सोमवार, 4 जनवरी 2010

खरीबात
प्रमोद तिवारी
सर तो पुलिस का कलम हुआ है
कानपुर में अगर पुलिस का कुल अस्तित्व ही समाप्त कर दिया जाये तो हमारे नगरीय जीवन में क्या $फर्क पड़ जायेगा. हो सकता कि आपको लगे कि बिना पुलिस के भला शहर की कल्पना कैसे की जा सकती है. तो फिर $जरा यही सोचिए कि आखिर ग्रामीणों ने हत्या कर शव कटरी में फेंकने की शिकायत की थी थाना नवाबगंज से. दो दिनों तक पुलिस शव उठाने नहीं आई. लोगों ने अधिकारियों तक बात पहुंचायी तो थाना पुलिस ने कह दिया पोस्टमार्टर के बाद की कटी-फटी लाश थी, बहकर गंगा के किनारे आ गई थी, बाद में फिर बहकर गंगा में विलीन हो गई. अब कटरी को आप अगर नदी किनारे का जंगल मानें तो सीन तो यही बना कि एक आदमी पहले जंगल में मरा और फिर वहीं पड़ा-पड़ा सड़ा. न कोई बचाने आया और न कोई उठाने. फिर काहे का कानपुर शहर और काहे की पुलिस. इसके आगे का तमाशा भी कुछ कम नहीं है. इस घटना के कोई दो-चार दिनों बाद कटरी में फिर एक शव मिलता है. लेकिन उसका सर गायब है. यह कटरी है तो गंगा की लेकिन उन्नाव के हिस्से आती है तो उन्नाव पुलिस आ गई और इस पर कोढ़ यह हो गया कि धड़ के कुछ अंग कानपुर में महाराजपुर इलाके में मिले तो कानपुर पुलिस फिर घेरे में आ गई. सर का अभी तक पता नहीं चल पाया है. पुलिस तलाश कर रही है युवा अभियंता अमित द्विवेदी के सर का. लेकिन पुलिस जिस तरह से काम करती है उस लिहाज से पुलिसिया तलाश से किसी तरह के नतीजे की आशा फिजूल है.. कायदे से तो पुलिस को अपना सर तलाशना चाहिए. एक आदमी भरे शहर में बोटी-बोटी काट कर कोने-कोने चढ़ा दिया जाये और पुलिस को कोई भनक या सुराग न हाथ लगे तो क्या जरूरत है पुलिस की इस शहर को. अभी आदमी की यह कतरन ठीक से बटोरी भी नहीं जा पाई थी कि दो-चार दिन बाद एक और आधी-अधूरी लाश मिली इसबार सर मिला जिसका धड़ गायब था. यह काम भी गंगा किनारे हुआ. पुलिस धड़ खोजने में लग गई. खोजी पुलिस को तो धड़ मिला नहीं लेकिन जिस अभागे का सर कलम हुआ था उसके लड़कों ने गंगा में गोते लगा-लगा कर बाप के धड़ के अवशेष जरूर खोज निकाले. पुलिस आदमी को लौकी, तरबूज की तरह कटने से रोक नहीं पा रही. कटे टुकड़े बटोर नहीं पा रही. सही-सही रिपोर्ट लिखने में गंगा के दोनों छोर एक-दूसरे को भागी बता रहे हैं. इसतरह ऊपर की तीनों हत्याओं और उसके लाश निस्तारण में कहीं आपको कोई पुलिस की भूमिका दिखी?यहां जिन लाशों का जिक्र हो रहा है वे लावारिस लाशें भी ग्रामीणों को ही मिलीं, गश्त करती पुलिस को नहीं. जो धड़ पब्लिक को मिला वह भी बिना शिनाख्त के पुलिस द्वारा गाड़ दिया गया बजाय पहचान तलाशने के. जो सर मिला उसका धड़ भी 'पीडि़त पुत्रोंÓ ने ही गंगा से निकाला पुलिस ने नहीं. आप खुद ही बताएं अगर आज भी कानपुर शहर के बजाय अभी भी दण्डकारेण्य वन ही होता तो हमारी जान के साथ कोई जानवर या लुटेरा इससे ज्यादा वीभत्सतता क्या दिखा पाता..? घर के बाहर कदम रखते ही मां-बहनों के गले पर झपट्टा पड़ता है. दिन-दहाड़े घर में घुसकर डाका पड़ता है. अकेली औरत की अस्मत लुट जाती है. रोज ही रोज बच्चे, जवान, बूढ़े बिना किसी दिक्कत के उठा लिये जाते हैं. राह चलती लड़की गली में खींचकर बेपर्दा कर दी जाती है. दबंग मारते हैं. शोहदे छेड़ते हैं, माफिया लूटते हैं और आम शहरी अगर इनके खिलाफ आवाज बुलंद करना चाहे तो सबसे पहले पुलिस ही रिपोर्ट न लिखकर सुरक्षा के लिए जंग की चिंगारी पर पानी डाल देती है. रिपोर्ट न लिखना क्या है. दरअसल पुलिस का अपराध दर्ज न करना हमारी सुरक्षा करने से इंकार है. इस इंकार के बाद हमें पुलिस की क्या जरूरत रह जाती है. २ हजार ९ जा रहा है. जाते वर्ष के साथ-साथ एक नया वर्ष २ हजार १० भी आ रहा है. जर सोचिए.. क्या हम जंगलवासी नहीं हैं.. जंगल में पुलिस का क्या काम..! इसलिए पुलिस हटाओ.1
चौथा कोना
धीरे-धीरे पांच बरस हो गये
नव वर्ष की बधाइयां
नव वर्ष के आगमन पर हेलो कानपुर के पाठकों, विज्ञापन दाताओं और समाचार-पत्र वितरकों को हार्दिक शुभकामनाएं. धीरे-धीरे ५ वर्ष पूरे हो गये हेलो कानपुर के नियमित प्रकाशन के. विवेकानन्द जी ने कितना कहा था कि-'अ जरनी ऑफ थाउसेण्ड माइल्स बिगिन विथ अ सिंगल स्टप.Ó यानी हजारों-हजार मील की यात्रा की शुरुआत आखिर होती तो पहले कदम से ही. आज ५ वर्ष बाद जब २ हजार ५ का अखबारी परिदृश्य याद करता हूं और हेलो कानपुर के उद्घाटन अग्रलेख में आपसे की गई बातों की समीक्षा करता हूं तो मन को बहुत संतोष होता है. क्योंकि मेरी कही कोई शायद ही कोई ऐसी बात हो जिसने समय की कसौटी पर अपना खरापन न साबित किया हो.आज हर अखबार को शहर की चिंता हो गई है. हर अखबार शहर की दशा और दिशा को लेकर पूरी गम्भीरता से पाठकों के बीच है. स्थानीय स्तर पर कानपुर की पत्रकारिता के इस वर्तमान तेवर का असर भी दिखाई पड़ रहा है लेकिन न मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं कि इस आवश्यक अखबारी दृष्टि की जरूरत सबसे पहले हमने महसूस की. न सिर्फ महसूस की बल्कि प्रयोग के तौर पर हेलो कानपुर (साप्ताहिक) निकाल कर शहर के सजग पाठकों के बीच एक स्वस्थ्य बहस को जन्म दिया. एक के बाद एक हफ्ते बीतते हुए जब हेलो कानपुर की प्रसार संख्या और 'विचार प्रभावÓ लगातार बढऩे लगा तो जिन अखबार वालों ने हेलो कानपुर को 'प्रमोद तिवारीÓ की 'मजबूरीÓ, मुंह जियाई या पेट पालन की विवशता समझा था उन्हें समझ में आने लगा कि हेलो कानपुर की भाषा, विषय और जीदारी की अगर और उपेक्षा की गई तो आम पाठकों में अपना मान बनाये रखना, विश्वास बनाये रखना, स्थान बनाये रखना बेहद मुश्किल हो जायेगा. शुरू में तो किसी को कुछ समझ में नहीं आया लेकिन धीरे-धीरे हमारी कवर स्टोरियां, हमारी टीका-टिप्पणियां हमारे मूल विचार अन्य विश्वस्तरीय, राष्ट्र स्तरीय व प्रान्त स्तरीय अखबारों के विषय बनने लगे. फलस्वरूप इन पांच वर्षोंंमें हमने आम पाठकों के बीच अपनी शाख बनाई सिर्फ अखबार की ही नहीं खुद अपनी भी लेकिन जो दो दशकों के मेरे छोटे-बड़े पत्रकार साथी थे उनसे तकरीबन किनारा हो गया. मैं जब सोचता हूं ऐसा क्यों हुआ..तो ठोस कारण नहीं ढूंढ़ पाता. हां, इतना जरूर समझ पाता हूं कि बड़े अखबारों के ये नौकर पत्रकार छोटे से साप्ताहिक अखबार की ठसक से खीझे हुए हैं.एक बात और..! जितने भी दिग्गज पत्रकार माने जाते हैं शहर के सबके सब यह माने बैठे थे कि तमाम साप्ताहिकों की तरह यह भी दो-चार हफ्ते या बहुत ज्यादा महीनों का खेल होगा..इसके बाद सब फिनिश..! मैं अपने दोस्त पत्रकारों के हाथों बेहद बेरहमी से कत्ल किया हुआ पत्रकार हूं. जिस दिन कानपुर प्रेस क्लब हड़पने वालों ने मुझे जेल में सड़वाने का षडयंत्र रचा था. हेलो कानपुर निकालने वाले पत्रकार प्रमोद तिवारी का जन्म उसी दिन हुआ था. इसलिए इस शहर के मेरे सम कालीन खुदगर्ज, कमजर्फ खबर नफीसों को हेलो कानपुर की बढ़ती उम्र भला क्यों अच्छी लगेगी. लेकिन कोई बात नहीं..! हेलो कानपुर नई पीढ़ी के पत्रकारों में बेहद सम्मान पाता है. आइनेक्स्ट में संपादक थे यशवंत. चौथा कोना के नियमित पाठक और प्रशंसक 'आइनेक्स्टÓ छोडऩे के बाद बंदा इतना 'टोन-अपÓ हुआ कि दिल्ली जाकर उसने चौथा कोना को ही भड़ास ४ मीडिया डॉट काम के नाम से नेट पर उतार दिया. आज वह देश में मीडिया का अप्रितम एवं विशिष्ट नेट पेपर माना जाता था. भड़ास का जन्म यहीं कानपुर में हुआ है. मैंने अपने एक शुभचिंतक पत्रकार हेलो कानपुर निकालने की तैयारी करते वक्त कहा था जब उसने सवाल किया.'ये आप क्या कर रहे हैं. आपका बड़ा कैरियर है..!Ó मेरा जवाब था मैं रिमोट तैयार कर रहा हूं. अब अपने शहर के मुआफिक पत्रकारिता का कंट्रोल हेलो कानपुर से होगा. यह 'बड़बोलाÓपन नहीं था मेरे भीतर की आग थी. जिसका ताप आप २ हजार १० में भी महसूस करेंगे.1
प्रमोद तिवारी

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