मंगलवार, 31 अगस्त 2010

विरोध किया तो मारे गये

विशेष संवाददाता

स्वतंत्रता दिवस की भोर जब सूरज निकला तो दिनेश चंद्र पांडेय, उर्फ छंगा पांडे नवाबगंज थाने के एक कोने में चोरों से भी बदतर स्थिति में बैठे हुए थे. आप सोच रहे होंगे दिनेश चंद्र पांडे उर्फ छंगा पांडे कहां से आ टपके. ये कौन हैं?तो छंगा पांडे विकास नगर मार्केट के व्यापार मण्डल के महामंत्री हैं. 'काम-भोगस्थलोंÓ की जहां से चेन शुरू होती है उसके एक सिरे पर (गुरुदेव पैलेस की ओर) उनकी गेट, ग्रिल की दुकान है. पांडे जी सुबह ९ बजे से देर शाम रात तक इन रेस्टोरेंटों की कारगुजारियों पर नजर रखते हैं. जब भी अय्याशी के इन अड्डों पर स्थानीय लोगों का गुस्सा फूटा 'छंगाÓ पांडे आगे-आगे नेतागीरी करते पाये गये. पांडे जी डीएम से भी मिले. अभी पिछले हफ्ते ही डीआईजी प्रेम प्रकाश से मिलकर क्षेत्रीय पुलिस व रेस्टोरेंट वालों की शिकायत की थी. बकौल पांडे जी डीआईजी ने थाना प्रभारी को बहुत लताड़ लगाई थी. यहां तक कहा कि क्या अब ... का माल खाये भी पुलिस.उसके बाद से पांडे जी को लग रहा था कि एक वह अब छंगा पांडे से मंगल पांडे हो चुके हैं. १५ अगस्त के दिन भी छंगा ने पंगा लिया. जैसे ही मैनावती मार्ग के रेस्टोरेंटो ने आजाद युवाओं के लिये चद्दर बिछाना शुरू किया. पांडे जी ने फिर मीडिया वालों को खबर कर दी. नतीजतन फिर पुलिस को बीच में आकर अपने रसीले रेस्टोरेंटों को बंद कराना पड़ा. पांडेजी विजेता की मुद्रा में आजादी के दिन इलाके में टहले. रात आई. रात क्या आई साथ में बवाल लाई. पांडे को रेस्टोरेंट वालों ने घेर लिया. लेकिन क्षेत्रीय लोग फिर पांडे के पक्ष में आ गये. जो मारने आये थे मार खाने लगे. फिर पुलिस को आना पड़ा. होटल वालों को बचाना पड़ा. पांडे जी और सीना फुलाकर भिड़ गये. लेकिन अब की फिट इंतजाम किया गया. तभी तो आजादी की अगली भोर जब पांडे जी को थाने से कचहरी के लिए रवाना किया गया उस समय होटल वालों के थाने में मौजूद पैरोकार मंद-मंद मुस्करा रहे थे. पूरा थाना बेहद पूरी मुस्तैदी से सक्रिय था. पांडे का नाम लेकर थाना परिसर में अगर कोई घुसा तो उसकी मां...बहन सब एक.. की जा रही थी. पांडे शायद नवाबगंज पुलिस के हत्थे चढ़ा अब तक का सर्वाधिक दुर्नाम अपराधी था. पुलिस पांडे को कचहरी लेकर पहुंची तब तक एक होटल मालिक के वकील भाई ने कचहरी में सक्रिय काले कोट में छुपे लुच्चों को इक_ा कर पांडे को खूब पिटवाया. जिस पुलिस अभिरक्षा में पांडे भेजे गये उसके सिपाही किनारे खड़े उसे पिटता और लहूलुहान होता देखते रहे. पांडे को समझ आ गया होगा... वह छंगा पांडे ही ठीक है, ज्यादा मंगल पांडे न बनें. क्योंकि यह देश अभी केवल अंग्रेजों से आजाद हुआ है.. पुलिस और लुटेरों से नहीं. अभी शहर पार्षद लखन ओमर की जेल यात्रा नहीं भूला होगा. क्षेत्रीय नागरिकों के हित में भ्रष्टाचार के खिलाफ उसने आवाज उठाई तो जेल में सड़ा दिया गया. भाजपा ने अपने पार्षद को उसके हाल पर छोड़ भी दिया. ठीक ऐसा ही छंगा के साथ भी हुआ. अब छंगा पांडे जब थाने, कचहरी से होते हुए जेल में हैं तो इलाके के लोग संभ्रांत नागरिक कहते मिल रहे हैं और बनो बड़ी अम्मा.... मना किया था पंगा न ले.. लेकिन छंगा.. बिना पंगा...? अब बताइये क्या हम आजाद हैं और अगर नहीं तो क्या कभी आजाद हो सकते हैं..? नहीं.. नही... नही...1

वाकई आजादी है
प्रमोद तिवारी
जिस्मानी कमाई के धंधे में क्षेत्रीय पुलिस की खुली भागेदारी होतीे है. एक रेस्टोरेंट वाला हर महीने थाने में कम से कम सात हजार रुपये देता है. मिला जुला कर लाख रुपये से ज्यादा की माहवारी बनती है. इस रुपये से थाने के काफी काम चलते हैं. सीनियरों की आव-भगत में यह एग्जाई काम आती है. वाकई हम आजाद हो चुके हैं.
विकास नगर चिडिय़ा घर, मैनावती मार्ग पर पिछले ५ वर्षों से बेहद घटिया, बेहयायी से भरा एक गिरा हुआ शर्मनाक तमाशा चल रहा है. छोटी -छोटी शटर वाली दुकानों को रेस्टोरेन्ट और फास्ट फूड के नाम पर सुरक्षित भोग स्थलों में तब्दील कर दिया गया है. इन रेस्टोरेंट में भीतर सजी मेजों पर लजीज व्यंजन के बजाय गलीच अय्याशी परोसी जाती है. यह होटल, ये रेस्टोरेंट बिना किचन के जिस्म की भूख मिटा रहे हंै. कामुक युवा जोड़े इन दबड़ों मे फुट फुट की दूरी पर अपनी शर्म - हया उतार फेंक नंगई में डूब जाते हंै. इसके बदले रेस्टोरेंट वालों को उन्हें तीन सौ रूपये प्रति घंटे के हिसाब से बिताये समय का भुगतान करना होता है. इस जिस्मानी कमाई के धंधे में क्षेत्रीय पुलिस की खुली भागेदारी होतीे है. एक रेस्टोरेंट वाला हर महीने थाने में कम से कम सात हजार रुपये देता है. मिला जुला कर लाख रुपये से ज्यादा की माहवारी बनती है. इस रुपये से थाने के काफी काम चलते हैं. सीनियरों की आव-भगत में यह एग्जाई काम आती है . वाकई हम आजाद हो चुके हैं. यह सब कोई लुका छिपी का खेल नही हैं. जो भी हो रहा है खुले आम हो रहा है. सब जानते हैं. इन रेस्टोरेंटों के बाहर का नजारा भी खूब होता है. जैसे टैम्पों वाले अपने 'छोटुओंÓं से आवाज लगवा-लगवा कर सवारियों को बुलाते हैं, ठीक वैसे ही इन रेस्टोरेन्टों के बाहर भी छोटुओं की आवाजें लगती हैं. जैसे कभी शहर के रेड-लाइट एरिया मूलगंज में रंडियों के भड़वे गलियों में घूम रहे अय्याशों को पटाने के लिए अपने अपने माल के गुण गान किया करते थे , वैसे ही इन होटलों के बाहर भी भड़वागीरी होती है. आते जाते युवा जोड़ों को बताया जाता है कि उनके दबड़े में अय्याशी के कितने सुरक्षित और अच्छे इंतजाम हंै. इन रेस्टोरेंट में जैसा कि बताया जा चुका है खाने पीने का समान होता नहीं लेकिन बियर व गर्भ निरोधकों के आर्डर सहर्ष लिये जाते हैं. उनकी भी कीमत कई गुनी होती है. काम पूर्ति की यह कामस्थलियां जिन क्षेत्रों में पांव पसार चुकी हैं वहां जुगलदेवी, जयनारायन, दीनदयाल, जैसे कितने ही प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान चल रहे हैंउजियारी देवी, जागेश्वर मंदिर, शनि मंदिर, हनुमान मंदिर जैसे कितने ही यहां आस्था के केन्द्र हैं. स्थानीय पुलिस अपने महीने और रेस्टोरेंट वाले अपनी भड़वई के चक्कर में यह सब नहीं देख पा रहेे हैं. यह रेस्टोरेंट वाले सिर्फ किशोरमन की काम उत्तेजना का ही दोहन कर रहेे हैं, ऐसा नहीं है. ये शहर भर में फैले देह व्यापार के संजाल के टावर हैं. यहां आने पर अगर आप इन दबड़ों में अपने आप को काम पूर्ति में असहज पाते हैं और आपके पास अपना अलग ठिकाना होता है तो ये फास्ट-फूड वाले लड़कियां भी उपलब्ध करा देते हैं. क्षेत्रीय लोग रेस्टोरेंट मालिकों और पुलिस के इस शर्मनाक काम गठजोड़ से इसकदर उबे हुए हैं कि बार बार बगावत पर उतारु हो जाते हैं. पिछले एक साल में इस क्षेत्र में छोटी-बड़ी कोई आधा दर्जन हिंसा और आगजनी की घटनाएं हो चुकी हंै. हर बार पुलिस लाठी डंडा लेकर इलाकाई लोगों को कानून का पाठ पढ़ा कर शांत करा देती है. कुछ दिन (दो या चार बस) भोग स्थल बंद रहते हंै और धीरे-धीरे देर सबेर फिर खुलने लगते हैं. क्षेत्रीय जनता की इस क्रान्ति का इस धन्धे पर केवल इतना असर पड़ता है कि हर उपद्रव के बाद पुलिस की महीने की आय में बढ़ोत्तरी हो जाती है. कभी सौ रुपये घंटे से शुरु हुआ यह काम व्यापार अब चार सौ रूपये घंटे तक पहुंच चुका है. पुलिस को मिलने वाला महीना प्रति रेस्टोरेंट १५ सौ रुपये से बढ़कर अब ६ से ८ हजार रूपये तक हो चुका है. बीती १३ अगस्त, १४ अगस्त और १५ अगस्त को विकास नगर, गड़रियन पुरवा व आस पास के लोगों ने अय्याशी के इन अड्डों पर फिर धावा बोल दिया. इस बार भी पुलिस बल ने हस्तक्षेप किया. माहौल शांत कराया. फिलहाल ये सभी कामस्थलियां बंद करा दी गई हैं .उम्मीद की जानी चाहिए कि आजादी की सालगिरह मनाने के बाद जब शहर धीरे-धीरे अपनी दिनचर्या में मशगूल हो जायेगा, बंद शटर फिर खुलने लगेंगे और पुलिस की वसूली पहले से और मुनाफा दार हो जायेगी.1

चौथा कोना

पत्रकारिता का टॉप गेयर

हम आज भी दृढ़ हैं कि पत्रकारिता का अर्थ सिर्फ लेखन से है. इसी अर्थ में सारे 'अर्थÓ निहित हैं. लेखन हमें पाठक देता है. पाठक को ही प्रसार कहा जाता है. प्रसार कृपण नहीं होता वह हमें विज्ञापन देता है. विज्ञापन से धन मिलता है. धन से ईंधन, ईंधन से ऊर्जा और ऊर्जा से गति... यही नियम है, यही क्रम है यही 'सरकिलÓ है, इसी का परिणाम है कि आज पत्रकारिता अपने 'टाप गेयरÓ में है.लाखों-लाख की प्रसार संख्या है अखबारों के पास. करोड़ों के विज्ञापन हैं. हर सुविधा है. कोई दुविधा नहीं है. सबको पूर्ण स्वतंत्रता है. कहा जा सकता है कि अभाव और सीमित साधनों से शुरु हुई प्रताप नारायण मिश्र की पत्रकारिता नरेन्द्र मोहन तक आते-आते अपना एक चक्कर पूरा कर चुकी है. लेखन के ठोस धरातल से शुरु हुआ सिलसिला विज्ञापन के शिखर पर आ पहुंचा है. अब दूसरे चक्कर की बारी है. इस चक्कर में पत्रकारिता के पास अभाव नहीं है. दूसरे चक्कर की शुरुआत समृद्धता के शिखर से है. ऐसे में हमें उम्मीद करनी चाहिए कि जब हम तीसरे चक्कर का प्रारंभ करेंगे तो लेखन के शिखर पर होंगे. लेकिन दूसरे चक्कर की शुरुआत 'पेज-3Ó से हो रही है. यह बड़ी अजीबोगरीब शुरुआत है जिसमें लेखन तो बेहद नक्काशीदार होता है लेकिन लेख महाफूहड़. बकवास. अभी पिछले दिनों मुझे सड़क पर अपना एक बेरोजगार पत्रकार भाई मिला. उसे कुछ वर्षों पूर्व अखबार से इसलिए बाहर कर दिया गया था कि उसने एक साधारण से पात्र को 'महापात्रÓ बना दिया था.यानी पैसा लेकर प्रशस्ति लिखी थी. आज 'पेज-3Ó की प्रशस्ति पत्रकारिता में तो सबकुछ छपता ही पैसे से है. यह पैसा पत्रकार नहीं लेता, खुद अखबार लेता है अखबार. पत्रकार को तो शब्द नक्काशी करने के लिए वेतन पर रख लिया जाता है. देखिए, पहले चक्कर की पत्रकारिता में चापलूसी के कारण नौकरी चली गई. दूसरे चक्कर में नौकरी ही चापलूसी के लिए मिलती है. यह है पत्रकारिता की समृद्धशाली शुरुआत. अगर यही समृद्धता है तो मेरे निकाले गए भाई से अखबार मालिक घर जाकर मांफी मांगें. कहें, गुरुदेव हम लोग मूर्ख थे. नहीं समझ रहे थे कि आप त्रिकाल दृष्टा हैं. आप भविष्य की पत्रकारिता कर रहे थे. हम नहीं समझ पाए. आपके पुनीत आचरण का अनुसरण करने के बजाए हमने आपको भ्रष्टï कहकर संस्थान से निकाला. हम अपनी भूल स्वीकारते हैं. आप महान हैं. चलिए संस्थान के सर्वोच्च आमन पर विराजिए और दूसरे चक्कर की पत्रकारिता में तीसरे चक्कर की पत्रकारिता के संदेश दीजिए. चलिए गुरुदेव 'पेज-3Ó आपका इंतजार कर रहा है. हमें क्षमा करें.... यह सब मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मैं खुद चक्कर में हूं कि आखिर यह चक्कर क्या है.आपने ऐसा कोई कारीगर देखा है जिसके लिए शहर-टाप मिठाई बनाने का शोर हो लेकिन कोई हलवाई है उसे कड़ाही न छूने देता हो.जवाब हाँ, में हो सकता है... अगर कारीगर के कोढ़ हो तो....वरना कभी होता है ऐसा... पत्रकारिता में होता है... एक नहीं शहर से लेकर प्रदेश, प्रदेश से लेकर देश तक दर्जनों पत्रकार हैं जिनके लेखन, समर्पण, ईमानदारी का सब लोहा मानते हैं लेकिन उनके कागज छूने पर मनाही है. ऊपर से असंगति यह कि कलम के पास कागज नहीं है. जिसके पास कागज है वह कलम खरीद लेते हैं. फिर कलम लिखने बैठती है अकेली औरत की नयी राह और लिख बैठती है अकेले सेक्स की नयी राह...ÓÓ

प्रमोद तिवारी

नारद डाट काम

डायन बनी महंगाई

इस महंगाई से पूरा देश परेशान है सिवाए शरद पवार के . वैसे भी नेताओं पर डायन, स्वाइन फ्लू, और एड्स का असर नहीं होता है. यह उनको कुदरती देन है इसके लिए कोई क्या कर सकता है. महंगाई के चक्कर में संसद तक नहीं चलने दी, तमाम सड़कें बन्द कर दी लेकिन नतीजा कुछ नहीं. मुझे एक बात समझ नहीं आती है कि नेताओं पर इस डायन का असर न के बराबर है फिर भी यह लोग हाय तौबा मचाये हुए हैं और जिस जनता को यह डायन कच्चा चबाये जा रही है. वो चुपचाप बैठी हुयी है. इस डायन से बचने के लिए मेरे पास कुछ हकीमी नुस्खे हैं लेकिन ऐलोपैथी से कहीं ज्यादा कारगर. पहला तरीका अपनी पड़ोसी जिले में तैनात एक पी सी एस अफसर के पास है. यह हजरत पिछले तीन साल से पगार नहीं उठा रहे हैं लेकिन सेहत पर भुखमरी के कोई निशान नहीं हैं और तो और बाल बच्चे भी पूरी मौज में हैं. यह वाकई शोध का मामला है कि कैसे एक हुक्मरान बिना तनख्वाह के परिवार पाल रहा है. इस विषय पर विस्तृत अन्वेषण के दरकार हैं. ऐसे ही दक्षिण भारत में एक बाबा जी हैं पिछले २५ वर्षों में अन्य तो दूर की बात है उन्होंने एक बूंद पानी भी नहीं पिया और बंटा जैसी आंखे चमकाते रहते हैं. देश विदेश के डॉक्टर और वैज्ञानिक इनके मर्म को नहीं समझ पा रहे कि आखिर बिना खाये पिये वो पूरे २५ साल से यह गाड़ी कैसे घसीट रहे हैं. केन्द्र और राज्य सरकार को चाहिए की उक्त दोनों महाप्राणियों की जीवन गाथा पर ठीक से सर्च लाइट मारें और अपने देश के पेटू लोगों को समझायें कि ऐसे भी जीवन जिया जाता है. महंगाई को डायन या पूतना कहने वाले लोग दरअसल जीते ही खाने के लिए हैं. शरद पवार की टंकी से अपनी तुलना करते हैं, अरे वह तो शुरू से फूली है और मरते दम तक फूली ही रहेगी. आम भारतीय की पहचान तो पेट के पीठ में चिपक जाने से होती है. इतिहास गवाह है कि ज्यादा खाने वाले लोगों की हमेशा तफरी ली जाती रही है. अपने महाभारत वाले भीम खाने के फेर में ही भाइयों के बीच हंसी का पात्र बनते रहे हंै. तो ये इण्डियन्स, अफसर और बाबा में से एक की लाइफ स्टाइल चुनो और कम खाओ, गम खाओ, और कभी -कभी न खाओ का फार्मूला अपनाने में ही भलाई है. सरकार को डायन की अम्मा समझा तो यह कच्चा ही चबा जायेगी.

प्रथम पुरुष
मजदूर महिलाएं और नशा
क्षमता से अधिक (घंटे)काम करने वाली महिलाएं खेतों में या अन्य जगहों पर मजदूरी करती हैं. भोजन के अभाव में काम करने वाली ये महिलाएँ काम क रने की क्षमता बढ़ाए रखने के लिए अनेक नशों का सहारा लेती हैं. स्वार्थवश ये महिलाएँ इस आदत क ो कभी अपनी मर्जी से तो कभी ठेकेदारों के कारण बढ़ावा देती हैं. एक शोध के अनुसार ८०.९ प्रतिशत औरतें गुटखा चबाती हैं, ६१.४ प्रतिशत सुर्ती, ५० प्रतिशत बीड़ी, २० प्रतिशत देशी दारू और १४.५ प्रतिशत हुक्के का सेवन करती हैं. वेे नहीं जानती कि इस आदत के कारण उनको अस्थमा, फ ेफड़े में कैेंसर, अधिक रक्त चाप गले का कैंसर, भूख न लगना एवं लीवर सम्बंधी बीमारियां होने की सम्भावना अधिक है.
चिकित्सा क्षेत्र की चुनौतियां
चिकित्सा क्षेत्र के सामने निम्न प्रश्न मुंह खोले खड़े है उनपर निर्णय लेेना आसान नहीं है १. यूथेंन्सिया या स्वैच्छिक मृत्यु- लॉ कमीशन में सिफारिश की गई है कि इसकी इजाजत दी जाए क्यों कि न देने से वे और उनका परिवार मानसिक और आर्थिक तौर पर टूट जाता है.२. गर्भपात- ग्रेट ब्रिटेन में २४ हफ्ते तक गर्भपात की इजाजत है और २२ से २४ हफ्ते में अच्छी जांचों के कारण शरीर (हृदय या मस्तिष्क) की गम्भीर बीमारियों का पता चल सकता है. वे बता सकती हैं कि ऐसे बच्चे को जन्म देना निरर्थक है.३. स्टमसेल- इसके द्वारा बीमारियों (कैंसर) दुघटनाओं के इलाज की सम्भावना समाप्त नहीं हुई है. परन्तु अभी १० से ३० वर्ष लगेंगे यह जानने के लिए कि स्टम सेल के काम करने की विधि क्या है.४. अंगो की बिक्री- इरान में इनकी बिक्री वैध है हम भी जनहित में इसे कर सकते हैं परन्तु हमारे देश का भ्रष्टाचार और गरीबी इसका दुरूपयोग करेगा.५. भाड़े की मां- इसकी इजाजत उन्ही महिलाओं को है जो बिना गर्भाशय के पैदा हुई है यह जिनका गर्भाशय गम्भीर रूप से नष्ट हो चुका है उनके लिए नहीं जिनका गर्भपात हो जाता है.६. दवाओं को क्लिीनकल ट्रायल- वर्ष २०१० में इसका कार्य २ बिलियन रुपये हो जायेगा. अनजान पुरूषों और महिलाओं के ऊपर इनका प्रयोग किया जा रहा है. अब ऐसे ट्रायल के लिए विधि बना दी गई है उन्हें रजिस्टर करना होगा और उनके बारे में पूरी जानकारी प्राप्त की जा सकती है.७. मधुमेह- इसके इलाज के लिए छोटी आंत का एक हिस्सा निकालकर चीनी की मात्रा को निंयत्रण करने वाले हारमोन को सक्रिय करना गलत बता रहे हैं क्योंकि इससे संक्रमण और खून के थक्के जमने का खतरा है.
गांधी की हत्या
- अनेक प्रश्न१. उन्होने पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को वापस जाने को कहा.२. उन्होने पाकिस्तान को ५५ करोड़ रूपये देने के लिए दबाव डाला.३. उन्होंने हमेशा मुसलमानों का पक्ष लिया उन्होंने पाकिस्तान से आये शरणार्थियों के दर्द को नहीं समझा.४. उन्होने अपने भूख हड़ताल को हमेशा हिन्दुओं को शान्त करने के लिए एक ब्लैक मेल का साधन बनाया.५. मुसलमानों ने उन्हें कभी भी अपना नेता नहीं माना फिर भी हमेशा उनका बचाव किया.६. उन्होने देश का विभाजन स्वीकार किया जबकि ऐसा होने पर अपनी जान देने की धमकी दी थी. उन्होने अपने आप को देश के ऊपर रखा.७. माउंट बैटन के सुझावों पर आंख मूंद कर विश्वास किया. माउंट बैटन को तो यह भी एहसास नहीं था कि जब शरणार्थी इधर से उधर आयेंगे तो कितना खून खराबा होगा उसको रोकने के लिए पहले से कोई तैयारी नहीं की. वे तो किसी महाराजा की रियासत में शिकार खेल रहे थे उन्होंने पाकिस्तान को रोकने के लिए सेना दो दिन देर से भेजी. काश्मीर में वहां के महाराजा को सलाह दी कि भारत में शामिल होने से पहले अपने राज्य के लोगों की राय ले लें.८. उन्होंने हिन्दुओं का पक्ष लेने वाले नेताओं या पार्टियों को देश का दुश्मन बताया. उनकी बात को नहीं समझा उनको विश्वास में नहीं लिया.९. आजादी की लड़ाई के लिए उनकी अहिंसा का धर्म और नीति ठीक थी परन्तु शासन द्वारा एक वर्ग या अराजक तत्व द्वारा हिंसा के तांडव को रोकने के लिए कमजोर शासन का प्रीतक है जिसका अराजक तत्वों ने पूरा फायदा उठाया और कांग्रेस में ऐसे नेताओं की भरमार हो गयी और अब सभी पार्टियों में ऐसे नेताओं का प्रभुत्व हो गया.१०. दलितों के मसीहा थे परन्तु उनमें सूक्ष्म नेतृत्व पैदा नहीं कर सके. आजादी दिलाने के बाद उन्होंने देश के शासन को सुचाररू रूप से चलाने के जिम्मेदारी क्यों नहीं ओढ़ी. दुनिया के तमाम देशों में आजादी के बाद वहां के सर्वोच्च नेता ने ही शासन की डोर संभाली है पर उन्होंने देश को मझदार में छोड़ दिया.1 (लेखक पूर्व स्वास्थ्य निदेशक हैं)
अजय का 'विजय' प्रकाश
लगभग पचास लाख के आस-पास के शहर में मात्र १९ हजसा ८ सौ युवकों की सदस्यता कोई मायने नहीं रखती लेकिन कांग्रेस के लिए यह सूखे में नीर भरी बदली की तरह भी है. कांग्रेस की यह सदस्यता वाकई कांग्रेसियों की ही सदस्यता है, इसमेें शक है..। कारण कि नये सदस्य बनाने में शहर के शातिर कांग्रेसियों ने आम युवाओं की कमजोर नस का भरपूर दोहन किया. बहुत से युवाओं से यह कहकर शुल्क फोटो, नाम व पता ले लिया कि उनके लिए बीपीएल कार्ड बनवाये जाएंगे, वोटर आईडी बनवाये जाएंगे, वजीफा दिया जायेगा, राहुल गांधी से मिलवाया जायेगा आदि... इत्यादि.
युवा कांग्रेस के संगठनात्मक चुनावों में कनपुरिया परिदृश्य की जो ताजा तस्वीर उभरी है वह बताती है कि अब खांटी राजनीतिक प्रबंधन पर व्यावसायिक प्रबंधन कहीं भारी है, सीधे शब्दों में कहा जाए तो पार्टी के काम के लिए अब केवल दलगत नीतियां, पद और प्रतिष्ठा ही काफी नहीं है. पैसा भी बहुत जरूरी है. शायद इसीलिए युवक कांग्रेस के संगठनात्मक चुनावों में अजय कपूर का पलड़ा भारी रहा जबकि कानपुर से लेकर दिल्ली तक भारी भरकम कद काठी वाले नेता व केन्द्रीय मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल हल्के पड़े. शहर की पांच विधान सभा समितियों में चार पर अजय कपूर गुट का बहुमत रहा और एक पर मंत्री गुट का.हालांकि अब अजय कपूर को श्री प्रकाश जायसवाल के सामने गुटाधीश के रूप में नापना तौलना बेमानी लगता है लेकिन यह कानपुर की कांग्रेस है कि यहां की लोकल पॉलिटिक्स हमेशा से प्रदेश और केन्द्र के पदनामों पर भारी रही है. आज के दौर से ठीक पहले भी ऐसी ही स्थानीय गुटबाजी शहर ने देखी है. जब शहर अध्यक्ष नरेश चन्द्र चतुर्वेदी राष्ट्रीय महासचिव बनने के बाद भी तिलक हॉल में ताल ठोंकते रहे. श्री प्रकाश जायसवाल जी भी केन्द्रीय मंत्री भले हों लेकिन उनकी स्थानीय राजनीति में जरा भी रुचि कम नहीं हुई है. हालांकि वह अपना पूरा समय शहर राजनीति को नहीं दे सकते लेकिन अपने सिपहसलारों के जरिए उनकी मौजूदगी हमेशा रहती है. यूथ कांग्रेस के चुनाव में भी श्री प्रकाश और अजय गुट में एक जोर आजमाइश थी कि कौन कितने प्रभावी ढंग से सदस्यता अभियान चलाता है और वार्ड समितियों से लेकर विधान सींा समितियों और महानगर के समिति तक कौन अपने कितने विश्वास पात्रों को जिता सकता है. नतीजा आ चुका है. चाहे वार्ड समितियां हों चाहे विधान सभा और चाहे नगर समितियां वर्चस्व अजय कपूर का रहा.स्थानीय सार्वजनिक शक्ति परीक्षण में पिछडऩा श्री प्रकाश जी को बहुत खला इसके लिए उन्होंने अपने जिम्मेदार सेनापतियों की क्लास भी ली जबकि अजय खेमे में जश्न है विशेष रूप सेे युवक कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर अपने मनचाहे तरूण पटेल को जिता कर. आखिर ऐसा कौन सा कारण रहा कि पूरी मजबूती होने के बाद भी मंत्री जी गच्चा खा गए.पूरे चुनाव के दौरान कांग्रेस की भलाई में दोनों ही तरफ से लोग मैदान में उतरे. एक तरफ पार्टी थी और दूसरी तरफ आज की ऊर्जा यानी पैसा. श्री प्रकाश जी की ओर से जो लोग काम कर रहे थे वे पार्टी के काम में लगे थे जबकि अजय कपूर की ओर से उतरे लोग कांग्रेस की नौकरी कर रहे थे. मंत्री जी के लोग अपनी दिनचर्या से समय निकाल कर पार्टी के लिए जुटे हुए थे जबकि विधायक के लोगों की दिनचर्या ही पार्टी का काम था. कुल मिलाकर अजय कपूर ने सधी हुई व्यवसायिक शैली में काम किया. सवेतन, कार्यालय चलाया. पार्टी के लोगों को समय पर बुलाकर सदस्यता अभियान के लक्ष्य एि और लक्ष्य पूरा करने के लिए हर तरह का हथकंडा अपनाया. कांग्रेस सूत्रों के अनुसार लगभग २० हजार युवा और नए सदस्यों में १४ हजार के आस-पास तो अकेले अजय कपूर ने ही बनवाए. मंत्री की टीम तो पहले पायदान पर ही धड़ाम हो गई. यहां शहर में नगर अध्यक्ष महेश दीक्षित के साथ विधायक संजीव दरियावादी, इकबाल अध्यक्ष, प्रदीप मिश्रा रिजवान हामिद, अमीन खान, शैलेन्द्र दीक्षित, जुनीत त्रिपाठी और अरूण द्विवेदी ने मुख्यरूप से मंत्री की ओर मोर्चा संभाल रखा था जबकि अजय कपूर की ओर डा. नरेश मिश्रा, अंबुज शुक्ला, हरि प्रकाश अग्निहोत्री, हयात जफर हाशमी, देवेन्द्र सब्बरवाल, ललित मोहन श्रीवास्तव, प्रदीप सारस्वर, राजकुमार यादव आदि ने मोर्चा संभाल रखा था. यह तो कहो विधायक संजीव दरियावादी ने अपने प्रभाव व कार्यक्षेत्र में बेहतर भूमिका निभाकर अपना अध्यक्ष बनवा लिया वरना तो सूपड़ा ही साफ था.1

सोमवार, 2 अगस्त 2010

मौका है हरियाली बो दें
समय से मानसून है. झमाझम बारिश हो रही है. बादल घिरता है, बरसता हैै, फिर खुल जाता है। यही मौका है कि हम पूरे शहर में हरियाली बो दें, खुशबू रोप दें. कालिदास इसी मौसम में मेघदूत रच देते हैैं. इन्द्रधनुष अनायास आकाश के छोर नापने के चक्कर में दुनिया से सात रंगों की चुगली कर देता है. सन्ï सत्तर के दशक में धर्मेन्द्र झूम-झूम के कहते हैं- 'बरखा आये, कि झूले पड़-पड़ जाये, कि मेले लग गये, मच गई धूम रे- कि आया सावन झूम के...Ó इन्हीं दिनों के लिए जन्नतनशीं मुकेश गा गये... 'बरखा रानी, जरा जम के बरसो, मेरा-दिलवर जा न पाये, झूम के बरसो.Ó मगर तब के नगर और आज के महानगर के बीच बादल, बरखा, झूले दिलवर सबके सब अपने मतलब बदल चुके हैं. हरियाली और खुशबू की बातें भी पहले की तरह हरी और नथुने फुलाने वाली नहीं रहीं. तभी तो शहर के वरिष्ठï कवि हरिकांत शर्मा कहते हैैं- 'माली! क्या तरकीब निकाली, गमलों में सिमटी हरियाली.Ó तंज और यथार्थ को समेटे इन पक्तिंयों के लिए कवि को कम माली को ज्यादा धन्यवाद देने का मन करता हैै कि चलो, उसने कोई तरकीब तो निकाली वरना शहर में कहा बोयें पेंड़, कहां रोपें खुशबू... कहां डालें झूले और कैसे गाये घनन-घनन घन घिर आये बदरा...। हर कहीें तो $जमीन का रोना है. शहर ने धरती को प्लाट बना दिया है. प्लाट में मकान उगते हैं, बाग नहीं. इन्हीं मकानों में रहने वालो के लिए इस बार हम हरी-हरी महकदार बातें कर रहे हैं ताकि जिन्हें जहां मौका मिले, जैसे बन पड़े कुछ हरियाली कुछ खुशबू और कुछ रंग जरुर बोयें.
जैसे-जैसे हमारा शहर बड़ा होता जा रहा है वैसे-वैसे लोगों के घर छोटे होते जा रहे हैं और सिमटती जा रही है नगर की हरी-हरी हरियाली. कहीं बढ़ती आबादी के 'चौड़ीकरणÓ के नाम पर, तो कहीं नये 'प्रोजेक्टÓ के नाम पर, पार्कों, सड़कों, मैदानों व खुली जगहों से हरियाली साफ कर ईंट-पत्थरों के जंगल (इमारतें) बना दिये गये हैैं. शहर में अब कुछ ही गिने-चुने स्थान हंै जहां ठीक-ठीक हरियाली दिखाई देती है- मोतीझील, बृजेन्द्र स्वरूप पार्क, सीएसए, कम्पनी बाग, संजय वन ऐसे ही कुछ क्षेत्र हैं लेकिन जहां आबादी लाखों में है, वहां कुछ हजार पेड़ सभी को 'प्राणवायुÓ की आपूर्ति करने में असमर्थ हैं. लेकिन शहर के कई लोगों ने इस समस्या को समझा है और तेजी से खत्म होती हुयी हरियाली को अपनी छतों-छज्जों, चबूतरों और लॉनों में ले आये हैं और अपने छोटे-छोटे गमलों में उसे समेट कर प्रकृति के पास रहने का पूरा आनन्द उठा रहें हैैं। इसे शौक कह लें या फिर आन्दोलन, पिछले बरसात में निसंदेह आम शहरियों ने इस मर्म को नहीं समझा, समझा होता तो इस $कदर पेड़ों की सफाई नहीं होती लेकिन भला हो फैशन का, कि इन दिनों महानगरीय जीवन शैली मेें बागवानी को भी स्टेटस सिम्बल की तरह अपनाया जा रहा है। फलस्वरूप एक लम्बी संख्या अपनी गलती का प्रायश्चित करती हुई सी जहां-तहां, जब-कब पेड़-पौधे लगाने की कोशिश करती दिखती है? वैसे तो किसी शहर का 33 फीसदी भाग पूरी तरह हरा-भरा जंगल होना चाहिए लेकिन शहर में यह बमुश्किल 3 प्रतिशत ही है, शौक से इसे कभी पूरा नहीं किया जा सकता लेकिन शौक को प्रवृत्ति बनाकर भविष्य की संभावनाएं दुरुस्त की जा सकती हंै। ऐसे में आजकल मौका भी है और दस्तूर भी...। बारिश कभी रिमझिम कभी झमाझम हो रही है। यही समय है कि हम अपने बगीचे में, लॉन में, गमले में छतों पर हरियाली बिखेंरें। बरसात का मौसम ही सबसे सही मौसम है। इस मौसम में पौधे तेजी से बढ़ते हैैं, विकसित भी जल्दी होते हैं। चाहें बीज से निकलने वाले पौधे हो चाहे कलम से। यह जुलाई महीना सबसे उर्वरक महीना है। आइये अब बात करते हैैं, पेड़-पौधे लगाने की सही जगहों की। घर के अन्दर से बात शुरु करते हैं। आजकल घरों का साइज भी छोटा हो गया हैै। हवा, धूप भी बड़ी मुश्किल से मिलती हैैं। इन जगहों पर गमलों में पौधे लगाना बहुत अच्छा रहता है। गमले पौधों के हिसाब से छोटे या बड़े लिये जा सकते हैं। घर के हिसाब से तुलसी को औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता है। यह पौधा रामा, श्यामा, बबई फ्रेन्च और लौंग तुलसी आदि प्रजातियों का आता है। इसके लिये न तो अधिक पानी और न ज्यादा धूप की जरूरत होती है। इसके साथ ही आप गेदें, केलेन्डुला, गुलमेंहदी और गुलाब के खूबसूरत फूलों वाले पौधों को अपने कमरे की खिड़कियों या फिर छज्जों में लगा सकते हैैं। इन फूलों की सुगन्ध से पूरा घर महक उठेगा। छज्जों व छतों पर आप गुड़हल, गुलदाउदी, डहेलिया, रातरानी, इम्जोरा, कनेर, चमेली व बेला के फूलों की सुगन्ध फैला सकते हैं। मेहदीं, पामरोज, अल्पेनिया, लेमन ग्रास, नरगिस जैसे पौधे खुशबू के साथ-साथ किसी प्राकृतिक दृश्य का भरपूर आनन्द देंगे। बदले में ये आपसे बस थोड़ी सी ही मेहनत करवाते हैं।गमलों में बरसाती पानी ज्यादा इक_ïा हो, समय-समय पर खाद डालना बस इतनी सी ही मेहनत। गमलों में पौधे रोपने के लिये सही नाप का एक गमला, खाद और बालू का अनुपात 3-1 का होना चाहिए। यही अनुपात लॉन या बाहर लगाने वाले पौधों के लिए भी जरूरी है। उसके हिसाब से मिट्टïी, थोड़ा गोबर की खाद कुछ बालू और थोड़े से कंकड़-पत्थर की आवश्यकता होती है। गमले के निचले स्थान पर एक छोटा छेद आवश्यक होता है, जिससे कि गमलें में भरा अनावश्यक पानी बाहर निकल सके गमलें में सबसे पहले कुछ कंकड़ पत्थर भरें उसके बाद 3 भाग की गोबर की खाद और 1 भाग बालू मिलाकर मिट्टïी को उसमें पलट दें। बाद में उसमें अपना मनचाहा पौधा लगा कर किसी अच्छे स्थान पर रख दें। बरसात के मौसम में पौधों मेें केवल एक बार ही खाद डालने की जरूरत होती है। इस प्रक्रिया को करने के लिये आपको मात्र खुरपी की ही जरूरत होगी। जमीन पर पेड़-पौधे लगाने या देखभाल करने के लिये खुरपी के साथ फावड़ा, बाँस की खप्पच्चिाँ, सिकेटियर (कैंची), बडिंग नाइफ की जरूरत होती है।निजी बगीचों में इमली, जामुन, नींबू, सन्तरा, किन्नू, आँवला, बेल, अमरूद आदि बड़े पेड़ इस मौसम में लगाने लायक है। और अगर लॉन न हो तो, डायन्थस, मैट्रेकरिया, डाली हॉक, सनटेसियाँ ब़ऱबेना आदि सुन्दर पौधों से आप उसे सजा सकते हैैं। इनको लगाने में कोई विशेष समस्या नहीं होती। इनका बीज बोकर आसानी से उगाया जा सकता है।यदि किसी को पेड़-पौधों का शौक है लेकिन उसके पास कोई लॉन या छत नहीं है, और घर में भी कोई पौधा न लगा सकता हो तो इस काम को पास के मैदान या पार्क में भी किया जा सकता है। मेट्रोपोलिटन शहरों में यह प्रचलन जोर पकड़ रहा है। वहां कोई न कोई व्यक्ति किसी पौधे की जिम्मेदारी लेने लगा है। खास तौर पर बच्चे इस काम में बहुत रूचि लेते हैं। खाली जगहों पर हम फल वाले या छायादार, अशोक, आम, आवंला, पीपल, बरगद, पपीता, नीम, अमलतास, कदम्ब, कैसियामिया, हरसिंगार आदि के वृक्ष लगा सकते हैं, जो अधिक आक्सीजन तो छोड़ते ही हैं साथ में वातावरण को शुद्घ भी बनाये रखते हैं। इस तरह आप अपना शौक पूरा करने के साथ-साथ अपने शहर को भी हरा-भरा और ऑक्सीजन से भरपूर बना सकते हैैं।एक खास बात और, घर का वातावरण शुद्घ करने, ऑक्सीजन देने के अलावा भी कुछ विशेष पौधे आपको कई बीमारियों से निजात दिलाने में भी सहायक होते हैैं। जिन्हें आजकल जरूर बो देना चाहिए। सदाबहार का पौधा, कैंसर, डायबिटीज और हाई ब्लड-प्रेशर जैसी बीमारी में बड़ा कारगर सिद्घ होता है। खासी, जुकाम, बुखार में तो तुलसी चाहे वो रामा, श्यामा, लौंग, बबई या फ्रेंच प्रजाति की हो 'रामबाणÓ सिद्घ होती है। पामारोज पौधे की पत्तियों के साथ तुलसी की पत्तियों का मिश्रण बनाकर सेवन करने से शीघ्र लाभ होता है। किडनी की पथरी के रोग में तुलसी का काढ़ा मरीज को पिलाने से पथरी ठीक हो जाती है।गठिया रोग में अल्पेनिया का पौधा बहुत फायदेमन्द होता है। अल्पेनिया की जड़ों को तेल में गर्म करके मालिश करने से दर्द व रोग से राहत मिलती है। बज्रदन्ती का पौधा दांत के रोगों में लाभ देता हैै। दांत दर्द, मसूड़ों के दर्द, में इसके फल के सेवन से लाभ होता हैै, साथ ही दांत मजबूत होते हैं।लेवेन्डर के पौधे में 2 प्रतिशत तेल पाया जाता है। इस पौधे की सुगन्ध का प्रयोग कई प्रकार की मानसिक बीमारियों में किया जाता है।अब आप सोचिये कि ये पौधे कितने लाभ दायक हो सकते हैैं। मन की प्रसन्नता के साथ तन का स्वास्थ्य भी ये पौधे निस्वार्थ बाँट रहे हैं। बस जरूरत है आपके पहल करने की। मौसम सरल है तो फिर देर काहे की। पेड़ किस $कदर जरूरी हैं राहत के लिए। इंदौरी का एक शेर देखिए-बेसमर मानकर जो काट दिए थे वे दरख्त।याद अब आता है बेचारे हवा देते थे॥1 प्रमोद तिवारी