रविवार, 3 अक्तूबर 2010

चौथा कोना

३२ बरस का पत्रकार और मैं बच्चा

बात अभी बीते सोमवार की है. ऑफिस से घर जाते समय टेम्पो पर एक सज्जन से प्रसंग वश चर्चा शुरू हो गई पिछले हफ्ते कानपुर में हुए वैश्य सम्मेलन में हुयी कथित 'गुप्ता पार्टीÓ की घोषणा पर. इस सम्बन्ध में मेरे विरोधी स्वर जानने के बाद महोदय सिरे से ही उखड़ गये. कहने लगे अगर बाभन, ठाकुर पार्टी बनायें तो देशसेवा और दलित व पिछड़े, जाति के आधार पर पार्टी बना लें जो जातिवाद हो गया! (पर वे यह भूल गये की वैश्य भी ब्राम्हण और ठाकुरों की तरह सवर्ण ही हैं, दलित या पिछड़े नहीं) वे आगे भी चालू रहे और माया-मुलायम-लालू जैसे नेताओं को जातिवादी राजनीति के संदर्भ में सदी के योग्यतम महापुरूषों का दर्जा दे डाला. किन्तु सम्भवत: उन्हें यह याद नहीं रहा कि योग्य होने और एक आदर्श नायक होने में फर्क होता है. अगर योग्यता ही सब कुछ होती तो अपने काले इतिहास के लिए जाने जाने वाले मुसोलनी से लेकर लादेन और अफजल-कसाब तक योग्यता में क्या किसी से कम हैं?करीब २० मिनट तक चली इस चर्चा में वे जातिवादी राजनीति और माया-मुलायम-लालू के समर्थन में बहुत कुछ कहते रहे, कुतर्क पर कुतर्क पेश करते रहे, पर मेरे तर्कों के सामने उनकी बोलती बन्द होती रही. परन्तु इस सबके अंत में उन्होंने जो कुछ कहा वह सबसे अधिक भयावह था. और घृणास्पद भी. टेम्पो से उतर कर जाते हुए उन्होंने पूछा, कब से हो इस लाइन(पत्रकारिता) में?, १५ दिन! मैने बताया, तभी उन्होंने अपना वह अंतिम और भयावह वाक्य बोला, ''और मुझे ३२ साल हो गये हैं, पत्रकारिता करते हुए!ÓÓसच में उनके इस वाक्य ने इस बार ना सिर्फ मेरी बोलती बंद कर दी बल्कि बहुत कुछ सोचने पर भी विवश कर दिया. एक पत्रकार इस हद तक जातिवादी हो सकता है यह मैंने कभी सोचा ही नहीं था. और यह पहली बार नहीं है, जब अपनी काली स्याही से पत्रकारिता के मुख पर कालिख पोत रहे तथाकथित पत्रकारों (या कहें जातिवादियों) से सामना हुआ, अपनी पिछले ३-४ महीनों की पत्रकारिता की छोटी सी अवधि में ही मीडिया में फैल रहे इस जातिवाद को बार-बार देखने व समझने का मौका मिला है. एक बड़े अखबार में तो सिर्फ इसलिए मौका मिल रहा था कि दुर्भाग्य वश मैं कुलीन ब्राम्हण परिवार में जन्मा हूं. दुर्भाग्वश इसलिए कि एक पत्रकार के रूप में इन सबका सामना करने से अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है? वैसे भी मीडिया में परिवारवाद के साथ-साथ जातिवाद की शिकायतें आम हैं, पता सबक ो है, पर कु छ बोलने की हिम्मत किसी में नहीं, आखिर हम्माम में सब ... जो हैं.पत्रकारिता तो मिशन हुआ करती थी, उसे आजादी के बाद लोकतंत्र के एक सजग प्रहरी की भूमिका दी गयी थी, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का दर्जा दिया गया था. ताकि वह समाज के विभिन्न तबकों के मध्य सदियों से जनमानस मेें अपनी जड़ें गहरी कर चुकी रूढिय़ों से समाज को मुक्त कर सके, जिससे एक आदर्श लोकतांत्रिक राष्ट्र क ा लक्ष्य पूर्ण हो सके और ऐसा बिना पत्रकारिता के संभव न था. यही वजह थी महात्मा गांधी तक ने पत्रकारिता की इस ताकत को पहचाना तथा नवजीवन, यंग इण्डिया और हरिजन के माध्यम से एक सक्रिय पत्रकार की भूमिका भी निभाई.परन्तु छि:! आज जब हम गांधी जयंती मना रहें हैं तो मीडिया का यह नया जातिवादी चेहरा उसके प्रति जुगुप्सा और घृणा ही पैदा करता है. सिहरन हो उठती है यह सोचकर ही कि कैसे क ोई पत्रकार इस हद तक जातिवादी हो सकता है? अगर पत्रकार भी जातिवादी हो जायेंगे, तो फिर बचा ही क्या यहां? मिशनरी पत्रकारिता तो वैसे भी नाम मात्र की बची है, वो भी दूध से भरे हुए बर्तन में चिपकी जली हुयी मलाई की तरह. अब यहां प्रोफेशनलिज्म हावी है, शायद तभी न तो खबरों के लिए ''देह का सौदाÓÓ करने में कोई हिचक है न ही ''पेड खबरोंÓÓ को लेकर कोई शर्म!और भइया अब तो जिस तरह से यहां जातिवाद फलने-फूलने लगा है, ऐसे में तो उन महोदय से निवेदन है कि हे! जातिवाद के नये ध्वजवाहकों आओ, सब मिलकर इस पत्रकारिता का बेड़ा गर्क कर दें, इसकी ऐसी-तैसी करने में कोई कोर कसर न छोड़ें, जितना जल्दी सम्भव हो, पूरे जोशो-खरोश के साथ इस 'मिशनÓ को पूरा कर दो , ताकि हम गांधी, विद्यार्थी और भगत सिंह के अधूरे सपनों और मिशन पूरा करने के लिए हम नवसृजन की दिशा में अग्रसर हो सकें, क्योंकि नवसृजन तो हमेशा विनाश के बाद ही होता है न .1 मनीष तिवारी

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