बुधवार, 29 दिसंबर 2010

खरीबात

वरना कोई और कुमार आयेगा आइना लेकर

प्रमोद तिवारी

डा. कुमार विश्वास हिन्दी कविता के मंच की ताजा सनसनी हैं. विश्वास हालांकि कविता के मंचों का कोई नया नाम नहीं है? लगभग १५ वर्षों से तो खुद मैं कुमार को मंचों पर देख रहा हूं लेकिन इधर के दो तीन वर्षों में उसकी आभा बदली हुई है. उसके नाम से युवाओं में कविता के पांडालों के प्रति रुचि पैदा हुई है. उसकी चार लाइनों ने बीते दिनों के चार लाइना वाले सुरेन्द्र शर्मा के कवि सम्मेलनीय 'क्रेजÓ की याद ताजा कर दी है. कुमार की मजमेबाजी से याद तो नीरज के उन दिनों की भी ताजा हो उठती है, जब मेरे जैसे युवा कवि सम्मेलनों में 'कारवां-कारवांÓ का शोर मचाने खुद को कविता सुनने का पारखी घोषित करते थे. 'कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है, मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है, मैं तुझसे दूर कैसी हूं, तू मुझसे दूर कैसी है, ये मेरा दिल समझता है या तेरा दिल समझता है.Ó निसंदेह युवा मन को मथ देने वाली ये पंक्तियां कुमार विश्वास की काव्य-यात्रा में 'वरदानÓ सरीखी प्रकट हुई है. युवाओं के मोबाइल में, पेशेवर जवानों के लैपटॉप में, प्रेमी युगलों के सीडी कलेक्शन में इन चार पंक्तियों की 'नम्बर वनÓ मौजूदगी रहती है. गत् पांच दशकों में नीरज उसके बाद काका हाथरसी, हुल्लड़ मुरादावादी फिर सुरेन्द्र शर्मा और काफी हद तक अशोक चक्रधर जी ही ऐसे कवि नाम प्रचार और प्रशंसा पाये हैं जिनके नाम से श्रोताओं का हुजूम कविता सुनने उमड़ता रहा है. इधर इन नामों का भी चुम्बकीय घनत्व कम होता जा रहा है. ऐसे में नीरज के बाद कुमार विश्वास मंच पर ऐसे पहले गीतकार के रूप में उभरे हैं जिनको सुनने आज की युवा पीढ़ी उमड़ रही है. वह पीढ़ी जिसे कविता और कवि सम्मेललनों से लगभग दूर मान लिया गया था. पिछले दिनों कानपुर महोत्सव में युवाओं की अपार भीड़ और गजब उत्साह को देख कुमार ने मंच पर ही मुझसे कहा था-''भाई साहब! और कुछ मैं कर पाऊं न कर पाऊं लेकिन ये जो युवा आज इस पांडाल में हंै ये आने वाले ७० वर्षों तक कविता के श्रोता बने रहेंग..ÓÓ कुमार की इस बात में दम है. क्योंकि केवल कुमार ही नहीं कुमार के बहाने कवि सम्मेलन सुनने आये युवाओं ने मनवीर, राजेन्द्र पण्डित, शबीना अदीब को भी सुना... और जब ये नवजवान श्रोता यह कहते हुए घर को रवाना हुए कि यार हमें पता ही नहीं था कि कवि सम्मेलन में इतना आनंद आता है..? कुमार के अलावा पंडित भी जोरदार था, और वह मथुरावाला नाटा.. क्या चटक थी उसमें. और वो शबीना यार क्या कमाल सुनाया. इसतरह भला केवल कुमार विश्वास, आयोजक या प्रायोजक का ही नहीं हुआ, कविता का भी हुआ. कुमार के साथ-साथ युवा मन ऊपर बताये नामों के रस से भी वाकिफ हुए और सुनने वालों को खुद लगा कि कविता गीत या मुक्तक केवल कुमार विश्वास की है. और भी हैं.. उससे भी अच्छे.. बेहतर, जो कि एक सच्चाई है. जबसे कुमार को कानपुर महोत्सव में आमंत्रित किया है और उसने डेढ घंटे लगातार पांडाल को जो गुंजाए रखा, उसके बाद से आज दिन तक वह कनपुरिया कवि संसार में बहस का विषय बना हुआ है. मेरे एक कवि अग्रज कह रहे थे कि कुमार विश्वास ने लफ्फाजी बहुत की.. कविता कहां है..? हालांकि ये कवि खुद अभी स्पष्ट अभिव्यक्ति के मोहताज हैं. अपने गीतों, गजलों और मुक्तिकों में ऐसे-ऐसे बिम्ब बना देते हैं कि सर धुनों.. लेकिन भइया की आपत्ति निर्मूल नहीं थी. फिर भी मैंने उन्हें जवाब दिया.... (केवल प्रश्नकर्ता अग्रज ही नहीं जितने भी गीतशिल्पी और काव्य प्रेमी हैं, समझ लें कि कानपुर में कुमार का क्या मलतब था..?), सबसे पहले तो कानपुर महोत्सव कोई 'ज्ञानपीठÓ का निर्णय करने वाला मंच नहीं था. दूसरी बात कुमार की डेढ़ घंटे की लफ्फाजी में १५ से २० मुक्तक, दो बेहतरीन $ग$जलें और एक गीत था. शहर में पिछले १५ वर्षों से कवि सम्मेलन के नाम पर जो बड़े-बड़े तमाशे हुए क्या उनमें इतनी भी कविता थी, जितनी कुमार की लफ्फाजी में चमकी. विशुद्घ लफ्फाजों को अगर कोई कवि समझाना चाहे तो किस भाषा में समझाए. मां-बहन तो मंच पर हो नहीं सकती. कमरों में कुड़कड़ाने से मक्कारों, बेईमानों और बेशर्म अकवियों पर कोई फर्क नहीं पड़ता. मैंने तो कुमार को गीत के प_े के रूप में चुना है. मुझे उनसे यह उम्मीद तो नहीं है कि वह तुलसीदास या कालिदास बन जाएंग. या उस दिशा में आग. बढ़ रहे हैं. लेकिन यह उम्मीद जरूर है कि उसकी कवितात्मक लफ्फाजी चोरी के जुमलों, चुटकुलों और द्विअर्थी संवादों के सहारे मंच पर राज करने वालों को अगल-बगल झांकने के लिए मजबूर करेगी. मुझे लगता है कि मैं कुमार विश्वास से कुछ और भी कहूं. लेकिन नहीं, मुझे लगता है कि अभी वह जो कर रहा है, समय की मांग है. यात्रा आगे बढ़ेगी तो खुद लफ्फाजी चली जाएगी. वरना कोई और कुमार आयेगा आइना लेकर...।1

खबर परिणाम
नींद से जागा केडीए, बर्रा-२ योजना की पैरवी होगी चुस्त
बर्रा दो हाइड्रिल कालोनी योजना में हुई धाँधली का मुद्दा एक गर्माने के बाद अब के.डी.ए. बचाव की मुद्रा में आ कर इस पूरे मामले में अपना पल्ला झाडऩे में लगा है। इस पूरे मामले में खुद को पाक-साफ बता रहे के.डी.ए. के छोटे से ले बड़े अधिकारी हँलाकि अभी भी इस पूरे मामले में कुछ भी खुल कर बोलने के लिये राजी नहीें हैं लेकिन इस मामले की खुसुर-पुसुर की आवाज के.डी.ए. अधिकारियों के केबिन से हो कर बाहर तक सुनाई पडऩे लगी है। पिछले वर्ष शहर के लोगों को आवासीय सुविधा उपलब्ध कराने के लिये केडीए ने दक्षिण कानपुर में बर्रा-२ में हाइड्रिल कालोनी की एक भूखण्डीय योजना बनायी थी. पूरी योजना में २४ भूखण्ड थे. लोगों ने इस योजना में धन जमा कराया था. लेकिन एक साल बीत जाने के बाद भी केडीए ने इस योजना की लाटरी नहीं डलवायी. जो कारण बाद में केडीए ने बताया वह था इस भूखण्ड परियोजना को लेकर केडीए और स्थानीय विधायक अजय कपूर के बीच हाईकोर्ट में चल रहा मुकदमा. यह जानकारी भी केडीए ने आवेदकों को कई चक्कर लगवाने के बाद भी नहीं दी. यह पता चला सूचना के अधिकार से. इस मुकदमे में केडीए की लचर पैरवी अब तक इस मुकदमे का कोई निर्णय न हो पाने का एक मात्रवजह रही. एक साल के लम्बे समय के गुजरने के साथ ही केडीए ने यह मान लिया था कि अब यह मामला लगभग शान्त हो गया है. इतना ही नहीं केडीए ने तमाम आवेदकों को उनका जमा पैसा भी वापस कर दिया था. आवेदकों को पैसा वापस करने के सम्बन्ध में अभी तक केडीए अधिकारियाों का कहना था कि वे नहीं चाहते हैं कि अनिश्चित समय तक चलने वाले इस फैसले की वजह से आवेदकों का पैसा फंसा रहे इस लिये आवेदकों को पैसा वापस लेने के लिये केडीए की तरफ से नोटिस जारी की गयी थी. जबकि आमतौर पर किसी योजना के अन्तर्गत भूखण्ड पाने में असफल रहने वाले आवेदकों को रकम वापसी के लिये अच्छी खासी कसरत करनी पड़ती है. इस मुद्दे के एक बार फिर से चर्चा में आने के बाद केडीए अधिकारियों के सुरों में बदलाव आ गया है.अब यही अधिकारी कह रहे हैं इस योजना के आवेदक उन पर लगातार लाटरी डालने या फिर रकम वापस करने का दबाव बना रहे थे। मुकदमें की वजह से लाटरी डालना तो उनके बस में था नहीं। ऐसे में केडीए आवेदकों को उनकी रकम ही वापस कर सकता था। इसी वजह से आवेदकों को रकम वापस लेने का नोटिस जारी किया गयालेकिन इस योजना के सम्बन्ध में केडीए अधिकरियों की मिली भगत और लापरवाही का मुद्दा एक बार फिर गरमाने की वजह से केडीए अधिकारी अपने आप को इस पूरे मामले में पाक-साफ बताने में लग गये हैं. केडीए अधिकारियों ने विधि विभाग के अधिकारियों से मिलकर उनको हाईकोर्ट में चल रहे इस मुकदमे की पैरवी में तेजी लाने की बात कही है. गौरतलब है कि पिछले एक साल से हाईकोर्ट में लम्बित इस मामले में केडीए की तरफ से पैरवी की कमी रही है. इसकी एक बड़ी वजह केडीए अधिकारियों की इस मामले में शामिल स्थानीय विधायक को लाभ पहुंचाने की नियत भी थी. अब अपने ऊपर बात आती देखकर केडीए अधिकारी भी खुद को इस मामले से अलग करने की फिराक में हैं.हालांकि इस पूरे मामले में अभी भी कुछ कहने से केडीए अधिकारी मामला कोर्ट में होने की बात कहकर कतरा रहे हैं. वहीं दूसरी ओर इस योजना में अपना पैसा लगा चुके आवेदकों को कुछ उम्मीद बंधी है कि शायद अब इस मामले में उन्हें कुछ न्याय मिल पायेगा. इसी उम्मीद में आवेदकों ने एक बार फिर केडीए अधिकारियों के केबिनों के चक्कर लगाने शुरू कर दिये हैं. अभी हाल ही में इस योजना का एक आवेदक जब इस मामले में आगे की जानकारी लेने केडीए पहुंचा तो केडीए अधिकारियों ने बसपा नेता सतीश मिश्रा के कानपुर आगमन और विभिन्न योजनाओं के निरीक्षण दौरा कार्यक्रम के बाद इस मामले को गम्भीरता से लेते हुये सुलझाने की बात कही. साथ ही अधिकारी आवेदकों से हाईकोर्ट में इस मामले की चुस्त पैरवी करने का आश्वासन भी दे रहे हैं. ताकि जल्द से जल्द इस योजना के संबन्ध में निर्णय आने के बाद योजना की लाटरी डलवा कर लोगों को भूखण्ड दिये जा सके.1 हेलो संवाददाता

सुझाव-पालन

साहब तो साहब हंै पर जनता न पिद्दी न पिद्दी का शोरबा

वो तो साहब थे शहर आये यहाँ केवल देखा, केवल सुना और केवल कहा और फिर बिना कुछ किये-धरे सभी की तरह चले भी गये पर तू, तू तो न पिद्दी न पिद्दी का शोरबा,तुझे कुछ करना तो दूर कुछ पूछने का भी हक नहीं,तू तो बस दूर से देख और दूर से ही देख कर निकल जा. किसी कहानी की पटकथा सी हकीकत पिछले एक महीने से शहर के कुछ जिम्मेदार लोगों के साथ जीवंत हो चुकी है. जिसकी सबसे बड़ी वजह थी कि इन लोगों नें सूबे के एक आलाधिकारी की नसीहत को कुछ ज्यादा ही गम्भीरता से ले कर उसका वस्तविक प्रयोग कर दिया था. शायद यह सोच कर कि जब साहब जगा रहे हैं तो जाग जाओ शहर के पहरुआ बन जाओ शहर की नागरिक सुविधाओं खासतौर पर बेतरतीब हो रही खुदाई और यातायात व्यवस्था का जायजा लेने आये ए.डी.जी. ट्रैफिक सूर्य कुमार शुक्ला ने शहर की बदहाली खुद अपनी आँखों से देखी और स्थानीय प्रशासन को इस सम्बन्ध में शीघ्र ही उचित कदम उठाने के निर्देश दिये. अपने मुआयना दौरे के दौरान ए.डी.जी. सूर्य कुमार शहर की जनता से भी मिले. जनता ने शहर की बदहाली के बावत प्रशासन की निष्क्रियता की बात कही जिस पर श्री शुक्ला ने जनता को भी नसीहत दी कि अगर अधिकारी आप की नहीं सुनते हैं तो आप स्वयं ही जगह-जगह खुदाई कर रहे ठेकेदारों से खुदाई के सम्बंध में पूछें. सन्तोष जनक उत्तर न देने पर ठेकेदारों को खुदाई वगैरह न करने दें और साथ ही स्थानीय पुलिस और प्रशासन को सूचित करें. प्रशासनिक अधिकारियों और जनता को तमाम नसीहतें दे कर श्री शुक्ला यहाँ से चले गये. इन तमाम नसीहतों का स्थानीय प्रशासन पर कोई असर नहीं हुआ ठेकेदारों की मनमर्जी जारी ही रही. पर शहर के कुछ भले लोगों को न जाने क्या सूझी उन्होंने ए.डी.जी. साहब की नसीहत का प्रायोगात्मक स्तेमाल कर दिया. इन लोगों ने शहर के दक्षिण इलाके गोविन्द नगर में सड़क की खुदाई कर रहे मजदूरों से खुदाई का कारण जानना चाहा मजदूरों ने कारण तो बताया नहीं और बताते भी क्या बस खुदाई करा रहे ठेकेदार की तरफ मुखातिब कर दिया. जब इन लोगों ने इस ठेकेदार से वही सवाल दागा तो पहले तो उसने इस सवाल पर कोई ध्यान ही नहीं दिया,ज्यादा जोर देने पर उसने इन लोगों को हड़काते हुए कहा दिख नहीं रहा है खुदाई हो रही है हमारा काम है खोदना तो खोद रहे हैं. अब जिसका काम हो इसको पाटना ये उससे ही जा कर पूछो.जब इन लोगों ने इस ठेकेदार को खुदाई करने से रोकने के लिये कहा और ए.डी.जी. श्री शुक्ला की नसीहत का जिक्र किया तो ठेकेदार एकदम हत्थे से उखड़ गया और बाकायदा लड़ाई-झगड़े पर ही अमादा हो गया. वाद-विवाद ज्यादा बढऩे पर वहाँ से गुजर रहे अंकुश मोबइल के सिपाहियों से भी इन लोगों ने इसकी शिकायत की लेकिन अंकुश भी ठेकेदार से कुछ कहने की बजाय उल्टे जनता से ही यह कह कर कि उसका काम खोदना है और उसे उसका काम करने दो वहाँ से मोबाइल हो गया.हारी थके लोग क्या करते सो वापस चलेआये.अब ऐसे में ए.डी.जी. साहब ही बतायें कि आम लोग उनकी नसीहत अपना कर अपनी फजीहत करवायें या फिर शहर को यूँ ही खुदता रहने दें क्योंकि अगर जनता ढेकेदार के हाथों कुटी-पिटी तो ए.डी.जी. साहब तो आकर बचाने से रहे और उनके मातहत ऐसे ही किनारा करेंगे कम से कम यह घटना तो यही कहती है. 1 हेलो संवाददाता

शहर नहीं उपाध्यक्षों का विकास

मुख्य संवाददाता

ये तो बस इत्तफाक की बात है कि शहर के भूमाफियाओं और बिल्डरों को लाभ पहुँचाने की केडीए उपाध्यक्ष की नीयत बर्रा-२ योजना के जरिये खुल कर सामने आयी. असलियत यह है कि केडीए उपाध्यक्षों और शहर के हिरणाक्षों के बीच चलने वाली लाभ-मुनाफा कमाने की गणित बहुत पुरानी है. रामस्वरूप करीब दो वर्षों से केडीए उपाध्यक्ष कमाऊ सीट पर जड़े हुए हैं. इससे पहले इस कुर्सी से मुस्तफा चिपके थे.इन दोनों ही उपाध्यक्षों ने शहर के बिल्डरों और भूमाफियाओं के साथ सील-सील की कबड्डी खेली.केडीए उपाध्यक्ष मुस्तफा ने पद संभालते ही पूरे शहर में कुकुरमुत्ते की तरह उग आयीं तमाम बिल्डिगों को सील करने का अभियान छेड़ दिया. पूरे एक साल तक मुस्तफा शहर के तमाम विकास कार्यों और महत्वाकांक्षी योजनाओ को ताक मेंं रख कर रख बिल्डिगों की सीलिंग में ही लगे रहे और शहर की जेड स्क्वायर,रतन कांन्स्ट्रक्शन, रायल ब्लिस, विशाल मेगा मार्ट सहित करीब एक सैकड़ा बिल्डिंगों को सील कर दिया गया. शहर के तमाम बिल्डरों में एकदम हड़कम्प मच गया. इस पूरे प्रकरण से शुरूआत में ऐसा लगा कि शायद मुस्तफा वास्तव में शहर को सुधारने के लिये कुछ करना चाहते हैं लेकिन वास्तव में ऐसा हुआ नहीं. बिल्डिगों की सिलसिले वार सीलिंग महज शहर के भूमाफिया और बिल्डरों को अरदब में ले कर उनसे वसूली भर निकली .करीब एक साल तक शहर में सीलिंग-सीलिंग का खेल खेल कर मुस्तफा शहर से चलते बने.मुस्तफा की जगह उनके पद पर पदनसींन हुए राम स्वरूप. आते ही आते उन्होंने भी शहर में सक्रिय भूमाफियाओं, बेलगाम बिल्डरों और अतिक्रमणकारियों के खिलाफ अभियान का आगाज किया. कुछ दिनों बाद ही यह लगने लगा कि अभियान चलाने की बात कहने के जरिये उन्होंने भूमाफियाओं और बिल्डरों को न्यौता दिया है कि मैं आ गया हूँ अब तुम भी आकर मुझको समझो वरना मैं तुम लोगों को समझूंगा. भूमाफिया और बिल्डर अधिकारियों की इशारे की भाषा बखूबी समझते हैं खास तौर पर जब इशारा केडीए के मुहल्ले से आया हो तो फिर कहना ही क्या. समझने-समझाने के बाद उपाध्यक्ष राम स्वरूप ने शहर की तमाम बिल्डिगों में मुस्तफा की लगायी सीलों को खोलने का अभियान छेड़ दिया. मुस्तफा ने इन भवनों और भूखण्डों को निर्धारित मानकों को न पूरा करने के एवज में सील किया था. जो आज भी किसी बिल्डिंग में पूरे नहीं किये गये हैं. लेकिन केडीए की फाइलों में सभी मानक पूरे हो गये हैं. स्थिति यह है कि अब शहर की सारी बिल्डिगें सील मुक्त हैं और इनमें तेजी से निर्माण कार्य चल रहा है. कुछ एपार्टमेन्ट तो बन कर बिक भी चुके हैं और कुछ व्यावसायिक इमारतों में व्यापार भी शुरू हो चुका है. केडीए उपाध्यक्ष अनिल कुमार के बाद कई उपाध्य कानपुर को सुधारने आये. शहर की हालत तो जितनी और जैसी सुधरी है वह तो किसी से छिपी नहीं है पर यहाँ से गये सभी उपाध्यक्षों की स्थिति जरूर सुधर गयी.1

ये तो होना ही था

बर्रा-२ हाइड्रिल कालोनी भूखण्ड योजना के ले कर गोविन्द नगर के कांग्रेसी विधायक अजय कपूर और केडीए उपाध्यक्ष के बीच चल रही जोड़ घटाने की गणित एक दम उल्टी पड़ गयी विधायक जी तो खैर अभी निश्चिन्त हैं लेकिन इस जोड़ गणित के दूसरे विद्यार्थी केडीए उपाध्यक्ष राम स्वरूप, इस परीक्षा में फेल कर दिये गये हैं इस पूरे खेल में एक्जामनर की भूमिका उत्तर प्रदेश राज्य सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सतीश चन्द्र मिश्रा ने निभाई. हेलो कानपुर में च्बर्रा-२ के दो हिरणाक्षज् छपी खबर के बाद से केडीए अधिकारी अपनी और विधायक से सांठगांठ की कलई खुलने के बाद से मुंह चुराते घूम रहे थे।

पहले लाल-हरा, अब नीला
अनुराग अवस्थी 'मार्शलÓ
चुनाव में ब्लाक प्रमुख नहीं जीते हैं. सत्ता जीती है. प्रशासन जीता है. धन जीता है. गन जीती है. कल जिसके पास था वह जीता था. आज जिसके पास है वह जीता है.
एक बार फिर पंचायत चुनाव सिमट कर निपट गये. तृतीय चरण समाप्त हो गया और ब्लाकों के प्रमुख भी बन गये. यूं कहा जाये कि एक बार फिर सत्ता जीत गयी. फिर धन जीता फिर गन जीती. हर पांच साल पर यह चुनाव नामधारी जलसा होता है. इस बार भी हुआ. देखिये पांच साल पहले जब चुनाव हुये थे तब बसपा, भाजपा और कांग्रेस के नाम मात्र. के ब्लाक प्रमुख जीते थे. हर ब्लाक पूर जिले समाजवादी रंग में रंगे थे. हर ब्लाक में साइकिल पर चढ़कर प्रमुख जी प्रमुखी करने पहुंच गये थे. आधी जगहों पर तो नामांकन करने ही कोई नहीं पहुंच पाया था, बाकी में नामांकन के बाद नाम वापस हो गये थे. और जहां चुनाव हुआ वहां उंगलियों पर गिनने लायक गैर मुलायमी लोग जीते थे. तब का विपक्ष चिल्ला रहा था कि गुण्डई जोर जबर्दस्ती हुयी है. आज का विपक्ष भी चिल्ला रहा है कि गुण्डई जोर जबर्दस्ती हो रही है. आज का विपक्ष कल सत्ता में था. आज का सत्ता पक्ष कल विपक्ष में था. कल और आज का विपक्ष परसों सत्ता में था (भाजपा) मतलब साफ है हम बारी-बारी से लोकतंत्र और जनतंत्र के नाम पर मतदान का अधिकार अपने हित में अपहरण करेंगे. कल तुम्हारी बारी थी आज हमारी बारी है. और चुनाव आयोग वह तो गरीब की भौजाई गांव भर की लुगाई की तरह हर बार सत्ता के द्वारा चिढ़ाया, खिझाया और छेड़ा जायेगा. विपक्ष ही नहीं चुनाव आयुक्त राजेन्द्र भौनवाल भी अब सीधे जनता से चुनाव के राग में अलाप मिला रहे हैं. ब्लाक प्रमुख चुनाव की खरीद-फरोख्त, उठा-पटक, निष्ठा बदल और पाला-बदल सब कुछ पूरी बेशर्मी दबंगई और लुच्चई के साथ उनके सामने होता रहा लेकिन इक्के-दुक्के उदाहरणों को छोड़कर चुनाव आयोग कहीं यह सिद्ध नहीं कर सका कि उसके दांत हाथी के दांत नहीं हैं. शाहजहांपुर मे एक राज्यमंत्री, बुलन्दशहर में एक बसपा विधायक को छोड़ दिया जाये तो शायद बहन जी की यह कहने की भी नहीं रह जाता कि उनके राज्य में कानून की नजर में सब बराबर है.अब जरा याद करिये कि चुनाव का यह पांचसाला जलसा पिछली बार कैसा हुआ था. कानपुर से सटा हुआ है कन्नौज जिला. पिछले चुनाव में यहां सभी ब्लाक प्रमुख अखिलेश यादव के सिपाही हुए थे. तब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. उनके पुत्र अखिलेश कन्नौज के सांसद थे. सांसद के कन्धों पर चढ़कर सपाई कार्यकर्ता लोकतंत्र को लूटतंत्र में बदलने का खेल सरेआम खेल रहे थे, और मुलायम का पुलिस प्रशासन आंख-कान और मुंह पर पट्टी बाधे गांधी जी के बन्दर की भूमिका में था. जब जलालाबाद में रजनीकान्त यादव अपनी पत्नी को जिताने के लिये और तिर्वा में राधेश्याम यादव के लिये सपाई विपक्षी भाजपाइयों की कटम्मस कर रहे थे तब डीएम आर.के. भटनागर आंख-कान और मुंह तीनों सिले थे. बाद में उन्हें इनाम में कमिश्नर बना दिया गया.आज जब पंचायती चुनाव में ब्लाक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव हुआ है तो पुलिस प्रशासन पूरी तैयारी से हाथी की सूंड़ में गन्ना घुसेड़ रहा है और बसपाई चुपचाप अपनी जीत के महल को तैयार होते देख रहे हैं. आठ में से सात ब्लाकों में बसपा चुनाव जीतकर सपा को पछाड़ चुकी है. वही अखिलेश हैं, वही नवाब, राधे, रजनी, नेमा सिंह.... बसपा का जनाधार भी कोई रातो-रात एवरेस्ट पर नहीं पहुंच गया है. हां बस फर्क इतना है कि जो प्रशासन कल तक अखिलेश के आगे पीछे था वह अब उन पर त्योरी चढ़ाये है.इसीलिये जिला पंचायत के बारह अपने और दो बागी सदस्य जिताने के दावे के बाद भी जब अध्यक्ष की गणना हुई तो उन्हें दस ही वोट मिले और मुन्नी अम्बेडकर चुनाव जीतकर हाथी पर सवार हो गयी. पास के ही जिले में तहसीन सिद्दीकी चुनाव जीते जबकि पांच साल पहले चुनावों में इन्हीं तहसीन ने मुन्नी के पति सर्वेश का सिर फोड़ा था और पत्रकारों ने खबर छापी थी. आज मुन्नी और तहसीन दोनों लालबत्ती में कन्नौज और फर्रुखाबाद जिले में पंचायत अध्यक्ष की शपथ लेने को तैयार हैं. क्योंकि दोनों बसपा में हैं और भाजपाई आरोप लगा रहे हैं कि उनके एक मात्र जि. प. सदस्य को सीधे पुलिस कप्तान ने अपने घर पर बुलाकर समझा दिया कि उसका नाम तो सरायमीरा में हुए मर्डर में आ रहा है. बस बेचारा सब कुछ समझ गया फिर क्या था. बसपाइयों के पांच किलो बाजरा के बजाय सपाइयों के पच्चीस किलो बाजरा को लेने की हिम्मत नहीं जुटा सका. आंसू पोछने के लिये उसे दस किलो बाजरा और दे दिये गये.रमाबाई नगर का मैथा ब्लाक अपवाद हो सकता है जहां प्रशासन की धींगामुश्ती और एफआईआर का दबाव काम नहीं आया और सम्पूर्ण विपक्ष का साथ जन—बल की ताकत से राजेश यादव ने हाथी को पटखनी दे दी. कानपुर का कल्याणपुर ब्लाक भी एक नायाब उदाहरण बना जहां बिठूर प्रभारी बनाये गये घाटमपुर विधायक आर.पी. कुशवाहा एसपी गामीण की आंखों के सामने वोटर का आई कार्ड फाड़ते रहे लेकिन फिर भी ब्लाक प्रमुख उनकी कृपापात्र शुभ्रा द्विवेदी न बन सकी और भाजपा नेता दिनेश अवस्थी की पत्नी अनुराधा ने रिकार्ड बना दिया. यहां कानपुर की पूरी भाजपा अपने प्रत्याशी के साथ खड़ी थी.अन्यथा वही जीता जिसका जीत से पहले ही राजतिलक बसपा ने कर दिया था.1

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

नारद डाट काम
दहेज और घोटाले
कमलेश त्रिपाठी
नेहरू जी के जमाने के आसपास जब कोई दहेज उत्पीडऩ की खबर उड़ाती थी तो लोक और लोग दोनों ही हलकान हो जाते थे. अब जमाना बदल गया है दहेज हत्या तक में लोगों के चींटी नहीं रेंगती है। यही लफड़ा अब घोटालों के साथ भी होने लगा है एक से एक मामले खुलने लगे हैं. नेता लोग अब रोटी और बोटी के साथ-साथ चारा खाने लगे हैं. बजाय जमीन से जडऩे के फ्लैटों से जुडऩे लगे हैं. देश भक्त इतने बड़े हो गये हैं कि उन्हें कि उन्हे देशी बैंको के बजाय विदेशी बैंके ज्यादा भाने लगी है. ताबूत से लगाकर तहमद तक की खरीद में कमीशन बाजी होने लगी है. घोटालों के मामले में हर पार्टी का नेता तेरी कमीज मेरे से ज्यादा सफेद क्यों स्तारल में एयर इंडिया का महाराजा बना घूम रहा है. इन दिनों पालिटकल पार्टियाँ ँक दूसरे के लैमारपन की रोटिंग करने लगी हैं. अभी शहर में भाजपा की एक शाखा ने नवीनतम घोटाले बाजों की शीर्षक्रम जारी किया है मुझे क्या किसी भी आम इंसान को इसमें गुरेज नहीं है. लेकिन एक बात इसमें ठीक से पच नहीं रही है इसमें बंगारू लक्ष्मण जैसे नेताओं को कोई स्थान नहीं दिया गया है. इतिहास से छेड़छाड़ इन सियासत दांओं की पुरानी आदत है. एक बार कंाग्रेस पार्टी ने एक तारम कैप्सूल गाड़ा था और विरोधियों ने उसे ठीक उसी तरह बाहर निकलवा लिया था जैसे शक में आने के बाद गड़ा हुआ मुर्दा पोस्टमार्टम के लिए बाहर किया जाता है.दसअसल कांग्रेस के लिए तारम कैप्सूल गाडऩे की सही वख्त अब आया है. आने वाली पीढिय़ां जब इन्हें खुदवा कर पढ़ेंगी तब वे जान पायेंगे कि हमारे पूर्वज खाना कम नोट ज्यादा खाते थे. आज कपड़ो के मामले में हर आदमी गांधी बन गया है पूरे शरीर पर सिर्फ लंगोटी भर बची है और डड़ा पता नहीं चल रहा क्यों चल गया ? आखें जरूर बाहर निकल कर फटी जा रही है. मुझे तो आजादी के उन शहीदों पर बेहद गुस्सा आ रहा है जिन्होंने अपने प्राण गवां कर इस देश को आजाद किया. एक लुटेरे से निजात मिली तो डकैतों के फेर में पड़ गये. वो अगर लूट रहे थे तो कुछ दे भी रहे थे. उनका बनाया पुराना गंगापुल शतयु हो के बाद भी जवान है और जाजमऊ का पुल जो इन कण्धिकरों ने बनाया था अन्तिम सांसे गिन रहा है. यहां बांदा वाले पुल की बात नहीं करनी चाहिए ठीक १३वें दिन ही उसकी तेरेहवीं हो गई. हमेशा मिनमिनाता हुआ एक जर्जर इन्सान चाहे कितनी ही बड़ी कुर्सी पर बैठा हो इसके सिवा आपको कुछ भी-नहीं दे सक ता.1फिर भी......कीप एक ग्रीन ट्री इन योर हार्ट।सिंगिंग बर्ड विल कायोरली कम।।
प्रथम पुरुष
हँस कर बुलाओ सेहत को
डा. रमेश सिकरोरिया
अशिष्ट तरीके से हसना बना गया मदन कटारिया को लाफ्टर योगा क्लब का गुरु इस प्रणाली ने तमाम लोगों को बिना मतलब हँसना सिखाया. क्योंकि इससे आनन्द मिलता है जब कि हमारे चारों ओर भयानक चीजें हो रही हैं. इससे तुह्मारा बचपन बाहर आता है. बच्चे सोच कर नहीं वरन हर बात पर हँसते है. हँस सकते हैं ऐसी हँसी आप अधिक उम्र तक सम्भव रह सकते हैं. अधिक कुशलता से काम कर सकते हैं उनको मोटो है हो-हो-हा-हा दुनिया में उन्होंने इस प्रकार के १०००० लाफ्टर क्लब स्थापित किये हैं. भारत में ६००० केवल बंगलूर में २००१ उनकी लय है बहुत अच्छे बहुत अच्छे ई, ई. उनके क्लबों में दुश्मन भी साथ-साथ हंस रहे हैं. तेहरान में जेरुसलम में, पेलिस्टानी और इजरायली, सिंगापुर के मिनिस्टरी में शिकागो के कैंसर अस्पताल में. गूगूल और आईबीम के कार्यालयों में. वे एक सत्र के १०००० से १५००० डालर लेते हैं. लेकिन सामाजिक सेवा के लिये नहीं उनका कहना है काम को गम्भीरता पूर्वक लो परन्तु अपने को नहीं. वे इस कार्य के लिये बंगलूर में विश्वविद्यालय बनाना चाहते हैं. उन्होंने निराश व्यक्तियों को दवाई से मुक्त कराया लाफ्टर क्लब, लाफ्टर परिवारों का रूप ले रहे हैं. यह रक्तचाप करता है. आपको सहज बनाता है. शान्ति स्थापित करता है. उनका कहना है कि पहले हँसी की नकल करो धीरे-धीरे यह सच्ची हँसी बन जायेगी. लाफ्टर क्लबों में लोग नमस्ते करते, काफी बनाते, मिर्च खाते, चेहरे पर क्रीम लगाते, बाते करते, मोबाइल पर, अंगुली दिखाते, बिना दात के, हँसते हैं जब तक आंखों में आँसू नहीं आ जाता हैं. वे पागल नहीं हैं वे पूर्ण आनन्द उठा रहे हैं. महसूस कर रहे हैं.
ईगो-अहं मनुष्य में जाना जा सकता है यदि वह-१. दूसरों को कन्ट्रोल करना चाहता है.२. अपने कार्यों को दूसरों के द्वारा सहमत कराना चाहता है.३. दूसरों की जांच करता है जज की तरह.४. बीता हुआ समय पास्ट इतिहास हिस्ट्री है.५. आने वाला समय भविष्य रहस्य मिस्टरी है.६. वर्तमान ही सत्य है.
देशवासियों की हड्डियां कमजोर हैं-- विश्व में हड्डियां टूटने की संख्या भारत, चीन एवं ऐशिया के देशों में तिगुनी हो गयी है.- ४.४ लाख प्रतिवर्ष कूल्हे की हड्डी टूटती है २०२० तक ६ लाख कूल्हे टूटेंगे.- भारतीयों में १५ प्रतिशत हड्डी के मिनरल तत्व कम हैं. १०-२० वर्ष पहले ही हड्डी टूटने लगती है.- शहर में ८० प्रतिशत भारतीयों में विटामिन डी की कमी है. अधिकतर दफ्तरों में काम करने वालों में.- ५ करोड़ में हड्डी टूटने की सम्भावना है.- २४.८ प्रतिशत की हड्डियां टूटी हैं, २१ प्रतिशत की ठीक हैं ५४.३ प्रतिशत की कमजोर हैं (५० से ८० वर्ष के व्यक्तियों में).- स्त्रियों में ४२.५ प्रतिशत टूटने लायक, ९.८ प्रतिशत में ठीक, ४४.९ प्रतिशत में कमजोर.
हड्डी टूटने के मुख्य कारण-- कमजोर दृष्टि.- यदि उठने-बैठने में अधिक समय लगता है या मदद की जरूरत होती है.- शाकाहारी भोजन में प्रोटीन, विटामिन डी एवं कैल्शियम की कमी.- चाय या काफी का अधिक सेवन.- शराब और धूम्रपान के कारण हड्डियों के ठोस में कमी.- अधिक व्यायाम या कम भोजन हड्डियों की गठीलापन कम करता है २० से कम बॉडी मास.- ज्यादा या अधिक समय तक दवायें खाने से लम्बी बीमारियों में.- १०००-१३०० मिग्रा प्रति दिन कैल्शियम के जगह हमें केवल २००-६०० मिग्राम लेते हैं.- ओसटियोपोरोसिस से बचा जा सकता है यदि हम ३० वर्ष तक अपनी हड्डियों को अच्छी जीवन शैली से सुद्धढ़ बना लें.1 (लेखक पूर्व स्वास्थ्य निदेशक हैं)

दोनों की नीयत में खोट...?

जोन-३, बर्रा-२ की स्कीम इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि नौकरशाह और जनप्रतिनिधि किस तरह आपस में मिलकर जनता की स्कीम को घोलकर पी जाते हैं. इस स्कीम में विधायक अजय कपूर की सौ-दो गज जमीन फंसी है. अदालत में मुकदमा चल रहा है. केडीए मुकदमा खत्म कराने पर जोर नहीं दे रहा बल्कि आवेदकों से कह रहा है कि पैसा वापस ले लो. यह वही केडीए है जहां एक बार पैसा फंस जाने के बाद लोग चक्कर लगा-लगाकर मर भी जाते हैं लेकिन पैसा नहीं निकलता. इस स्कीम में केडीए को पैसा वापस करने की बड़ी जल्दी है. केडीए उपाध्यक्ष, केडीए सचिव बार-बार स्टे खत्म कराने के लिये कह रहे हैं. लेकिन केडीए के वकील साहब को फुर्सत कहां...? केडीए को आम जनता के बजाय भूमाफियाओं, बिल्डरों, दबंगों और सत्ताधीशों को मुलायम चारा बनाने में केडीए का यह विधि विभाग अपनी अलग पहचान रखता है. इसी स्कीम ने जिस भूखण्ड को आज नियमत: विधायक का बताया जा रहा है, वह नियम कया है...? वह नियम है नियमितीकरण. आखिर ये नियमितीकरण क्या है...?कुछ वर्षों पहले पूरे प्रदेश में विकास प्राधिकरण की जमीनों को भूमाफियाओं, दबंगों और झुग्गी-झोपड़ी वालों से मुक्त कराने के लिये यह स्कीम लाई गयी थी. इसके तहत अवैध कब्जेदारों को सर्किल रेट लेकर जमीन का वैध मालिक बना दिया गया था. विधायक अजय कपूर को इसी नियम के तहत दूसरे शब्दों में अवैध कब्जेदार को वैध कब्जेदार बनाया गया था. सिर्फ एक कपूर नहीं शहर में शायद ही कोई निर्वाचित प्रतिनिधि हो जिसने नियमितीकरण के जरिये अपने अवैध कब्जे या अवैध निर्माण को वैध न कराया हो.वर्ष २००५ में मुलायम सिंह यादव शासनकाल में कानपुर में ईमानदार कहे जाने वाले तत्कालीन उपाध्यक्ष अनिल कुमार ने बुलडोजर चलवाकर सैकड़ों एकड़ जमीन खाली कराई थी. खाली हुई जमीनों का केडीए ने क्या किया...? नीलामी करके बड़े-बड़े बिल्डरों, भूमाफियाओं और राजनीतिकों को बेच दिया. इसे नगरहित में उठाया गया बहुत क्रान्तिकारी कदम प्रचारित किया गया था. दरअसल यह भूमाफियाओं को जमीन उपलब्ध कराने की सरकारी साजिश थी. वरना खाली जमीनों पर विकास प्राधिकरणों ने जनप्रिय आवासीय योजनाएं क्यों तैयार नहीं की...? जबकि इस संस्था का मूल काम ही यही है. 'केडीएÓ शहर के जमीन घोटालों का सबसे बड़ा नायक है. अगर उसका पाप खंगाला जाये तो केडीए की तीन पीढिय़ों को जेल में सड़ जाना पड़े. इतनी अनियमितता और भ्रष्टाचार इस संस्था ने किया है.विधायक अजय कपूर अपने को बड़ा भोला-भाला मान रहे हैं. कह रहे हैं जमीन उनकी है. जब अवैध कब्जों को नियमित किया गया है तो अवैध कब्जा उनका था जमीन नहीं. कोई पहले कब्जा करे फिर उसे नियमित कराये ऊपर से विधायक भी हैं तो उसे क्या कहा जायेगा. जन सेवक...? जनता ने उन्हें अपनी राह के रोड़े दूर करने के लिये ताकत दी थी. लेकिन विधायक जी ने अपनी पूरी ताकत अपने वोटरों की राह में रोड़ा बनने में ही लगा दी. जो २४ भूखण्ड विधायक की कृपा से फंसे हैं, ये लोग किसी दूसरे शहर या क्षेत्र के नहीं है. बर्रा, गुजैनी, दबौली और रतनलाल नगर के हैं....1

बर्रा-दो के दो 'हिरणाक्ष'

केडीए और विधायक

विधायक अजय कपूर खुद को जनता का नौकर प्रचारित करते हैं. कहते हैं उन्हें नौकरी का वेतन मिलता है. लेकिन उन्हें शायद अपनी ड्यूटी याद नहीं. उनका काम जनहित की स्कीमों में 'अड़ंगेबाजोंÓ को हटाना है. यहां तो वह खुद २४ परिवारों के घर के सपनों की राह के रोड़ेबने हुए हैं. कानपुर विकास प्राधिकरण का काम है शहर और उसके आस-पास कानपुर के लोगों के लिये सस्ती और टिकाऊ स्कीमों के जरिए भूखण्ड और आवासीय योजनाएं उपलब्ध कराना. बीच में अगर कोई रोड़ा आये तो उसे हटाना. यहां तो उल्टा है. रोड़ा हटाने के बजाय वह आम आवेदकों को समझा रहा है... हट जाओ बीच से वरना विधायक से पंगा हो जायेगा.

आदर्श सोसाइटी घोटाले में कम से कम एक सोसाइटी थी, सोसाइटी में फ्लैट थे, उन फ्लैटों को अधिकारियों, नेताओं और दबंगों ने घोटकर पी लिया था बिना यह सोचे-समझे कि सरकार ने इस सोसाइटी को देश पर जान गँवाने वाले कारगिल शहीदों के लिये आरक्षित कर रखा था. लेकिन यहाँ कानपुर में तो विकास प्राधिकरण और एक जनप्रिय विधायक के बीच हाईकोर्ट में दायर एक वाद की ओट में गरीब व मझोले कनपुरियों के लिये विकसित की गई जोन-३, बर्रा-२ की पूरी की पूरी स्कीम को डकार लेने का खेल चल रहा है। हालांकि विधायक अजय कपूर अपने हक के लिये अदालत में लड़ रहे हैं, ऐसा उनका कहना है और उधर केडीए विधायक जी को अड़ंगेबाज बताकर जमीन कब्जियाने का कुचक्र रचने वाला बता रहा है. आइये समझायें यह मामला क्या है...पिछले साल २००९ में दीपावली के मौके पर कानपुर विकास प्राधिकरण ने जोन-३ के अन्तर्गत पूर्ण विकसित बर्रा-२ में लाटरी से २४ भूखण्डों के लिये एक स्कीम विज्ञापित की. स्कीम के तहत सैकड़ों लोगों ने आवेदन कर दिये. आवेदन के बाद आज दिन तक इस स्कीम में भू-खण्ड आवंटन के लिये लाटरी नहीं डाली गई... अलबत्ता भूखण्ड चाहने वालों को यह नोटिस जरूर जारी कर दिया गया कि केडीए की विज्ञापित यह स्कीम विधायक अजय कपूर की ओर से दायर एक मुकदमे के कारण हाईकोर्ट में लम्बित है. इसलिये आवेदकगण अपने-अपने पैसे ले लें. इस नोटिस के बाद आवेदकों ने केडीए में हंगामा काटना शुरू कर दिया. लेकिन कमाल है विकास प्राधिकरण का कि वह लाटरी कराने पर जोर देने वाले आवेदकों को यह समझाने में जुटा है कि विधायक और केडीए के चक्कर में फंसकर अपना समय और पैसा बर्बाद मत करो. रिफंड ले लो। के.डी.ए. संयुक्त सचिव आर.एन. बाजपेयी यह मानते हैं कि नोटिस जारी की गई है लेकिन उसका मंतव्य गलत नहीं है. केडीए तो लोगों को परेशानी से बचाने के लिये उदार रुख अपनाये हुए है.दरअसल यह मामला शायद सामने न आ पाता लेकिन एक मीडिया कर्मी की पत्नी भी इस स्कीम में आवेदक हो गई.विकास प्राधिकरण ने अक्टूबर २००९ में जोन-३ बर्रा-२ (हाइड्रिल कालोनी के निकट) एक आवासीय भूखण्ड आवंटन की स्कीम निकाली. जिसमें आवेदन की अन्तिम तिथि १६ नवम्बर २००९ और लाटरी की तिथि २३ नवम्बर थी. आवेदन के बाद तय तिथि २३ नवम्बर को लाटरी नहीं डाली गयी. लोगों ने लाटरी न पडऩे की वजह जानने के लिये केडीए के चक्कर लगाने शुरू किये. पहले तो केडीए के छोटे कर्मचारियों से लेकर बड़े अधिकारियों ने लोगों को माकूल जवाब देने के बजाय टहलाने की अपनी पूर्वपरिचित शैली का ही परिचय दिया. इस बीच आवेदक ज्योति श्रीवास्तव के पति जनसूचना के अधिकार के तहत केडीए से लाटरी न डालने का कारण पूछ बैठे. केडीए ने जो जवाब दिया वह इस प्रकार है- महोदय, उपयुक्त विषय के सन्दर्भ में आपको सूचित किया जाता है कि उक्त भूमि पर मा. उच्च न्यायालय इलाहाबाद में एक रिट अजय कपूर बनाम स्टेट आफ यूपी व अन्य दाखिल हो जाने के कारण निर्धारित समय पर लाटरी सम्पादित नहीं हो सकी. उक्त वाद में मा. उच्च न्यायालय में जवाब दावा प्राधिकरण की ओर से दाखिल किया जा चुका है. मा. न्यायालय द्वारा वाद निस्तारित होने के पश्चात् शीघ्र ही लाटरी की सूचना समाचार पत्र के माध्यम से दी जायेगी.जैसे ही स्कीम की लाटरी में बाधा के रूप में अजय कपूर का नाम आया आवेदकों में हड़कम्प मच गया. अजय कपूर कांग्रेस से लगातार दूसरी बार विधायक चुने गये हैं. उनका अपने क्षेत्र में दबदबा है. शहर समय-समय उनका जन,धन और बल देखता रहता है. इस स्कीम की इतनी ही कहानी नहीं है. कहानी के अगले पन्ने और भी साफ कर देते हैं कि 'हाईकोर्टÓ का वाद और स्टे और कुछ नहीं एक आड़ है इन २४ भूखण्डों को मनचाहे तरीके से बेचने और इस्तेमाल करने की. संयुक्त सचिव आर.एन. बाजपेयी बताते हैं कि विधायक अजय कपूर ने स्कीम की जमीन का कुछ हिस्सा अपना बताया है. जबकि उनका दावा गलत है. जिस जमीन को वह अपना बता रहे हैं उसे पहले ही नियमितीकरण के जरिये विधायक और उनके रिश्तेदारों को दे दी गयी है. बाजपेयी ने यह भी बताया कि जमीन का नियमतीकरण इस लिये किया गया क्योंकि उस पर विधायक जी का पहले से ही कब्जा था. जिस जमीन का नियमितीकरण हुआ उसकी केडीए ने टुकड़ों में पहले ही बैनामा रजिस्ट्री कर दी है. जिनको यह बैनाम रजिस्ट्री हुई उनका नाम इस प्रकार हैं- अजय कपूर, आशा कपूर, मीनाक्षी कपूर, कविता चोपड़ा, हरीश कुमार इसरानी. इन पांचों प्लाटों भूखण्डों का क्षेत्रफल कुल मिलाकर ४ हजार वर्गगज के आस-पास है. जबकि विज्ञापित स्कीम का क्षेत्रफल लगभग ५ हजार वर्ग मीटर है. इस तरह स्पष्ट है कि विधायक एण्ड कम्पनी ने बर्रा-२ के इस पूर्ण विकसित क्षेत्र की इस स्कीम का तकरीबन आधा हिस्सा पहले ही अपने पाले में कर लिया है. बाकी के आधे में भी अब उनकी नजर है. 'विधायक अजय कपूर का कहना है कि उनका केडीए से कोई ऐसा खास विवाद नहीं है. बर्रा-२ की इस स्कीम में उनकी १०० से २०० गज जमीन दब गयी है. केडीए पैमाइश करके यह जमीन हमें वापस कर दे, बात खत्म...Ó. अब जरा सोचिए कि जब विधायक इसे बहुत संजीदगी से नहीं ले रहे तो केडीए को हाईकोर्ट में देरी क्यों...? तो इसका जवाब वही दे रहे हैं जो अपना खून-पसीने का पैसा फंसाकर केडीए के चक्कर लगा रहे हैं. आरटीआई दायर करने वाले अम्बरीष श्रीवास्तव का कहना है कि इस मामले में पूरी जानकारी के लिए कई बार चक्कर काटने के बाद अधिकारियों एवं कर्मचारियों द्वारा किसी विधायक के स्टे के बात कही गयी एवं यह भी कहा गया है कि उक्त भूखण्ड का सर्वे एवं समस्त कार्यवाही करा ली गयी है जल्द ही हाईकोर्ट से खारिज करा लिया जायेगा। लेकिन सिर्फ आश्वासन एवं हीलाहवाली से आजतक उक्त भूमि का निस्तारण नहीं हो सका है. कई बार सूचना अधिकार के अन्तर्गत जबाब मांगने पर भी यही आश्वासन दिया जाता रहा।इसलिये परेशान होकर सर्वप्रथम मैने उपाध्यक्ष महोदय जी से सम्पर्क किया जिस पर उन्होंने सम्बन्धित जोन के संयुक्त सचिव आर०एन० बाजपेई, अशोक व जगतगपाल को बुलाकर हाईकोर्ट में पेश किये गये योजना का निस्तारण कराने के लिए निर्देश दिये, लेकिन उपरोक्त निर्देशों को गम्भीरता से पालन न करते हुए धीरे-धीरे कई माह गुजार दिये।उसके बाद के. डी. ए सचिव शकुन्तला गौतम जी से सम्पर्क किया। उन्होंने भी सयुक्त सचिव आर.एन. बाजपेई व सम्बन्धित जोन के अन्य अधिकारियों का बुलाकर अपनी नाराजगी व्यक्त की और यह भी कहा कि इतनी लम्बी योजना को इतने लम्बे समय से क्यों नहीं निपटाया गया एवं साथ में यह भी कहा कि अगर सम्बन्धित हाईकोर्ट वकील द्वारा निस्तारण शीघ्र नहीं किया जा रहा है तो कोई दूसरा वकील करके स्टे खारिज कराये जिससे लाटरी डाली जा सके। उपाध्यक्ष एवं सचिव के निर्देशों के बावजूद भी अभी संयुक्त सचिव, के.डी.ए. वकील सी.पी. त्रिपाठी जोन-३ के अधिकारियों द्वारा कोई ठोस कदम न उठाने से अभी भी योजना लम्बित पड़ी हुई है और जनता को स्टे बताकर लम्बे समय से दौड़ाया जा रहा है।एक तो स्टे खारिज नहीं करा रहा केडीए ऊपर से नोटिस जारी कर दी. नोटिस पाने वालों में से योगेन्द्र सचान ३७४ ई०डब्लू०एस बर्रा-३ कानपुर, सत्येन्द्र कुमार ५९ एम०आई०जी पनकी बी ब्लाक कानपुर एवं सुरभि राज पत्नी राजेश चोपड़ा २/एल/५१ दबौली रतन लाल नगर से कहा गया है कि जमीन विलम्बित हो गई है. आज चाहे तो पैसा वापस ले लें.इस तरह कुल मामला यह है कि बर्रा-२ जैसे पूर्ण विकसित क्षेत्र में एक बड़े भूखण्ड का एक बड़ा हिस्सा नियमतीकरण स विधायक एण्ड पार्टी कम्पनी को दे दिया गया बाकी बची जमीन पर विधायक का मामूली मुकदमा है। केडीए मुकदमा सुलझाने के बजाय,लाटरी डलवाने के बजाय आवेदकों को समझा रहा है कि पैसे ले कर चलते बनों... क्यों फँस रहे हो..। यह पूरी कहानी क्या यह नहीं कह रही है कि आवेदकों को छोड़ इस योजना में शामिल बाकी सारे कानूनी,विधाई और मीडियाई लोगों की नियत ठीक नहीं है। योजना में अड़ंगा उन्हीं लोगों ने फंसा रखा है जिन्हें हम अड़ंगा हटाने की ताकत और वेतन देते हैं।1

गंगा सफाई मे मीडिया की बेरुखी
शिवा अपनी चबा-चबा कर बोली जानेवाली अंग्रेजी के उद्बोधन में अपने तीर-तुक्के लगाती रहीं और कनपुरिया पत्रकारों ने अपने ही अर्थ लगाये।डा. विनोद तारे जिन्हें गंगा की उपनिषद लिखने का काम सरकार ने देते हुए तकनीकी प्रमुख बनाया है, वे एक इको-फ्रेंडली शौचालय बेचने में लगे रहे। इसे रेलवे और कुम्भ जैसे आयोजनों में प्रयोग में लाने की संभावनाएं तलाशी जा रही है। जबकि बहुत उपयोगी किन्तु अव्यवहारिक यह शौचालय अभी भी आई.आइ.टी. में ही लोकप्रिय और चलन में नहीं लाया जा सका है। सेमिनार में अपने प्रायोजक साथ लेकर आये चिदानंद मुनिजी महराज ने उत्तरांचल की सरकार के अथाह गुण-गान किये जबकि वो सरकार गंगा के पौराणिक और प्राकृतिक स्वरुप के साथ अधिकतम खिलवाड़ कर रही है. उनकी अपनी सीमायें और हित हैं जो उनके चेहरे पर झलके. देश के एक बड़े हिंदी समाचार पत्र से अंग्रेजी जानने की योग्यता वाला पत्रकार अगले दिन वो सब वंदना शिवा के नाम से लिख बैठा जो डा. तारे ने कहा था.अपने ज्ञान के बोझ तले दबे जा रहे इन पत्रकार महोदय ने अपने उन साथी का लाभ करा दिया जो अंग्रेजी नहीं जानते पर पूरे शहर में पर्यावरण की रिपोर्टिंग के लिए जाने जाते हैं. उन्हीं की दुकान आजकल सजी हुई है. देश और शहर के सबसे बड़े अखबार के मालिक ने स्वयं ही उपस्थित होकर गंगा के प्रति अपनी संवेदना दिखाई थी तब तो रिपोर्टिंग अच्छी ही होनी थी. ख़बरों का स्तर अंतर-राष्ट्रीय हो गया पर मूल से भटक गया कारण ये था की लिखना ऐसा था की आका खुश रहें . इसी प्रकार एक तीसरे बड़े हिंदी के समाचारपत्र के पत्रकार महानुभाव दो कदम आगे निकलकर यहाँ तक लिख बैठे की गंगा नदी बेसिन ऑथोरिटी ने कानपुर की टेनरियों की सभी कारगुजारियों को क्लीनचिट दे दी है. भैया तब से टेनरी के मालिकों के खासुलखास बन गए हैं. पहला अपने अज्ञान से और दूसरा अपने प्री-प्लांड तरीके से असल में दोष दोनों विद्वानों का नहीं है. दोष है आज की प्रवृत्ति का आज पत्रकारिता ए.टी.एम युगीन हो गई. समय देकर खबर समझने को अब अयोग्यता मान लिया गया है. न जानने और समझने के बावजूद अखबार तो रोज ही लिखा जाना है. इसलिए जो मन आये लिखो ऐसे प्रशासन ने सेमिनार इतनी दूर बुलाया था की कौन क्या कह रहा है कौन जाने? और सबसे बड़ी बात ये की विरोध कौन करेगा? कुछ शहरी स्वयंसेवी संगठनों ने इसी वजह से कमान अपने हाथों में ले रखी है. बड़े अखबार और उनके पत्रकार उनके खैरख्वाह बन बैठे हैं. अगले दिन अखबार पढ़ते हुए मेरे बेटे ने पूंछा की ऐसे में क्या होगा गंगा मैया का? प्रश्न मौजू था पर जवाब भविष्य के गर्भ में है. 1

गंगा रक्षा आन्दोलन के नाम पर

सेमिनार या बाजार

जैसा कि होता ही है सभी के अर्जुन की ही तरह अपने-अपने लक्ष्य होते हैं लेकिन उनकी प्राप्ति के अपने तरीके होते हैं. आई.आई.टी. में 7 दिसंबर को आयोजित सेमिनार के भी अलग ही राग-ढंग थे. सबसे पहले तो सेमिनार का आयोजक कानपुर नगर निगम अपने सभागारों में सेमिनार न बुला कर आई.आई.टी. में सेमिनार क्यों करा रहा था यह स्पष्ट नहीं हो पाया. गंगा के नाम पर होने वाले इस सेमिनार में आये वक्ताओं के आने-जाने और खाने सहित सभी प्रकार के खर्चे सरकारी खजाने से जब कानपुर नगर निगम कर रहा था तो कानपुर के मेयर जो कि राष्ट्रीय गंगा रिवर बेसिन ऑथोरिटी के पदेन सदस्य हैं ,को क्यों नहीं बुलाया गया. क्या कारण राजनैतिक थे ? उनके दल कि सरकार का केंद्र या प्रदेश में न होना ही उनकी अयोग्यता थी। रही बात स्थान चयन कि तो क्या आई.आई.टी. में ही बोला जाने वाला सच होता है या फिर आई.आई.टी. देश से अलग एक और विशिस्ट संगठन है? इसी सेमिनार में हिस्सा लेने आये वैज्ञानिक, प्रोफ़ेसर और समाजसेवी डा. राजा वशिष्ठ त्रिपाठी ने बीच सेमिनार में ही प्रश्न खड़ा किया कि यदि यह सेमिनार गंगा के राष्ट्रीय स्वरुप को स्थापित करने के उद्देश्य से हो रहा है तो आज इसमें 50 हज़ार से अधिक की संख्या होनी चाहिए थी. और नहीं तो कम-से-कम आई.आई.टी. कानपुर के सभी टेक्नोक्रेट्स को इसमें भाग लेना चाहिए था. विश्व में सबसे योग्य इंजिनीअर देने का गौरव प्राप्त संस्थान देश और खासकर कानपुर कि समस्याओं से पूरी तरह अनदेखी कर रहा है. बंद ए.सी.कमरों में बनने वाली अन्य लोक कल्याणकारी योजनाओं की ही तरह गंगा सफाई योजना का भी हश्र होने का उन्होंने अंदेशा जताया . सेमिनार 'अविरल और निर्मल गंगा के विभिन्न द्रष्टिकोणÓ मुद्दे पर 'गंगा बचाओ आन्दोलनÓ ने आयोजित किया था. अविरल और निर्मल गंगा को एक नारे का नाम देने वाले सुन्दर लाल बहुगुणा की साथी श्रीमती रामा राउत जो कि एन.जी.आर.बी.ए. में एक्सपर्ट मेंबर भी हैं ने गंगा नदी के लिए अपनी दस सूत्रीय मांगों को सेमिनार में प्रस्तुत करते हुए और सुझाव और प्रस्तावों की मांग की. ये सभी वे प्रस्ताव थे जो की लगभग दो साल पहले ही प्रस्तुत किये जा चुके थे. पत्रकार ब्रजेन्द्र प्रताप सिंह ने इस बीच कुछ नया नहीं होने का असंतोष जताते हुए गंगा की तलहटी पर छोटी नदिओं और झील-तालों के रख-रखाव को शामिल करने की मांग रखी. उन्होंने कुम्भ जैसे आयोजनों के इको-फ्रेंडली कराये जाने की मांग की. उनकी मांगों को एन.जी.आर.बी.ए. की अगली बैठक में प्रस्तुत किया जयेगा. अब तो कनपुरिया भाई लोगों को लगा की हमारी भी बन आई. बिना किसी योग्यता और ज्ञान के उन्हें लगा की गंगा की कार्ययोजना में शामिल हो जाने यही अन्त्तिम मौका है. कानपुर नगर निगम के धन से ही कूड़ा उठाने का जिम्मा उठाये एक संगठन का प्रमुख सुझाव न बता कर अपनी विशेषज्ञता का बखान करता रहा. गंगा एक्शन प्लान 1 और 2 की असफलता का एक भाग रहे एक स्वयंसेवी संगठन का मुखिया अपने बेहतर मीडिया मैनेजमेंट के दम पर अपनी निराशापूर्ण बातों के साथ एकमात्र आशा जगाने वाला बनकर बोले की गंगा कभी साफ़ नहीं हो सकती. श्रीमती राउत से उसने कहा उसने पिछले 25 सालों से काम करके देख लिया है. उसे नकारते हुए श्रीमती राउत ने कहा की यदि केंद्र ने हमारे अनुसार काम किया तो पांच सालों में गंगा पवित्र बन सकती हैं . डा. त्रिपाठी ने कहा जब भारत सरकार स्वयम गंगा अभियान में प्राथमिकता दे रही है ऐसे नकारात्मक सोच नहीं होनी चाहिए . अभी तक खर्च किये गए 1100 करोड़ से अधिक रुपयों का कोई हवाला नहीं है।इसी प्रकार से लगता है की आगे भी काम कराया जाने वाला है. उन्होंने जोर देकर कहा ऐसे ही संगठन जिनकी सोच ही गंगा जैसी पौराणिक और प्राकृतिक महत्व की नदी के नाम पर धन को लूटने की रही है उनके खिलाफ भारत सरकार से शिकायत कर ऐसे संगठनों की जांच कराइ जाएगी जो पिछले लम्बे अरसे से गंगा और सफाई के नाम पर सरकारी धन ऐंठ रहे हैं. कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे विश्व के मूर्धन्य पर्यावरणविद व गांधीवादी डा. एस.एन. सुब्बाराव ने कार्यक्रम के औचित्य और कार्यप्रणाली से असंतोष जताते हुए कहा गंगा बचाओ आन्दोलन के द्वारा आमंत्रित इस सेमिनार में आन्दोलन के लिए कोई कार्य-योजना नहीं है. आने-जाने के लिए व्यय किया गया धन पूरी तरह से अपव्यय है। अच्छा होता की हजारों-हज़ार युवाओं के साथ गंगा के लिए काम करना प्रारंभ किया गया होता. कहीं भी प्रतीकात्मक रूप से ही नालों का डाइवर्जन या फिर वृहद वृक्ष-आरोपण का काम प्रारंभ किया गया होता. उनकी हताशा में सेमिनार का बाजारवादी रुख हावी था.

पंचायत का चीरहरण
विशेष संवाददाता
घाटमपुर से लखनऊ तक समाजवादी पार्टी विधवा विलाप कर रही है कि बसपा दबंगई के बल पर जिला पंचायतों पर कब्जा कर रही है. कहीं विपक्षियों को नामांकन नहीं करने दिया जा रहा है और निर्विरोध बसपाइयों को जिताया जा रहा है तो कहीं पुलिस प्रशासन सदस्यों को पकड़कर बसपा के बाड़े में पहुंचा रहे हैं.कानपुर कलक्ट्रेट में जिला पंचायत के फाइनल राउंड ड्रामे में कुछ ही मिनटों के अन्दर सपा प्रत्याशी योगेन्द्र कुशवाहा के दिल परिवर्तन(दल भी)से सांसद राकेश सचान के ज्ञान चक्षु खुल गये और वे संसद में इन चुनावों को सीधे जनता से करवाने की मांग उठाने की बात करने लग. ऐसा लगा कि जोर जबर्दस्ती, गुंडई, बेशर्मी के साथ की जा रही बेइमानी, खुलेआम खरीदफरोख्त और सत्तातंत्र का यह दुरुपयोग पहली बार किसी व्यक्ति, पार्टी या सरकार के द्वारा किया जा रहा है.पांच साल पुराने फ्लैश बैक में जाइये. याद कीजिये पिछले जिला पंचायत चुनाव को. आज तेइस जिला पंचायत अध्यक्ष बसपा की सूंड़ में लिपटकर निर्विरोध हो गये हैं. कानपुर नगर का निर्णय अभी चुनाव आयोग की मेज पर है. पांच साल पहले समाजवादी पार्टी की साइकिल पर चढ़कर तेरह अध्यक्ष निर्विरोध निर्वाचित हुये थे.तब ६९ में से ४६ जिलों में साइकिल जीती थी. अबकी बार ७३ में से इक्का-दुक्का जनपदों को छोड़ दिया जाये तो कहीं विपक्ष मजबूती से विरोध में डटा ही नहीं दिख रहा है. कई जिलों में तो निष्ठा ने अपना रंग बदलने में गिरगिट को भी शरमा दिया है. तब हरदोई मेंंं नरेश अग्रवाल के भाई मुकेश साइकिल पर चढ़कर लाल बत्ती पाये थे. अबकी बार नरेश,मुकेश सब नीले रंग में रंगे हैं और मुकेश की पत्नी कामिनी जिले की प्रथम नागरिक बनने जा रही हैं ऐसा ही नजारा उन्नाव में है जहां सांसद जयप्रकाश रावत की पत्नी ज्योति रावत जिला पंचायत अध्यक्ष थीं और फिर हो गयीं हैं. दल और दिल बदलने में यह सब उत्तर प्रदेश के नये विद्याचरण शुक्ल हैं. जो कल सपाई थे, आज बसपाई हैं और कल कांग्रेसी, भाजपाई हो सकते हैं.हमीरपुर में पांच साल पहले मधु शिवहरे की जीत किसे नहीं याद होग. उनके विरोध में अशोक चन्देल जैसे बाहुबली भी उनका बाल बांका नहीं कर सके थे. उनके बहुमत के बावजूद चार सदस्यों को पकड़कर मिश्रीपुर के जंगल में छोड़ दिया गया था. मधु तब साइकिल पर सवार थीं और पूरी ठसक के साथ जिला पंचायत अध्यक्ष हुयी थीमहोबा में तत्कालीन सपा नेतृत्व ने छत्रपाल यादव की सास ज्ञानदेवी को जिताने के लिये क्या-क्या गुल खिलाये थे. बादशाह सिंह की सारी बादशाहत धरी रह गयी थी. जीतने लायक सदस्यों को लेकर तब बादशाह मध्यप्रदेश के छतरपुर के श्रीनगर में अपने फार्म हाउस में जम गये थे. सब कुछ ठीक-ठाक था. लेकिन मतदान के दिन उन्हें उत्तर प्रदेश सीमा में प्रवेश का मौका ही नहीं मिला था. कन्नौज में ममता कनौजिया अध्यक्ष बनी थीं और सांसद अखिलेश यादव की छत्रछाया में बसपा, कांग्रेस, भाजपा मिलकर भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पायी थी. कानपुर में ओम प्रकाश तिवारी का नामांकन किसे नहीं याद होगा, जब उनके पास बहुमत लायक सदस्य थे. मतदान हुआ तो राकेश सचान की पत्नी पुष्पा सचान को सत्रह और डा. ओमप्रकाश को दस ही वोट निकले थे. क्योंकि सत्ता की ताकत राकेश के साथ थी. यही हाल कानपुर देहात का था. इटावा में सपा मुखिया की पारिवारिक बहू प्रेमलता तब निर्विरोध जीती थीं.बानिगी में छांटे गये इन्हीं जिलों को आज देखिए. हमीरपुर में गैरराजनैतिक मोरंग व्यापारी संजय दीक्षित हाथी पर सवार होकर निर्विरोध अध्यक्ष बने हैं पूरी समाजवादी पार्टी इनके विरोध में सांकेतिक नामांकन भी नहीं करा सकी. वाई श्रेणी की सुरक्षा के लिये बहन जी के चरण चुम्बन पर सपा विधायक तथा कथित बाहुबली अशोक चन्देल उनके सिपहसलार केे रूप में दिखायी दिये. महोबा में बारह में से दस सदस्य ही हाथी पर सवार हो गये और अंशु शिवहरे निर्विरोध अध्यक्ष बनी गयी. बचे दो सदस्य के बल पर सपा भाजपा कांग्रेस क्या करते. कन्नौज अभी अपवाद दिख रहा है. यहां आज की तारीख में समाजवादी सांसद अखिलेश यादव मजबूत स्थिति में हैं. उनके सदस्य भी कन्नौज के बाहर हैं लेकिन जिला पुलिस पूरी मुस्तैदी से बसपा की मुन्नी अम्बेडकर को लालबत्ती दिलाने के लिये जुटी है.कल कन्नौज में क्या होगा, कहा नहीं जा सकता. क्योंकि कन्नौज ने सत्ता के भोंड़े प्रदर्शन और दबंगई के नये आयाम बनाये हैं. जिला पंचायत के चुनाव में तो पिछली बार बुलैरो का बाजरा चला था लेकिन ब्लाक प्रमुख चुनाव में तो उमर्दा में राजस्थान से बहुमत की गाड़ी में बैठकर लौटे बीडीसी सदस्यों के मतपत्रों पर मोहर स्वयं पीठासीन अधिकारी ने मोहर लगाकर सदस्यों के हाथ में पकड़ाया था. विरोध में बहुमत को लाठी-गोली सब कुछ मिली थी। पूरे कन्नौज में विरोधियों को बेशर्मी और ठसक के साथ किनारे कर दिया गया था.अब जब बसपा, सपा को उसी की शैली में जवाब दे रही है तो कल जो वाह-वाह कर रहे थे, आज आह-आह कर रहे हैं.ऐसा नहीं है कि भाजपा और कांग्रेस की सरकारें निर्विरोध निर्वाचन और सत्ता के दबाव प्रभाव का उपयोग करने के मामले में दूध की धुली हों, लेकिन इतनी बेहयाई और दबंगई इनकी औकात के बाहर है. इस मामले में सपा बसपा सेर को सवा सेर जैसी प्रतियोगिता है.चुनाव आयोग की भूमिका ध्रतराष्ट्र सरीखी है. जो चीख तो रहा है, लेकिन उसकी चीख नक्कारखाने में तूती सरीखी है. इसीलिये सिद्धार्थनगर में कलक्ट्रेट से अपहरण कर लिये गये सदस्यों और प्रत्याशी को वह कोई राहत नहीं दिला सका. ऐसा ही कुछ हाल बनारस-बांदा में हुआ जहां सपा चीखती रह गयी है और हाथी मस्त झूमता रहा.आज जब कानपुर नवीन मार्केट के सपा ग्रामीण कार्यालय से प्रेस क्लब और कलेक्ट्रेट तक लोकतंत्र को बाजारू औरत बनाकर नोचा खसोटा गया. द्रोपदी के चीरहरण की तरह विदुर और भीष्म पितामह रूपी चुनाव आयोग आंख/मुंह बन्द करे देख रहा है.अब गेंद उच्च न्यायालय के पाले में उछालकर निर्णय देने को कहा गया है.इतिहास पर फिर नजर डाले तो जो प्रदेश विधायकों के दल-बदल और सत्ता पलट कर दो मुख्यमंत्री को एक कुर्सी पर बैठे देख चुका है और न्यायपालिका के हस्तक्षेप से बचा हो (जगदम्बिका पाल प्रकरण) वहां कुछ भी, कभी भी, कैसे भी हो सकता है.आखिर लोकतंत्र के खम्भों को मजबूत करने वाली संस्थाओं को कमजोर करने में हम भी तो आंख, कान, मुंह बन्द करने के दोषी हैं. दीमक लग चुकी है, उपचार करना होगा, वरना लोकतंत्र खतरे में हो जायेगा. इसलिये अगर आज राकेश सचान चीखकर यह कह रहे हैं कि मेयर की तरह जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव सीधे जनता से होना चाहिये तो उनकी निराशा, खीझ और कुंठा को दरकिनार कर इस सुर में सुर मिलाना ही चाहिए. जिले की सबसे बड़ी कुर्सी ही क्यों प्रदेश की सबसे बड़ी कुर्सी मुख्यमंत्री और देश की सबसे बड़ी कुर्सी प्रधानमंत्री का भी चुनाव सीधे देशवासियों को करने का अधिकार मिलना चाहिये. शायद उसके बाद लोकतंत्र में ईमानदारी और नैतिकता का प्रतिशत कुछ बढ़ जाये। क्योंकि चुना हुआ नेता सीधे जनता के प्रति जिम्मेदार होगा. शायद तब गठबन्धन को ब्लैक मेलिंग समझने वालों से हम बच सकेंगे. प्रधानमंत्री को अपने विराटाकार से बौना बनाने वाले राजाओं (मंत्रियों)पर लगाम लग सकेगी. भ्रष्टाचार के जिस दानव को लेकर आज संसद से सीबीआई और सीबीसी सभी सन्देह के घेर में हैं, उससे भी निजात मिलने की उम्मीद बंधेगी. कौन देगा यह अधिकार जो कल विपक्ष में था वो आज सत्ता में है. घाटा-मुनाफा देखकर बोलने वाले नेता क्या करेंगे जब तक सौ करोड़ हिन्दुस्तानी मु_ी बांधकर नहीं मांगेंगे.1
झूठे हैं पेट्रोलियम कंपनियों के गैस उपभोक्ता सेवा के दावे
रसोई गैस उपभोक्ता को उनकी जरूरत अनुसार सिलेण्डर उपलब्ध कराना, गैस कनेक्शन खरीदते समय चूल्हा खरीदने के लिये एजेंसी उपभोक्ता को बाध्य नहीं कर सकती आदि-इत्यादि ऐसी तमाम बातें गैस एजेंसियों के कार्यालयों टंगे सूचना पटों पर उपभाक्ताओं के लिये लिखी दिखाई दे जाएंगी. अगर गैस एजेंसी उपभोक्ता को परेशान करती है तो ऐसी दशा में उसकी शिकायत करने के लिये पेट्रोलियम कंपनियों के क्षेत्रीय अधिकारियों के मोबाइल नंबर भी सूचना पर अंकित हैं. लेकिन सिर्फ दिखावे के लिये न तो कहीं उपभोक्ता को बिना गैस एजेंसी में दर्जनों चक्कर लगाए सिलेण्डर नसीब हो रहा हैै और न ही बिना चूल्हे के कनेक्शन. खुलेआम गैस एजेंसियों ने २१ दिन में उपभोक्ताओं को गैस सिलेण्डर देने का तुगलकी फरमान जारी कर रखा है सो अलग. उसके बाद भी लगभग गैस ऐजेंसियां उपभोक्ताओं को कम से कम ४०-४५ दिन के पहले गैस सिलेण्डर नहीं दे रहीं. गैस उपभोक्ता परेशान हैं, पूरे नगर में रसोई गैस के लिये बेहाल हुआ जा रहा है. आए दिन दैनिक समाचार पत्रों में गैस एजेंसियों की काला बाजारी से लेकर धांधागर्दी की करतूतें प्रकाशित हो रही हैं. लेकिन पेट्रोलियम कंपनी अधिकारियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही. इनके मोबाइल सिर्फ बजा करते हैं उन पर अगर बात हो जाए तो यह उपभोक्ता की किस्मत वरना लगे रहिये और कॉलर ट्यून सुनते रहिये. हेलो संवाददाता ने जब एक उपींोक्ता को एजेंसी द्वारा ठगे जाने के संदर्भ में अधिकारियों से बात की तो एक बार के बाद दोबारा लागातार कई हफ्तों तक प्रयास करने के बाद भी उनका मोबाइल नहीं उठा. मामला कानपुर गैस सर्विस स्वरूप नगर का है. आइए आपको बताते हैं घटनाक्रम. स्वरूप नगर निवासी ज्योति निगम ने इस गैस एजेंसी से बीती ५ सितम्बर को एक गैस कनेक्शन लिया था. इस दौरान यहां तैनात मैनेजर ने उन्हें गुमराह करते हुए सिर्फ कनेक्शन संबंधित कागज के उनसे १४ सौ रुपये वसूल लिये इतना ही नहीं जब उन्होंने मैनेजर से अपने साथ हुई ठगी की बात की तो वह उल्टा उन्हें जेल भिजवाने की धमकी देने देने लगा. जबकि इंडियन ऑयल कार्पोरेशन के अनुसार कागजों की कोई कीमत नहीं होती. नवीन गैस कनेक्शन की कीमत २१५० रुपये होती हैं जिसमें उपभोक्ता को एजेंसी एक सिलेण्डर रेगुलेटर उपलब्ध कराती है. लिया गया पैसा इसकी सिक्योरिटी मनी के रूप में उपभोक्ता से जमा करवाया जाता है. अपने साथ ठगी होने पर जब ज्योति निगम ने इंडियन ऑयल कार्पोरेशन के विपणन अधिकारी मानवेन्द्र भटनागर से की उन्होंने ज्योंति निगम से एजेंसी संचालक अशोक दयाल से पुन: मिलने की बात कही, इस बार संचालक ज्योति निगम से जबरन चूल्हा खरीदने का दबाव बनाने लगे. ज्योंति निगम ने पूरे मामले से हेलो संवाददाता को अवगत करवाया. हेलो संवाददाता ने जब कार्पोरेशन के विपणन अधिकारी मानवेन्द्र भटनागर से बात की व एजेंसी पर कार्रवाई जाननी चाही तो पहले वह समझौते की बात करने लगे. काफी जोर देने पर वह बोले कार्पोरेशन अपने नियमानुसार एजेंसी पर कार्रवाई तय करेगा. कब, इस बारे में वह चुप्पी साध गये. इसके बाद उन्होंने फोन रिसीव करना बंद कर दिया. मामला लखनऊ स्थित कार्पोरेशन के मंडल कार्यालय के मैनेजर नरेश गेरा के संज्ञान में पहुंचा. इस संवाददाता ने उनको ज्योती निगम के साथ कानपुर गैस एजेंसी द्वारा की गई ठगी व अभद्रता से अवगत करवाया. जवाब में नरेश गेरा ने कहा कि वह मामले की जांच करवाएंगे. दोषी पाए जाने पर एजेंसी को क्या दंड दिया जाएगा? इस पर उन्होंने हेलो संवाददाता को सप्ताह भीतर जानकारी करवाए जाने का आश्वासन दिया. उसके बाद से करीब दो माह बीतने को हैं. आज तक न तो कार्पोरेशन के अधिकारियों ने ज्योति निगम के मामले का निस्तारण करवाया और न ही एजेंसी पर कोई कार्यवाही तय की बल्कि उन्होंने भी इस संवाददाता का फोन रिसीव करना बंद कर दिया. कुल मिलाकर आम गैस उपभोक्ता एजेंसियों की धांधागर्दी से त्रस्त हैं, उसे एक से डेढ़ माह में भी गैस सिलेण्डर उपलब्ध नहीं हो रहा, बिना गैस चूल्हे के कनेक्शन उपलब्ध नहीं करवाया जा रहा. इसके अलावा जमकर काला बाजारी जारी है. ब्लैकमनी देकर हर चीज सहज उपलब्ध है लेकिन कार्पोरेशन के नियमानुसार कुछ भी नहीं. गैस वितरक संघ के महामंत्री भारतोश मिश्रा भी इसे गलत मानते हैं. उनके अनुसार उपभोक्ता को गैस सिलेण्डर लेने के लिये दिनों की कोई बाध्यता नहीं है. जिसको भी उसकी जरूरत अनुसार गैस चाहिये एजेंसी को उसे सिलेण्डर उपलब्ध कराना अनिवार्य है. इसके अलावा चूल्हे को जबरन कनेक्शन के साथ उपभोक्ता को भेडऩा भी गलत है. आप ही बताइये जिम्मेदार सब कुछ जान भी रहे हैं और समझ भी उसके बावजूद गैस एजेंसियों की धांधागर्दी अपने चरम पर है. जिसे देखकर ऐसा लगता है कि गैस उपभोक्ता सेवा के जो दावे पेट्रोलियम कंपनियां करती हैं. वह सब सिर्फ दिखावे के और झूठे हैं. इसके अलावा गैस एजेंसियों की इस धांधागर्दी में कार्पोरेशन अधिकारियों की मूक सहमति भी कहीं न कहीं नजर आती है.1हेलो संवाददाता
सी0 बी0 आई 0
राजनीति की रखैल
बुधवार, 26 मई 2010 राजनीती की मण्डी में सी0 बी0 आइ0 रंडी की ओकात रखती है. पिछले कुछ वर्षों से केंद्र की संप्रग सरकार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के पीछे हाथ-मूंह धोकर पड़ी थी. वहीँ मायावती ने भी कांग्रेस को कोसने में कोई कमी नहीं की थी. फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि सभी विपक्षियों के केंद्र सरकार के विरूद्ध खड़े होने के तुरंत बाद मायावती अचानक पलटा मार कर कांग्रेस के पक्ष में खड़ी हो गयी और संप्रग सरकार की सभी नीतियों को ठीक बताया.उससे पूर्व भी सन 2007 में परमाणु समझोते में जब सरकार को महसूस होने लगा कि वामपंथी दल इस समझोते में उसका समर्थन नहीं करेंगे तो अचानक मुलायम सिंह ने सरकार के साथ सहमती जता दी, ओर संप्रग सरकार को समर्थन दे दिया। सरकार के साथ सहमती जता दी, और संप्रग सरकार को समर्थन दे दिया.इसी प्रकार बोफोर्स के आरोपी व सोनिया गाँधी के मित्र क्वात्रोची को भी संप्रग सरकार ने क्लीन चिट दे दी.पिछली सरकार में लालू प्रसाद यादव संप्रग सरकार के साथ थे, उनके विरूद्ध कई घोटालों के मुक़दमे चल रहे थे तथा फैसला भी आने वाला था कि अचानक उस न्यायधीश का तबादला हो गया जो लालू के केस को देख रहा था. तथा इन्कमटेक्स के ऑफिसरों की मीटिंग में सारा का सारा मामला ही ढीला कर दिया गया. लालू को संप्रग सरकार के समर्थन का इनाम मिल गया.ये सारे के सारे मामले यूं तो देखने में अलग अलग है, किन्तु इनमे दो बातें कॉमन हैं.1..संप्रग सरकार 2..सी0 बी0 आइ0 उपरोक्त सभी मामले संप्रग की सरकार में सी0 बी0 आई0 के हवाले थे. देश में कोई भी घोटाला हो तो सी0 बी0 आई0 से जांच कराने की मांग उठती है. जनता समझती है कि सी0 बी0 आई0 निष्पक्षता से जांच करेगी. किन्तु क्या कभी ऐसा होता है?सी0 बी0 आई 0 के एक पूर्व निदेशक का कहना है कि क्वात्रोची को क्लीन ची देना बिल्कुल गलत था क्योंकि उसके विरूद्ध पूरे पुख्ता सबूत सी0 बी0 आइ0 के पास मोजूद थे। अभी हाल ही में उन्होंने यह भी कहा है कि सी0 बी0 आई0 अपने से कुछ भी तय नहीं कर सकती है . किस मामले को दबाना है, तथा किस को गर्माना है , यह सब सरकार ही करती है. अब देखिये उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री मायावती को आय से अधिक संपत्ति रखने के आरोप में पहले सी0 बी0 आई0 से कहलाया गया कि उसके खिलाफ पूरे सबूत हैं. लेकिन मायावती के संप्रग के पक्ष में बोलते ही सी0 बी0 आई0 ने कह दिया कि केस में कोई दम ही नहीं है.यही 2007 में मुलायम सिंह यादव व उसके परिवार के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. परमाणु समझोते में वामपंथियों के सरकार के साथ नहीं रहने पर मुलायम ने सरकार का समर्थन किया और जिस कोंग्रेसी नेता ने इनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति रखने की सी0 बी0 आई0 जाँच की मांग की थी, अपनी याचिका वापस ले ली.वहीं दूसरी ओर सी0 बी0 आई0 लोकप्रिय मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के विरूद्ध कुछ ज्यादा ही सक्रीय नजर आ रही है. गोधरा हत्या काण्ड के बाद के दंगे हों या फिर सोहराबुदीन मुठभेड़ ,गुजरात सरकार व नरेंद्र मोदी को रोज ही घेरा जा रहा है. जबकि पुरे देश को पता है कि सोहराबुद्दीन एक आतंकवादी था तथा दाउद का पुराना सहयोगी रहा है.वहीं छात्तिसगड़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी पर विधायकों की खरीद के पर्याप्त सबूत जुटाने पर भी सी0 बी0 आइ0 उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाई. आंध्र के पूर्व इसाई मुख्यमंत्री पर हजारों करोडो की संपत्ति कहाँ से आई, उसने मंदिरों में आये दान का रुपया चर्चों को दान में क्यों दिया? इन सभी मामलों में सी0 बी0 आई0 कहाँ गायब हो गयी?सी0 बी0 आई0 का जितना दुरूपयोग इन्द्रा गाँधी ने किया, वैसा ही दुरूपयोग यह संप्रग सरकार कर रही है. सरकार का ये कार्य निसंदेह राष्ट्र विरोधी है. सी0 बी0 आई0 का कार्य किस प्रकार होता है यह अपने आप में एक कटु सत्य है. सी0 बी0 आइ0 एक सरकारी संस्था है इसलिए यह सरकार के इशारे पर ही कार्य करती है.स्पष्ट रूप से संप्रग सरकार सी0 बी0 आई0 का दुरूपयोग अपनी सरकार को बचाने में तथा अपने विरोधियों को धुल चटाने के लिए कर रही है .सी0 बी0 आई 0 की स्थिति राजनीती में रखैल की तरह हो गयी है, जिसमें दम है वह उसे अपने पास रख ले. यदि सी0 बी0 आई0 के साख को बचाना है तो उसे स्वतंत्र कार्य करने के लिए छोड़ देना चाहिए. किन्तु क्या हो सकेगा? यह अपने आप में एक यक्ष प्रश्न है. 1 नवीन त्यागी

अंधे को सूरज क्यों..?

मुख्य सतर्कता आयुक्त (सी.वी.सी) का काम होता है केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सी.बी.आई) के काम काज पर निगाह रखना. आज हालत यह हैं कि केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि सीवीसी पीजी थामस २जी स्पे्रक्ट्रम घोटाले की जांच पर निगाह नहीं रखेंगे. २जी स्प्रेक्ट्रम घोटाले की जांच कोई ऐसी वैसी जांच नहीं है. इसकी आंच में सूचना एवं प्रौधोगिकी मंत्री, भारत सरकार ए.राजा की कुर्सी खाक हो चुकी है और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक को इसकी तपिश मं झुलसना पड़ रहा है. २जी स्प्रैक्ट्रम घोटाले को देश का अब तक का सर्वाधिक हिटलरी घोटाला माना जा रहा है. एक ऐसा घोटाला जिसके शोर ने संसद को ठप कर रहा है. पूरा देश भौचक है. अब अगर पीजी थामस ऐसे गंभीर और संगीन मामले की जांच पर निगाह रखने लायक नहीं हैं तो फिर वह कुर्सी पर क्यों...।सभी जानते हैं कि पी.जी. थामस को नियुक्ति समिति ने २-१ के लोकतांत्रिक फैसले के आधार पर कुर्सी पर बैठाया था. तीन सदस्यीय चयन समिति में भाजपा की सुषमा स्वराज नहीं चाहती थीं कि भ्रष्टाचार के आरोप मे सने किसी व्यक्ति की देश की सर्वोच्च निष्पक्ष जांच एजेंसी के आका के रूप में नियुक्ति हो लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी. चिदम्बरम थामस के पक्ष में थे और आज उनकी पक्षधरता उनके ईमानदार किरदार को संदेहास्पद बना रही है. लोग शायद आर्थिक भ्रष्टाचार को ही भ्रष्टाचार मानते हैं जबकि इससे कहीं ज्यादा खतरनाक भ्रष्टाचार होता है भ्रष्टाचारियों का पोषण, मौन समर्थन या निर्णायकों की तटस्थता. जिस तरह पी.जी. थामस की नियुक्ति में केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार के आरोपी की पैरोकार रही और अब सुप्रीम कोर्ट की विपरीत टिप्पणी के बावजूद बजाय गलती मान थामस को पद से हटाने के ना-नुकूर कर रही है. इसे भ्रष्टाचारियों के पोषक के रूप में लिया जा सकता है. साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि बेईमानों की फौज का राजा कोई ईमानदार कैसे हो सकता. और अगर हो भी जाए तो वह ईमानदार कैसे रह सकता है...? खैर...केन्द्र सरकार पर हमेशा से यह आरोप रहा है कि वह सी.बी.आई. को अपने इशारे पर नचाती है. 'थामसÓ की नियुक्ति और अब उसके बचाव में तर्क-कुतर्क गढ़ती केन्द्र सरकार आखिर क्या बता रही है. यही न कि सी.बी.आई ही नहीं बल्कि उस पर नकेल डालने वाला 'पदनामÓ भी उसकी कृपा पर ही रहता है. ऐसे में 'सीबीआईÓ की निष्पक्षता, निडरता और न्यायप्रियता पर कोई कैसे यकीन कर सकता है. सीबीआई केन्द्र सरकार के हाथों की किस कदर कठपुतली है इस पर एक दृष्टि डालना आवश्यक है (देखें संबंधित बात)1

शनिवार, 27 नवंबर 2010

ये बुरके वाली लड़कियां...
इसे फैशन कहा जाये, बचाव कहा जाये या मुंह चुराई..। बाइक पर पीछे बैठी लड़की, जिसका सर और मुंह उसके दुपट्टे से पूरी तरह से ढंका हुआ होता है.. दिखाई पड़ती हैं तो सिर्फ उसकी आंखें और आंखों में इधर-उधर चटक मारती चपलता. पिछले साल-दो साल से शहर में किशोर व युवा लड़कियों में मुंह ढंकने का एक चलन सा सामने आया है. लड़कियां आमतौर पर यह परदा अपनी मर्जी से कर रही हैं. क्या है लड़कियों का नजरिया और लड़कियों के इस भेष पर हम उम्र लड़कियों की टिप्पणियां..। आइये इन्हीं से पूछते हैं...।किरन शर्मा (छात्रा बीटेक)- '' मैं भी अपनी चुन्नी से मुंह ढंक लेती हूं जब-कब. सबसे पहले मैंने तेज धूप व लू से बचने के लिये ऐसा किया था. अब शहर भर में खुदाई के कारण धूल है. कोचिंग से जब दोपहर हास्टल के लिये लौटती हूं तो सर और मुंह ढंक ही लेती हूं धूल से बचने के लिये.ÓÓ किरन की ही तरह अनुजा, रति व कीर्ति भी हैं. लेकिन सविता वर्मा (काल्पनिक नाम) का आंख छोड़ मुंह ढककर बाइक के पीछे बैठना नये जमाने की नयी कहानी बताता है. वह कहती हैं कि मेरा 'ब्याय फ्रें डÓ जब गुरुदेव से चिडिय़ाघर की तरफ उसे घुमाने ले जाता है तो मैं बाइक पर मुंह ढक कर और आंख खोलकर बैठना ही पसंद करती हूं. पहले मैं 'ख्योराÓ में रहती थी. अब बर्रा-४ में रहने लगी हूं. अभी भी पहचान के लोग मिल जाते हैं. इसलिए मुंह पर चुन्नी लपेटना ठीक रहता है. फिजूल की नजरों और सवालों से बची रहती हूं. सविता वर्मा की तरह ही एक नहीं दर्जनों लड़कियां हैं. कुछ तो साफ-साफ कहती हैं कि दोस्तों में मस्ती से घूमने-फिरने के लिये यह परदा बहुत सेफ है. छेड़-छाड़ से भी बचाव होता है और स्किन भी सुरक्षित रहती है. राधिका त्रिपाठी इसे तब और केवल तब ही उचित मानती हैं जब धूप या सर्दी से बचाव की आवश्यकता हो. वरना मटरगश्ती या मौज के लिए आड़ की तरह मुंह चुराकर सड़क पर निकलना नयी पीढ़ी की छवि को खराब करना है. वैसे यह चलन गर्मी लू के थपेड़ों से बचने के लिये चला था जिसका अपनी-अपनी तरह से इस्तेमाल हो रहा है. मीना सिंह कहती हैं कि जब घर वाले सर पर चुन्नी डालने के लिए जोर देते थे तो आधुनिक बनने के चक्कर में लड़कियां जींस-टॉप पहनने में अपना रुतबा समझती थीं और अब मुंह छुपाये घूम रही हैं.. यह केवल देखा-देखी के कारण है. आज कल की सड़कों पर मुंह छुपाये बलखाती लड़कियां मिल जाएंगी. स्वीटी कहती है-अब अगर किसी लड़की को मुंह और सर ढंक कर सड़क पर निकलने में किसी भी तरह की सहूलियत हो रही है तो किसी को कतई एतराज नहीं होना चाहिए. महिला कांनस्टेबल राजश्री इसे कतई अनुचित नहीं मानतीं. लेकिन वह यह भी कहने से नहीं चूकतीं कि टपोरी और सेक्स वर्कर की तरह गुमराह लड़कियां इस वेशभूषा का गलत इस्तेमाल कर रही हैं.1 हेलो संवाददाता

आइना

राहुल बनें नीतीश..!

उत्तर प्रदेश के पास कोई नीतीश कुमार नहीं है. अगर व्यक्ति केन्द्रित आशा को तलाशें तो एक नाम राहुल गांधी का सामने आता है. लेकिन राहुल उत्तर प्रदेश के लिए खुद को नाकाफी मानते होंगे. उन्हें अपने खानदानी रसूक के पैमाने पर यह प्रांत और मुख्यमंत्री की कुर्सी शायद कम मालूम पड़ती होगी. अगर ऐसा नहीं है तो नीतीश कुमार की सलाह कि राहुल पीएम बनने के पहले किसी प्रदेश के सीएम बन जाएं. कांग्रेसियों को फ्रांस की तरह नहीं लगती. जो बात नीतीश ने चुनावी अभियान में बात की बात में कही उसमें बड़ा दम है. उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की सक्रियता से जबरदस्त हलचल है. राहुल प्रदेश में विकास की राजनीति का वादा करते घूम भी रहे हैं. लेकिन खुद प्रदेश के सिंहासन पर विराजकर वादा पूरा करने का दम नहीं दिखा रहे. काश! राहुल खुद को पांच वर्ष के लिए उत्तर प्रदेश के हवाले कर दें तो प्रदेश ही नहीं देश बदल जाये..। मायावती और मुलायम सिंह यादव के मुकाबले कांग्रेस के पास कोई चमकदार चेहरा नहीं है. प्रदेश की कुल कांग्रेस की राजनीति राहुल गांधी के पीछे-पीछे दुम हिलाती ही दिखाई दे रही है. ऐसे में राहुल अगर यूपी के 'सीएमÓ बनने की सोच लें तो बिहार के परिणामों की तरह उत्तर प्रदेश में भी जाति, धर्म और फिजूल की वैमनस्य बढ़ाती जुमलेबाजी को विराम मिल सकता है. लेकिन कांग्रेस और उसके राजकुमार से ऐसी उम्मीद करना शायद बेमानी है. वैसे बिहार चुनाव ने कांग्रेस को आइना दिखा दिया है. बिहार चुनाव ने कांग्रेस को औकात बता दी. जिन विधानसभा हल्कों में राहुल की मीटिंग हुई वहां कांग्रेस चुनाव हार गई. बिहार चुनाव में कांग्रेस के पास कोई एजेंडा नहीं था. लालू के एजेंडे को जनता पहले ही 15 साल देख चुकी थी. अगर कांग्रेस कोई एजेंडा देती तो जनता एक बार विचार करती. बिना सोचे समझे बिहार की जनता को सोनिया और राहुल समझाते रहे. जैसे की उनकी नजर में बिहारी एकदम बेवकूफ हंै. उनकी सारी बातों को आंख मूंद कर मान लेंगे. कांग्रेस ने बिहार चुनावों में आंध्र प्रदेश के विकास का उदाहरण दिया. कहा बिहार का कुछ विकास नहीं हुआ आंध्र के मुकाबले. पांच साल में नितीश ने कुछ नहीं किया. लेकिन ये कहते हुए वे भूल गए कि पहले चालीस साल तक कांग्रेस का ही राज बिहार में रहा, जिसमें जातिवाद समेत कई खामियां बिहार की राजनीति को प्रभावित करती रही. उस चालीस साल में बिजली और सड़क जैसे बुनियादी कामों पर कांग्रेस ने कोई ध्यान नहीं दिया.बिहार की जनता को भय था कि कहीं लालू का जंगल राज न लौट आए. साथ ही भय यह भी था कि कांग्रेस दुबारा जंगल राज को सहयोग देगी. अगर तीस से चालीस सीट आ गई तो कांग्रेस लालू से मिलेगी. पहले भी लालू यादव से कांग्रेस सहयोग करती रही है. यूपीए-1 की सरकार पांच साल तक लालू ने चलायी. कांग्रेस ने खुद कहा कि वे सरकार नहीं बनाने जा रही है. फिर आखिर जब वे सरकार ही नहीं बना रहे है तो कांग्रेस को जनता क्यों वोट दे. कांग्रेस ने चुनावों की रैलियों में संकेत दिया कि वे चुनाव सिर्फ वोटकटवा बनने के लिए लड़ रहे थे. हर पार्टी के गुंडा बदमाश कांग्रेस में जाकर टिकट पा गए. उन्हें जनता ने नकार दिया. कई लोग कांग्रेस से टिकट इसलिए लेकर चुनाव लड़े कि कांग्रेस चुनाव लडऩे के लिए पैसे दे रही थी. पप्पू यादव और क्या आनंद मोहन जैसे अपराधियों की पत्नियों को टिकट दिया गया. अखिलेश सिंह और ललन सिंह जैसे भूमिहार नेताओं को भूमिहारों ने ही धूल चटा दी.कांगे्रस उत्तर प्रदेश में 'जदयूÓ की तरह आम जनता का विश्वास प्राप्त कर सकती है. लेकिन इसके लिए राहुल को राज कुंअर बनकर नहीं नीतीश की तरह लोकसेवक बनकर सामने आना होगा. इसमें क्या संदेह कि मायावती को सर्वाधिक खतरा राहुल से ही जान पड़ता है. मुसलमान, यादव गठजोड़ के दिन वैसे ही लद चुके हैं. फिर भी मुलायम सिंह की ताकत को खारिज करना बेमानी है. राहुल और कांग्रेस अगर २०१० में पूरी ताकत से उत्तर प्रदेश में विकास का एजेंडा लेकर नहीं उतरे तो अधकचरी आशा और विश्वास परिवर्तन को तैयार बैठे जनमानस को छितरा कर रख देगा और अगले पांच साल तक हमें बीते बिहार की तरह देश की मुख्य धारा से कटकर चंगेजी राजनीति को भुगतना पड़ेगा.1 हेलो संवाददाता

बिहार विधानसभा चुनाव-2010
जोकरी के दिन गये..
विशेष संवाददाता
बिहार के चुनाव परिणाम उत्तर प्रदेश के लिए सबक हो सकते है। जिन दिनों बिहार जाति के मकडज़ाल में बुरीतरह कसमसा रहा था उत्तर प्रदेश साम्प्रदायिक उन्माद में राजनीतिक फैसले ले रहा था. बिहार साम्प्रदायिकता के मोर्चे पर उत्तर प्रदेश से हमेशा बेहतर रहा वहीं जातीय राजनीति के लिए एक चौथाई सदी तक अवसरवादियों की प्रयोगशाला बना रहा. जिसका फायदा लालू और राम विलास जैसे दोहरे-तिहरे चरित्र वालों ने खूब उठाया. भला हो नितीश कुमार का जिन्होंने राजनीतिक संवेदना से सर्वथा लबालब रहे बिहार के मर्म को समझा. कर्पूरी ठाकुर, जयप्रकाश नारायण और मण्डल की आत्मा को समझा. जातिगत उत्थान के लिए जाति की गणना जरूरी समझी न कि वोट के लिए और आज नतीजा सबके सामने है. २४३ सीटों वाली विधान सभा में २०६ का आंकड़ा छूकर नितीश और सुशील मोदी ने सभी को चौंका दिया और यह भी बता दिया कि गये दिन जाति और धर्म के नाम पर तमाशा करने के. पानी नाक के ऊपर जा पहुंचा है. अब काम से काम चलेगा. जुमलेबाजी और जोकरी के दिन गये. चुनाव जीतने के बाद नितीश कुमार ने कहा-'' बिहार अब जाति की राजनीति से आगे निकल चुका है. अब काम करने से ही काम चलेगा. हमारी जिम्मेदारी और बढ़ गई है. बिहार के लोगों ने हम पर विश्वास किया है. और हमें विश्वास पर खरा उतरना ही होगा.ÓÓ कायदे से अब बिहार के बाद उत्तर प्रदेश का नम्बर है. बिहार की तरह ही उत्तर प्रदेश को भी क्षेत्रीय क्षत्रपों विशेषकर मुलायम सिंह यादव और मायावती ने बरबाद कर दिया है. खुलेआम नौकरियों में सरकारों ने भ्रष्टाचार किया है. भर्तियों में मंत्रियों ने उगाहियां की हैं. ये रिश्वत देकर भर्ती लोग जब सरकारी सेवाओं में होंगे तो क्या दशा होगी आम सार्वजनिक सेवाओं की. लाखों की रिश्वत देकर भर्ती हुआ सिपाही वर्दी पहनकर लूट करेगा या लूट रोकेगा? बिहार अगर ताजा चुनाव परिणाम के बाद विकास की राजनीति की राह पर वापस लौट पड़ा है तो अब उत्तर प्रदेश ही सर्वथा जातीय पिछड़ेपन की राजनीति के दलदल में शेष रह गया है. यूपी को भी बिहार के बड़े भाई की भूमिका में लौटना होगा. लोग कहते हैं. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. लेकिन इतिहास गवाह है कि सकल परिवर्तन हमेशा एक व्यक्ति के अतिरिक्त जोखिम से ही संभव हुआ है. बिहार में यह काम नितीश कुमार ने कर दिखाया. उम्मीद करनी चाहिए कि उत्तर प्रदेश में भी विकास रथ लेकर कोई आगे आएगा जिसके पहिए के नीचे अगड़ा-पिछड़ा, दलित-सवर्ण सब राह की खाद बनजाएंगे . उत्तर प्रदेश की दशा वर्तमान में बिहार से कई गुना गई बीती है. यहां पार्टियां टिकट बेंचती हैं? सरकारें नौकरी बेंचती हैं? कोई भी सरकारी फाइल बिना रिश्वत के सरकती ही नहीं. यहां वही चोरी में लिप्त है जिस पर चोरी रोकने की जिम्मेदारी है. राजनीतिक विद्वेष से आम आदमी तक पहुंचने वाली राहत बीच में ही डकार ली जाती है. ऐसे में भगवान बुद्घ और जयप्रकाश नारायण की धरती ने देश को संदेश दिया है. बिहार में ढाई प्रतिशत की आबादी वाले कुर्मी जाति के नीतीश कुमार सर्वजात के नेता बन गये. जिला का जिला साफ हो गया. विरोधी दलों को सीट नहीं मिली. जाति की जाति ने नीतीश को वोट दिया. महिला सशक्तिकरण ने बिहार की ही नहीं देश की राजनीति बदल दी है. चुनावों से ठीक पहले हंग असेंबली की बात की जा रही थी. पटना में खद्दरधारी नेताओं की जबान नितीश के विरोध में थी. ये सारे जबान व्यक्तिगत हितों से ग्रसित थे. कई शहरों के कुछ प्रमुख अड्डों पर बैठकबाजी करने वाले खद्दरधारी नेता, नीतीश को गाली देते थे. बटाई बिल का बहाना लेकर. लेकिन बटाई बिल से पीडि़त लोगों ने भी वोट दिया. कहा बटाई बिल पता नहीं, पर रात को गांव में सो तो रहे है. खेती तो आराम से कर रहे है. चुनाव से ठीक पहले कुछ कांग्रेसी खुश थे, हंग असेंबली होगा. चलो इसी बहाने राष्ट्रपति शासन लागू होगा. ये वही लोग थे जिनके व्यक्तिगत हितों को नीतीश कुमार ने पूरा नहीं किया था. जिला या ब्लाक स्तर पर जिनकी दलाली नहीं चली थी. लेकिन इससे अलग आम जनता की सोच थी. उन्हें सुरक्षित जीवन चाहिए था. गांवों तक बढिया सड़क की जरूरत थी. बढिय़ा स्वास्थ्य सेवा चाहिए थी. नीतीश ने इसे कर दिखाया. अस्पतालों में दवाइयां मिलनी शुरू हो गई थीं. डाक्टर हास्पिटल में बैठने लगे थे. गांव तक सड़क बन गई थी. लोगों को गुंडागर्दी टैक्स से मुक्ति मिल गई थी. व्यापारी बिन भय के देर रात तक दुकान खोल सकता था. ट्रेन से उतर देर रात अपने घर जा सकता था. यह नीतीश कुमार के पहले पांच साल की उपलब्धि थी. बिहार का चुनाव परिणाम देश की राजनीति बदलेगा. राज्य की अस्मिता से अलग, जाति की अस्मिता से अलग विशुद्व चुनाव था विकास की राजनीति पर. भ्रष्टाचार मुद्दा था, पर 2 जी स्पेक्ट्रम, कामनवेल्थ ने बिहार के भ्रष्टाचार को पीछे ढकेल दिया था. आजादी के पचास साल बाद लोगों को गांवों में सड़क देखने को मिली थी. गांव की महिलाएं सुरक्षित घर से बाहर शौच के लिए निकल पा रही थीं. ये महिलाएं हर जाति की थी. क्या भूमिहार, क्या राजपूत, क्या कहार, क्या कोयरी, क्या कुर्मी, क्या दलित, क्या यादव. हर जाति की महिला की इज्जत आबरू बची. अब अगला लक्ष्य बिहार की जनता ने नीतीश को दे दिया है. बिहार की जनता पिछले पचास सालों से बिजली से मरहूम है. अगले पांच सालों में बेहतर बिजली, बेहतर शिक्षा और बेहतर रोजगार का प्रबंध नितीश कुमार करेंगे. यह जनता की उम्मीद है. बिहार के चुनाव परिणाम ने क्षेत्रीए दलों की प्रासंगिकता को बरकरार रखा है. भाजपा को बेशक बेहतर सीट मिली है. पर जद यू ने अपने प्रदर्शन को पहले से काफी बेहतर कर बता दिया है कि कांग्रेस का विकल्प के तौर पर अभी भी गैर कांग्रेसवादी राजनीति जिंदा है. दो दलीय प्रणाली से अलग क्षेत्रीय दल अभी जिंदा रहेंगे. नीतीश की मायावती और मुलायम सिंह के लिए सीख है. यह शिवसेना के लिए भी एक सीख है. ये उन सारे राजनीतिक दलों के लिए सीख है जो वंशवाद, गुंडाराज, पैसे के खेल से ग्रसित हैं. नीतीश की जीत बताती है कि उतर प्रदेश जैसे राज्य में अभी भी मायावती और मुलायम सिंह प्रसांगिक हो सकते हैं. बशर्ते वे सिर्फ विकास और जनता की बेहतरी के लिए बात करें. मायावती के लिए एक जबरजस्त सीख है. ढाई प्रतिशत की आबादी वाले कुर्मी नीतीश सर्वजात के नेता हो गए बिहार में. फिर मायावती क्यों नहीं सर्वजात की नेता हो सकती हैं. मायावती भी सर्वजात की नेता हो सकती हैं विकास की बात कर. मुलायम सिंह भी सर्वजात के नेता हो सकते हैं विकास की बात कर. पैसे के मोह और वंश का मोह ये नेता छोड़ें. जनता की मोह की बात करेंगे. जनता इन्हें हाथों हाथ उठाएगी.1

शनिवार, 20 नवंबर 2010

नारद डाट काम
आदर्श घोटाले
कमलेश त्रिपाठी
घोटालों की एक तासीर होती है ये हमेशा आदर्श लोगों द्वारा घटित होते हैं और करने का तरीका भी आदर्श ही होता है. जब सड़क पर कोई लड्डू फूटता है, तो उसे सारे आवारा कुत्ते मिल बांटकर खाते हैं. इसे हम सहकारिता का सिद्घांत भी कह सकते हैं. ऐसे मोदकों के भक्षण के लिये नेता, अफसर, नेवी एयर फोर्स, सेना सब मिलजुल कर अपने काम को अंजाम देते हैं. एक राजा भाई थे, इतना बड़ा खेल खेला कि अंकगणित, रेखागणित और बीजगणित सब फेल हो गई. कसम प्रदूषित गंगा मइया की जब से मैंने उनके घोटाले का आकार सुना मैंने कई बार उसे अंकों में बदलने की कोशिश की लेकिन अभी तक नतीजा सिफर हो आया. इसे विधि की विडम्बना ही कहा जायेगा कि मैं अभी तक उसका अंकीकरण नहीं कर पा रहा हूं और वो आराम से पचा गये. जिस देश में सैनिकों के ताबूतों और कारगिल के शहीदों ने नाम पर मुद्रानोचन हो रहा हो उसे आगे बढऩे से कोई नहीं रोक सकता. दरअसल भारत दुनिया में नम्बर तीन की आर्थिक शक्ति बनने की तरफ बढ़ रहा है. ये तभी सम्भव है जब यहां के नेता, अफसर, दल्ले सबके सब अपने आप में बड़ी आर्थिक शक्ति बन जायें. ऐसा बनने के लिये नौकरी की पगार या कोई कारोबार मददगार साबित नहीं हो सकता है. इसके लिये तो लम्बा हाथ मारना पड़ेगा. ऐसे में लम्बे आदर्श घोटाले करना मजबूरी है. इस मामले में मुझे हंसी तब आई जब जयललिता मैडम ने राजा साहब को निकालने पर खुद समर्थन देने की बात कही. अभी तक एक राजा को झेलते-झेलते देश कंगाल बन गया, अब रानी को कैसे झेल सकता है. सांपों और नागों के इस गठबंधन में विष से बचना बेहद मुश्किल है. कुछ समय पहले सिंगापुर में भी भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया था कि आम जनता सड़कों पर उतर आई. अब हालात बेहतर हैं. बाबा रामदेव भी नाक से हवा घसीटने के साथ भ्रष्टाचार से लडऩे के उपाय भी बता रहे हैं. उन्हें उम्मीद है कि अपनी बीमारों की सेना से इन लडघड़ों को आइना जरूर दिखायेंगे. आगे-आगे देखिये क्या होता है, फिलहाल तो ये मुंहनुचवे देश को बकरे की टांग समझ चबाये जा रहे हैं. आर्ट आफ लिविंग
हैविंग ए वाइफ इज ए पार्ट आफ लिविंग. बट लिविंग बिद वाइफ एंड हैविंग ए गर्लफे्रंड इज आर्ट आफ लिविंग.1
प्रथम पुरुष
आधुनिकता के पैमाने
डा. रमेश सिकरोरिया
म स्वयं को आधुनिक कहलाने के अधिकारी तभी हैं, जब हम वैसा आचरण करते हों. इसके लिये हम खुद को निम्नलिखित कसौटियों पर कस सकते हैं-१. सभी व्यक्ति बराबर हैं, उन्हें जातियों या समाज की बराबरी से न जोड़ें२. सभी जातियों/समाज को अपनी पहचान रखने का अधिकार है. उनकी संस्कृति को कायम रखने के लिए सरकार सहायता करे, परन्तु उनके धार्मिक क्रार्यक्रम या प्रचार के लिए नहीं.३. प्रत्येक जाति या समुदाय के प्रत्येक व्यक्ति को सच्चा नागरिक होना चाहिये.४. चुनावों या अन्य माध्यम से संरक्षक या आश्रयदाता और उनके ग्राहक/अश्रित की व्यवस्था पैदा न होना, क्यू में खड़ा होना सभ्य न होने की निशानी है.५. भूत और परम्पराओं से मुक्त होकर विवेक को अपनाना जाया चाहिये.६. प्रतिष्ठानों, संस्थाओं और विभागों पर जन साधारण का पूरा विश्वास होना चाहिये. आस्पतालों के कुछ डाक्टर पर नहीं, स्कूलों के केवल कुछ शिक्षकों पर नहीं, बैंको में केवल मैनेजर पर नहीं, न्यायालयों में केवल कुछ जजों पर नहीं अपितु सभी पर विश्वास होना आवश्यक है.७. अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के अधिकारों में समानता होनी चाहिये.८. शिक्षा, स्वास्थ्य भोजन की सुरक्षा सबको मिलनी चाहिये.९. सहमति प्राप्त करने के लिए सोच बदलने का प्रयास होना चाहिये न कि बल का प्रयोग. अफवाहों पर विश्वास करने के पहले उसके प्रमाण मांगे.१०. अनजानों और जाने- पहचानों के साथ समान व्यवहार करें, गलत कार्य या दुव्र्यवहार पर चुप न रहे. विकलांगों के लिये अपशब्द का प्रयोग न करें. किसी को लूला, लंगड़ा, अन्धा, गूंगा न कहें, उन्हें सम्मान और पूरा अधिकार दें. बलात्कार की गई स्त्री को अपनायें और उसको पूरा सम्मानजनक जीवन दें. बलात्कारी को समाज का शत्रु समझें उसको अपने अपराध को महसूस कराये, घूस देना-घूस लेना बराबर के अपराध हंै. गरीबों के अपराध के कारण ढंूढ़े कि कही वे अपराध जिन्दा रहने के लिए मजबूरी में तो नहीं कर रहे है. बच्चों का शोषण न करें उनको अपने बच्चे जैसा जीवन दें.1
चौथा कोना
प्रेम प्रकाश का तबादला निकला दिव्या का इंसाफ?
डीआईजी प्रेम प्रकाश के गायब होते ही शहर के अखबारों से दिव्या मांगे न्याय का शोर भी गया. हिन्दुस्तान और आई-नेक्स्ट अखबार को यह ध्यान रखना होगा कि 'फालोअपÓ केवल अखबारों में ही नहीं चलता आम पाठ में भी चलता है. इसीलिए अगर वाकई दिव्या प्रकरण में 'सीबीसीआईडीÓ की जांच से सुपरिणाम हासिल करने हैं तो जिस तरह से प्रेम प्रकाश के तबादले से पहले तक इन दोनों अखबारों ने अपनी विशिष्ट मुहिम चला रखी थी उसे आगे भी जारी रखें. पिछले कुछ दिनों से ये दोनों अखबार दिव्या की मां का 'बैंक एकाउण्ट और उसमें सहायता राशि जमा करने, कराने की जानकारी भी नहीं दे रहे हैं. मीडिया पर विशेष रूप से हिन्दुस्तान और आई-नेक्स्ट के बारे में यह चर्चा भी आम रही कि दोनों अखबार 'डीआईजीÓ के व्यक्तिगत कोप की प्रतिक्रिया में हमलावर थे. इस पर दोनों अखबारों को आपत्ति रही. लेकिन जब तबादले को मुहिम की सफलता के रूप में विज्ञापित किया गया तो इसका अर्थ क्या निकला? हिन्दुस्तान ने साफ लिखा कि प्रेम प्रकाश का तबादला उसकी जीत है. जबकि प्रेम प्रकाश के तबादले में हिन्दुस्तान की जीत नहीं है. हिन्दुस्तान की जीत दिव्या के असली बलात्कारी को सींखचों के पीछे जाने तक अब पल-पल की जानकारी देने में है. दोस्तों, अखबार न पुलिस है, न ही न्यायालय लेकिन यह पुलिस और न्यायालय का जबरदस्त दोस्त हो सकता है. वह भी तब जब तीनों अपने-अपने छोर पर सही ठंग से काम करें. जब पुलिस लीपापोती करेगी और मीडिया हंगामा तो न्याय मुश्कल हो ही जायेगी. मीडिया की मजबूरी है कि उसके कमान में 'हंगामाÓ नामक तीर ही अमोध शास्त्र है. यही उसकी ताकत है. इसमें क्या संदेह कि अगर मीडिया ने हंगामा न खड़ा किया होता तो आज की तारीख में 'मुन्नाÓ दिव्या के बलात्कार का गुनहगार स्थापित हो गया होता. जबकि अब तक की जांच से ऐसा साबित होता नहीं लगता. पुलिस निकम्मी हो चुकी है, बेईमान हो चुकी है, नैतिकता खो चुकी है. क्योंकि रिश्वत देकर वर्दी पाने वाले हमारी सुरक्षा में तैनात जो होने लगे हैं. रही बात मीडिया की तो उसके दामन पर भी पैसा लेकर विधिवत खबरें छापने का एक ऐसा कलंक लग चुका है जिसके बाद किसी भी तरह की हरिशचंदी और पृथ्वीराज चौहानी समझ में नहीं आती.1 प्रमोद तिवारी
बिल्डर उड़ाते हैं नियमों की धज्जियां
उ०प्र० फ्लैट्स एक्ट २०१० के अनुसार प्रत्येक वह भवन, जिसमें चार से अधिक फ्लैट बने हों, उसे कई विभागों से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना होता है और ऐसे भवन ही इस एक्ट की सीमा में आते हैं. इस एक्ट के अनुसार भूमि की वैधता नक्शे की स्वीकृति के साथ ही उसकी ऊँचाई के लिए नगर के हवाई एक्ट को भी मानना होता है. विद्युत और अग्शिमन विभागों का भी इन भवनों के निर्माण के पूर्व अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना अनिवार्य होता है. ऐसे भवनों राजस्व के सभी विभागों की निगाहों में निर्मित होते हैं. कहा जा सकता है कि कोई भी बहुमंजिल आवासीय भवन चुपके से नहीं बन सकता. सूत्र बताते हैं कि कानपुर में १४ मंजिल तक ऊँची इमारतें है. बिल्डर सदैव इन्हें (+१) के नियम के तहत स्वीकृत कराता है और सदैव एक मंजिल कम करके बनाता है, जिसे वह जब चाहे तब बना व बेच सके. शहर में १४-१५ बड़े व ३०-३५ छोटे बिल्डर्स हैं. और लगभग १५० से अधिक ६ मंजिल से अधिक की इमारतें हैं, जिनमें हजारों लोग रह रहे हैं. कानपुर विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष रामस्वरूप अवैध बिल्डिंगों का निर्माण रोकने के लिए अपनी तैयारी बताते हैं, कि पूरे नगर को चार जोनों में बांट दिया गया है. मूलगंज के पास एक बिल्डिंग के निर्माण को रोक दिया गया है. लेकिन ऐसे भवन निर्माता शमन शुल्क जमाकर अपने अवैध निर्माण को नियमित करा लेते हैं. उनका कहना है कि बहु मंजिली आवासीय भवनों को कई स्तरों पर जांच के दायरे में आना पड़ता है और बिना कानूनी प्रक्रिया पूरी किए उसका निर्माण संभव नहीं है. के.डी.ए के सूत्र बताते हैं कि मूल नक्शा व तैयार बिल्डिंग के अन्तर को ठीक कराने के नाम पर वसूला जाने वाला शमन शुल्क ही वह खेल है, जिसके बहाने अवैध निर्माण को वैध करार दे दिया जाता है. कोकाकोला चौराहे पर बनी बिल्डिंग सालों साल जिस आधार पर अवैध थी, अचानक ही वैध घोषित हो जाती है. इसी प्रकार की अन्य घटनाएं भी हैं, जो केडीए उपाध्यक्ष की बयानबाजी की पोल खोलती हंै. कभी किसी निर्माण क्षेत्र को सील करना फिर बाद में पुन: कार्यकारी कर दिया जाना वह कृत्य है जिससे केडीए के रसूख में कमी आई है और भवन निर्माताओं में भय नहीं रह गया है. शहर में कई प्रमुख चौराहों पर इन आवासीय परिसरों के विज्ञापन देखे जा सक ते हैं. कानपुर नगर के जिलाधिकारी मुकेश मेश्राम कहते हैं कल्याणपुर क्षेत्र कभी नगरीय सीमा में नहीं था, किंतु अब इन आवासीय योजनाओं का प्रसार सर्वाधिक इसी क्षेत्र में हो रहा है. किसान खेत खलिहान और तालाब बेचने में लगा है. बिल्डर इस क्षेत्र में ग्राम समाज की जमीनों को भी तेजी से हड़पते जा रहे हैं. सभी सरकारी विभागों को आदेश दिया गया है कि वे अपनी सरकारी जमीन का चिन्हींकरण कर सीमा बनाएं, जिससे उस पर अवैध कब्जे होने से रोका जा सके. जिन जमीनों पर कब्जे हो गए हैं, वे अवश्य ही खाली कराए जाएंगे चाहे कब्जेदार कितने ही ताकतवर क्यों न हों.1हेलो संवाददाता

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

नये-पुराने मौत के आशियाने

विशेष संवाददाता

दिल्ली के लक्ष्मीनगर इलाके के ललिता पार्क हादसे ने देश के उन तमाम नगरों व महानगरों के जर्जर व गिराऊ मकानों को हिलाकर रख दिया है, जो कभी भी जमींदोज हो सकते हैं. बावजूद इसके नगरों व महानगरों में रहने को मजबूर लोग कभी भी भरभरा कर बैठ जाने वाली खण्डहरनुमा इमारतों में गुजर-बसर करने को मजबूर हैं. पिछले सालों में हालसी रोड पर जब उम्र पार कर चुके एक मकान ने अपना दम तोड़ा था, तो उसके साथ-साथ चार जिन्दगियां भी दफन हो गई थीं. उस समय नगर-निगम और नगर प्रशासन ने शहर को आश्वस्त किया था कि कभी भी गिरने की हालत में खड़े जर्जर या खण्डहरनुमा भवनों का ध्वस्तीकरण किया जायेगा. लेकिन जैसा कहा गया वैसा कुछ हुआ नहीं. जबकि हालसी रोड के हादसे के बाद नगर निगम ने शहर के घने और पुराने इलाकों में लगभग ३०० मकान ध्वस्तीकरण के लिए चिह्नित किये गये थे. लेकिन वे सारे के सारे चिह्न केवल चिह्न बनकर ही रह गये. एक भी मकान इस दौरान नहीं गिराया गया. यह बात है पुराने मकानों की. जरा शहर में बनने वाली बड़ी-बड़ी बहुमंजिली इमारतों की भी हकीकत समझ लीजिए, जो कम खतरनाक नहीं हैं.सबसे पहले तो यह जान लें कि कानपुर महानगर भूकम्प क्षेत्र-२ में आता है. दूसरी बात यह कि शहर में तमाम इमारतें तालाबों और झीलों के मिटे अस्तित्व पर तनी खड़ी हंै. तीसरी बात यह कि कानपुर गंगा किनारे बसा है और यहां की तटीय मिट्टी दलदली और नम है, जिसपर बहुमंजिली इमारतों का बनना हमेशा खतरे की घंटी ही है. फिर भी शहर के प्रशासनिक अधिकारी राजनैतिक पहुंच वाले इन बिल्डरों के समक्ष अत्यन्त कमजोर साबित हो रहे हों. ऐसे में सरकारी ट्रस्ट और वक्फ की जमीनों पर नजरें गड़ाए बैठे इन बिल्डरों की बन आई है. गरीब और आम शहरी एक अदद छत की तलाश और आस में इनकी चाल में फंसता जा रहा है. जिसे फ्लैट खरीदने के बाद भी कई तरीकों से समय-समय पर लूटा जाता रहता है, पर उसके पास विकल्पों की कमी होने के कारण उनमें शेष है. सबसे अधिक खतरा तो ऐसी बहुमंजिली आवासीय इमारतों का है जो कि दिल्ली के ललिता पार्क की तरह कभी भी ढह सकती हैं.कानपुर नगर की सीमा में स्थित तालाबों की संख्या में अत्यन्त कमी आई है और कहा जा सकता है कि ये सभी समाप्त हो चुके हैं. इतिहासकार मनोज कपूर कहते हैं कि मछरिया झील, झकरकटी झील, नौरैया खेड़ा की झील, टटिया की झील, ख्यौरा की झील सहित आठ बड़ी झीलें समाप्ति की कगार पर हैं. पोखरपुर, नौबस्ता, लाजपत नगर कोपर गंज आदि झीलों और तालाबों पर बसे ऐसे मुहल्ले हैं, जिनकी नीव पूर्व में झील की जमीन पर बनी है. वे आशंका जताते हैं कि दलदली और नम क्षेत्र में बनने वाली बहुमंजिल इतमारतों की नीवें अत्यन्त कमजोर साबित हुई हैं जबकि कानपुर भूकम्प क्षेत्र में जोन-२ में आता है. ऐसे में सरकारी विभागों व अधिकारियों की मिली भगत से इन बिल्डरों ने मकानों की अनदेखी करते हुए निर्माण कराए हैं. किसी भी बड़ी दुर्घटना के लिए वे ही जिम्मेदार होंगे.गंगा के किनारे बसे कानपुर के पाश कहलाने वाले मुहल्ले तिलक नगर, सिविल लाइन्स, स्वरूप नगर, आजाद नगर, अशोक नगर में प्रत्येक पुराने बंगले और बी.आई.सी. की सम्पत्तियों पर इन भवन निर्माताओं की नजरें हैं. पेड़ों की अवैध कटान के कारण पर्यावरण को भी क्षति पहुंचाई जा रही है. नगर के प्रशासनिक अधिकारियों की संवेदनहीनता की स्थिति यह है कि जन सूचना अधिकार का प्रयोग कर शहर में तालाबों की संख्या व स्थिति जैसे प्रश्नों के उत्तर मांगने पर सामाजिक एवं आर.टी.आई कार्यकर्ता अरविन्द त्रिपाठी को सूचना न देकर कानपुर तहसीलदार ने उन बिल्डरों में से एक को सूचना अवगत कराई. जिससे श्री त्रिपाठी कहते हैं कि इस पूरे मामले में सरकार के कानों में जूं तभी रेंगेगी जब कोई बहुत बड़ा हादसा होगा. सरकार एक बड़े हादसे का इंतजार कर रही है. इन बहुमंजिली आवासीय इमारतों के निर्माण व भू-गर्भ जल के अंधाधुंध दोहन के कारण जलस्तर में तेजी से गिरावट आ रही है. यदि यही क्रम जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं, जबकि गंगा के किनारे रहने-बसने वाले हम लोग प्यासे रह जाएंगे. इन बिल्डरों ने अब दक्षिण कानपुर कहलाने वाले किदवई नगर, जूही, साकेत नगर, पशुपति नगर, नौबस्ता, रतनलाल नगर, पनकी, श्याम नगर आदि में भी अपना काम तेजी से बढ़ाना शुरू कर दिया है. सामुदायिक अधिवास विकास के नाम पर मिलने वाली सैकड़ों छूटों का प्रयोग कर इन बहुमंजिली आवासीय इमारतों का निर्माण किया जा रहा है. बहुत शीघ्र किसी दुर्घटना के घटित होने के बाद कानपुर नगर में भी अवधपाल सिंह जैसे का नाम सुर्खियों में होगा, तब नियमों के आधार पर ही निर्माण करने की स्वीकृति देने की दुहाई देने वाले केडीए उपाध्यक्ष सहित अन्य विभाग जवाब देही तय न कर सकेंगे.1

नारद डाट काम
पीपी की टींटीं
कमलेश त्रिपाठी
तो हो गई भइया, अब वो आनन्देश्वर छोड़ बाबा विश्वनाथ को प्यारे हो गये हैं कुल मिलकर दबंगई वहीं चलेगी. जाने वाला तो चला जाता है लेकिन छोड़ जाता है अपनी यादें कुछ कड़वी और कुछ मीठी. जहां तक मीठी का सवाल है तो पी पी के खानदान में किसी ने आज तग शक्कर नहीं खाई है. इनके यहां ब्रेक फास्ट नीम चढ़े करेले से होता है और रात्रि भोज में लाल मिर्च फांकते हैं कुल मिलाकर सब कुछ कड़वा ही है तो ऐसे में मीठे की बात कही नहीं जा सकती है. भगवान कृष्ण जब मथुरा से गये तो उनके वियोग में गोपिकाओं का बुरा हाल था. जब उद्घौ जी गोपिकाओं को समझाने गये तो खुद भी पगला गये थे और पहली बार प्रेम का मर्म समझ पाये थे. शहर के कद्रदानों उनके जाने से शहर की कुछ तितलियों का बुरा हाल है. उन्होंने फूलों पर बैठना बंद कर दिया है अपने पंख सिकोड़ राख बनने की तैयारी है. भाई मैं तो कहता हूं बनना चाहिए भी, बिना पिया काहे की सुहागिन अब कौन उनके रूप को निहारेगा और कौन बलइंया लेगा? जब पीपी थे तो क्या बात थी? बिना वर्दी के रूप का जलवा था पास पड़ोस के लोग बिना बात जाघिंया गीला कर लेते थे, इलाके का थानेदार पर्सनल टॉमी की तरह दुम हिलाता रहता था. एक रात में सब कुछ बदल गया पूरा चमन उजड़ के कन्डील बन गया है. एक बेचारी जो कैन्ट के मधुवन में पाई जाती हैं उनका सबसे बुरा हाल है उनके चक्कर में मोहल्ले के ४-६ दबंगों से पंगा ले लिया था. अब उनके जाने के बाद वही दबंग नीम की हरी शन्टी लिये मौके की ताड़ में हैं मिलते ही सौ-पचास से कम क्या जड़ेंगे.शहर के कुछ पत्रकारों की मांग भी सूनी-सूनी लग रही है उनके रहने पर बिना बात की रंगबाजी करते थे. नाश हो हिन्दुस्तान अखबार वालों का जिन्होंने छाप-छाप के उन्हें शहर से विदा करवा ही दिया. अब अपनी पीठ खुद ठोंक रहे हैं. इन लोगों को तितलियों तक का ख्याल नहीं आया बेचारी अपनी दुर्दशा पर घड़ों पानी बहा रही हैं. ऊपर से एक हेल्प लाइन और बना रखी है. अब जब ये तितलियां तुम्हारी कसो लाइन पर रो-रो के अपना हाल सुनायेंगी तो क्या तुम उनके पीपी को दोबारा यहां ला पाओगे? एक दिव्या के पीछे तुमने आधा दर्जन से ज्यादा दिव्याओं का दिल दुखाया है तुम्हें नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी. ख्ैर तुम्हें घबराने की कोई बात नहीं तुम्हें तो स्वर्ग जाना है और वहीं तुमको पीपी मिलेंगे. फिर नहीं स्वर्ग तुम्हें नर्क जैसा लगेगा, इसलिये किसी के श्राप या ताप से डरने की कोई बात नहीं है. छोटा दरोगा- बड़े दसे- साहब एक ट्रक स्काच पकड़ी है.बड़ा-छोटे से- अबे गधे एक ट्रक नमकीन और सोना और पकड़.

खरीबात

यह तो अपनी खाज खुजलाने जैसी बात

प्रमोद तिवारी

अब किसी को भी किसी तरह के मुगालते में नहीं रहना चाहिए क्योंकि व्यवस्था और उसके पालनहार बेशर्मी का लाबादा ओढ़ चुके हैं. ऊपर से कमाल यह है कि हम इस बेशर्मी में भी अपनी आस्थाएं, हित और विश्वास को बनाये रखने की अफलातूनी कोशिश करके सिद्घ-प्रसिद्घ बने रहते हैं. प्रेम प्रकाश का तबादला यहां अखबारों में ऐसे प्रस्तुत किया गया मानो उन्हें कानपुर की सुरक्षा व्यवस्था के प्रति घोर लापरवाही, बेईमानी और हिटलरी बरतने के बदले दण्डस्वरूप हटा दिया गया है. खबर की यह प्रस्तुति खुद में मियां मि_ू बनने या अपनी खाज खुजलाने जैसी हरकत है. जिस दिन कानपुर में नये डीआईजी अशोक मुथ जैन प्रेस को संबोधित कर रहे थे, उसी दिन प्रेम प्रकाश बनारस सरकिट हाऊस में वहां के प्रेस को बता रहे थे कि अब कानपुर के बाद बनारस की बारी है. प्रेम प्रकाश कानपुर से इसी पद और मान के साथ बनारस भेजे गये और बनारस के अशोक मुथ जैन को कानपुर बुलाया गया. यह सरकार की नितांत रुटीन तबादला कार्यवाई हुई न कि कानपुर में प्रेस से पंगा लेने पर किसी 'आईपीएसÓ के खिलाफ दण्डात्मक कार्रवाई. प्रेम प्रकाश कानपुर के कोई पहले हेकड़ कप्तान नहीं थे. अभी मुलायम सिंह यादव की रिजीम में यहां लगभग इसीतरह के एक किरदार रामेन्द्र विक्रम सिंह को भी शहर ने झेला था. रामेन्द्र विक्रम सिंह ने शहर में पत्रकारों के एक गुट विशेष को पूरी छूट दे रखी थी और बाकी को तकरीबन जूतियों की नोंक पर टेक रखा था. उस दौर में प्रेम प्रकाश से पीडि़त कई पत्रकार रामेन्द्र विक्रम सिंह के एजेंट के रूप में दलाली किया करते थे. रामेन्द्र विक्रम सिंह से भी पहले... कई वर्ष पहले यहां डीएन सांवल नाम के बड़े कप्तान (एसएसपी) आये थे. कोई भ्रष्ट वजह से तो नहीं लेकिन कुछ हेकड़ी में और कुछ खुद को मुख्यमंत्री का खासमखास समझने की गलत फहमी में वह भी अखबार वालों से टकराये और पूरे शहर ने एक अप्रतिम आंदोलन को देखा. अभी तक प्रशासन और पत्रकारों के बीच टकराव का वैसा तीखा अनुभव कानपुर शहर के पास नहीं है. इन तीनों महा कप्तानों में एक समानता रही और यह समानता रही मुख्यमंत्री के अति निकट व पि_ू होने की, डीएन सांवल तत्कालन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के बड़े चहेते थे. रामेन्द्र विक्रम सिंह मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के अनुज शिशुपाल सिंह के बहुत विश्वासी थे. और प्रेम प्रकाश के बारे में कहा जाता है कि उन्हें बहन जी के भाई और परिवारियों का पूरा न सिर्फ समर्थन है बल्कि वह एक तरह से उनके गांव-घर के ही हैं. इसतरह कहा जा सकता है कि कानपुर में जो भी मुख्यमंत्री का करीबी पुलिस वाला कप्तानी करने आता है वह प्रेस से जरूर टकराता है. जहां तक मुलायम सिंह यादव और मायावती की बात है तो ये दोनों हस्तियां कानपुर शहर से बहुत खार खाती हैं. कारण कि यहां भीड़ और जाम के शहर में न तो साइकिल चल पाती है और न ही हाथी दौड़ पाता है. तो क्या यह समझा जाये कि शहर की राजनीतिक नाराजगी को यहां का पत्रकार भुगतता है? बिल्कुल... यहां का पत्रकार अब राजनीतिक खुन्नस का शिकार होता है. वैसे भी जबसे पेड न्यूज को सार्वजनिक रूप से पत्रकारिता व्यवसाय की ताजा आवश्यकता माना जाने लगा है, समूची पत्रकारिता ने निष्पक्षता और ईमानदारी का अपना मूल आधार खो दिया है. ऊपर से कानपुर में पत्रकारिता का कुल मतलब होता है दैनिक जागरण. क्योंकि कानपुर जागरण की नाभि है और उसके पास पाठकों में अकेले दम इतना असर है जितना बाकी के अखबार मिलकर भी पैदा नहीं कर पाते. फलस्वरूप कानपुर में पत्रकारिता और पत्रकारों की दशा-दिशा इसी अखबार की रीति-नीति, उन्नति-अवनति, विचार-व्यवहार से बरबस ही संचालित होती है. प्रेम प्रकाश का जागरण से उलझना और उलझ कर भी पूरी ठसक के साथ कुर्सी पर जमे रहना हर क्षण कानपुर के पत्रकारों की जड़ों में रिसता तेजाब सरीखा ही रहा. शहर की पूरी पुलिस पत्रकारों को सबक सिखाने के मूड में रही. जहां तक अखबारों से राजनीतिक खुन्नस की बात है तो जागरण पिछले दो दशकों से राजनीतिक रूप से एक पक्ष विशेष का अखबार माना जाने लगा है. पहले स्व. नरेन्द्र मोहन जी के भाजपा सांसद होने के कारण और फिर श्री महेन्द्र मोहन जी के सपा सांसद बनने के कारण. यही मुलायम सिंह एक समय जागरण के खिलाफ हल्ला भी बोल चुके हैं. और मायावती तो खैर मीडिया से ही खार खाये रहती हैं. ऐसे ही अन्य अखबारों के भी मालिकान भी अपनी-अपनी राजनीतिक निष्ठाएं रखते हैं. और जब विपरीत निष्ठा की सत्ता होती है तो उसके कोप भाजक बनते हैं. राष्ट्रीय सहारा को समय-समय पर मुलायम सिंह की करीबी का खामियाजा भुगतान करना पड़ता है. अभी तक का तो अनुभव यही है कि राजनीतिक सांठ-गांठ से अखबार के मालिकानों को भले ही करोड़ों-अरबों का वारा-न्यारा होता हो, लेकिन उसके इस बाजारू रुख से सड़क पर घूमने वाला पत्रकार सड़क छाप आवारा सरीखा हो गया है. वरना किसकी मजाल थी कि सुबह से शाम तक २० रुपये से लेकर २० लाख रुपये तक की खुली रिश्वतखोरी में लिप्त रहने वाली पुलिस अखबार के दफ्तर में घुसकर पत्रकारों के सामने डंडा लहराये. यह सब कानपुर में हुआ जिसे प्रदेश के अखबारों की सबसे बड़ी मंडी माना जाता है. जिसे गणेश शंकर विद्यार्थी का भी नगर होने का गौरव प्राप्त है. 1

हम तो पुजारी हैं पूजेंगे

विशेष संवाददाता

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भारत दौरा बेहद 'स्टाइलिशÓ रहा. युवाओं को उनका हर अंदाज पसंद आया. उनकी चाल, उनके डायलॉग, उनकी क्या मस्ती, उनकी जिंदादिली सब कुछ है. ओबामा आये भी शायद यंगिस्तान को ही रिझाने थे. उनका जय हिंद कहना, चांदनी चौक का जिक्र करना. महात्मा गांधी को अपना आदर्श बताना. सब कुछ था भी 'वेल रिटर्न स्क्रिप्टÓ की तरह. कतिका कहती हैं- ''हां, यार! ओबामा इज गे्रटÓ वैसे तो किशन लाल की गांधी से अधिक श्रृद्घा अपने करोबार पर है और ओबामा से अधिक डर अपनी पत्नी का है. लेकिन पिछले दिनों न तो उनका कारोबार आड़े आया और न ही पत्नी का 'डरÓ. सुबह नौ पैंतीस पर वे राजघाट जा पहुंचे. पूछने पर बोले मत्था टेकने आये हैं गांधी की समाधि पर. अच्छा बड़ी अगाध श्रृद्घा है गांधी पर. लेकिन आज तो यहां १०.२० पर ओबामा आ रहे है...? वह बोले, पता है, लेकिन उनके जाने के आधा घंटा बाद राजघाट खुल जायेगा. ओबामा के बाद सबसे पहले हम मत्था टेकेंगे. किशन लाल ने ऐसा पहली बार नहीं किया. जब जार्ज बुश आये थे जब भी उन्होंने ऐसा ही किया था. वैसे किशन लाल कभी राजघाट नहीं जाते, और तो और अपने बच्चों को भी उन्होंने कभी राजघाट की सैर नहीं कराई. लेकिन जब भी कोई अमरीकी राष्ट्रपति गांधी समाधि पर आता है तो उन्हें लगता है कि जरूर गांधी कोई चीज है. वरना अमरीका का राष्ट्रपति यहां क्यों आता. अब किशन लाल की श्रृद्घा की तासीर समझने में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए. किशन लाल गांधी को नहीं 'ओबामाओंÓ को मत्था टेकने जाते हैं राजघाट. हम भारतीय इसतरह प्रमाण देते हैं कि हम दुनिया में आज भी नम्बर एक के मूर्ति पूजक हैं. हमारा श्रृद्घा भाव 'कर्मकांडेÓ के वशीभूत है. 'कर्मकांडÓ पंडों के हाथों निहित होता है. और पंडे कभी कमाई का मौका नहीं छोड़ते हैं चाहे उसकी शक्ल मीडिया की हो, राजनेताओं की हो, व्यापारियों की हो या दलालों की. इन दिनों भारत में आम राय जिसे हम सामान्य राय कहें तो ज्यादा बेहतर होगा. बनाने या बिगाडऩे का काम मीडिया करता है. हमारे निर्णय मीडिया से बुरीतरह प्रभावित होते हैं. मीडिया अगर राई को पहाड़ बनाने पर उतर आये तो बनाकर ही छोड़ता हे. सामूहिक तौर पर जब एक स्वर में मीडिया बोलता नजर आता है तो उसमें और शेयर दलालों के सक्रिय गिरोहों में कोई फर्क नहीं रह जाता. दो कौड़ी की राखी को ये मीडिया दो करोड़ का ब्राण्ड बना देता है. पूरे देश की मिठाई को ऐन दिवाली पर जहर बताकर घर-घर चॉकलेट और कुरकेरे बिकवा देता है. यह किशन लाल का जो जिक्र किया गया है वह यूं ही नहीं है. ओबामा ने भले ही गांधी के सामने मत्था टेका हो लेकिन हम गांधी के देशवासी तो किसी बुश या ओबामा को ही मत्था टेकना पसंद सकते हैं. हमें भी हमारा गांधी तब गांधी नजर आता है जब कोई अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष उसे महान कह देता है. और भला किशनलाल को क्यों दोष दें? पूरा देश ही क्या ओबामा को मत्था नहीं टेक रहा है? मुंबई उतरते ही पहले प्रशासन ने मत्था टेका, इस बात को जानते हुए भी ओबामा के प्रशासन ने भारत में आकर उनका अपमान कर दिया है. फिर भी प्रोटोकाल के नाम पर महाराष्ट्र ने मत्था टेका. उसके बाद मुंबई के व्यापारियों ने मत्था टेका. छोटे भैया अनिल अंबानी ने सगर्व घोषणा की कि वे अमेरिका की जीई कंपनी से 700 मिलियन डॉलर का समझौता करके ओबामा को भरोसा दिलाया कि वे अमेरिका को आर्थिक मंदी से डूबने नहीं देंगे और दिल्ली मुंबई के मीटरों में गड़बड़ करके आम आदमी से जो वसूली की जाती है उसका बड़ा हिस्सा वे अमेरिका की आर्थिक समृद्धि को बनाये रखने के लिए खर्च करेंगे. बदले में अनिल अंबानी को प्रसाद रूप में ओबामा से बात करने और बगल में बैठने का मौका मिल गया. फिर रतन टाटा ने मत्था टेका. मुकेश अंबानी ने मत्था टेका. मुंबई की पूरी व्यावसायिक बिरादरी ओबामा के आगे बिछ गयी. लेट गयी. पसर गयी. अभी तक अमेरिका प्रशासन निवेश करके मत्था टेकने के लिए भारतीय प्रशासन को मजबूर करता था अब उन उद्योगपतियों को अपने यहां पैसा लगाने के लिए बुलाकर मत्था टेकने को मजबूर करता है जो भारत के आम आदमी का खून पीकर लाल होने का दावा करते हैं.वहां से ओबामा दिल्ली आये तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एयरपोर्ट जाकर मत्था टेका. ऐसा करना मनमोहन सिंह की कोई प्रोटोकाल वाली मजबूरी नहीं थी लेकिन प्रशासनिक सेवाओं में रहते हुए मनमोहन सिंह ने न जाने कितने लोगों को एयरपोर्ट पर रिसीव किया होगा इसलिए उन्हें इस बात का अहसास रखने की जरूरत महसूस नहीं हुई कि अब वे प्रधानमंत्री हैं. बुश की तर्ज पर ओबामा ने भी बाएं हाथ से मनमोहन सिंह के कंधे को वैसे ही दबाया और उनका हाल चाल लिया. फर्क सिर्फ इतना था कि बुश ने मनमोहन का कंधा अमेरिका में दबाया था और ओबामा ने भारत में आकर वह कर्म कर दिया. मुंबई में अगर व्यावसायिक तौर पर ओबामा ने जीत हासिल की और देकर नहीं बल्कि हमसे लेकर हमारे ऊपर अहसान लाद दिया तो दिल्ली में दस्तक देते ही कूटनीतिक तौर पर उन्होंने संदेश दे दिया कि भारत अमेरिका के लिए कितना महत्वपूर्ण है.फिर भी हमारे मत्था टेकने की मानसिकता हमें यह सोचने का वक्त ही नहीं देती कि बतौर एक देश हमें किसी दूसरे देश के सामने कैसा व्यवहार करना चाहिए?1

चौथा कोना
एक और गधे की कहानी
प्रमोद तिवारी
पिछले दिनों मैंने आप लोगों को पंचतंत्र की एक कहानी 'धोबी और गधाÓ यह कहकर सुनाई थी कि पंचतंत्र का गधा अब पूरी तरीके से प्रेस तंत्र का हो गया है. मेरे एक मित्र हैं, मित्र क्या हैं मित्रता के नाम पर कबाड़ी हैं. व्यवसाय उनका पत्रकारिता है, जिसे उन्होंने पेशा बना लिया है. प्रेसतंत्र का गधा पढऩे के बाद उन्हें लगा कि मैंने उन्हें ही धोबी का गधा बना दिया है. बड़े नाराज दिखे. अब अगर नाराज हो ही गये हैं, तो इस बार फिर एक गधे की कहानी सुनें. यह कहानी मैंने कई दिन पहले सुनी थी सिद्घार्थ जोशी से. सो अब इसे अपने पत्रकार दोस्तों को सुना रहा हूं.. विशेष रूप से अपने कबाड़ी पत्रकार दोस्त को.गांव में एक धोबी के पास एक गधा था. उस धोबी के घर के पास एक सूखा हुआ गहरा कुआं था. रोजाना गधा कुएं के पास से गुजरता. एक दिन गधा कुएं में गिर गया. उस समय धोबी घाट पर था. गधे की किसी ने सुध नहीं ली. वह शाम तक कुएं में गिरा कहराता रहा. शाम को मालिक घर आया तो उसने देखा कि गधा कुएं में गिर चुका है. अड़ोस पड़ोस के लोग एकत्रित हो गए. सबने मिलकर निर्णय किया इन घरों के बीच खुदा हुआ यह सूखा कुआं खतरनाक हो सकता है, सो इसे भर दिया जाए. गांव वालों ने मिट्टी लाकर कुएं में डालनी शुरू की. यह गधा कृष्ण चंदर के गधे की तरह इंसानों की बातों को समझने वाला था. बस इसमें अधिक अक्ल यह थी कि कभी इंसानों की बोली नहीं बोलता था. उसने सुना कि उसे जिंदा दफन करने की तैयारी हो रही है. पहले पहल तो वह गधा खूब रेंका और अपनी ही भाषा में चिल्लाता रहा कि हरामखोर धोबी मैंने जिन्दगीभर तेरी गुलामी की, तू उसकी यह सिला दे रहा है. लेकिन गधे की बात किसी ने नहीं सुनी. कुएं को भरना शुरु कर दिया गया. जैसे जैसे कुएं में मिट्टी गिरती गई गधा चतुराई से मिट्टी के ढेर पर चढ़ता रहा. घण्टों की मशक्कत के बाद गांव वालों ने कुएं को मिट्टी से भर दिया. ढेर पर चढ़ता हुआ गधा भी ऊपर तक आ गया. अपने गधे को सुरक्षित देख मालिक चिल्लाया कि मेरा गधा वापस आ गया. लेकिन अब तक गधे का मन भी फिर चुका था. उसने अपने ही मालिक को दुल्लती मारी और बोला कौन सा मालिक? कैसा मालिक? मुझे तो तुम कुएं में ही दफन कर रहे थे. ऐसा कहकर गधा चला गया और मालिक देखता रह गया. इस गधे को कहीं और नहीं इस स्तम्भ के लेखक के रूप में भी देख सकते हैं. कुछ गधे अब भी बड़े संस्थानों में काम कर रहे हैं. जब वे कुएं में गिरेंगे तो उन्हें निकालने के बजाय उन पर मिट्टी ही डाली जाएगी. 1
नारद डाट काम

पुलिस का डॉगी

कमलेश त्रिपाठी

गैर जानकारों के लिये सूचनार्थ: पुलिस में कुत्ते भी होते हैं. इनका कार्य सूंघ - सूंघ कर चोर उचक्कों का पकड़वाना होता है. पिछले हफ्ते पुलिस का एक कुत्ता झुण्ड बनाकर घूमने वाले आवारा कुत्तों से टकरा गया. आपस में खूब भौंका -भौंकी हुई. पुलिस का कुत्ता बोला- अबे साले! अवारा कुत्तों, शहर में धारा-१४४ लगी हुई है. और तुम लोग सार्वजनिक स्थान पर ५ से ज्यादा संख्या में इक_े होकर एक निरीह कुतिया के पीछे पड़े हो.अभी तुम्हारे पिछवाड़े पर एक लात मारकर हवालात की हवा खिलवाता हूं. आवारा कुत्ते तो आवारा ठहरे. बोले, सुन बे पुलिस के पालतू डॉगी! हम तेरे अरदब में आने वाले नहीं हैं. अपनी खलीफाई थाने में ही दिखाना. जहां तक एक सिंगल कुतिया का सवाल है, तो हम लोगों के यहां भी इंसानों की तरह मादा भ्रूण का कत्ल किया जा रहा है. कुछ दिन बाद आदमियों की भी यही दशा होने वाली है. एक के पीछे दर्जनों टहलेंगे. आपस में बतियाते-बतियाते पुलिस के कुत्ते और सड़कछापों में प्रेम भाव जाग्रत हो गया. कुत्तों के झुण्ड ने पुलिस वालेसे कहा यार तुम्हारी एक बात समझ नहीं आई. हर घटना के बाद घूम फिरकर तुम थाने में आकर क्यों खड़े हो जाते हो? अरे मूर्खों आवारागर्दी करते -करते तुम लोगों की अक्ल मारी गई है. हम लोग पुलिसवालों से इतर सही तफ्तीश करते हैं. न तो हम लोग रिश्वत खाते हैं और न ही गलत काम करते हैं. दरअसल हर जुर्म का केन्द्र पुलिस थाना ही होता है तो मुझे न चाहकर भी वहीं खड़े होना पड़ता है. अच्छा दोस्त एक बात बताओ जैसे हम लोग सड़कों पर पत्तेचाटी करते हैं तुम्हे तो शानदार खाना जैसे गोश्त रोटी बिरयानी सब मिलता होगा. शुरूआती दौर में तो मिलने वाले भोजन से मैं सन्तुष्ट रहता था लेकिन अब मुझे भी पत्तेचाटी की लत लग गई है. यह इस विभाग की महिमा है जैसे पुलिस की पगार कितनी भी बढा दी जाए, ये ऊपर का माल खाये बगैर गुजारा नहीं कर सकते हैं. अच्छा एक बात बताओ रिटायर होने के बाद तुम क्या करोगे? तुम्हारे झुण्ड में शामिल होकर कामशास्त्र में निपुणता हासिल करूंगा. चूँकि पुलिस में ऐसी कोईव्यवस्था नहीं है. थोड़े समय के बाद आवारा कुत्तों ने देखा कि एक मरियल खजहा टाइप का बिरादरी वाला सामने से आ रहा है. थोड़ी देर बाद पंूछ नीचे दुबकाये सामने आकर खड़ा हो गयाऔर बोला आज मुझे स्वर्ग और नर्क में फर्क पता चल गया है. अब किसी भी जन्म में पुलिस की नौकरी नहीं करूंगा. योग गुरू रामदेव इन दिनों कुछ सरके हुए लग रहे हैं, कहते हैं कि भ्रष्टाचारियों को फंासी दो. अरे बाबा जल्लाद और रस्सी दोनों कम पड़ जायेंगे लेकिन इनकी कमी नहीं पड़ेगी.1