सोमवार, 11 जुलाई 2011

चौथा कोना

'पत्रकार' मधुमक्खी का  छत्ता है, शहद की बोतल नहीं

कानपुर में डीआईजी प्रेम प्रकाश ने जब जागरण समूह के मालिकानों पर अमर्यादित हमला किया था उस व$क्त कई पत्रकार दोस्तों ने मुझसे पूछा था कि अगर आप उस समय मौके पर होते तो क्या करते...? वैसे तो यह कोई सवाल नहीं, फिर भी अगर मैं मौके पर होता तो मुझे डीआईजी को यह नहीं बताना पड़ता कि मैं कौन हूं..., पहली बात! वह मुझे उसी दिन से जानता जिस दिन से कानपुर के चार्ज पर होता. अगर पहले से परिचय होता तो पैदा हुई गलत$फहमी आसानी से दूर हो जाती. और अगर डीआईजी की मंशा ही हमलावर होती तो मैं दस मिनट के अन्दर पूरे शहर के मीडिया को मौके पर इक_ा (Ikaththa) कर लेता, फिर देखता... कौन दोषी पुलिस वालों को बचा पाता...? खुद मायावती भी चाहकर कुछ न कर पातीं. मनोज राजन ने वही किया जो मेरा जवाब था. वह भी चाहता तो सबसे पहले अपने चैनल के आकाओं को फोन करता. अपनी और शलभ की इज्जत और जान की $िफक्र करता. लेकिन नहीं, उसने वही किया जो एक जुझारू पत्रकार को करना चाहिये. उसने अपनी 'ताकत' को आवाज दी. पत्रकार की ताकत उसके अफसर नहीं उसकी कलम और कैमरा होता है.
अपने पत्रकार दोस्तों को आवाज दी. फलस्वरूप पलक झपकते राजधानी को समूची पत्रकार बिरादरी सड़क पर उतर आई. इसके बाद क्या हुआ...सबको पता है. 'वर्दीधारी गुंडे' निलम्बित हुए. सरकार ने पहली बार सार्वजनिक रूप से पत्रकारों के उत्पीडऩ को बर्दाश्त न करने का अल्टीमेटम दिया. $जरा सोचिए अगर पत्रकारों ने सड़क छाप दबाव न बनाया होता, सारे चैनल तत्काल चीखने न लगते तो क्या होता...?
ये दोनों शलभ और मनोज उकड़ू बने हजरतगंज थाने में रात काटते और सुबह जमानत के लिये घर परिवार वाले दौड़ते-भागते...परेशान होते. यह तब होता जब कोई विशेष साजिश न होती. मुझे तो शक है कि शलभ और मनोज उसी दवा माफिया के निशाने पर आ चुके हैं जिन्होंने सिल-सिलेवार तीन डाक्टरों का आसानी से कत्ल कर दिया. तीनों कत्लों में अफसरशाही और सत्ताशाही की संलिप्तता किसी से नहीं छुपी है. तीन शूटर अंदर है तीन डाक्टर मारे जा चुके हैं और दो मंत्रियों की कुर्सी जा चुकी है. यानी नौकरशाही, सत्ता और अपराधी तीनों एक साथ एक ही नाव पर. और नाव भी वो जो भ्रष्टाचार की नदी में हिचकोले मार रही हो. इन माफियाओं को डर है कि राजधानी की इस 'जय-वीरू' की जोड़ी के पास दवा के घपले से लेकर डा. सचान की हत्या तक की छानबीन में ऐसे-ऐसे तथ्य, साक्ष्य और सबूत मौजूद हो सकते हैं जो इस खूनी श्रंखला की आखिरी कड़ी साबित हो. और यह आखिरी कड़ी उस चेहरे को बेनकाब कर दे जो जनता के सामने अफसर, मंत्री या परम समाजसेवी के रूप में आदरणीय है...?
राजधानी लखनऊ में अपराधियों, सत्ताधारियों और नौकरशाही में कितना मजबूत गठजोड़ है इसका पर्दाफाश हो चुका है. एक के बाद एक तीन डाक्टर मारे गये, कोई शक. तीनों हत्याओं की घटनाओं को लीपापोता गया, कोई शक. तीनों शूटर भाड़े और विश्वास पर बुलाये गये, कोई शक. नहीं न, फिर हम यह शक क्यों न करें कि कल राजधानी में आईबीएन-७ के शलभमणि त्रिपाठी और मनोज राजन त्रिपाठी की हत्या का कुचक्र भी रचा गया हो सकता है.
अंत में अपनी ही बात दोहरा रहा हूं. मीडिया मालिक शहद की बोतल होते है लेकिन मीडिया मधुमक्खियों का छत्ता होता है माई डियर सिस्टर.1
प्रमोद तिवारी

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