शनिवार, 28 नवंबर 2009

कामदीक्षा

काम, कला और ६४ अंग

अनेक कामशास्त्रियों ने कामशास्त्र के ६४ अंग बताये हैं. कुछ आचार्यों का कहना है कि कामशास्त्र के ६४ अंग और कला के ६४ रूप एक ही बात है. क्योंकि कलाएं भी तो सम्भोग मानी जाती है. रचनात्मकता जैसे कला का मूल तत्व है इसी प्रकार संभोग भी रचना की अंतिम परिणति है. कलाओं की ६४ संख्या के कारण ही शायद कामशास्त्र को भी चौंसठ कलाओं वाला माना जाने लगा है. जैसे ऋग्वेद के दशमण्डलीय होने के कारण ही तो उसे दशतयी कहा जाता है ऋग्वेद के दस मण्डलों के अनुकरण पर ही कामशास्त्र के अन्तर्गत साम्पगयोगिक अधिकरण के रचयिता पचाल बाभ्रव्य ने ही ऋग्वेद का विभाजन ६४ भागों में किया है उसी ने कदाचित् कामशास्त्र ग्रन्थ की महत्ता को प्रकट करने के लिए ऋग्वेद के समान ही साम्प्रयोगिक अधिकरण को भी चौंसठ अंगों वाला बना दिया है-ऐसा भी कुछ आचार्यों का मत है बाभ्रवीय आचार्योंके अनुसार-मैथुन के आठ प्रमुख भेद हैं-१.आलिंगन २.चुम्बन ३.नखक्षत ४.दन्तक्षत ५.संवेशन (साथ -साथ लेटना ) ६.सीत्कृत (सी -सी की ध्वनि करना ) ७.पुरूषायित अथवा विपरीत रति (स्त्री का ऊपर चढकर अथवाउसकी छाती पर लेटकर सम्भोग करना )तथा ८.औपरिष्टक अथवा मुख-मैथुन.इन आठों में प्रत्येक के पुन: आठ-आठ भेद होने से इनकी संख्या चौंसठ हो जाती है उपर्युक्त कथन के विरूद्घ वात्स्यायन लिखते हैं -बाभ्रवीय आचार्यों का यह मत उपयुक्त नही, क्योंकि एक तो इन आठ मैथुनों में से प्रत्येक मैथुन के आठ- आठ भेद नहीं है किसी मैथुन के अधिक भेद हैं तो किसी के कम. इसके अतिरिक्त बाभ्रवीयों के साम्प्रयोगिक अधिकरण में इन आठ मैथुनों के अलावा प्रहणन, विरूत, पुरूषेपसृप्त तथा चित्ररत आदि नाम से कई अन्य मैथुनों का भी उल्लेख हुआ है जिस प्रकार 'सप्तपर्ण Ó नाम से प्रसिद्घ वृक्ष सात पत्तों वाला नहीं होता, जिस प्रकार 'पंचवर्ण बलिÓ पांच वर्णे (रंगों) वाली नही होती, उसी प्रकार बाभ्रवीय आचार्यों के कथन को भी सामान्य रूप से रूढ़ वचन ही मानना चाहिए.1 पी नन्दी

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