रविवार, 7 मार्च 2010

खरी बात
बड़ों के पंगे, छोटे नंगे
प्रमोद तिवारी
एक खबर शहर के अखबारों ने परदा डालकर बताई लेकिन शहर ने इस खबर को परदा उठाकर पढ़ लिया. खबर थी एक संभ्रांत व्यवसायी के घर में घुसकर पुलिस का उत्पात. इस खबर को मीडिया ने एक तरह से ठंडे बस्ते में डाल दिया. और मुद्दे को ठंडा करने के लिए एक गरमागरम पुलिस इंस्पेक्टर दिनेश त्रिपाठी को उनके अफसरों ने सस्पेंड करके ठंडा कर दिया. लोग सस्पेंड होकर दु:खी होते हैं लेकिन दिनेश त्रिपाठी इस ससपेंशन को होलिकोत्सव का उपहार मानकर मां विंध्यवासिनी का आशीर्वाद लेने विंध्याचल की पावन भूमि की ओर कूच कर गये हैं. इस पूरे घटनाक्रम में कुछ भी ऐसा नहीं था जिसे छुपाने की जरूरत थी लेकिन कभी-कभी इज्जत के लिए 'इज्जत का फालूदाÓ बनता देखना पड़ता है. यह घटना भी कुछ ऐसी ही थी. आमतौर पर बड़े संभ्रांत परिवारों में चलने वाली पार्टियां आज कल पेज-थ्री स्टाइल में देर-रात से अगली भोर तक चलती ही हैं. इस तरह की पार्टियों में तरह-तरह की 'पावरÓ तोपें होती ही हैं. और जब पार्टी शबाब पर होती है तो घर-परिवार, पास-पड़ोस, मोहल्ला-शहर और नियम-कायदों की अनदेखी हो ही जाती है. गैंजेस मिल परिसर में भी शनिवार-रविवार की रात यही सब कुछ हुआ. गैंजेस नगर रघुनाथ कनौजिया की निजी-रियासत है. उन्हें शायद इसका अंदाजा नहीं था कि उसकी निजता का शोर शहर के नये डीआईजी प्रेम प्रकाश के कानों को चिढ़ा भी सकता है. पार्टी में जारी नशेबाजी ने वहां मौजूद एक-एक व्यक्ति को इस कदर धुत कर रखा था कि उन्हें लगा ही नहीं कि कुछ गड़बड़ हो रहा है. रात तीन बजे अगर कान फोड़ू शोर सड़क पर गुजरते पुलिस अफसर को सुनाई देगा तो पुलिस पूछेगी ही कि भैया, क्या हो रहा है! अब अगर इतने पूछने भर से नशे में धुत गृह लक्ष्मी पुलिस को कुत्ता-कमीना कहेगी तो बात बिगड़ेगी ही. अक्सर देखा गया है कि सत्ता, अधिकार और गुण्डई पर इतराने वाले 'नशेÓ में कुछ न कुछ ऐसा कर ही गुजरते हैं कि बाद में (होश में आने पर) अफसोस और सिर्फ अफसोस ही होता है.इस पूरे घटनाक्रम में दो पहलू ऐसे हैं जिसका हेलो कानपुर चाहकर भी अनदेखी नहीं कर पा रहा है. एक अपने वरिष्ठ अधिकारियों के आदेश-निर्देश पर काम करते हुए भी सस्पेंड होना और दूसरा पुलिस उत्पात की खबर पर मौके पर पहुंचे पत्रकारों को पुलिस की लाठियों का मूक शिकार होना. जहां तक पुलिस इंस्पेक्टर कार्रवाई का प्रश्न है तो वह यह बताने के लिए काफी है कि डीआईजी प्रेम प्रकाश चाहें जितना दम-खम दर्शा रहे हों लेकिन घटना के बाद खुद को बचाने के लिए इंस्पेक्टर त्रिपाठी को बलि का बकरा बनाने में वे पहले के तमाम 'बहादुरोंÓ की ही तरह निकले? वरना, जब उनके ही आदेश पर पुलिस की पूरी छापा मार व लाठी मार कार्रवाई हुई थी तो उनके किसी मातहत की क्या गलती..? मातहत जब गलती कर रहा तो चैन से था..आराम से सो रहा था और जब अपने अफसर के आदेश पर हरकत में आया तो सस्पेंड हो गया. यहां त्रिपाठी के निलंबन की मीमांशा नहीं की जा रही बल्कि यह बताने की कोशिश की जा रही है कि बड़ों के पंगों में छोटों की बलि सदा होती रही है और गैंजेस मिल परिसर में भी अंतत: यही कहानी दुहराई गई.अब आती है घटना के दूसरे पहलू की बारी. और वह यूं है कि पूरे घटनाक्रम में सभी अखबारों ने यह बात शहर से छुपाई कि पुलिस ने उस रात जाने-अनजाने शहर के दो युवा और जाने-मानें पत्रकारों को बुरी तरह पीटा. पुलिस उत्पात की खबर पर मौके पर पहुंचे दैनिक जागरण के रिपोर्टर संजीव मिश्र और विवेक त्रिपाठी को भी नहीं बख्शा. संजीव मिश्र पर तो खुद 'डीआईजीÓ ने हाथ छोड़ा. विवेक त्रिपाठी भी पुलिस के 'कहरÓ से नहीं बच सके. रिपोर्टरों पर पुलिस कहर के बाद शहर के मीडिया की खामोशी चीख-चीखकर पूछ रही है कि क्या अब अखबार वाले केवल मार खाने के लिए बचे हैं? आज जागरण के पत्रकार पिटे, इसके पहले गत् वर्षों में दूसरे अखबारों के पत्रकार भी पिट चुके हैं. आगे भी पिटाई की पूरी गुंजाइशें हैं..आखिर कानपुर के मीडिया को लकवा क्यों मारा हुआ है? क्यों नहीं कोई पत्रकार अपने मान-अपमान पर तिलमिलाकर जंग का ऐलान करता. क्यों पत्रकारों का संगठन प्रेस क्लब आगे बढ़कर रोज-रोज अपमानित किये जा रहे मीडिया के लिए बाहें नहीं समेटता. क्यों कोई संस्थान अपने पत्रकार के उत्पीडऩ पर मोर्चा नहीं खोलता...? तो सुनिए! जब अखबार पैसा लेकर खुले आम खबर छापेंगे तो उसका पत्रकार किसी भ्रष्ट इंस्पेक्टर को सीना तानकर बिल्ले नुचवा लेने की धमकी कैसे दे सकता है और अगर देगा तो मार खायेगा..ही. पहले, पत्रकार और पत्र एक सूप होता था और व्यवस्था छलनी. व्यवस्था से जुड़े लोग अपने छेदों के 'डरÓ से सूप की दहाड़ बर्दाश्त कर लेते थे. अब जब मीडिया खुद ही छेददार है तो एक 'छेदीÓ दूसरे 'छिद्दूÓ का लिहाज क्यों करेगा..?इसी तरह पत्रकारों का संगठन प्रेस क्लब जब खुद 'माफियाओंÓ, अधिकारियों और स्वयं-भू पदाधिकारियों के पालन-पोषण, मान-सम्मान की सजावट करने वाला मंच बनकर रह जायेगा, चुनाव न कराकर पूरे पत्रकारों की भावनाओं को कचरा समझेगा, हर वक्त इस जुगत में रहेगा कि किसी तरह सभी पत्रकार एक जुट न होने पायें वरना चुनाव का शोर मचेगा तो ऐसे कमजर्फ चंदाखोर भ्रष्ट पत्रकारों के संगठन से चौथे खंभे की सुरक्षा की उम्मीद कैसे की जा सकती है? स्थिति यह है कि मूल्यों के क्षरण के इस दौर में लगातार क्षरित हो रहे चौथे खंभे के प्रति बाकी सभी स्तंभों की पुरानी सहानुभूति अब प्रतिशोध में बदल चुकी है. वह हर मौके पर 'पत्रकारिताÓ की चटनी बना देना चाहती है. यह चटनी तब तक बनती रहेगी जब तक पत्रकार और पत्र लौटकर मूल्यों और आदर्शों की अपनी पुरानी संहिता पर नहीं आते..!पत्रकारिता अंधी कमाई, ब्लैक मेलिंग, उगाही और गुण्डई का गर्भ गृह बम नहीं हो सकती..! जो लोग ऐसा समझते हैं वे जूते खाने के लिए तैयार रहें..जो संस्कारी और मूल्य प्रधान लोग वेतन और घर गृहस्थी की मजबूरी में इन लोगों के साथ हैं वे रहीम का यह दोहा सदा जेहन में रखें-कह रहीम कैसे निभे केरि-बेरि को संग,वो डोलत रस आपने उनके फाटत अंग।अर्थात संगत का दण्ड उन्हें भी भोगना पड़ेगा. संजीव मिश्रा और विवेक त्रिपाठी के साथ यही हुआ.1

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