शनिवार, 28 नवंबर 2009


बात मामाओं की


भगवान इस जीवन में मामा तो दुश्मन को भी न बनाये. गधा, घोड़ा, उल्लू या उसका प_ा सब चलेगा लेकिन मामा के लिए कोई स्कोप नहीं है. मुझे लगता है कि मामाओं की ये दुर्दशा इतिहास के मामा लोग कंस और शकुनि ने बनाई है. पहले शहर के स्कूली लौंडे पुलिस वालों को मामू कहकर पुकारते थे, पुलिस चिढ़ती भी खूब थी और कंस बनके डंडों से सेवा भी करती थी.दरअसल आज जिन मामा जी से आज मैं आपको मिलाना चाहता हूं वो ही बेहद अदभुत इंसान हैं. इनकी माइज के लोग सिंधु घाटी की सहायता के समय पाये जाते थे. बट, बैरल और बाडी सब रावण के अनुज जैसी है और आवाज ऐसी कि लोग सुनते डाइपर गीला कर दें. दशहरे के दिन ये बेचारे घर में ही लुके रहते हैं. पता नहीं कौन मुआ रावण समझ के पलीता लगाड़े. इन दिनों शहर के छोकरे मामा को वीडियोगेम बनाये हुए हैं जब देखो खेलते रहते हैं. शहर के एक विधायक ने सुलभ मनोरंजन के लिए अपनी निधि से इनके लिए एक चबूतरा भी बनवा दिया है. यहां शहर भर के कुरीच अपने मामा से खेलने आते हैं. गेंद जरा सी ढीली हुई नहीं कि बॉलर के ऊपर से छक्का पक्का समझो. मामा बेचारे छक्का खाये-खाये खुद छक्का बन गये हैं. मुझे तो डर लगता है कि किसी दिन पायल पांडे उन्हें अपनी टीम में शामिल न कर लें. इसीलिए सयाने पहले ही कह गये हैं कि लौंडे-लफाडिय़ों को मुंह नहीं लगाना चाहिए. अब मामा को समझाये कौन? मामा छूटते गरियाने लगता है. बात ठीक भी है शकुनि के तो एक सैकड़ा मांगे थे यहां पूरा शहर उनका भांजा है सबको झेलना मुश्किल काम है. मामा से खेलने वाले छोकरे सुबह से अड्डे पर लग जाते हैं दो एक घण्टे मामा से खेलने के बाद आई टॉनिक लेते हुए दूसरी सुबह का इंतजार करने लगते हैं. अगर आपके पास सुबह थोड़ा टाइम हो तो इस खेल में जरूर शामिल होइये, बहुत मजा आयेगा, मामा की गारंटी है भांजों के लिए.

छूट गई

ऊपर एक बात छूट गई थी मामा के बारे में प्रकाश पडऩे से रह गया था. उनका हाल न मोका और न तोका ठौर वाला हाल है. 1

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