सोमवार, 28 दिसंबर 2009



खबर का असर..!


पहले मेरे भेजे में एक बात पैबस्त थी कि न्यूज चैनल और अखबार वाले बेफिजूल में चिल्लाया करते हैं कि मेरी खबर का ये असर हुआ, वो असर हुआ. भाई साहब लोगों अगर आप की बात में तोला भर भी दम होता तो ये पुलिस महापालिका और केसा वाले पता नहीं कब के सुधर गये होते. लेकिन भाई अब मेरी ये अन्डर वियर की तरह घिसी-पिटी धारणा बदल गई है. ये हादसा अचानक हुआ है.एक दिन मैं आज अखबार पढ़ रहा था, तो एक खबर मेरे चश्मे से निकल नहीं पाई और कहीं अगर निकल जाती तो बड़ा हार्दिक दुख होता. मेरा पूरा वादा है कि इस खबर से आपको सुखानन्द की पूरी अनुभूति अवश्य होगी. वैसे इन दिनों हर अखबार में बढऩे के विभिन्न नुस्खे हर दिन बताये जाते हैं. कोई ज्ञान देता है कि सुबह सैर करो, तो कोई कहता है दण्ड मत पेलो, तो कोई बताता है गुटका मत खाओ, फिर कोई दो पेग दारू पीने का भी मश्विरा बताता है. इन सब कामों में बड़े लफड़े हैं सुबह रजाई छोडऩा नई नवेली दुल्हन को छोडऩे जैसा लगता है और गुटका न खाओ तो शहर में रहने का फायदा ही क्या है?इस खबर में उम्र बढ़ाने की जो विद्या बताई गई है उसमें कोई लफड़ा नहीं है, न ही ठंड में रजाई छोडऩा है और न ही गुटका. इसमें बताई गई कसरत आप रजाई के अन्दर और गुटका मुंह में दबाकर भी कर सकते हैं और वो भी सिर्फ दस मिनट. तो आप एक मिनट के लिए सांस रोककर तैयार हो जाइये मैं आपको नुस्खा बताने ही वाला हूं. इसमें हजरत ने ये बताया है कि आपको यदि अपनी औसत उम्र पांच साल बढ़ानी है तो आपको हर दिन सिर्फ दस मिनट तक स्त्री के स्तनों को ध्यान मग्न होकर निकारना होगा.इसके रसायनिक परिवर्तनों का भी इस खबर में विस्तृत वर्णन किया गया है. इसमें बताया गया है कि स्तन देखने से (टकटकी लगाकर) शरीर में कुछ ऐसे हार्मोन पैदा होते हैं जो इंसान को मस्ती का अहसास कराते हैं और आदमी प्रसन्न रहता है. यह बात विलायत में हुए एक शोध के आधार पर बताई गई है. इसमें इसका उल्लेख कहीं नहीं है कि ये फायदा अपनी स्त्री के साथ होगा या पराई के. कुल मिलाकर इसे करने में कोई बुराई नहीं है. उम्र बढ़ाने के लिए सुबह से पुराने वाले स्टीम इंजन की तरह नाक से छीं-छीं करने से तो बेहतर है कि दस मिनट ...कर लिया जाये.1

हर बीमार घर की

कहानी है गन्दगी



हमारे केन्द्र सरकार के पर्यावरण मंत्री ने कहा कि यदि गन्दगी का नोबेल प्राइज होता तो भारत को मिलता. अच्छा होता वह यह भी स्पष्ट कर देते कि इसका उन्हें गर्व है या शर्म. बात तो ठीक है क्योंकि दुनिया के २१५ गटरों के सर्वे में हमारा १७७वां स्थान है. हमारे २५ शहर दुनिया के सबसे गंदे शहरों की लिस्ट में हैं देश का सबसे साफ शहर चण्डीगढ़ भी इस लिस्ट में १४४ स्थान पर है. कारण तो हमने ढूंढ़ लिये हैं. प्लास्टिक बैगों का इस्तेमाल , नदियों में मूर्ति विसर्जन करना, नगरों में निकलने वाले कूड़े का समुचित डिस्पोजल न होना. घर-घर से कूड़ा बटोरने की स्कीम लागू नहीं हो पा रही है,कहते हैं कि साधन नहीं है. हम गन्दगी फैलाते हैं ऐसे लोगों के खिलाफ कार्यवाही नहीं कर पाते हैं. कभी भी पेशाब, शौच या थूक देते हैं. उद्योग २१ लाख टन वेस्ट खुले में फेंक देता है. अस्पतालों के कचरे के डिस्पोजल का भी समुचित प्रबंध नहीं है. कूड़ेदान होते हुए भी हम कूड़ा उसके बाहर डाल देते हैं. जन शौचालय इस्तेमाल करने लायक नहीं है. कहते हैं कि यह भ्रटाचार के कारण है. सबसे बड़ा प्रश्न है कि हम इन कारणों को दूर क्यों नहीं करते. हमारी राजनैतिक इच्छा नहीं है. हमारे जीवन में सफाई का स्थान बहुत नीचे है. राजनेता तो वायदा करेंगे बाद में वायदा न पूरा करने का होश हमीं पर मढ़ देते हैं. धर्म को हमारे ऊपर जबरदस्ती न करने का बहाना बतायेंगे. ठीक भी है हमको व्यवस्था मिलती है जिसके लायक हम हैं. सफाई को जब हम स्वयं प्राथमिकता देंगे तभी हमें सफा वातावरण मिलेगा अन्यथा उड़ीसा का सुकिंदा और गुजरात का वायी शहर विश्व के सबसे प्रदूषित शहर बने रहेंगे. गन्दगी के कारण घर-घर में बीमारियां बस गई हैं. हम उस दिन का इन्तजार कर रहे हैं. जब हमें सड़क पर चलने के लिए कूड़े के ऊपर से चलना पड़ेगा.



मानक के अनुसार पानी का प्रयोग



पानी चाहे पीने का हो या नहाने का दोनों के मानक होते हैं. यदि मानक के अनुसार नहीं है तो प्रयोग करने से शरीर को हानि होगी. पीने के पानी के मानक का तो काफी प्रचार होता है परंतु नहाने के पानी का नहीं. इसलिए आम जनता इसमें सावधानी नहीं बरतती है. नहाने वाले पानी में डीओ अर्थात घुली हुई ऑक्सीजन ५ मिग्रा प्रति लिटर से कम नहीं होना चाहिए. उस पानी की बीओडी अर्थात ऑक्सीजन की जैविक एवं रासायनिक आवश्यकता तीन मिग्रा से अधिक नहीं होना चाहिए एवं उस पानी की पीएच अर्थात तेजाब और अलकली की मात्रा ६.५ से ८.५ होनी चाहिए. अब इसका ध्यान रखें हर तरह के पानी में डुबकी न लगायें.1



विश्व की सबसे ऊंची इमारत



दुबई में विश्व की सबसे ऊंची इमारत 'बुर्जÓ दुबई ४ जनवरी २०१० को खुल जायेगी. इसकी ऊंचाई ८१८ मीटर है. इसमें ८०० अपार्टमेंट हैं जिनमें ३५००० लोग रह सकते हैं. १४४ फ्लोर है. एक नाइट क्लब है कार्यालय, व्यवसायिक कमरे हैं. दुनिया में सबसे तेज चलने वाली ५४ लिफ्ट हैं. यह दुनिया की बेमिसाल इमारत है. गर्व की बात है कि इसमें १४००० भारतीय काम कर रहे हैं. २६२५ फीट की ऊंची इमारत ६ वर्षों में बन गई केवल १३२५ दिनों में. इसकी शक्ल एक सिरिंज की तरह है इसमें दुनिया का सबसे ऊंचा फब्बारा भी है. इसको बनाने वाली टरनर इंटरनेशनल कम्पनी में भी भारतीय विशेषज्ञ काम कर रहे हैं. इसको इमार ने प्रमोट किया. इसकी एक-एक इंच प्रारम्भ के कुछ ही हफ्तों में बिक गई थी. इससे दुबई की अर्थ व्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा जहां मन्दी के कारण २० प्रतिशत जगह खाली हो गई है.1

खरीबात

शहर में आईसीयू

फिलहाल एक धोखा है

प्रमोद तिवारी

धीरे-धीरे दो साल हो गये हेलो कानपुर ने शहर में वेंटीलेटर की आवश्यकता, उपलब्धता और इसके बीच के बाजार की सही तस्वीर प्रस्तुत की थी. इसकी वजह बनी थी दवा व्यवसायी अनिल बाजपेयी की पत्नी पुनीता बाजपेयी की मौत. इसके बाद भी वेंटीलेटर के अभाव में मौतों का सिलसिला नहीं थमा और शासन प्रशासन ने भी कोई बहुत तवज्जो नहीं दी. अभी तीन माह पहले मशहूर शायर अंसार कम्बरी की बेटी मुन्नी की भी मौत वेंटीलेटर के अभाव में हो गई थी और हेलो कानपुर ने मुन्नी की मौत पर भी शहर में वेंटीलेटर के प्राण लेवा संकट की बात उठाई थी. २००७ में ही युवा पत्रकार सुशील पाण्डेय की मौत भी सच पूछा जाये तो वेंटीलेटर के अभाव में ही हुई थी. और इन दिनों अंतरराष्ट्रीय खतरा बने स्वाइन फ्लू के मरीजों ने शहर की वेंटीलेटर व्यवस्था को पुन: झकझोरा है. इस बार गनीमत यह है कि पत्थर हो चुकी व्यवस्था पर स्थानीय मीडिया के प्रहारों ने व्यवस्थापकों को वेंटीलेटर समस्या, कारण और निवारण पर अपनी स्थिति साफ करने को मजबूर किया है. हैलट अस्पताल में छप्पन बिस्तरों वाले आईसीयू विभाग का उद्घाटन हुए छ: महीने के आस पास होने को आये हैं लेकिन अभी तक इलाज नहीं शुरू हो सका है. एक अनुमान के तहत लगभग सौ मौतें तो इस शहर में वेंटीलेटर के लिए दौड़ते-भागते ही हो जाती हैं जिसमें करीब ५० से ६० मौतों का गवाह बनता है हैलट. हैलट के अलावा शहर में लगभग डेढ़ दर्जन नर्सिंग होम होंगे जो कि खुद को वेंटीलेटर से लैस बताते हैं. इनमें रीजेंसी, मधुराज, सरल, भार्गव, तुलसी, लीलामणि, एक्सल, केएमसी, कुलवंती, रामा, चांदनी, रतन कैंसर, पीपीएम और संजीवनी हॉस्पिटल व नर्सिंग होम आदि प्रमुख हैं. कुल मिलाकर पूरे शहर में गरीब और आम आदमी के लिए सरकारी सुविधा के नाम पर वेंटीलेटर की अगर कहीं सुविधा है तो वह एक मात्र हैलट. इसका सीधा सा मतलब है कि यह एक अनार और एक लाख बीमार की कहावत को भी बौना साबित करता है. फिर जो बाकी प्राइवेट व्यवस्थाएं हैं उनके वेंटीलेटरों पर शहर को आश्रित होना चाहिए लेकिन ये भी अपर्याप्त हैं और आधुनिक तकनीक तथा सुविधाओं से लैस नहीं है. शहर के कई नर्सिंग होमों का जब हेलो कानपुर ने जायजा लिया तो जो तस्वीर सामने आई उसके लिहाज से नर्सिंग होम वाले अपने भवन के किसी एक हिस्से में आईसीयू का बोर्ड तो टांग देते हैं लेकिन इनमें से ज्यादातर के मालिक गहन चिकित्सा कक्ष (आईसीयू) के मानकों को पूरा नहीं करते. आम आदमी सिर्फ आईसीयू का बोर्ड देख कर समझता है कि मरीज के लिए आईसीयू का इंतजाम हो गया है लेकिन होता धोखा है. वास्तव में एक स्तरीय आईसीयू के लिए कमरे और बैड के एरिया का सुनिश्चित मानक होता है. मरीज की देखभाल के लिए एक नर्स चौबीस घण्टे उपलब्ध होनी चाहिए. आईसीयू कक्ष के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित डॉक्टर की मौजूदगी अनिवार्य होती है लेकिन ऐसी अनिवार्यताएं पूरी करता हुआ आईसीयू कहां मिलता है? एक तो आम आदमी को जानकारी का अभाव रहता है और दूसरा उसकी मजबूरी कि आखिर जाये तो कहां जाये. नर्सिंग होमों में एक बार को वेंटीलेटर की सुविधा न हो तब भी गनीमत है लेकिन जो अपने आपको अस्पताल कहते हैं उनके यहां तो वेंटीलेटर होना ही चाहिए. आईसीयू के इंतजाम अगर मानक के अनुरूप नहीं होते हैं तो इण्डियन सोसायटी ऑफ केयर मेडिसिन प्रमाण पत्र जारी नहीं करती. रीजेंसी जैसे अस्पताल को इस संस्था से लेबल थ्री का प्रमाण पत्र प्राप्त है. यह प्रमाण पत्र काफी जांच-पड़ताल के बाद जारी किया जाता है. बावजूद इसके अगर रीजेंसी जैसी एक-आध व्यवस्था को छोड़ दिया जाये तो बाकी अस्पतालों का हाल तो बहुत ही खराब है. निजी अस्पतालों से पहले सरकारी अस्पतालों को ही देख लें. हैलट के अलावा न तो उर्सला में, न केपीएम में और न ही जच्चा-बच्चा में आईसीयू की कोई सुविधा है. और जहां है भी उनके बारे में एक सीनियर डॉक्टर बताते हैं कि शहर के बहुत से नर्सिंग होमों ने सरकारी या दिल्ली-मुम्बई के बड़े प्राइवेट अस्पतालों के रिजेक्टेड और बड़े इंस्ट्रूमेंट नीलामी में खरीदकर अपने यहां आईसीयू स्थापित कर लिया. आईसीयू में काम करने वाले डॉक्टर के लिए क्रिटिकल केयर मेडिसिन का डिप्लोमा आवश्यक है यह डिप्लोमा एमडी मेडिसिन या एमडी एनेस्थीसिया के बाद ही किया जाता है. इसे कसौटी पर कसें तो पायेंगे कि कुछ को छोड़कर शेष नर्सिंग होम में ट्रेंड डॉक्टर तक नहीं हैं, कुछ में विजिटर डॉक्टर को छोड़कर चौबीस घण्टे केवल एमबीबीएस या बीएमएम डॉक्टर तैनात रहते हैं और वो भी बगैर ट्रेनिंग या अनुभव के. जब डॉक्टरों का यह हाल यह है तो ट्रेंड सिस्टर और ट्रेंड टैक्रीशियन का होना फिलहाल कपोल कल्पना है. नाम न छापने की शर्त पर शहर के टॉप यूरोलॉजिस्ट कहते हैं पीजीआई जैसे नीमचीन अस्पताल में डॉ० छाबड़ा जैसे न्यूरोसर्जन को ऑपरेशनों के बाद कोई सेपरेट आईसीयू की आवश्यकता क्यों नहीं पड़ती? क्योंकि वहां मरीज का लुटना तो सम्भव नहीं है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आईसीयू के नाम पर मरीजों के साथ क्या हो रहा है.1

गुड न्यूज

जेट ग्रीनिज बुक

पर दस्तक


जिस दौर में लोग अपनी-अपनी फैक्ट्रियां उद्योग यहां तक कि दुकानें तक लेकर देश के दूसरे हिस्सों में भाग रहे हों उसी समय कानपुर की उद्यमिता ने श्रेष्ठता के एक-दो नहीं ७ राष्ट्रीय एवार्ड हासिल करके ग्रीनिज बुक का वल्र्ड रिकार्ड के पन्नों पर अपनी दस्तक दी है.


अण्डर गारमेण्ट्स क्षेत्र के चमकते ब्रांड 'जैटÓ ने यह कारनामा कर दिखाया है. अभी गत् सप्ताह दिल्ली में भारतीय मानक संस्थान ने राजीव गांधी नेशनल क्वालिटी एवार्ड-२००८ के लिए जिन चार उद्योगों को सम्मानित किया उसमें कानपुर का जैट निट वियर का भी नाम था. जैट को लघु उद्योग की उत्पादन श्रेष्ठ का एवार्ड दिया गया. बाकी के तीन एवार्ड इंण्डियन आयल कारपोरेशन (हलदिया) को भारी उद्योग श्रेणी में सेवा के लिए, गेल (विजयपुर) को उत्पादन के लिए और सतलुज जल विद्युत निगम (शिमला) को कुल श्रेष्ठता में यही एवार्ड प्राप्त हुआ. जरा सोचिए पूरे देश भर में उत्पादन के मामले में कानपुर का जैट निट वियर सर्वश्रेष्ठ लघु उद्योग इकाई निकली. क्या यह एवार्ड कानपुर से भाग रहे उद्यमियों के लिए पुनर्विचार का मौका नहीं देता. कमाल की बात तो यह है कि भारतीय मानक संस्थान ने जिन चार उद्यमी इकाइयों का चयन किया उसमें बाकी की तीनों सार्वजनिक क्षेत्र भी हैं. और जैट अभी मात्र तीन दशकों में एक परिवार के संयुक्त प्रयासों तथा साथी कर्मियों की लगन से पनपी संस्था है, जिसका अर्थिक ढांचा बाकी तीन सम्मानित सरकारी प्रतिष्ठानों के मुकाबले कहीं नहीं ठहरता. एक तरह से 'जेटÓ की प्रगति पत्थरों पर नगवानी सरीखी है और कमला यह है कि इसकी महक देश में ही नहीं पूरी दुनिया में महसूस की जा रही है.'जैटÓ के निदेशक बलराम नरुला कहते हैं कि इसमें क्या संदेह कि कानपुर में उद्योगों के लिए अनुकूल वातावरण नहीं है. अगर कहीं अनुकूलता होती तो जैट जो उपलब्धि आज हासिल कर रहा है यह कल की बात होती. उन्होंने बताया कि 'जैटÓ देश की ही नहीं पूरी दुनिया की ऐसी पहली लघु उद्योग इकाई हे जिसने ७ बार कई 'राष्ट्रीय एवार्डÓ जीता है. हमने इस उपलब्धि के लिए ग्रीनिज बुक ऑफ वल्र्ड रिकार्ड में इंट्री की पहल भी की है.


सिग्मा ध्वस्त

लुट गये सत्तर करोड़

'साझे की हण्डिया चौराहे पर फूटती है.Ó यही हुआ. सिग्मा बनने के साथ ही हेलो कानपुर ने शहर को बताया था कि कैसे कोचिंग के सात महारथियों ने मेधावी छात्रों को लूटने का कुचक्र रचा है. जब देश और प्रदेश के बड़े अखबार और चैनल सिग्मा के बनने से कानपुर ही नहीं देश, प्रदेश के मेधावी छात्रों को समुद्र मन्थन से निकलने वाले अमृत सा बता कर यशोगान की झूठी गाथाएं सुना, दिखा, पढ़ा रहे थे तब हमने लिखा था 'सात लूटेंगे सत्तर करोड़.Ó हमारा कहा आज सच साबित हो गया. लालच, झूठ, मक्कारी, बेईमानी और दबंगई की नींव पर खड़ा किया गया सिग्मा का महल छ: माह के अन्दर ध्वस्त हो गया. आशीष विश्नोई कहते हैं विचार नहीं मिले.
काकादेव कोचिंग मण्डी में सब धनपिपासु ही हैं, ऐसा नहीं है यहां ऐसे सर भी हैं जिन्होंने चालीस-पचास या नबबे से ज्यादा के क्लास न लगाने का एलान कर रखा है. ऐसे सर भी जिन्होंने सिग्मा से भगाये गये छात्रों को न के बराबर फीस में अपने यहां एडमीशन दिया है. ऐसे सर भी हैं जिन्होंने, दूसरी कोचिंग में कोई टापिक न समझ पाने वाले छात्रों के लिये अपने यहां स्पेशल क्लास चलाये हैं. ऐसे सर भी है जो गरीब छात्रों को छात्रवृत्ति दे रहे हैं. ऐसी कोचिंग भी हैं जिन्होंने विज्ञापन के बड़े-बड़े दावों से तौबा कर रखी है. ऐसे सर भी हैं जो दलालों से दूर का भी वास्ता नहीं रखते हैं.इन्हीं ईमानदार मेहनती सरों के बल पर काकादेव कोचिंग मण्डी अभी बनी है बल्कि बढ़ रही हैं, अन्यथा दलाल, दबंग और धोखेबाजों ने तो कई बार सोने के अण्डे देने वाली इस मुर्गी को हलाल कर डालने की आत्मघाती साजिश की है.
मुख्य संवाददाता
नीयत अगर खराब हो तो नीति की बड़ी-बड़ी बातें अपना महत्व खो ही देती हैं. मेधा को तराशकर और परिपक्व व सुयोग्य बनाने की अपनी जिम्मेदारी निभाने के बजाय उसे हताश करने का अक्षम्य अपराध सिग्मा के महागुरुओं ने किया. वह भी उन्हीं छात्रों के करियर की कीमत पर जिनको बनाने का ठेका लिया था. एक साल भी अपनी साझेदारी न चला कर इन्होंने दिखा दिया कि ये शिक्षक नहीं एकता कपूर के सीरियलों के महात्वाकांक्षी, लोभी कुटिल षडयन्त्री बिजनस टायकून हैं काकादेव कोचिंग मण्डी के नामचीन बड़े-बड़े सर. काकादेव की कोचिंग मण्डी की एक ही विशेषता है कि यहां सुविधानुसार इंजीनियरिंग की तैयारी के लिये फिजिक्स, कैमिस्ट्री और मैथ की कोचिंग किसी भी सर के यहां पढऩे के लिये स्वतंत्र हैं. कई मेधावी छात्र तो अपने किसी एक कमजोर विषय की ही कोचिंग पढ़ते हैं. अन्य विषय स्वयं तैयार करते हैं. याद करिए इसी वर्ष मई माह में अचानक कोचिंग के कुछ महारथियों की दिमागी सनक का कीड़ा बड़ी-बड़ी होडिगों और विज्ञापनों के माध्यम से काकादेव में छात्रों और अभिभावकों की छाती पर सिग्मा बनकर लौटने लगा था. सिग्मा उस सिंडीकेट का नाम था जिसमें काकादेव मण्डी के सर्वाधिक बिकाऊ डिमांडिंग और स्मार्ट सरों का गठजोड़ हुआ. सिग्मा बनाकर इन महारथियों ने एक मौखिक आदेश जारी किया था जो एक विषय हमारे यहां पढ़ रहा है उसे बाकी दो विषय भी हमारे यहां ही पढऩे पडेंगे. 'यू शुड बी आइदर इन सिग्मा आर आउट ऑफ सिग्माÓऐसे में हजारों छात्रों का भविष्य संकट में फंस गया था. क्योंकि सिग्मा बनाने तक हजारों छात्रों ने काकादेव में दस से पन्द्रह हजार फीस देकर अलग-अलग फिजिक्स, कैमिस्ट्री, मैथ की कोचिंग ज्वाइन कर ली थीं. जो फिजिक्स, कैमिस्ट्री और मैथ एक विषय या दो विषय सिग्मा के बाहर की कोचिंग में पढ़ रहे थे उन पर दबाव पड़ा, सैकड़ों छात्रों को सिग्मा से बाहर की कोचिंग छोडऩी पड़ीं. खाने-पीने के उद्देश्य से बना सिग्मा वैसे तो बनते ही दरकने लगा था 'हेलो कानपुरÓ ने चेताया भी था. सिग्मा बनने के कुछ दिन बाद शुरू हो गया था. कुछ बड़े सरों कोलगने लगा कि मुनाफे का बड़ा हिस्सा बेवजह छुट भैठये सर ले जा रहे हैं. सिग्मा बना तो था दूसरे कोचिंग संचालकों को 'ढ़क्कनÓ करने के लिये, लेकिन बाद में उसके अन्दर ही छोटे-छोटे ग्रुप बनने लगे. और 'विधायक दलÓ की तरह प्रेशर पालिटिक्स शुरू हो गई. कई बार तो ऐसा हुआ कि नियत समय और तय ब्लाक में फिजिक्स के सर ने अपनी क्लास लेने के बजाय अपने ग्रुप के चहेते कैमिस्ट्री के टीचर की क्लास करवा दी और वही टापिक पढ़वा दिया जो वहीं पर कुछ मिनट बाद दूसरे सर को पढ़ाना था. यही नहीं निर्धारित समय से पहले ही क्लास खत्म कर छुट्टी कर दी.कुछ देर बाद पढ़ाने आने वाले कैमिस्ट्री के टीचर को वहां ताला मिला. इसतरह के अपमान से खीझ कर सबसे पहले कैमिस्ट्री के पंकज अग्रवाल ने घोषणा कर दी, जिसे पढऩा हो मेरे ब्लाक में आये, मैं कहीं पढ़ानेनहीं जाऊंगा.कांट-छांट के दूसरे दौर में कई सरों ने अपनी कक्षाएं निर्धारित समय के बाद छोडऩी शुरू कर दीं ताकि दूसरी कक्षाओं में छात्र समय से न पहुंच सकें. प्रभावित होने वाले सरों ने फिर आदेश किया कि मेरी कक्षा में लेट आने वालों को प्रवेश नहीं मिलेगा. यही नहीं बाद में स्थिति इतनी बिगड़ी कि अपने ही सब्जेक्ट के दूसरे टीचर के यहां जाने वाले छा. को अपने यहां घुसने से मना किया जानेलगा. इस तरह अगर कोई टापिक किसी छात्र का छूट गया था या उसे समझ में नहीं आ पाया था और दूसरे ब्लाक मं दूसरा टीचर पढ़ा रहा था तो चाहते हुए भी छात्र वहां पढ़कर अपनी प्राब्लम साल्व नहीं कर पाया. सिग्मा बनने से जो सबसे बड़ा फायदा था कि पन्द्रह सौ के बैच में पढऩे वाले छात्र-छात्राओं को दौड़ भाग कर सीट नहीं घुरनी पड़ेगी. वे एकजगह बैठेंगे और टीचर ब्लाक बदलकर पढ़ाने चले जाएंगे, ध्वस्त हो गया. और छात्रों की भाग दौड़ में मारा-मारी शुरू हो गयी.खराब बातप्रतिस्पर्धा, दुराग्रह और खुन्नस की खाई आपस में इतनी गहरी हो गई कि फिजिक्स के सर के ब्लाक से कैमिस्ट्री के, मैथ के सर के ब्लाक से फिजिक्स के और कैमिस्ट्री के ब्लाक से मैथ के टेस्ट पेपर छात्रों को दिये जाने लगे. ये टेस्ट पेपर बाहर के टीचरों ने बनाये थे और काफी टफ थे. छात्र इनको साल्व नहीं कर पाये तो छात्रों को एहसास कराया गया कि तुम देख लो, फलां सब्जेक्ट में तुमको कुछ आता ही नहीं है, क्या पढ़ाया गया है. छात्र-छात्रा जब अपने सब्जेक्ट टीचर के पास गये तो उन्होंने प्राब्लम साल्व करने के बजाय कहा कि अरे ये सब 'इरेलिवन्टÓ है, किस बेवकूफ ने दिये हैं? आपाधापी में बेचारे छात्र इतने कन्फ्यूज और डिप्रेश हो गये कि वे क्या पढ़ें, क्या न पढ़े, उन्हें कुछ आता भी है या नहीं कुछ समझ ही नहीं पाये आना बंद हो गया.एक ओर जब आई.आई.टी. सहित विभिनन तकनीकी संस्थान अपने छात्रों को एक्जाम में डिप्रेशन में जाने से रोकने के लिये काउन्सिलिंग करते हैं तो सिग्मा अपने ही छात्रों को कुल्हाड़ी बांटरहा है अपने करियर के पैरों पर मारने के लिये.भूत की लंगोटी'भागते भूत की लगोंटी भलीÓ कुछ ऐसी ही स्थिति में कोर्स में पिछड़ गये छात्रों को अपने बोर्ड एक्जाम की चिंता हो गई है कि अगर बोर्ड एक्जाम अच्छे नम्बरों से पास नहीं हुए तो किसी भी कीमत पर इन्जीनियरिंग में एडमीशन नहीं हो पायेगा. या फिर अभिभावक अगले वर्ष कोचिंग नहीं पढऩे देंगे. ऐसे बहुत से छात्र अब आस-पास या स्कूलों की बोर्ड कोचिंग ज्वाइन कर कम से कम इण्टर तो अच्छे नम्बरों से पास करने की प्रियार्टी दे रहे हैं.सिग्मा जिसका अर्थ ही जोडऩा है, जो बनने के साथ ही तोडऩे लगा था. पहले इसने मेधावी छात्रों को अपनी कोटरी में बन्द कर बाहरी टीचरों से उनका सम्पर्क तोड़ा. बाद में अपने ही टीचरों से उनका सम्पर्क तोडऩे लगा. अन्त में टीचरों ने अपने संबंध खत्म कर सिग्मा को तोड़ डाला है. सबसे पहले आशीष विश्नोई ने अपने ब्लाक से सिग्मा का बोर्ड उतार कर अपना 'आशीष विश्नोईÓ का बोर्ड टांग दिया है. उसके बाद अनीस श्रीवास्तव, पंकज अग्रवाल ने भी सिग्मा के बोर्ड अतार दिये. बाद में यही काम राज कुशवाह और संजय चौहान ने कर दिया. या तो बोर्ड काले कपड़े से टक दिये या उतार फेंके.साजिश जारीआज सिग्मा ध्वस्त दिख रहा है लेकिन अमर सिग्मा के अध्ययन शील और मेधावी छात्र अपने ही गुरुओं की बाधाओं के बाद अच्छा रिजल्ट ले आयें तो भविष्य में उसकी कुटिया में और छात्रों को फंसाने की योजना भी बना ली गई है. सिग्मा में शामिल एक बिल्डर टीचर ने दूसरे रसिक मिजाज टीचर के साथ मिलकर दिल्ली में सिग्मा ट्रेड का रजिस्ट्रेशन अपने नाम करवा लिया है. इसलिए अगर इन्जीनियरिंग परीक्षाओं के बाद सिग्मा फिर रंगरूप बदलकर मनमोहनी सूरत में हाजिर हो जाये तो कोई बड़ा आश्चर्य नहीं है.
आशीष विश्नोई कहते हैं-गणित की दुनिया में जाना पहचाना नाम सिग्मा में शामिल आशीष विश्नोई से जब हमने सिग्मा के टूटने और उससे छात्रों को होने वाली दिक्कतों के विषय में पूछा तो उनका जवाब था कि हमने प्रयास किया था कि छात्रों को ज्यादा अच्छी तरह से पढ़ाया जा सके. लेकिन आप जानते हैं जहां चार लोग होते हैं दिक्कतें आ ही जाती हैं. हमारे विचारों में सामान्ता न होने के कारण इसके खत्म होने की नौबत आ गयी फिर भी हमारा प्रयास है कि छात्रों को कोई दिक्कत न आये. सिग्मा के अन्य डायरेक्टरों से फोन न उठने के कारण बात-चीत न हो सकी.1

सोमवार, 21 दिसंबर 2009


बापुओं के प्रकार!


हमारा देश शुरू से बापू प्रधान रहा है. हर काल, युग में पाये जाते रहे हैं और जाते रहेंगे भी. घटना का आरम्भ में उस बापू से करना चाहूंगा जिनकी तस्वीर नोटों पर चस्पा है. हमने उन्हें चाहें दिन से जुदा कर दिया हो, लेकिन जान से प्यारे नोटों पर फेवीकोल की तरह चिपका के रखा है. अब इससे ज्यादा सम्मान और क्या हो सकता है? इन बापू को बंदर और बकरी पालने का बड़ा शौक था. आज उसी के चलते पूरा देश दाल-भात के चक्कर में कुलाटी खा रहा है. वैसे तो अपने शहर में भी एक बापू हुए नहीं, बल्कि सशरीर विद्यामन हैं उनकी व्याख्या अगर मन हुआ तो करूंगा, नहीं तो नमस्ते.दरअसल जिन बापूे की चर्चा है इस सप्ताह करना चाहता हूं वो बड़े नायाब आइटम हैं. आप चाहें उन्हें आइटम बापू भी कह सकते हैं. इनका जाल भी नोट में छपी तस्वीर वाले बापू की तरह पूरे संसार में है. इन दिनों जिस न्यूज चैनल का बटन दबाओ इनका गुणगान सुनने और देखने को मिल जाता है. इनका दायरा फैलकर संस्कार और आस्था चैनल को पार करता हुआ पूरे टीवी नेटवर्क पर फैल गया है. अब तो अखबारों और पत्रिकाओं में भी इनके गुणगान देखने को मिल रहे हैं. इन्हें धरती मां से बड़ा प्रेम है. इसी के चलते धरती खाली देखते ही अपने में समेट लेत हैं. ये अपने भक्तों को भी माया-मोह से मुक्त कर खुद उसमें फंस जाते हैं. त्याग की इतनी बड़ी मूर्ति आपको देखने को नहीं मिलेगी. वैसे भी अपनों के कष्ट हरना ही बापुओं का कर्तव्य है. अबकी बार इनकी बात हाईकोर्ट के समझ में जरा कम आई है तो पेट में गैस फंसने की शिकायत से थोड़ा परेशान हैं. लगता है कि कृष्ण जन्म स्थली के दर्शन का योग बन रहा है. वैसे भी वहां कौन कम भीड़ रहती है. धंधा आसानी से चलता रहेगा.जगह और समय दोनों ही बच रहे हैं इसलिए अपने शहर वाले बापू की चर्चा करने में कोई नुकसान नहीं है. शहर के छात्रों और वकीलों को मोमबत्ती दिखाने वाले ये बापू इंसान ठीक-ठाक लगते हैं. शहर के चर्चित बंगले से उनका पुराना बैर है. मौका मिलते ही पिल जाते हैं. रिजल्ट वही होता है जो शेर से लडऩे के बाद आता है. उम्र ढल रही है लेकिन हिम्मत में कमी नहीं है. परमात्मा इनकी धर्म पत्नि को हमेशा सुहागिन बनाये रखें, अपने शहर के एकलौते बापू होने के साथ अपनी उनके एक मात्र पति भी हैं. (मेरी जानकारी के अनुसार) आजकल किसी की गारंटी लेने का समय नहीं है.1

जिन्दगी के

स्थान पर मौत


बच्चों के हाथ में किताब होनी चाहिए परंतु उन्हें बन्दूक पकड़ाई जा रही है. विश्व में लगभग ढाई लाख बच्चे बन्दूक पकड़ कर लड़ रहे हैं. दुनिया के ४७ देशों में वे वहां के हथियार बंद समूहों में शामिल हैं. इनमें पाकिस्तान, श्रीलंका, कांगो, इराक, अफगानिस्तान और गाजा पट्टी प्रमुख है. शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन इत्यादि से वंचित मूलभूत सुविधाओं का लालच देकर और धार्मिक भावनायें भड़काकर इन्हें युद्ध में ढकेल देते हैं. इन देशों में अशांति, बम, विस्फोट एवं सैनिक कार्यवाही होने के कारण तमाम अनाथ बच्चों को युद्ध में ढकेल दिया जाता है. युद्ध में घायल होने पर विकलांग होने पर कोई पूछने वाला नहीं होता. मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकता है. भोजन देने के लिए बन्दूक पकड़ा देगा. जिन्दगी के स्थान पर मौत दिलवा रहे हैं बच्चों से. मानव अधिकारों के लिए सभी तरीकों को ठीक ठहरा रहा है. पुराना तरीका है भूखा रखो, नंगा रखो, घर न बनाने हो और फिर बन्दूक पकड़ाकर अपना स्वार्थ सिद्ध कराओ. लोगों की लाशों पर मौज करो.हम कितने ढोंगी हैं आज सादगी और मितव्यता बरतने के आदेश हुए तो भारत सरकार के एक मंत्री ने कहा पांच सितारा होटल के प्रतिदिन का एक लाख रुपए का खर्चा वे स्वयं भरते हैं, दूसरे मंत्री ने कहा हवाई जहाज के इकनामी क्रॉस जानवरों के बैठने का क्रॉस है, तीसरे मंत्री ने कहा जब हम विदेशों में जाते हैं तो वहां हमें पांच सितारा होटल में ठहराया जाता है यदि हम वहां के मंत्रियों की ऐसी आवभगत नहीं करेंगे तो हमारी शान घटेगी. राहुल गांधी ने शताब्दी की चेयर कार में चलकर सुरक्षा की समस्या खड़ी कर दी. हमारे मंत्री और राजनेता गरीबी हटाने में असफल रहे तो अब गरीबों का विश्वास (वोट) लेने के लिए गरीबों की कुछ क्रियायें करने का ढोंग कर रहे हैं. तुम कुछ खाओ, कुछ पहनो, कहीं ठहरो परंतु गरीबी हटाने का अपना वायदा पूरा करो अपने काम से अन्यथा तुम ढोंगी हो. गरीबी को ऊंचा उठाया गया है. यही हमारी गरीबी का कारण है हमसे कहा गया है कि गरीब होना बुरी बात नहीं है, संतोष करो तुम्हें भगवान मिलेंगे. धन कमाने में बुरी बातें सीख जाओगे और बुरे काम करने पड़ेंगे.1


खाद्य पदार्थों में आपको जहर खिला रहे हैं


*आम को कैल्शियम कार्बाइड से पका रहे है. यह वही रसायन जिसे बम बनाने में इस्तेमाल करते है उसमें आर्सेनिक और फॉस्फोरस होता है जो ऐसी ऐसीटिलीन गैस पैदा करता है और फलों को तेजी से पकाता है परन्तु उसमें जहर घोलता है. *दुध में यूरिया, डिटर्जंेंट और खाद्य तेल मिला रहे हैं. *सब्जियों में कीटनाशक मिला रहे हैं. बनावटी रंगों से रंग रहे हैं ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन से उनका आकार बढ़ाा रहे हैं. * देशी घी में जानवरों की चर्बी हड्डियों का चूरा और खनिज तेल मिला रहे हैं. वनस्पति घी में स्टेरिन मिला रहे है. *मिठाई में इस्तेमाल होने वाला पिस्ते में मूंगफली के दाने काट कर रंग कर मिला रहे हैं. *यह सब जहर आप खा रहे हैं. फल ,सब्जी दूध, मिठाई व अन्य खाद्य पदार्थों के साथ अधिक धन कमाने की लालच में किसानों से लेकर व्यापारियों ने मिलावट करना शुरू कर दिया है. और वे आम आदमी को जहर खिलाने में न तो हिचकिचाते हैं और न ही बुरा मानते हंै. परन्तु सरकार को तो ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करनी चाहिये. वे आम आदमी को जहर देकर मृत्यु की और ढकेल रहे हैं अत: उनको इस अपराध के लिए मृत्यु दंड देना ही न्याय होगा और खाद्द पदार्थों में जहरी मिलावट को रोक सकेगा. अब तो सरसोंं के तेल में साबुन बनाने वाला तेल, रंग और सुगन्ध मिला रहे हैं. यह तो कुछ उदाहरण है मसालों में , चीनी में, नमक में पानी में भी मिलावट है. आप कैसे मिलावट रोकेंगे सोचिये कुछ करिये.1(लेखक पूर्व स्वास्थ्य निदेशक हैं)

खरीबात
भइया कभी कचेहरी न जाना
प्रमोद तिवारी
एक तरफ फास्ट ट्रैक कोर्ट और दूसरी तरफ यातायात नियमों के उलंघन में सीज कोई वाहन अदालती प्रक्रिया से जूझता हुआ महीनों से थाना परिसर में जंग खाता मिले तो इसमें बात में क्या शक कि समय भीतर न्याय की जोरदार परवरिश दो मुंही है. कानपुर कचेहरी में सैकड़ों की तादाद में ऐसे मामलों की रोज भीड़ जुटती है जिन्हें न्यायालय में एक या दो दिन की कार्यवाही के बाद निजात मिल जानी चाहिए. लेकिन एक-दो दिनों की न्यायालयीय औपचारिकताओं को पूरा करने वाले कितने ही मामले महीनों-महीनों लटके रहते हैं. इस फसाव का कोई बड़ा कारण भी नहीं होता. सौ-दो सौ रुपये का सुविधा भत्ता (रिश्वत), वकीलों की लापरवाह पैरवी और न्यायकर्ता का सामंती मिजाज मिल जुलकर ऐसा त्रिकोण बनाते हैं कि वादी या प्रतिवादी फैसला लेते हैं कि भले ही थोड़ा बहुत नुकसान हो जाए, जान-मान की हानि हो जाए, अमानत में खयानत हो जाए लेकिन अदालत न जाया जाए. यह धारणा जब आम होती है तब ही न्याय व्यवस्था पर से समाज का विश्वास उठ जाता है. और आज की स्थिति यही है. दूसरी ओर मामूली और छोटे मामले वरीयता के आधार पर चट-पट निपटा दिए जाएं तो आम आदमी में न्यायालयों के प्रति स्वत: ही निष्ठा पैदा हो. पैसा और समय की बरबादी न हो. आज के दौर में नंगी सच्चाई यह है कि आदमी रिश्वतबाजी को ज्यादा बुरा नहीं मान रहा उसे समय की बरबादी बहुत अखरती है. उदाहरण के तौर पर मैं यहां एक साधारण कैमरे के रिलीज ऑर्डर की अधूरी कहानी से आपका परिचय कराने जा रहा हूं. थाना फजलगंज से एक सज्जन साधारण डिजिटल कैमरे की टप्पेबाजी कर ले गये. चूंकि कैमरा एक पत्रकार का था तो रिपोर्ट दर्ज हो गयी. उन दिनों चुनाव चल रहे थे. फोर्स का वाकई अभाव था. इसलिए पुलिस से कैमरे की बरामदगी या चोर की गिरफ्तारी की उम्मीद बांधना बेकार था. पत्रकार महोदय खुद ही सक्रिय हुए. चोर को पकड़ा. कैमरा बरामद किया. चाहते तो कैमरा हाथ आने के बाद चोर से ऊपर से और माल ले लेते. कुछ व्यवहारी छुटभइये नेता इसतरह का प्रस्ताव भी लाये लेकिन नहीं पत्रकार महोदय को पुलिस, कानून और न्याय पर पूर्ण भरोसा था. उन्होंने चोर और कैमरा दोनों पुलिस के हैण्डओवर कर दिया. महोदय बता रहे थे कि कैमरा रिलीज कराने के लिए वह सारा काम-काज छोड़कर लगभग एक दर्जन बार कचेहरी में घंटों बेकार कर चुके हैं अभी तक कोर्ट से कैमरा रिलीज नहीं हो पाया है. वकील और वादी के हिसाब से जितनी भी औपचारिका होनी चाहिए पूरी कर दी गई हैं लेकिन कभी कोर्ट नहीं बैठती, कभी कंडोनेन्स हो जाता है, कभी वकील साहब बीमार हो जाते हैं, कभी साहब पुकार कराते हैं तो पत्रकार महोदय नहीं पहुंच पाते हैं. कुल मिलाकर कैमरा रिलीज करने का ऑर्डर तो अभी तक हुआ नहीं एक बार प्रार्थना पत्र ऊपर से निरस्त हो चुका है. इस मामले को कानून के बड़े खिलाड़ी समझे जाने वाले वकील जनाब कलीम जायसी देख रहे हैं. हत्या, डकैती, अपहरण, लूट-बलात्कार जैसे बड़े-बड़े संगीन मामलों को लगभग ढ़ाई दशक से कानूनी धार दे रहे हैं लेकिन मामूली से कैमरे रिलीज के मामले को नहीं निपटा पा रहे हैं. ऐसा नहीं है कि वकील साहब में कोई कमजोरी है. मसला सिर्फ यह है कि खुद वकील साहब कैमरे के बहाने कचेहरी में बरबाद हो रहे वक्त की कीमत कुछ नहीं समझ रहे. और पूरे सम्मान के साथ कहना चाह रहा हूं कि वकील की तरह ही कोर्ट भी समय की संज्ञेता को कुछ नहीं समझ रही.आदमी दस बजे कचेहरी पहुंचता है चाहे मामला छोटा हो या बड़ा. इसके लिए उसे अपना हर काम छोडऩा पड़ता है. जो कचेहरी बाज हैं उनके लिए यह आम बात है लेकिन जो स्कूटर के चालान, वाहन के सीजर, कैमरे के रिलीज जैसे साधारण मसलों में महीनों चक्कर लगाने को मजबूर होते हैं कोई उनसे पूछे....। आगे चलकर ये वही लोग होते हैं जो अपने घर, परिवार, मोहल्ले और समाज में लोगों को समझाते हैं कि चाहे जो हो जाये, कोशिश हो कि मामला न्यायालय से पहले ही निपट जाये. यह प्रवृत्ति ही लोगों में न्याय के प्रति अनास्था पैदा करती है. और यह अनास्था तरह-तरह के भ्रष्टाचार को जन्म देती है. हमारी न्याय व्यवस्था का आधार है कि भले ही सौ मुजरिम छूट जाएं लेकिन किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए. कितना विशाल नजरिया है व्यवस्था का. लेकिन हालत यह है कि जो भी कचेहरी में मामले को लेकर जाता है मुंशी, वकील, मुहर्रिर, अरदली, पेशकार और बाबू लोग उसे ऐसा चिकिरघिन्नी बना कर रख देते हैं कि फैसला जब होना होता है तब होता है लेकिन मुअक्किल को सजा तत्काल मिलनी शुरू हो जाती है. इस सजा में समय और पैसे के कोड़े चलते हैं. तारीखो पे तारीखें चलती हैं. 1
राकेश जैन से मिली प्रेरणा-तनवीर


तनवीर हैदर उस्मानी कहते हैं कि समाज में जहां कहीं भी रचनात्मक पहल दिखाई दे उसका अनुसरण अवश्य करना चाहिए. विशेष रूप से राजनीतिकों को अवश्य ही क्योंकि उनके अचरण उदाहरण बनते हैं. लोग उसका अनुसरण करते हैं. मैंने यह प्रेरणा प्रांत प्रचारण एवं भाजपा के सहमंत्री (संगठन) राकेश जैन से ली. पिछले दिनों बागपत में श्री जैन की भतीजी की शादी में जाना हुआ था. वहां मैंने व्यवहार किया और वापस कानपुर लौट आया. शादी के कोई डेढ़ महीने बाद राकेश जी का कानपुर प्रवास हुआ. राकेश जी जब कानपुर आये तो उन्होंने मुझे एक धन्यवाद पत्र तथा उसमें वनवासी कल्याण में लगी एक संस्था की रशीद थी. पत्र पढ़कर मैं अभिभूत हो गया. जैन जी ने मेरे व्यवहार की राशि मय नाम व पते के वनवासी कल्याण के लिए संस्था को भेज दी थी. संस्था ने उक्त व्यवहार राशि की रशीद भेजी थी. मुझे लगा कि यह साधारण पहल नहीं मेरे बेटे अशद और बहू बसरा का निकाह तय था. मैंने तभी निश्चय कर लिया था कि अपने यहां वलीमे (प्रीतिभोज) में मुझे जो भी उपहार (नकद) मिलेगा उसे में समान हित में दान कर दूंगा.ईमानदारी की बात तो यह है कि मेरा निर्णय पूर्ण निश्चित था लेकिन उसका क्रियान्वयन अकस्मात ही हुआ. जब माननीय संघ चालक भागवत जी ने बेटे को शाल और बेटी को आशीर्वाद स्वरूप चुन्नी पहनाई तो मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा. मैं मुसलिम समाज का बंदा हूं. मूलत: भावुक भी हूं. मैंने भी भागवत जी को सम्मान में शाल उठाई लेकिन मन भरा नहीं तो अचानक ही बहू, बेटे, मेरे और मेरी पत्नी के पास तब तक व्यवहार के जितने लिफाफे आये थे मैंने उन्हें बड़े झोले भरकर संघ प्रमुख को सौप दिया. संघ प्रमुख ने कहा कि यह क्या है तनवीर जी...?मेरे मुंह बरबस निकल पड़ा कि समाज ने मुझे जो दिया है मैं संघ के माध्यम से उसे पुन: समाज को लौटाना चाहता हूं. मैं हूं जरूर मुसलमान लेकिन मैं प्रारम्भ से ही संघ का सेवक रहा हूं. मुझे पता है संघ समाज हित में धन जैसा सदपयोग कर सकता है दूसरा कोई और नहीं...! न ही संस्था, न ही व्यक्ति.

मैं तो डर गयी थी

राकेश जैन की भतीजी की शादी में ंविधायिका प्रेमलता कटियार भी गई थी. उन्होंने बताया कि जैन साहब का लिफाफा जब मेरे पास आया और मैंने उसे खोला तो देखा कि यह तो रसीद उस पैसे की जो मैं उनकी भतीजी की शादी में व्यवहार में दे आई थी. फिर राकेश जी ने यह रशीद क्यों भेज दी. मेरा व्यवहार या आशीष (बेटी का) क्यों नहीं स्वीकार किया. सच पूछो तो मैं घबरा गई. मैंने बागपत गये अन्य साकियों से सम्पर्क किया तो पता चला कि राकेश जैन जी ने पूरा व्यवहार वनवासी कल्याण में लगी संस्था को भिजवा दिया. संस्था ने प्रत्येक व्यवहारी की रशीद बना दी. रशीद के साथ राकेश जी ने सभी को धन्यवाद पत्र भेज दिया. वाकई विलक्षण अनुकरणीय पहल है यह. तनवीर जी ने इसका अनुसरण कर और लोगों को भी विचार का अवसर दिया है.

'व्यवहार' कुप्रथा नहीं सहयोग है

सामाजिक चिंतन

बेटी की शादी में नकद या उपहार, व्यवहार के रूप में ग्रहण करने की परम्परा एक स्वस्थ्य सामाजिक चिंतन के बाद शुरू हुई थी. एक व्यक्ति पूरे जीवन अपने परिवार, नाते-रिश्तेदार और समाज में समय-समय व्यवहार करता हुआ आगे बढ़ता है. यह व्यवहार जब उसे अपने यहां समारोह में वापस मिलता है तो खर्च के वक्त धन की स्वाभाविक व्यवस्था हो जाती है. यह व्यवहार उसके लिए कितनी बड़ी राहत होती है. यह 'व्यवहारÓ के चलन की निरंतरता से प्रमाणित होता है. आज एक व्यक्ति किसी की बेटी की शादी में जैसा व्यवहार (खर्च) करता है प्रतिउत्तर मे उसे वैसा ही व्यवहार वापस मिलता है. व्यवहार का चलन कोई सामाजिक कुप्रथा नहीं है बल्कि यह सामाजिक सहयोग का पावन विधान है. गांवों में आज भी इसी व्यवहार की दम पर गरीबों की बेटियों के हाथ पीले होते हैं. लेकिन जिस परिपेक्ष्य में आपने यह सवाल पूछा है तो व्यवहार की व्यवहारिकता को समझना ही होगा. अब एक पुलिस अधिकारी अगर किसी माफिया सरगना से व्यवहार में पैसा या उपहार ले, कोई नेता ठेकेदारों और धनाड्यों से व्यवहार ने, कोई पत्रकार जरायम पेशेवरों से व्यवहार के नाम पर उपकृत हो तो इसे कतई व्यवहार नहीं कहा जा सकता है. यह पूर्णत: भ्रष्टाचारियों की भ्रष्टता का बेहयाई प्रदर्शन ही होगा.फिर व्यवहार दो समान स्तर के लोगों के बीच ही निभता है. जिससे आपकी जान-पहचान तक न हो उससे कैसा व्यवहार..? लेकिन आज बहुत से नेता, अफसर और बलशाली लोग समारोहों में व्यवहार को वसूली के रूप में लेते हैं, इसमें कोई शक नहीं.


मोहन के बहाने

'दोहन-भागवत'

प्रमोद तिवारी
शादी-ब्याह के धूम-धड़ाके में एक क्रांतिकारी खबर आई और चुपचाच चली गई. जितना शोर इस खबर का होना चाहिए, नहीं हुआ. यह खबर आई थी भारतीय जनता पार्टी के अल्पसंख्यक मोर्चा के पूर्व संयोजक एवं पूर्व एमएलसी तनवीर हैदर उस्मानी के बेटे के प्र्रीतिभोज के पाण्डाल से.जहां तनवीर ने बेटे और बहू के आशीष समारोह में आया कुल नकद व्यवहार संघ प्रमुख मोहन भागवत को यह कहते हुए समर्पित कर दिया कि-यह समाज से प्राप्त धन है, संघ इसे सेवा के माध्यम से समाज को वापस कर दे..! एक रसूक वाले राजनीतिक व पत्रकार का यह कदम उन तमाम 'लोभी बड़कोंÓ के लिए प्रेरणा का सबब बन सकता है जो पारिवारिक समारोहों में अपने पूरे के पूरे समाज का नकद दोहन कर लेते हैं.

तनवीर हैदर उस्मानी आज राजनीतिक हैं लेकिन इसके पहले वह खांटी पत्रकार थे, पत्रकारों और राजनीतिकों के यहां विभिन्न समारोहों में व्यवहार के नाम पर आया धन और उपहार हमेशा से चर्चा का विषय रहा है. सिर्फ नेता और पत्रकार ही नहीं अब इसमें अधिकारी और स्थापित गुण्डे (माफिया) भी शामिल हो चुके हैं. जिसके यहां जितना व्यवहार वह उतना ही बड़ा नेता, पत्रकार, अधिकारी या गुण्डा.व्यवहार का लेन-देन कोई सामाजिक नियम नहीं है बल्कि चलन है. चलन भी ऐसा है कि नियति सही हो तो पुण्य है वरना इससे बड़ा सार्वजनिक भ्रष्टाचार का जश्नी तमाशा कोई दूसरा नहीं हो सकता है. मुख्यमंत्री मायावती का जन्मदिन और जन्मदिन के नाम पर आने वाले चंदे ने क्या-क्या गुल खिलाये पूरा प्रदेश जानता है. एक इंजीनियर की हत्या हो गई. एक विधायक जेल भुगत रहा है. और जितने ही भ्रष्टाचारी जन्मदिन पर भारी-भरकम भेंटे चढ़ाकर विधायक, सांसद बन गए उन्होंने जनता को खुले आम लूट लिया. भारतीय जनता पार्टी में ही प्रदेश स्तर पर स्थापित एक शिखर पुरुष के यहां गत् वर्षोंमें उनकी बेटी की शादी हुई थी. शादी में शरीक लोगों का मानना था कि समारोह में जितना पैसा और उपहारी वस्तुएं आईं उससे एक शादी नहीं बल्कि पीढिय़ों की शादियों का इंतजाम हो सकता है. बेटी की शादी ने बाप को 'कुबेरÓ बना दिया. उन दिनों प्रदेश में भाजपा 'सत्ताÓ का पर्याय थी. अभी इसी सहालग में कानपुर में तैनात रहे एक वरिष्ठ आईपीएस की बेटी की शादी लखनऊ में हुई. कानपुर से बड़े-बड़े धन्ना सेठों का वहां जाना हुआ महंगे-कीमती उपहारों व लिफाफों के साथ. यहां शहर में सपा सरकार में तो एक पुलिस अधिकारी ऐसे तैनात रहे जिनके कार्यकाल में हर छ: माह में उनके गांव-घर में कोई न कोई शादी या भण्डारा जमा हुआ. महोदय अपने स्टॉफ से शहर के उद्यमियों की सूची बनवाकर रखे हुए थे. सबको आमंत्रित करते हैं. लोग काम-धंधा छोड़कर कहां जाते.इसलिए यहीं उनके निवास पर ही व्यवहार (नकद या सोना, चांदी) पहुंचा देते थे. इस अधिकारी के स्टॉफ वाले बाकायदा 'व्यवहारÓ का तकादा भी करते थे. 'व्यवहारÓ में क्या चाहिए यह फरमाइश भी होती थी. चूंकि यह अधिकारी अपने व्यवहार के कारण पैसे वालों में चर्चित रहा है इसलिए नाम खोलने की क्या जरूरत..! फिर यह कोई अकेला ऐसा अधिकारी तो था नहीं. अपने शहर में पत्रकारों के बीच भी समारोहों में आने वाला व्यवहार आपसी होड़ और हैसियत का मयार माना जाता है. कुछ पत्रकार तो हर वर्ष किसी न किसी बहाने 'कार्डÓ छपवाकर भीड़ जरूर जुटाते हैं. जन्मदिन के बहाने, मूलशांति, कर्णछेदन, नामकरण, यज्ञोपवीत, शादी के बहाने, नहीं और कुछ तो अपने जन्मदिन के हरी बहाने..उन्हें भोज करना ही करना है. और भोज स्थल पर व्यवहार (नकद) लिखने वालों की मेजें (काउंटर) लगनी ही लगनी है. कह सकते हैं कि यह एक वार्षिक आय का जरिया भी है. एक-दो नहीं दर्जनों उदाहरण हर वर्ष शहर के सामने आते हैं. जहां हजारों की भीड़ व्यवहार लिखाने में जुटती है. नेताओं के यहां तो आधा-आधा दर्जन टेबलें (काउंटर) व्यवहार लिखने वालों के लिए लगाई जाती है. भले ही भोज में भोजन की पर्याप्त व्यवस्था हो अथवा नहीं.'व्यवहारÓ लेना या देना कोई पाप या अपराध नहीं है. लेकिन 'व्यवहारÓ व्यवहार होता है. यह एक स्तर के संबंधों के बीच का लेन-देन है. बड़े खर्चीले अवसरों पर व्यवहार में आने वाले उपहार व रकमे बड़ी राहतें लेकर भी आती है. लेकिन जब बिन जान-पहचान अंधा धुंध कार्ड बटाई करके या चुन-चुनकर धनाड्यों को आमंत्रित करके चंदा या रंगदारी कर वसूली जैसी मुद्रा में समारोहों के पाण्डाल कैस और काइंड से भरे जाते हैं तो यह पद और प्रभाव का भ्रष्ट दोहन ही होता है. यह भ्रष्ट दोहन कालांतर में भ्रष्टाचार को महिमा मण्डित करता है.

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

खरीबात

राहुल कानपुर के नहीं कांग्रेस के

प्रमोद तिवारी

हमें अभी भी पूरा विश्वास है कि कोई फरिश्ता आसमान से आयेगा, हमें छू देगा और हमारा कायाकल्प हो जायेगा. वह कोई भी हो सकता है. साईंबाबा से लेकर राहुल बाबा तक. गत् ८ अक्टूबर को जब राहुल गांधी कानपुर आये तो मीडिया में कुछ इस तरह का माहौल था कि दशकों से घायल पड़े, कराहते शहर को मानो मरहम का एक ताजा झोंका नसीब होने जा रहा है लेकिन राहुल बाबा कानपुर के लिए आये ही नहीं. वह तो आये थे कांग्रेस के लिए और कांग्रेस में भी केवल ३५ से कम उम्र वालों के लिए. हालांकि जनाब खुद ३५ पार उम्र का चालीसा बांच रहे हैं.शहर को उम्मीद थी कि राहुल बाबा कानपुर के दुख-दर्द के बारे में कुछ कहेंगे. क्योंकि कानपुर वह शहर है जिसने कांग्रेस के सूखे में दुर्लभ फूल खिलाये हैं. उनसे उनकी मां सोनिया गांधी और अटल बिहारी बाजपेयी सहित पूर्व के प्रधान मंत्रियों की वायदा खिलाफी की शिकायत की जायेगी तो वह जरूर से जरूर कानपुर से हो रही दुभांती को समझेंगे. एक-आध मिल चालू कराने का वायदा करेंगे या बुन्देलखण्ड कल्याण की तरह कानपुर कल्याण के किसी पैकेज या प्रोत्साहन की आशा जगायेंगे. लेकिन यहां रागेन्द्र स्वरूप सेन्टर फॉर परफार्मिंग आर्ट के मंच पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. मरते शहर में जिन्दगी की बात हुई तो लेकिन वह कानपुर वासियों के लिए नहीं थी. बल्कि शहर की मृतप्राय: युवा कांग्रेस के लिए थी. हालांकि शहर को कांग्रेस से कोई परहेज नहीं है. बल्कि यह प्रदेश का वह शहर है जिसने श्रीप्र्रकाश जायसवाल और अजय कपूर तथा संजीव दरियावादी को उस दौर में जिताया जब कांग्रेस की शाख न के बराबर थी. श्री जायसवाल का मंत्री पद शहर की इसी कांग्रेसी उदारता की देन है. मुलायम सिंह और मायावती शहर की इसी राजनीतिक सोच के कारण तपे रहते हैं और समय-समय पर बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी जरूरतों की किल्लत देकर शहर के विकास को तिल-तिल मरने के लिए छोड़ देते हैं.इस तरह राहुल का आना और राहुल का जाना आम शहर वासियों को कुछ समझ में नहीं आया. सबसे पहले तो यही समझ में नहीं आया कि खुद को उत्तर प्रदेश का दिल बताने वाले उत्तर प्रदेश की$ $जबान को ही नहीं समझ पाये. राहुल गांधी यंग प्रोफेशनल मीट में अंग्रेजी में बोले. उनका नब्बे प्रतिशत भाषण या बातचीत अंग्रेजी में ही रही. और मीट में मौजूद कथित प्रोफेशनलों में नब्बे प्रतिशत युवा ऐसे थे जिन्हें सम्बोधन का नब्बे प्रतिशत हिस्सा या तो समझ में नहीं आया और अगर आया भी तो अंदाजे से.हेलो कानपुर संवाददाता ने एक युवा प्रोफेशनल (बेराजगार) से पूछा भैया राहुल गांधी क्या बोले? उसका जवाब था-ये क्या कर रहे हो भैया. दरअसल प्रोफेशनल मीट का यह वह वाक्य है जो राहुल गांधी ने हिन्दी में बोला था. कहने का आशय यह है कि १०-१५ मिनट की मुलाकात में अगर भाषा सम्प्रेषण और संचार के बीच में आड़े आयेगी तो राहुल गांधी का आना-जाना, बोलना-बतियाना किस काम का, किस मतलब का. राहुल बाबा को समझना होगा कि उत्तर प्रदेश का दिल अगर उनका दिल है तो उसे हिन्दी में धड़कना होगा न कि अंग्रेजी में. इसलिए नहीं कि उत्तर प्रदेश के लोग किसी तरह का भाषाई भेदभाव रखते हैं बल्कि इसलिए कि बिना हिन्दी के प्रदेश में कोई भी क्रांति सम्भव नहीं है. अगर कांग्रेस का भला ही राहुल का उद्देश्य है तब भी उन्हें उत्तर प्रदेश के दौरे में हिन्दी को ही विचारों के आदान-प्रदान का जरिया बनाना होगा. यदि कोई उत्तर प्रदेश का पढ़ा-लिखा बंदा उनसे अंग्रेजी में भी बात करे तो राहुल गांधी को अपनी ओर से हिन्दी में ही बोलना चाहिए. वैसे भी कोई विचार बिना भाषा के सम्प्रेषित नहीं हो सकता और जो भाषा जन-जन की न हो वह जन चेतना को कैसे जाग्रत कर सकती है. पंजाब में युवा कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे को लोकतांत्रिक रूप-स्वरूप देकर राहुल ने नि:सन्देह क्रांतिकारी कदम उठाया है. राहुल के इस कदम से अन्य दलों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए लेकिन विपक्षी दल (अकाली) उनसे कह रहे हैं-ये क्या कर रहे हो भैया. यहां उत्तर प्रदेश में राहुल की वर्तमान सक्रियता पंजाब के फार्मूले को दोहराने की है यह बात ८ दिसम्बर को स्पष्ट हो चुकी है. लेकिन यहां पार्टी चंद लोगों की जेब से निकल पायेगी इसमें संदेह है. क्योंकि जबतक कांग्रेस का सदस्यता अभियान सच्चा नहीं होगा प्रायोजित होगा तब तक युवा कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा सामंती और बनावटी ही होगा. उन्हें कौन बतायेगा कि कांग्रेस के सदस्यता अभियान में सदस्यों का शुल्क शहर के स्थापित नेताओं की जेब से जा रहा है. ये लोग राहुल के नहीं उन नेताओं की जेब के होंगे जिन्होंने इन्हें अपनी राजनैतिक सजावट के लिए कांग्रेसी बना रखा है. प्रोफेशनल्स के नाम पर रागेन्द्र स्वरूप ऑडोटोरियम में जो भीड़ थी उसका चेहरा कृत्रिम था. इसी तरह नानाराव पार्क में भी पूरी तरह से एक गुट विशेष ने कब्जा कर रखा था. और सबसे ज्यादा धोखे की बात यह थी कि गैर व्यवसायिक लोगों को आमंत्रित कर कांग्रेसी विचार धारा के व्यवसायिक प्रतिभाओं की उपेक्षा की गई. चमचागीरी कानपुर की राजनीति का मूल स्वभाव है. पार्षद से लेकर सांसद तक यहां अपने आकाओं की चप्पल उठाने की मुद्रा में रहता है जबकि शहर को बेहद साफ और तीखी राजनीति की आवश्यकता है. जब राहुल से यह कहने की किसी में हिम्मत नहीं दिखी कि आप कानपुर में हिन्दी में ही बोलें तो कल को शहर के मुद्दे पर मु_ी तानकर कोई इस कांग्रेसी राज कुंअर का कैसे सामना कर सकता है.चाहें राहुल हों, चाहें अखिलेश या कोई और युवा प्रतिभा जब तक कानपुर की काया पलट के लिए कोई अपनी काया को धुआं, धूल और जाम में नहीं फंसाता इस शहर के साथ धोखा ही होगा.1

सोमवार, 14 दिसंबर 2009


शहर में-

चौर्य-कला!

चौर्य बोले तो चोरी. पता नहीं किस अहमक ने चकारी शब्द इसके साथ लपेट दिया. दरअसल चोरी का अपना अलग मनोविज्ञान है. प्राचीन भारत में चोरी एक कला के रूप में देखी जाती थी. चोर लोग अपने साथ गोह नाम का एक जीव लेकर चलते थे. इस गोह को रस्सी से बांधकर छत पर फेंका जाता था. ये अपने पैर जमीन की सतह पर इतनी तेजी से जकड़ लेता था कि चोर लोग बड़े आराम से रस्सी पकड़ कर चढ़ जाते और माल साफ कर देते थे. पुराने जमाने में आंख से काजल चुराने की परम्परा का जिक्र भी तमाम किताबों में मिलता है. बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय अपने यहां के दो छात्रों को प्राचीन भारत में चौर्य कला पर डॉक्टरेट भी प्रदान कर चुका है.इन दिनों दुनियाभर के चोर अपने शहर में थोक भाव से अपनी कलाएं कर रहे हैं. ये नासपीटे ट्रक साथ में लेकर चल रहे हैं पर खाली पाया नहीं कि ये अपनी कला दिखा के नौ-दो ग्यारह हो जाते हैं. तमाम लोग इसे लोकल पुलिस की असफलता से लेकर जोड़ रहे हैं. ये नादान नहीं जानते हैं कि दुनिया का कोई भी इंसान अपने मौसेरे भाई से पंगेबाजी नहीं करता है. दक्षिणी कानपुर में एक सज्जन और उनकी सज्जनी एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं. उनके यहां एक कोरियर आया इसमें रेव थ्री के दो टिकट और साथ में होटल में मुफ्त खाने का कूपन था. साथ ही चि_ी में बताया गया था कि हमारी कंपनी ने एक प्रतियोगिता के आधार पर आप लोगों को इस मुफ्तखोरी के लिए चयनित किया है. बस ये चि_ी उनके लिए चिरी की साबित हुई. पहले फिल्म का आनंद उठाया और बाद में हुसड़ के खाया और जब घर पहुंचा तो चौर्य कला का ज्ञान समझ आया. जांघिया, बनियान छोड़ चोर भाई सब ले गये.इन दिनों चुट्टों को लेकर पुलिस की बड़ी फजीहत हो रही है. आरोप लग रहा है कि पुलिस हाथ पर हाथ पटक रही है. इस बाबत साधुजनों को मैं एक कथा सुनाना चाहता हूं. शहर में पन्द्रह बरस पहले एक कलेक्टर हुआ करते थे अनुराग गोयल. उनके यहां बहुत लंबी चोरी हुई, पुलिस आज तक तफ्तीश में जुटी है वो भी पूरी शिद्दत के साथ, लेकिन चोरों के बारे में कुछ भी पता नहीं चला. बात सोचने की है पुलिस कोई नजूमी तो है नहीं कि हर बात अपने आप जान जाये. भइया जी भलाई इसी में है कि अपनी गठरी खुद संभाल के रखो नहीं तो चौर्य कला वाले हाथ साफ कर जायेंगे.1

डॉक्टरों का प्रशिक्षण अधूरा रहेगा


बहुत देर हो चुकी मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाये जाने वाले विषयों पर बदलाव न करने में इस बात पर ध्यान न देने में किस विषय पर अधिक ध्यान दें इसका आधार होना चाहिए कि जब डॉक्टर प्राथमिक और माध्यमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में बैठे वह उन तमाम बीमारियों और आकस्मिक क्षणों में प्रत्येक नागरिक का इलाज कर सके. अतएव प्रत्येंक मेडिकल कॉलेजों में एक 'फैमिली मेडिसिनÓ का विभाग अनिवार्य हो जो किसी भी विशेषज्ञ विभाग से कम न हो उसका स्थान बराबर का हो. वह सुनिश्चित कर सके उनके द्वारा जो पढ़ाया जा रहा है. वह डॉक्टरों को साक्ष्य बना सकेगा. उन रोगों का ९० प्रतिशत निदान करने में जो उन्हें प्राथमिक या माध्यमिक केन्द्रों में देखने पड़ते हैं. इन मेडिकल कॉलेजों में प्राथमिक और माध्यमिक चिकित्सा सेवाओं को अधिक से अधिक देने का प्रबंध होना चाहिए क्योंकि इसके बिना डॉक्टरों का प्रशिक्षण अधूरा रहेगा. पूरे प्रशिक्षण का २५ प्रतिशत समय इन सेवाओं में डॉक्टरों को लगाना अनिवार्य है. ऐसा तमाम देशों में हो रहा है. ऐसे डॉक्टर विशेषज्ञ बनने में भी किसी से पीछे नहीं पाये गये. हमें वर्तमान में समस्त प्राथमिक और माध्यमिक में कार्यरत डॉक्टरों को पुन: प्रशिक्षण दे उन्हें फैमिली मेडिसिन में योग्य और साक्ष्य बनाये उनका स्तर विशेषज्ञ के समान बनाये. वे अधिक महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. अच्छा तो होगा कि एक राष्ट्रीय प्रबंध समिति फैमिली मेडिसिन के लिए बनाये जैसा कि यूके, कैनाडा और ऑस्ट्रेलिया में है. रॉयल कॉलेजे ऑफ जनरल प्रैक्टिस के नाम से. देश भर में फैमिली मेडिसिन की संस्थाओं का जाल फैला दें सरकार ओर प्राइवेट गठजोड़ से. यह फेमिली मैडिसिन के विशेषज्ञ बनायें. परन्तु यह सब तभी सम्भव है जब आम जनता, राजनीतिज्ञ इसका महत्व समझे और चिकित्सक इस सामाजिक कत्र्तव्य को गले लगाये. मीडिया इस तरह का वातावरण बनाने में बहुत कुछ कर सकता है. हम प्रत्येक नागरिक के शरीर को स्वस्थ्य और सुनदर बना सकते हैं चेहरे पर मुस्कुराहट ला सकते हैं. गरीबी और अमीरी की दूरी मिटा सकते हैं. इस फैमिली मैडिसिन से.1


पाकिस्तान में राशन के लिए भगदड


दुनिया में कई देशों में भुखमरी से हजारों लोग मर रहे हैं परन्तु ऐसे देश भी हैं जहां खाना कूड़े में फेंका जा रहा है. पाकिस्तान में राशन के लिए भगदड़ में कई मौते हो गईं. केन्या, सेनेगल, कैमरून, मिस्र, हैती, बुर्किना, फासी आदि में भोजन के लिए दंगे हुए सोमालिया में तो सैकड़ों घर तबाह हो गये हैं. भारत में भी भुखमरी से लोग हर वर्ष ४१ लाख टन खाद्यान्न डिब्बों में बंद करके फेंक देते हैं कूड़े में. इतने खाद्यान्न से एक अरब लोगों को भुखमरी से बचाया जा सकता है. सभी विकसित देश के लोग जितना भोजन खाते हैं. उससे अधिक कूड़े में फेंक देते हैं और दो अन्य समस्यायें पैदा करते हैं. एक तो खाद्यान्नों की कीमतें बढ़ाने में मदद करते हैं और दूसरी कूड़े की मात्रा बढ़ाते हैं और लैडफिल का आकार बढ़ता जा रहा है. अमरीका में १६० अरब किलो खाद्यान्न प्रतिवर्ष उपलब्ध होता है. जिसमें से ४५ अरब किलो कूड़े में फेंका जाता है. इस आदत को रोकने के लिए ऑस्ट्रिया, जर्मनी, नीदरलैंड, स्वीडेने और अमरीका के मैसाच्युसेट्स में पहले से ही प्रतिबंध लगा है. अब ब्रिटेन में भी ऐसे लोगों को दंडित किया जायेगा. भारत में तो खाना फेंकना हमेशा से पाप समझा गया है बचा हुआ खाना जानवर को खिलाने की प्रथा बहुत पुरानी है.1(लेखक पूर्व स्वास्थ्य निदेशक हैं)

क्या आप बनेंगे एमएलए!

८ दिसम्बर का दिन. राहुल गांधी से मिलने जाने वालों की लंबी लाइन लगी थी. मौका था कानपुर में युवा उद्यमियों से मिलने का और उन्हें राजनीति से जोडऩे का. स्थान था सिविल लाइन स्थित रागेन्द्र स्वरूप हॉल, जहां राहुल गांधी युवा उद्यमियों से मिलने आ रहे थे. कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच जब राहुल गांधी आकर बैठे तो पूरा हाल तालियों की गडग़ड़ाहट से गूंज उठा. उसके बाद युवा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अशोक तनवर ने हाल में बैठे युवा उद्योगपतियों को बताया कि किस तरह एक उद्योग पति होने के बाद राजनीति से जुड़े और राजनीति में सफलता दर्ज कर १९९८ में एमएलए का चुनाव जीता. राहुल गांधी जैसे ही माइक पर आये, उन्होंने पहला वाक्य कहा, मेरे पास आप लोगों के लिए सवाल हैं. उन्होंने वहां बैठे एक व्यक्ति से पूछा आपका नाम क्या है? जवाब आया संजीव. राहुल ने कहा, संजीव क्या आप सोच सकते हो कि आप लीडर बन सकते हो, जवाब था नहीं. इसके बाद राहुल अपनी बात कहते हुए बोले कि आप युवा उद्यमी हो आप सभी के लिए राजनीति के द्वार खुले हैं. उसके बाद उन्होंने यह भी बताया कि आज एक विशाल युवा संगठन की जरूरत है जो देश के विकास में अपनी अहम भूमिका निभा सके. मुझे इस बात का दुख है कि आज सिर्फ ३० से ४० प्रतिशत वोटिंग होती है. यह कहते हुए उन्होंने श्रोताओं के सामने फिर प्रश्नों की गेंद उछाली और पूछा कि आप में से कितने लोग हैं जिनके रिश्तेदार राजनीति में हैं? जवाब में ६-७ हाथ ऊपर उठे. आप में से कितने लोग हैं जिनके रिश्तेदार राजनीति में नहीं हैं? जबाव में पूरे हॉल में बैठे श्रोताओं के हाथ ऊपर उठ गये. उसके बाद पूछा कितने लोगों ने राजनीति में अपना परचम लहराया है? जवाब में एक भी हाथ नहीं उठा, राहुल ने कहा चलो मैं ही अपना हाथ उठाये देता हूं. राहुल की बातों से साफ नजर आ रहा था कि वे युवा शक्ति को कांग्रेस शक्ति बनाना चाहते हैं और उनके कानपुर आने का प्रमुख कारण भी यही था. वह चाहते हैं युवा कांग्रेस में अधिक से अधिक युवा न सिर्फ जुड़ें बल्कि कांग्रेस को सुदृढ़ बनायें. अपनी मां सोनिया गांधी के जन्म दिवस की पूर्व संध्या पर कानपुर आये राहुल गांधी ने जैसे ही वहां बैठे युवा उद्यमियों से प्रश्न पूछने हेतु आमंत्रित किया. श्रोताओं ने सवालों की ऐसी झड़ी लगाई कि कुछ समय के लिए राहुल गांधी बिल्कुल शांत हो गये. उनको देखकर ऐसा जान पड़ रहा था कि मानो उन्होंने कानपुर से सवाल पूछने को कह कर गलत पंगा ले लिया है. सवालों के हाथ हॉल में इतने अधिक उठ रहे थे कि उन्हें सवालों के घेरे से यह कहकर निकलना पड़ा कि मेरी फ्लाइट मिस हो जायेगी.1

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

आखिर क्यूं?

इन दिनों शहर की तमाम दीवारों पर एक इश्तहार नजर आ रहा है. इसमें ढाई दर्जन बार क्यों, क्यों नजर रटा गया है. लोकतंत्र में सबको सबसे क्यों, क्यों करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है. भारत सरकार द्वारा प्रदत्त इन अधिकारों के तहत मैं कुछ चुनिंदा सवाल आपसे पूछना चाहता हूं.आप बीजेपी से हटे क्यों?आप सपा में गये क्यों?वहां से भी हटे क्यों?बसपा मे आये क्यों?अब दिखते नहीं क्यों?इतनी महंगाई में भी वजन बढ़ रहा है क्यों?आवाज में बुलंदी घट रही है क्यों?अब आइये उत्तर प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के बारे में जान लें. क्यों पूछने वाले शायद ये चाहते हैं कि इसका अध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य को बना दिया जाये. हम इसके लिए चारों खाने तैयार हैं तो फिर बाजपेयी जी को उनकी जगह बैठा पायेंगे आप, क्यों?आप पुराने क्रिकेट खिलाड़ी रहे हैं, आप अंर्तयामी हैं, आपको सब पता है. कल आप ये भी कह सकते हैं कि इंडिया की क्रिकेट टीम में दलितों को आरक्षण दिया जाये. फिर वो चाहें गेंद हाथ से फेंके या अपना चरण वन्दन करायें. आपकी पार्टी की ही तरह सपा शासन में पार्टी का सर्वनाश करने वाले बाबू साहब भी यूपीसीए की सीट पर बैठने के लिए इतने आतुर थे कि कुर्सी की नाप के कपड़े तक सिलवा डाले थे. काम नहीं बना तो मैदान का किराये पांच से पचास लाख करवा दिया. अब शू-शू तक करने के लिए लाले हैं, किडनी बदलवा के आये हैं. सो, हे मेरे भाई इधर से खोपड़ी घुमा के रखने में ही भलाई है. कुछ कारण है तो मैदान का किराया तय करवाओ ते तुम्हें सक्सेना साहब की जगह सेट करवाया जा सकता है बाकी सारी सीटें फुल हैं.कांग्रेस की जयभूख से परेशान एक आदमी गंगा जी से मछली लेकर अपने घर पहुंचा और अपनी औरत से बोला इसे पकाओ. औरत ने कहा कि घर में न तो गैस और न ही कुछ ईंधन तो क्या इसे तुम्हारी खोपड़ी से पकायें.आदमी ने ताव में मछली उठाई और पानी में फेंक आया. मछली कूदकर बाहर आई और बोली कांग्रेस की जै, जिसके कारण मेरा जान बची.1


आप
हथेलियों
की रेखाओं से कुछ जान सकते हैं

जीवन रेखा, मस्तिष्क रेखा, हृदय रेखा भाग्य रेखा प्रमुख है. विद्या रेखा, प्रणय रेखा, संतान रेखा, यात्रा रेखा, चिंता रेखा छोटी रेखायेंं हैं. बाई हथेली बताती है हम भाग्य में क्या लेकर आये हैं. दाईं बताती है कि हमने अपने कार्यों से क्या प्राप्त किया है. रेखा पर यदि क्रास बना है. कटी है या टापू बना है तो वह अच्छा नहीं है जीवन रेखा पर रोग का सूचक यदि प्रारम्भ में जीवन रेखा और मस्तिष्क रेखा नहीं मिलती तो स्वभाव क्रांतिकारी होता है. अंगुलियों के बीच अंतर है तो फिजूल खर्ची, हथेली गहरी है तो धन, भाग्य रेखा हथेली के नीचे बाईं तरफ से निकले तो किसी कला में पारंगत. यदि अंगूठा हथेली से ९० डिग्री का कोण बनाता है तो स्वयं निर्णय लेने की क्षमता यदि अंगूठा झुका रहता है तो विपरीत.अंगूठे में तीन की जगह चार पोरे (चिन्ह) तो बाहरी सम्पत्ति प्राप्ति ऊपर का भाग बड़ा तो महत्वाकांक्षी यदि तिल रेखा पर है तो अशुभ ग्रह पर शुभ. अतएव अच्छे कार्य करिये और दाईं हथेली की रेखाओं में देखें.1

पारिवारिक चिकित्सा के अभाव में देश की व्यवस्था
'फैमिली मैडिसनÓ अर्थात पारिवारिक चिकित्सा के अभाव में कोई भी व्यवस्था देश के नागरिकों को अच्छा स्वास्थ्य और अच्छी चिकित्सा नहीं दे सकती. यह व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है इसका व्यापक रूप से विस्तार करना होगा अन्यथा हमारे देश में अस्पतालों की संख्या, विशेषज्ञों की संख्या बढ़ती जायेगी परंतु बीमारियां वहीं की वहीं रहेगी. हमारी रोग दर में कोई कमी नहीं आयेगी. आम आदमी अपनी बीमारियों से जीवन भर जूझता रहेगा. 'फैमिली मैडिसनÓ का मतलब है कि प्रत्येक गर्भवती महिला का प्रसव सुरक्षित होगा, प्रत्येक बच्चा एक स्वस्थ वयस्क बनेगा. प्रत्येक वयस्क अधिक से अधिक निरोग रहेगा. इसके लिए आवश्यक है कि एक तंत्र की जहां प्रत्येक नागरिक की पहुंच एक ऐसे योग्य और सक्षम चिकित्सक तक हो जो उसकाव्यय वहन कर सके और जो उसकी अधिक से अधिक साधारण बीमारियों और आकस्मिक रोगों या दुर्घटनाओं का इलाज कर सके. ऐसी व्यवस्था के लिए देश के अधिक से अधिक डॉक्टरों को प्राथमिक और माध्यमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में पोस्ट करना होगा. इससे भी आवश्यक है इन डॉक्टरों का फैमिली मैडिसन में निपुण होना. खेद का विषय है कि वर्तमान में हमारे मेडिकल कॉलेजों में जो शिक्षा का कार्यक्रम है उसमें पूरा जोर है विशेषज्ञ बनाने पर फैमिली मैडिसन जो चिकित्सक तंत्र की ठोस नींव है, रीढ़ की हड्डी है उसको पूरी तरह से भुला दिया गया है. फैमिली मैडिसन विभाग की आवश्यकता को भी नहीं समझा गया है. प्रत्येक पढऩे वाला विशेषज्ञ बनना चाहता है. ठीक है विशेषज्ञ बन जाओ परन्तु तुम उसका उपयोग नहीं कर पाओगे. क्योंकि जब तुम अस्पतालों में बैठोगे तो तुम्हें अधिक से अधिक रोगी साधरण बीमारियों से ग्रसित मिलेगें जिन्हें प्राथमिक और माध्यमिक केन्द्रों के डॉक्टर देख सकते थे इलाज कर सकते थे तुम्हारी विशेषता का उपयोग तो तभी हो सकता है जब तुम्हारे पास वही रोगी आयें जिनका रोग असाधारण हो.1

फूलों में रंग कौन देता है?
पौधों की कोशिकाओं में एक तत्व होता है जिनको प्लास्टिड कहते हैं यही प्लास्टिड फूलों को रंग देते हैं. यह तीन प्रकार के होते हैं. क्लोरोप्लास्ट जो हरा रंग देते हैं लियुकोप्लास्टे जो सफेद या रंग रहित रंग देते हैं और क्रोमोप्लास्ट जो अन्य रंग देते हैं. इनकी मात्रा कम और ज्यादा हो सकती है. परंतु क्रोमोप्लाट की मात्रा सबसे अधिक होती है.1 (लेखक पूर्व स्वास्थ्य निदेशक हैं)
चौथा कोना
अखबार फीड बैक

से आगे...

प्रमोद तिवारी
पिछले दिनों मेरे अग्रज मित्र भ्राता अभिलाष अवस्थी का कानपुर आगमन हुआ. मुझे तो खबर नहीं लग सकी उन्होंने मुम्बई लौटकर मुझे अपने कानपुर प्रवास की जानकारी दी और हेलो कानपुर का सच्चा फीड भी दिया. भाई चूंकि मूलत: पत्रकार हैं इसलिए उनका कानपुर के पत्रकारों से भी खूब नाता है. उन्होंने हेलो कानपुर के बारे में दो मुख्य बातें बताईं. पहली-शहर में हेलो कानपुर के प्रकाशन की नियमितता आश्चर्यचकित करने वाली सफलता के रूप में स्थापित हो चुकी है. दूसरी-अगर हेलो कानपुर में प्रमोद तिवारी की बतौर लेखक अनुपस्थिति रहती है तो अखबार की धार में फर्क पड़ जाता है. मुझे समझ नहीं आ रहा कि मेरे पत्रकार दोस्तों ने मेरी तारीफ की है या अभिलाष जैसे संपादक ने कौशल को नकारा. इसमें कोई संदेह नहीं कि अब मैं पूरा का पूरा अखबार न ही लिखता हूं और न ही संपादित कर रहा हूं. मेरे साथ जो लोग हैं अब मैं अखबार को उनकी जिम्मेदारी पर भी छोड़ता हूं. ऐसा हेलो कानपुर हेलो को कानपुर बनाने के लिए आवश्यक है. पांचवां साल चल रहा है अखबार का. अब इसे अपनी पहचान से ही पहचाना जाना चाहिए. प्रमोद तिवारी की पहचान और हेलो कानपुर की पहचान अन्योन्याश्रित हो यह तो ठीक है लेकिन प्रमोद ही हेलो कानपुर और हेलो कानपुर ही प्रमोद जैसी स्थिति बहुत दिनों तक मेरी दृष्टि में अच्छी स्थिति नहीं है. समाचार पत्र में संपादक की छाप तो होनी चाहिए लेकिन संपादक ही कुल अखबार समझा जाये यह किसी विकासशील प्रतिष्ठान या समाचार पत्र के लिए अच्छा नहीं है.मैं अब इस कोशिश में हूं कि हेलो कानपुर-हेलो कानपुर बनें न कि प्रमोद टाइम्स. प्रमोद टाइम्स बनकर रह जाये. प्रमोद टाइम्स का वक्त गया. जो लोग मुझे केवल शराबी और बदमिजाज पत्रकार के रूप में प्रचारित कर अपनी-अपनी कुर्सियां गद्देदार कर रहे थे और बड़े सेवायोजकों के बीच मुझे अविश्वासी बनाने का सफल षडयंत्र कर रहे थे अब उनके मुंह सिल चुके हैं. सबने मान लिया कि मै जैसा प्रचारित था वैसा नहीं हूं. बल्कि जैसा 'जागरणÓ में था उससे भी ज्यादा प्रखर हूं हेलो कानपुर में. लेकिन अब मैं भी कब तक 'कमजर्फोंÓ को दिखाने के लिए अपनी जिन्दगी की रिदम पर बज्रपात करता रहूं. वैसे भी मैं हेलो कानपुर को अपनी अकेले की बपौती नहीं बनाना चाहता. मेरी आगे की यात्रा इस समाचार-पत्र का अपनी निजी छाप से पृथक एक सच्चे अखबार की छवि के साथ स्थापित करने के लिए होगी. इसके लिए मुझे काबिल और ईमानदार सहयोगियों की आवश्यकता पड़ेगी. और अब यह शहर की युवा और अनुभवी प्रतिभा पर निर्भर करेगा कि मेरा अगला चरण कितनी मजबूती से आगे बढ़ता है.1

खरीबात

सरकार और न्यायालयों

के बीच का 'राजÓ!

प्रभाकर श्रीवास्तव

भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई0ए0एस0) के वरिष्ठ अधिकारी एवं उत्तर प्रदेश शासन में प्रमुख सचिव (आवास) पद पर तैनात श्री हरमिंदर राज द्वारा स्वयं को गोली मार कर जान दे देने की स्तब्धकारी घटना से प्रदेश के सुचारू संचालन हेतु उत्तरदायी आई0ए0एस0 अधिकारियों एवं उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश में परिवर्तित होते देखने की दृढ़ इच्छा रखने वाले प्रबुद्वजनों में एक अजीब सी बेचैनी व्याप्त हो गई है. श्री हरमिंदर राज द्वारा आत्महत्या किये जाने के कारणों की जांच के लिये विपक्षी दलों द्वारा केन्द्रीय जांच एजेन्सी की मांग किया जाना किसी भी दृष्टिकोण से अनुचित तो नहीं है, विशेषकर तब जबकि सत्तारू ढ़ दल के प्रवक्ताओं एवं शीर्ष आकाओं द्वारा शायद सिर्फ शोक संवेदना व्यक्त करना ही कर्तव्यों की इतिश्री समझा जा रहा हो. बेहद दुर्भाग्यपूर्ण एवं शर्मनाक है सत्ता की प्रशासनिक नकेल अपने हाथ रखने वाले शीर्षस्थ अधिकारियों के लिये कि वे घटना का कोई प्रथम दृष्टया: कारण भी उजागर कर पाने में पूर्णत: निरुत्तर है. क्या संवेदनाओं का स्तर इतना गिर चुका है कि अपने समान समकक्ष अधिकारी की ऐसी रहस्यमयी मृत्यु पर भी घंटों तक अर्कमण्यता ओढ़ कर चुपचाप रहा जा सकता है और प्राथमिक अन्वेषण (कॉल डिटेल्स) आदि के लिये भी परिजनों की कार्यवाही हेतु गुहार लगाने या किसी प्रकार के आंदोलन की प्रतीक्षा की जा सकती है. इस प्रकार की घटना पर इतनी शिथिल कार्यवाही से सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि प्रदेश की जनता के सरेआम लुट जाने या कत्लेआम हो जाने से ऐसे जिम्मेदारों को तो रत्ती भर फर्क नहीं पड़ेगा. हमें कोई आश्चर्य नहीं होगा कि अगर कोई बहुत जिम्मेदार सा व्यक्तित्व गंभीरतापूर्वक कहने लगे कि भाई यह तो विधि का विधान है, जिसकी मौत आ गई वो चला गया अब इसमें कोई क्या कर सकता है.आखिर सामाजिक-समरसता के आडम्बर के पीछे कौन है वे लोग जो राजनैतिक और आर्थिक रूप से लाभान्वित होने के लिये राष्ट्र की शीर्ष न्यायिक व्यवस्था को भी चुनौती देने का दुस्साहस करते हैं तथा क्यों अति-जिम्मेदार आई0ए0एस0 अधिकारी जहरीले सामाजिक-समरसता के रसायन में डूब कर भीगी बिल्ली बनते जा रहे हंै. किसी को आपत्ति नहीं है यदि लंबे समय तक शोषित रहे वर्ग को आरक्षण या अन्य अतिरिक्त सुविधाओं का लाभ दे कर उनका उत्थान किया जाये परन्तु ऐसी सुविधाओं का लाभ उठा कर जो परिवार समृद्वता का पर्याप्त स्तर प्राप्त कर चुके हैं उन परिवारों के एयरकण्डीशन्ड कमरों में रहने और कारो में घूमने वाले युवकों-युवतियों को सरकारी नौकरी में आंख बंद कर आरक्षण का लाभ सिर्फ इसलिये दिया जाते रहना कि कभी उनके पूर्वज शोषित समाज का अंग रहे थे, निश्चित रूप से सामाजिक-समरसता को दूषित कर जहरीला बना देना है. सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की चमचमाती थाली में जहरीले भोज्य पदार्थ परोसे जाने से कोई समरसता आने वाली नहीं है यह बात किसी को भी अच्छी तरह से समझ आ सकती है. आखिर लंबे समय से आरक्षण एवं अन्य सुविधाओं का लाभ दिये जाते रहने पर भी सम्पूर्ण शोषित वर्ग का उत्थान अभी तक क्यों नहीं हो सका है अभी भी शोषित वर्ग के कितने लोग नारकीय जीवन जीने को बाध्य हैं. क्या इस तरह की सांख्यिकी जुटाने और वास्तव में पात्र लोगों का समयबद्व उत्थान करने की कोई योजना क्रियान्वित किये जाने हेतु कोई अम्बेडकर-अनुयायी ईमानदारी से प्रयासरत है यदि नहीं तो क्यों नहीं यह कार्य करने वाला ही डा0 अम्बेडकर का सच्चा अनुयायी हो सकता है. संवैधानिक न्यायपालिका के निर्देशों की उपेक्षा करने वाला कुछ भी हो सकता है पर वो संविधान मर्मज्ञ डा0अम्बेडकर का सच्चा अनुयायी तो कतई नहीं है. अब कोई चारा शेष नहीं है, भारतीय प्रशासनिक सेवा के लोकसेवकों आपको जागना ही होगा. यदि देश का सैनिक सीमा पर गोली खा कर जनता के प्रति फर्ज की अदायगी करता है तो फिर आपको तो सिर्फ महत्वहीन पद पर तैनात किये जाने का ही जोखिम है. वैसे भी सोने के पिंजरे में कैदी की भांति रहने से कच्ची झोपड़ी की स्वतंत्रता बहुत बेहतर होती है.1

रिश्ता टूटा है हिम्मत नहीं: इस्मा

प्रमोद तिवारी

इरशाद आलम और इस्मा की मुलाकात १९९७ में किसी काम के सिलसिले में हुई और साल भीतर दोनों ने शादी कर ली. सब कुछ ठीक चल रहा था कि अचानक दोनों के बीच घरेलू हिंसा और तलाक की खबर आई. तलाक की वजह क्या रही, इस पर इस्मा का कहना है कि अभी मैं खामोश हूं क्योंकि मैं खुद को तलाक शुदा नहीं मानती. तलाक का मसला अभी भी न्यायालय और बुजुर्ग मौलानाओं के पास विचाराधीन है.लेकिन मेरे घर की तबाही की जो भी वजह है वह घर की ही है और बेहद घिनौनी. मुझे अब इस बात का दुख नहीं है कि मेरा इरशाद से रिश्ता टूट गया. दुख है तो इसबात का कि पिछले नौ महीने से मेरी बेटी उरूज न्यायालय के आदेश के बावजूद मेरे पास नहीं है और मैं दर-दर ठोकरें खाने के बाद भी अपनी बेटी की एक झलक देखने को तरस रही हूं. एमएम नवम (स्वरूप नगर) का स्पष्ट आदेश है कि तीन साल की बच्ची उरूज जब तक फैसला नहीं हो जाता मां के पास ही रहे. सिर्फ उरूज ही नहीं इरशाद मेरे बेटे इरिश को भी उठा ले जाना चाहता है. ऐसी एक कोशिश वह कर भी चुका है. इरिश को इरशाद उसके स्कूल डीपीएस से ले गया था और जब मैंने स्कूल वालों से बात की तो उन्होंने वापस मेरे बेटे को मुझे दिलाया.ऐसा नहीं कि इरशाद अपने बच्चों से बड़ी मोहब्बत करते हैं इसलिए ऐसा कर रहे हैं. उन्हें तो बच्चे छीनकर मुझे जिन्दगी भर तड़पाना है. इसीलिए उन्होंने गलत जानकारियां देकर उरूज का पासपोर्ट बनवाया है ताकि उसे देश से बाहर भेज सकें. मैं जीते जी ऐसा होने नहीं दूंगी.धीरे-धीरे एक साल होने को आ रहा है मैं रोज कोई न कोई नया नरक भोग रही हूं. कभी किसी थाने में, कभी किसी बहाने तो कभी किसी आरोप में मुझे और मेरे परिवार को फंसाने का सिलसिला जारी है. कोई आधा दर्जन मुकदमे हम लोगों के खिलाफ लिखाए गये हैं. इस काम के लिए इरशाद ने एक वकील को घर में ही रख लिया है. इन लोगों की शिकायतें कैसी होती हैं इसका अंदाजा आप इस बात से ही लगा लें कि अब तक चार मामलों में पुलिस ने या तो फाइनल रिपोर्ट लगा दी है या मामला स्पंज हो गया है.1


इरशाद पर इस्मा ने लगाया बच्चे छीनने का आरोप बेटी के पासपोर्ट के लिए दीं गलत जानकारियांविदेशी मामलों के मंत्रालय ने दिये जांच के निर्देश जारी पासपोर्ट को प्रतिबंधित किया गया

इरशाद आलम कानपुर में टेनरी व्यवसायी हैं. इरशाद का नाम सिर्फ कानपुर में ही नहीं बल्कि पूरे देश में या यूं कहें कि हिन्दी फिल्मों की मुरीद दुनिया में अचानक उस वक्त सुर्खियों में आया जब जनाब ने ऐतिहासिक किरदारों से भरी-पुरी फिल्म ताजमहल के निर्माण का ऐलान किया. यह फिल्म बॉलीवुड की अब तक की सर्वाधिक महंगी फिल्मों में शुमार की गई. तब इस्मा आलम इरशाद की बेगम थी. एएनडी कॉलेज में वह छात्र संघ की अध्यक्ष भी रहीं. दोनों का प्रेम विवाह हुआ था. इस तरह कहा जा सकता है ताजमहल फिल्म की बुनियाद में भी मोहब्बत ही थी लेकिन इस मोहब्बत में जल्द ही आग लग गई. इरशाद और इस्मा में तलाक हो गया. तलाक के बाद भी जंग जारी है. कभी थाना, कभी अदालत तो कभी लखनऊ, दिल्ली के दांव-पेंच. इरशाद के पास पैसे की कमी नहीं है. इस्मा आर्य नगर में साधारण मध्यम वर्गीय परिवार में पली-पुसी लड़की है लेकिन जागी हुई..!

दुनिया जानती है ताजमहल मोहब्बत के शहशाह और शहजादी की कहानी है. चाहें यह ताजमहल आगरा में दूधिया पत्थरों की शान हो या फिर मुंह के बल धड़ाम हुई सौ करोड़ से भी अधिक की फिल्म 'ताजमहलÓ हो. जहांगीर और मुमताज का जमाना सुल्तानी जमाना था...तब मोहब्बत की इस निशानी को हमेशा-हमेशा बेमिसाल बने रहने के लिए कारीगरों की उंगलियों को उतरवा लिया गया था. अच्छा हुआ आज जमाना सुल्तानी नहीं है. वरना जिस ताजमहल की कहानी का यहां जिक्र हो रहा है उसके शहजादे और शहजादी किसी और का नहीं बल्कि खुद एक-दूसरे का ही सर उतरवा लेते. क्योंकि इस बार की 'ताजमहलÓ में कहानी मोहब्बत की नहीं बेवफाई की है. शहर जानता है १०० करोड़ से भी अधिक की फिल्म ताजमहल के निर्माता इरशाद आलम और उनकी बेगम इस्मा आलम में फिल्म की असफलता के बाद अचानक 'तलाकÓ हो गया था. तलाक के बाद कहानी खत्म हो सकती थी. लेकिन एक बार फिर मोहब्बत की निशानी भारी पड़ गई. 'इन दिनों इरशाद और इस्मा में संतानों के हक के लिए कानून, पैसा और रसूक की खुली जंग छिड़ी हुई है.Ó ताजा खबर यह है कि इस्मा ने विदेशी मामलों के मंत्रालय के पासपोर्ट विभाग से शिकायत की है कि इरशाद आलम ने गलत जानकारी देकर बेटी उरूज इरशाद आलम का पासपोर्ट बनवा लिया है. वह मय बच्चों के कभी भी देश छोड़कर विदेश में बस सकता है. मंत्रालय ने शिकायत को गंभीरता से लेते हुए जांच शुरू कर दी है. वैसे भी न्यायालय का आदेश है कि इरशाद और इस्मा के दोनों बच्चों इरिस अब्राहम और उरूज के पासपोर्ट मां इस्मा के पास ही रहेंगे और बच्चों को पति इरशाद कानपुर न्यायालयीय क्षेत्र से बाहर नहीं ले जा सकते. न्यायालय ने साथ ही यह भी कहा कि बच्चों पर हक का वाद जबतक अंतिम रूप से निस्तारित नहीं हो जाता बच्चे मां के ही पास रहेंगे. इस्मा के अनुसार हुआ यूं कि तलाक के बाद भी इरशाद बच्चों से मिलने फ्लैट पर आते थे. एक दिन बच्ची उरूज को वह घुमाने-फिराने के लिए ले गये लेकिन इसके बाद वापस नहीं आये. उरूज आज भी इरशाद के पास है. 'इस्माÓ उसे पाने के लिए थाने से लेकर कचहरी और अब कचहरी से लेकर विदेश मंत्रालय तक दौड़-भाग में लगी है. वह कहती है कि देखें कानून और न्याय में ताकत है या फिर पैसे के बूते दुनिया को पैरों तले कुचल देने वाले इरशादी जज्बे में.इस्मा ने विदेश मंत्रालय (पासपोर्ट विभाग) से सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए इरशाद के वे सारे प्रपत्र हासिल कर लिए हैं जिससे प्रमाणित होता है कि इरशाद ने अपने बच्चों के पासपोर्ट बनवाने के लिए मंत्रालय को गुमराह किया. सबसे पहले उन्होंने उरूज के पूर्व में जारी 'पासपोर्टÓ के 'गुमÓ हो जाने की झूठी रिपोर्ट लिखवाई. झूठी इसलिए कि बच्चों के पूर्व के पासपोर्ट 'इस्माÓ के पास आज भी हैं.इरशाद ने उरूज के पासपोर्ट के लिए सबसे पहले इलाहाबाद के शिवकुटी थाना में ९ मार्च २००९ को प्राथमिकी दर्ज कराई कि मुकदमें की पैरवी के सिलसिले में इलाहाबाद आना हुआ था. रास्ते में गोविंदपुर और अपट्रॉन के बीच मेरी बेटी उरूज का पासपोर्ट कहीं गिर गया. इसी रिपोर्ट के आधार पर १७ मार्च २००९ को इरशाद आलम ने उरूज के लिए नये पासपोर्ट का आवेदन किया. आवेदन में मां का नाम इस्मा आलम ही है. इस पर इस्मा की शिकायत यह है कि इरशाद ने उसके फर्जी दस्तखत बनाये हैं. इसतरह प्रथम दृष्टया इस्मा के फर्जी दस्तखत, पासपोर्ट होते हुए नये पासपोर्ट की प्राप्ति और पुलिस में झूठी प्राथमिकी .आदि ऐसे संगीन आरोप सामने आये कि विदेश मामलों के मंत्रालय ने मामले की जांच के लिए संबंधित विभाग को निर्देशित किया है. साथ ही कानूनी और न्यायिक जंग के मियादी तिलिस्म का कहीं कोई फायदा न उठा सके इसलिए जारी 'पासपोर्टोंÓ की 'फ्लैगिंगÓ करा दी है. फ्लैगिंग का अर्थ हुआ कि अगर कोई भी उरूज या इरिस अब्राहम का पासपोर्ट दुनिया के किसी भी हवाई अड्डे पर इस्तेमाल करेगा तो मौके पर ही पकड़ा जायेगा.पासपोर्ट हासिल करने के लिए फर्जी जानकारियों के संबंध में जब इरशाद आलम से बात की गई तो उनका कहना था कि आप जो चाहें लिख दें मुझे कुछ नहीं कहना है.