बुधवार, 13 जुलाई 2011

'तीसरा' प्यार का अभिशाप


प्यार की सबसे बड़ी मुसीबत है अधिकार. प्यार हुआ नहीं कि अधिकार ने हाथ बढ़ा दिया. एक लड़के को लड़की से प्यार हो जाता है. लड़की भी लड़के के प्यार में डूब जाती है. दोनों को जैसे ही अपने-अपने प्यार की आश्वस्ति होती है लड़का चाहता है कि अब लड़की सिर्फ उसे ही प्यार करे और लड़की भी कुछ अलग नहीं चाहती. वह भी यही चाहती है कि उसका प्रेमी अब किसी को नज़र उठाकर भी न देखे. दोनों जब तक ऐसा करते हैं उन्हें प्यार से कोई शिकायत नहीं रहती है. लेकिन जैसे ही प्यार में किसी तीसरे का प्रवेश होता है प्यार टूट जाता है. यह तीसरा क्या है? यह तीसरा ही है जो दोनों को यह एहसास कराता है कि तुम सिर्फ एक-दूसरे के लिये नहीं हो. कोई और भी है, तुम्हारे लिये. ये जो तीसरा है यही तो प्रवाह है प्यार का. फिर चौथा है... पांचवा है... छठा है... और यह सिलसिला अनंत है. इसमें अनंतो-अनंत प्रेम कथाओं का अनंत प्रवाह है.... ऐसे में प्यार सिर्फ दो शरीरों में बंधकर कैसे रह सकता है. इसलिये प्यार को जब भी सोचो शरीर को हटाकर सोचो. तुम्हें अनंतो-अनंत प्रेम कथाओं की अथाह प्रेमाभूति होगी. लेकिन मुसीबत यह है कि हमें बिना शरीर के प्रेम करना ही नहीं आता. इसीलिये 'तीसरा' प्यार का अभिशाप है.
प्रमोद तिवारी

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

दिल्ली, बाई-ट्रेन

मेरी दिल्ली जाने की तैयारी थी। न जाने कहाँ से मैने यह बात दुनिया लाल को बता दी। दुनिया लाल मेरे मित्र हैं। उन्होंने पूछा, 'काहे से जा रहे हो...?' मैंने बता दिया, बाई-ट्रेन। बस, फिर क्या था... पूरा इलाका जान गया कि मैं बाई-ट्रेन दिल्ली जा रहा हूँ।
मैं दूध लेने निकला था। चौराहे पर पन्ना लाल पनवाड़ी के पास रुक गया। उन्होंने एक जोड़ा पान मेरी ओर बढ़ा दिया। मैं पान दबाकर आगे बढऩे ही वाला था कि वह बोले, 'भैया! सुना है, आप बाई-ट्रेन दिल्ली जा रहे हो।' मैने कहा, 'हाँ ! लेकिन तुम्हें कैसे पता ...?'  वह बोले 'दुनिया लाल आये थे। कह रहे थे उन्होंने आपको बहुत समझाया... लेकिन आप माने ही नहीं।... क्या बात हो गई? जो आप बाई-ट्रेन दिल्ली जा रहे हो...?'  मैं इसके पहले भी दुनिया लाल की दोस्ती से कई बार मुसीबत में पड़ चुका था। इसलिए कुछ कहे बगैर मक्खन सिंह की दुकान की ओर बढ़ गया।
मक्खन सिंह मानो मेरा ही इंतजार कर रहे थे। देखते ही चहक उठे, 'सुना है आप कौनो मंजन वाली अंताक्षरी में भाग लेने दिल्ली जा रहे हो बाई-ट्रेन?'  मैने कहा 'ये सब तो ठीक है लेकिन तुम्हें कैसे पता...?'  मक्खन ने बताया 'दुनिया लाल आये थे कह रहे थे। जिन्दगी में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि आदमी जरा-जरा सी बात में बाई-ट्रेन दिल्ली जाने लगे।' मैं झुल्ला गया... अमां दिल्ली जाना है। बाई-ट्रेन न जाऊँ  तो क्या स्कूटर स्टार्ट कर दूं...? फिर लगा मक्खन से उलझना बेकार है। जो कहना है दुनिया लाल से कहूंगा। मैं दुनिया लाल के घर की ओर लपक लिया। रास्ते में चचा राम केवल अपना सेलून खोल चुके थे। मैने सोंचा कटिंग करा लूं। सो, कुर्सी पर बैठ गया। चचा ने खटखटाई और शुरू हो गए।...'अखबार की खबर थी कि अटल जी दिल्ली-लाहौर बस चलवा रहे हैं।...' हाँ, मैने सहमति में अपना सिर हिला दिया। चचा का हौसला बढ़ा। वह बोले, 'फिर आप क्यों बाई-ट्रेन दिल्ली जा रहे हो...? दुनिया लाल की आप न माने लेकिन अटल जी का इशारा तो समझें...।'  मैं समझ गया दुनिया लाल आज कल में ही चचा से सिर घुटवा कर गए हैं। ...गंजा कहीं का।
अब मेरा बर्दाश्त जवाब देने लगी थी। मैं सीधे दुनिया लाल के घर की ओर लपका।...अबे! तूने पूरे मोहल्ले में यह क्या रब-रब फैला रक्खी है। दुनिया लाल बोले, यार मैं तेरा दोस्त हूँ, कोई दुश्मन नहीं। तू देख, पिछले एक हफ्ते में कानपुर-दिल्ली लाइन में क्या कुछ नहीं हुआ। लूट हुई, जहर खुरानी हुई ,  पटरी टूटी, डिब्बे उतरे, लोग जख्मी हुए, जान पर बन आई, ऐसे में मेरा क्या फर्ज है। आज तुझे मेरी बात समझ में नहीं आ रही। कल जब तेरी औलादें बाई-ट्रेन दिल्ली जाएंगी तब समझ में आयेगी। मैं दुनिया लाल की बातों से 'कनफ्यूज' हो गया। अब सोंचता हूँ, बाई-बस ही निकल जाऊँ।
प्रमोद तिवारी

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"सहारा समय" साप्ताहिक में यह लेख पूर्व में प्रकाशित हो चुका है.

सोमवार, 11 जुलाई 2011

चौथा कोना

रखैल बना लिया प्रेस क्लब को

क जुलाई बीत गई और कानपुर प्रेस क्लब का चुनाव फिर नहीं हुआ. अब इस शहर के पत्रकारों को चाहे वह खूंटा गांड़ कर प्रेस क्लब में जमे हुए लोग हों या उन्हें उखाडऩे के लिये आसमान में तने हुए लोग हों, किसी तरह की सामाजिक, न्यायिक और मानवीय नैतिकता की बात करने का कोई अधिकार नहीं बनता है. मैं भी अब हड़ चुका हूं. कानपुर प्रेस क्लब के चुनाव के सम्बन्ध में अपने उदगार व्यक्त कर-करके नाक कटाकर भ्रष्टा खाने वालों की जमात में कन्नौज की इत्र फुरैहरी लेकर आखिर कोई कब तक घूमेगा.
     इस बार जिस तरह से चुनाव घोषित करने के बाद पलटी मारी गयी है यह इस बात का प्रमाण है कि कानपुर के इतिहास की सर्वाधिक भ्रष्ट और बेशर्म कार्यकारिणी यही है. जो लोग आज ये हरकत कर रहे हैं इन्हें शायद यह नहीं मालूम कि प्रेस क्लब का भी एक इतिहास लिखा जायेगा. और जब पचास वर्षों में पांच कार्यकारिणियों के बड़े-बड़े पत्रकारों की चर्चा होगी तो आने वाली पीढिय़ां सभी को आला दर्जे का चोर कहेंगी. हो सकता है कि मैं भी न बच पाऊं. मुझे भी इस संस्था से जुडऩे का इनाम मिले? पूरा शहर देख रहा है. पूरा शहर जान रहा है. एक तरह से हंस रहा है. बावजूद इसके खुद को प्रेस क्लब का ओहदेदार बताने में किसी को शर्म नहीं आ रही है. ये तो रही उनकी बात जो आसन जमाये बैठे हैं. अब उनको क्या कहें जो चुनाव-चुनाव का शोर खूब मचाते हैं लेकिन संवैधानिक चुनाव की प्रक्रिया और रास्तों की तरफ बढऩे में बार-बार मुंह के बल औंधे हो जाते हैं. ये वो लोग हैं जो शीलू को न्याय दिलाते हैं, कविता को न्याय दिलाते हैं, दिव्या के लिये अखबार को तलवार बना देते हैं,  लेकिन अपने और अपनी जमात के अधिकारों के बलात हरण पर मिमियाया करते हैं. मुझे मेरे ही एक अनुज ने बताया कि चुनाव तो हो जाते लेकिन पुराने दिग्गजों ने नये क्रान्तिकारियों को यह समझाया कि अगर इस तरह चुनाव हो गये तो बड़ी मुश्किल से प्रमोद तिवारी को प्रेस क्लब से बाहर कर पाये हैं वो फिर जिन्दा हो जायेंगे.  मुझे समझ में ही नहीं आ रहा है कि मैं मर कब गया था. मेरा एक शेर है-
'चलिये चलें वहां जहां अपना शुमार हो,
पत्थर के शहर में नहीं होगा निबाह और.'   
मुझे लगा कि जिस प्रेस क्लब को सजाने और पत्रकार पुरम जैसी आवासीय योजना को अमल में लाने के बदले मेरी पीठ ठोकी जानी चाहिये थी उस पर खंजर उतारे गये, ऐसे लोगों के साथ क्याजीना, क्यामरना? जब प्रजा आपको राजा मानती ही नहीं है तो राजा बना रहने का मतलब क्याहै? लेकिन जिन्हें षडय़ंत्र से ही सब कुछ हासिल होता है वो प्रजा चाहे या न चाहे, किसी भी कीमत पर सत्ताधीश बने ही रहना चाहते हैं चाहे इसके लिये उन्हें अपना शीश कुत्ते के सामने ही क्यों न झुकाना पड़े.
अब सवाल यह जरूर उठता है कि जब आपको कोई मतलब ही नहीं है तो आप परेशान क्यों हैं? परेशान इसलिये हूं कि दुनिया की हर अनीति पर अपनी राय रखने और टीका-टिप्पणी करने की रोटी खाता हूं. परेशान इसलिये हूं कि जब कोई पत्रकार मारा जाता है तो यह प्रेस क्लब बजाय उसके लिये लडऩे के उलटा उसे नकली, दोयम दर्जे का और छुटभैया कहकर भगा देता है. परेशान इसलिये हूं कि प्रेस मालिकों में आपसी प्रतिस्पर्धा इस कदर है कि पत्रकार एक तरह से न सोच सकते हैं न लिख सकते हैं. कम से कम प्रेस क्लब ऐसा मंच हो सकता है जहां से कर्मशील पत्रकार अपने अधिकार, सुरक्षा और न्याय की आवाज बिना किसी दबाव के उठा सकते हैं, जिसे फिलहाल शहर के चन्द पत्रकारों ने अपनी बपौती मान लिया है और उसका उपयोग वे अपनी रखैल की तरह करते हैं.1
  प्रमोद तिवारी

विकास के डंके में विध्वंस का डंक

कानपुर सिटी किसी भी तरह से शहर का विकास नहीं है इसे अगर कुछ कहा जा सकता है तो महज सुन्दरीकरण। डेवलेपमेन्ट और डेकोरेशन दो अलग-अलग चीजें हैं। डेवलेपमेन्ट आवश्यक आवश्यकता है और डेकोरेशन महज आवश्यकता है। सजावट चाहो तो करो और चाहो तो न करो। एक जीवन है और दूसरा शैली। शैली के  लिये जीवन तबाह नहीं किया जा सकता लेकिन न्यू कानपुर सिटी योजना में यही होने जा रहा है। जीवन तबाह होंगे और इसके बदले शहर की लाइफ स्टाइल बदली जायेगी। सीधे और साफ शब्दों में कहा जाये तो शहर बसने नहीं उजडऩे जा रहा है। मगर शहर की त्रासद स्थिति यह है कि इस योजना में निर्माण के उल्लास का डंका है। ज्यादातर लोग समझ नहीं पा रहे हैं  कि इस उल्लासी डंके में किस कदर ध्वंस का शोर निहित है। जहां न्यू कानपुर सिटी बसाया जाना है वहां से पहले से ही कानपुर शहर बसा हुआ है। होना यह चाहिये कि यह योजना बसे-बसाये इलाकों को विस्तार दे। जबकि जो होने जा रहा है उसकी नीव ही बसी-बसाई बस्तियों को उजाड़कर रखी जा रही है। प्रशासन ने मुनादी कर दी है कि एक पखवारे के भीतर धारा-6 के साथ-साथ धारा-17 के तहत्ï मैनावती मार्ग के ओर से लेकर छोर तक, आजाद नगर से बिठूर के बीच जीटीरोड और गंगा बैराज के दोआबे के बीच की जमीनें खाली कर दी जायें। केडीए ने इसे अधिग्रहित कर लिया है। इस इलाके में दर्जनभर गांव, दो दर्जन के आसपास वार्ड, दर्जन भर के आसपास फार्म हाउस, दसियों छोटे-बड़े स्कूल, बड़े-बड़े संतों के आश्रम और लगभग 50 हजार लोग, साथ ही 500 हेक्टेयर उपजाऊ खेत-खलिहान व बाग-बगीचे हैं। अब इस बसे-बसाये पुराने शहर को उजाड़ कर नया शहर बसाया जायेगा। कितना बेहूदा होगा यह नया शहर। जिनकी बाप-दादाओं की जमीनें हैं.  वह बर्रा बाइपास के  पार रहेंगे और जिनके पास स्वर्ग की तरइयां हैं वह गंगा तट का आनंद लेंगे. एक को खदेडऩे और दूसरे को घुसेडऩे का काम केडीए करेगी कानून के और डण्डे के दम पर। जिन्हें उजाड़ा जा रहा है केडीए उनके 200 गज का 30 हजार रुपया देगा और जिन्हें बसाया जायेगा, उनसे इतनी ही जमीन का 6 लाख से भी ज्यादा वसूलेगा। केडीए जो काम करेगा। ऐसा नहीं लगता कि भूमाफियाओं के लिये कुख्यात शहर के नामचीन बाहुबली भी केडीए के  आगे बौने हैं। आज कल के भूमाफिया और बिल्डर क्या करते हैं। कमजोरों पर जोर चलाकर औने-पौने में जमीन खरीदते हैं और फिर उसे आसमानी कीमत पर बचते हैं । कृष्ण करे तो लीला और कल्लू करे तो पाप। यही काम कोई गुण्डा करे तो उसकी सूची बनवाई जायेगी, अभी बनाई गई थी पिछले दिनों। यही काम सरकार के इशारे पर सरकार की सहमति पर केडीए करे तो विकास है। कहा जा रहा हे जनहित, नगरहित और  राष्ट्रहित जमीनों, बस्तियों, शहरों का अधिग्रहण किया जाता है। न्यू कानपुर सिटी इसी आवश्यक आवश्यकता का एक नया अध्याय है। धारा-6, धारा-16, धारा-17, धारा-.... सब बहाई जा रहीं हैं गंगा किनारे। इन धाराओं के बूते जमीनें खाली कराई जायेंगी क्योंकि यह धारायें राष्ट-हित के लिये ही बहती  हैं। अब हमें कोई यह समझाये कि एक घर उजाड़कर दूसरा घर बसाना किस तरह से राष्ट्रहित में हो सकता है। बसे को उजाड़कर अगर उसे वहीं शानदार तरीके से बसा दिया जाये तब भी इस योजना का कोई अर्थ निकलता है। अब मंगलकारी दिन आये हैं तो इन्हें फिर जंगल भेजने की तैयारी है। शहर की जमीनों पर सरकार की ही नीयत खराब है। योजनाओं व विकास के नाम पर कोई शातिर दिमाग इन्हें लगातार हजम कर रहा है और इस षडय़ंत्र में नेता शामिल हैं। वरना क्या कारण है कि 50 हजार के आसपास की जनता बलवाई हुई है और उनके नेतृत्व के लिये शहर में एक भी जनप्रतिनिधि तैयार नहीं है। अभी पिछले दिनों जो अतिक्रमण अभियान चला था और उसमें जो जमीने खाली कराई गईं
थी उनके बाबत विकास प्राधिकरण से पूछिये कि वह जमीनें कहां गईं तो पता चलेगा कि नीलाम कर दी गईं। खरीदी किसने तो पता चलेगा कि नेताजी या नेताजी के भतीजे जी या नेता जी के पिछलग्गू सेठ ने। केडीए के उपाध्यक्ष भले ही अपनी पीठ खुद अकेले में थपथपाते रहें लेकिन 30 हजार आदमियों को उजाड़ कर 300 लोगों के लिये 3 आदमियों को जमीनें बेंचना किसी भी तरह का विकास नहीं है। इससे तो यही लगता है कि केडीए कुछ लोगों के लिये एजेन्ट के  रूप में काम कर रहा है। कानपुर का तो भगवान ही मालिक है। हम सभासद चुनते हैं, वह ठेकेदार हो जाता है। हम विधायक चुनते हैं  तो वह बिल्डर हो जाता है। हम सांसद चुनते हैं, तो वह भूमाफिया हो जाता है। कम लोग जानते हैं  कि जिला प्रशासन ने शासन के पास भूमाफियाओं की जो पहली टापटेन सूची भेजी थी उसे उजागर करने की हिम्मत किसी की नहीं पड़ी। वरना जो मैं कह रहा हूं उसकी असलियत देखकर आंखें फटी की फटी रह जाती हैं। उसी सूची में सभासद, विधायक, सांसद, मंत्री, अफसर, गुण्डा, अखबार मालिक सब थे। भूमाफियाओं की सूची पर जो चिकचिक पिछले दो महीने चली उसकी मूल वजह यही थी। न्यू कानपुर सिटी योजना के अन्तर्गत क्षेत्रीय विधायक प्रेमलता कटियार, क्षेत्रीय पूर्व सांसद श्याम बिहारी मिश्र, मीडिया सम्राट दैनिक जागरण एजुकेशन डीलर्स डीपीएस, गौरव इण्टरनेशनल, जैन पब्लिक स्कूल आदि व धर्माधिकारी  आशाराम बापू, सुधांशु महाराज, मोरारी बापू तक की जमीनें हैं। लेकिन सुरसुरी कहीं नहीं है। इस चुप्पी में सिर्फ दो बातें हो सकती हैं या तो यह लोग आश्वस्त हैं कि इनका कुछ नहीं होगा या फिर इन्हें पता है कि इसमें कुछ हो नहीं सकता सिवाय ध्वंस के। इस योजना की नीयत पर शक तो इसलिये भी होता है कि साधारण बस्ती के लोग बलबलाए घूम रहे हैं और उधर आश्रमों, स्कूलों व फार्म हाउसों में निर्माण कार्य चल रहे हैं। इस योजना पर केडीए की नजर में अगर सब धान बाइस पसेरी हैं तो अधिग्रहण की कार्यवाही पहले बड़े वालों पर करें। गिरायें डीपीएस, फिर उसके बाद देखें मकड़ी खेड़ा की ओर लेकिन ऐसा होगा नहीं। केडीए झोपडिय़ां उजाड़ देगी फिर उसके बाद महलों व केडीए का अनन्त कालीन मुकदमा छिड़ जायेगा। इस योजना में अधिग्रहीत जमीन पर तीन लाख रुपये प्रति बीघे का मुआवजा तय किया गया है। इन जमीनों का मुआवजा नहीं कीमत दी जानी चाहिये क्योंकि यह कोई विकास-इकास नहीं है यह केडीए का विशुद्घ व्यापार है। जो सत्ता के कुछ लोगों के लिये खेला जा रहा है। जिस योजना में न रोटी हो, न कपड़ा हो, न मकान हो, न सुरक्षा हो, न स्वास्थ्य हो, न रोजगार हो तो उसके लिये जमीन पर मुआवजा क्यों? कीमत क्यों नहीं? मुआवजा हमेशा कीमत से कम होता है और इसलिये प्रयोग में लाया जाता है कि इससे बड़ा मानव हित जुड़ा होता है लेकिन यहां तो केडीए तीन लाख रुपये बीघे जमीन लेने के बाद उसे 30 लाख रुपये बीघे में बेचेंगी। ऐसी स्थिति में अधिग्रहीत जमीन के लिये कम से कम उनके निर्धारित सर्किल रेट पर जमीनों की कीमत दी जानी चाहिये। न्यू कानपुर सिटी की योजना है क्या इसके बारे में केडीए ने अभी तक कुछ भी सार्वजनिक नहीं किया है। अनुमान है कि एक बेहद सुन्दर बस्ती जिसमें वह सबकुछ होगा जो एक साथ एक जगह शहर में किसी दूसरे स्थान पर नहीं है।  सुन्दर बहुखण्डी इमारतें होंगी, सुन्दर-सुन्दर बड़े-बड़े पार्क होंगे। मनोरंजन के लिये सिनेमाघर, बाजार, अस्पताल, स्कूल, प्रेक्षागृह सब कुछ होगा। कितना अच्छा होगा जब यह सबकुछ होगा। कायदे की बात तो यह है कि न्यू कानपुर सिटी बसे, इसके लिये जमीनों का अधिग्रहण भी हो। चूंकि यहां बस्ती के बदले बस्ती ही बसनी है इसलिये बसे-बसाये घरों से छेड़छाड़ कतई न हो और यह किसी सूरत में उचित नहीं है। सरकार बजरिये केडीए कानून की बात कहती है जबकि उसके खजाने में करोड़ों-करोड़ रुपये इन्हीं घरों  की रजिस्ट्रियों का हजमा-हजम है। जैसा समझ में आ रहा है अगर वैसा हो गया तो क्या यह सरकारी धोखाधड़ी नहीं है। सरकार जब जानती थी कि उसके पास नये शहर की योजना है तो उसने महानगरीय सुविधाओं सहित जमीनों की खरीद-फरोख्त व निर्माण की सशुल्क अनुमति जैसी सरकारी मुहर क्यों ठोंकी और अगर यह फौरी योजना है तो जरा इस पर ठहर कर विचार हो जाना चाहिये। ऐसी भी क्या जल्दी है? फिर जब नया ही शहर बसाना है तो मैनावती मार्ग से लेकर बिठूर के बीच ही इतना तूफान क्यों और अगर यही जमीन बहुत प्यारी हो गई है तो बेचारे इन बसे-बसाये लोगों को क्यों उजाड़ रहे हो? पूरे शहर में कल्यानपुर से आगे चौबेपुर तक सड़क के दोनों ओर खाली जमीनें पड़ी हैं वहां बसा देते यह नया शहर न्यू कानपुर सिटी।
- प्रमोद तिवारी

चौथा कोना

'पत्रकार' मधुमक्खी का  छत्ता है, शहद की बोतल नहीं

कानपुर में डीआईजी प्रेम प्रकाश ने जब जागरण समूह के मालिकानों पर अमर्यादित हमला किया था उस व$क्त कई पत्रकार दोस्तों ने मुझसे पूछा था कि अगर आप उस समय मौके पर होते तो क्या करते...? वैसे तो यह कोई सवाल नहीं, फिर भी अगर मैं मौके पर होता तो मुझे डीआईजी को यह नहीं बताना पड़ता कि मैं कौन हूं..., पहली बात! वह मुझे उसी दिन से जानता जिस दिन से कानपुर के चार्ज पर होता. अगर पहले से परिचय होता तो पैदा हुई गलत$फहमी आसानी से दूर हो जाती. और अगर डीआईजी की मंशा ही हमलावर होती तो मैं दस मिनट के अन्दर पूरे शहर के मीडिया को मौके पर इक_ा (Ikaththa) कर लेता, फिर देखता... कौन दोषी पुलिस वालों को बचा पाता...? खुद मायावती भी चाहकर कुछ न कर पातीं. मनोज राजन ने वही किया जो मेरा जवाब था. वह भी चाहता तो सबसे पहले अपने चैनल के आकाओं को फोन करता. अपनी और शलभ की इज्जत और जान की $िफक्र करता. लेकिन नहीं, उसने वही किया जो एक जुझारू पत्रकार को करना चाहिये. उसने अपनी 'ताकत' को आवाज दी. पत्रकार की ताकत उसके अफसर नहीं उसकी कलम और कैमरा होता है.
अपने पत्रकार दोस्तों को आवाज दी. फलस्वरूप पलक झपकते राजधानी को समूची पत्रकार बिरादरी सड़क पर उतर आई. इसके बाद क्या हुआ...सबको पता है. 'वर्दीधारी गुंडे' निलम्बित हुए. सरकार ने पहली बार सार्वजनिक रूप से पत्रकारों के उत्पीडऩ को बर्दाश्त न करने का अल्टीमेटम दिया. $जरा सोचिए अगर पत्रकारों ने सड़क छाप दबाव न बनाया होता, सारे चैनल तत्काल चीखने न लगते तो क्या होता...?
ये दोनों शलभ और मनोज उकड़ू बने हजरतगंज थाने में रात काटते और सुबह जमानत के लिये घर परिवार वाले दौड़ते-भागते...परेशान होते. यह तब होता जब कोई विशेष साजिश न होती. मुझे तो शक है कि शलभ और मनोज उसी दवा माफिया के निशाने पर आ चुके हैं जिन्होंने सिल-सिलेवार तीन डाक्टरों का आसानी से कत्ल कर दिया. तीनों कत्लों में अफसरशाही और सत्ताशाही की संलिप्तता किसी से नहीं छुपी है. तीन शूटर अंदर है तीन डाक्टर मारे जा चुके हैं और दो मंत्रियों की कुर्सी जा चुकी है. यानी नौकरशाही, सत्ता और अपराधी तीनों एक साथ एक ही नाव पर. और नाव भी वो जो भ्रष्टाचार की नदी में हिचकोले मार रही हो. इन माफियाओं को डर है कि राजधानी की इस 'जय-वीरू' की जोड़ी के पास दवा के घपले से लेकर डा. सचान की हत्या तक की छानबीन में ऐसे-ऐसे तथ्य, साक्ष्य और सबूत मौजूद हो सकते हैं जो इस खूनी श्रंखला की आखिरी कड़ी साबित हो. और यह आखिरी कड़ी उस चेहरे को बेनकाब कर दे जो जनता के सामने अफसर, मंत्री या परम समाजसेवी के रूप में आदरणीय है...?
राजधानी लखनऊ में अपराधियों, सत्ताधारियों और नौकरशाही में कितना मजबूत गठजोड़ है इसका पर्दाफाश हो चुका है. एक के बाद एक तीन डाक्टर मारे गये, कोई शक. तीनों हत्याओं की घटनाओं को लीपापोता गया, कोई शक. तीनों शूटर भाड़े और विश्वास पर बुलाये गये, कोई शक. नहीं न, फिर हम यह शक क्यों न करें कि कल राजधानी में आईबीएन-७ के शलभमणि त्रिपाठी और मनोज राजन त्रिपाठी की हत्या का कुचक्र भी रचा गया हो सकता है.
अंत में अपनी ही बात दोहरा रहा हूं. मीडिया मालिक शहद की बोतल होते है लेकिन मीडिया मधुमक्खियों का छत्ता होता है माई डियर सिस्टर.1
प्रमोद तिवारी

फेसबुकनामा

कम हो गये चार आने

चवन्नी की विदाई का वक्त है पूरे मुल्क के साथ कानपुर का दिल भी बुझा-बुझा सा है. क्योंकि ये वो अमीर शहर है जिसने हमेशा चवन्नी को भी सर आंखों पर उठाया है. दस बीस बरस में चवन्नी भी उसके ज़हन से गैर हाजिर हो जाएगी. वो चवन्नी जो कभी कानपुर की ज़बान और बयान के आगे आगे चलती थी.
अगर किन्ही हजऱत में मर्दानगी कम है तो उनके लिए कहा जाता था कि 'अमां उनकी चवन्नी कम है'. अगर कोई मोहतरम अक्ल से पैदल हैं तो उनके लिए गढ़ा गया जुमला था कि 'अमां फलां साहब चवन्नी गिराए घूमते हैं.' और अगर कोई कंजूस है तो उसके लिए- 'अमां छोडि़ए वो तो रूपए में पांच चवन्नी बनाते हैं.' हालांकि के बावजूद चवन्नी के फेयरवेल के दिन जो मुहावरा मैने सबसे ज्यादा सुना वो'चवन्नीछाप' का था, जिसे सुनकर शायद चवन्नी भी टूटे हुए दिल वाली हो जाती होगी.
जहां तक मेरी जानकारी है ये मुहावरा 80 के दशक में कानपुर में उपजा और बाद में पूरे हिन्दोस्तान में बीमारी की तरह फैला. होता यूं था कि कानपुर से एक दौर में नौटंकी की पार्टियां पूरे देश में जाती थीं. इनमें उत्तेजक प्रसंग आने पर दर्शक मंच की तरफ चवन्नियां उछालते थे. बाद में ये चलन सिनेमा हाल तक जा पहुंचा. इन्ही लोगों को चवन्नी छाप कहा जाता था. मुहावरा पूरी तरह इंसानी मिजाज़ बताने के लिए था लेकिन बाद में चवन्नी का मिजाज़ भी इसी से तय होने लगा. दुनिया ये भूल गई कि इसी चवन्नी से बचपन अपने बेशुमार ख्वाब खरीद लेता था.
बहुत पुरानी बात नहीं है जब पतंगों की कीमत चवन्नी हुआ करती थी. दो चवन्नी मिलाकर मै और मेरा भाई सुपर कमांडो ध्रुव नागराज या डोगा की एक कामिक्स किराए पर लाते थे,जिसे पढ़ते पढ़ते ही मै निराला, मीर और तहलका तक पहुंचा. 25 पैसे में इनाम खोलने का एक कूपन मिलता था जिसमें कभी कभी घड़ी और मिथुन या धरमिंदर का बड़ा पोस्टर तक हाथ लग जाता था. शक्तिमान का स्टिकर भी चवन्नी में ही था. मांएं अपने बच्चों को नजऱ और हाय से बचाने के लिए चवन्नी की शरण में ही जाती थी. फिर बच्चे अपनी करधनी और गले से चवन्नी लटकाए घूमते थे. यही नहीं आंख दुखने पर मां जो देसी ट्यूब (जिसे आम जुबान में गल्ला कहते हैं,) बच्चे के लगाती थी वो भी चवन्नी का मिलता था. इसके साथ ही संतरे की वो सदाबहार टाफियां भी याद आती हैं जो मेरे पूरे बचपन भर 'चवन्नी की दो वाली' संज्ञा से ही नवाज़ी जाती रहीं. (अंग्रेजी में मजबूत कुछ बच्चे इन्हे आरेंज वाली टाफी भी कहते थे). इसी तरह कुछ टाफियों का नाम 'चवन्नी वाली' भी था. संतरे की फांक जैसा लैमनजूस या लैमनचूस (पता नहीं इसका सही नाम क्या होता है,) भी चवन्नी का ही मिल जाता था.
बचपने का रिजर्व बैंक यानि गुल्लक को तोड़कर अपनी अमीरी दिखाने के लिए जब सिक्कों की कुतुब मीनार बनाई जाती थी तो उसकी सबसे ऊपरी मंजिल भी चवन्नी से ही बनती थी. ये भी कहा जाता था कि चवन्नी को अगर कड़वे तेल में डुबो कर रेलगाड़ी के नीचे रख दो तो वो चुम्बक बन जाती है, कई दफा ये प्रयोग मैने भी सेन्ट्रल स्टेशन और गोविन्दपुरी की पटरियों पर आजमाया लेकिन सफल नहीं रहा. चवन्नी को उंगली की चोट से देर तक घुमाने की प्रतियोगिताएं भी खूब होती थी जिसमें इनाम वही चवन्नी होती थी. स्कूल के बाहर काला वाला तेज़ाब मिला हुआ चूरन भी चवन्नी में एक पुडिय़ा मिल जाता था जो कि जबान पर छाला निकालने के लिए काफी होता था. इसी तरह आइसक्रीम के ठेलों पर डिस्को नाम की एक आकर्षक चीज (पन्नी में भरा ठंडा रंगीन मीठा पेय) का दाम भी 25 पैसे था.
लेकिन फिर एक वक्त और भी आया जब इसी चवन्नी के दिन ऐसे बदले कि सफर पर जाते वक्त ढूढ ढूढ के चवन्नियां रखी जाने लगी. भिखारियों को देने के लिए. और भिखारी भी इन्हे, देने वालों को चवन्नीछाप कहके वापस कर देने लगे. बच्चों ने चवन्नी लेकर दुकान जाना बंद कर दिया और अगर कोई बच्चा पहुंच गया भी तो दुकानदार ने बनियागिरी दिखाते हुए उसका दिल तोड़कर उसे ये कहते हुए लौटा दिया कि चवन्नी नही चलेगी. जबकि मुझे घर के पास वाला बनारसी आज भी याद है जिसने मुझे 25 पैसे की इमली की गोली एक बिस्सी यानी 20 पैसे में इस शर्त के साथ दी थी कि मै पंजी या 5 पैसे उसे बाद में दे दूंगा. हालांकि मै उन्हे कभी दे नहीं पाया और पता नहीं बनारसी दादा कहां चले गए. चवन्नी के बंद होने पर व्यवहारिक रूप से कोई क्षोभ जरूरी नहीं है. लेकिन फिर भी चूंकि ये घटना अतीत के खूबसूरत पन्ने दोबारा पलट गई है इसलिए माहौल का जज्बाती होना लाजिमी है. पहले बनारसी दादा गए, फिर बचपन गया और आज बचपन के खजाने का सबसे बड़ा सिक्का यानि चवन्नी भी रूखसत हो गई.1
अरविन्द त्रिपाठी

'डकैत' का घर चोरी

है न मजेदार , राजदार , खुलासे वाली चटपटी खबर! तो सुनिए और पढि़ए.
         अपने शहर में एक आला शिक्षाधिकारी हैं. काफी समय से तैनात हैं. एक लम्बे समय तक  देश के बड़े हिंदी समाचार-पत्रों में से एक और स्व-घोषित एकमात्र बड़े होने का दावा करने वाले दैनिक समाचार पत्र के शिक्षा संवाददाता से उनकी ठनी रही . शिक्षा संवाददाता की क्या मजाल की वो बिना अपने मालिकानों की इच्छा के ठान लेते. अब आप सभी समझ ही गए होंगे की मालिकान के कामों को पूरा कराना ही उनका वास्तविक इरादा था. इस इरादे को पूरा करने में ये 'बिचारे'  अधिकारी महोदय  को 'डकैत' तक साबित कर बैठे. इसके बाद इन्हें, इनके बे-असरदार सरदार साथी और मालिकानों के एक शिक्षण संस्थान के प्रधानाचार्य को कथित सर्वश्रेष्ठ शिक्षक होने के कारण कम योग्यता के बावजूद राष्ट्रपति पुरस्कार बाँट दिए गए.  उक्त अधिकारी से उस समय जब  इस बारे में पूछा गया था तो उन्होंने इन अयोग्यों को इस पुरस्कार मिलने से रोक पाने में अपनी अक्षमता जाहिर की. जबकि इन अधिकारी महोदय की सक्षमता इतने से ही जग-जाहिर है की तमाम छपासों के बावजूद ये बड़ा अखबार और उनका इतना बड़ा पत्रकार इनका बात बांका नहीं कर पाया था.
    अब आता हूँ , अपनी खबर पर. इन्हीं डकैत अधिकारी महोदय ने शहर के स्कूल कालेजों को अपनी ताकत और मीडिया से बने नए गठजोड़ के साथ आराम से निर्बाध लूटा. बड़े अखबार के काम पूरे हो जाने के बाद अब किसी प्रकार का डर भी नहीं था.  होना भी नहीं चाहिए. पूर्वांचल के एक बाहुबली सत्ताधारी के संरक्षण के बाद तो और नहीं होना चाहिए. पर इनके साथ एक ऐसी घटना घटी जिसे उगलते-निगलते नहीं बन रहा है. हुआ दरअसल ये - इन्होने एक मकान बनवाया. आप कहेंगे , सभी बनवाते हैं, इसमें नया क्या है ?  मकान भव्य था, होना भी चाहिए, आला अधिकारी है. माहवारी और सत्रवारी  भी उनकी भव्य है. रही बात 'था' की तो अब उनका नहीं रहा. उन्होंने आय से अधिक संपत्ति का मामला न बने तो अपने मुंहलगे अधीनस्थ अध्यापक के सेवानिवृत्त प्रिंसिपल पिता के नाम से मकान बनवाया था. सोचा था , बनने के बाद कोई दिक्कत नहीं आएगी.और इस प्रकार काली कमाई को सफ़ेद किया जा सकेगा.
     पर हुआ ठीक विपरीत, अब वो मास्टरजी अपने परिवार के साथ उस मकान में रहने लगे हैं. साहब, परेशानहाल हैं. रसूख और धमक का प्रयोग कर अगर मकान खाली करवाते हैं तो    इस बार जरूर 'डकैत' कहलायेंगे. बाकी अखबार वालों ने भी इनसे धरा रखी है. मौके की तलाश में हैं. उन्होंने मास्टरजी को डराया, धमकाया पर अभी तक बात नहीं बनी है. 'बन्दा' मकान के अन्दर है और 'हनुमान चालीसा' जोर-जोर से पढ़ रहा है. कहता है की सरकार वैसे भी पंडितों की है. पूर्व मंत्री जी के घर का एक बार चक्कर जरूर लगा लेता है.1
हेलो संवाददाता

टाट मिल चौराहा: यातायात विस्फोट के मुहाने पर

शहर का टाटमिल चौराहा व्यस्ततम चौराहों में से एक है. इस चौराहे से शहर  आने और बाहर जाने वाले लोगों को प्रतिदिन जूझना पड़ता है. रेलवे और बस अड्डे जाने के लिये यात्रियों की आवाजाही इसी चौराहे से होती है. कानपुर दक्षिण के बाशिन्दे भी रोजमर्रा के कामों के साथ रोजी-रोजगार के लिये इसी चौराहे से गुजरते हैं. दूसरी तरफ यातायात के नियमों और आवश्यकता को दरकिनार कर इस चौराहे के एक कोने पर शहर का सबसे बड़ा बिजनेस काम्पलेक्स लगभग बन कर तैयार हो चुका है. माना जाता है कि इसके तैयार होने के बाद इस चौराहे पर यातायात का दबाव कई गुना बढ़ जायेगा. जबकि जनसुविधाओं में कहीं से कोई बढ़ोत्तरी नहीं हो सकी है.
इस विशाल बिजनेस मार्केट में पाया गया है कि पार्किंग की कोई व्यवस्था नहीं की गई है. जो पार्किंग स्थल नक्शे में दिखाया गया था वो बेसमेंट में है पर इस बेसमेंट में जाने का कोई रास्ता नहीं है. विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि इस बेसमेंट को भी मालिकान गोदाम बनाने के इरादे रखते हैं. यातायात एसपी श्री आर.पी. गौतम आने वाले समय में होने वाले यातायात के इस जन-दबाव से दबाव में हैं. वे कहते हैं कि पूरे काम्पलेक्स के निर्माण के समय किसी प्रकार से यातायात के नियमों का कोई अनुपालन नहीं किया गया. हद तो तब हो गई जब फुटपाथ भी शेष नहीं रह गया है.1
हेलो संवाददाता

बन्धु अभी भी बंधुआ है


देश की अर्थव्यवस्था में चाहे कितना उछाल आया है, शैक्षिक दर बढ़ी है, पर बंधुआ मजदूर की किस्मत का ताला अभी नहीं खुल सका है. पेट पालने के लिए एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करना आज भी उनकी नियति बना हुआ है. ठेकेदार और नियोक्ता दोनों उनका शोषण कर रहे हैं और उनके श्रम की कीमत पर डाका डाला जा रहा है.
बंधुआ मजदूर के पास खेती योग्य जमीन नहीं है. रोजी रोजगार के कोई साधन सरकार की तरफ से नहीं मिले हैं. ईंट भट्टों पर आसानी से काम मिल जाता है.और भट्टा मालिकों और ठेकेदारों द्वारा इनका जमकर शोषण किया जा रहा है. बिहार व झारखण्ड के लोकल ठेकेदार बड़ी संख्या में मजदूरों को यूपी में ला रहे हैं. ये ठेकेदार उन्हें भट्टा मालिकों को देते है. इनको पैसा भी सीधे मालिको से न मिलकर ठेकेदारों द्वारा ही दिया जाता है. पहले से मजदूरी निश्चित नहीं की जाती है. जब भट्टों का काम बंद होता है, उस समय मालिक जो चाहे उस रेट के हिसाब से मजदूरी देता है. श्रम मूल्य भी ठेकेदार को दिया जाता है और फिर ठेकेदार मनमर्जी से मजदूरों को पैसा देता है.
बिहार, झारखण्ड व छत्तीसगढ़ राज्यों में तो ये स्थिति है कि इनको गाँव के अन्दर भी नहीं रहने दिया जाता..गाँव के बाहर घास फूस की झोपड़ी बना कर ये लोग गुजारा करते हैं. इनके बच्चों के साथ वहां आज भी छुआछूत का वर्ताव है. इनके बच्चों को स्कूल में सभी आम बच्चों के साथ पढऩे को नहीं बैठाया जाता हैं. मजदूरी इतनी कम है कि इसमें गुजारा करना नामुमकिन है. बिहार आदि राज्यों मे एक दिन की मजदूरी 20-25 रु. और दो से तीन किलो चावल है. यूपी में कच्ची ईंट ढुलाई का 1000 प्रति ईंट पर 90-110 रु. मिलता है, जबकि पूरे परिवार के साथ खच्चर या घोड़ा जो भी इनके पास हो, उसकी मजदूरी भी शामिल होती है. छत्तीसगढ़ राज्य के मजदूर ज्यादातर निकासी के काम के लिए जाने जाते हैं. इनका काम तो और भी कठिन है.
वे गर्म ईंट को हाथ से निकाल कर चट्टे तक पहुचाते हैं. इनको मिलते हैं प्रति 4000 ईंट के 200 से 250 रु.. मास्क उपलब्ध नहीं कराये जाने से जले कोयले की राख सांस द्वारा इनके शरीर के अन्दर जाती है और उससे ये दमा अस्थमा जैसी गंभीर बीमारियों के शिकार हो जाते हैं.
जरूरी है श्रम सुधार
लखनऊ में विगत दिनों आयोजित कार्यक्रम में बाल एवं बंधुआ मजदूरों के उन्नयन में लगीं विजया रामचंद्रन ने कहा कि संगठित क्षेत्र की तरह इन मजदूरों को भी विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ मिलनी चाहिए. जैसे साथ मे आये बच्चों हेतु आंगनवाडी/ बालबाड़ी, प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएँ, जिसमें गर्भवती महिलाओं हेतु मातृत्व लाभ, कार्यस्थल पर शौचालय-स्नानघर के साथ आवास, मालिक के योगदान से भागीदारी प्राविडेंट फंड व पेंशन की सुविधाएँ आदि उपलब्ध करायी जानी चाहिए. . चूँकि इस कार्य में मालिक मजदूर के रिश्ते में निरंतरता नहीं होती, अत: मजदूरों को जहा भी वह जाएँ, उपर्युक्त सुविधाओं हेतु मान्यता मिलनी चाहिए.. हमें ऐसी योजना अपनानी पड़ेगी, ताकि प्रत्येक मालिक का हरेक मजदूर के खाते में निश्चित कल्याणकारी भुगतान जमा होता रहे. मजदूर जहा भी जाएँ उसको मिलने वाली सुविधाएँ बरकरार रहनी चाहिए.
इसके अलावा राज्य को ईंट उधोग पर एक कर लगाकर एक निधि का निर्माण करना चाहिए, जिससे मजदूर को कर्ज मिल सके तथा आपातकालीन परिस्थितियों में सामाजिक सुरक्षा मिल
.यदि श्रमिकों को अंतर्राज्य प्रवासी मजदूर अधिनियम (1068-1979) के अनुसार मजदूरी नहीं मिलती तो सरकार को मालिक/प्रधान - नियोक्ता के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए.. सेमिनार में इंटरनेशनल लेबर आर्गनाइजेशन जेनेवा के रिप्रजेंटेटिव्स ने भी अपने विचार साझा किये.1
शालिनी द्विवेदी