रविवार, 7 मार्च 2010

चौथा कोना
नगर सेवा से प्रदेश सेवा की ओर
पांच साल हो गए पांच रुपये में शहर की चौकीदारी करते-करते. अब छठवें वर्ष की तैयारी है. हेलो कानपुर की पांच वर्ष यात्रा में कोई नया अर्थ निकला हो या न निकला हो लेकिन इतना जरूर है कि शहर के अखबारों और गैर सरकारी संगठनों को कानपुर की हेलो (आभा) की चिंता जरूर सताने लगी है और शहर में एक शोर सा उठा है शहर को सजाने, संवारने और बचाने का. हेलो कानपुर का शुभारम्भ इसी उद्देश्य के तहत हुआ था. हमारे प्रकाशन के जो प्रमुख आधार बिन्दु हैं उनमें से एक है-नगर सेवा ही राष्ट्र सेवा है और हम आज भी नगर सेवा में ही राष्ट्र सेवा का सुख प्राप्त कर रहे हैं. यह एक संयोग ही है कि हर साल इन्हीं दिनों जब हम वासंती मौसम में हेलो कानपुर की वर्ष गांठ मनाते हैं तो हमारा मूड होरियाना होता है और हम आपके लिए अखबार के बढ़ते प्रभाव प्रसार के बारे में कोई न कोई नई खबर अवश्य लाते हैं. तो इस बार आपके लिए खबर है कि हेलो कानपुर ने अपने शहर के साथ-साथ अब पूरे प्रदेश पर अपनी नजर दौड़ाने का मन बनाया है. हेलो कानपुर के पाठकों को हमने पांच वर्ष तक यह बताया कि कानपुर वास्तव में है क्या? और अब हेलो कानपुर आपको प्रदेश की नब्ज टटोलकर भी बतायेगा. एक तरह से होली बाद जो अंक आपके सामने होंगे उसे आप हेलो कानपुर उत्तर प्रदेश कह सकते हैं. हमारा यह नया संकल्प महानगरीय पत्रकारिता से प्रादेशिक पत्रकारिता की ओर बढ़ाया जाने वाला पहला कदम होगा. हम जानते हैं कि प्रदेश में निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता करना अब जान बूझकर जलते अंगार पर चलने का संकल्प लेना है लेकिन हम यह संकल्प या दूसरे शब्दों में यह जोखिम उठाने के लिए तैयार हैं. जब शहर से आगे प्रदेश की बात होगी तो निश्चित ही हमें हर जिले में पत्रकारिता को सही अर्थों में समझने वाले पत्रकारों और पाठकों की आवश्यकता भी होगी. प्रथम चरण में हेलो कानपुर ने अपनी टीम बना ली है और अब यह टीम पाठकों की कसौटी पर कसी जायेगी. हेलो कानपुर का महानगरीय पत्रकारिता का अनुभव कोई बहुत चमत्कारिक परिणामों वाला अनुभव नहीं रहा. लेकिन इतना जरूर है कि हमने इन पांच वर्षों में शहर हित में हर वह आवाज उठाई जो बाकी के अखबार या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बूते के बाहर लगी. ऐसा हम इसलिए कर सके क्योंकि हमारी पत्रकारिता में व्यवसायिकता तो है लेकिन धंधेबाजी नहीं है. हमने जितना लिखा सच लिखा या फिर चुप रहे. लेकिन शहर को गलत जानकारी नहीं दी. आपने देखा होगा कि चुनावों में हेलो कानपुर ने प्रत्याशियों से विज्ञापन तो मांगे लेकिन उसकी कीमत पर प्रायोजित प्रशस्ति गान नहीं छापा. फलस्वरूप आज शहर में शायद ही किसी दल का कोई नेता ऐसा हो जिसे इस अखबार की सेहत अच्छी लग रही हो लेकिन हमारे पाठक हमारी इस साफ गोई पर न्यौछावर हैं. इसीलिए बिना किसी एक मुश्त धन उगलने वाले स्रोत के हम छोटे-छोटे विज्ञापनों और ढाई सौ रुपये के वार्षिक सदस्यों की दम पर उतना रास्ता तय कर आये हैं जिसकी कल्पना तो की थी लेकिन विश्वास लडख़ड़ाया हुआ था. आज जब हम हेलो प्रदेश की कल्पना कर रहे हैं तो हमारा अब तक का अनुभव हमारे विश्वास को और मजबूत कर रहा है. अंत में हेलो कानपुर के पाठकों से निवेदन है कि वे नए वर्ष में अपनी सदस्यता का सहर्ष नवीनीकरण करा लें और यदि समाचार पत्र न पढऩा हो तो तत्काल हमें सूचित करें. क्योंकि इस वर्ष कई पाठकों ने सदस्यता नवीनीकरण के समय हेलो प्रतिनिधि को कई-कई बार दौड़ाया ; यह दौड़ भाग हेलो कनपुर वहन करने की स्थिति में नहीं है क्योंकि आज कोई भी काम बिना पैसे के कहां सम्भव है. आप अगर चाहते हैं कि पांच रुपये की चौकीदारी चलती रहे तो दो सौ साठ रुपये निकालकर हाथ में रख लें, हमारा बंदा आता ही होगा.1
प्रमोद तीवारी
खरी बात
बड़ों के पंगे, छोटे नंगे
प्रमोद तिवारी
एक खबर शहर के अखबारों ने परदा डालकर बताई लेकिन शहर ने इस खबर को परदा उठाकर पढ़ लिया. खबर थी एक संभ्रांत व्यवसायी के घर में घुसकर पुलिस का उत्पात. इस खबर को मीडिया ने एक तरह से ठंडे बस्ते में डाल दिया. और मुद्दे को ठंडा करने के लिए एक गरमागरम पुलिस इंस्पेक्टर दिनेश त्रिपाठी को उनके अफसरों ने सस्पेंड करके ठंडा कर दिया. लोग सस्पेंड होकर दु:खी होते हैं लेकिन दिनेश त्रिपाठी इस ससपेंशन को होलिकोत्सव का उपहार मानकर मां विंध्यवासिनी का आशीर्वाद लेने विंध्याचल की पावन भूमि की ओर कूच कर गये हैं. इस पूरे घटनाक्रम में कुछ भी ऐसा नहीं था जिसे छुपाने की जरूरत थी लेकिन कभी-कभी इज्जत के लिए 'इज्जत का फालूदाÓ बनता देखना पड़ता है. यह घटना भी कुछ ऐसी ही थी. आमतौर पर बड़े संभ्रांत परिवारों में चलने वाली पार्टियां आज कल पेज-थ्री स्टाइल में देर-रात से अगली भोर तक चलती ही हैं. इस तरह की पार्टियों में तरह-तरह की 'पावरÓ तोपें होती ही हैं. और जब पार्टी शबाब पर होती है तो घर-परिवार, पास-पड़ोस, मोहल्ला-शहर और नियम-कायदों की अनदेखी हो ही जाती है. गैंजेस मिल परिसर में भी शनिवार-रविवार की रात यही सब कुछ हुआ. गैंजेस नगर रघुनाथ कनौजिया की निजी-रियासत है. उन्हें शायद इसका अंदाजा नहीं था कि उसकी निजता का शोर शहर के नये डीआईजी प्रेम प्रकाश के कानों को चिढ़ा भी सकता है. पार्टी में जारी नशेबाजी ने वहां मौजूद एक-एक व्यक्ति को इस कदर धुत कर रखा था कि उन्हें लगा ही नहीं कि कुछ गड़बड़ हो रहा है. रात तीन बजे अगर कान फोड़ू शोर सड़क पर गुजरते पुलिस अफसर को सुनाई देगा तो पुलिस पूछेगी ही कि भैया, क्या हो रहा है! अब अगर इतने पूछने भर से नशे में धुत गृह लक्ष्मी पुलिस को कुत्ता-कमीना कहेगी तो बात बिगड़ेगी ही. अक्सर देखा गया है कि सत्ता, अधिकार और गुण्डई पर इतराने वाले 'नशेÓ में कुछ न कुछ ऐसा कर ही गुजरते हैं कि बाद में (होश में आने पर) अफसोस और सिर्फ अफसोस ही होता है.इस पूरे घटनाक्रम में दो पहलू ऐसे हैं जिसका हेलो कानपुर चाहकर भी अनदेखी नहीं कर पा रहा है. एक अपने वरिष्ठ अधिकारियों के आदेश-निर्देश पर काम करते हुए भी सस्पेंड होना और दूसरा पुलिस उत्पात की खबर पर मौके पर पहुंचे पत्रकारों को पुलिस की लाठियों का मूक शिकार होना. जहां तक पुलिस इंस्पेक्टर कार्रवाई का प्रश्न है तो वह यह बताने के लिए काफी है कि डीआईजी प्रेम प्रकाश चाहें जितना दम-खम दर्शा रहे हों लेकिन घटना के बाद खुद को बचाने के लिए इंस्पेक्टर त्रिपाठी को बलि का बकरा बनाने में वे पहले के तमाम 'बहादुरोंÓ की ही तरह निकले? वरना, जब उनके ही आदेश पर पुलिस की पूरी छापा मार व लाठी मार कार्रवाई हुई थी तो उनके किसी मातहत की क्या गलती..? मातहत जब गलती कर रहा तो चैन से था..आराम से सो रहा था और जब अपने अफसर के आदेश पर हरकत में आया तो सस्पेंड हो गया. यहां त्रिपाठी के निलंबन की मीमांशा नहीं की जा रही बल्कि यह बताने की कोशिश की जा रही है कि बड़ों के पंगों में छोटों की बलि सदा होती रही है और गैंजेस मिल परिसर में भी अंतत: यही कहानी दुहराई गई.अब आती है घटना के दूसरे पहलू की बारी. और वह यूं है कि पूरे घटनाक्रम में सभी अखबारों ने यह बात शहर से छुपाई कि पुलिस ने उस रात जाने-अनजाने शहर के दो युवा और जाने-मानें पत्रकारों को बुरी तरह पीटा. पुलिस उत्पात की खबर पर मौके पर पहुंचे दैनिक जागरण के रिपोर्टर संजीव मिश्र और विवेक त्रिपाठी को भी नहीं बख्शा. संजीव मिश्र पर तो खुद 'डीआईजीÓ ने हाथ छोड़ा. विवेक त्रिपाठी भी पुलिस के 'कहरÓ से नहीं बच सके. रिपोर्टरों पर पुलिस कहर के बाद शहर के मीडिया की खामोशी चीख-चीखकर पूछ रही है कि क्या अब अखबार वाले केवल मार खाने के लिए बचे हैं? आज जागरण के पत्रकार पिटे, इसके पहले गत् वर्षों में दूसरे अखबारों के पत्रकार भी पिट चुके हैं. आगे भी पिटाई की पूरी गुंजाइशें हैं..आखिर कानपुर के मीडिया को लकवा क्यों मारा हुआ है? क्यों नहीं कोई पत्रकार अपने मान-अपमान पर तिलमिलाकर जंग का ऐलान करता. क्यों पत्रकारों का संगठन प्रेस क्लब आगे बढ़कर रोज-रोज अपमानित किये जा रहे मीडिया के लिए बाहें नहीं समेटता. क्यों कोई संस्थान अपने पत्रकार के उत्पीडऩ पर मोर्चा नहीं खोलता...? तो सुनिए! जब अखबार पैसा लेकर खुले आम खबर छापेंगे तो उसका पत्रकार किसी भ्रष्ट इंस्पेक्टर को सीना तानकर बिल्ले नुचवा लेने की धमकी कैसे दे सकता है और अगर देगा तो मार खायेगा..ही. पहले, पत्रकार और पत्र एक सूप होता था और व्यवस्था छलनी. व्यवस्था से जुड़े लोग अपने छेदों के 'डरÓ से सूप की दहाड़ बर्दाश्त कर लेते थे. अब जब मीडिया खुद ही छेददार है तो एक 'छेदीÓ दूसरे 'छिद्दूÓ का लिहाज क्यों करेगा..?इसी तरह पत्रकारों का संगठन प्रेस क्लब जब खुद 'माफियाओंÓ, अधिकारियों और स्वयं-भू पदाधिकारियों के पालन-पोषण, मान-सम्मान की सजावट करने वाला मंच बनकर रह जायेगा, चुनाव न कराकर पूरे पत्रकारों की भावनाओं को कचरा समझेगा, हर वक्त इस जुगत में रहेगा कि किसी तरह सभी पत्रकार एक जुट न होने पायें वरना चुनाव का शोर मचेगा तो ऐसे कमजर्फ चंदाखोर भ्रष्ट पत्रकारों के संगठन से चौथे खंभे की सुरक्षा की उम्मीद कैसे की जा सकती है? स्थिति यह है कि मूल्यों के क्षरण के इस दौर में लगातार क्षरित हो रहे चौथे खंभे के प्रति बाकी सभी स्तंभों की पुरानी सहानुभूति अब प्रतिशोध में बदल चुकी है. वह हर मौके पर 'पत्रकारिताÓ की चटनी बना देना चाहती है. यह चटनी तब तक बनती रहेगी जब तक पत्रकार और पत्र लौटकर मूल्यों और आदर्शों की अपनी पुरानी संहिता पर नहीं आते..!पत्रकारिता अंधी कमाई, ब्लैक मेलिंग, उगाही और गुण्डई का गर्भ गृह बम नहीं हो सकती..! जो लोग ऐसा समझते हैं वे जूते खाने के लिए तैयार रहें..जो संस्कारी और मूल्य प्रधान लोग वेतन और घर गृहस्थी की मजबूरी में इन लोगों के साथ हैं वे रहीम का यह दोहा सदा जेहन में रखें-कह रहीम कैसे निभे केरि-बेरि को संग,वो डोलत रस आपने उनके फाटत अंग।अर्थात संगत का दण्ड उन्हें भी भोगना पड़ेगा. संजीव मिश्रा और विवेक त्रिपाठी के साथ यही हुआ.1

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

ये कुर्सी मैं नहीं छोड़ूंगा?

राजधानी ब्यूरो रमेश चन्द्र
लखनऊ। मायाराज में सुप्रीम कोर्ट व हाइकोर्ट के निर्देश नौकरशाहों के ठेंगे पर है. मुख्यमंत्री के चहेते अफसर नवनीत सहगल अदालत का निर्देश न मानकर पावर कारपोरेशन की सीएमडी की कुर्सी नहीं छोड़ रहे हैं. उन्होंने निर्देशों से बचने के लिए एक जुगत भी बना ली है.बिजली अभियंता के तबादले के एक प्रकरण में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जनवरी 2010 में बसपा सरकार को निर्देश दिया कि वह नवनीत सहगल से एक माह के भीतर सचिव ऊर्जा अथवा अध्यक्ष सह प्रबंध निदेशक में से एक पद हटा दे. अदालत के इस निर्देश से माना जा रहा था कि श्री सहगल जल्द ही सचिव ऊर्जा रहते हुए सीएमडी की कुर्सी छोड़ देंगे. हाईकोर्ट ने यह निर्देश इसलिए दिया था ताकि विभाग में अभियंताओं के तबादले बगैर पक्षपात के हो सकें. मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर विभाग में अभियंताओं के तबादले के लिए एक समिति बनाई गई है, जिसमें सचिव ऊर्जा भी सदस्य होते हैं. नवनीत सहगल द्वारा सचिव ऊर्जा के साथ सीएमडी का पद धारण करने से तबादलों में पक्षपात होने की आशंका बनी हुई है.कारपोरेशन के सूत्रों के मुताबिक 25 जनवरी 2010 को हुई निदेशक मण्डल की बैठक में गुपचुप तरीके से सीएमडी व कारपोरेशन में तैनात अपर प्रबंध निदेशक के अधिकारों में परिवर्तन कर दिया गया है. इस फैसले में कहा गया है कि अब अभियंताओं के तबादले सीएमडी नहीं करेंगे. इनके नियुक्ति अधिकारी अपर प्रबंध निदेशक होंगे और वे ही अभियंताओं के तबादले करेंगे. फैसले में यह भी कहा गया है कि अभियंताओं के समकक्ष अधिकारियों के तबादले भी अपर प्रबंध निदेशक करेंगे. इस फैसले से वर्तमान में कारपोरेशन में अपर प्रबंध निदेशक को तबादले का अधिकार मिल गया है. सूत्रों का कहना है कि हाईकोर्ट के निर्देश के पालन करने के बजाय सरकार अपना जवाब अदालत को भेजने की तैयारी कर रही है. नवनीत सहगल द्वारा सीएमडी की कुर्सी न छोडा जाना चर्चा का कारण बना हुआ है.इस मामले से विभाग के अभियंताओं में खासी नाराजगी व्याप्त हो गई है. अभियंताओं का कहना है कि सीएमडी के अधीन अपर प्रबंध निदेशक के रहने पर भी उनके तबादले बगैर पक्षपात के नहीं हो सकेंगे. भाजपा के पूर्व सांसद भानु प्रताप सिंह वर्मा ने इस प्रकरण पर कडी आपत्ति की है. उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व राज्यपाल बीएल जोशी को भेजे पत्र में इस प्रकरण की जांच कराने व नवनीत सहगल को एक ही पद पर रहने का निर्देश सरकार को देने की मांग की है.


रंगे
लोग
बुरा

नहीं
मानते





अनुराग अवस्थी
‘मार्शल’


यह होली का ही तो रंग है कि अब हम किसी बात का बुरा नहीं मानते. ऐसा लगता है कि बुरा मानना हम जानते ही नहीं. चाहे जिसको जो कह दीजिये कुछ भी. इसीलिए छियासी साल की उम्र में राजधर्म का पालन करते-करते के लिए राजभवन में हम कृष्ण लीला करने लगते हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम राम के देश में कपड़ों की तरह पत्नी बदलते हैं, और फिर पद्म श्री भी पा जाते हैं. थाली से दाल गायब हो जाये, प्याली से चीनी, या ओठ से लाली, किसी को कुछ बुरा नहीं लगता. इसीलिए पूरे शरद पवार पूरी शरद ऋतु में किरकिट के चक्कर में पड़े रहते हैं. सरदार मनमोहन सिंह भी इस को बुरा नहीं मानते. अपोजीशन वाले कीचड़ उछालते रहें तो कौन सा बदरंग हो जायेंगे, उनका तो काम ही है. और महंगाई भी हमारे लिए कीचड़ उछाल का हिस्सा है, इसीलिए दिल्ली में बैठक हो तो कभी माया मेम साहब नहीं जातीं. तो कभी गुरु जी. वर मरे या कन्या हमें तो दक्षिणा से मतलब है चाहे दिल्ली में २६/११ हो या पुणे में हाहाकार हमारा काम तत्काल कीचड़ की चाक चौबंद व्यवस्था करना है. वह भी ऐसा कीचड़ उछलता है लेकिन फिर भी हम बदरंग नहीे करता. इसीलिए अब कीचड़ हमें बुरा भी नहीं लगता है. बुरा लगता तो नेता जी पिछड़ावाद से यादववाद और फिर परिवार वाद के सहारे समाजवाद न लाते. मूर्ति पूजा और मनुवाद की धज्जियां उड़ाते-उड़ाते माया मेम साहब अपनी मूर्तियां न लगवाती. सौ दिन में महंगाई कम करने की बात करने वाली कांग्रेस गांधी जी के बंदरों की तरह आंख, कान, मुंह बंद कर हाथ नहीं बांधती. त्यागी होने का माला जपने वाले भाजपाई पद से न चिपके रहते.बुरा लगता तो संविधान की शपथ लेने के बाद डीजीपी और चीफ सेके्रट्री सुरती न मलते और सुरमा लगाने की तारीफ अपनी ड्यूटी न समझते. तो संसदीय और विधायक निधि से खुले आम कमीशन बाजी बंद हो जाती तो गंगा जी गंदा नाला न बन जाती. रंग, अबीर से आंटे, दाल और सीमेंट से दवाई तक हम मिलावट के महारथी न बन जाते. चोर-चोर मौसेरे भाई. तुम भी करो चोरी, हम भी करें चोरी.यह बुरा न मानने का ही नतीजा है कि दो अक्टूबर को खादी पर विशेष छूट देते हैं और रजाइयों पर वैट भी वसूलते हैं. पहले मेडिकल कॉलेज खोल देते हैं फिर विशेषज्ञ डॉक्टरों की तलाश शुरू करते हैं. स्लॉटर हाउस बगैर लाइसेंस के चलवा देते हैं और दुधारू पशुओं के मांस का निर्यात करते हैं, फिर नकली खोया पकडऩे के लिए छापा भी मारते हैं. गाय, भैंस त्यौहार देखकर दूध नहीं बढ़ा सकती. वह सरकारी इंसान नहीं है कि समीक्षा बैठक के पहले विकास और अपराध के आंकड़े कम ज्यादा कर ले.बुरे को बुरा कहने से अगर बुरा लगा होता तो आज कानपुर गंदगी और प्रदूषण को लेकर देश-विदेश में अपना डंका न पीट रहा होता. अखबार की एक खबर से सुधार हो जाता. जैसे होली के कैमिकली रंगों से त्वचा को बचाने के लिए समझदार लोग सुबह-सुबह कड़ुआ तेल पोत लेते हैं. वैसे ही साल भर उछलने वाले कीचड़ से बचने के लिए हमने अपनी खाल मोटी कर ली है. इतनी मोटी कि गेंडा भी पानी मांग जाये. रंगों से अब हम खेलते नहीं है लेकिन गिरगिट की तरह रंग बदलना हमने सीख लिया है. हमारी मोटी खाल का नतीजा है कि हम थाने में बोर्ड टांगते हैं 'दलालों का प्रवेश वर्जित हैÓ लेकिन दिन भर थानेदार साहब के इर्द-गिर्द दलाल बैठे रहते हैं और शरीफ आदमी खड़ा-खड़ा कांपता है. यह हमारी राष्ट्रीय पहचान है जहां लिखा होता है 'पेशाब करना मना है, हम वहीं धार बांधकर निर्जलीकरण करते हैं. मोटी खाल और रंग बदलने के किसी भी कम्पटीशन में हम कनपुरियों को कोई पछाड़ नहीं सकता इसीलिए गुमटी के फुटपाथ शो रूम बन गये हैं, जरीब चौकी का जाम लाइलाज हो गया है, बर्रा की धूल सदाबहार हो गई है, बिरहाना रोड की बिजली जलने के लिए नहीं जलाने के लिए हो गई है. केडीए कल दुबारा आने के लिए हो गया है. डाकखाना, डाक खाने के लिए बन गये हैं. नगर निगम सभासदों के ठेके लेने का सेंटर बन गया है. हैलट, उर्सला और केपीएम नर्सिंगहोम से जवाब दे दिये गये कंगलों का आश्रय स्थल और मोटी टेंट वाले मरीजों का रिफर सेंटर बन गया है.पुलिस टैम्पो, ट्रैक्टर, ट्रक से वसूली बाली फोर्स बन गई है. अब यह सीधो वसूली, जमीन कब्जे, लूट में शामिल होने लगा है. पुलिस की इस प्रगति ने हमको आदमी से कनचपुआ बना दिया है. पुलिस ने सब धान बाइस पसेरी का ऐसा ल_ चलाया है कि अब थाने जाने से पहले पत्तुरकार साहब चार बार सोंचे कि अब भी इसके बदले में कभी-कभी निलम्बन का इनाम मिलता है. निलम्बन पुलिस वाले की वर्दी में और चमक और आवाज में खनक ला देता है. जैसे गांव गली का चोट्टा छ: मुकदमे के बाद माफिया कहलाने लगता है और उसकी दुकान चल निकलती है.होली तो हो ली-होली का रंग निराला है बेचारी ममता की होली सचिन ने ले डाली. अखबार, चैनल, रेडियो हर स्टेशन पर सचिन का बल्ला दौड़ रहा था और किराया न बढ़ाने के बावजूद ममता की ट्रेन रुकी हुई थी.मैंने प्रेम का प्रकाश फैलाने वाले एक पुलिसकर्मी से पूछा कि होली पर क्या रंग है? बोले भइया द्विज ठीक से हो जाये तो समझो बहन जी की दया है. मैंने एक सरकारी डॉक्टर से पूछा होली पर क्या व्यवस्था है? वे बोले होली तो हो ली फ रवरी की तनख्वाह होली से पहले मिलेगी, हम खुश थे. तनख्वाह बनी उन्तालीस हजार रुपये और इन्कम टैक्स रिटर्न कट रहा है तितालीस हजार रुपये. अब चार हजार कहां से लाऊं, ऐसे में मेरे घर में तो होली हो ली.कोटेदार, ठेकेदार, प्रधान सब ठगे से बेरंग हो रहे हैं, पंद्रह को लखनऊ मे ंरैली है, अपनी तो होली हो ली. गैस एजेंसी की मालिकिन बीना जी से हमने पूछा होली कैसे मनेगी? बोली गैस में रंग होता नहीं है, गंध बहुत दूर तक जाती है.अब एक आम कनपुरिया होली कैसे मनायेगा क्योंकि उसके हिस्से का एक सौ बीस कुन्तल खोया तो पकड़ गया है. चीनी तो चाय में ही कम हो गई है, गुझिया में कैसे पड़ेगी. रंग ने पिछली बार उसको डॉक्टर के यहां दौड़ाकर जेब खाली करा दी थी. इसलिए इस बार गुझिया और गुलाल के बजाय मोबाइल पर एसएमएस भेजकर कहेगा होली तो हो ली.मौका लगा तो अगल-बगल की भाभी से होली मुबारक कह लेगा और सात दिन बाद गंगा मेला में नेताओं से गले मिलकर अगले साल तक अपना गला कटने से बचाने की जुगत में लग जायेगा. अब ऐसे में सरकारों से मैं यह मांग करता हूं कि वे राष्ट्रीय सर्वे शुरू करायें जिसमें यह पता चले कि आखिर क्यों हमको कुछ भी बुरा लगना बंद हो गया है. क्यों हम खबरें लिखते समय तोड़-मरोड़ करते हैं? क्यों हम नाली और फुटपाथ तोड़ लेते हैं? क्यों हम बगैर हेल्मेट के गाड़ी चलाते हैं फिर पुलिस को सौ रुपये देकर बेइमान बताते हैं? क्यों हम घर में रामायण या तकरीर के लिए लाउडस्पीकर लगाकर मुहल्ले की नींद खराब करते हैं? क्यों हम बगैर नक्शे के घूस देकर घर को गेस्ट हाउस बना लेते हैं? क्यों बगैर बिल दिये बिजली जलाते हैं क्यों सड़क पर होली लगाने से पहले दस किलो बालू नहीं डालते हैं? क्यों विदेशी सभ्यता और संस्कृति की आग में अपने संस्कारों और सिद्घांतों की होली जला रहे हैं हम? साहित्य और ज्ञान की अथाह गंगा से दूर होती जा रही नई पीढ़ी की दुनिया एसएमएस में सिमटती जा रही है. जल्दी इसका जवाब न तलाशा गया तो हमारे नैतिक सामाजिक आध्यात्मिक मूल्यों की होली रोज जलती रहेगी और तब न बचेगा परिवार न समाज न राष्ट्र तब कौन मनायेगा होली और कैसे? कीचड़ से ही सही. कौन बतायेगा बच्चों को कि भक्त प्रहलाद कौन था और हिरण्य कश्यप कौन? और क्यों होली जलाई जाती है?