शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

नये-पुराने मौत के आशियाने

विशेष संवाददाता

दिल्ली के लक्ष्मीनगर इलाके के ललिता पार्क हादसे ने देश के उन तमाम नगरों व महानगरों के जर्जर व गिराऊ मकानों को हिलाकर रख दिया है, जो कभी भी जमींदोज हो सकते हैं. बावजूद इसके नगरों व महानगरों में रहने को मजबूर लोग कभी भी भरभरा कर बैठ जाने वाली खण्डहरनुमा इमारतों में गुजर-बसर करने को मजबूर हैं. पिछले सालों में हालसी रोड पर जब उम्र पार कर चुके एक मकान ने अपना दम तोड़ा था, तो उसके साथ-साथ चार जिन्दगियां भी दफन हो गई थीं. उस समय नगर-निगम और नगर प्रशासन ने शहर को आश्वस्त किया था कि कभी भी गिरने की हालत में खड़े जर्जर या खण्डहरनुमा भवनों का ध्वस्तीकरण किया जायेगा. लेकिन जैसा कहा गया वैसा कुछ हुआ नहीं. जबकि हालसी रोड के हादसे के बाद नगर निगम ने शहर के घने और पुराने इलाकों में लगभग ३०० मकान ध्वस्तीकरण के लिए चिह्नित किये गये थे. लेकिन वे सारे के सारे चिह्न केवल चिह्न बनकर ही रह गये. एक भी मकान इस दौरान नहीं गिराया गया. यह बात है पुराने मकानों की. जरा शहर में बनने वाली बड़ी-बड़ी बहुमंजिली इमारतों की भी हकीकत समझ लीजिए, जो कम खतरनाक नहीं हैं.सबसे पहले तो यह जान लें कि कानपुर महानगर भूकम्प क्षेत्र-२ में आता है. दूसरी बात यह कि शहर में तमाम इमारतें तालाबों और झीलों के मिटे अस्तित्व पर तनी खड़ी हंै. तीसरी बात यह कि कानपुर गंगा किनारे बसा है और यहां की तटीय मिट्टी दलदली और नम है, जिसपर बहुमंजिली इमारतों का बनना हमेशा खतरे की घंटी ही है. फिर भी शहर के प्रशासनिक अधिकारी राजनैतिक पहुंच वाले इन बिल्डरों के समक्ष अत्यन्त कमजोर साबित हो रहे हों. ऐसे में सरकारी ट्रस्ट और वक्फ की जमीनों पर नजरें गड़ाए बैठे इन बिल्डरों की बन आई है. गरीब और आम शहरी एक अदद छत की तलाश और आस में इनकी चाल में फंसता जा रहा है. जिसे फ्लैट खरीदने के बाद भी कई तरीकों से समय-समय पर लूटा जाता रहता है, पर उसके पास विकल्पों की कमी होने के कारण उनमें शेष है. सबसे अधिक खतरा तो ऐसी बहुमंजिली आवासीय इमारतों का है जो कि दिल्ली के ललिता पार्क की तरह कभी भी ढह सकती हैं.कानपुर नगर की सीमा में स्थित तालाबों की संख्या में अत्यन्त कमी आई है और कहा जा सकता है कि ये सभी समाप्त हो चुके हैं. इतिहासकार मनोज कपूर कहते हैं कि मछरिया झील, झकरकटी झील, नौरैया खेड़ा की झील, टटिया की झील, ख्यौरा की झील सहित आठ बड़ी झीलें समाप्ति की कगार पर हैं. पोखरपुर, नौबस्ता, लाजपत नगर कोपर गंज आदि झीलों और तालाबों पर बसे ऐसे मुहल्ले हैं, जिनकी नीव पूर्व में झील की जमीन पर बनी है. वे आशंका जताते हैं कि दलदली और नम क्षेत्र में बनने वाली बहुमंजिल इतमारतों की नीवें अत्यन्त कमजोर साबित हुई हैं जबकि कानपुर भूकम्प क्षेत्र में जोन-२ में आता है. ऐसे में सरकारी विभागों व अधिकारियों की मिली भगत से इन बिल्डरों ने मकानों की अनदेखी करते हुए निर्माण कराए हैं. किसी भी बड़ी दुर्घटना के लिए वे ही जिम्मेदार होंगे.गंगा के किनारे बसे कानपुर के पाश कहलाने वाले मुहल्ले तिलक नगर, सिविल लाइन्स, स्वरूप नगर, आजाद नगर, अशोक नगर में प्रत्येक पुराने बंगले और बी.आई.सी. की सम्पत्तियों पर इन भवन निर्माताओं की नजरें हैं. पेड़ों की अवैध कटान के कारण पर्यावरण को भी क्षति पहुंचाई जा रही है. नगर के प्रशासनिक अधिकारियों की संवेदनहीनता की स्थिति यह है कि जन सूचना अधिकार का प्रयोग कर शहर में तालाबों की संख्या व स्थिति जैसे प्रश्नों के उत्तर मांगने पर सामाजिक एवं आर.टी.आई कार्यकर्ता अरविन्द त्रिपाठी को सूचना न देकर कानपुर तहसीलदार ने उन बिल्डरों में से एक को सूचना अवगत कराई. जिससे श्री त्रिपाठी कहते हैं कि इस पूरे मामले में सरकार के कानों में जूं तभी रेंगेगी जब कोई बहुत बड़ा हादसा होगा. सरकार एक बड़े हादसे का इंतजार कर रही है. इन बहुमंजिली आवासीय इमारतों के निर्माण व भू-गर्भ जल के अंधाधुंध दोहन के कारण जलस्तर में तेजी से गिरावट आ रही है. यदि यही क्रम जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं, जबकि गंगा के किनारे रहने-बसने वाले हम लोग प्यासे रह जाएंगे. इन बिल्डरों ने अब दक्षिण कानपुर कहलाने वाले किदवई नगर, जूही, साकेत नगर, पशुपति नगर, नौबस्ता, रतनलाल नगर, पनकी, श्याम नगर आदि में भी अपना काम तेजी से बढ़ाना शुरू कर दिया है. सामुदायिक अधिवास विकास के नाम पर मिलने वाली सैकड़ों छूटों का प्रयोग कर इन बहुमंजिली आवासीय इमारतों का निर्माण किया जा रहा है. बहुत शीघ्र किसी दुर्घटना के घटित होने के बाद कानपुर नगर में भी अवधपाल सिंह जैसे का नाम सुर्खियों में होगा, तब नियमों के आधार पर ही निर्माण करने की स्वीकृति देने की दुहाई देने वाले केडीए उपाध्यक्ष सहित अन्य विभाग जवाब देही तय न कर सकेंगे.1

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