मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

खरीबात

राहुल कानपुर के नहीं कांग्रेस के

प्रमोद तिवारी

हमें अभी भी पूरा विश्वास है कि कोई फरिश्ता आसमान से आयेगा, हमें छू देगा और हमारा कायाकल्प हो जायेगा. वह कोई भी हो सकता है. साईंबाबा से लेकर राहुल बाबा तक. गत् ८ अक्टूबर को जब राहुल गांधी कानपुर आये तो मीडिया में कुछ इस तरह का माहौल था कि दशकों से घायल पड़े, कराहते शहर को मानो मरहम का एक ताजा झोंका नसीब होने जा रहा है लेकिन राहुल बाबा कानपुर के लिए आये ही नहीं. वह तो आये थे कांग्रेस के लिए और कांग्रेस में भी केवल ३५ से कम उम्र वालों के लिए. हालांकि जनाब खुद ३५ पार उम्र का चालीसा बांच रहे हैं.शहर को उम्मीद थी कि राहुल बाबा कानपुर के दुख-दर्द के बारे में कुछ कहेंगे. क्योंकि कानपुर वह शहर है जिसने कांग्रेस के सूखे में दुर्लभ फूल खिलाये हैं. उनसे उनकी मां सोनिया गांधी और अटल बिहारी बाजपेयी सहित पूर्व के प्रधान मंत्रियों की वायदा खिलाफी की शिकायत की जायेगी तो वह जरूर से जरूर कानपुर से हो रही दुभांती को समझेंगे. एक-आध मिल चालू कराने का वायदा करेंगे या बुन्देलखण्ड कल्याण की तरह कानपुर कल्याण के किसी पैकेज या प्रोत्साहन की आशा जगायेंगे. लेकिन यहां रागेन्द्र स्वरूप सेन्टर फॉर परफार्मिंग आर्ट के मंच पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. मरते शहर में जिन्दगी की बात हुई तो लेकिन वह कानपुर वासियों के लिए नहीं थी. बल्कि शहर की मृतप्राय: युवा कांग्रेस के लिए थी. हालांकि शहर को कांग्रेस से कोई परहेज नहीं है. बल्कि यह प्रदेश का वह शहर है जिसने श्रीप्र्रकाश जायसवाल और अजय कपूर तथा संजीव दरियावादी को उस दौर में जिताया जब कांग्रेस की शाख न के बराबर थी. श्री जायसवाल का मंत्री पद शहर की इसी कांग्रेसी उदारता की देन है. मुलायम सिंह और मायावती शहर की इसी राजनीतिक सोच के कारण तपे रहते हैं और समय-समय पर बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी जरूरतों की किल्लत देकर शहर के विकास को तिल-तिल मरने के लिए छोड़ देते हैं.इस तरह राहुल का आना और राहुल का जाना आम शहर वासियों को कुछ समझ में नहीं आया. सबसे पहले तो यही समझ में नहीं आया कि खुद को उत्तर प्रदेश का दिल बताने वाले उत्तर प्रदेश की$ $जबान को ही नहीं समझ पाये. राहुल गांधी यंग प्रोफेशनल मीट में अंग्रेजी में बोले. उनका नब्बे प्रतिशत भाषण या बातचीत अंग्रेजी में ही रही. और मीट में मौजूद कथित प्रोफेशनलों में नब्बे प्रतिशत युवा ऐसे थे जिन्हें सम्बोधन का नब्बे प्रतिशत हिस्सा या तो समझ में नहीं आया और अगर आया भी तो अंदाजे से.हेलो कानपुर संवाददाता ने एक युवा प्रोफेशनल (बेराजगार) से पूछा भैया राहुल गांधी क्या बोले? उसका जवाब था-ये क्या कर रहे हो भैया. दरअसल प्रोफेशनल मीट का यह वह वाक्य है जो राहुल गांधी ने हिन्दी में बोला था. कहने का आशय यह है कि १०-१५ मिनट की मुलाकात में अगर भाषा सम्प्रेषण और संचार के बीच में आड़े आयेगी तो राहुल गांधी का आना-जाना, बोलना-बतियाना किस काम का, किस मतलब का. राहुल बाबा को समझना होगा कि उत्तर प्रदेश का दिल अगर उनका दिल है तो उसे हिन्दी में धड़कना होगा न कि अंग्रेजी में. इसलिए नहीं कि उत्तर प्रदेश के लोग किसी तरह का भाषाई भेदभाव रखते हैं बल्कि इसलिए कि बिना हिन्दी के प्रदेश में कोई भी क्रांति सम्भव नहीं है. अगर कांग्रेस का भला ही राहुल का उद्देश्य है तब भी उन्हें उत्तर प्रदेश के दौरे में हिन्दी को ही विचारों के आदान-प्रदान का जरिया बनाना होगा. यदि कोई उत्तर प्रदेश का पढ़ा-लिखा बंदा उनसे अंग्रेजी में भी बात करे तो राहुल गांधी को अपनी ओर से हिन्दी में ही बोलना चाहिए. वैसे भी कोई विचार बिना भाषा के सम्प्रेषित नहीं हो सकता और जो भाषा जन-जन की न हो वह जन चेतना को कैसे जाग्रत कर सकती है. पंजाब में युवा कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे को लोकतांत्रिक रूप-स्वरूप देकर राहुल ने नि:सन्देह क्रांतिकारी कदम उठाया है. राहुल के इस कदम से अन्य दलों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए लेकिन विपक्षी दल (अकाली) उनसे कह रहे हैं-ये क्या कर रहे हो भैया. यहां उत्तर प्रदेश में राहुल की वर्तमान सक्रियता पंजाब के फार्मूले को दोहराने की है यह बात ८ दिसम्बर को स्पष्ट हो चुकी है. लेकिन यहां पार्टी चंद लोगों की जेब से निकल पायेगी इसमें संदेह है. क्योंकि जबतक कांग्रेस का सदस्यता अभियान सच्चा नहीं होगा प्रायोजित होगा तब तक युवा कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा सामंती और बनावटी ही होगा. उन्हें कौन बतायेगा कि कांग्रेस के सदस्यता अभियान में सदस्यों का शुल्क शहर के स्थापित नेताओं की जेब से जा रहा है. ये लोग राहुल के नहीं उन नेताओं की जेब के होंगे जिन्होंने इन्हें अपनी राजनैतिक सजावट के लिए कांग्रेसी बना रखा है. प्रोफेशनल्स के नाम पर रागेन्द्र स्वरूप ऑडोटोरियम में जो भीड़ थी उसका चेहरा कृत्रिम था. इसी तरह नानाराव पार्क में भी पूरी तरह से एक गुट विशेष ने कब्जा कर रखा था. और सबसे ज्यादा धोखे की बात यह थी कि गैर व्यवसायिक लोगों को आमंत्रित कर कांग्रेसी विचार धारा के व्यवसायिक प्रतिभाओं की उपेक्षा की गई. चमचागीरी कानपुर की राजनीति का मूल स्वभाव है. पार्षद से लेकर सांसद तक यहां अपने आकाओं की चप्पल उठाने की मुद्रा में रहता है जबकि शहर को बेहद साफ और तीखी राजनीति की आवश्यकता है. जब राहुल से यह कहने की किसी में हिम्मत नहीं दिखी कि आप कानपुर में हिन्दी में ही बोलें तो कल को शहर के मुद्दे पर मु_ी तानकर कोई इस कांग्रेसी राज कुंअर का कैसे सामना कर सकता है.चाहें राहुल हों, चाहें अखिलेश या कोई और युवा प्रतिभा जब तक कानपुर की काया पलट के लिए कोई अपनी काया को धुआं, धूल और जाम में नहीं फंसाता इस शहर के साथ धोखा ही होगा.1

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