शनिवार, 16 जनवरी 2010



टूट गयी दोस्ती?

संकट में पार्टी?


घर में घमासान


अखिलेश यादव चाचा रामगोपाल के साथ अमर सिंह के खिलाफ खुली बगावत कर जब अपनी पत्नी के साथ विदेश यात्रा पर रवाना हो गये तो अमर सिंह को पूरा सीन समझ में आ गया साथ ही यह भी कि अब यादव कुनबे पर मुलायम की पकड़ ढीली हो चुकी है. अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल राजपूत की बेटी हैं. रामगोपाल यादव के बेटे की गोद भराई एक सिख पायलट की बेटी से हुई है. प्रतीक सिंह यादव एक पहाड़ी राजपूत पत्रकार की बेटी से इश्क लड़ा रहे हैं. इसतरह मुलायम कुनबे का यादवों से रोटी-बेटी का संबंध तक खतरे में है .....


मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह की दोस्ती शोले के जय और वीरू से जोड़ी को भी मात देने की स्थिति में थी. राजनीति के सारे सिद्घांत बौने थे. भला कहीं ऐसा होता है कि कोई पार्टी प्रमुख अपने दल में किसी को अपने से ज्यादा ताकतवर बनाये भी और समय-समय पर साबित भी करे. लेकिन पिछले तीन महीने के दौरान ऐसा क्या घटा कि अमर सिंह को एक-दो बार नहीं चार बार सपा से नाता तोडऩे की पेशकश करनी पड़ी. मुलायम सिंह हैं कि अमर को मनाते-मनाते नहीं अघाते दूसरी ओर उनका परिवार है जो फिलहाल अमर सिंह के खिलाफ हल्ला बोले हुए हैं. इस हल्ला बोल से दो बातें स्पष्ट हैं, एक यह कि या तो खुद मुलायम सिंह यादव अब अमर के खिलाफ हो गये हैं या फिर अब उनकी परिवार में पहले जैसी 'वीटोÓ की स्थिति नहीं रह गई. वैसे ये दोनों आधे-आधे सच हैं जिसने मिलकर एक पूरा सच तैयार किया है कि अब अमर और मुलायम के बीच दोस्ती की डोर चुकी है.विस्फोट डाट काम के प्रेम शुक्ल की रिपोर्ट के अनुसार मुलायम और अमर के विघटन पर बहुत सारे विशेषज्ञ अपनी राय रखेंगे. कुछ लोग मुलायम और समाजवादी पार्टी की राजनीतिक श्रद्धांजलि लिख देंगे तो कुछ अन्य विशेषज्ञ अमर सिंह को राजनीतिक श्रद्धा सुमन चढ़ा देंगे. इस राजनीति में कौन मरेगा और कौन बचेगा? यह तो काल और परिस्थिति स्वयं तय कर देगी. इस समय किसी की राजनीतिक श्रद्धांजलि लिखने से ज्यादा महत्वपूर्ण है यह समझना कि दोनों पक्ष अचानक लडऩे क्यों लगे? इस लड़ाई का मूल कारण क्या है?पहले हम मुलायम सिंह के यादव कुनबे की अंदरूनी स्थिति पर नजर डालें. यादव कुनबा जितना अमर सिंह से लड़ रहा है उतना ही उसमें पारिवारिक कलेष भी है. रामगोपाल यादव बनाम शिवपाल यादव, अखिलेश सिंह यादव बनाम धमेंद्र सिंह यादव बनाम प्रतीक सिंह यादव की लड़ाइयांॅ मुलायम के लिए मुश्किल का बड़ा कारण हैं. शिवपाल सिंह यादव पूरे यादव कुनबे के अमर विरोध के बावजूद अमर की बजाय रामगोपाल को अपना दुश्मन नंबर एक मानते हैं. अखिलेश सिंह यादव के लिए अमर सिंह को निपटना जरूरी है, लेकिन उनकी लड़ाई अमर सिंह की बजाय प्रतीक सिंह से ज्यादा गंभीर है. कुछ लोगों का मानना है कि अखिलेश ने अमर सिंह का विरोध भी प्रतीक सिंह के चलते किया है. प्रतीक सिंह यादव मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नीं साधना गुप्ता के पुत्र हैं. साधना को यादव परिवार ने बड़ी मुश्किल से अपने परिवार का अंग माना. वह परिवार प्रतीक सिंह यादव को किसी भी स्थिति में मुलायम का राजनीतिक वारिस स्वीकारने के लिए तैयार नहीं. यादव कुनबे का सबसे बड़ा दर्द है कि अमर सिंह अखिलेश सिंह यादव की बजाय प्रतीक सिंह यादव को ज्यादा प्रमोट करते हैं. विरासत को लेकर मुलायम सिंह यादव के भतीजे धमेंद्र सिंह यादव भी अखिलेश से छत्तीस का आंकड़ा रखते हैं. यादव कुनबे की आपसी लड़ाई से यादव वोट बैंक भी बिखर चुका है. फिरोजाबाद और भरथन में समाजवादी पार्टी की हार के पीछे यादव वोट बैंक का बिखराव अहम कारण है. यादव मतदाता मानने लगे हैं कि अब रोटी और बेटी के मामले में मुलायम सिंह यादव यादवों से किसी भी प्रकार का सरोकार नहीं रखते. जब कभी समाजवादी पार्टी सत्ता में होती है तो उसे उद्योगपतियों का काम ज्यादा प्रिय होता है. सरकारी नौकरियों की भर्ती के मामले में भी शिवपाल सिंह यादव, यादव जाति की बजाय रूपए की जाति ज्यादा पहचानते हैं. रिश्तेदारियों के मामले में भी मुलायम सिंह यादव परिवार ने अगली पीढ़ी में किसी यादव की बेटी को स्वीकार नहीं किया है. अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल राजपूत की बेटी हैं. बीते सप्ताह रामगोपाल यादव के बेटे की गोद भराई एक सिख पायलट की बेटी से हुई है. प्रतीक सिंह यादव एक पहाड़ी राजपूत पत्रकार की बेटी से इश्क लड़ा रहे हैं. ऐसे में जब यादवों से उनका रोटी-बेटी का संबंध ही नहीं बचा तो वे समाजवादी पार्टी की साइकिल पर सवारी करने के लिए मजबूर क्यों रहें?रामगोपाल बिना मुलायम के इशारे के अमर विरोधी बयान नहीं जारी कर सकते. यदि रामगोपाल को मुलायम सिंह का इशारा नहीं मिला होता तो मोहन सिंह अमर विरोधी बयान नहीं जारी करते. एक-दो दिन में छोटे लोहियां जनेश्वर मिश्र भी समाजवाद का पहाड़ पढऩे लगेंगे. कुल मिलाकर मुलायम सिंह यादव के समक्ष अपना कुनबा बचाने की चुनौती है, तो अमर सिंह के पास अपने तिलिस्म को बनाए रखने की दरकार. इस राजनीतिक लड़ाई में जरूर सिद्ध हो गया कि राजनीति में न कोई भाई होता है, न कोई दोस्त और न गॉडफादर, समय के साथ सियासत रिश्तों को बदलने का सामथ्र्य रखती है.मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश की जमीनी राजनीति के सर्वोत्तम गणितज्ञ हैं लेकिन वे उम्र की जिस पायदान पर खड़े हैं उस दृष्टि से वे पार्टी में अपने बूते नई ऊर्जा भरने की क्षमता नहीं रखते. उनके लिए अपने यादव कुनबे को एकत्र रखना ही सबसे बड़ी चुनौती हैं. अमर सिंह अच्छी तरह से मुलायम सिंह यादव की इस कमजोरी को समझते हैं. बीते सप्ताह जब अखिलेश यादव ने चाचा रामगोपाल के कहने पर अमर सिंह के खिलाफ खुली बगावत कर सपत्नीक विदेश यात्रा पर रवाना हो गए तो अमर सिंह समझ बैठे कि अब यादव कुनबे पर मुलायम की पकड़ ढीली पड़ चुकी है. पिछले सात वर्षों में यादव कुनबा बारंबार अमर सिंह के खिलाफ बगावत का झंडा उठाता रहा। लेकिन हर बार मुलायम सिंह यादव अपने परिवार को दबाने में कामयाब रहे. इसलिए अमर सिंह नाराज होकर भी मुलायम के चलते पार्टी में बने रहे. फिरोजाबाद और भरथना के चुनाव परिणामों के बाद अमर सिंह भांप गए हैं कि केंद्रीय राजनीति में मुलायम सिंह के लिए अगले पांच वर्षों के लिए कोई जगह नहीं. राज्य की राजनीति में अब मुलायम सिंह यादव के पास अपना कोई वोट बैंक शेष नहीं. यदि मुलायम सिंह यादव अपनी उम्र की मुश्किलों से पार पाकर राजनीति के रिंग मास्टर बन भी जाते हैं तब भी 2012 में उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी सत्ता की दावेदार नहीं बननेवाली. इसलिए अब मुलायम के यादव परिवार की सेवा से उन्हें कुछ हासिल नहीं होना.अमर सिंह स्वयं जमीनी राजनीति नहीं कर सकते. उनकी किडनियां नाकाम हो चुकी है. उत्तर प्रदेश की लू और गर्मी, कोहरा और ठंडी सहने की उनमें क्षमता नहीं. ऊपर से यादव कुनबा गाफिल होते ही उनकी जान लेने पर आमादा हो जाएगा. ऐसे में समय रहते मुलायम को धमका-चमका कर वे पार्टी से बाहर जाने में अपनी भलाई समझते हैं. जो लोग मानते हैं कि अमर सिंह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में जाकर उत्तर प्रदेश में पांचवा समीकरण बनाएंने वे सियासत का समीकरण नहीं समझते. ये संभव है कि अमर सिंह अपनी राजनीतिक साख को बचाए रखने के लिए राकांपा में शामिल हों. केंद्रीय कृषि मंत्री और राकांपा के अध्यक्ष शरद पवार भी राजनीति और कॉरपोरेट जगत के एक बड़बोले बाजीगर को अपने साथ रखना चाहेंगे. शरद पवार खुद अपने सियासी जीवन के आखिरी चरण में चल रहे हैं. केंद्र में उनके पास प्रफुल्ल पटेल और अगाथा संगमा जैसे गैर मराठा मंत्री हैं. पवार कभी नहीं चाहेंगे कि उनके और उनकी बेटी के अलावा कोई तीसरा मराठा केंद्र की राजनीति में आए. अमर सिंह राज्यसभा सदस्य के अलावा कोई अन्य आकांक्षा फिलहाल नहीं पालेंगे. कृषि और नागरिक उड्डयन का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसमें अमर सिंह अपनी कॉरपोरेट साख को बचाने में कामयाब रहेंगे.अमर सिंह को बॉलीवुड और कारपोरेट जगत में धमक के लिए महाराष्ट्र में गृह मंत्रालय का साथ चाहिए. इसलिए अमर सिंह राकांपा में चले आएंगे. कांग्रेस आलाकमान भी अमर सिंह को राकांपा में तब तक खेलने देगा, जब तक वे उत्तर प्रदेश में राकांपा के राजनीतिक विस्तार का सपना नहीं पालते. यदि अमर सिंह ने गलती से भी उत्तर प्रदेश की राजनीति में पांचवीं शक्ति बनाने का प्रयास किया तो कांग्रेसी उनका टेंटुवा दबा देंगे. बीच के दिनों में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने क्लिंटन फाउंडेशन को चंदा देने के मामले में प्रवर्तन निदेशालय को फोन कर अमर की मदद की थी. अमर भी जानते है कि वे मुलायम सिंह की सपा को मार कर कांग्रेस का अप्रत्यक्ष भला कर राकांपा की घड़ी के साथ कदमताल मिलाएंगे तो फायदे में रहेंगे. समाजवादी पार्टी में वे कोई व्यापक तोड़-फोड़ नहीं कर पाएंगे. मुरादाबाद के विधायक संदीप अग्रवाल ने भले ही अमर सिंह के साथ 25 विधायक होने का दावा किया है, लेकिन सच यही है कि पेटी खोलकर भी अगर अमर सिंह बैठें तो उनकी औकात 7-8 विधायकों से अधिक की नहीं बन पाएगी. इसलिए मुलायम सिंह यादव ने रामगोपाल को अमर विरोधी झंडा उठाने की हरी झंडी दे रखी है.

नारद डाट काम
कमलेश त्रिपाठी
चचा भतीजा एण्ड कम्पनी

पिछले हफ्ते लखनऊ में चचा ने एक बैण्ड पार्टी बनाई है. अपने पुत्र को उसका मास्टर बनाया है. बेजा बात नहीं है हर बाप के खुदागंज जाते ही चाहे मकान हो या पार्टी उस पर वैध कब्जा उसके बेटे का ही होता है. अक्सर प्राण पखेरू होने के साथ ही इन चीजों को लेकर मार होती है. चचा ने सांस चलते इन लफड़ों को खत्म कर दिया. उस्ताद टाइप के बापों की यही पहचान है. जिन्दा रहते हर चीज का बटवारा कर देेते हैं. कुछ बाप आखिरी समय तक इन चीजों से पिस्सू बने चिपके रहते हैं, बाद में यही मामले फसाद की जड़ बनते हैं.अभी इस पार्टी में मात्र दो लोग हैं. चचा एण्ड भतीजा. भर्ती खुली हुई है. तमाम पार्टी के निस्प्रयोज्य और फालतू लोगों का इसमें हार्दिक स्वागत है. अपने चचा थोड़े दिन पहले एक पार्टी को गोबर का छोद बनाकर आये हैं. उसी पार्टी के एक बड़े नेता अभी हाल ही में बेरोजगार हुए हैं. इस समय विदेश प्रवास पर हैं. इन दोनों में एक बड़ी समानता है दोनों ही अव्वल दर्जे के सत्यानाशी हैं. एक अमरबेल होती है पीले रंग की. अक्सर आपने पेड़ों से लिपटा देखा होगा. इसकी एक खास बात होती है जिस पेड़ पर इसकी कुदृष्टि पड़ गई उसका सर्वनाश खुदा भी नहीं बचा सकता. ये जिस पेड़ पर लिपटती है उसका खाना स्वयं हजम कर जाती है और पेड़ सूखकर समाजवादी पार्टी बन जाता है. ऐसे में अगर ये दोनों एक साथ मिल जायें तो अलकायदा से ज्यादा खतरनाक साबित हो सकते हैं. इनकी शक्ति मानव बम जैसी बन सकती है. मेरा तो एक मशविरा है कि वो चाहें इस पार्टी में आने के लिए एप्लाई करें या नहीं चचा को चाहिए कि उन्हें पूरे आदर सत्कार के साथ अपने साथ लायें. पार्टी में ताकत के साथ नई बहारें भी आयेंगी. फिर चचा भी इन दिनों खाली ही चल रहे हैं. पहले वाले यार ने दगा दे दिया. सो! चचा समझदारी इसी में है कि उनको अपने साथ ले आओ. तुम्हारा कोई नुकसान क्या करेगा? वही नहाने और निचोडऩे वाली बात तुम्हारे साथ भी है.अमृत वाणीएक भागवान की पत्नी मर गई. मगर उसे रोना नहीं आ रहा था. उसके दोस्त ने समझाया बस ये कल्पना करो कि वो वापस आ गई है. रोना क्या उसका बाप भी आ जायेगा.1

प्रथम पुरुष

डा. रमेश सिकरोरिया

भगवान भरोसे छोड़ देते हैं मरने वालों को!

हम सड़क हादसों में मरने वालों को भगवान भरोसे छोड़ देते हैं. अमरीका में हमारे देश से सात गुना वाहन सड़कों पर दौड़ते है. उनके यहां सड़क हादसे भी हमसे सोलह गुना होते हैं. जिनमें हमसे सात गुना व्यक्ति घायल होते हैं परन्तु अमरीका में ६९ घायलों में से एक मरता है. हमारे यहां पांच में से एक. ऐसा क्यों है आइये जानते हैं-*हमारे यहां शराब पीकर गाड़ी चलाने वालों की संख्या में वृद्घि और सड़क पर जरा सी बात पर झगड़े होते हैं.*लापरवाही से गाड़ी चलाने वालों के लिए कानून कठोर नहीं. गाड़ी चलाते वक्त मोबाइल पर बात करना.* सड़क हादसों से घायलों के लिए प्राथमिक चिकित्सा का भी कोई प्रबन्ध नहीं. सड़क पार करते समय भी मोबाइल पर बातें करना.*वाहनों के रख-रखाव पर कम ध्यान और उन पर अधिक सामान लादा जाना. राष्टीय मार्गों पर अधिक भीड़ एवं वाहनों की गति अधिक होना जबकि सड़कों पर सुरक्षा का अभाव.*राष्ट्रीय मार्गों पर न तो ओवर ब्रिज होना और न ही सब वे. सड़क बनाने वाली संस्थाओं के बारे में न कोई जानकारी और न ही कोई लेखा-जोखा.*घर न होने के कारण फुटपाथ पर रहने और सोने वालों की सुरक्षा को रात में रोशनी और तेज रफ्तार की वाहनों को विशेष खतरे से हम रोक सकते हैं. यदि-१.वाहन ४५ किमी प्रति घण्टे से कम चले ९० प्रतिशत२.शराबी वाहन चालकों की जांच अधिक से अधिक २० प्रतिशत३.हेलमेट पहने ४० प्रतिशत, कभी मृत्य ७० प्रतिशत, कभी घायल होने की कमी४.सीट बेल्ट लगाने से ४५-५० प्रतिशत कमी५.बालकों को वाहन न चलाने दें ३५ प्रतिशत कमीएक और बात जानिये सड़कों का प्रयोग-३२.७ प्रतिशत-बस और ट्रक५.३ प्रतिशत-टेम्पो और वैन८.८ प्रतिशत-पैदल चलने वाले१७.१ प्रतिशत-कार और जीप२१.८ प्रतिशत-साइकिल और दो पहिये वाहन५.७ प्रतिशत-तीन पहिये वाले वाहन८.८ अन्य (जानवरों द्वारा प्रयोग)सड़कों का अतिक्रमण हमारे देश में हादसों का एक प्रमुख कारण है.

भारत का आर्थिक ढांचा पांच श्रेणी में बंटा है

१. चार प्रतिशत बहुत अमीर ६० लाख १० हजार परिवार२. सोलह प्रतिशत साधनों का भरपूर भोगने वाले १५ करोड़३.उन्तीस प्रतिशत उभरते हुए या आगे बढ़ते हुए २७.५ करोड़४.उन्तीस प्रतिशत आगे बढऩे की इच्छा रखते हुए २७.५ करोड़ (अमरीका और यूरोप में गरीबों की श्रेणी में)५.गरीब २१ करोड़-२२ प्रतिशत देश की आबादी का यह आंकड़े १९९४ के हैं. १० करोड़ आबादी बढ़ गई है परंतु अनुपात वही है.

कहीं आप जहर तो नहीं खा रहे हैं?

*यह सब जहर आप खा रहे हैं. फल ,सब्जी दूध, मिठाई व अन्य खाद्य पदार्थों के साथ अधिक धन कमाने की लालच में किसानों से लेकर व्यापारियों ने मिलावट करना शुरू कर दिया है. और वे आम आदमी को जहर खिलाने में न तो हिचकिचाते हैं और न ही बुरा मानते हं.ै परन्तु सरकार को तो ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करनी चाहिये. वे आम आदमी को जहर देकर मृत्यु की और ढकेल रहे हैं अत: उनको इस अपराध के लिए मृत्यु दंड देना ही न्याय होगा और खाद्द पदार्थों में जहरी मिलावट को रोक सकेगा. अब तो सरसोंं के तेल में साबुन बनाने वाला तेल, रंग और सुगन्ध मिला रहे हैं. यह तो कुछ उदाहरण है मसालों में , चीनी में, नमक में पानी में भी मिलावट है. आप कैसे मिलावट रोकेंगे सोचिये कुछ करिये.1 (लेखक पूर्व स्वास्थ्य निदेशक हैं)

चौथा कोना

गूंगे ने बताई रिपोर्टर को खबर!

पीयूष त्रिपाठी

पांच साल बाद अपने कानपुर शहर की पत्रकारिता में वापस लौटा. इस बीच खुद को पत्रकारिता का पितामह बताने वाले, कानपुर को सुधारने का दावा करने वाले, खुद को दयावान, क्षमावान कहकर अपनी पीठ थपथपाने वाले पत्रकारों ने मेरे लिए ऐसा फंदा तैयार किया कि जमानत तक करनी पड़ी. बड़ा सुखद अहसास हुआ हमारे जैसे लोग इसी लायक हैं उनकी नजर में. बहरहाल निजी कोना बंद और चौथा कोना में फिर बंदा फिट हो रहा है. इन बीते पांच सालों में बहुत कुछ बदल गया. मगर मुझे कहीं बदलाव बिल्कुल नहीं नजर आता. पढि़ए जरा! ऐसा हमेशा से हो रहा था अब भी हो रहा है. क्या? वह यह कि ८ जनवरी के अखबार उठाइये सभी अखबारों में नौबस्ता क्षेत्र के एक विकलांग की आत्म हत्या की खबर छपी है. सबने अपने-अपने ढंग से लिखा है. मगर मैं जिस रष्ट्रीय स्वरूप अखबार का ब्यूरो तोप बना बैठा हूं उसी अखबार के वेरी स्मार्ट और डीजीपी तक को जेब में रखकर घूमने का दवा मेरे सामने पहले ही दिन करने वाले मेरे सहायक क्राइम रिपोर्टर ने जब यह खबर लिखी तो उसने लिखा-आत्म हत्या करने वाले की पत्नी नीलम ने बताया कि उसके पति बेहद परेशान थे. कोई बात नहीं खबर छप गई. सवेरे राष्ट्रीय सहारा पढ़ा तो उसमें भी लिखा था कि 'पत्नी नीलम ने बतायाÓ कोई बात नहीं. मगर जब अमर उजाला पढ़ा तो लिखा था कि आत्म हत्या करने वाला विकलांग, उसकी पत्नी गूंगी और बहन अंधी है. एसओ नौबस्ता से पूछा तो उन्होंने भी बताया कि हां सही है उसकी बीवी तो बौरी (गूंगी) है जनाब पहले भी यही होता था, अरे पत्रकार तो कुछ भी कर सकते हैं कर सकते थे. बस यही नहीं बदला. अब बताइये मैं अपने क्राइम रिपोर्टर का क्या करूं? सोच रहा हूं जब वह गूंगे को बुलवा सकने में सक्षम हैं तो क्यों न ऑफिस के एक हिस्से में उसे बैठा कर 'गूंगों के बोलने की शत-प्रतिशत गारंटीÓ का बोर्ड टंगवा दूं. खुद भी कमाऊं? वैसे पढ़ा तो यह था कि मूक करोति वाचालं पगुंम लघयंते गिरिम. यह सिर्फ ईश्वर ही जब कृपा करे तभी होता है. मगर इस शहर में लौटने पर पता चला कि ईश्वर तो बाद पहले हमारा 'क्राइम रिपोर्टरÓ ही सक्षम है. दूसरे अखबार की बात क्यों करें? पहले अपनी ही लेथन छुड़ा लूं. इस चर्चा में एक १५ वर्षीय लड़के ने टिप्पणी की कि सर जी उसने शायद लिखकर बताया होगा. यह बात मुझे समझ में आई. फिर लगा कि अन्य अखबारों ने आत्म हत्या करने वाले उस बेवस इंसान के बेटे के हवाले से खबर क्यों छापी? प्रमोद जी! पांच साल पहले शुरुआती चौथा कोना में मैंने लिखा था कि देखो अखबार टीवी हो गए. खबर थी चार मौतों की. जिसमें किसी ने पिता को मृतक और मृतक बेटे के नामों में हेरफेर छापा था. ठीक वही दशा अब भी है तो सिंगट्टा अपने खबरची भाई.1

खरी बात

देखो आखिर में कहीं पैंट न उतर जाये

प्रमोद तिवारी

थ्री इडियट्स सौ फीसदी प्रशंसा बटोर रही है. सिर्फ प्रशंसा ही नहीं बटोर रही है बल्कि फिल्मों की सामाजिक सार्थकता को भी साबित कर रही है. मेरा शायद ही कोई मित्र, परिचित या व्यवहारी हो जिसने फिल्म देखने के बाद इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा न की हो. मैं जब अपने साथ अपनी मंडली को जोड़कर कोई बात कहता हूं तो वह समूची की समूची उस पीढ़ी पर टीका-टिप्पणी होती है जो वर्तमान में अभिभावक की भूमिका में है, जिसे डैडी, पापा या बाबू कहा जाता है या यूं कहिए यही निर्णायक पीढ़ी है जिसको आने वाली पीढ़ी में संस्कारों का खजाना बोना है और सुनहरे भविष्य की अक्षुण्य संभावनाएं रोपानी है..थ्री इडियट्स दरअसल इसी हमारी पीढ़ी को सम्बोधित करती एक फिल्म है. और मजेदार बात यह है कि जिस पीढ़ी को यह फिल्म देखने के बाद विचारणीय मुद्रा में आ जाना चाहिए वह चहचहा कर आमिर तुसी ग्रेट हो कहकर फिर से अपने में मगन है...किसी और नई मनोरंजक फिल्म के इंतजार में. यह फिल्म गुरदेव पैलेस में उस मौके पर आई है जब छविगृह के चारो ओर फिल्म का मूल थीम (बच्चों को इंजीनियर, डॉक्टर, प्रोफेशनल्स बनाने की फैक्ट्रियां) न सिर्फ कानपुर शहर को बल्कि समूचे प्रदेश को वाकई 'इडियटÓ बनाने में लगा है. काकादेव, मंधना, चौबेपुर, औनाहा, भौंती, रनिया आदि इलाके यानी शहर के ग्रामीण अंचल तक इस तरह की नई सजधज वाली फैक्ट्रियों से तकरीबन पटे पड़े हैं. हर जगह हमारी मेधावी पीढ़ी डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस, सीए बनने में लगी हुई है. इन बच्चों के भविष्य के शिल्पकार खुद बच्चे नही आज की जिम्मेदार अभिभावक पीढ़ी है. अपने बच्चों के 'भविष्यÓ के लिए यह पीढ़ी कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ रही. मेडिकल कॉलेजों, इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले के लिए अटूट परिश्रम और जोखिम भरे कर्ज लेने में भी नहीं हिचकिचा रही. इस पीढ़ी के पहले कभी भी अभिभावक बंधुओं ने बच्चों के भविष्य निर्माता की भूमिका इतनी संजीदगी से और आर्थिक जो खिम लेकर नहीं निभाई. एक तरफ तो यह बेहद जिम्मेदारी भरा पीढ़ी गत् सकारात्मक परिवर्तन लगता है. लगता है कि आज शिक्षा के महत्व को सभी ने गले लगा लिया है. सभी ने मान लिया है कि अच्छे भविष्य के लिए उच्च शिक्षा की उच्च डिग्री अवश्यम्भावी है. इसलिए 'नो कम्प्रोमाइजÓ चाहे घर बिक जाये, चाहे सर पर कर्ज लद जाये, चाहे पुरखों की जमीन-जायदाद चली जाये लेकिन बच्चे का दाखिला और उसकी मेरिट अव्वल ही होनी चाहिए. क्योंकि इससे ही बच्चे का भविष्य (भविष्य माने ऊंचा सेलरी पैकेज) बनेगा. वह एक शानदार आनन्दमयी जीवन जियेगा. इस पूरे नियोजन में अभिभावक लोग शायद ही बच्चों की मूल प्रतिभा पर संजीदगी से विचार करते हों?एक बात तो पक्की है जो मैंने निजी स्तर पर अनुभव की है कि इस दुनिया में हर व्यक्ति प्रतिभावान है. वह अपनी प्रतिभा के बूते विलक्षण परिणाम हासिल कर सकता है. वह एक काम इतनी दक्षता से कर सकता है कि कोई दूसरा नहीं . बशर्ते व्यक्ति अपनी प्रतिभा को पहचानकर उस पर ही पूरा जोर लगाये. लेकिन वह अपनी प्रतिभा को पहचाने कैसे...? तो इसका केवल एक ही तरीका है और वह यह है कि व्यक्ति जिस काम को अन्य के मुकाबले आसानी से कर लेता हो और उस काम को करने में उसे आनंद भी आता हो तो समझो यही उसकी प्रतिभा है, यही उसका भविष्य और यही उसकी कामयाबी है. लेकिन मुश्किल यह है कि 'प्रतिभाÓ और पसंद में अक्सर टकराव हो जाता है. व्यक्ति के पास प्रतिभा होती है लेखक की लेकिन जीवन उसे अच्छा लगता है फिल्म स्टार का. वह पैदा हुआ है इंजीनियर बनने को लेकिन उसे अच्छा लगता है गले में आला लटकाना. इस तरह ज्यादातर प्रतिभाएं प्रतिकूल वातावरण में अपना अंकुरण तक नहीं कर पातीं और नतीजा यह होता है कि एक शानदार प्रतिभा चलन की चकाचौंध में एक औसत आदमी का किरदार निभाकर सो जाती है. 'थ्री इडियट्सÓ में आज के एजुकेशन सिस्टम में मार्किंग और ग्रेड बेस को आधारहीन बताया गया है. इसे ही सारी गड़बड़ी की जड़ माना गया है. और इसे 'गड़बडिय़ों की जड़ मानने से इंकार भी नहीं किया जा सकता. तब तो कतई नहीं जब हम शहर में हर वर्ष ग्रेड, रैंकिंग और मेरिट की खरीद फरोख्त, चोरी और तस्करी की खबरें हम आम पढ़ा करते हैं. आज जितनी बड़ी संख्या में इंजीनियरों की खेप तैयार होती दिख रही है क्या यह कल की समस्या नहीं होगी..! अचानक ऐसा कौन सा मेधा का बादल फट पड़ा है कि कल तक इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिले के लिए तैयारी परीक्षा और प्रवेश परीक्षा पास करना सात समंदर पार करने जैसे पुरुषार्थ से कम नहीं था और आज अचानक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज के दौर में घर-घर इंजीनियर बन रहे हैं. प्रतिभाओं को सलाम है लेकिन जो पैसे देकर, स्कोरिंग टैक्टिस से परचा पार करके इंजीनियर, डॉक्टर या अन्य अच्छे प्रोफेशनल के प्रमाण-पत्र लिए जिन्दगी भर ऐंठे-ऐंठे घूमेंगे दरअसल वह 'थ्री इडियट्सÓ के उस 'टैलेंटेडÓ स्वामी की तरह होंगे जिसे फिल्म (जीवन) के आखिरी में 'मनमौला मूर्खÓ के आगे अपनी पैंट उतार देनी पड़ी..!1

शनिवार, 9 जनवरी 2010


अरबपति चुट्टा !


इन दिनों शहर में चुरुवे गदर मचाये हुए हैं. मौका लगते ही ससुर का माल समझकर हाथ साफ कर देते हैं. पुलिस मौसी का लड़का समझ हाथ पर हाथ रखे बैठी रहती है. ये साले विलायती स्टाइल से माल उड़ा रहे हैं. बाकायदा बड़ी गाड़ी लेकर चलते हैं और पलक झपकते ही काम तमाम. मैं उन चोरों की स्टाइल पर शोध कर ही रहा था कि बीच में मुझे अनेक लंबी गाडिय़ों वाला अरबपति चुरुवा मिल गया. मेरा दावा है कि २०१० क्या २०५० में भी आपको इतना कुलीन, क्लीन, कमीन, चोर नहीं मिलेगा. अब आपके चुल्ल मची होगी उसके बारे में जानने के लिए. बस पल भर का सब्र करिये, मैं उसकी कुण्डली बांचने ही वाला हूं.ये करमजला और बदमैला इसी गंगा तट पर जन्मा है. कसम गंगा की पूरा अरबपति है. आप चाहें तो आयकर विभाग से तसदीक कर सक ते हैं. गाड़ी, घोड़ा, बंगला, औरत (दर्जनों), नौकर सब हैं इसके पास. माह पूर्व इसने अपने सुपुत्र की शादी में खुले आम नोटों में माचिस लगाई. अपनी कुलवधू को उडऩ खटोले पर सवारी भी कराई. इतना सब कुछ भगवान की कृपा से होते हुए भी चोर नंबर एक का है. शहर भर के सारे चोर, उठाई गीर, जेब तराश जितनी रकम दस साल में भी नहीं उतार पाते हंै इसने एक झटके में उस्तरा चला दिया. इसने अपने ही बाजार के १५-२० लोगों का करीब ४० करोड़ रुपया बिना डकारे पचा लिया. इतना करने के बाद पैसा वापस न करना पड़े, इसके लिए एक अखबार के मालिक के लटक गया है. जिन बेचारों का पैसा है वो इसके महल के इतने चक्कर लगा चुके हैं कि दर्जनों जोड़ी जूते नमस्ते कर चुके हैं. थक-हारकर इन सभी लेनदारों ने अपने घिसे हुए जूतों की एक माला बनाई है वो मौका तड़कर इनके गले में पहनाने की तैयारी में है. लोगों के ये कहने पर कि जूतों का उपयोग चांद पर क्यूं नहीं किया तो बोले वहां खेती साफ है मारने से कोई लाभ नहीं है इसीलिए पहनाने का निर्णय लिया गया है. ऐसा अरबपति चुट्टा शायद ही कभी आपने देखा हो. तगादगीरों को पैसा मांगने पर जवाब बड़ा मजेदार देता है, कहता है कि जो तुमने मुझे माल सप्लाई किया था वो ठीक नहीं था और उससे मेरा दम निकल गया तो ऐसे में ये काहे के पैसे.जमाना बदल गयाकोई पत्थर से न मारे मेरे दिवाने को।२०वीं सदी है-बम से उड़ा दो साले को।।1

नल का पानी

पीने में कैसा?

अमरीका के लोग नल का पानी पीने में हिचकते नहीं है क्योंकि उन्होंने अपनी नदियों, तालाब, झीलें पूर्ण रूप से साफ रक्रवी हंै उन्होंने उन्हें गन्दा नहीं होने दिया है. अमरीका की खाद बनाने वाली कम्पनियों ने ६००० टन जहरीला वेस्ट जिसमें कैडमियम था खरीदा जो कैंसर किडनी को नष्ट, स्नायु की बीमारियों और बर्थ के गिफ्ट करते हैं. इंडोनेशिया के १०० अधिकारियों को घूस ही वीटी काटन की स्वीकृति पाने के लिये बिना जांच के उन पर ८२९ गर्भित महिलाओं को रेडियो ऐक्टिव लोहा खिलाने के लिए उन्होंने वेस्ट का विषाक्त होना छिपाया और जल श्रोतों में डाला जहाँ मछलियां तुरन्त मर गईं. उनको अलबामा कोर्ट ने तमाम अपराधों के लिए दोषी पाया. जर्मनी आदलतों के आदेशों के बावजूद अपनी जाँच द्वारा पाये गये तथ्यों को बताने से मना किया. बाद में दबाव के कारण बताना पड़ा. जी.एम.कौर्न खाने से चूहे मारे गये .अब आप स्वंय समझे क्या खाये क्या खरीदे.1

नोलोकिया का प्रयोग हथगोले बनाने में किया जा रहा है...

क्या आपको मालूम है कि दुनिया की सबसे तीखी मिर्च नागा जो लोकिया या भूत नोलोकिया का प्रयोग हथगोले बनाने में किया जा रहा है. जिनका इस्तेमाल आतंकवादियों के खिलाफ किया जायेगा. इनसे इतना तीखा धुआं निकलता है कि किसी को भी अपनी छिपी हुई जग से बाहर आना पड़ता है. इसका प्रयोग दुश्मन को असहाय कर देता है. वह कुछ न करने के लायक हो जाता है. परन्तु उसको मारता नहीं है. इससे सांस लेना असंभव हो जाता है और दुश्मन बेहेाश हो जाता है. इनका असर ३०मिनट तक रहता है इनका प्रयोग भीड़ को हटाने में या किसी भी प्रकार के प्रदर्शकारियों को भगाने में काम आ सकता है. इनसे केवल आँसू निकलते है साँस फूलती है और खुजलाहर होती है. इसका प्रयोग महिलायें अपने को छेड़छाड़ करने वालों को स्प्रे द्वारा बचा सकती हैं. इसको खाद्य पदार्थो पर छिड़क कर हमारे जवान ठंड में अपने को गर्म रख सकते हंै. इनको पेड़ों पर छिड़क कर हाथी या अन्य जानवरों को भगाकर अपने खेतों और घरों को बचाया जा सकता है. कड़वी और तीखी मिर्च जिसे आप जवान नहीं रख सकते कि कितना अच्छा उपयोग वैज्ञानिकों ने निकाला है आसाम की देन देश को.1

खाद्य पदार्थों में मिलावट

आप जान सकते हैं आप के खाद्य पदार्थ मेंंं क्या मिलाया गया है और इस जानकारी का लाभ उठा सकते हंै ऐसे खाद्य पदार्थो को न खाकर-१-डिटर्जेण्ट वनस्पति तेल और अन्य रसायन मिलाकर सिंथेटिक दूध बनाते हैं. इसमे मिलाया जाने वाला स्किम्ड मिलक पाउडर खोये को दानेदार बनाता है जो नींबू का रस मिलाते पर फटता नहीं है. सरसों के तेल में चर्बी मिलाते हैं. गले में जलन, खुजली, शरीर पर लाल दाने होजाते है ऐसा तेल जम जाता है. २-सिंथेटिक दूध से पनीर, छेना, मक्खन, मलाई नहीं बनायी जा सकती है. ३-नकली खोये में रिफाइंड मिलाने से तेल अलग से दिखता है.४-आलू व अरारोट मिलाते हैं. खोये को हाथ में रगडऩे से यदि चिकनाहट नहीं आ रही है तो नकली है. ५-पिसी मिर्च में रंग या ईट पीस कर मिलाते हैं. ऐसी मिर्च को पानी में डालने से ईट का चूरा अलग हो जायेगा.६-बेसन में मटर की दाल पीसकर मिलाते हैं. अरहर व चने की दाल में खेसारी दाल मिलाते हैं जो छोटी व हल्के पीले रंग की होती है. ध्यान से देखने पर पता चल जाता है. ७-हरी सब्जियों को रंगते है इनको पानी में गीला कर कसकर रगड़े तो रंग छूटता है. ८-गुड़ बनाते समय असर की धूल मिलाते हैं. चीनी में सफेद पत्थर के टुकड़े जो पानी में घुलते नहीं है. उसे मिलाते हैं. ९-धनिया में लीद मिलाते हैं पानी में डालने से बदबू करती है. १०-काली मिर्च में पपीते के बीज तो पानी में डालने पर तैरने लगते हैं. ११-सौफ का हरे रंग से रंगा जाता है गीले हाथ से रंगडऩे पर रंग छूटता है.1(लेखक पूर्व स्वास्थ्य निदेशक हैं)

राजनीति

अब या तो अमर या रामगोपाल

प्रमोद तिवारी

पहले अमिताभ बच्चन और नेहरू परिवार फिर अंबानी का परिवार और अब मुलायम परिवार! तीनों परिवारों में अमर सिहं की ध्रुवीय भूमिका रही है और इसे एक विचित्र संयोग ही कहा जा सकता है कि इन तीनों ही परिवारों में इसी धु्रवीय भूमिका के कारण कलह विभाग और बिखराव की कहानी पूरे देश ने पढ़ी-सुनी और देखी. पहले अमिताभ से नेहरू परिवार अलग हुआ फिर अनिल से मुकेश अंबानी अलग हुए और लगता है अब बारी मुलायम सिंह से रामगोपाल यादव के अलगाव की है. लेकिन इस बार मामला केवल परिवार का ही नहीं है बल्कि एक राजनीतिक साम्राज्य का है. इसलिए अमर सिंह के लिए रामगोपाल यादव बहुत आसान कौड़ी नहीं होंगे क्योंकि उनके पीछे केवल मुलायम सिंह के चचेरे भाई होने का ही बल नहीं है बल्कि पुत्र अखिलेश यादव और छोटे भाई शिवपाल के साथ तकरीबन सभी वरिष्ठ समाजवादी नेता भी मजबूती से खड़े हैं. यह बात अमर सिंह भी समझ रहे हैं. शायद इसीलिए उन्होंने मन बना लिया है कि अब सपा में या तो मैं या फिर रामगोपाल. सपा के सभी पदों से हालिया इस्तीफा और कुछ नहीं है. मुलायम सिंह यादव को सीधा अल्टीमेटम है जिसे मुलायम सिंह को इस रूप में भी समझना होगा कि एक तरफ उनकी पार्टी और परिवार है तो दूसरी तरफ अमिताभ, अनिल और अमर. अमर सिंह की अदा है कि वो जिससे प्रेम करते हैं उस पर अपना पूर्ण अधिकार चाहते हैं. एक तरह से वह नचाते हैं अपने प्रेमी को. वह देख नहीं सकते अपने सनम के बगल में किसी भी सूरत दूसरे को देख नहीं सकते. तभी तो अमिताभ के बगल में सोनिया या राहुल नहीं हैं सिर्फ अमर हैं, इसी तरह अनिल के बगल में मुकेझ नहीं सिर्फ अमर हैं, और अब मुलायम के बगल में रामगोपाल....लेकिन अभी यह जुमला अधूरा है क्योंकि इस बार अमर व्यक्ति से नहीं एक दल के कुल अस्तित्व के आड़े आ गए हैं. लोकसभा चुनाव के दौरान मुलायम सिंह के सामने तकरीबन यही स्थिति आजम खां ने पैदा कर दी थी और अंतत: उन्हें पार्टी से बाहर हो जाना पड़ा था. फिरोजाबाद लोकसभा चुनाव के बाद अमर सिंह ने भी इस्तीफे की धमकीे और अब इस्तीफा देकर सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव को निर्णायक मुद्रा बनाने के लिए विवश कर दिया है. देखना होगा कि ऊंट किस करवट बैठता है क्योंकि सपा प्रमुख सहित पार्टी के अन्य बड़े नेताओं से जो मान-सम्मान अमर चाहते हैं वह हाल के दिनों में लगातार कम होता जा रहा है. इस बार अमर सिंह ने इस्तीफे की जो वजह बनाई है उससे स्पष्ट हो जाता है कि उनकी पार्टी में इन दिनों उनकी क्या दशा चल रही है और वह क्यों कदम-कदम पर इस्तीफे की राजनीति कर रहे हैं. श्री और जी, दो ऐसे शब्द है जिनके इस्तेमाल के बाद खुद व खुद सम्मान झलकने लगता है. अगर इन शब्दों का इस्तेमाल न भी किया जाये तो बड़े जहन वालों और उद्देश्य वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन जब व्यक्ति को खुद पर शंका हो जाती है तो जरा-जरा सी बात भी नाराजगी का कारण बन जाती है. बिल्कुल ऐसा ही लगा सपा नेता अमर सिंह को तब जब डा.रामगोपाल यादव ने एक पत्र में अमर सिंह के नाम के आगे ना तो (श्री) का इस्तेमाल किया और ना ही सिंह के बाद (जी) लगाया. अमर सिंह को (श्री) और (जी) दो शब्दों से शायद इतनी वेदना हुई कि बीमारी और डाक्टरी सलाह का बहाना करके अमर सिंह ने इस्तीफा दे दिया जब कि पिछले साल बीमारी के बीच में ही अमर सिंह जोरदारी से चुनाव प्रचार करते हुये देखे गये थे.अमर सिंह ने हालांकि अपने इस्तीफे का कारण हालांकि इन शब्दों को नहीं माना लेकिन एक न्यूज चैनल से बातचीत में अमर सिंह ने जब श्री और जी का जिक्र किया तब बात साफ हई कि अमर सिंह के मन में नाराजगी का भाव आखिर क्यों है?सपा छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम 15वीं लोकसभा में पहुंचे पूर्व केन्द्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा का कहना है कि मुलायम की सारी काली कमाई अमर के पास है इसलिये वह उन्हें छोड़ ही नहीं सकते. सपा से निकाले गये आजम खां ने कहा कि अमर अब जनेश्वर मिश्र और रामगोपाल यादव को पार्टी से निकालने का दबाव पार्टी अध्यक्ष पर बना रहे थे जो उनके लिये संभव नहीं था क्योंकि जनेश्वर मिश्र वरिष्ठ, संजीदा और प्रदेश में प्रभाव रखने वाले नेता हैं और रामगोपाल यादव मुलायम के चचेरे भाई हैं. सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव कहते है कि अमर सिंह सच में काफी बीमार हैं और उनके विदेश से इलाज करा कर वापस आने के बाद वह उनसे बात करेंगे तथा त्यागपत्न वापस लेने के लिये समझाएंगे. मुलायम कहते है कि अमर सिंह पार्टी के जिम्मेदार नेता है और सपा को उनकी जरूरत है. उन्होंने कहा कि अमर सिंह ने एक बार पहले भी इस्तीफा दिया था लेकिन उन्हें समझाया गया था. बातचीत के बाद उन्होंने त्यागपत्र वापस ले लिया था. उन्होंने कहा कि सिंह के विदेश से आने के बाद पार्टी की कोर कमेटी की बैठक होगी और उसमें त्यागपत्र वापस लेने का आग्रह किया जाएगा.1



चौथा कोना

नंगी-नंगी

गृह लक्ष्मियां


देश में एक नारी विमर्श को केन्द्र में रखकर एक पत्रिका निकलती है 'गृह लक्ष्मीÓ है. सामान्यत: गृह लक्ष्मी संभ्रांत हिन्दी भाषी परिवरों की जानी-पहचानी पत्रिका है. अभी पिछले एक अंक में गृह लक्ष्मी पत्रिका के साथ रंगीन व ग्लेज्ड पेपर पर एक 'पुल आउटÓ भी प्रकाशित किया गया. इस पुल आउट में स्त्रियों के अंत: वस्त्रों के चलन पर सलिल सामग्री प्रकाशित की गई थी. बाजार में इस बार गृह लक्ष्मी से ज्यादा मुफ्त की यह विशिष्ट पत्रिका की मांग रही. 'आई नेक्स्टÓ की आई कैंडी या 'सेक्स बॉमÓ बनी चिकनी पन्नों वाली देशी-विदेशी तमाम पत्रिकाओं के मुकाबले इंडियम गृह लक्ष्मी की गर्मी भारी पड़ी. अंतवस्त्र वह भी स्त्रियों का यदि स्त्रियां पहन-पहनकर दिखाने लगें बाजारों में तो $जरा सोचिए बाजार का 'मूडÓ कैसा होगा. एक से बढ़कर एक सुदरियों के नंगे-नंगे जिस्म पर झिल्ली सी चड्ढी-बनियाइन वाली तस्वीरें आवरण पृष्ठ से अंतिम पृष्ठ तक छाई हैं. डेबो नायर या प्ले ब्वॉयज सरीखी पत्रिकाओं से कहीं ज्यादा उत्तेजना फैला सकने वाली ये तस्वीरें अगर गृह लक्ष्मियों की हैं तो हमें यह सोचना पड़ेगा कि जो हमारे घरों में जो नारी शक्तियां रहती हैं. क्या वे गृह लक्ष्मी नहीं हैं.औरत की नंगी देह हर काल में सनसनी रही है और उसकी मांग में कभी कोई कमी नहीं आई. बावजूद इसके पुरुष प्रधान समाज में नारी का नंगा बदन कभी सार्वजनिक नुमाइश का हकदार नहीं हो सका. लेकिन जब आज हम सभ्यता के निरंतर चढ़ते सोपानों के साक्षी हैं तो औरतों की नंगी नुमाइश करने के लिए तरह-तरह के बहाने तलाश रहे हैं. गृह लक्ष्मी अंत: वस्त्रों के बहाने अगर नारी की नंगी देह बेचने का नुस्खा अपना रही है तो हमें सोचना होगा कि नारी विमर्श की पत्रकारिता करती नारियों की मूल पक्षधरिता क्या है...नारी या नारी की बिकाऊ देह? गृह लक्ष्मी का यह नंगा पुल आउट किसी घर की शोभा लायक नहीं कहा जायेगा. वैसे यह मुझे एक उद्यमी की ऑफिस की टेबिल पर देखने को मिला जहां हर नंगी तस्वीर की अपनी-अपनी तरह से भस्र्तना हो रही थी. लेकिन सभी के चेहरे पर कामुख तस्वीरों के दर्शन की लालिमा थी. पहले तो मैंने भी सोचा कि इन तस्वीरों को कंडम करते हुए सचित्र एक लेख छापूं. अपने रंगीन पन्नों को मैं भी रंगीन करूं लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी. क्योंकि हेलो कानपुर मेरे घर में भी पढ़ा जाता है. जहां एक गृह लक्ष्मी भी है, बिल्कुल लक्ष्मी की तरह.1 प्रमोद तिवारी


पंख दो आसमान लो

हेलो संवाददाता

कोई कम्पनी का मोजा बेंच रहा है घर-घर जाकर तो कोई पानी गरम करने की मशीन. कोई मसाज करने वाला खिलौना लिए खुद को एमबीए बता रहा है तो कोई गैस का लाइटर किस कदर किफायती है इसकी दलीलें दे रहा है. ये युवा लड़के, लड़कियां यूं तो देखने में आत्म विश्वास से लबालब और दुनियादार मालूम पड़ते हैं लेकिन यह इनका विवश चेहरा और हताश चाल है. दरअसल ये रोजगार के चमकीले- भड़कीले विज्ञापनों के जाल में फंसी वह महत्वाकांक्षी पीढ़ी है जिसे इनकी ही पीढ़ी ने ठग रखा है...फंसा रखा है.हो यह रहा है कि छोटी-छोटी देसी कम्पनियां अपने छोटे-छोटे उत्पादों की डायरेक्ट मार्केटिंग कराने के लिए एक से एक लुभावने विज्ञापन देकर पहले युवा बेरोजगारों से अच्छा पद, अच्छी तनख्वाह, लुभावना कमीशन और उदार सुविधाओं का वायदा करते हैं फिर इनकी अंकतालिकाओं और प्रमाण पत्रों को कब्जे में लेकर काम पर लगा देते हैं. और काम होता है घर-घर जाकर पालिस बेचो, कंघा बेचो, चाय की पत्ती, साबुन, तेल बेचो. इसी काम के बदले उन्हें ८ हजार से लेकर २५ हजार रुपये महीने तक का वेतन ऑफर किया जाता है. इस शर्त के साथ कि आपको ज्वाइनिंग से पहले अपनी सभी मार्कशीटें और प्रमाण-पत्र आदि कंपनी के पास जमा करने होंगे. एक तरह से ये कथित कंपनियां मजबूर युवा बेरोजगार से कहती हैं कि अगर आसमान चाहिए तो पहले अपने पंख हमारे पास रहन रख दीजिए. तभी तो शायद ही कोई बेरोजगार इन कम्पनियों से वेतन प्राप्त कर पाता हो. क्योंकि ज्यादातर नव नियुक्त युवा कुछ दिन काम करने के बाद इस डोर-टू-डोर मार्केटिंग से इंकार कर देते हैं. इसके बाद खड़ा होता है 'हिसाबÓ का सवाल और जमा मार्क शीट की वापसी. कम्पनी वाले मार्क शीट वापस करने में आनाकानी करते हैं, दबाव बनाते हैं. दबाव इस कदर बन जाता है कि बेरोजगार पैसा छोड़ मार्क शीट वापस लेकर ही संतोष करने में अपनी भलाई समझते हैं. इस पूरे घटना क्रम में सबसे मजेदार और कमाल की बात यह है कि पूरे शहर में फैले इस जाल में फंसा हर युवक इन वादाखोर कम्पनियों को रजिस्ट्रेशन और ट्रेनिंग के नाम पर खुद अपनी जेब से पांच सौ से पांच हजार रुपये तक ढीला कर चुका होता है. ये कम्पनियां युवा बेरोजगारों को फंसाते वक्त यह नहीं बतातीं कि उनसे क्या काम लेना है. केवल पद और वेतन की चमक दिखाया करती है.हेलो कानपुर ने इस जाल-बट्टे की सच्चाई जानने के लिये जब अपने संवाददाताओं को इन 'कम्पनियोंÓ कथित कम्पनियों के सम्पर्क में भेजा तो जो सच्चाई सामने आई वह आपके पेशे नजर है-आचार्य नगर में रीजेन्ट लिमिटेड का विज्ञापन पढ़कर हमारे संवाददाता ने कम्पनी के कार्यालय जाने का निश्चय किया. कम्पनी को चाहिए १०५ महिला/ पुरुष जिनकी योग्यता अनपढ़ से लेकर स्नातक तक. कम्पनी ने अपने विज्ञापन में दर्शाया कि कम्पनी रोजगार देनेे के साथ कम से कम ८००० रुपये से लेकर २५००० रुपये तक मासिक वेतन देगी. हमने कम्पनी के द्वारा दर्शाये मोबाइल नं पर सम्पर्क किया तो फोन रिसीव करने वाले ने अपने कार्यालय आने को कहा. साथ ही अपने प्रमाण-पत्रों एवं अंक तालिका की छायाप्रति व १०० रुपये नकद जो कि कम्पनी द्वारा ली जाने वाली राशि लाने को कहा. अगले दिन संवाददाता कार्यालय पहुंचा तो मोबाइल पर बात करने वाले झारखण्ड निवासी अजीत जो कि कम्पनी के ब्रांच मैनेजर हैं से हमारी बातचीत हुई. बातचीत के दौरान अजीत ने बताया कि १०० से कम्पनी में पंजीकरण कराने के पश्चात् ७ दिन का प्रशिक्षण दिया जायेगा. जिसमें व्यक्तित्व निखारने के साथ-साथ कम्पनी के उत्पाद के बारे में बताया जायेगा. आगे बताते हुए अजीत ने कहा कि कम्पनी आपको ७ माह की ट्रेनिंग देगी जिससे आपको कम्पनी के प्रोडक्ट को प्रमोट करना होगा, ७ माह बाद आपका प्रमोशन कर दिया जायेगा. इतनी बातचीत करने के पश्चात् संवाददाता बाहर आया. गौर करने वाली बात है पूरी बातचीत के दौरान अजीत ने हमें कई बार पूछने पर भी अपने उत्पाद एवं प्रोफाइल के बारे में नहीं बता. इसी बीच हमारी मुलाकात कम्पनी के एक कर्मचारी से हुई नाम न छापने की शर्त पर उसने बताया कि वह एमबीए के अंतिम वर्ष का छात्र है. वह कम्पनी कार्यालय के बगल के कमरे में रहता है. मोहित (परिवर्तित नाम) ने बताया कि वह अखबार में कम्पनी का विज्ञापन पढ़कर आया था. उससे पंजीकरण के नाम पर १०० रुपये तथा प्रशिक्षण के लिए ३५० रुपये जमा कराये गये तथा एक परीक्षा में पास होने को कहा गया. परीक्षा पास करने के पश्चात् मोहित से उसकी हाई स्कूल की अंक तालिका सुरक्षा के नाम पर जमा करा ली गई एवं नौकरी के नाम पर उससे दिल्ली निर्मित इलेक्ट्रॉनिक हेयर ब्रश, मसाजर, मेडिसिन, गैस, लाइटर आदि बिकवाये गये. जब मोहित ने घर-घर जाकर उत्पाद बेचने से मना किया तो मैनेजर अजीत ने मोहित से नौकरी छोडऩेे को कहा. और अपनी अंक तालिका वापस मांगने पर मना कर दिया कि कम्पनी के मुख्य कार्यालय बंगलौर भेज दी गई है. जोकि एक माह पश्चात् ही मिल पायेगी. गौरतलब है कि अंकतालिका कम्पनी के कार्यालय में रखी थी. अजीत ने देने से मना कर दिया. मोहित की हालत देख संवाददाता ने फिर से अजीत के पास जाने का फैसला किया. अपने अखबार का परिचय देने पर अजीत ने थोड़ी देर आनाकानी करने के पश्चात् हमारे हाथ में मोहित की अंकतालिका थमा दी.रीयल फ्यूचर ग्रुप-खुद का पता नहीं पर कम्पनी ने बीड़ा उठाया है सिर्फ और सिर्फ महिलाओं एवं नवयुवतियों को रोजगार प्रदान करने का. कम्पनी ने अपने विज्ञापन में कार्य के बारे में और न ही कार्य क्षेत्र के बारे में बताया. संवाददाता ने कम्पनी के दर्शाये मोबाइल नं.-९३०५९६७५०७ पर सम्पर्क किया तो उसने अपना नाम मोहम्मद सैज बताया. संवाददाता के कई बार पूछने पर भी मोहम्मद सैज ने फोन पर बात करने से इंकार करते हुए अपने कार्यालय आकर सम्पर्क करने को कहा. सुरक्षा की दृष्टि ने हमने अपने संवाददाता को वहां न भेजने का फैसला किया. क्योंकि हमें बात करने वाले शख्स के बार-बार अपने कार्यालय बुलाने पर संदेह हो रहा था. सिंग्ल टेबल साल्यूशन-एक टेबल पर हल प्रदान करने वाली यह कम्पनी रोजगार देने से पहले कम से कम आपको तीन टेबल पर बैठाने के बाद लोगों को फंसाओ और मेम्बर बनाओ. फिर अपने उत्पाद उन्हीं को पहनाओ. कम्पनी ने अपने विज्ञापन में आवश्यकता दिखाई है मार्केटिंग प्रतिनिधि की परंतु पद कितने रिक्त हैं यह न तो कम्पनी को मालूम है और न ही रोजगार के लिए आवेदन करने वालों को.विज्ञापन पर दर्शाये गये नम्बर ०५१२-२२६०२२६ पर हेलो संवाददाता ने सम्पर्क किया तो हमें पता चला कि यहां पर आपको कम्पनी के सदस्य बनाने हैं और फिर उन्हीं सदस्यों में सदस्यता शुल्क भी वसूलना है जो कि कितना होगा यह आपको कम्पनी में शामिल होने के बाद बता दिया जायेगा. गौरतलब है कि यहां आपको नौकरी यानी कम्पनी में शामिल होना है या नहीं यह आपके ऊपर निर्भर करता है.नावा (गवर्न०रजि०)-नावा रजिस्टर्ड मल्टीनेशनल कम्पनी जो खुद को अमेरिकन कम्पनी बताती है. के विज्ञापन को पढ़कर

युवाओं के साथ धोखा


जिम्मेदार कौन ?

महानगर में युवा बेरोजगारों के साथ चल रही इस ठगाही को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि यह तो खुलेआम पंख कटाकर आसमान जीतने जैसी बात हुई.

महानगर में चल रही इस ठग विद्या के बारे में जब हमने शहर के जिम्मेदार अधिकारियों से जानकारी चाही तो जिम्मेदार अधिकारियों के जो जवाब हमारे सामने आये वह वाकई होश उड़ा देने वाले थे. कोई भी अधिकारी सार्वजनकि रूप से चल रही इस धांधागर्दी की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. अपर श्रम आयुक्त प्रदीप कुमार श्रीवास्तव से हमने जब बात की तो उनके मुताबिक अंकतालिका रखकर मानसिक रूप से बंधक बनाना श्रम कानून के अन्तर्गत नहीं आता. यह जिम्मेदारी पुलिस विभाग की है. पुलिस विभाग के आला-अधिकारियों के मुताबिक जब तक उनके पास कोई लिखित शिकायत लेकर नहीं जायेगा तब तक पुलिस कोई कार्यवाही नहीं कर सकती. बाकी रही बात शिकायत की तो अगर उसे लेकर कोई थाने जाता भी है तो मुंशी जी को यह शिकायत ही नहीं लगती. वैसे भी पुलिस शिकायत दर्ज करने में कितनी रुचि दिखाती है किसी से नहीं छिपा. ऊपर से विडम्बना यह कि पाई-पाई के लिए मोहताज बेरोजगार पुलिस-प्रशासन के झमेले से बचने के चलते शिकायत नहीं दर्ज कराते. अब देखना यह है कि बेरोजगारों को इन शिकारियों के चुंगल से बाहर निकालने की जिम्मेदारी लेने सरकारी अमले का कौन सा विभाग आगे आता है. यह तो सिर्फ एक बानगी भर है जो 'हेलो कानपुरÓ ने आपके सामने रखने का प्रयास किया है. हकीकत इससे कहीं बदतर है. हर गली मोहल्ले में चल रही इन फर्जी कंपनियों की संख्या दर्जनों की तादात में है जो कि सरकारी नीतियों व बेरोजगारों का फायदा उठाकर अपने काले मंसूबों में कामयाब हैं.

हेलो प्रतिनिधि

सोमवार, 4 जनवरी 2010

खरीबात
प्रमोद तिवारी
सर तो पुलिस का कलम हुआ है
कानपुर में अगर पुलिस का कुल अस्तित्व ही समाप्त कर दिया जाये तो हमारे नगरीय जीवन में क्या $फर्क पड़ जायेगा. हो सकता कि आपको लगे कि बिना पुलिस के भला शहर की कल्पना कैसे की जा सकती है. तो फिर $जरा यही सोचिए कि आखिर ग्रामीणों ने हत्या कर शव कटरी में फेंकने की शिकायत की थी थाना नवाबगंज से. दो दिनों तक पुलिस शव उठाने नहीं आई. लोगों ने अधिकारियों तक बात पहुंचायी तो थाना पुलिस ने कह दिया पोस्टमार्टर के बाद की कटी-फटी लाश थी, बहकर गंगा के किनारे आ गई थी, बाद में फिर बहकर गंगा में विलीन हो गई. अब कटरी को आप अगर नदी किनारे का जंगल मानें तो सीन तो यही बना कि एक आदमी पहले जंगल में मरा और फिर वहीं पड़ा-पड़ा सड़ा. न कोई बचाने आया और न कोई उठाने. फिर काहे का कानपुर शहर और काहे की पुलिस. इसके आगे का तमाशा भी कुछ कम नहीं है. इस घटना के कोई दो-चार दिनों बाद कटरी में फिर एक शव मिलता है. लेकिन उसका सर गायब है. यह कटरी है तो गंगा की लेकिन उन्नाव के हिस्से आती है तो उन्नाव पुलिस आ गई और इस पर कोढ़ यह हो गया कि धड़ के कुछ अंग कानपुर में महाराजपुर इलाके में मिले तो कानपुर पुलिस फिर घेरे में आ गई. सर का अभी तक पता नहीं चल पाया है. पुलिस तलाश कर रही है युवा अभियंता अमित द्विवेदी के सर का. लेकिन पुलिस जिस तरह से काम करती है उस लिहाज से पुलिसिया तलाश से किसी तरह के नतीजे की आशा फिजूल है.. कायदे से तो पुलिस को अपना सर तलाशना चाहिए. एक आदमी भरे शहर में बोटी-बोटी काट कर कोने-कोने चढ़ा दिया जाये और पुलिस को कोई भनक या सुराग न हाथ लगे तो क्या जरूरत है पुलिस की इस शहर को. अभी आदमी की यह कतरन ठीक से बटोरी भी नहीं जा पाई थी कि दो-चार दिन बाद एक और आधी-अधूरी लाश मिली इसबार सर मिला जिसका धड़ गायब था. यह काम भी गंगा किनारे हुआ. पुलिस धड़ खोजने में लग गई. खोजी पुलिस को तो धड़ मिला नहीं लेकिन जिस अभागे का सर कलम हुआ था उसके लड़कों ने गंगा में गोते लगा-लगा कर बाप के धड़ के अवशेष जरूर खोज निकाले. पुलिस आदमी को लौकी, तरबूज की तरह कटने से रोक नहीं पा रही. कटे टुकड़े बटोर नहीं पा रही. सही-सही रिपोर्ट लिखने में गंगा के दोनों छोर एक-दूसरे को भागी बता रहे हैं. इसतरह ऊपर की तीनों हत्याओं और उसके लाश निस्तारण में कहीं आपको कोई पुलिस की भूमिका दिखी?यहां जिन लाशों का जिक्र हो रहा है वे लावारिस लाशें भी ग्रामीणों को ही मिलीं, गश्त करती पुलिस को नहीं. जो धड़ पब्लिक को मिला वह भी बिना शिनाख्त के पुलिस द्वारा गाड़ दिया गया बजाय पहचान तलाशने के. जो सर मिला उसका धड़ भी 'पीडि़त पुत्रोंÓ ने ही गंगा से निकाला पुलिस ने नहीं. आप खुद ही बताएं अगर आज भी कानपुर शहर के बजाय अभी भी दण्डकारेण्य वन ही होता तो हमारी जान के साथ कोई जानवर या लुटेरा इससे ज्यादा वीभत्सतता क्या दिखा पाता..? घर के बाहर कदम रखते ही मां-बहनों के गले पर झपट्टा पड़ता है. दिन-दहाड़े घर में घुसकर डाका पड़ता है. अकेली औरत की अस्मत लुट जाती है. रोज ही रोज बच्चे, जवान, बूढ़े बिना किसी दिक्कत के उठा लिये जाते हैं. राह चलती लड़की गली में खींचकर बेपर्दा कर दी जाती है. दबंग मारते हैं. शोहदे छेड़ते हैं, माफिया लूटते हैं और आम शहरी अगर इनके खिलाफ आवाज बुलंद करना चाहे तो सबसे पहले पुलिस ही रिपोर्ट न लिखकर सुरक्षा के लिए जंग की चिंगारी पर पानी डाल देती है. रिपोर्ट न लिखना क्या है. दरअसल पुलिस का अपराध दर्ज न करना हमारी सुरक्षा करने से इंकार है. इस इंकार के बाद हमें पुलिस की क्या जरूरत रह जाती है. २ हजार ९ जा रहा है. जाते वर्ष के साथ-साथ एक नया वर्ष २ हजार १० भी आ रहा है. जर सोचिए.. क्या हम जंगलवासी नहीं हैं.. जंगल में पुलिस का क्या काम..! इसलिए पुलिस हटाओ.1
चौथा कोना
धीरे-धीरे पांच बरस हो गये
नव वर्ष की बधाइयां
नव वर्ष के आगमन पर हेलो कानपुर के पाठकों, विज्ञापन दाताओं और समाचार-पत्र वितरकों को हार्दिक शुभकामनाएं. धीरे-धीरे ५ वर्ष पूरे हो गये हेलो कानपुर के नियमित प्रकाशन के. विवेकानन्द जी ने कितना कहा था कि-'अ जरनी ऑफ थाउसेण्ड माइल्स बिगिन विथ अ सिंगल स्टप.Ó यानी हजारों-हजार मील की यात्रा की शुरुआत आखिर होती तो पहले कदम से ही. आज ५ वर्ष बाद जब २ हजार ५ का अखबारी परिदृश्य याद करता हूं और हेलो कानपुर के उद्घाटन अग्रलेख में आपसे की गई बातों की समीक्षा करता हूं तो मन को बहुत संतोष होता है. क्योंकि मेरी कही कोई शायद ही कोई ऐसी बात हो जिसने समय की कसौटी पर अपना खरापन न साबित किया हो.आज हर अखबार को शहर की चिंता हो गई है. हर अखबार शहर की दशा और दिशा को लेकर पूरी गम्भीरता से पाठकों के बीच है. स्थानीय स्तर पर कानपुर की पत्रकारिता के इस वर्तमान तेवर का असर भी दिखाई पड़ रहा है लेकिन न मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं कि इस आवश्यक अखबारी दृष्टि की जरूरत सबसे पहले हमने महसूस की. न सिर्फ महसूस की बल्कि प्रयोग के तौर पर हेलो कानपुर (साप्ताहिक) निकाल कर शहर के सजग पाठकों के बीच एक स्वस्थ्य बहस को जन्म दिया. एक के बाद एक हफ्ते बीतते हुए जब हेलो कानपुर की प्रसार संख्या और 'विचार प्रभावÓ लगातार बढऩे लगा तो जिन अखबार वालों ने हेलो कानपुर को 'प्रमोद तिवारीÓ की 'मजबूरीÓ, मुंह जियाई या पेट पालन की विवशता समझा था उन्हें समझ में आने लगा कि हेलो कानपुर की भाषा, विषय और जीदारी की अगर और उपेक्षा की गई तो आम पाठकों में अपना मान बनाये रखना, विश्वास बनाये रखना, स्थान बनाये रखना बेहद मुश्किल हो जायेगा. शुरू में तो किसी को कुछ समझ में नहीं आया लेकिन धीरे-धीरे हमारी कवर स्टोरियां, हमारी टीका-टिप्पणियां हमारे मूल विचार अन्य विश्वस्तरीय, राष्ट्र स्तरीय व प्रान्त स्तरीय अखबारों के विषय बनने लगे. फलस्वरूप इन पांच वर्षोंंमें हमने आम पाठकों के बीच अपनी शाख बनाई सिर्फ अखबार की ही नहीं खुद अपनी भी लेकिन जो दो दशकों के मेरे छोटे-बड़े पत्रकार साथी थे उनसे तकरीबन किनारा हो गया. मैं जब सोचता हूं ऐसा क्यों हुआ..तो ठोस कारण नहीं ढूंढ़ पाता. हां, इतना जरूर समझ पाता हूं कि बड़े अखबारों के ये नौकर पत्रकार छोटे से साप्ताहिक अखबार की ठसक से खीझे हुए हैं.एक बात और..! जितने भी दिग्गज पत्रकार माने जाते हैं शहर के सबके सब यह माने बैठे थे कि तमाम साप्ताहिकों की तरह यह भी दो-चार हफ्ते या बहुत ज्यादा महीनों का खेल होगा..इसके बाद सब फिनिश..! मैं अपने दोस्त पत्रकारों के हाथों बेहद बेरहमी से कत्ल किया हुआ पत्रकार हूं. जिस दिन कानपुर प्रेस क्लब हड़पने वालों ने मुझे जेल में सड़वाने का षडयंत्र रचा था. हेलो कानपुर निकालने वाले पत्रकार प्रमोद तिवारी का जन्म उसी दिन हुआ था. इसलिए इस शहर के मेरे सम कालीन खुदगर्ज, कमजर्फ खबर नफीसों को हेलो कानपुर की बढ़ती उम्र भला क्यों अच्छी लगेगी. लेकिन कोई बात नहीं..! हेलो कानपुर नई पीढ़ी के पत्रकारों में बेहद सम्मान पाता है. आइनेक्स्ट में संपादक थे यशवंत. चौथा कोना के नियमित पाठक और प्रशंसक 'आइनेक्स्टÓ छोडऩे के बाद बंदा इतना 'टोन-अपÓ हुआ कि दिल्ली जाकर उसने चौथा कोना को ही भड़ास ४ मीडिया डॉट काम के नाम से नेट पर उतार दिया. आज वह देश में मीडिया का अप्रितम एवं विशिष्ट नेट पेपर माना जाता था. भड़ास का जन्म यहीं कानपुर में हुआ है. मैंने अपने एक शुभचिंतक पत्रकार हेलो कानपुर निकालने की तैयारी करते वक्त कहा था जब उसने सवाल किया.'ये आप क्या कर रहे हैं. आपका बड़ा कैरियर है..!Ó मेरा जवाब था मैं रिमोट तैयार कर रहा हूं. अब अपने शहर के मुआफिक पत्रकारिता का कंट्रोल हेलो कानपुर से होगा. यह 'बड़बोलाÓपन नहीं था मेरे भीतर की आग थी. जिसका ताप आप २ हजार १० में भी महसूस करेंगे.1
प्रमोद तिवारी

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

२०१० उल्टा अस्तुरा लिए तैयार..

प्रमोद तिवारी
नजरिया नये साल पर-एक
समय का अनुभव हमेशा खट्टा-मीठा होता है लेकिन समय जब कानपुर में कदम रखता है तो लगता है केवल खट्टा और सिर्फ खट्टा होता है. वर्ष २ हजार ९ गया और अब दस का पदार्पण हो चुका है. दस के कदम उस काल खण्ड पर पड़े हैं जिसकी तैयारी हमने सदी के अंतिम दशक से ही शुरू कर दी थी 'विजन-२०१०Ó के नाम से. शहर के योजनाकारों ने २०वीं सदी के अंतिम दशक २१वीं सदी के प्रथम दशक के दरमियान बीस वर्षोंमें शहर की जो कल्पना की थी आज उसके चिह्न तो छोडिय़े शहर १९९० के दशक में जिस तंदरुस्ती को भोग रहा था आज उसके दशाऔर गम्भीर है. 'विजन-२०१०Ó शब्दों के सहारे नगर निगम, केडीए, जिला प्रशासन समाचार पत्रों ने तरह-तरह की योजनाओं परिकल्पनाओं सर्वेक्षणों शिलान्यासों तथा नेताओं की घोषणाओं से शहर की जो स्वप्निल तस्वीर उछाली थी वह २ हजार १० की हकीकत के सामने शर्मसार है...चूर..चूर..!
२ हजार ९ को विदा करते-करते जरा सोचिए कि कानपुर क्या एक शहर है..? शहर किसे कहते हैं..? शहर केवल तीन मतलबों से..गांवों से बेहतर होता-बिजली, पानी और सड़क. आपको शायदन पता हो इसी प्रदेश में कुछ ग्रामीण इलाके ऐसे भी हैं जहां कानपुर महानगर से बेहतर सड़कें, ज्यादा बिजली और नियमित पानी की व्यवस्था है. ये ग्रामीण इलाके उन गंवार कहे जाने वाले नेताओं के प्रभाव वाले क्षेत्र हैं, जिन्हें उनकी जात बाहुबल और बेशर्मी ने कभी मंत्री बनाया तो कभी मुख्यमंत्री. मुख्यमंत्री तो हम नहीं बना पाये लेकिन मंत्री तो हम कानपुर वालों ने भी बनाए. लेकिन आज तक एक भी नरेश अग्रवाल, नसीमुद्दीन या ब्रजेश पाठक (महज सांसद) जैसे गंवारू तेवर वाले नहीं बना पाये जो देश-दुनिया में चाहे जो नरक फैलाये हों लेकिन अपने गृह जनपद को स्वर्ग बनाने में कोई कोताही नहीं बरती. न विश्वास हो तो हरदोई, उन्नाव और चित्रकूट जाकर देख आओ. इन लोगों के इलाके चमचमा रहे हैं और हम महानगरीय नेताओं की सरपरस्ती में विजन-२०१० और विजन-२०२० के कपोल कल्पित नारों और सपनों में उलझे हुए हैं. इस तरह हम कह सकते हैं कि कानपुर एक ऐसा राजनीतिक पठार है जिस पर एक गंवार नेता भी पैदा नहीं हो पाया.गांवों से पहले लोग जंगलों में थे. शहर केवल एक गारंटीड सुविधा के कारण ही जंगल से बेहतर होता है जिसे कहते हैं सुरक्षा. इसी सुरक्षा का दूसरा नाम है पुलिस. बताइये क्या शहर में आप सुरक्षित हैं..! और अगर सुरक्षित नहीं हैं तो पुलिस के होते हुए भी पुलिस का अस्तित्व कैसे स्वीकार कर लिया जाये. कानपुर में तो पुलिस 'सुरक्षाÓ में बाधक बन रही है. बाधक बनने के बदले उसे राज्य सरकार से वेतन मिल रहा है. वेतन के बावजूद वह पूरी तरह से नोट छापने वाली खाकी रंग की एक एजेंसी में तब्दील हो गई है. पहले पुलिस के इसी रूप को डकैत या लुटेरा कहा जाता था. लेकिन आज उन्हें कोई डकैत या लुटेरा नहीं कहता बल्कि १५ अगस्त और २६ जनवरी को गवर्नर से लेकर राष्ट्रपति के यहां तक उसे मान-पत्र तक दे दिया जाता है. इसी महीने यानी २ हजार ९ के अंतिम महीने में गंगा कटरी की तीन घटनाओं को सामने रखें तो शहर में पुलिस की मौजूदगी को खारिज करने के लिए पर्याप्त है. दिसम्बर माह की शुरुआत में गंगा कटरी में एक लाश पड़ी मिलती है. लोग जब नवाबगंज थाना को 'लाशÓ की सूचना देते हैं तो वहां से दुत्कार मिलती है. पुलिस लाश देखने तक नहीं जाती. और जब उससे पूछ ताछ की जाती है तो कहती है-लाश पोस्टमार्टम के बाद गंगा में बहा दी गई थी. वही बहकर आ गई थी फिर गंगा में बह गई-यह जवाब अगर पुलिस का है तो मक्कार, जल्लाद या कसाई का जवाब क्या होगा? पोस्ट मार्टम के बाद लाश गंगा में फेंकना क्या अपराध नहीं. कटी-फटी लाश फिर से गंगा में बहाना क्या अपराध नहीं. लाश किसकी थी जो सीधे गंगा में बहाई गई.क्या यह विवेचना का विषय नहीं..! अगर नहीं तो फिर नवाबगंज थाने की क्या जरूरत. यहां पर जरूरत थी गंगा प्रेमी, रामजी त्रिपाठी की जो हल्ला मचाते पोस्ट मार्टम की गई लाशों को सीधे गंगा में क्यों फेंका जा रहा है. पुलिस को दण्डित कराने के लिए धरना प्रदर्शन करते लेकिन वह तो अभी भैरव घाट पर जमा लाश सामग्री के कचरे को ही निस्तारित कर पाने में सफल नहीं हो पाये हैं. हां इतना जरूर है कि शवों के साथ का कचरा अब खुले आम दिन-दहाड़े गंगा में नहीं बहाया जा रहा है. गंगा २ हजार ९ में लोगों के प्रचार का बढिय़ा जरिया बनी रही. ऊपर के दोनों उदाहरण शहर की तीन प्रवृत्तियों को उजारगर करने के लिए पर्याप्त है. पहली सुरक्षा, दूसरी नागरिक समझदारी, तीसरी राजनीतिक तासीर. क्या आपको नहीं लगता कि इन तीनों बिन्दुओं पर शहर में २ हजार ९ खट्टा-खट्टा ही बीता.बाकी स्वास्थ्य और शिक्षा की दशा पर ज्यादा कुछ क्या कहें? नाम से उभरे एजूकेशन हब में पब (खेल) चल रहा है. सिगमा का बनना और टूटना कोंिचंग की सुनियोजित लूट का प्रत्यक्ष प्रमाण है. लेकिन जय हो लुटेरों की. सबको छूट है. इंजीनियरिंग कॉलेजों की बाड़ में इंजीनियरिंग बही जा रही है. इन दिनों भाभा इंस्टीट्यूट में पार्टनरों में झगड़ा बता रहा है कि ये शिक्षाविद् भाभा इंजीनियरिंगों का कैसा भविष्य तैयार कर रहा है.मेडिकल क्षेत्र में २००९ का सरकारी फॉलाअप कुछ इस प्रकार है कि वेटीलेटर के अभाव में उर्सला और हैल्ट के बीच दौड़ते-भागते प्रतिमाह करीब दर्जन भर लोगों की मौत हो जाती है. एक सीएमओ भी एक वेंटीलेटर का भी इंतजाम नहीं कर पाता.यह सब उस शहर का सतही लेखा-जोखा है जहां पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप से शहर का रूप-स्वरूप बदलने में छोटी-बड़ी दर्जनों संस्थाएं खोदी हुई हैं. तो फिर कानपुर में हो क्या रहा है? मेरी मानो तो बस समय कट रहा है जो लुट रहा है उसका भी और जो लूट रहा है उसक भी. अब हम २०१० के सामने प्रस्तुत हैं. समय फिलहाल उल्टा अस्तुरा लिए तैयार है...!अंत में आपको बताएं कि हमने २००९ की शुरुआत मुम्बई बम धमाकों की थरथराहट से शुरू की थी और समापन दिसम्बर में शहर में प्रतिदिन एक हत्या की दहशत के साथ की है.1