्रतिक्रिया हुई सो हुई, विदेश में भारतीय मुसलमानों ने इसे बहुत घिनौनी हरकत माना. हमारी एसोसिएशन के फरहान वास्ती, नदीम, एखलाक, रेहान, साजिया सभी खुश थे कि एक फिजूल का विवाद खत्म होने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. और जब मुलायम का बयान आया तो सभी एक सुर में बोले- ''देखो आ गई असलियत सामने. यह लड़वा रहा था.ÓÓ रामबिलास पासवान, सेकुलरवादी, वामपंथी और यहां तक कि कांग्रेस भी फैसले के बाद मुसलमानों को अपने-अपने खेमे में करने के लिए किन्तु-परन्तु की भाषा बोलने लगी है. और दूसरी तरफ देश का आम हिन्दू और आम मुसलमान इन बयानों के पीछे छिपी राजनीति की लपलपाती जीभ को देखकर पूरी तरह से समझ रहा है कि न कोई मंदिर का मसला है, न मस्जिद का, यह मसला केवल इन नेताओं का है. इन्हें लड़ता हुआ हिन्दू-मुसलमान चाहिए. जिसके लिए विवाद का बना रहना जरूरी है. लेकिन अब उनकी एक नहीं सुननी है. अदालत जो कह देगी, हम सब मान लेेेंगे. साधु-संत, मौलाना-मुफ्ती भी अब शायद ही हथियार बनें. राम विवाद पर देश की जनता एक-एक कर नेताओं की तार-तार होती मर्यादा को देख रही है. उस पर थूक रही है और मैं, इस लेख का लेखक मर्यादा पुरुषोत्तम राम के साथ खिलवाड़ करने वालों की तार-तार होती मर्यादा को देखकर कह सकता हूं कि राजीव का पतन, आडवाणी का मखौल, मुलायम का तिरस्कार, आजम खां की दुर्दशा बुखारी की उपेक्षा आदि और कुछ नहीं, राम जन्म भूमि पर आने वाले राम के फैसले थे. अर्थात मर्यादा पुरुषोत्तम की मर्यादा से राजनीति करने वाले की राजनीतिक मर्यादा शेष नहीं रह जाएगी. न मानो तो करके देखो. वैसे जिन्होंने की उनकी दशा आपके सामने है. इस समय देश का हिन्दु-मुसलमान एकजुट होकर 'रामÓ की निर्णायक मुद्रा बना चुका है.1

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

नारद डाट काम

डॉक्टर और मास्टर

कमलेश त्रिपाठी

इस देश का आवाम इन दोनों से कुछ ज्यादा ही परेशान हो चुका है. नाक में बाँस घुसेड़ रखा है इन महापुरूषों ने. अब बताइये ये डॉक्टर लोग भी बस और टैम्पो वालों की तरह हड़ताल करने लगे हैं. इनसे अच्छे तो झोला मार्का हैं, जो कभी ऐसी घटिया हरकत नहीं करते हैं. जहाँ तक मरने मारने का सवाल है मेरे पास ठोस आँकड़े हैं कि झोला छाप से ज्यादा मरीज इनके हाथों खुदागंज जाते हैं. अजब दुविधा है, ये काम करते हैं तो भी मरीज मरते हैं और हड़ताल में भी यही हश्र होता है. शहर के कलक्टर साहब गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए एकलव्य योजना चला रहे हैं, काम ठीक चल भी रहा है. इन डॉक्टर भाइयों के लिए भी कुछ करिए, चाहे इनके लिए धनवन्तरि टाइप कुछ प्रोग्राम बना दीजिए. ये कम से कम डॉक्टर से इन्सान तो बन जायें. मरीजों को एटीएम समझना बन्द करें. अब जरा इनकी हड़ताल पर आइये. कल्याणपुर के पास एक डॉक्टर साहब का कुछ शोहदों ने पलस्तर अन्दर तक खरोंच दिया. अब डॉक्टर बाबू मरीज बन गये हैं. बस इतनी सी बात पर धरती के यह भगवान छुट्टी पर चले गए, डिग्री लेते समय की शपथ भी याद नहीं आई. भगवान से हिरण्यकश्यप बनने में कोई देर नहीं लगाई. अब दोहरे कानून की बात पर मान गये हैं. डॉक्टर को मारने पर रासुका लगेगा, लेकिन यह तय नहीं हो पाया कि अगर डॉक्टर किसी को मारेंगे तो उन पर कौन सी धारा फिट की जायेगी?अब आइये जरा मास्टरों की बात कर ली जाए. इनका हाल तो चाल्र्स शोभराज से भी ज्यादा बुरा हो गया है. स्कूल के अन्दर छोटे बच्चों से सत्कार्य कर रहे हैं. बिहारी प्रोफेसर बटुकनाथ ने पता नहीं कैसी आग सुलगाई कि मस्टरवे पगला गए हैं. इनका दीन-धर्म सब मिट गया है. पितृपक्ष या कृष्णपक्ष इन्हें छिनरपन करना है, सो ये कर रहे हैं. कलेक्टर साहब इन निकृष्टों के लिए भी कुछ द्रोणाचार्य टाइप की योजना लाइए. कम से कम इनका चाल-चलन तो ठीक रहेगा.

टेंशन क्या है?

लड़की ने आप से लिफ्ट माँगी, रास्ते में उसकी तबियत बिगड़ गई, आप उसे चाँदनी नर्सिंग होम ले गए. वहाँ डॉक्टर ने कहा कि आप बाप बनने वाले हो, आपको टेंशन! आप बोले मैं इसका बाप नहीं, लड़की बोली यही इसका बाप है, आपको और टेंशन! फिर पुलिस आई और आपका मेडीकल हुआ, उसमें पता चला आप कभी बाप बन ही नहीं सकते. आपने भगवान को शुक्रिया अदा किया. वहाँ से निकलने के बाद याद आया कि घर में जो दो बच्चे हैं, वो आखिर किसके है? फिर क्या महाटेंशन!! 1

प्रथम पुरुष

अभी भी जन्म के साथ आती है मौत

डा. रमेश सिकरोरिया

अपने देश में एक लाख १४ हजार स्त्रियां बच्चा पैदा करने में प्रतिवर्ष मर जाती हैं, क्योंकि उनके शरीर में गर्भावस्था और बच्चा पैदा करते समय, कठनाईयां और जटिलता पैदा हो जाती हैं. इसका मुख्य कारण है कम उम्र में विवाह होना, गरीबी, अच्छे और लाभदायक खाद्य पदार्थों का अभाव, जिसके फलस्वरूप रक्तहीनता (अनीमिया) होना, असुरक्षित गर्भपात कराना (कानूनी सुविधा न मिलना) और बिना किसी सहायता के बच्चा पैदा होने के बाद कुछ दिनों तक अच्छी स्वाथ्य सेवायें न मिलना. आश्चर्य है कि इतने सारे कारण होते हुए भी हमारी स्त्रियां अत्यधिक संख्या में बच्चे पैदा करने में मर रही हैं, प्रश्न हैं हम क्या करें? हमें ऐसी स्त्रियों और पैदा होने वाले शिशुओं के लिये एक सहायक वातावरण जो स्वास्थ्य वर्धक हो, बनाना होगा. इसके लिये स्त्रियों और लड़कियों को शिक्षा देनी होगी, उनकी गरीबी को कम करना होगा. उनको दुरूप्रयोग से बचाना होगा, उनका शोषण, उनके प्रति र्दुव्यवहार, हिंसा इत्यादि रोकनी होगी. उनको घर में होने वाले निर्णयों (आर्थिक एवं राजनैतिक) में शामिल करना होगा, उनको अपने अधिकारों और स्वयं को तथा अपने बच्चों के लिए भी प्राप्त होने वाली सेवायों के प्रति सजग करना होगा. पुरूषों को भी स्त्री- पुरूष की असमानता को दूर करने में अपना पूरा योगदान देना होगा. प्रत्येक लड़की (स्त्री) को स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क देना होगा.

शत्रु नहीं, मित्र हैं कीट-पतंगे

साधारणत: हम समझते हैं कि कीड़े-मकोड़े, जंगल के जानवर या कीटाणु हमारे दुश्मन हैं, हमारे हित में हैं कि उनका विनाश किया जाये, उनको इस दुनिया में रहने न दिया जाये तो हम अधिक स्वस्थ होंगे. परन्तु ऐसा सोचना पूर्णत: गलत है. इन सब जीवों का योगदान हमें स्वस्थ रखने में नहीं बल्कि हमें जिन्दा रखने में है. आईन्स्टीन ने कहा था, यदि मधुमक्खी वातावरण से लुप्त हो जाये तो मनुष्य केवल चार वर्ष जिन्दा रहेगा. क्योंकि यदि मधुमक्खी नहीं होगी तो फूलों का परागण नहीं होगा, परागण न होने से पेड़ पौधे न होने से जानवर नहीं होंगे हम (मनुष्य) नहीं होंगे. इन जीवों का बहुत महत्व है. लकड़ी के उत्पादन में आक्सीजन बनाने में , पानी और मिट्टी के रखाव में उनमें लाभदायक तत्व बनाये रखने का पानी के श्रोतों की रक्षा करने में, कार्बन (कोयला) को जमा रखने आदि में जीवों की विभिन्न आवश्यकतायें हैं. पृथ्वी पर जीवन रक्षा के लिए प्रत्येक जीव और वस्तु एक दूसरे से जुड़ी हुई है. कोई भी अकेलेपन में नहीं जी सकता. वे सब एक दूसरे को जिन्दा रखने में सहायक हैं, एक भी कड़ी टूटने से जीवन क्रम ताश के पत्तों की तरह बिखर जायेगा. ९९.९ प्रतिशत जीवों की किस्में लुप्त हो गई हैं. पृथ्वी के ४.५ बिलियन पुराने इतिहास में वर्तमान में सबसे तीव्रता से विभिन्न जीव -जन्तु लुप्त हो रहे हैं. भूतकाल में इसके कारण स्वाभाविक थे और प्रकृति ने पुन: संतुलन बना दिया, परन्तु अब हम स्वयं इस संतुलन को नष्ट कर रहे हैं. यह हमारे स्वयं के जीवन का अन्त होगा. सोचिये यदि जंगल न हो या वे शान्त हो जायें, उनमें शेर की गर्जन न हो, कौआ न हो हमारा कूड़ा साफ करने को, समुद्र में कोई ह्वेल मछली न हो, पृथ्वी पर चलने को हाथी न हो, कोई मोर न हो प्रेमी को बुलाने के लिए नाचता हुआ. तितली एक फूल से दूसरे फूल पर उड़ती हुई न हो, नई पत्तियां उग न रही हों, पेड़ों की जड़ें जम न रही हों इत्यादि, ऐसी दुनिया आप पसन्द करोगे रहने को? अतएव दुर्लभ या किसी भी जीव-जन्तु को नष्ट न करिये. संतुलन को बना रहने दें. इसी में आपकी रक्षा है, जीवन है.1 (लेखक पूर्व स्वास्थ्य निदेशक हैें)

चौथा कोना

३२ बरस का पत्रकार और मैं बच्चा

बात अभी बीते सोमवार की है. ऑफिस से घर जाते समय टेम्पो पर एक सज्जन से प्रसंग वश चर्चा शुरू हो गई पिछले हफ्ते कानपुर में हुए वैश्य सम्मेलन में हुयी कथित 'गुप्ता पार्टीÓ की घोषणा पर. इस सम्बन्ध में मेरे विरोधी स्वर जानने के बाद महोदय सिरे से ही उखड़ गये. कहने लगे अगर बाभन, ठाकुर पार्टी बनायें तो देशसेवा और दलित व पिछड़े, जाति के आधार पर पार्टी बना लें जो जातिवाद हो गया! (पर वे यह भूल गये की वैश्य भी ब्राम्हण और ठाकुरों की तरह सवर्ण ही हैं, दलित या पिछड़े नहीं) वे आगे भी चालू रहे और माया-मुलायम-लालू जैसे नेताओं को जातिवादी राजनीति के संदर्भ में सदी के योग्यतम महापुरूषों का दर्जा दे डाला. किन्तु सम्भवत: उन्हें यह याद नहीं रहा कि योग्य होने और एक आदर्श नायक होने में फर्क होता है. अगर योग्यता ही सब कुछ होती तो अपने काले इतिहास के लिए जाने जाने वाले मुसोलनी से लेकर लादेन और अफजल-कसाब तक योग्यता में क्या किसी से कम हैं?करीब २० मिनट तक चली इस चर्चा में वे जातिवादी राजनीति और माया-मुलायम-लालू के समर्थन में बहुत कुछ कहते रहे, कुतर्क पर कुतर्क पेश करते रहे, पर मेरे तर्कों के सामने उनकी बोलती बन्द होती रही. परन्तु इस सबके अंत में उन्होंने जो कुछ कहा वह सबसे अधिक भयावह था. और घृणास्पद भी. टेम्पो से उतर कर जाते हुए उन्होंने पूछा, कब से हो इस लाइन(पत्रकारिता) में?, १५ दिन! मैने बताया, तभी उन्होंने अपना वह अंतिम और भयावह वाक्य बोला, ''और मुझे ३२ साल हो गये हैं, पत्रकारिता करते हुए!ÓÓसच में उनके इस वाक्य ने इस बार ना सिर्फ मेरी बोलती बंद कर दी बल्कि बहुत कुछ सोचने पर भी विवश कर दिया. एक पत्रकार इस हद तक जातिवादी हो सकता है यह मैंने कभी सोचा ही नहीं था. और यह पहली बार नहीं है, जब अपनी काली स्याही से पत्रकारिता के मुख पर कालिख पोत रहे तथाकथित पत्रकारों (या कहें जातिवादियों) से सामना हुआ, अपनी पिछले ३-४ महीनों की पत्रकारिता की छोटी सी अवधि में ही मीडिया में फैल रहे इस जातिवाद को बार-बार देखने व समझने का मौका मिला है. एक बड़े अखबार में तो सिर्फ इसलिए मौका मिल रहा था कि दुर्भाग्य वश मैं कुलीन ब्राम्हण परिवार में जन्मा हूं. दुर्भाग्वश इसलिए कि एक पत्रकार के रूप में इन सबका सामना करने से अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है? वैसे भी मीडिया में परिवारवाद के साथ-साथ जातिवाद की शिकायतें आम हैं, पता सबक ो है, पर कु छ बोलने की हिम्मत किसी में नहीं, आखिर हम्माम में सब ... जो हैं.पत्रकारिता तो मिशन हुआ करती थी, उसे आजादी के बाद लोकतंत्र के एक सजग प्रहरी की भूमिका दी गयी थी, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का दर्जा दिया गया था. ताकि वह समाज के विभिन्न तबकों के मध्य सदियों से जनमानस मेें अपनी जड़ें गहरी कर चुकी रूढिय़ों से समाज को मुक्त कर सके, जिससे एक आदर्श लोकतांत्रिक राष्ट्र क ा लक्ष्य पूर्ण हो सके और ऐसा बिना पत्रकारिता के संभव न था. यही वजह थी महात्मा गांधी तक ने पत्रकारिता की इस ताकत को पहचाना तथा नवजीवन, यंग इण्डिया और हरिजन के माध्यम से एक सक्रिय पत्रकार की भूमिका भी निभाई.परन्तु छि:! आज जब हम गांधी जयंती मना रहें हैं तो मीडिया का यह नया जातिवादी चेहरा उसके प्रति जुगुप्सा और घृणा ही पैदा करता है. सिहरन हो उठती है यह सोचकर ही कि कैसे क ोई पत्रकार इस हद तक जातिवादी हो सकता है? अगर पत्रकार भी जातिवादी हो जायेंगे, तो फिर बचा ही क्या यहां? मिशनरी पत्रकारिता तो वैसे भी नाम मात्र की बची है, वो भी दूध से भरे हुए बर्तन में चिपकी जली हुयी मलाई की तरह. अब यहां प्रोफेशनलिज्म हावी है, शायद तभी न तो खबरों के लिए ''देह का सौदाÓÓ करने में कोई हिचक है न ही ''पेड खबरोंÓÓ को लेकर कोई शर्म!और भइया अब तो जिस तरह से यहां जातिवाद फलने-फूलने लगा है, ऐसे में तो उन महोदय से निवेदन है कि हे! जातिवाद के नये ध्वजवाहकों आओ, सब मिलकर इस पत्रकारिता का बेड़ा गर्क कर दें, इसकी ऐसी-तैसी करने में कोई कोर कसर न छोड़ें, जितना जल्दी सम्भव हो, पूरे जोशो-खरोश के साथ इस 'मिशनÓ को पूरा कर दो , ताकि हम गांधी, विद्यार्थी और भगत सिंह के अधूरे सपनों और मिशन पूरा करने के लिए हम नवसृजन की दिशा में अग्रसर हो सकें, क्योंकि नवसृजन तो हमेशा विनाश के बाद ही होता है न .1 मनीष तिवारी

खरीबात

जो फंसा वो चोर बाकी शाह

अनुराग अवस्थी 'मार्शल'

चांदनी में कविता से बलात्कार, केएमसी में मरीज की गलत इंजेक्शन से हालत गम्भीर, दवा विक्रेता की गिरफ्तारी पर हड़ताल, कल्याणपुर में डाक्टर की पिटाई पर डाक्टरों की हड़ताल सेे एक दर्जन मरीज मरे. पिछले एक माह से शहर में इन घटनाओं ने उथलपुथल मचा रखी है. इसी बीच कल्याणपुर में स्कूल गई छोटी सी छात्रा की सन्देहास्पद परिस्थितियों में बलात्कार और हत्या हो गई है.डाक्टरों को भगवान का दर्जा दिया गया है. यह भगवान अब कलयुगी इन्सान तो बन ही गये हैं. समाज के हर क्षण गिरते चारित्रिक पतन और नैतिकता के हास के साथ अब अगर इनमें से कुछ शैतान भी बन जायें, तो कोई आश्चर्य नहीं.चांदी के सिक्कों से जब व्यवस्था की खरीद-फरोख्त होती है तो ऐसे ही कांड सभ्य समाज के मुंह पर कालिख पोतते हैं. कविता और केएमसी कांड पर खूब लिखा-पढ़ा जा चुका है. क्या कोई बतायेगा कि नर्सिंग होमों के क्या मानक हैं? और उनकी जांच का तंत्र कब कितना सक्रिय होता है. सरकार द्वारा नर्सिंगहोमों के मानक बनाते ही शहर के दो सौ नर्सिंग होमों ने अपने बोर्ड पर पुताई कराकर नर्सिंगहोम की जगह हॉस्पिटल लिख दिया. हॉस्पिटल का कोई पैमाना नहीं है. चाहे जितनी जगह में, चाहे जैसे डाक्टर-कर्मचारी रखकर हॉस्पिटल चालू कर दें. इसीलिये केएमसी में डायलिसिस के दौरान अप्रशिक्षित कर्मी से गलत इंजेक्शन लगते ही सबने हाथ खड़े कर दिये. वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने स्वास्थ्य सेवाओं में रिसर्च को जब टैक्स छूट दी, तो उसके चलते बहुत से नर्सिंग होमों ने अपने को रिर्सच सेंटर में बदलकर लाखों रुपये के टैक्स की बचत शुरु कर दी. स्वास्थ्य सेवाओं में क्या है इनकी नयी रिसर्च और आम आदमी को क्या मिला इसका फायदा. है किसी को मालूम? यही कारण है कि आईसीयू, पीबीयू, डायलिसिस के लिये आवश्यक डिप्लोमा डिग्री के बगैर डाक्टर और कर्मी रखकर उगाही का तंत्र दिन-प्रतिदिन विकसित होता जा रहा है. स्वास्थ्य मंत्री कह चुके हैं कि अतिशीघ्र नर्सिंग होमों के लिये एक्ट आयेगा. पिछले दो सालों से विधि आयोग इसकी संरचना में जुटा है. यह जिन्न कब प्रकट होगा पता नहीं और जब आयेगा तक 'क्या हुकुम मेरे आकाÓ कहकर चांदी के जूते की मार से इसके कानून भोथरे नहीं होंगे इसकी क्या गारन्टी? जरूरत इस बात की है कि बेवजह के कानून न बनाये जायें, क्योंकि ये कानून व्यवस्था में सुधार के बजाय कसाई के हाथ में गाय पहुंचाने का काम करते हैं. जो कानून हैं उनका पालन अक्षरश: करवाया जाये और जो उल्लंघन करे उसे सजा अवश्य मिले. मेडिकल स्टोरों की तुलना में फार्मसिस्ट की आधी संख्या भी न होने के बावजूद उनकी अनिवार्यता का नियम आज भी चल रहा है और इसी के साथ कागज पर उनकी तैनाती के बदले में रुपये का खुला खेल भी. सरकार व उच्च न्यायालय के आदेशों के बावजूद भी झोलाछाप डाक्टर आराम से आज भी प्रशासन की नाक के नीचे प्रैक्टिस करते मिल जायेंगे, बस उनसे वसूली का रेट बढ़ गया है. केन्द्र सरकार गांवों में तैनात ऐसे झोलाछापों को आवश्यक प्रशिक्षण देकर प्राथमिक इलाज का मन्सूबा बना रही है, लेकिन सब कुछ हवा में है और तब तक गांवों की कविताओं को इन हाइस्कूल फेल यमदूतों से अपना इलाज कराने को विवश होना पड़ता रहेगा. और फिर गंभीर दशा में रिफर होकर शहर के डाक्टरों के पास आना पड़ेगा क्योंकि गांवों के सरकारी अस्पतालों में तो ताला ही पड़ा रहता है. यही है हमारी व्यवस्था की नाकामी जो ऊपर से नीचे तक है जिसमें जो फंसा, वो चोर बाकी शाह.1

फैसला: अमन और शांति का

आजाद भारत की धर्मनिरपेक्षता, भाईचारा, बन्धुत्व, एकता, अखन्डता और तरक्की को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले अयोध्या मामले के एतिहासिक फैसले के साथ ही भारत एक बार फिर जीत गया. भारत का लोकतंत्र जीता, न्यायपालिका जीती और साथ ही जीता अमन और चैन. इस जीत की असली हकदार जनता जर्नादन है. मुकदमे के सभी पक्षकारों ने फैसले के बाद सन्तुलित प्रतिक्रिया देकर अपने बड़प्पन का परिचय दिया है. बधाई का पात्र इलेक्ट्रानिक मीडिया भी है, जो निर्णय के पहले और बाद में बाइट लेने-देने के चक्कर में फाउल से बचता रहा, हालांकि लखनऊ बेंच के बाहर कुछ देर के लिये प्रशासनिक इंतजाम अपर्याप्त हो गये थे. बधाई का पात्र शासन-प्रशासन भी है, जिसने प्रर्याप्त सुरक्षा प्रबंध किये थे और वह पुलिस बल भी, जिसने अपनी चौकसी और सजगता से असमाजिक तत्वों को सर नहीं उठाने दिया. दुनिया भर ने इस फैसले पर और फैसले के बाद भारत के घटनाक्रम पर निगाहें टांग रखी थीं. अमन और चैन के साथ महानगरों से सुदूर गांवों तक जीवन का पहिया फिर चल निकला है. अपनी रोज की जद्दोजहद पर इसलिये अल्लामा इकबाल ने ठीक ही कहा है- बरसों रहा है दुश्मन दौर-ए जमां हमारा कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। मुख्य संवाददाता

दांव पर दांव

चुनाव दांवबाजी का ही दूसरा नाम है. राधन सीट पर उपमंत्री की पत्नी के बैठने से पहले विरोधी गुड्डन को पचास लाख रुपये तक के ऑफर की खबरें हवा में तैरती रहीं. गुड्डन कहते हैं, ऑफर आये थे, मैंने इन्कार कर दिया. दूसरी ओर नानामऊ जिला पंचायत सीट पर नानामऊ के पूर्व विधायक भंवर सिंह के चुनाव लडऩे के पीछे बगल के गांव के निवासी सांसद विनय कटियार के परिवारजनों का हाथ बताया जा रहा है. यहां से सुभाष कटियार भी चुनाव लड़ रहे हैं. सुभाष ने पिछले चुनाव में दधिखा की प्रधानी और बीडीसी के लिये विनय से पैक्ट कर लिया था और स्वयं जिला पंचायत का चुनाव लड़े थे तथा कुछ ही वोटों से अनूप अवस्थी से हार गये थे. इस बार दधिखा की प्रधानी आरक्षित हो गई है और सुभाष अब सांसद के लिये आउटडेटेड हो गये हैं. उनके एक भतीजे तो भवंर सिंह के साथ लगे हैं. इस बार भी यहां अनूप अवस्थी और सुभाष में सीधा मुकाबला है, लेकिन इनकी लड़ाई में अनूप उर्फ टल्ले, डब्बन और रिक्की कटियार अपनी राह आसान करने के लिये लगे हैं. जिला पंचायत की एक अन्य सीट ककवन में पिछला चुनाव कुछ वोटों से हारे दिलीप यादव इस बार हाथी के बजाय राहुल और राजाराम पाल के हाथ के सहारे मैदान में उतरे हैं. क्षेत्र में पालों के पांच हजार मतदाता हैं और अब एक अन्य दावेदार रामरतन पाल, राजाराम पाल के पोस्टर लगाकर मैदान में उतर आये हैं. देखना है कि राजाराम का हाथ किसके साथ रहता है. यहां सपा से राजू दुबे और पप्पू, बसपा से अनिल अवस्थी, रामनरेश मिश्र और बबलू अग्निहोत्री और किसान यूनियन से विद्यासागर यादव व अरविन्द त्रिपाठी में जबर्दस्त मारा-मारी है. सब अपने को असली और दूसरे को नकली बता रहे हैं. एक अन्य जिला पंचायत सीट बरन्डा आरक्षित हो जाने के बाद भी बसपा के दो बड़े नेताओं को अपनी जाति विशेष के कारण निशाना बना लिया गया है, और एक नामालूम से राजेन्द्र को दिवाकर (सूरज) की तरह चमका दिया गया है. बरन्डा की प्रधानी के लिये मारा-मारी, विधायकी से ज्यादा है. यहां से सपा नेता अशोक कटियार के पारिवारिक मैदान में हैं. हेलो संवाददाता, बिल्हौर

पंचायत चौराहे पर

अनुराग अवस्थी 'मार्शल'

गांव अपने मुखिया (प्रधान) चुनने जा रहे हैं. लेकिन चुनाव में मारकाट और हत्यायें हो रही हैं. शराब पानी की तरह बहायी जा रही है. जाति के बगैर कोई बात नहीं कर रहा है. बेईमानों और लुच्चों ने लोकतंत्र की प्रथम सीढ़ी पर कब्जे की ब्यूह रचना कर ली है, लेकिन लोकतंत्र तो फिर भी जीतेगा हर बार की तरह, वह भी आम आदमी की बदौलत.

ग्राम पंचायतों के चुनाव, दरअसल देश के सबसे बड़े राज्य के असली लोकतंत्र की परीक्षा हंै. इस बार इन चुनावों ने ग्रामीण क्षेत्र के साथ शहरी अभिजात्य वर्ग की भी अभिरुचि बढ़ा दी है. कारण कई हैं. सबसे खास बात यह है कि ग्राम प्रधानी बीडीसी, ग्राम सदस्य के साथ जिला पंचायत के सदस्य भी चुने जा रहे हैं. जिला पंचायत के चुने सदस्य ही आगे चलकर जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव करेंगे. अध्यक्ष जिले की सबसे बड़ी लालबत्ती होती है, जैसे मेयर या नगर पालिका अध्यक्ष नगर का प्रथम नागरिक होता है. जाहिर है इनका चयन भले ही गांव से होता हो, लेकिन खान-पान, रहन-सहन और संबंध-व्यवहार सब कुछ अद्र्घ-शहरी होता है. यही कारण है कि पचहत्तर हजार रुपये की सीमा वाले इस चुनाव में बीस लाख रुपये तक खर्च करने वाले प्रत्याशी हर कदम पर हैं. दूसरी ओर ग्राम प्रधानी अब रूखी-सूखी नमक-रोटी का जुगाड़ भर नहीं, बल्कि मलाई-रबड़ी खाने और बुलैरो-सफारी पर चलने का जरिया बन गई है. इससे पहले जवाहर रोजगार योजना, इन्द्रा आवास और पट्टे आवन्टन की संस्तुति में कुछ प्रधान लाखों के वारे-न्यारे करने लगे थे. ऐसा नहीं है कि प्रधान अकेले रुपया हड़प कर जाने वाला प्राणी है. जिसकी सत्ता होती है, उसके स्थानीय छुटभैय्यों से लगाकर सांसद-विधायक तक और ग्राम सेकेट्री से लगाकर बीडीओ, एसडीएम तक, इस बंदरबार में शामिल रहते हैं. मनरेगा की मलाई ने जेआरवाई की खुरचन को गुजरे जमाने की बात बना दिया है. मनरेगा सीमित पानी की झील नहीं, बल्कि पानी की तरह रुपया बहाने की नदी बनकर आयी है, जिसमें गोते लगाने की इतनी मारामारी है कि भगवान ही मालिक है. इसीलिये चाहे शहर में सोने-चांदी की दुकान खोले स्वर्णकार हों या दिल्ली में नौकरी कर रहे गौतम जी अथवा वकालत कर रहे सिंह साहब, सब प्रधान बनने की लाइन में लगे हैं. कानपुर से ४० किमी. दूर जीटी रोड पर बीबीपुर गांव में मात्र साढ़े बारह सौ वोटर हैं और एक दर्जन प्रत्याशी यहां भाग्य अजमा रहे हैं. नानामऊ बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हैं, लेकिन दो हजार वोटरों के बीच सोलह लोग हाथ-पैर मार रहे हैं. ऐसा ही नजारा महंगवा का है, जहां ११०० वोटरों के बीच नौ लोगों में प्रधानी की गलाकाट जंग जारी है. सीट महिला है, चेहरा घूघंट में है, लेकिन लम्बरदार साहब उनकी आड़ में प्रधानी के शिकार में लगे हैं. अकबपुर से घाटमपुर तक और हमीरपुर से कन्नौज तक कुछ ऐसा ही नजारा दिख रहा है. यह तो एक पक्ष है. दूसरा पक्ष और भी स्याह है. ढूंढे ही शायद दो-चार गांव मिलें, जहां सुबह से शाम तक शराब पानी की तरह बहाई न जा रही हो. शराब कहीं ड्रमों में भरी रखी है, तो कहीं डिमांड पर हाजिर है. प्रत्याशी गांव के विकास पर अपने मत से जनमत को प्रभावित कर बहुमत पाने की बजाय, जाति-धर्म और विवादों की भांग खिलाकर, ऊपर से शराब पिलाकर, नकद नोट उड़ाकर लोकतंत्र के प्रथम प्रहरी बनने की जोर आजमाइश कर रहे हैं. इस जोर आजमाइश में अच्छे-सीधे सज्जन और पढ़े-लिखे ईमानदार भी हैं. लेकिन ताम-झाम और शोर शराबे में उनकी बात न तो मुखर हो पा रही है और न ही सुनी जा पा रही है. भाई-भतीजावाद भी इस चुनाव में सर चढ़कर बोल रहा है. बड़े नेता खुद तो सांसद विधायक हैं ही, अपने ही भाई, बेटे, बेटियों, बहू, पत्नी या मां को अपना उत्तराधिकारी बनाने की जुगत में हैं. इस समय राकेश सचान की पत्नी पुष्पा सचान जिला पंचायत अध्यक्ष हैं. जब वह अध्यक्ष बनी थीं तो समाजवादी पार्टी की सरकार थी और इन्हें अध्यक्ष बनने में कोई खास दिक्कत नहीं आयी थी, उस चुनाव में तीन से चार लाख रुपये तक की खरीद फरोख्त हुयी थी. उससे पहले के चुनाव में समाजवादी पार्टी के विधायक शिव कुमार बेरिया ने अपनी पत्नी रमा बेरिया को चुनाव लड़ाया था, लेकिन सरकार चूंकि भाजपा की थी, इसलिये सारे जुगत के बाद भी वे चुनाव नहीं जीत सकीं थीं और मीरा शंखवार अध्यक्ष बन गयी थीं. पुष्पा सचान इस समय जिला पंचायत अध्यक्ष हैं और अभी छह माह तक अध्यक्ष रहेंगी, इसलिये नये संशोधन के मुताबिक वे अध्यक्ष से इस्तीफा दिये बगैर सदस्य का चुनाव नहीं लड़ सकती हैं. विकल्प हाजिर हो गया कि पुष्पा सचान जी की सास अर्थात फतेहपुर से सांसद राकेश सचान की मां पतारी से चुनाव लड़ेंगी, उनकी तैयारी भी शुरू हो गई, लेकिन इसी बीच सरकार ने नियमों में एक और संशोधन कर दिया कि सामान्य सीट से चुना गया व्यक्ति आरक्षित अध्यक्ष पद पर चुनाव नहीं लड़ पायेगा. बस फिर क्या था. वे पतारी के बजाय कु दौली से चुनाव लडऩे पहुंच गयी और यहां से चुनाव लड़ रहे सपा के छुन्नी लाल सचान को दूसरी जगह भेजा जा रहा है. छुन्नीलाल पिछला चुनाव दबंग और प्रभावी नेता विजय सचान की भाभी से मात्र सात वोटों से हारे थे. वह भी तब जब उन्हें चुनाव से पहले जेल भेज दिया गया था. ऐसा ही कुछ नजारा घाटमपुर के वर्तमान विधायक आरपी कुशवाहा के इर्द-गिर्द दिख रहा है. जिलापंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर निगाह लगाये कुशवाहा ने अपनी पत्नी को बिन्नौर सामान्य सीट से चुनाव लड़ाने की तैयारी की थी. शासन के नियम के मुताबिक वे भी बिन्नौर से लड़कर अध्यक्ष की सीट पर नहीं विराज पातीं. फिर उनके लिये भी चौबेपुर सीट का इंतजाम किया गया और वहां से लड़ रही उनकी अपनी निकटस्थ गायत्री कुशवाहा को भी मानमनौव्वल के साथ फल, पुष्प चढ़ा कर मैदान से हटाने की तैयारी जारी है. बड़े नेताओं की सभी पदों पर कब्जा करने की प्रवृत्ति से जहां कार्यकर्ताओं में उदासी और आक्रोश है, वहीं इसके परिणाम उल्टे भी निकल सकते हैं. उल्लेखनीय है कि कुछ दिन पूर्व हुये फिरोजाबाद उपचुनाव में मुलायम सिंह यादव की बहू (अखिलेश की पत्नी) डिम्पल कार्यकर्ताओं के विरोध के चलते हार गईं थीं. बिल्हौर में भी स्थानीय विधायक कमलेश दिवाकर की पत्नी ने बीडीसी सदस्य के लिये नामांकन कराया है. साफ है कि निशाना ब्लाक प्रमुख सीट पर है, जो इस बार रिजर्व कर दी गई है. बांगरमऊ के रहने वाले कमलेश सपा सरकार के दौरान भी स्वयं व अपने भाई को प्रमुख निर्वाचित करा चुके हैं. जाहिर है इस बार तो परिस्थितियां बिल्कुल ही अनुकूल हैं. पंचायत पदों पर कब्जे करने की यह लड़ाई इतनी रोचक है कि बसपा जैसी अनुशासित पार्टी के अन्दर भी गला काट जंग शुरू हो गई है. राधन सीट पर चुनाव लडऩे आयी उपमंत्री का दर्जा प्राप्त सुशील कटियार की पत्नी प्रतिभा, स्थानीय विधायक कमलेश दिवाकर के असहयोग के चलते हार निकट देखकर मैदान से ही बाहर हो गयीं, इससे सबसे ज्यादा खुशी आरपी कुशवाहा को हुयी जिनके रास्ते का पहला कांटा निकल गया. माया दरबार में शामिल बाबू सिंह कुशवाहा के आशीर्वाद से ही अध्यक्ष की कुर्सी फाइनल होनी है. सुशील के लड़ाई से बाहर होने के बाद अब आरपी कुशवाहा की दावेदारी मजबूत हो गयी है. इससे पहले बाबू सिंह, अशोक कटियार को एमएलसी बनवाकर विरोधियों को चित कर चुके हैं. हिसाब-किताब साफ है मतदान गांव में होगा लेकिन पंचायत लखनऊ में लगेगी.

परिवारवाद की बीमारी दिल्ली लखनऊ, पटना और सैफई से होती हुयी अब बिन्नौर, राधन और कुदौली तक पहुंच गयी है. सांसद, विधायक और मंत्री अपने पुत्र-पत्नी, भाई-भतीजे को प्रधान, प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर येनकेन प्रकारेण बैठाल देना चाहते हैं. कार्यकर्ता तो दरी बिछाने के लिये ही बना है‡