सोमवार, 14 दिसंबर 2009


शहर में-

चौर्य-कला!

चौर्य बोले तो चोरी. पता नहीं किस अहमक ने चकारी शब्द इसके साथ लपेट दिया. दरअसल चोरी का अपना अलग मनोविज्ञान है. प्राचीन भारत में चोरी एक कला के रूप में देखी जाती थी. चोर लोग अपने साथ गोह नाम का एक जीव लेकर चलते थे. इस गोह को रस्सी से बांधकर छत पर फेंका जाता था. ये अपने पैर जमीन की सतह पर इतनी तेजी से जकड़ लेता था कि चोर लोग बड़े आराम से रस्सी पकड़ कर चढ़ जाते और माल साफ कर देते थे. पुराने जमाने में आंख से काजल चुराने की परम्परा का जिक्र भी तमाम किताबों में मिलता है. बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय अपने यहां के दो छात्रों को प्राचीन भारत में चौर्य कला पर डॉक्टरेट भी प्रदान कर चुका है.इन दिनों दुनियाभर के चोर अपने शहर में थोक भाव से अपनी कलाएं कर रहे हैं. ये नासपीटे ट्रक साथ में लेकर चल रहे हैं पर खाली पाया नहीं कि ये अपनी कला दिखा के नौ-दो ग्यारह हो जाते हैं. तमाम लोग इसे लोकल पुलिस की असफलता से लेकर जोड़ रहे हैं. ये नादान नहीं जानते हैं कि दुनिया का कोई भी इंसान अपने मौसेरे भाई से पंगेबाजी नहीं करता है. दक्षिणी कानपुर में एक सज्जन और उनकी सज्जनी एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं. उनके यहां एक कोरियर आया इसमें रेव थ्री के दो टिकट और साथ में होटल में मुफ्त खाने का कूपन था. साथ ही चि_ी में बताया गया था कि हमारी कंपनी ने एक प्रतियोगिता के आधार पर आप लोगों को इस मुफ्तखोरी के लिए चयनित किया है. बस ये चि_ी उनके लिए चिरी की साबित हुई. पहले फिल्म का आनंद उठाया और बाद में हुसड़ के खाया और जब घर पहुंचा तो चौर्य कला का ज्ञान समझ आया. जांघिया, बनियान छोड़ चोर भाई सब ले गये.इन दिनों चुट्टों को लेकर पुलिस की बड़ी फजीहत हो रही है. आरोप लग रहा है कि पुलिस हाथ पर हाथ पटक रही है. इस बाबत साधुजनों को मैं एक कथा सुनाना चाहता हूं. शहर में पन्द्रह बरस पहले एक कलेक्टर हुआ करते थे अनुराग गोयल. उनके यहां बहुत लंबी चोरी हुई, पुलिस आज तक तफ्तीश में जुटी है वो भी पूरी शिद्दत के साथ, लेकिन चोरों के बारे में कुछ भी पता नहीं चला. बात सोचने की है पुलिस कोई नजूमी तो है नहीं कि हर बात अपने आप जान जाये. भइया जी भलाई इसी में है कि अपनी गठरी खुद संभाल के रखो नहीं तो चौर्य कला वाले हाथ साफ कर जायेंगे.1

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